हलवाहा : सन्त सिंह सेंखों
Halwaha : Sant Singh Sekhon
अट्ठारह बरस की साहबो का जोबन निखर रहा था। प्रतिदिन उसके जंगली माता-पिता, चाचा-ताऊ उसका ब्याह कर देने के बारे में सोचते और कई बार इकट्ठे बैठकर इस बारे में परामर्श भी कर चुके थे। किन्तु साहबो को चचा-ताऊ के लड़कों में से कोई भी पसन्द नहीं था। उसके ताऊ का बड़ा लड़का अमीर, दो बार कैद भुगत चुका था, और चाहे वह सुन्दर और लम्बा-तगड़ा जवान था, साहबो उसे कायर समझती थी। वह दोनों बार सेंध लगाता पकड़ा गया था। और इन नए आबादकार जाटों के लड़कों ने उसे एक-दो बार मारा-पीटा भी था। यदि वह कायर अथवा कम से कम फुसफुसा न होता, तो क्या वह पीछा करने वालों को मारता-पीटता नहीं और डरा-धमका कर सेंध से भाग न निकलता?
आबादकार सिखों के लड़के उसे कायर ही समझते थे। वे कहते थे, इसके पास शरीर तो है, लेकिन दिल नहीं। और साहबो दिल की गाहक थी, शरीर की नहीं। शारीरिक दृष्टि से उसके पास खुद कोई कमी न थी पाँच फुट छह इंच लंबी थी वह, और मक्खन पर पला उसका शरीर मक्खन-सा ही सफेद और उससे भी अधिक कोमल था।
और फिर साहबो पर इन जाट सिखों की छाप पड़ी हुई थी। ये मुरब्बों वाले थे। अंग्रेज ने नहरें निकाल कर इस सांदलवार में इन्हें ला बसाया था। साहबो के बाप-दादे जरूर यहाँ पीढ़ियों से रहते थे। यदि उसके पिता-पितामह बलवान होते तो क्या अपनी भूमि पर अन्य किसी को बसने देते? साहबो तो सम्भवतः इस तरह नहीं सोचती थी, हाँ, उसने अपने पितामह, चाचा, ताऊ को इस तरह की शिकायतें करते सुना था। और फिर साहबो के पिता का इस गाँव में न अपना घर था और न ही धरती। उसके पास पशु, गाय, भैंस तथा भेड़-बकरियाँ बहुत थीं। वह किसी के अधीन होकर धरती नहीं जोतता था। वह अपनी गाय-भैंसों के घी से तथा बछड़े, बकरे, मेमने आदि बेचकर अच्छा गुजर कर रहा था। रहने का घर उसे एक आबादकार सिख गुरनामसिंह ने ही दिया था। उस सिख ने साहबो के पिता, वहाब को अपना आधा अहाता दे रखा था। क्योंकि इस प्रकार वह स्वभावतः वहाब के पशुओं तथा रेवड़ के गोबर का स्वामी बन जाता था। साहबो का बाप, भाई गामा और शाहजादा, अल्लू और शुजा, गुरनामसिंह से कोई झेंप नहीं खाते थे, और गरनाम सिंह की पत्नी, हरकौर साहबो की माँ, आइशा के सामने हमेशा मिनमिनाती और मनुहार करती रहती थी। क्या हरकौर और क्या अन्य लोग इन जाटों में किसी को भी साहबो की माँ के नाम का ठीक उच्चारण नहीं आता था और वे सभी आइशा को ऐशां ही पुकारते थे। फिर भी साहबो इन जाटों को अधिक कलीन समझने पर विवश थी।
इन जाट सिखों की लड़कियों में कोई भी साहबो जितनी सुन्दर न थी। यह साहबो की स्वयं सिद्ध बात नहीं थी, सारे गाँव की स्त्रियाँ साहबो तथा उसकी माँ के समक्ष यह बात कहती थीं। पड़ोस के दो-चार घरों की लड़कियाँ स्वयं साहबो की रूप माधुरी की प्रशंसा करती रहती थीं। उस जैसी लम्बी-पतली लड़की उस गाँव में कोई न थी। और कितनी सुंदर साहबो कपड़ों के भीतर थी, उसका अनुमान साहबो के अतिरिक्त भला किसको हो सकता था? साहबो चाहती थी कि वह इन जाट सिखों का अंग, उनके भाई-चारे की रूपरानी बने।
साहबो के घर से लगभग पाँच-छः कोस दूर के गाँव से जंगली अतिथि आया करता था। वह पच्चीस वर्ष का सुडौल दीर्घकाय युवक था। उसका पूरा नाम शहाबुद्दीन था। सब कहते थे कि वह अपने गाँव में एक मुरब्बे का मालिक है, गुरनामसिंह, बधावा सिंह, ईशर सिंह तथा किशन सिंह की भाँति । किन्तु साहबो को विश्वास नहीं होता था। यदि शहाबुद्दीन जंगली को अंग्रेजों को मुरब्बा देना होता तो साहबो के पिता, चाचा-ताऊ में क्या दोष था, शायद शहाबुद्दीन को अतिथि समझकर ही ऐसा लोग कहते थे। कौन जाने उसके गाँव के लोग भी यहाँ के जाट सिखों की तरह उसे सामो कहकर पुकारते हों, जैसे उसे साहबो नहीं सामां कहकर पुकारते हैं। खैर, यदि वह शहाबुद्दीन मुरब्बे वाला था भी, तो इससे क्या। साहबो के पिता-भाइयों ने तो कभी भी उसे साहबो के योग्य वर नहीं समझा था। शहाबुद्दीन साहबो की ओर हमेशा कनखियों से देखा करता था। साहबो जब भी उसके सामने होती, उसे ऐसा लगता, जैसे उसे वह आँखों-आँखों में ही देख रहा हो, भाँप रहा हो। और इसीलिए साहबो उससे झिझकती थी, उसे अच्छा नहीं समझती थी। साहबो समझ रही थी कि वह आदमी उसी के लिए उनके पास आता है। कहीं लायलपुर आते-जाते वह साहबो के भाई अल्लू को मिल गया था और अल्लू उसे घर ले आया था। साहबो को याद था, उस दिन जब वे दोनों आए थे, साहबो दरवाजे में खड़ी थी, संभवतः उसी घड़ी शहाबुद्दीन घायल हो गया था। किन्तु साहबो को उसका हर छठे, सातवें दिन ठाट से आ टपकना भला नहीं लगता था। और फिर वह साहबो के पिता से कह ही क्यों नहीं देता कि साहबो का ब्याह उसके साथ कर दें। न जाने कहीं ऐसा न हो, साहबो सोचती कि मेरे पिता ने उसे शायद जवाब ही दे दिया हो। किन्तु अपनी माँ की ओर से भी साहबो के कान में कोई ऐसी बात न पड़ी थी। संभवतः वे साहबो का विवाह शहाबुद्दीन से न करने पर इतने तुले हुए थे कि वे साहबो के सामने इसकी चर्चा करके साहबो के हृदय में उसके लिए उमंग पैदा करना ठीक नहीं समझते थे और फिर जरूरत भी क्या है? साहबो सोचती अगर वह मझे अच्छा लगता हो, तो मैं खुद न उसके साथ भाग जाऊँ? उसके पास इतनी तेज भागने वाली साँडनी है कि वह हम दोनों को लेकर रेल से भी ज्यादा तेज भाग सकती है। एक दिन तो शहाबद्दीन ने उसे कह भी दिया साहबो, कभी साँडनी पर चढ़कर तूने देखा है? साहबो ने कोई उत्तर नहीं दिया था, हाँ, वह मुस्करा अवश्य दी, चाहे मुँह उसने आँचल से ढंक लिया था, किन्तु मुस्कराहट तो शहाबुद्दीन उसकी आँखों में भी देख सकता था। खैर, कुछ भी हो, साहबो उसके साथ भाग जाने को तैयार नहीं।
यदि गुरनामसिंह का कोई लड़का जवान होता, तो चाहे ये जाटनियाँ जंगली स्त्री को चौके में नहीं चढ़ने देतीं, और उनकी खाने की चीजें जंगली औरतों के स्पर्श से भ्रष्ट हो जाती हैं, क्या वह भी उससे प्रेम न करता? तब क्या साहबो गुरनामसिंह की बहू बनकर न रहती? पर जाटों में इतना साहस कहाँ ? साहबो पुनः सोचती, अरे गुरनामसिंह का लड़का तो अभी सात-आठ वर्ष का है। गुरनामसिंह की बारह वर्षीया लड़की ने कई बार उससे मजाक में कहवाया था, मैं साहबो से ब्याह करूँगा। किंतु हँसी हँसी ही होती है आखिर, साहबो कोई इतनी अनजान नहीं थी कि यह भी न समझती हो।
किन्तु इन्हीं दिनों एक अन्य दिशा से साहबो की आशा पूर्ति के लक्षण बनते दिखाई देने लगे। गुरनामसिंह का भानजा पुराने देश लुधियाना से मामा से मिलने
आया। उसकी अवस्था यही कोई अठारह की रही होगी। मोतिया पीली मलमल की पगड़ी बाँधे और दूधिया लट्टे की चादर लगाए वह साहबो को सुन्दर लगा ! उसका नाम भी सुन्दर था, निरंजन।
गुरनामसिंह ने अपने भानजे को लौट जाने से कई महीने तक रोके रखा। सावन-भादों की ऋतु, और हल जोतने को खेत तैयार करने के दिन। निरंजन जैसा काम जवान कहाँ मुफ्त में केवल रोटियों पर धरा पड़ा था? पहले कुछ दिनों तो निरंजन ने बिना किसी तकलीफ के ही मौज उड़ाई और फिर यों ही वह गुरनाम के साथ खेत पर जाने लगा।
गुरनामसिंह ने एक साझी कामगार रखने की सोची थी, लेकिन अब महीना-दो महीना और न रखने का निर्णय कर लिया। गुरनामसिंह लोभी भी तो बहुत था।
निरंजन को भी साहबो में दिलचस्पी हो गई। घर में से निकलते-घुसते सदैव वह सामने दिखाई देती। और प्रायः उसकी ओर देखने से भी न झिझकती। निरंजन को जैसे उससे आँखें मिलाने की लत पड़ गई। इसलिए गुरनामसिंह को अधिक हठ न करना पड़ा। निरंजन तत्काल ही कुछ दिन और ठहर जाने के लिए राजी हो गया।
किन्तु मुंह अँधेरे खेत पर जाने की बात उसे अखर जाती। यहाँ इस गाँव में हलवाहों में कुछ ऐसी रीति थी कि आधी रात के ढलते ही हलवाहे घर से निकल पड़ते और कहीं सात-आठ बजे रात को वापस लौटते। गर्मियों की रात और वह भी चाँदनी की। कबड्डी आदि खेलने के लिए ही तो बनी थी। गाँव के लड़के तो आधी-आधी रात तक पास के खेत में कबड्डी ही खेलते रहते। निरंजन भी किसी से पीछे न रहता। कई बार तो निरंजन को मुश्किल से दो-तीन घंटे बीतते कि गुरनामसिंह उसे खेत चलने के लिए जगा लेता। निरंजन बहुतेरी सुनी-अनसुनी करता किन्तु गुरनामसिंह की दस-बीस आवाजों के बाद उसे जागना ही पड़ता। बेचारा निरंजन बेहाल हो गया, उसकी पीली मोतिया पगड़ी फिर कभी न रंगी गई, फिर कभी उस पगड़ी को कलफ न लगा, कभी निरंजन का तुर्रा फब कर न खड़ा हुआ। दस-पंद्रह दिनों के अनन्तर बस गुरनामसिंह की लड़की उस पगड़ी को जरा धो देती, धोने मात्र से उस पगड़ी से कोई क्या शान दिखाता। निरंजन धुली पगड़ी का तुर्रा छोड़ता, किंतु दो-चार घंटों के लिए थोड़ा-बहुत खड़ा रहकर तुर्रा गिर जाता। दोहरे चमड़े की उसकी चमकदार जूती अब मैली पड़ गई थी, किन्तु बैठ जाने से पहले उसने उसे अत्यन्त सावधानी से बनाए रखा। उसकी चादर में भी अब वह खड़खड़ाहट न रही। सब लोग निरंजन पर हँसते और उसकी खिल्ली उड़ाते-ओ ससुरे किस बात पर नरक भोग रहा है? मामा तेरे नाम कोई जागीर लिखने वाला है, क्या?
किन्तु निरंजन अपनी स्थिति को उनसे अधिक समझता था। और वह यह भी जानता था कि चौधरी माजरी गाँव में उसकी प्रतीक्षा में होगा। यहाँ तो उसे एक समय ही हल चलाना पड़ता था और खाने को मक्खन, पीने को थोड़ा-बहुत दूध मिल जाता था, वहाँ माजरी में तो उसे दोनों समय हल चलाना पड़ता था और खाने को वही रोटी थी, जो उसका बापू बनाता। अपनी जमीन तो इतनी थी नहीं कि दोनों का काम चल जाता। एक ही जोड़ी थी बैलों की उनके पास। उसी से चाहे बापू हल चलाते, चाहे निरंजन। बापू तो बहुतेरा चिट्ठी लिख-लिखकर बुला चुका था। निरंजन जानता था कि बापू उसे हल देकर स्वयं चौपाल में गप्पें हाँकेगा। मैं घास खोद लाया करूँगा, अगर तुम आकर हल सँभालो, वह पत्रों में लिखता था। किन्तु निरंजन जानता था कि इन सावन-भादों के महीनों में उन दो बैलों और एक सूखी हुई भैंस के लिए घास खोदने की अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती। खेतों और चरागाहों में पशुओं के चरने के लिए घास वैसे भी बहुतेरी थी। और फिर निरंजन की माँ ने कहलवा भेजा था, बेटा, मामा के पास ही रहो दो-चार महीने। वहाँ दूध-घी बहुत है, तगड़ा होकर आना । दूध की अधिकता की बात का तो नित्य अर्द्ध निद्रित रहने वाले निरंजन को पता नहीं था, किन्तु माँ की इस बात ने निरंजन के मामा के पास रहने की इच्छा को और भी दृढ़ कर दिया था। सच तो यह था कि जब तक साहबो उसकी आँखों में आँखें डालकर देखने को तैयार थी, घर-बाहर, आते-जाते एकाध चितवन देने को राजी थी, तब तक निरंजन की आत्मा मामा के पास से चले जाने को तैयार न थी।
निरंजन रुक गया था और सब उसकी हँसी उड़ाते थे। किंतु न जाने क्यों वह साहबो को अब भी प्यारा लगे जा रहा था, उसे अब भी पीली मोतिया पगड़ी और खड़खड़ करती चादर वाला निरंजन ही दिखाई देता था।
साहबो ने एक दिन निरंजन को गोबर का टोकरा उठवाने के बहाने बुलवा ही लिया। पिछली रात पानी बरसा था और निरंजन और दूसरे हलवाहे हल जोतने नहीं गए थे और साहबो को वह मुँह अँधेरे ही अवकाश में मिल गया था।
-साहबो, अब तो मैं चला जाऊँगा,-निरंजन ने उदास होकर फुसफुसाकर कहा।
-तो मुझे भी ले चल अपने साथ,-साहबो ने साहस संचित करके कह ही दिया।
इस प्रकार आधी हँसी और आधा प्यार थोड़े दिनों में ही अगाध प्रेम बन गया। फिर साहबो और निरंजन की एक रात भाग निकलने की सलाह हो गई। गाड़ी दो मील पर रसाले वाला के स्टेशन से प्रातः चार बजे छूटती थी। उसी गाड़ी में उन्हें चढ़ना था। और साहबो को स्वयं आकर कोठे पर परिवार से दूर अकेले पड़े निरंजन को जगाना था।
वचन की बँधी साहबो आई और निरंजन को उसके कंधों से पकड़ कर, धीरे से झकझोर कर जगाने लगी। निरंजन ने ऊँ-ऊँ करके करवट बदली। साहबो ने दूसरी ओर होकर उसे फिर उसी प्रकार जगाना चाहा, लेकिन निरंजन ने फिर करवट बदल ली। साहबो ने एक-दो बार फिर झकझोरा, किन्तु निरंजन नहीं जगा। क्या करती, साहबो निराश होकर अपनी चारपाई पर आ गिरी।
कुछ दिन उपरांत एक दिन प्रातः सारे गाँव में समाचार फैल गया कि साहबो किसी के साथ भाग गई है। दूसरे दिन पता लगा कि वह चक के शहाबुद्दीन के साथ, जो वहाब के यहाँ प्रायः आता-जाता था, चली गई है, उसकी साँडनी की पीठ पर पीछे बैठकर । तीसरे दिन वहाब और उसके भाई-बंधुओं के परामर्श से साहबो तथा शहाबुद्दीन का ब्याह चक में ही हो गया।
बेचारा निरंजन । जाने उसे क्या हो गया कि जो भी मिलता है, उस से रोकर कहता है-मैंने समझा, मामा खेत पर चलने के लिए जगा रहा है। और खिसियानासा आगे बढ़ जाता है।