अनोखी कुश्ती (बाल कहानी) : कर्मजीत सिंह गठवाला

Anokhi Kushti (Hindi Baal Kahani) : Karamjit Singh Gathwala

बहुत समय पहले की बात है, एक गाँव में दो आदमी रहते थे। उम्र, कद-काठ और स्वभाव में वे एक जैसे थे। वे हमेशा साथ रहते और जब कभी अकेले रहना पड़ता तो उनको लगता जैसे समय उन्हें दुखी करने के लिए ठहर गया हो। ज़िंदगी में चाहे कितने भी दुख और मुसीबतें क्यों न आईं, दोनों ने एक-दूसरे का हाथ इस तरह थामा जैसे दो जिस्म एक जान हों। उनके नाम खुशिआ और हसुआ थे। उनकी कई कहानियाँ और किस्से लोग आज भी बड़े चाव से याद करते हैं।

बुज़ुर्ग कहते हैं कि एक बार उनके मन में विचार आया कि क्यों न बाहर जाकर दुनिया देखी जाए। बस फिर क्या था दोनों ने तैयारी कस ली और चल पड़े । वे कितने ही शहरों, गाँवों और कस्बों में घूमे। कितने ही जंगलों और नदियों को पार किया । ऐसे ही घूमते-घूमते वे एक बार किसी गाँव के बाहर पहुँचे। वहां उन्होंने बहुत बड़ी भीड़ देखी। उन्होंने सोचा, 'यह कैसी भीड़ है? चलो खुद ही देख लेते हैं।' उन्होंने देखा सामने अखाड़ा खोदा गया था और कुश्ती की तैयारी हो रही थी। यह सारे लोग बाघा और शेरा की कुश्ती देखने के लिए आए थे।

दोनों के बीच कुश्ती शुरू हो गई, दोनों ही बहुत मज़बूत पहलवान थे। भीड़ में कई लोग चिल्लाने भी लगे। जब दोनों में से कोई दांव लगाता, तो भीड़ में से कोई ताली बजाता और फिर क्या होता, बस पूछिए मत; उसके पीछे तालियों की बौछार होने लगती। जब वे एक-दूसरे के दांव-पेंच को बचाते तो शोर मच जाता। काफ़ी देर तक ऐसे ही कुश्ती चलती रही, ऐसा लग रहा था कि दोनों में से कोई हारेगा नहीं।

भीड़ बढ़ती ही चली जा रही थी। इतने में शेरे ने जरा सा भीड़ की तरफ देखा और बाघे ने ऐसा दांव लगाया के शेरा चित्त हो गया । लोग चिल्लाने लगे और आसमान तालियों से गूंज उठा। बाघा खुशी के मारे कुलांचें भरने लगा और तालियाँ बजाने लगा। लोगों ने उसे अपने कंधों पर उठा लिया। शेरा उदास होकर एक तरफ़ बैठ गया। वह मायूस होकर सोचने लगा, 'मैंने भी तो कोई कसर नहीं छोड़ी।' किसी ने उसकी परवाह तक नहीं की।

यह देखकर हसुआ गाँव के मुखिया के पास गया। उसने मुखिया से पूछा,
"अगर मैं और मेरा साथी तुम्हें कुश्ती दिखाएँ, तो तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं होगी ?"

गाँव का मुखिया थोड़ा मुस्कुराया और बोला, 'नहीं, भला इसमें हमें क्या आपत्ति हो सकती है।'

खुशिआ और हसुआ कमर में लंगोट बाँधे अखाड़े में आ गए। काफ़ी देर तक दोनों ने अपने अद्भुत कौशल का प्रदर्शन किया। लोग उनके दांव-पेचों की सराहना करते रहे। बाघा और शेरा भी इस लड़ाई का आनंद ले रहे थे। सब एक-दूसरे के आगे खड़े होकर कुश्ती देखने की कोशिश करने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे दोनों ने मिलकर मेला लूट लिया हो। आखिरकार, खुशिए ने हसुए को पटक दिया। लोग एक-दूसरे से बढ़ चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे ।

यह क्या ? हसुआ भी खुशी से नाचने लगा। शेरा, बाघा और कई अन्य लोग अचंभित होकर उसे निहारने लगे।

उनमें से एक ने उससे पूछा, "तुम तो कुश्ती हार गए हो, फिर भी इतने खुश क्यों हो?"

वह फिर हँसा और बोला, "मैं खुश क्यों न होऊँ? मैंने भी अपनी तरफ़ से बेहतरीन कुश्ती दिखाई, तभी तो मेरे साथी ने इतनी अच्छी कुश्ती दिखाई और मुझे हरा दिया। अगर मैं इतनी अच्छी कुश्ती नहीं दिखाता, तो वह भी अच्छी कुश्ती कैसे दिखा पाता? और वैसे, वह भी तो मेरा दोस्त ही है।"

गाँव के मुखिया को बात समझ में आ गई। इनाम देते हुए उसने शेरे को भी बराबर का सम्मान और इनाम दिया और हसुए-खुशिए को कई दिनों तक अपने गाँव में मेहमान बनाकर रखा।

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