हथियार (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Hathiyar (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
असीमा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि रणवीर एक ऐसा प्रस्ताव सामने रखेगा। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद वह बोली, “ऐसा भी हो सकता है ?"
“एकदम नामुमकिन भी नहीं है ?" रणवीर के स्वर में व्यंग्य के साथ तीखापन भी घुला था, “क्यों...इससे क्या गर्दन कट जाएगी?"
"बात गर्दन के कट जाने की नहीं हो रही है लेकिन..." असीमा ने आगे जोड़ा, "पिछले कई महीनों से भेंट-मुलाकात नहीं हुई है...अचानक इतने दिनों के बाद वहाँ जाकर ऐसा एक प्रस्ताव..."
"हो...हो...हो..." रणवीर के स्वर में अब भी वही कड़वाहट घुली हुई थी। उसने कहा, "अब ऐसा कौन है भला जो पति और बेटे को लेकर घर-गिरस्ती भी करे और 'प्रथम प्रेम' के द्वार पर रोज हाजिरी भी लगाए।...बोलो...!"
"बस करो...ऐसी बेहूदी बातें न करो तो अच्छा...।"
"वाह...पहले तो में एक भले आदमी की तरह ही बातें कर रहा था। तुमने ही सारा कुछ तोड़-मरोड़ दिया और मेरा मूड खराब कर दिया। इसमें मुश्किल क्या है भला ?...कम उम्र में खेला जाने वाला 'नैनमटक्का' लोग आसानी से नहीं भूलते...यह तो तुम मानती हो न...? घोषाल साहब भी अपने शुरू-शुरू के दिनों में तुम्हें प्यार भरी नजरों से देखा करते थे...अब अगर आज तुम उनसे कोई अनुरोध करो तो वे उसे पूरा कर खुश ही होंगे।"
असीमा गम्भीर हो गयी और बोली, “आँखमटक्का के बारे में तुम्हारी जानकारी खासी तगड़ी है। खैर, इस बात को जाने दो...और मान लो वे खुश हो भी गये तो में भला क्योंकर खश हो पाऊँगी? तुमने मेरे मान-सम्मान के बारे में कभी सोचा भी है ?"
रणवीर को यह सब सुनकर बड़ी हैरानी हई। वह उसी तेवर में कहता चला गया, “इसमें सोचने-समझने की बात क्या है भला ? उस आदमी के हाथ में...हॉ...क्या कहते हैं उसे, 'ईश्वर की कृपा से'...बड़ी ताकत है। वह चाहे तो मेरे लिए एक अच्छी-सी नौकरी का जुगाड़ कर सकता है। बस, याद दिलाने भर की बात है। अब इसे कहते हुए भी तुम अपने मान-सम्मान का रोना लेकर बैठ गयी। यह सब मेरी समझ में नहीं आता।..."
"तुम्हें कुछ समझाना तो और भी मुश्किल है...” कहती हुई असीमा खामख्वाह मेज पर पड़ी चीजों को सहेजने लगी।
रणवीर का जबड़ा और भी मिंच गया और माथे की त्योरियाँ चढ गयीं। उसने तीखे स्वर में कहा, "जिस मर्द को अपनी बीवी की खुशामद करनी पड़े उस पर लानत है...!"
"खुशामद...यह तुम मेरी खुशामद कर रहे हो ?" कहते-कहते असीमा का चेहरा लाल हो उठा।
"और नहीं तो क्या ?" रणवीर ने झंझलाकर कहा, "इतनी देर से जो कर रहा हूँ उसे किसी भी जुबान में खुशामद ही कहेंगे।...तम तो ऐसे बिदक रही हो जैसे कि में किसी के घर में आग लगाने को उकसा रहा हूँ। जबकि बात कुछ भी नहीं है। तुम्हारे साथ घोषाल साहब की पुरानी जान-पहचान है इसीलिए तुम उनके सामने बड़ी आसानी से मेरी बात रख सकती हो।...और तभी तो इतनी चिरौरी कर रहा हूँ।"
"अच्छा, इतना आसान है?"
असीमा के होठों पर हल्की-सी मुस्कान खेल जाती है। सचमुच...मीठी मुस्कान की सतरें...।
इतना आसान है सब कुछ !
ग्यारह साल तक कोई भेंट-मुलाकात न होने के बाद, देवव्रत के घर जाकर उससे मिले...और अपने बेकार पति के लिए कोई नौकरी जुगाड़ कर देने का आग्रह करे। यह सब करना-धरना इतना आसान है ? रणवीर के हिसाब से तो यह बड़ा सहज जान पड़ता है। देवव्रत इतने दिनों तक असीमा का सहपाठी रहा है और उसके साथ असीमा की गाढ़ी छनती भी रही है...इसे रणवीर जानता है। उसका वही पुराना सहपाठी अब अपनी काबलियत के बलबूते पर भाग्यलक्ष्मी को अपनी मटठी में कैद किये हुए है-इसकी सूचना भी रणवीर खुद लिये आया था। असीमा को सुनाने। 'घोषाल एण्ड कम्पनी' के लम्बे-चौड़े व्यापार और ताम-झाम के बारे में उसे जैसे ही पता चला, वह असीमा के पास दौड़ा चला आया।
असीमा ने इस बारे में कोई जिज्ञासा नहीं दिखायी बल्कि उसने नाराजगी दिखाते हुए कहा, “उसके ताम-झाम से मुझे क्या लेना-देना । जैसा है...उसका है...मेरे ठेंगे से..."
रणवीर ने अपना हाथ नचाकर, मुँह बिचकाकर और कन्धा उचकाकर हँसते-हँसते बताया, “अब चाहे जो हो...कभी तो उसके साथ बड़ा मधुर सम्बन्ध था। अब वह सातवें आसमान पर है...यह जानकर तुम्हें खशी होगी...इसीलिए बता रहा हूँ।"
लेकिन वह जो बता रहा है, वह तो कोई और बात है।
और उससे जुड़ा जो संकट है...वह तो और भी भारी है। देवव्रत एक बहुत बड़ी कम्पनी का भागीदार है...अगर वह चाहे तो चुटकी बजाते किसी को भी नौकरी दे सकता है।...इसलिए उसके पास जाकर गिड़गिड़ाओ...कि मेरे पति को अपने अधीन बहाल कर लो। नौकरी न होने के कारण में बाल-बच्चों के साथ बड़ी मुसीबत में फंस गयी हूँ।
छी...छी...छी...!
असीमा ने संयत स्वर में कहा, “सहज बने रहने और झेलने का माद्दा सबमें एक जैसा नहीं होता। वैसे मैं तुमसे ही पूछ रही हूँ...क्या तुम उसके मातहत काम कर सकोगे?"
"क्यों नहीं...भला इसमें पूछने की ऐसी क्या बात है ? हूँ..." रणधीर ने अपना मुँह उल्लू की तरह फैला दिया और बोला, “भिखमंगे की भी कोई इज्जत होती है ? काम नहीं कर पाऊँगा...तुम ऐसा क्यों कह रही हो ? अब मैं उसके साथ कोई हाथापाई या मुठभेड़ के लिए तो नहीं जा रहा हूँ ? वह तो मझे जानता भी नहीं। तभी तो मैं तुम्हें यह पट्टी पढ़ा रहा हूँ कि तुम उसके पास कुछ इस तरह जाना...जैसे कि चोरी-चोरी मिलने आयी हो। में, जैसा कि नियम है. परी औपचारिकता के साथ वहाँ नौकरी के लिए आवेदन दूंगा। तुम उसे मेरा नाम-पता बताकर मेरे मामले में थोड़ा ध्यान देने का अनुरोध कर आओगी...बस । बातों-बातों में बन गयी बात ! उसके बाद कौन किसको डालने जाता है घास ? और वह ठहरा खुद कम्पनी के मालिकों में एक...उसके सामने छोटे-मोटे कारिन्दों की क्या बिसात !"
असीमा ने गम्भीर स्वर में पूछा, "और अगर वह मुझे पहचान न पाया...तो? बड़े लोगों का अपने गरीब दोस्तों को भूल जाना ही ज्यादा सुविधाजनक और स्वाभाविक होता है। मान लो, वह मुझे पहचान न पाए या पहचानने से मुकर जाए तो...?"
"तुम तो खामख्वाह बात का बतंगड़ बना रही हो..." रणवीर ने मुस्कराते हुए आगे जोड़ा, "तुम अच्छी तरह जानती हो कि वह तुम्हें पहचान लेगा। में भी इसे खुब जानता हूँ, जिसने तुम्हें एक बार देख लिया वह जिन्दगी भर भूल नहीं सकता।"
असीमा का चेहरा एक बार फिर लाल हो गया। लेकिन उसमें कोई उतावलापन नहीं था। उसने बड़ी शान्ति से ही कहा, “मान लो, उसने पहचान भी लिया...लेकिन इस बात की क्या गारण्टी है कि वह मेरा अनुरोध स्वीकार कर लेगा ? ऐसा न हुआ तो मेरी इज्जत तो मिल गयी माटी में !"
“अनुरोध रखेगा कि नहीं...इस बात की कोई गारण्टी नहीं..." रणवीर ने कुटिल हँसी के साथ कहा, “इसकी गारण्टी है...जरूर है ! सौ फीसदी है, मुझे मालूम है।"
असीमा का चेहरा तमतमा उठा था, ऐसा लग रहा था कि वह अब अपनी जबान को काबू में रख नहीं पा रही है। तभी बोली, “अगर तुम्हें मालूम है तो मुझे किस साहस के बूते पर वहाँ भेज रहे हो?"
“अजीब परेशानी है...तुम मजाक तक नहीं समझती ?" रणवीर एक बार फिर ठठाकर हँस पड़ा और फिर बोला, “क्या तुम समझ नहीं पाती? तुम्ही हो मेरा साहस...मेरी शक्ति। मजाक की बात छोड़ो। घोषाल साहब पुरानी दोस्ती के नाते कभी 'न' नहीं कर पाएँगे, यह निश्चित है। अगर मैं भी उनकी जगह होता तो कभी 'न' नहीं कर पाता।"
"तो फिर ठीक है। मर्द ही मर्दो की बात समझ सकते हैं। लेकिन मैं यह सब नहीं कर पाऊँगी।"
"नहीं कर पाओगी...इतनी देर के बाद दो-टूक जवाब दे रही हो कि मैं नहीं कर पाऊँगी!"
"जवाब न दूं तो और क्या करूँ ? जो कर नहीं सकती...”
"हाँ, तुम भला करोगी क्यों ?" रणवीर ने उत्तेजित होते हुए कहा, "तुम्हारी इज्जत मिट्टी में मिल नहीं जाएगी ? तुम्हारा सम्मान भला नहीं ढह जाएगा ! मैं पूछता हैं. मान-सम्मान जैसी कोई चीज रह भी गयी है हमारे पास? तमने अपने चारों तरफ गौर से कभी देखा भी है ? घर-गिरस्ती के बारे में सोचा है...दोनों बच्चों की ओर तुम्हारा ध्यान जाता भी है ?"
पुराने तौर-तरीके वाले घर-संसार में, घर का अकेला कमाने-धमाने वाला ही अगर पिछले सत्रह महीनों से चुपचाप बैठा रहे और जिसे यह संसार चल्लाना पड़ता है, उसे यह सब जानने-समझने के लिए बाहर देखने की जरूरत कभी पड़ती भी है भला?
'तो भी...असीमा ने अपनी सूनी आँखों से एक बार सब कछ निहारा और उसकी सूनी नजरें पति पर आकर टिक गयीं। उसने कहा, "क्या मैं यह सब नहीं जानती ?"
"इसका कोई लक्षण तो मैं नहीं देखता। तुम तो अपना झूठा मान-सम्मान लेकर ही पड़ी हुई हो। अपने बच्चों के बारे में...उनके सुख-सन्तोष के बारे में कभी सोचा भी है? पता है...पिछले कई दिनों से घर में दूध तक नहीं आया है? कितने दिनों से..."
"रुको भी...!"
रणवीर यह सोच रहा था कि नारी का हृदय इन बातों को सुनकर पसीज उठता है। लेकिन असीमा के मुँह से 'रुको भी'...सुनकर उसका रहा-सहा विश्वास भी डिग गया।
लगता है...अब कोई दूसरा उपाय ढूँढ़ निकालना होगा।
इस बीच उसके चेहरे पर कई तरह के भाव आते-जाते रहे। अपने चेहरे को विकृत और कठोर बनाते हुए उसने अपनी बात को आगे बढ़ाया, “अच्छा...तो अब तुम्हारी डाँट भी खानी पड़ेगी। ठीक ही तो है...बेकार आदमी का कैसा मान-सम्मान...? अच्छा...तो अब भीख माँगकर ही गुजारा करूँगा। पति फुटपाथ पर खड़ा होकर भीख माँगेगा और बच्चे भूख से बिलबिलाकर चूहे की तरह मरते चले जाएँगे...पट...पट...। लेकिन इन सारी बातों से हमारी महारानी का क्या बिगड़ जाएगा ? उनकी शान को कोई बट्टा न लगे।"
लगता है...इस बार रणवीर ने जबरदस्त जाल बिछाया था...अब की बार असीमा क्या बहाना करेगी। रणवीर दबी-छिपी नजरों से असीमा की ओर देख ले रहा था। वह यह जानना चाहता था कि उसकी इस चाल की उस पर क्या प्रतिक्रिया हुई है।...लेकिन वह ठीक से समझ न पाया।
असीमा के चेहरे पर, गुस्सा, अपमान, दुख या अभिमान का कोई भाव न था। हाँ, चेहरे पर एक तरह की कठोरता अवश्य आ गयी थी जैसा कि पत्थर की मूर्ति में होती है। वहाँ कोई भंगिमा नहीं थी...लाज की लालिमा नहीं थी, किसी तरह की फीकी या उदास तरलता भी नहीं थी...बस एक तरह बेजान कठोरता भर थी।
"ठीक है...चली जाऊँगी..." और इतना कहकर असीमा कमरे से बाहर निकल गयी।
रणवीर अब थोड़ा-बहुत निश्चिन्त रह सकता था। असीमा ने जब एक बार कह दिया तो वह अपने वादे से कभी पीछे नहीं हटेगी। अगर वह एक बार वहाँ चली गयी तो उसका काम जरूर हो जाएगा...रणवीर को इस बात का पक्का भरोसा है।
घोषाल साहब के साथ उसकी पुरानी जान-पहचान है, इस बात की आड़ में पति की नौकरी के लिए आवेदन करने का प्रस्ताव सुनते ही असीमा की आँखों में जो आग सुलग उठी थी-रणवीर ने उसे भी ताड़ लिया था...उस आग का रूप और रंग कैसा हो सकता है...उसे पहचानने में रणवीर से कोई गलती नहीं हो सकती। वह इतना बुद्धू भी नहीं है।
अपनी बदकिस्मती के चलते ही आज रणवीर की यह हालत है...वर्ना लिखाई-पढ़ाई में वह घोषाल से रत्ती भर कम नहीं। घोषाल भी तो एक ग्रेजुएट ही है।
बस...अपनी-अपनी तकदीर है।
पद और पैसे वालों की तरफ जलन से देखते रहने और किस्मत को कोसते रहने के सिवा इन काहिलों को कुछ आता भी है?
...न तो ये कोई मेहनत-मजूरी करेंगे...न तो इनमें कोई सोच-समझ होती है...और न ही कोई जोड़-जुगाड़। बस...ले-देकर किस्मत का रोना रोते रहते हैं।
लेकिन जो भी हो, असीमा को समय रहते समझा-बुझाकर रास्ते पर लाना होगा। इतने दिनों के बाद असीमा एक छोटा-सा अनुरोध लेकर घोषाल साहब के पास जाएगी तो वे उसे अवश्य कृतार्थ करेंगे। मर्दो का स्वभाव कैसा होता है, कम-से-कम रणवीर तो इतना जानता ही है।
घर-गिरस्ती में रोज-रोज पैदा होने वाली मुश्किलें, रसोईघर और भण्डार में कुण्डली मारकर बैठा अभाव जहाँ अट्टहास कर रहा होता है वहीं चारों ओर से 'नहीं है'...'कुछ नहीं है' की लगातार सुनाई देने वाली टेर सुनाई पड़ती है। लेकिन एक तरफ रख दिये गये बक्से में तड़क-भड़क वाले कपड़े तो अब भी पड़े हैं। जेवर वगैरह तो फिर भी और बड़ी आसानी से हाथ से निकल जाते हैं लेकिन कपडे-लत्ते उनके मुकाबले कहीं ज्यादा दिनों तक साथ देते हैं। तभी कहीं बाहर जाते हुए मर्यादा की अब भी थोड़ी-बहुत रक्षा हो जाती है। इसीलिए असीमा सज-धजकर बाहर निकल गयी।
और जब लौटी...
....तो हाथ का बैनिटी बैग बिछावन के ऊपर फेंककर वहीं पलँग के एक कोने पर बैठ गयी। उसे इस बात का भी खयाल न रहा कि पहले अपनी कीमती रेशमी साड़ी को उतारकर ठीक से रख दे।
रणवीर खिड़की के पास ही रखी बेंत की एक कुर्सी पर चुपचाप बैठा था। असीमा को बाहर भेजने के बाद से ही वह बेचैनी, कण्ठा, शर्म, उतावली और मन में न जाने क्या-क्या लिये बैठा था। बाहर जाने की तैयारी के समय असीमा ने जिस तरह की कठोर चुप्पी ओढ़ ली थी उससे रणवीर अपने तई इतना भी साहस नहीं जुटा पाया था कि वह आगे बढ़कर उसका हौसला बनाये रखे।
असीमा के चले जाने के बाद वह अपने आपको समझा रहा था और अपनी सुरक्षा के लिए सारे तर्क जुटा रहा था। रणवीर कभी ऐसा तो न था ? क्या उसे अपने आत्म-सम्मान की सुध नहीं थी? लेकिन वह करे भी तो क्या...? अभाव के चलते स्वभाव नष्ट हो जाता है।
रणवीर दो मिनट तक खामोश पड़ा रहा, यह जानने के लिए कि असीमा अपनी तरफ से क्या कहती-करती है ? उफ...एक अजीब-सा सन्नाटा था। एक-एक मिनट एक घण्टा जान पड़ रहा था। नहीं...अब नहीं सही जाएगी यह चुप्पी। इसलिए दो मिनट तक इन्तजार करते रहने के बाद उसने कुर्सी को थोड़ा-सा घुमाया और फिर झटके के साथ बोल उठा, "जैसा कि तुम्हारा डर था कहीं वही बात तो नहीं हुई ? तुम्हारा वह रईस दोस्त तुम्हें पहचान नहीं पाया ?"
असीमा उठ खड़ी हुई रणवीर के सामने तनकर। उसके होठों के कोने पर व्यंग्य भरी मुस्कान खेल रही थी..."भला...पहचान कैसे नहीं पाता ? जिसने भी मुझे एक बार देख लिया है...वह भला कभी भूल सकता है मुझे ?"
रणवीर ने असीमा की तरफ देखा...सिर से पाँव तक। असीमा का वह तेवर कोई नयी बात नहीं है, बस भूली हुई-सी लगती है। महीनों हो गये असीमा का मेकअप से सजा-सँवरा और निखरा ऐसा खूबसूरत चेहरा देखा नहीं था। और...एक खास अदा के साथ रेशम की साड़ी में लिपटी उसकी यह सुडौल काया।
क्या इससे रणवीर को खुशी हुई ?
अगर ऐसा होता तो उसकी आँखें सुलग नहीं उठतीं इस तरह ? उसने अपना हाथ पिछले तीन-चार दिनों से गालों पर उग आयी दाढ़ी पर यूँ ही फिराया। इसके बाद बड़ी मुश्किल से उगायी गयी हँसी के साथ बोला, “मेरे ही हथियार से मेरा कत्ल किये जा रही हो? तुम्हारे वहाँ जाने का क्या नतीजा निकला आखिर ? अपना उतरा चेहरा देख रही हो?"
"तो और क्या करूँ ?" असीमा ने जैसे बड़ी हेठी के साथ होठों को भींचते हुए कहा, "दो सौ पचहत्तर रुपये की एक छोटी-सी नौकरी मिल भी गयी तो मारे खुशी के नाचने लगूं ? कोई बात हुई ?"
दो सौ पचहत्तर ? दो सौ पचहत्तर रुपये की नौकरी ?
रणवीर को उसकी पिछली नौकरी में भी कभी इतनी रकम नहीं मिलती थी। उसने बड़ी मुश्किल से होठों पर आती हँसी को कुचलते हुए पूछा, "बात क्या है ?...सच कहा तुमने...तुम मजाक तो नहीं कर रही हो?"
"मुझे क्या पड़ी है कि मैं तुमसे मजाक करती रहूँ ?"
रणवीर के चेहरे पर एक तरह की निराशा और कातर आँखों में विचित्र लालसा-सी जाग उठी थी। नौकरी मिल गयी, इससे बड़ी खुशी की बात और क्या है भला ? वैसे रुपये का आँकड़ा अवश्य ही उतावली पैदा कर देने वाला था। और जैसा बताया गया था ठीक वैसा ही हुआ। सचमुच, असीमा की अब भी कोई-न-कोई कीमत तो है। सिर्फ आँखों में ही नहीं, उसके सारे शरीर में एक नामालूम-आँच है।...रणवीर को जैसे इस बात की उम्मीद हो चली थी कि उसका काम नहीं होने वाला। और अगर बात बनी न होती तो उसे कहीं ज्यादा खुशी होती।
ज्यादा-से-ज्यादा यही होता कि कुछ और महीनों तक घर में दूध नहीं आता। बच्चों की देह पर उभर आनेवाली ऊबड़-खाबड़ हड्डियाँ कुछ और नुकीली हो जातीं।...यही होता न...
हाँ...हाँ., बहुत कुछ हो जाता..अप्रिय और अनिष्टकर..लेकिन रणवीर अपनी ही आँखों में इतना गिर तो न जाता। असीमा को जबरदस्ती बाहर भेज देने के पीछे जो ताकत काम कर रही थी...वह किसी नौकरी पाने की आशा से नहीं बल्कि नौकरी पाने और न कर पाने की इच्छा से...।
लेकिन बात जो भी हो...बताना तो चाहिए।
घात लगाकर जानना पड़ेगा कि इसके लिए उसे क्या-कुछ कहना-करना पड़ा...कौन-सी जुगत भिड़ानी पड़ी। इस बीच अपने को तसल्ली देने का कोई बहाना मिल जाएगा।
"तो फिर जाते ही भेंट हो गयी थी उससे ?"
"मिलता नहीं तो मैं इतनी जल्दी लौट कैसे आती ?"
“मैंने तो सोचा था कि वह ठहरा तुम्हारा पुराना दोस्त...तुम्हें जल्दी छोड़ेगा नहीं...रोके रखेगा।"
रणवीर के धीरे-धीरे स्याह होते जाते मुँह की ओर आँखें फाड़कर देखते हुए असीमा ने अपनी खनकती आवाज में कहा, "तम्हारा सोचना कुछ गलत नहीं था। खाली और बीमार दिमाग शैतान का कारखाना होता है...इस बात को तो बच्चे भी जानते हैं।"
रणवीर अचानक कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और उसे धमकाते हुए बोला, "बातों-बातों में ही मत बहलाओ...वहाँ क्या हुआ...ठीक से बताओ!"
लेकिन असीमा न तो इस धमकी से तनिक भी विचलित हई...और न ही उसके पाँव कँपे। उसने बड़ी स्थिरता से आहिस्ता-आहिस्ता बताना शुरू किया...बड़े आराम से, "इसमें बताने को ऐसा है भी क्या? वहाँ गयी...सब कुछ बताया और बात बन गयी। नियुक्ति-पत्र मिला और मैं कृतार्थ हो गयी। कल से ही जाना पड़ेगा।"
इतनी जल्दी...नियुक्ति-पत्र मिल गया...कल से ही जाना पड़ेगा ? मानो इतनी देर तक वह किसी तपती और पिघलती राह से गुजरता हुआ उसे पीछे छोड़ आया था। "काम क्या है...इस बारे में तो मैं कुछ जान ही नहीं पाया। यह भी नहीं सोच पाया कि काम मेरे लायक है भी या नहीं ?...एकबारगी नियुक्ति-पत्र मिल गया...अगर मैं कल न जाऊँ तो...?"
असीमा की हँसी अचानक उसके कानों में पड़ी...यह कोई साधारण हँसी नहीं थी...ऐसी हँसी शायद कभी इस घर में नहीं गूँजी थी-यह हँसी दीवार से टकराकर छत तक फैल गयी थी...किसी झरने की कल-कल की तरह...किसी घण्टी की ध्वनि की तरह...
"भला तुम्हारे जाने की क्या जरूरत है ? मैं अकेली ही चली जाया करूँगी। दफ्तर तो पास ही, धर्मतल्ला में ही है...वहाँ तक जाने में मैं कोई रास्ता नहीं भूल जाऊँगी..."
“अच्छा, तो यह नौकरी तुम्हें मिली है...मुझे नहीं !" रणवीर जैसा चीखना चाहता था पर थम गया।
“और क्या ? मुझे यह अच्छी तरह मालूम था कि तुम इसके लिए मरते दम तक राजी नहीं होगे।...है न ! और तभी मैंने तुम्हारा नाम लिये बगैर...अपने बारे में ही बातें की थीं। मैंने कहा कि दूसरे के पैसे पर रोटियाँ तोड़ते-तोड़ते उकता-सी गयी हूँ। छोटी-मोटी कोई नौकरी मिल जाए तो करना चाहूँगी। उसने कहा, क्यों नहीं अभी ले लो...और मुझ पर कृपा करो।"
सुनने वालों के मुँह पर और भी स्याही फिर गयी थी। जान पड़ा कि वह जलकर काली ही हो गयी है। असीमा ने ऐसा करने में अपनी तरफ से कुछ उठा न रखा।
जो स्त्री अपने छोटे-से एकान्त और शान्त घर-संसार में आग लगाने को मजबूर की गयी थी, उसे अब एक पराये घर में आग लगाते हुए भला क्यों हिचक होती ? ऐसी भावुकता से उसने अपने आपको मुक्त कर लिया था।
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)