हिम्मत (लघुकथा) : सविता मिश्रा 'अक्षजा'

Himmat (Laghukatha) : Savita Mishra Akshaja

पसीने में भीगी, थके कदमों से दिव्या अपनी मित्र नीता के साथ जिम करके बाहर आ रही थी। बैकयार्ड के दूसरे छोर पर भूतिया फिल्म के करेक्टर जैसे उस व्यक्ति को देख ठिठक कर बोली– “यार, इधर से नहीं चलते हैं। उस शॉपिंग माल का गार्ड बड़ी गंदी नजरों से घूरता है।”

“मीन्स दोहरा काम करता है! चल इधर से ही...!” कहकर नीता व्यंग्य से मुस्कुरा दी।

अंदर बैठे डर ने, थके शरीर में सोई हुई स्फूर्ति को जगाया तो दिव्या ने उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, “यार, उसने कुछ गंदे कमेन्ट कर दिए तो अच्छा नहीं लगेगा! हम ही रास्ता बदल लेते हैं। तू आज ही आई है, तुझे पता नहीं है कि कैसे खा जाने वाली आँखों से देखता है वह।”

“अरे! महीनों से जिमिंग करके भी डरती है ..उस मरियल से! चल, मैं हूँ न!” नीता उसे पकड़कर हिम्मत बंधाती हुई आगे बढ़ी ।

सामने से उन दोनों को आता देख स्टूल पर बैठा गार्ड, सतर्क हो गया। मुँह में बीड़ी दबाए वह एक टक उन्हें देखे जा रहा था। चंद मिनट बाद उसने माचीस की तीली जलाई और बीड़ी सुलगा ली। उन दोनों के पास आते ही, बेहयायी से मुस्कराते हुए गार्ड की नज़रें चौकन्नी हों उन दोनों को बारी-बारी से भेदने लगीं।

जब तक दोनों बिलकुल पास आतीं, गार्ड तब तक बीड़ी से एक लम्बा कस ले चुका था। बीड़ी का धुआँ अंदर जाते ही, अंदर का शैतान चेहरे पर विराजमान हो गया। दोनों को बगल से निकलते देखकर गार्ड ने बीड़ी के धुएँ को उनपर छोड़ दिया। चेहरा फिर बैकयार्ड की ओर घुमाते समय उसके मुखड़े पर शैतानी मुस्कुराहट टहल गयी।

उधर निढाल नीता, जब बीड़ी के धुएँ से प्रभावहीन हुई तो वह फुर्ती से पलटी और गार्ड के बदरंग चेहरे पर खींचकर एक तमाचा जड़ दिया।

जब तक कोई कुछ समझ पाता, वह गुर्रायी- “आँखें गार्डी करने में सजग रखो, लड़कियों के बदन नहीं, समझे! यह थप्पड़ सिर्फ आगाह करने के लिए है। आगे से तुम्हारी नजर उठी, तो हड्डियाँ तोड़ दूँगी।”

उसकी नजरें झुकीं तो उन दोनों के जाने के बाद भी, आती-जाती लड़कियों पर फिर नहीं उठीं। दिव्या, नीता से बोली- “यार! तू पहले क्यों नहीं थी यहाँ।”

“तुमने हिम्मत को छुपा लिया और डर को आगे कर दिया। मैंने इससे उलट किया, जो तू भी कर सकती है। पर चिंता न कर, अब मैं हूँ न।”

दिव्या के अंदर भी एक आवाज गूँजी– “बढ़ो, मैं हूँ न।”

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