हर्ष के आँसू : आनंद प्रकाश जैन

Harsha Ke Aansu : Anand Prakash Jain

ईसा की सातवीं शताब्दी के चौथे वर्ष में उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध और प्राचीन गुरुकुल से तीन स्नातक तीन महत्त्वपूर्ण परीक्षाओं में सफल होकर निकले। ध्रुवसेन नामक एक युवक ने चिकित्सा शास्त्र में एक नवीन और तीव्र विष की बढ़ोतरी करके आचार्यों द्वारा परिश्रम से ढूँढकर लाए एक विषम छूत के रोगी को निरोगी कर दिया। उसका छोटा भाई कीर्तिसेन शस्त्र युद्ध में औरों से बाजी ले गया।

तीसरा स्नातक तत्कालीन वर्धन साम्राज्य की राजधानी थानेश्वर के प्रधान पुरोहित की बीस वर्षीय कन्या ज्ञानमित्रा थी । उसने राजनीतिक और दार्शनिक वाद-विवाद में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया।

तुमुल कर्तल ध्वनि के बीच जब द्वार के दोनों ओर बनी सफेद पट्टियों में से एक पर उस वर्ष के स्नातकों का नाम सुंदर अक्षरों में लिखा जा रहा था, आचार्यों ने उन्हें अपने ज्ञान एवं कौशल द्वारा मनुष्य मात्र की सेवा का आदेश दिया और संसार में सफलता हासिल करने के लिए अपने हार्दिक आशीर्वाद भी दिए।

ऊँचे कंगूरे वाले रथ में बैठकर तीनों ने गुरुकुल को अंतिम प्रणाम किया। रथ उन्हें लेकर तीव्र गति से थानेश्वर की ओर दौड़ने लगा।

वन की सुखद वायु ने यात्रियों को बातचीत के लिए उत्साहित किया। बातचीत के बीच ज्ञानमित्रा ने कीर्तिसेन से पूछा—

"तुम्हारे माथे की दाई तरफ यह चोट का निशान कैसा है?"

आत्मविभोर होकर कीर्तिसेन ने बड़े भाई की सोती हुई मुखमुद्रा को देखा। "बड़ी पुरानी बात है, बचपन की। जब मैं इतना सा था, तो ध्रुव भैया को मुझे लेकर घूमने का बड़ा शौक था। अपने इसी शौक के कारण एक दिन वह दुमंजिले के जीने से मुझे लिए दिए नीचे आ गिरे। याददाश्त के रूप में मुझे यह निशान मिला। मुझे बचाने की कोशिश में ध्रुव भैया की छाती में एक बड़ा और चौड़ा नुकीला पत्थर घुस जाने का चिह्न । " उसने सोते हुए ध्रुवसेन की छाती खोलकर दिखा दी। वहाँ किसी गहरे जख्म का बहुत पुराना निशान था ।

ध्रुवसेन के मुख की ओर श्रद्धा से देखते हुए ज्ञानमित्रा ने पूछा, “तुम्हें तुम्हारे भैया बहुत प्यारे हैं?"

"ओह! दुनिया की किसी भी वस्तु से अधिक!" कीर्तिसेन का उत्तर था। राजधानी में पहुँचने के कुछ समय बाद ही राजपुरोहित जयमित्र ने अपनी कन्या का विवाह ध्रुवसेन से करने का निश्चय किया। इसमें सबसे पहली सम्मति ज्ञानमित्रा की थी।

विवाह का प्रबंध बड़ा विशाल और विस्तीर्ण हुआ। बड़े गाजों बाजों और राजपुरुषों के आवागमन से मंडप शोभयमान हो उठे। उल्लास के साथ कीर्तिसेन को गले लगाकर ध्रुवसेन फेरे लेने के लिए मंडप में आया । एक खंभे के सहारे खड़ा कीर्तिसेन फेरों की संख्या गिन रहा था, "एक... दो...तीन... चार" और उसकी ओर देखकर मुसकरा रहा था।

जिस थूर जाति के भयानक विषधर को चुटीला करके ध्रुवसेन ने विष प्राप्त किया था, वह ध्रुवसेन के रक्त का प्यासा था और उसने वहाँ तक उसका पीछा किया था । कीर्तिसेन में भी वही रक्त बह रहा था। वही सर्प भी खंभे की ओट से झाँक रहा था। उसके चार गिनते ही उसने बड़े जोर से फन मारा। कीर्तिसेन पीड़ा से अंदर-ही-अंदर छटपटा गया। किंतु बड़े भाई की मुसकराहट और इस शुभ कार्य के बीच में रुकावट आने के भय से, बड़े कष्ट के साथ उसने गिनना जारी रखा, “पाँच... छह...सा... त,” और छटपटाता हुआ भूमि पर लोट गया। उसके नेत्र बंद हो गए।

"यह क्या हुआ! " ध्रुवसेन चिल्लाया और गठजोड़े से बँधी वधू के साथ वह उस ओर लपका। उसने साँप का मुँह पकड़कर उसे जमीन पर पटक-पटककर मार डाला। उसके घाव को मुँह से चूस चूसकर वह कुल्ले करने लगा।

लेकिन कीर्तिसेन नहीं उठा पागलों की तरह उसे कंधे पर लादकर वह दौड़ चला नववधू ने उसकी राह रोककर पूछा, "कहाँ जाते हो?"

"क्या तुम मुझे पागल समझती हो ? रास्ता छोड़ो!" ध्रुवसेन चिल्लाया। उसे एक हाथ से हटाकर सैकड़ों व्यक्तियों के बीच में से होकर वह जंगल की ओर भाग चला।

उसने सैकड़ों बूटियाँ आजमाई। विषधरों के बिल में हाथ डालकर कई साँप निकाले और पटक- पटककर मार डाले। उसके पैर लहूलुहान हो गए, किंतु वह अपने भाई को चेतन न कर सका।

उसकी तलाश करती ज्ञानमित्रा वन में भटकती फिरी । वह अर्ध-विक्षिप्त सी होकर उसे निरंतर खोज रही थी ।

मरे हुए साँपों के ढेर के बीच में वृक्ष के सहारे बैठे ध्रुवसेन ने पास की झाड़ी से एक निस्तेज फूल को तोड़कर हथेली से मसल डाला और थकान व भूख से निढाल होकर भाई की छाती पर हथेली फैलाए वह सो गया।

उसका जागरण एक साथ दो कारणों से हुआ। एक जंगली काला विषैला विषधर उसकी हथेली पर रह-रहकर फन मार रहा था और हाँफती, उसकी ओर भागती हुई ज्ञानमित्रा दूर से चिल्ला रही थी, "फेंककर बचाओ, बचाओ!"

चौंककर ध्रुवसेन ने अपना हाथ खींच लिया। उसकी हथेली पर घाव हो गए थे। ज्ञानमित्रा उससे आकर चिपट गई थी।

बहुत देर हो गई किंतु ध्रुवसेन को कुछ भी नशा अनुभव न हुआ। इतनी देर में तो उसे मर जाना चाहिए था। उसने नजर उठाई तो देखा कि उसको काटनेवाला सर्प निष्णात होकर मरे हुए साँपों के ढेर में बीच में पड़ा था।

उसने सुबकती हुई ज्ञानमित्रा को झटककर परे गिराया। झटपट उठकर उसने उसी झाड़ी को उखाड़ डाला। और उसकी जड़ को एक पत्थर पर घिसकर उसका लेप कीर्तिसेन के घावों और उसकी जीभ पर लगा दिया। जरा ही देर में कीर्तिसेन ने नेत्र खोल दिए ।

प्रसन्नता से उछलते-कूदते जिस समय तीनों घर लौटे, तो चारों ओर से बधाइयों की बौछार होने लगी। उसी समय ध्रुवसेन को राज चिकित्सक आचार्य दत्रे का संदेश मिला। उसकी सुकीर्ति से प्रभावित होकर आचार्य ने मृत्यु शैया पर पड़े महाराज प्रभाकरवर्धन की चिकित्सा का भार उसके कंधों पर डालने का निश्चय किया।

आचार्य दत्रे के साथ ध्रुवसेन ने महाराज के शयन कक्ष में प्रवेश किया। महल में पाली हुई एक काली बिल्ली, जिसके गले में जड़ाऊ पट्टी पड़ी हुई थी, वह उसका रास्ता काट गई।

"यह अशुभ है।" ध्रुवसेन ने कहा ।

"यह बात नहीं," आचार्य दत्रे बोले, "हमारे राज पुरोहित ने एक नई खोज की है कि किसी अशुभ को यदि सशरीर घर में लाकर बैठा दिया जाए, तो सारे अशुभ घर के देवता बन जाते हैं।" वे बड़े जोर से हँसे, "ज्योतिष शास्त्र में हलचल पैदा हो गई है! "

महाराज के रोग का निदान करके ध्रुवसेन ने उन्हें तब तक के लिए औषधी की एक पुडिया दे दी, जब तक जंगल से वह बूटी और शल्य चिकित्सा का प्रबंध करके वापस न लौट आए।

इतिहास बताता है कि महाराज प्रभाकरवर्धन और अधिक समय तक जीवित नहीं रह सके। इसका कारण था उपचारकों का एक भ्रम, जिसका असर वर्धन साम्राज्य पर चिर काल तक रहा। न केवल महाराज की ही प्राण-हानि हुई, अपितु निरीह प्रजा ने भी इस भ्रम का मूल्य अपार जनधन से दिया।

बंगाल का तत्कालीन शासक शशांक युद्ध में जितना कुशल था, उतना ही धूर्त भी था । येन-केन- प्रकारेण विरोधी को मात देना उसकी प्रमुख नीति थी। प्रभाकरवर्धन के राजमहलों की मुख्य परिचारिका उसकी गोट बनी। परिचारकों, पंडितों और सेनापतियों का महाराज के पास निरंतर आवागमन हो रहा था। उस बीच उसने उपर्युक्त औषधि की पुडिया चतुराई से बदल दी ।

संध्या तक महाराज की दशा शोचनीय हो गई। महाप्रतिहार ने स्वयं अपने हाथों से वह पुडिया ताजे दूध में घोलकर स्वर्ण पात्र में रख दी।

प्रभाकरवर्धन का छोटा पुत्र हर्ष स्वर्ण पात्र हाथ में लेकर अपने पिता को औषधि पान कराने के लिए आगे बढ़ा। महाराज के ऊपर झुके हुए आचार्य ने उसी क्षण घोषणा कर दी, "महाराज प्रभाकरवर्धन की आत्मा अनंत की ओर पलायन कर चुकी है।" यह कहकर उन्होंने अलक्ष्य के प्रति प्रार्थना के लिए झुककर अपने घुटने जमीन पर टेक दिए।

विस्फारित नेत्रों से देखता हर्षवर्धन अविचल खड़ा ही रह गया। स्वर्ण पात्र उसके हाथों से छूटकर चूर-चूर हो गया। राजशैया के नीचे से एक काली अशुभ बिल्ली बाहर निकली और बिखरे हुए दूध को चाटने लगी।

उसी क्षण यह समाचार वायुवेग से पूरी राजधानी में फैल गया। महासेनापति शूरसेन और प्रधान न्यायाधीश ने एक साथ स्थिर गति से मृत्युकक्ष में प्रवेश किया। अकस्मात् ही शूरसेन चिल्लाया, "यह क्या?"

काली बिल्ली नेत्र फैलाए, असीम वेदना का भाव मुख पर लिये धरती पर अचेतन पड़ी थी।

इसका परिणाम यह हुआ कि ध्रुवसेन के ऊपर अशुभ परेशानियों का वह पहाड़ घहराकर टूट पड़ा। औषधि के रूप में इस दुष्ट चिकित्सक ने राज्य के सर्वोच्च स्तंभ को विष द्वारा नष्ट कर देने की दुरभिसंधि की थी!

औषधि और शल्य-चिकित्सा का प्रबंध करके जब ध्रुवसेन वापस लौटा, तो राज्य के क्रूर जबड़ों ने उसे बंदी बना लिया।

हर्षवर्धन गुस्से में पागल हो उठा, "इस व्यक्ति के ऊपर दया न की जाए। यह कुरु-पांचाल के इस विस्तृत प्रदेश का सबसे बड़ा अपराधी है। इसने गुरुकुल के पवित्र और प्रातः स्मरणीय नाम को अपनी कुचेष्टाओं से कलंकित किया है।"

प्रधान न्यायाधीश ने तिरस्कार से अपराधी की ओर देखा। लोगों ने घृणा से उसकी ओर मुँह करके थूक दिया। वर्धन साम्राज्य का जो न्याय में दूध का दूध और पानी का पानी कर देने में प्रसिद्ध था, आज उसका एक छोटा सा तमाशा बन गया था। उस तमाशे में नवपरिणीता ज्ञानमित्रा भी सौम्यता, गंभीरता, प्रताडित और विचलित भावनाओं का अपूर्व सम्मिश्रण मुख पर लिये वहीं मौजूद थी। हृदय में इस अभूतपूर्व अन्याय से उत्पन्न भ्रातृ-प्रेम की धधकती ज्वाला और क्षोभ से लाल हुई आँखों से कीर्तिसेन ने भाई के अकृत अपराध का आरोप सुना ।

अपराधी की भावनाओं को तीव्र करने और पश्चात्ताप में सिर धुनवाने के लिए निर्णय को गुप्त रखा गया। कारागार की राह में बंदियों के आदान-प्रदान का अकथनीय दृश्य था । शूली - गृह के द्वार पर हर्षवर्धन के दोनों ओर निकट संबंधी और सहपाठी निर्णय का परिणाम जानने की प्रतीक्षा में घूम रहे थे । कहीं उसके निशान नहीं मिले। नेत्रों के ताप को हाथ से ढककर कीर्तिसेन ने व्यथित होकर पुकारा –“प्रभु, यह स्थिति असह्य है। इसके प्रतिकार में क्रूर राज्यवर्धन के साम्राज्य को पीड़ा से आतंकित होना होगा । "

विक्षिप्त भावनाओं का ऐसा प्रदर्शन ! चौंककर ज्ञानमित्रा ने कीर्तिसेन की ओर देखा । "मातृद्रोह की बात न करो, देवर। विधना के परिहास को शांत हृदय से निहारो। "

नववधू की यह शांति उस दिन भंग हो गई, जब अपराधी की गरदन पकड़कर उसे कालकोठरी की सुदृढ़ और गर्वोन्नत प्राचीरों में धकेल दिया गया।

“याद रखना,” उसने बंदी को सुनाते हुए घोषणा की, "यह आशाओं का अंधकूप है। इसमें जिसने भी आज तक प्रवेश किया, वापस नहीं लौटा। यहाँ से भागने की चेष्टा करनेवाले का पीछा विषबुझे तीरों से किया जाता है।"

बाहर खड़े निरीह दर्शकों को आतंकित करते हुए उसने प्राचीरों के भीतर से भीषण अट्टहास किया। मुख्य द्वार चरमराकर फिर किसी भाग्यहीन के स्वागत में खुलने के लिए बंद हो गया।

कीर्तिसेन घर लौटा, किंतु अपने मानस का संतुलन कालकूप की प्राचीरों में छोड़कर ।

उसने जलते नेत्रों से राज्यवर्धन का राज्यरोहण देखा। उसने भयानक व निश्चल निश्चय किया।

"इस पाप का प्रायश्चित्त, इस अन्याय का प्रतिकार राज्यवर्धन को अपने प्राण देकर चुकाना होगा।" उसकी अंगुलियाँ अपने मस्तिष्क की उसी चोट पर घूम रही थीं।

परिताप के बोझ से आहत ज्ञानमित्रा अपने हृदय की पीड़ा को अपने मुख पर प्रकट नहीं होने दे रही थी। उसका मस्तिष्क पूरी शक्ति लगाकर शरीर और भावनाओं के साथ दाँवपेंच खेल रहा था। अपने अंतर में चलते हुए आंदोलन से संघर्ष करते हुए उसने अपने अभागे और विक्षिप्त देवर का निश्चय सुना - "देवी, गुरुकुल में जो शक्ति और ज्ञान संचित किया, उसका प्रयोग किसी अन्य क्षेत्र की खोज करके करना होगा।"

"देवर, " ज्ञानमित्रा ने कहा, "यहाँ क्या अवसर कम हैं? इस दुःखद घटना से तुम्हारा दिमाग अस्थिर हो गया है।" उसने उसे कुछ दिन प्रवास करने की सलाह दी।

कीर्तिसेन प्रवास के लिए बंगाल की राजधानी गया, जहाँ का राजा शषांक बल और शस्त्र की प्रतियोगिताएँ आयोजित कर रहा था। उसकी तीव्र और कुशल बुद्धि से यह बात छिपी न रह सकी कि इन प्रतियोगिताओं में जो युवक प्रथम स्थान पाने वाला है, वह उसके देश का तो नहीं है। उसे महसूस हुआ कि उसका मन भी शांत नहीं है।

विजेता का नाम और पता जानकर शासक शशांक के नेत्रों में चमक आ गई। “महान् गुरुकुल का स्नातक ! उसका नाम कौशल में सदैव आदर के साथ लिया जाता है। हम विजेता को उप सेनापति के सम्मानित और वीरोचित पद से विभूषित करते हैं। "

अपने जीवन में इस प्रकार का अनपेक्षित परिवर्तन आने से कीर्तिसेन पुलकित हो उठा। क्या इसका लाभ उठाकर वह अपने अर्ध-प्राण राज्यवर्धन के कालकूप से मुक्त करा सकता है! क्या उसकी विज्ञ भाभी उसकी इस योजना में उसका साथ दे सकती है?"

और एक दिन राज्यवर्धन की सीमा लाँघकर एक अश्व तीव्रगति से ज्ञानमित्रा के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। राजकीय वस्त्रों से सुसज्जित अपने देवर की छवि देखकर ज्ञानमित्रा के हाथ में पकड़ी हुई पुस्तक उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ी। उसने उल्लसित मन से उसे आसन दिया और बोली, "मालूम होता है, मेरे देवर ने कहीं से राज-सम्मान प्राप्त किया है?"

"इस समय बंगाल का उपसेनापति देवी से बातें कर रहा है।" कीर्तिसेन ने उतनी ही प्रसन्नता के साथ उसे सूचना देते हुए उत्तर दिया।

ज्ञानमित्रा स्तंभित रह गई, "राजा शशांक का उपसेनापति ! देवर, कहीं अपनी मातृभूमि को तो नहीं बेच आए हो?"

कीर्तिसेन ने अपना आशय प्रकट करते हुए उससे पूछा, "इसका अर्थ यह नहीं है, देवी! इसका तात्पर्य है भाई ध्रुवसेन के प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार और उनकी स्वतंत्रता ! देवी प्रसन्न भाव से इस यज्ञ में योगदान दें। हम अवश्य ही विजयी होंगे।"

तिरस्कार और अंतर्पीड़ा से ज्ञानमित्रा के माथे पर रेखाएँ खिंच गई। "माँ का गला घोंटकर भाई को बचाना चाहते हो? हा देव, यह कैसा व्यापार है !"

उसी तिरस्कार के साथ कीर्तिसेन बोला, "कैसी माँ है वह, जो अपने एक पुत्र को तिल-तिल करके खा रही है? एक राज्य की इधर-उधर की सीमाएँ मिल जाएँ तो क्या वह माँ बन बैठती है?"

"कुतर्क से अनुचित को उचित नहीं ठहराया जा सकता, देवर! जो अधिपति न्याय की व्यवस्था करके प्रजाजन को सुरक्षा का आश्वासन देता है, निर्भय हो कमाने-खाने की प्रेरणा देता है, वह कभी भूल भी कर सकता है। इसीलिए क्या भूमि की वे सीधी-सादी सीमाएँ, जिसके अंदर खून-पसीने से उपजाया गया अन्न शत्रुओं और लुटेरों से सुरक्षित रहता है, माँ का पद पाने का हक खो देंगी? देवर, इन सीमाओं की सुरक्षा करने का प्रयत्न करो, नहीं तो माँ का वक्षस्थल फट जाएगा और प्राणदायक दूध की धारा रक्त बनकर फूट पड़ेगी।" यह बोलते हुए ज्ञानमित्रा के नेत्र अपलक उस पर जमे थे।

“मैं इस माँ के उस विषैले वक्षस्थल पर एक जोंक लगाना चाहता हूँ, जो प्राणदान के बजाय विषपान करा रहा है। समय बीतने पर राजनीति में स्नातक सुविज्ञ भाभी के हृदय से भाई के प्रति प्रेम हट सकता है। किंतु जिस भाई की रगों में बहता हुआ रक्त सदा अपने सहचर की याद दिलाता है, उसकी ममता खो नहीं सकती। धन्यवाद, मैं चलता हूँ।"

"देवर, " व्यंग्य से आहत आँखों में आए आँसुओं को पीकर ज्ञानमित्रा ने कठोर भाव से कहा, "मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगी । यदि तुम यहाँ से चले गए, तो याद रखो, मैं अपनी समस्त शक्ति से तुम्हारा विरोध करूँगी। तुम शायद नहीं जानते कि शस्त्र से राजनीति अधिक शक्तिशाली होती है।"

"तो देवी, आप शक्ति का प्रयोग करेंगी? करें, मैं तो चला। "

किंतु चलने से पहले कीर्तिसेन ने देखा कि ज्ञानमित्रा के हाथ में एक कटार चमचमा रही है। “यदि अपने स्थान से हिले तो यह कटार चूकेगी नहीं।"

कीर्तिसेन फिर भी नहीं रुका। कटार का निशाना तो नहीं चूका, कितु समय चूक गया । वह कीर्तिसेन के पीछे बंद हुए दरवाजे में जाकर धँस गई।

इस दूसरे प्रतिघात से विक्षुब्ध ज्ञानमित्रा अपने कर्तव्य के पालन हेतु राज्यवर्धन के सामने जा उपस्थित हुई । "बंगाल की ओर से एक भयानक और कपटपूर्ण आँधी उठने वाली है। साम्राज्य की रक्षा के लिए पड़ोसी राज्यों से संधि की जाए।"

राज्यवर्धन इस लड़की की विज्ञता पर संदेह कर रहा था, इसलिए उसने कोयले से फर्श पर राज्य की तत्कालीन सीमाओं का नक्शा खींच दिया। एक स्थान पर उँगली रखते हुए उसने बताया, "यह कन्नौज है। राज्य का यह सबसे संवेदनशील इलाका! यहाँ के राजा गृहवर्मन से श्रीमान की बहन का विवाह हो चुका है। सबसे पहले राजा शशांक का आक्रमण यहीं पर होगा। फिर श्रीमान को अपना आदर और सम्मान बचाने के लिए मजबूर होकर शत्रु की भूमि पर ही युद्ध करने के लिए प्रयाण करना होगा। दूसरे की भूमि पर युद्ध करना भारी पड़ सकता है।"

दूसरे ही दिन ज्ञानमित्रा की यह भविष्यवाणी सही सिद्ध हुई । गुप्तचारों ने सूचना दी कि मालवा के शासक ने कन्नौज पर चढ़ाई करके गृहवर्मन को मार गिराया और राज्यवर्धन की बहन राज्यश्री को कैद करके कारागार में डाल दिया है।

राज्यवर्धन अपने छोटे भाई हर्षवर्धन पर राजकाज का भार सौंपकर एक विशाल सेना साथ लेकर मालवा की ओर कूच कर गया और विजयी भी हुआ। लेकिन लौटते समय वह द्वंद्वयुद्ध करते हुए कीर्तिसेन के हाथों मारा गया।

कीर्तिसेन के हृदय में भाई के साथ हुए अन्याय के बदले की ज्वाला अभी शांत नहीं हुई थी। अपने शिविर में लौटते हुए मार्ग में उसे एक रोगी के दर्शन हुए। उसके शरीर पर ऐसे छूत के रोग के चिह्न थे, जिसकी परीक्षा में उसके भाई ध्रुवसेन ने अच्छा किया था। उसके मन में एक विचार उठा, जिससे उसकी आँखें चमक उठीं। गुप्त रूप से उसे चांडालों से उठवा लिया। फिर उसने राज्यवर्धन के एक सैनिक को मरवाकर, उसकी वरदी उस रोगी को पहनवाई और उसे राज्यवर्धन की सेना के बीच फिंकवा दिया।

धीरे-धीरे वह रोग फैलता चला गया। अपनी राजधानी तक लौटते हुए राज्यवर्धन की सेना कुत्तों की मौत मरने लगी। वहाँ से वह रोग प्रजा में भी फैल गया। उससे पीड़ित हो कुछ ही दिनों में सारा देश हाहाकार कर उठा। नित्य सैकड़ों अर्थियाँ राजमहल के सामने से गुजरतीं और हर्षवर्धन हाथ मलता रह जाता ।

ज्ञानमित्रा भी चिंतित हो उठी और एक दिन उसने राजा हर्षवर्धन से एकांत में भेंट करके बताया, " श्रीमान्, आपके कालकूप में कैद एक बंदी ने इसी रोग की दवा पर शोध कर, उसे अच्छा करके स्नातक की पदवी प्राप्त की थी। यदि श्रीमान् चाहें तो उसकी सेवाएँ प्राप्त करेंगे, तो संकट टल सकता है । "

हर्षवर्धन यह प्रस्ताव लेकर बंदीगृह में जाकर ध्रुवसेन से मिला। उसका शरीर सूखकर अस्थि-पंजर मात्र रह गया था। इस प्रस्ताव को सुन वह ठठाकर हँस पड़ा, "बचो सम्राट्, बचो! सारे देश को विष दिलाने की व्यवस्था कर रहे हो?"

हर्षवर्धन इस व्यंग्य के लिए तैयार नहीं था। उसने कहा, "ध्रुवसेन, वह न्याय न्यायाधीशों ने किया था । तुम्हें उसका परिताप मन में रखकर अपने कर्तव्य से मुँह नहीं फेरना चाहिए।"

"हूँ!" ध्रुवसेन की भृकुटी तन गई । " आज फिर सम्राट् कर्तव्य और न्याय की बातें कर रहे हैं। उसी के परिणामस्वरूप यह अकिंचन बंदी कालकूप के अंधकार में पड़ा कर्तव्य जैसी चीज को भूल चुका है। अब निर्दोषिता अंधकार की अभ्यस्त हो चुकी है। श्रीमान्, क्षमा करें। "

उसकी बातें सुन हर्ष क्षणभर के लिए स्तंभित खड़ा रह गया। बोला, "बंदी, तुम अपने लिए स्वतंत्रता का अपूर्व अवसर खो रहे हो । एक चिकित्सक को कभी चिकित्सा के लिए पात्र के दोष को नहीं देखना चाहिए। तुम इस अवसर पर अपने उस कलंक को धो सकते हो, जिसे तुम मिथ्या समझते हो।"

ध्रुवसेन ने दृढ़ होकर कहा, "काल की गति से जो मिथ्या कलंक मुझ पर लग गया था, मैं उसे कलंक नहीं मानता। इस कालकूप में उसके लिए मुझे लांछित करनेवाला कोई नहीं है।"

इस नैतिक मोर्चे से पराजित होकर हर्ष तो लौट आया, किंतु ज्ञानमित्रा ने एक बार और प्रयत्न करने की ठानी। पति से मिलने के लिए सोलह श्रृंगार करके वह कालकूप में उससे मिलने गई। ध्रुवसेन नाम के उस हड्डियों के ढाँचे को देखकर अपने आँसू रोके नहीं रोक पाई। उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। ध्रुवसेन निर्निमेष दृष्टि से उसे देखता रहा ।

आँसू पोंछते हुए उसने कहा, "देव, क्या सम्राट् ने आपसे कुछ प्रार्थना की थी ?"

"आज्ञा देने आए थे कि मैं अपना सारा अपमान और दुःख भूलकर फिर उनकी प्रजा को जीवनदान दूँ।"

“सम्राट् आज्ञा देने या प्रार्थना करने नहीं आए थे। देव, वह आपको ऋण चुकाने का अवसर देने आए थे। आपने गरुकुल के आचार्यों से जल्दी ही उस ऋण को चुकाने का वचन लिया था। काल की गति क्या कभी कर्ज की जिम्मेदारी को कम कर सकती है?"

"ज्ञान!" ध्रुवसेन व्यथित स्वर में बोला, “क्या तुम अपने कैदी और अपमानित पति से तर्क करने आई हो?"

"मैं तर्क नहीं करती, देव! न्याय की जिस भूख ने मेरे और देशवासियों के भाग्य पर मोहर लगा दी, जिस झूठे कलंक ने गुरुकुल का ऊँचा मस्तक नीचा कर दिया है, जिस पाप ने मेरे देवर जैसे निष्पाप प्राणी को देशद्रोही बना दिया है, मैं उसका परिमार्जन करने के लिए अपने देवता से आँचल पसारकर भीख माँग रही हूँ।" उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।

"क्या कहा तुमने? तुमने कीर्ति के बारे में कुछ कहा?" ध्रुवसेन चौंका।

राजा शशांक के साथ मिलकर उन्होंने सम्राट् राज्यवर्धन का वध किया है। शीघ्र ही एक बड़ी सेना लेकर वह शशांक के उपसेनापति के पद से हमारे देश को तहस-नहस करने आ रहे हैं। "

"ज्ञान, मैं इसी समय बाहर जाना चाहता हूँ। सम्राट् से कह दो, मैं उस व्यक्ति का सिर चाहता हूँ, जो अपने देश के साथ द्रोह कर रहा है।"

ध्रुवसेन को लेकर ज्ञानमित्रा बाहर आई। ध्रुवसेन देशवासियों की चिकित्सा में जी-जान से जुट गया। रोगी अच्छे हो-होकर उसे आशीषें देने लगे। तिरस्कार और कलंक का स्थान श्रद्धा और प्रशंसा ने ले लिया। कुछ ही दिनों में ध्रुवसेन देश का प्यारा और लाड़ला सितारा बन गया। वह सबसे अधिक आदरणीय व्यक्तियों में गिना जाने लगा।

एक दिन सम्राट् हर्षवर्धन बीमार पड़ गए। उनके लिए भी उसी प्रकार की पुडिया का प्रबंध करने के लिए ध्रुवसेन जंगल में बूटी लेने चला गया। किंतु इस बार पुडिया बदलती हुई दासी पकड़ी गई और उसे पता चला कि हर्षवर्धन का रोग उसे पकड़ने के लिए एक चाल मात्र थी। दासी को कालकूप की सजा मिली।

इसी समय राजा शशांक ने चढ़ाई कर दी। ज्ञानमित्रा के प्रयत्नों से पड़ोसी राज्य हर्ष के साथ मिल गए। ध्रुवसेन लड़ाई के शिकार जख्मियों की चिकित्सा करने रणक्षेत्र में गया। वहाँ उसे कीर्तिसेन ने देखा। उसे देखते ही वह भ्रातृप्रेम से विह्वल होकर मिलने के लिए उसकी ओर तेजी से बढ़ा। लेकिन ध्रुवसेन ने कठोर मुद्रा धारण करके उसे बंदी बनाने का हुक्म दिया।

राजा शशांक लड़ाई में हारकर भाग निकला।

कीर्तिसेन का न्याय करने के लिए सम्राट् ने ध्रुवसेन को न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया।

उद्वेलित भावनाओं और भ्रातृप्रेम से तृप्त हृदय के साथ नीची दृष्टि किए, उसने कीर्तिसेन को मृत्युदंड की सजा सुनाई। उसी समय उसकी छाती के पुराने घाव में पीड़ा उठ खड़ी हुई।

बुझे मन से वह घर वापस आया। मन की जलन को शांत करने की उसने भरसक कोशिश की। उसने चारों ओर की खिड़कियाँ खोल दीं। इस विचार से कि उसने अपने छोटे भाई को प्राणदंड दिया है, वह विक्षिप्त-सा होकर भोज-पत्र और कलम लेकर बैठ गया । प्राणदंड लिखता ही गया, लिखता ही गया । उस विचार में वह यह भी भूल गया कि वह अपने हाथ में कलम से बने घाव में से ही स्याही की जगह खून ले लेकर लिख रहा था ।

जो भी हो, उसे लिखे हुए भोज-पत्र उसके मन के द्वंद्व को दर्शाती हुई तेज हवा के झोंकों से उड़- उड़कर खुली खिड़कियों से बाहर हो गए। वे प्रजा के उन लोगों के हाथ लगे, जिन्हें ध्रुवसेन की सेवाओं का अवसर प्राप्त हुआ था।

एक शिष्टमंडल हर्ष के पास प्रार्थना-पत्र लेकर पहुँचा। देश की विभूति को बचाने के लिए कुछ करना आवश्यक था। अपराधी को दंड देने के लिए इतना भारी मूल्य नहीं दिया जा सकता था।

निश्चित समय पर फाँसी देने के लिए कीर्तिसेन को शूलीगृह ले जाया गया। सम्राट् और न्यायाधीश दोनों ही मौके पर उपस्थित थे। विक्षिप्त दृष्टि से ध्रुवसेन भाई को फाँसी के फंदे तक जाते देखता रहा । कीर्तिसेन ने एक बार जी भरकर ध्रुवसेन को देखा और प्रसन्न भाव से अपने प्राणोत्सर्ग करने के लिए आगे बढ़ चला।

इस अवसर पर ज्ञानमित्रा एक पुस्तक लेकर आ गई। वह बोली, "यह पुस्तक न्याय के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध स्वर्गीय सम्राट् विक्रमादित्य की धर्म-पुस्तक है। इसमें लिखा है कि प्राण दंड की सजा जब तक दो बार न लिखी जाए, किसी के प्राण नहीं लिये जा सकते। मनुष्य के प्राण इतने सस्ते नहीं होते। "

भोज-पत्र और कलम मँगाकर छाती के दर्द से व्याकुल ध्रुवसेन दूसरी बार दंडाज्ञा लिखने के लिए तत्पर हुआ।

इस बार हर्ष ने कहा, "देश के लिए हम अपने भाई की हत्या को क्षमा करते हैं। क्योंकि इन सबका कारण एक राजनीतिक भूल थी, इसलिए अपराधी पर लगे देशद्रोह का आरोप, सम्राट् की हैसियत से हम वापस लेते हैं।"

"ठहरिए, सम्राट् ठहरिए,'' हाथों में काँपती कलम लिये ध्रुवसेन चिल्लाया, "न्याय को अपना कर्तव्य पूरा करने दीजिए। भाई और सम्राट् का पद न्याय के सामने तुच्छ हैं। मैं दूसरी बार दंड-पत्र लिखूँगा।”

"तो यह देखो, " हर्ष ने भोज-पत्रों का बंडल खोल, उसमें से एक पत्र बाहर खींचा। खोलकर उसके सामने कर दिया, "क्या ये शब्द तुम्हारे लिखे हुए नहीं हैं?"

यह पत्र उन्हीं में से एक था, जिन्हें विक्षिप्त अवस्था में ध्रुवसेन ने अपने रक्त से लिखा था । उसमें लिखा था - "कीर्ति नियति का खिलौना है। वह निर्दोष है। उसे छोड़ दो। "

यह सुनकर ध्रुवसेन आँखें फाड़े उसे पढ़ता ही रह गया और सब हँस पड़े। उसकी आँखों से आँसू की दो बूँद पृथ्वी पर गिरकर पसर गई ये हर्ष के आँसू थे!

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