हंसराज रहबर : प्रेमचंद का 'उत्तराधिकारी' (निबंध) : पूरन मुद्गल

वह सात जन्म लेकर भी संतुष्ट नहीं था और आठवें जन्म की तैयारी में था। एक राष्ट्रीय पत्र के भेंटकर्ता को उसने कहा था कि यदि चौथी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ तो मैं उसका पहला सदस्य बनूंगा। लेकिन 23 जुलाई 1994 को मौत की दस्तक ने उसका सपना तोड़ दिया। जीवन के अंतिम दिनों तक कलम से रिश्ता निभाने वाले हिंदी के प्रगतिशील लेखक तथा क्रांतिकारी चिंतक हंसराज रहबर ने साहित्यिक मुद्दों पर सदा जुझारू रुख अपनाया। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व वे बीमार चल रहे थे। उन्हीं दिनों दिल्ली में फोन पर हुई बातचीत में वे काफी उत्तेजित जान पड़े। उत्तेजना का कारण उनकी बीमारी न होकर साहित्य से जुड़े कुछ तात्कालिक मुद्दे थे। अपने नए कहानी संग्रह 'पथ कुपथ' का जिक्र करते हुए दुःख और आक्रोश के स्वर में बोले, 'आज साहित्यकारों का भी माफिया बन गया है।' और अपनी निःशेष शक्ति संजोकर कहा, 'उनके खिलाफ लड़ाई छेड़ना जरूरी हो गया है। यहां आ जाओ विस्तार से बात करेंगे।' खेद रहा कि उनके शाहदरा स्थित निवास पर नहीं जा सका। 22 वर्ष पूर्व उनसे हुई पहली भेंट में ही रहबर इतने आत्मीय हो गए कि कालांतर में यह परिचय संबंधों की घनिष्ठता में बदल गया ।

अपने लघुकथा संग्रह की भूमिका के संबंध में हंसराज रहबर से पहली बार मिलने दिल्ली गया था। अक्षर प्रकाशन से उन्हें फोन किया। बोले- दरियागंज से शाहदरा के लिए अमुक नम्बर बस मिलेगी। बस से उतरकर राधू टाकीज के पास से डाकघर को जाने वाली सड़क... । मुझे उनके निवास पर पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं हुई। रहबर अपनी बैठक में थे। एक साधारण कमरा। मेज पर और अलमारी में किताबों के ढेर । एक दीवार पर मार्क्स और एंगल्स की तस्वीरें। आगे को झुकी मार्क्स की तस्वीर के पीछे का खाली स्थान एक गोरैया ने घोंसले के लिए उचित समझ लिया था। घोंसले के कुछ तिनके बाहर तक लटक रहे थे। कुछेक नीचे रखी मेज पर आ गिरे थे। मार्क्स की तस्वीर रहबर को अच्छी लगती थी। रहबर को वो घोंसला भी प्रिय था जिसे चिड़िया ने रहबर के आंगन में इधर-उधर बिखरे तिनकों से बनाया और जिस पर बैठकर वह सुबह-शाम चहचहाती।

रहबर की वेशभूषा, रहन-सहन बिल्कुल साधारण । उनकी बातचीत में सहजता और साफगोई । रहबर की रचनाएं 1938 से उर्दू-हिंदी की स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। सातवीं कक्षा में 'रहबर' तखल्लुस रखकर तुकबंदी शुरू की। उन्होंने उपन्यास, कहानी, जीवनी समालोचना आदि पर पचास के करीब पुस्तकें लिखीं।

रहबर का लेखन सोद्देश्य, सुबोध और तर्कसंगत है। उन्हीं के जीवन की तरह । इस दृष्टि से वे प्रेमचंद के बहुत निकट हैं। कलावादी लेखक रहबर की रचनाओं में कलाहीनता का दोष देखते हैं। लेकिन रहबर के अनुसार- 'ऐसे लेखक मानते हैं कि जटिलता में कला बसती है। वे केवल विशेषज्ञों के लिए लिखते हैं। कला की यह धारणा जन विरोधी है।' इस विषय में विष्णु प्रभाकर का संतुलित मत है- कहा जाता है कि रहबर सिद्धांतों से आक्रांत रहते हैं। उनके साहित्य पर भी वे हावी रहते हैं और कला उपेक्षित होती रहती है लेकिन मैं जानता हूं वे कभी-कभी उनसे मुक्त भी होते रहते हैं।

रहबर ने कभी अपने को वाद विशेष या व्यक्ति विशेष से नहीं बांधा। प्रगति की सही परिभाषा उनके तई यह थी कि जब किसी विचारधारा में कट्टरता और कठमुल्लावाद घर कर जाए तो उससे जुड़े रहना मानसिक जड़ता से अधिक कुछ नहीं है। उनकी आत्मकथा 'मेरे सात जन्म' इसी धारणा को परिपुष्ट करती है। चार खंडों में प्रकाशित पुस्तक की भूमिका में उन्होंने कहा कि 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त में तो मेरा विश्वास नहीं है पर यह अनुभव की बात है कि मनुष्य को प्रगतिशील अथवा क्रांतिकारी बने रहने के लिए एक जिंदगी में कई जन्म लेने पड़ते हैं। बदलने की इस प्रक्रिया में मेरे सात जन्म हो चुके हैं सनातनधर्मी, आर्यसमाजी, कांग्रेसी, सोशलिस्ट कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, मार्क्सी कम्युनिस्ट, नक्सलवादी ।

रहबर का जन्म गरीबी में हुआ और बचपन ही से गरीबी के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा। फिर जब राजनीति में भाग लेना शुरू किया तो यह संघर्ष देश की आजादी से जुड़ गया। ‘मेरी आप बीती जग बीती बन गई । अर्थात् यह किसी व्यक्ति विशेष की कहानी न होकर बीसवीं सदी के प्रारंभ से लेकर आज तक का हमारा सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास है।'

उनके दूसरे जन्म की कहानी रोचक तो है ही उसमें रहबर के क्रांतिकारी रुझान के बीज भी मौजूद हैं। इसी से उनके विचारों की विकास यात्रा शुरू हुई। स्थितियों और व्यक्तियों को खुली आंख से देखते हुए हर बात को तर्क के आधार पर स्वीकार करना उनका स्वभाव बन गया। कहानी यूं है - रहबर टोहाना में छठी कक्षा में पढ़ रहा था । वार्षिक परीक्षा देकर वह अपने गांव हरियाऊ संगवां आया। किसी ब्याह-शादी के सिलसिले में माँ मायके चली गई। छोटा भाई माडू और रहबर घर पर थे। अचानक छोटे भाई की आँखें आई और आठ-दस दिन तक दुखती रहीं। माँ ने मायके से लौट कर पूछा- 'वीरवार को पीर का दिया जलाया था ?”

'नहीं' रहबर ने कहा ।

'तुम से यह भूल हुई और इसी से नन्हे की आँखें दुखनी आईं।' माँ ने रोग का कारण बताया ।

माँ धर्मभीरू और रूढ़िवादी थी। बरसों से पीर की मजार पर दिया जलाती आ रही थी। मेंह, आँधी, तूफान कुछ भी हो, पीर के मजार पर दिया अवश्य जलेगा। यह काम बहुत बार रहबर खुद भी करता । इस बार नागा हुआ तो इसलिए कि माँ घर पर नहीं थी। शहर में चले जाने से रहबर की आदत छूट गई थी, उसे भी याद नहीं रहा ।

अगला वीरवार आया तो माँ ने दूना-तिगुना घी और अंगुली जितनी मोटी रूई की दो बत्तियाँ पीतल की प्याली में रखकर दीं और बेटे को हिदायत की कि वह इस बार दो दिये जलाकर पीर से भूल बख्शवाए और नन्हें की आँखें अच्छी हो जाने की प्रार्थना करे। रहबर घी और बत्तियाँ लेकर चला तो यह साधारण बात थी। पर चलते-चलते ना जाने क्यों उसके मन में आशंका उत्पन्न हुई- क्या छोटे भाई माडू की आँखें सचमुच पीर की नाराजगी से आईं। माँ तो ऐसा ही मानती है। किंतु सवाल यह है कि अगर भूल भी हुई तो इसमें माडू का क्या दोष है। भूल की सजा उसे ही क्यों मिली? रहबर को शहर का दोस्त जीतू याद आया जो माता-मसानी, पीर-फकीर और मूर्ति पूजा को ढोंग बताता था। एक आर्य समाजी बुजुर्ग का चेहरा दिखाई दिया जो कार्य और कारण के सिद्धान्त की व्याख्या किया करता था । इन्हीं विचारों की ऊहापोह में वह गाँव के जोहड़ के निकट पहुँच गया। पीर की मजार अभी आधा मील दूर थी। मजार पर मिट्टी के अनगिनत दिये रखे रहते थे जो चिकनाहट, धूल और धुएँ से भद्दे और काले दीख पड़ते थे । 'भद्दे और काले।' रहबर ने सस्वर कहा और वहीं रुक गया। सूरज डूब रहा था। उसकी किरणों से रहबर के चेहरे पर लालिमा फैल गई। उसने एक नजर डूबते सूरज पर और एक अपने भीतर डालते हुए प्याली से बत्तियाँ उठाकर हाथ के एक झटके के साथ जोहड़ में फेंक दीं। घी उसने चाट लिया।

दूसरे वीरवार को माँ ने कहा, 'देखा दो दिये जलाए तो भाई की आँखें चंगी हो गईं। जा इस बार भी तू ही दिया जलाने चला जा' 'मैं अब दिया जलाने नहीं जाऊँगा' कहते हुए रहबर ने जोहड़ में बत्तियाँ फेंकने की बात माँ से बताई तो वह अवाक् रह गई।

वह सनातनी से आर्य समाजी बन गया था। 'यह मेरा दूसरा जन्म था।' रहबर ने आत्मकथा में दर्ज किया।

जिला संगरूर (पंजाब) के गाँव हरियाऊ संगवां में 9 मार्च 1913 को एक साधारण परिवार में जन्मे रहबर के पास हिम्मत, मेहनत और क्रांतिधर्मा प्रतिभा के अलावा जिंदगी के सफर पर गामजन होने के लिए किसी और पाथेय का संबल नहीं था। लुधियाना और लाहौर में एम. ए. तक की शिक्षा अखबार बेचकर और ट्यूशनें पढ़ा कर पूरी की।

रहबर जब आर्य हाई स्कूल लुधियाना का विद्यार्थी था तो अपनी पढ़ाई और होस्टल का खर्च निकालने हेतु अखबार बेचता । बारह बजे स्कूल की छुट्टी होते ही वह अखबार बेचने निकल पड़ता। अखबार बेचना उसके लिए आजीविका का साधन तो था ही, उसकी शिक्षा का भी साधन बन गया। रहबर ने लिखा कि यही वास्तविक शिक्षा थी जिस पर उसके भविष्य की नींव पड़ी। कारण यह कि उन दिनों लाहौर में षड्यंत्र केस चल रहा था जिसमें बाईस क्रांतिकारी नौजवानों को अभियुक्त बनाया गया था। उनमें भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त असेम्बली में बम फेंक कर गिरफतार हुए थे। राजगुरु, सुखदेव, शिव वर्मा और जितेंद्रनाथ दास इत्यादि लाहौर और सहारनपुर की बम फैक्ट्रियों से अथवा क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए देश के विभिन्न भागों से गिरफतार करके लाए गए थे। जेल की हालत सुधारने के लिए उन्होंने दो महीने लंबी हड़ताल की। जितेंद्रनाथ दास 63 दिन की भूख हड़ताल के कारण जेल में शहीद हो गए। उसकी शहादत ने देश की सुप्त आत्मा को झकझोर दिया था और इन्कलाब जिंदाबाद का नारा हिमालय से कन्याकुमारी तक गूंज उठा था। असैम्बली में बम विस्फोट से रहबर में जिस नई चेतना का प्रादुर्भाव हुआ वह विकसित हो रही थी । अखबार से जुड़कर वह इस चेतना से जुड़ गया। जहां दूसरे हाकरों के लिए अखबार बेचने का उद्देश्य रोजी कमाना था वहीं इस काम ने रहबर के क्रांतिकारी दृष्टिकोण को पुख्तगी दी। वह क्रांतिकारियों की गतिविधियों का प्रचारक भी बना। स्टेशन पर जाकर वह पार्सल खुलते ही मुख पृष्ठ पर नजर डालता और सुर्खियां पढ़ लेता। क्रांतिकारी नौजवानों के मुकदमें में लोगों की विशेष रुचि थी। उनके विषय की सुर्खियों को वह बोलता तो लोग अखबार खरीदने को लपकते । कुछ लोग तो उसके सुख बोलने के अंदाज से ही स्थायी ग्राहक बन गए। रहबर ने कहा कि मैं सिर्फ अखबार बेचने के लिए सुर्खियाँ नहीं बोलता था। मेरे स्वर से सरफरोशी की वह तमन्ना भी ध्वनित होती थी जो विदेशी सत्ता के लिए चुनौती थी । दीये से दीया जलता है। जब वह होस्टल में दूसरे लड़को को ये खबरें सुनाता तो उनके मन में भी देशभक्ति और सरफरोशी की भावना उत्पन्न होती ।

स्कूल के वार्षिक उत्सव में स्कूल की गतिविधियों और प्रगति की रिपोर्ट पढ़ी गई, होशियार लड़कों को पुरस्कार बाँटे गए। इसके अलावा नई बात यह हुई कि मुख्याध्यापक ने रहबर को मंच पर बुलाया और कहा- हमें गर्व है कि हमारे स्कूल का यह विद्यार्थी न केवल पढ़ने में होशियार है बल्कि अखबार बेचकर अपना खर्च खुद चलाता है। हम श्रम के प्रति उसकी सम्मान भावना की सराहना करते हुए उसे 'सेल्फ हैल्प' का सर्टीफिकेट देते हैं। रहबर का सर गर्व से ऊँचा उठ गया। रहबर ने लिखाः सामाजिक दृष्टि से अखबार बेचना, हाकरी करना एक हेय कार्य है। जब मुझे 'अरे अखबार वाले' कहकर पुकारा जाता तो मेरे जन्मगत संस्कार आहत होते थे और मैं मन ही मन तिलमिला कर रह जाता। स्वावलंबी बन जाने की खुशी के बावजूद मन में एक प्रकार की ग्लानि बनी हुई थी। 'सेल्फ हेल्प' के सर्टीफिकेट ने इस आत्मग्लानि को मिटा दिया।

'मेरे सात जन्म' खंड-2 में बी. ए. तक पढ़ाई के लिए कशमकश तथा लेखन की शुरुआत के अनुभव हैं- लुधियाना के आर्य हाई स्कूल से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास करके वह डी.ए.वी. कालिज लाहौर का छात्र बन गया। मुख्याध्यापक ने डी. ए.वी. कालिज के प्रिंसीपल के नाम सिफारशी चिट्ठी दी थी जिससे फीस माफ हो गई। होस्टल की फीस खर्चा वहन करने में असमर्थ वह दिन में सहपाठियों के साथ होस्टल में रहता तो रात किसी मित्र के घर या धर्मशाला में । 'एक मित्र ने अग्रवाल आश्रम में रहने की व्यवस्था कर दी और एक छोटी सी ट्यूशन भी दिला दी।'

वह एक साप्ताहिक के सम्पादक की सात-आठ बरस की बेटी को अनारकली बाजार में पढ़ाने जाता। इस ट्यूशन का किस्सा रहबर की आत्मकथा में प्रकाशित क्या हुआ कि दिल्ली के साहित्यकारों और काफी हाउस में यह चर्चा का विषय बन गया। रहबर ने लिखा कि संपादक की बेटी के अलावा संपादक की एक स्थूल, बेडौल और काली कलूटी बहिन भी ट्यूशन के लिए आ बैठी। 27-28 वर्ष की वह महिला परित्यक्ता थी। पढ़ाई की आड़ में वह अपनी अतृप्त कामनाओं की तृप्ति चाहती थी। उसकी कामुकता तो खैर स्वाभाविक थी, पर छोटी लड़की की हरकतें और भी अजीब थीं। वह अकेले में चट अजारबंद की ओर हाथ बढ़ाती, मना करने पर भी न मानती, जिद करती और मचलती।' लड़की की अश्लील हरकतों का रहबर ने कुछ और चित्रण किया जो चर्चा का 'गर्म विषय' बन गया खुलकर रहबर को यह क्या हो गया। वह अब खुद को भी बेनकाब करने लग गया।

मैंने जब आत्मकथा का विवादास्पद अंश पढ़ा तो इस विषय में उन्हें पत्र लिखा तथा गाँधी-नेहरू-गालिब बेनकाब पुस्तकों की पृष्ठभूमि भी जाननी चाही । रहबर का जवाब उनके दिनांक 18-2-88 के मूल पत्र से उद्धृत है-

“... अब तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर" :

'मेरे सात जन्म' के दूसरे खंड की लड़की जो कुत्सित हरकतें करती है उसके लिए वे लोग जिम्मेवार हैं जिनके लिए पैसा, खाना-पीना ही सब कुछ है और उनके जीवन में संस्कृति का नितांत अभाव है। इससे बचपन से उसकी मासूमियत छीन लेने वाला कुत्सित वातावरण पैदा होता है। नन्ही लड़की की थुलथुल बुआ जिसे उसके पति ने त्याग दिया है चलती-फिरती अतृप्त वासना है। उसे भी इसी माहौल ने पैदा किया है।

“आत्मकथा लिखते समय मैंने यह महसूस किया है कि अतीत की वे छोटी-छोटी घटनाएँ जिनमें सामाजिक तथ्य होता है वे कभी भूलती नहीं। ऐसी घटनाओं ने बलात् अपने को लिखवाया है। पहले खंड में दो मुस्लिम युवतियों के मुझ से खत पढ़वाने लिखवाने की घटना अविस्मरणीय है। और मैं तुम्हें बताऊँ, इन दोनों घटनाओं ने पाठकों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया है।

" 'गाँधी बेनकाब' की भूमिका पढ़ लो। उसमें तीनों पुस्तकों की पृष्ठभूमि स्पष्ट कर दी गई है। छपने पर आम प्रतिक्रिया यह थी कि मेरा काम चरित्र हत्या अथवा टांग खींचना है। इसने मुझे अलगाव की स्थिति में डाल दिया था। मैं रेडियो और टेलीविजन पर ब्लैक लिस्ट हो गया और अब तक हूँ। लेकिन पाठक का रवैया बदला है। अब सभी पुस्तकें खोज - खोजकर पढ़ी जा रही हैं। पिछले दिनों 'नेहरू बेनकाब' का दूसरा संस्करण छपा। मुझे सत्य बात कहने-लिखने का श्रेय मिल रहा है।"

रहबर द्वारा लड़की और उसकी बुआ के व्यवहार का स्पष्टीकरण पाठकों, आलोचकों को कितना संतुष्ट करता है, इसका निर्णय वे स्वयं ही करेंगे।

लाहौर का ब्रेडला हॉल उन दिनों राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। वहाँ दो-दो रूपये महीने के काफी कमरे थे। रहबर ने वहीं रहने का मन बनाया। वहां पहुंचा तो कोई कमरा खाली नहीं मिला। नेक दिल कारकुन बाबू सिंह ने उसे आश्वस्त किया कि दो-चार दिन तक एक कमरा खाली हो जाएगा, फिलहाल वह हाल कमरे में अपना सामान रख ले। रहबर वहाँ रहने लगा। कमरे में तीन-चार कुर्सियाँ, एक बड़ी मेज, अल्मारियों में किताबें और पत्रिकाएँ थीं। वहीं एक उर्दू रिसाला 'आलमगीर' उसके हाथ लगा जो रूसी साहित्य का विशेषांक था उसमें गोगोल, चेखव, गोर्की की रचनाएं थीं। गोर्की के परिचय में उसके संघर्षमय जीवन का उल्लेख था। उसने जनता में रहकर जनता से सीखा और उसी अनुभव को कहानियों में उतारा तो वह एक अदना आदमी से विख्यात लेखक बन गया। पत्रिका में गोर्की की कहानी 'खजां की रात' रहबर को बहुत पसंद आई। " जारशाही के विरूद्ध आवाज बुलन्द करने वाले पुश्किन की कहानी 'हुक्म की बेगम' इतनी रोचक थी कि मैं सब कुछ भूल कर उसी में डूब गया। कहानी समाप्त हुई तो मुझे लगा कि मेरे भीतर कुछ टूट फूट गया है। मुझे कुछ विशेष उपलब्धि हुई है। रूसी साहित्य से मैं पहली बार परिचित हुआ। मेरे मन में दुनियां के प्रथम समाजवादी देश के प्रति प्यार का अंकुर फूटा और जीवनधारा अनजाने ही एक विशेष दिशा में मुड़ना शुरू हुई।"

बाबू सिंह ब्रेडला हॉल का मैनेजर था। ला0 लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कालिज से बाबू सिंह ने बी. ए. पास की थी। उसी की प्रेरणा से रहबर ने विक्टर ह्यूगो का 'ला मिजरेबल' पढ़ा। तभी उसने बालजाक फलाबेयर, एमिल जोला के उपन्यास, मोपासाँ की कहानियाँ, रूसो और वाल्टेयर का साहित्य मन लगाकर पढ़ा। उन्हीं दिनों राष्ट्रीय आंदोलन में दायें और बायें का संघर्ष तेज हुआ। वाम विचारकों ने ब्रेडला हाल के एक भाग पर कब्जा कर लिया था। कम्युनिस्ट पार्टी अवैध थी । अतः पंजाब के अधिकांश वामपंथी 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' में शामिल थे। मुंशी अहमददीन, सोढ़ी पिंडीदास, टीका राम सुखन, प्रिंसीपल छबीलदास, देवदत्त अटल, इंद्रदत्त आदि लाहौर में प्रमुख नेता थे। इनमें अधिकांश की स्थायी रिहायश ब्रेडला हाल में थी। रहबर के लिए वहाँ रहना राजनीतिक शिक्षा का साधन बन गया। ब्रेडला हाल का एक कमरा भगत सिंह परिवार के लिए सुरक्षित था। उसका गांव झुग्गी खासरियाँ लाहौर से 3-4 मील की दूरी पर था। दूसरा गाँव बंगा लायलपुर जिले में था ।

ब्रेडला हाल के माहौल, रूसी साहित्य, प्रेम चंद की कहानियों, आसपास की राजनीतिक हस्तियों के प्रभावाधीन रहबर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सदस्य बन गया। यह उसका 'चौथा जन्म' था। 'तीसरे जन्म' में वह अपने विदेशी कपड़ों की होली जला कर कांग्रेसी बना था ।

प्रेमचंद रहबर का प्रिय लेखक था। संयोग ऐसा हुआ कि अप्रेल 1936 में आर्य समाज गुरुकुल लाहौर की एक गोष्ठी में प्रेमचंद को अध्यक्षता करने के लिए बुलाया गया। रहबर उनसे मिलने को लालायित हो उठा। कालिज लाइब्रेरी में प्रेमचंद की जितनी पुस्तकें उपलब्ध थीं, रहबर ने वे सब पढ़ ली थीं। वह प्रेमचंद से उनके उपन्यासों और कहानियों के विषय में कुछ शंकाओं का समाधान चाहता था। लेकिन रहबर साहस नहीं जुटा पाया। उसने लिखा- प्रेमचंद ने खद्दर का कुर्ता-धोती पहना हुआ था, सिर पर नोकीली गाँधी टोपी भव्य चेहरे पर घनी मूंछें। मैंने इस व्यक्ति को देखा-सुना और गोष्ठी समाप्त हो जाने के उपरान्त बहुत करीब खड़ा देखता रहा लेकिन मुझे जो कुछ पूछना था, पूछने की हिम्मत नहीं हुई। भीति ने जुबान बंद कर दी । रहबर की कहानी 'ओवरकोट' दैनिक उर्दू 'प्रताप' में छपी तो उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। 'आपने आज का प्रताप पढ़ा है? देखिए, मेरी कहानी छपी है।' वह हर मिलने-जुलने वाले से पूछता और कहानी वाला पृष्ठ उसके सामने यों फैला देता 'जैसे एक दूसरे प्रेमचंद का उदय हुआ है।'

'चांद' पत्रिका में प्रेमचंद की कहानी 'कफन' पढ़ कर रहबर ने भी उसी तरह की कहानी लिखकर भेजी। किंतु कहानी वापिस आ गई। उसे 'चांद' के संपादक पर बहुत गुस्सा आया। उसने सोचा जब बी.ए. कर लूँगा तब छापेंगे। उन दिनों लेखकों के नाम के साथ प्रायः बी.ए. एम.ए. लिखने का प्रचलन था ।

रहबर ने छह महीने बाद जब प्रेमचंद की मृत्यु का समाचार सुना तो उसे लगा जैसे उसके किसी सगे-संबंधी की मौत हो गई हो। प्रेमचंद देश के असंख्य लोगों का सगा-संबंधी था। हजारों-लाखों लोग रातों जाग जाग कर उसकी कहानियाँ पढ़ते थे। रहबर ने बाद में प्रेमचंद को जिस ढंग से पढ़ा, कम लोगों ने उस दृष्टि से पढ़ा होगा। रहबर की पुस्तक 'प्रेमचंदः जीवन, कला और कृतित्व' बेजोड़ कृति है । प्रेमचंद को जानने-समझने में इस पुस्तक की अनिवार्यता अनेक समालोचकों द्वारा रेखांकित हुई । डा0 संसार चंद्र ने कहा कि उन दिनों साहित्यिक क्षेत्रों में यह माना जा रहा था कि प्रेमचंद को जानना और रहबर को न जानना, इसका मतलब आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करना है। इस तरह रहबर आधुनिक एवं प्रगतिवादी साहित्य का पर्याय बन गया था। रहबर ने उन तथाकथित प्रगतिशील लेखकों को आड़े हाथों लिया जो यह कहते हैं कि प्रेमचंद सुधारवादी थे, हम क्रांतिकारी हैं और प्रेमचंद से सौ कदम आगे बढ़ गए हैं। उनके प्रति रहबर की कड़ी प्रतिक्रिया कहावत है कि ऊँट को उसके कद का अहसास कराना हो तो उसे कान से पकड़कर पहाड़ के नीचे ले जाओ। मैंने 'प्रेमचंद : जीवन, कला और कृतित्व' लिखकर इन प्रगतिशील लेखकों को बता दिया है कि आगे की बात तो दूर, तुम प्रेमचंद से सौ कदम पीछे भी नहीं हो। उनके प्रति रहबर के अक्खड़ और कठोर रुख की एक और मिसाल - एक बार 'प्रगतिशील प्रकाशन' के मालिक ने रहबर से शिकायत की कि हिंदी का क्षेत्र लंबा चौड़ा है पर लोगों में पढ़ने की रुचि नहीं । रहबर का उत्तर था - 'तुम जिन्हें प्रगतिशील मानते हो, वे दरअस्ल बहुरूपिये हैं । उनमें और प्रयोगवादियों में कुछ भी अंतर नहीं। दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। दोनों पश्चिम के पतनोन्मुख साहित्य की कार्बन कापी हैं और दोनों समाज विरोधी और परंपरा विरोधी हैं। उनका लेखन दिशाहीन विद्रोह की चिल्लपों है। लोग अगर न पढ़ें तो इसमें अचरज क्या है? देश की आजादी के विषय में रहबर का रुख आखिर तक वही रहा जो शुरू में कम्युनिस्ट पार्टी का था मैं नहीं मानता कि हम आज़ाद हुए हैं। 1947 में केवल सत्ता परिवर्तन हुआ है। प्रेमचंद की कहानी 'आहुति' का उद्धरण देकर कहते- 'जॉन की जगह गोविंद को गद्दी पर बिठा दिया गया है।'

रहबर के लिए ब्रेडला हॉल माँ की गोद था जिसमें वह किसी भी समय और किसी भी दशा में इत्मीनान से बैठ सकता था। 'ब्रेडला हॉल में आना अपने परिवार में आना था। यह परिवार जन्म से बने परिवार की अपेक्षा अधिक सहृदय, अधिक स्नेहशील था।' बी.ए. करने के बाद भी रहबर की आजीविका का कोई स्थायी जरिया नहीं बन पा रहा था। यह कहना ज्यादा उपयुक्त है कि वह टिक कर एक काम करना ही नहीं चाहता था । उसका सपना था लेखक बनना और लेखन के माध्यम से देश में ऐसी आजादी की स्थापना जिसके लिए भगत सिंह ने कुर्बानी दी और प्रेमचंद ने जिसे अपनी कहानियों के माध्यम से व्याख्यायित किया ।

भगत सिंह परिवार के लोग अक्सर लाहौर आते थे और ब्रेडला हाल के सोशलिस्ट कक्ष में उनका जो कमरा था वहाँ रुकते थे। रहबर उन सबसे परिचित था। भगत सिंह की बहिन बीबी अमर कौर से उनका विशेष लगाव था। वह उन्हें अपने साथ झुग्गी खासरियाँ गांव ले गई जहाँ रहबर कुछ दिन रहा। रहबर के लिए यह हर्ष और गर्व की बात थी। परिवार के आत्मीय व्यवहार से वह अभिभूत हुआ सुबह उठकर छाछ और मक्खन के साथ नाश्ता। भगत सिंह के भाइयों कुलबीर और कुलतार के साथ खेत में जाकर लहलहाती फसलों को देखना, मेंड-मेंड घूमना मनमोहक अनुभव था। उसे भगत सिंह की माँ विद्यावती से सुनी यह बात याद आई कि भगत सिंह जब छोटा था तो कहा करता था कि हम अपने खेतों में बंदूकें उगाएंगे। रहबर रोमांचित हो उठा। वह उस परिवार का मेहमान था जिसके सपूत ने आजादी का इतिहास अपने खून से लिखकर क्रांति को नया आयाम दिया ।

रहबर देर तक खेत की मेंड पर भावविह्वल खड़ा रहा। रहबर की भगत सिंह पर लिखी पुस्तक 'भगत सिंहः एक जीवनी' जिसका अनुवाद अंग्रेजी में भी हुआ, उसी प्रकार बेजोड़ है जैसे प्रेमचंद पर लिखी पुस्तक। एक समीक्षक के अनुसार रहबर की पुस्तक को पढ़े बिना भगत सिंह का सही मूल्यांकन संभव नहीं है। रहबर को उक्त पुस्तक की प्रेरणा भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज से मिली जिन्हें भगत सिंह के भानजे डा० जगमोहन सिंह और डा० चमन लाल ने संपादित करके पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। रहबर ने पुस्तक पढ़ी तो लिखा कि 'मैं अब तक विवेकानंद को देश का अंतिम विचारक मानता था । ये 'दस्तावेज' पढ़कर कहा जा सकता है कि भगत सिंह ने तर्कपद्धति को विकसित किया। कहा जाता है कि मार्क्स और एंगल्स ने जर्मन दार्शनिक हिगेल के सिर के बल खड़े द्वंद्ववाद को पांव के बल खड़ा किया। भगत सिंह ने उसी प्रकार विवेकानंद के आध्यात्मिक अद्वैतवाद को भौतिक अद्वैतवाद में परिणत किया।

नौकरी और ट्यूशन के बीच झूलती जिंदगी और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हस्तक्षेप ने रहबर को चैन की सांस नहीं लेने दी । लाहौर से कभी लुधियाना तो कभी संगरूर या दिल्ली। लाहौर में वह बेकारी के दौर से गुज़र रहा था कि द्वारका दास लाईब्रेरी में आयोजित एक गोष्ठी में उपेंद्रनाथ अश्क से मुलाकात हो गई । अश्क उन दिनों गुरबख्श सिंह द्वारा स्थापित प्रीत नगर में था। वह प्रीतलड़ी पत्रिका के हिंदी और उर्दू संस्करण का संपादक था। उसे एक सहयोगी की जरूरत थी। चालीस रूपये मासिक वेतन पर वह रहबर को अपने साथ प्रीत नगर ले गया। तय हुआ था कि रहबर प्रूफ पढ़ने और पत्रों के उत्तर देने का काम करेगा। लेकिन अश्क ने देखा कि रहबर पंजाबी सामग्री का हिंदी, उर्दू अनुवाद भी बखूबी कर सकता है। उसने अनुवाद कार्य भी जिसे वह स्वयं करता था रहबर को सौंप दिया। शुरू में रहबर ने इसे सरंजाम देने में खुशी जाहिर की। लेकिन उसने देखा कि उसका काम बहुत बढ़ गया है । उसे सिर खुजलाने की फुर्सत भी नहीं है जबकि अश्क आराम से अपना उपन्यास 'गिरती दीवारें' लिखता रहता है। रहबर ने इसे अपना शोषण समझा। उसने अश्क को दो टूक कह दिया कि वह प्रूफ पढ़ने और डाक का जवाब देने के अलावा और कोई कार्य नहीं करेगा। उधर दारजी (गुरबख्श सिंह को वहाँ इसी नाम से पुकारा जाता था) के प्रीतनगर प्रोजेक्ट की कई बातें तो रहबर को अच्छी लगीं लेकिन वहाँ जिस 'अशरीरी प्रीत' के फलसफे का प्रचार किया जा रहा था वह रहबर के गले नहीं उतरा। न ही दारजी का व्यवहार जिसमें दिखावा और आत्मश्लाघा के भाव ज़रूरत से ज्यादा थे। उसका जी उचाट हो गया। वह त्यागपत्र देकर वहाँ से चला गया।

1942 के 'भारत छोड़ो' आंदोलन में रहबर दो बरस तक जेल में रहा । वहाँ गाँधीवाद, राष्ट्रवाद, मार्क्सवाद और इतिहास का अध्ययन किया तो जेल में ही कम्युनिस्ट बन गया। यह उसका 'पांचवाँ जन्म' था। जब 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ तो वह सी. पी. आई. को छोड़कर सी. पी. एम. में चला गया और 1967 में जब पार्टी का दोबारा विभाजन हुआ तो वह सी. पी.आई. (एम) को छोड़कर सी.पी.आई (एम.एल.) में चला गया यानी नक्सलवादी बन गया। वर्ष 1964 और 1967 में हुआ रूपांतरण क्रमशः रहबर का छठा और सातवाँ था ।

रहबर ने जब विवेकानंद, तिलक और गुरू गोबिंद सिंह पर पुस्तकें प्रकाशित कीं तो उसके आलोचकों ने कहा कि रहबर जहां से चला था वहीं लौट आया। यानी वह अपने पहले जन्म वाला 'सनातनी' बन गया। उसके वाम मित्रों ने कहा 'रहबर जनसंघी और प्रतिक्रियावादी बन गया है।'

रहबर से हुई पहली भेंट विषयक लेख में मैंने इन पुस्तकों का उल्लेख किया था। लेख का निष्कर्ष था “मैं समझता हूं कि ये पुस्तकें रहबर के आठवें जन्म की घोषणा कर चुकी हैं। वे इस 'जन्म' को कोई भी नाम दें उन्हें 'राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट' की संज्ञा से अभिहित करना असंगत न होगा।"

लेख की प्रतिक्रिया में रहबर का खत आया। लिखा था-

'मेरे सात जन्म' आत्मकथा से ही यह बात सिद्ध होती है कि मैं शुरू ही से राष्ट्रवादी था। लेकिन हमारा कम्युनिस्ट आंदोलन शुरू से ही राष्ट्रीयता को नकार कर अंतर्राष्ट्रीय बन गया था। कम्युनिस्ट बनने पर इसका प्रभाव मुझ पर भी पड़ा और मैं भटक गया। नक्सलवादी आंदोलन में शामिल होकर यानी अपने सातवें जन्म में मैंने माओत्से तुङ का गहन अध्ययन किया। उसने लिखा है कि जो देशभक्त और राष्ट्रवादी नहीं, वह कम्युनिस्ट भी नहीं। तब मैंने अपनी भूल को सुधारा ।

“मतलब यह कि यह भूल सुधार है, आठवाँ जन्म नहीं। हर परिवर्तन या भूल सुधार नया जन्म नहीं होता । जिसे हम रूपांतरण कहते हैं वह गुणात्मक परिवर्तन होता है। वह व्यक्ति के जीवन में भी आता है, समाज और प्रकृति में भी आता है। पानी का भाप या बर्फ बनना गुणात्मक परिवर्तन है। सामान्य रूप से गर्म या ठंडा सामान्य परिवर्तन है। रूपांतरित वस्तु नया रूप और नया गुण धारण करती है। यह बाहर और भीतर का समूचा परिवर्तन है।"

एक साधारण व्यक्ति के लिए यों पाले बदलना आसान और व्यावहारिक नहीं है। किंतु अपने अदम्य साहस और निःस्वार्थ निष्ठा के कारण रहबर अकेला चलता रहा। उसके पास न पीछे मुड़कर देखने का समय था, न किसी हमराह से मदद की कोई उम्मीद। अपना रहबर वह खुद ही था। 1938 से सक्रिय राजनीति में भाग लेते हुए छह बार जेल गए, चार बार स्वतंत्रता के बाद हर बार कद्दावर और मज़बूत होकर निकले। उनके शब्दों में-

जी है जुगनू सी जिंदगी हमने,
दी अंधेरों को रोशनी हमने ।
सच के बदले मिली जो बदनामी,
वह भी झेली खुशी-खुशी हमने ।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा था- रहबर को देखकर यह लगता रहा है कि आज की दुनिया में भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी कथनी और करनी, विचार और आचार में फर्क न रखकर शान से जीते हैं। 'मेरे सात जन्म' में अद्भुत रचनाशीलता है। रोचकता इतनी कि एक हजार पृष्ठों को किसी जासूसी उपन्यास की तरह सांस रोककर पढ़ने की बेचैनी तारी हो जाए। किंतु यह कृति केवल औत्सुक्य भाव को ही शांत नहीं करती, उसमें मनुष्य की उदारता, वैज्ञानिक चेतना एवं ऐतिहासिक समझ विकसित करने की रचनात्मक क्षमता है। आत्मकथा के खंड -4 का उद्धरण दृष्टव्य है मनुष्य का इतिहास दो अरब साल पुराना है। दो अरब साल कहने और सुनने में तो कुछ भी नहीं, एक साधारण वाक्य मात्र है लेकिन इन दो अरब सालों में मनुष्य ने कितनी मंज़िलें तय की हैं। वह प्रकृति, गुलामी, अन्याय और शोषण के विरूद्ध आगे बढ़ता आया है। यह दो अरब साल का समय उसके विकट और विजयी संघर्ष का ठाठें मारता हुआ समुद्र है जिसका कोई ओर छोर नहीं जो अनंत और असीम है। मैं इस समुद्र में तैर रहा हूँ। उसकी सरकश तूफानी लहरों से खेल रहा हूँ। मैं इतिहास का और इतिहास मेरा अभिन्न अंग है। मेरी आयु दो अरब साल है ।'

रहबर की गजल का एक शेर है-

लब सिले थे ख़ामोश थी महफिल,
अनकही बात तब कही मैंने ।

रहबर के लेखन का स्वर अनकही कहने का ही रहा। अक्सर वह बेबाक और आक्रामक भी रहा । बेबाक इतना कि स्वयं को और परिवार तक को नहीं बख्शा। आत्मकथा लेखन एक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है- एक तरफ लेखक स्वयं के मुकाबिल होता है तो दूसरी तरफ दुनिया के रू-ब-रू । लेखक और मानवीय जगत एक-दूसरे को देख-परख रहे होते हैं। बाह्य और अभ्यंतर के घात-प्रतिघात से प्रभावित हो रहे होते हैं। एक-दूसरे को जांचने की गहराई, ईमानदारी और तज्जनित प्रभाव की बेलाग अभिव्यक्ति जहां लेखक के व्यक्तित्व का विकास करती है वहीं समाज को भी कुछ नया प्रदान करती है।

लेखक प्रायः अंतर्मुखी होते हैं। कहा जाता है कि वे ज़िंदगी को देखते भर हैं उसमें शरीक नहीं होते। रहबर निश्चित ही इसका अपवाद है। वह न केवल राष्ट्र की हलचल में पेशपेश रहा बल्कि आस-पड़ौस में भी हिल मिल कर रहा, शिद्दत से रचा-बसा ।

आत्मकथा में पुरूषोतक दास टंडन, बनारसी दास चतुर्वेदी, चतुरसेन शास्त्री, बेचन शर्मा उग्र के अतिरिक्त राजनीतिक दिग्गज ए. एस. डांगे, ए. के. गोपालन, भूपेश गुप्ता, नम्बूदरीपाद, हरकिशन सिंह सुरजीत आदि के संस्मरण हैं। मन्मथनाथ गुप्त, नरेंद्र कोहली, कमलकिशोर गोयनका के चेहरों से भी पर्दा हटाया गया है।

टंडन जी की प्रशंसा में लिखा है कि "मैं उन्हें कट्टरपंथी और संप्रदायी मानता था। नजदीक से देखा, समझा तो भावना बदल गई। वे दृढ़चित्त, ईमानदार और देशभक्त थे। जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे और टंडन जी कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष । टंडन जी का मत था कि सरकार कांग्रेस ने बनाई है इसलिए पार्टी अध्यक्ष प्रधानमंत्री से बड़ा है। बात सिद्धान्त की थी। जवाहरलाल नेहरू को जब यह स्वीकार्य नहीं हुआ तो टंडन जी ने इस्तीफा दे दिया।... "बनारसी दास चतुर्वेदी 'आजकल' के सलाहकार संपादक थे। इस पत्रिका में छपने वाली सामग्री को अपनी कसौटी पर परखा करते थे। इस बात की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया 'कल मैंने तीन कहानियाँ अस्वीकृत करके लौटा दी थीं। उनमें एक जैनेंद्र कुमार की, दूसरी विष्णु प्रभाकर की, तीसरी चित्रकार राम कुमार की तीनों में नायक अथवा नायिका को दुर्घटनाग्रस्त करके व्यर्थ का प्रेम जताया गया था और तीनों ऊलजलूल थीं।' वह अक्सर एमर्सन का कथन दोहराया करते थे- “साहित्य का उद्देश्य पाठक का संस्कार करना और उसकी रुचि को परिष्कृत करना है।”

रहबर के जेल संबंधी संस्मरण भी प्रेरक एवं मर्मस्पर्शी हैं। उसकी फाकामस्ती और संघर्षमय जीवन में उसकी पत्नी कौशल्या तथा परिवार के समुचित सहयोग ने उसे पस्त हिम्मत होने से बचाए रखा। तिहार जेल में मुलाकात का एक दिन कौशल्या जब भी मुलाकात पर आती यह सूचना देती कि बच्चे संतुष्ट हैं और इस बात से प्रसन्न हैं कि पिता जी जेल में बैठे हुए भी हमारा ध्यान रखते हैं। अगर कोई अड़ोसी पड़ोसी हमदर्दी जताते हुए कहता है, 'क्या लेना रहबर साहब को इन बातों से, अपने बच्चों को पालें,' तो बच्चे चट उत्तर देते हैं, 'आप हमारी चिंता छोड़िए, पिता जी जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं। हम किसी के खाने नहीं जाते।'

रहबर की दूसरी बेटी वीना का ब्याह तब हुआ जब रहबर अंबाला जेल में नज़रबंद थे। ब्याह के दिन चार बजे शाम रहबर को पैरोल पर पुलिस वैन में दिल्ली लाया गया। दूसरे दिन बेटी की विदाई के साथ-साथ पुलिस उन्हें भी वैन में बैठाकर वापिस चली तो सबकी आंखें भर आई। थानेदार सहृदय व्यक्ति था। उसने बेटी को ग्यारह रूपये शगुन के भी दिए।

देशव्यापी राजनीति में सरगर्म, अनेक राष्ट्रीय स्तर के नेताओं का सहकर्मी, मार्क्स के दर्शन का व्याख्याता और विख्यात कथाकार होने के अतिरिक्त रहबर कुछ और भी था बस एक साधारण आदमी। रहन-सहन और रोजमर्रा के व्यवहार में वह कभी भी 'विशिष्ट' होने का दम नहीं भरता था। इसीलिए जहां उसकी पुस्तक में 'बड़े' आदमियों का ज़िक्र है वहीं अपने मोहल्ले की साधारण सी क्लब के उन सदस्यों का भी अंतरंग चित्रण है जो प्रतिदिन सुबह एक-डेढ़ घंटे किसी पार्क में गपशप और चुटकुलाबाजी करके दिनभर काम करने की शक्ति संजोते । रहबर उस क्लब का जीवंत सदस्य था ।

1980-81 में प्रेमचंद शताब्दी के उपलक्ष्य में बंगलूर में आयोजित समारोह में प्रेमचंद पर शोध कर रहे एस. रेवन्ना ने रहबर से पूछा था- 'प्रेमचंद का उत्तराधिकारी कौन है ?"

रहबर ने तपाक से कहा 'मैं।'

'आपका उत्तराधिकारी कौन है ?'

'देखिए प्रेमचंद ने मुझे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था। वह हमारे विचार को जहां छोड़ गए थे, मैंने उसे आगे बढ़ाया। मेरे बाद जो यह कार्य करेगा, वही मेरा उत्तराधिकारी होगा।'

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