हक की ज़मीन (कहानी) : डॉ पद्मा शर्मा

Hak Ki Zameen (Hindi Story) : Dr. Padma Sharma

लगातार वारिश से पेड़ों पर अटी धूल छट गयी थी। चारों तरफ हरियाली छाई हुई थी सो सबका मन अपनी ही लौ में भरमा रहा था।

सावन का महीना आते ही जगह-जगह झूले पड़ जाते और दुकानें रंग-बिरंगी राखियों से सजने लगतीं, पर सुखदा के मन में टीस उठती। वह हर बरस राखी खरीदती और राखी पूनो के दिन मन मसोसकर ,अपने रबड़ के गुड्डे को राखी बांध देती।उसकी आँखे भर आतीं, पल्लू से आँखें पांेछते हुए बुदबुदा उठती , ‘‘तुम नहीं माने रंजन मैं तुम्हें कैसे मनाऊँ ?’’
...फिर बचपन के दिन उसकी आँखों के आगे नाच उठे।...

वह एक बार रूठ गया था पर जल्दी ही मान गया था। हुआ यों था कि उसे जन्मदिन पर गिफ्ट में एक प्यारी सी गुडिया मिली थी, वह रंजन ने तोड़ दी तो अपने अल्हड़पन में वह रंजन से नाराज हो गयी थी। उसने भी गुस्से में आकर रंजन का पेन तोड़ दिया। दोनों में मुँहवाद होने लगा ।

रंजन ने कहा , ‘‘गधी कहीं की।’’
सुखदा ने कहा, ‘‘तू कौआ।’’
थोड़ी ही देर में दोनों एक दूसरे की चीजें फेंकने लगे।
सुखदा तैश में आकर बोली , ‘‘मेरी पेन्सिल दे जो तूने ली थी।’’
‘‘मैने तुझे संतरे की गोली नहीं खिलाई ?’’
‘‘कौआ कहीं का ।’’

माँ ने बड़ी मुश्किल से दोनों में बीच बचाव करवाया। संयोग से तब दो दिन बाद ही राखी का त्यौहार था। दिन भर वह मुँह फुलाये बैठी रही और सोचती रही कि रंजन कहे तब मैं राखी बांधँ। रंजन भी अपने अहम् में गुमसुम बैठा था।
माँ ने कहा , ‘‘बेटी रंजन को राखी बांध दो’’
वह मुँह बिचकाकर बोली, ‘‘वो अपने मुँह से क्यों नहीं कहता....? ’’

माँ ने समझाते हुए कहा था, ‘‘देख आज के दिन बहन खुद आगे बढ़कर तिलक करती है। कल ससुराल चली जायेगी तब घंटों इन्तजार करेगी भैया का ...।’’
‘‘ तब की तब देखूँगी ’’ कहते हुए वह कमरे में भाग गयी।
माँ ने रंजन को भी समझाया, ‘‘बेटा उससे बोल राखी बांध देगी। बहन को मना ले।’’
‘‘आज उसका दिन है वो ही पहले बोले’’
‘‘हाँ बेटे आज उसी का दिन है न इसीलिये तो तुझे मनाना पड़ेगा, फिर तू तो छोटा है रे ...’’

सुखदा भी बेचैन थी कि आज उसका प्यारा भाई सुबह से बिना राखी की कलाई के घूम रहा है। सब सहेलियों को राखी खरीदते देख उसे भी भाई पर लाड आ रहा था लेकिन मन में ठसक थी पहले वो बोले।

जब दिन चढ़ने लगा और बुआजी घर आयीं तब उन्होने रंजन को डांटते हुए कहा , ‘‘ अरे पगले तू तो किस्मत वाला है कि तेरी कोई बहन है और तू है कि अपनी ऐंठ में बिना राखी के घूम रहा है। उनसे पूछ जिनके कोई बहन नहीं है।’’
तब वह आया और ऐंठती आवाज में बोला , ‘‘चलो राखी बांध दो ।’’

सुखदा तो जैसे तैयार बैठी थी। सुबह से ही सजाकर तैयार रखी थाली उठाकर वह झट से ले आयी । रंजन के ललाट पर टीका लगाया और राखी बांध दी थी। इस बार रंजन ने उसे एक गुड्डा दिया जिसकी शक्ल रंजन से मिलती थी। इस कारण सुखदा को बड़ा प्यारा लगा वह गुड़डा । शादी के बाद भी वह उस गुड्डे को अपने साथ रखती थी और उसे ही राखी बांध देती। लेकिन अब उसे रूठे पंद्रह- सोलह बरस हो गये.....जाने कब तक नाराज रहेगा़?

डाकिये की आवाज ने अचानक उसे चौंका दिया । लिफाफे पर प्रेषक का नाम देखकर जैसे वह आसमान में उड़ने लगी।... आज वर्षो बाद उसे अपने भाई की चिट्ठी मिली। ढलती बयार में मानो उसे नयी जिन्दगी मिल गयी हो। धड़कते दिल से उसने उसे जल्दी खोल डाला और एक ही साँस में पढ़ लिया... वह इस बार राखी को आयेगा । सुखदा हिसाब लगाने लगी - आज ग्यारस है बीच में बारस, तेरस, चौदस....... और पूनों को तो राखी है। फिर वह चिट्ठी को उलट- पलटकर देखने लगी और जांच करने लगी कि कितनी तारीख को चिट्ठी लिखी गयी, डाक की मुहर कितनी तारीख की लगी है और कितने दिन बाद उसके पास पहुँची हैं, लेकिन डाकखाने वाले आजकल ठीक से सील भी कहाँ लगाते हैं ?

...वह अतीत में उतरती चली गयी। घर में दोनों भाई- बहन और अम्माँ - बाबूजी चार लोगों का सुखी परिवार था। अचानक माँ का स्वर्गवास हो गया तो घर में सन्नाटा पसर गया। वैसे तो वह अपने भाई से तीन बरस बड़ी थी पर अम्माँ की मृत्यु के बाद तो जैसे छोटा सा रंजन ही उसकी माँ और उसका दोस्त बन गया । सुखदा का ब्याह उसी ने तय किया तो शादी का जिम्मा भी पिताजी ने रंजन पर ही डाल दिया । उसने भी उसे बखूबी निभाया।

सुखदा की शादी के समय विदायी करते वक्त युवा हो चुके रंजन ने छलछलायी आँखों से इतना ही कहा था, ‘‘मैने अपनी तरफ से खूब अच्छा घर और वर दोनों ढूँढे हैं। इससे ज्यादा अच्छा मैं नहीं कर सकता था।’’
सुखदा भौंकारा मार के रो उठी तो रंजन ने उसे समझाया था।

पति रामप्रसाद के यहाँ खेती किसानी होती थी। ससुर तीन भाई थे और अच्छी खासी जमीन थी। वे अच्छे रसूखदारों में से थे। गांव में उनका दबदवा था। चौपाल पर उनकी ही बैठक जमती। पूरा गांव उनका कहना मानता था। धीरे-धीरे चाचा, ताऊ अलग हुए तो जमीन के भी टुकड़े हो गये। कुछ दिन तक तो रामप्रसाद की गृहस्थी संयुक्त रूप से चलती रही पर जब छोटे भाइयों के विवाह हुए तो जल्दी ही घर के साथ-साथ जमीन भी बँटती चली गयी। संयुक्त परिवार की जमीन का जो बड़ा भूखण्ड था, वह छोटे से जमीन के टुकड़े के रूप में रामप्रसाद और सुखदा को विरासत में मिला।

अपने हर काम में सुखदा से सलाह लेने वाला रंजन न जाने कब समझदारी की सीढ़ियाँ चढ़ता चला गया । इसका अहसास सुखदा को तब हुआ जब पहले उसका आना और बाद में सुखदा को बुलाना कम हुआ। फिर वह तब और अधिक चौंक उठी जब पिताजी के असामयिक निधन के बाद सम्पत्ति पर अकेले अपना पूरा अधिकार जमाने के उद्देश्य से उसने तहसील के दफ्तर में अर्जी दी जिसमें पिताजी की इकलौती सन्तान के रूप में रंजन का ही नाम बताया गया था।

वो तो सुखदा की ससुराल के मोहल्ले का ही लड़का तहसील में नौकरी करता था वह रंजन को खूब पहचानता था। उसने ही आकर सुखदा को बताया कि रंजन अकेली संतान का दावा कर सम्पत्ति अपने नाम करवा रहा है। सुखदा की ससुराल में जिठानी- देवरानी में काना-फूसी होने लगी , ‘‘शायद सुखदा माँ जायी बहन नहीं है तभी तो उसका नाम बाप की सम्पत्ति में नहीं है... क्या पता कहीं से गोद ली हो’’। चौपाल पर चर्चा चल रही थी कि सुखदा रंजन की सगी बहन नहीं है। कहीं यह अवैध संतान तो नहीं है। रामप्रसाद के कानों भी यह खबर पड़ी, लेकिन उन्होने सुखदा को नहीं बताया।

मोहल्ले के एक घर में रक्कस दिया जाना था। गांव के घटवरिया मंदिर (नदी के घाट पर बना मंदिर) में सभी महिलायें इकट्ठी थी सब में काना -फूसी हो रही थी कि सुखदा किसी का पाप है...., बाप के जिन्दा रहते तो कभी भनक नहीं लगी... और का अब पोल खुली है...।

वह घर आयी तो जिठानी ताने मारती हुयी बोली , ‘‘कौन जाने सड़क से उठा लाये होगें।’’
तभी एक और आवाज आयी , ‘‘हो सकता है दूसरी मेहतारी से जनी हो। मेहतारी पेट से हो गयी होगी सो बाप को अपनाने पड़ो होगो।’’

उसे तो समझ नहीं आ रहा था कि यह चर्चा क्यों चल रही है। सब उसे अजीब सी निगाह से क्यों देख रहे है ? सब का व्यवहार उसके साथ परिवर्तित क्यों हो गया ? उसने अपने पति रामप्रसाद से पूछा । पहले तो उन्होनें बात टालने की कोशिश की पर जब वह नहीं मानी तो उन्होने पूरी बात बता दी ।
उसे काटो तो खून नहीं।

उसे यह जानकर बड़ा दुःख हुआ । वह सोच रही थी रंजन उसका नाम लिख देता और उससे स्वीकृति ले लेता तो क्या वह मना करती... ? आखिर है तो सब उसका ही । मुझे जायदाद में से कुछ नहीं चाहिए। लेकिन ये तो सरासर धोखा है । क्या मैं अपने पिता की सन्तान नहीं ? मैं तो वैसे भी सम्पत्ति के कागजों पर साइन कर देती। ऐसे तो उसने जीते-जी मार डाला।

उसने रंजन से बात की लेकिन परिणाम सिफर ही रहा। जायदाद ने उसके दिल-दिमाग को कुण्ठित कर दिया था,...रिश्तों को दीमक चाट गयी थी,....संबंधों के घाव से मवाद रिस रहा था। सुखदा भी आवेश में आ गयी। उसने अपने पति के सहयोग से कोर्ट में दावा पेश कर दिया ।
आखिर वह अपने अधिकार को कैसे छोड़ सकती थी। जायदाद उसे नहीं चाहिए थी लेकिन पिता के नाम की पहचान भी उससे छीन ली जाये यह उसे कतई सहन नहीं था।

कोर्ट का फैसला हुआ। सम्पत्ति में उसे भी हिस्सा मिल गया। उसे आज भी अच्छी तरह याद है जिस दिन कोर्ट का फैसला हुआ था उस दिन रंजन ने कहा था , ‘‘ रिश्तों के सारे बंधन आज टूट गये।’’

सुनकर सुखदा अवाक् रह गयी । उसने गिड़गिड़ाकर रोते हुए रंजन से कहा था, ‘‘ मेरे भइया सब तुम्हारा है, मुझे जमीन नहीं चाहिए.......मैं तो पिता की संतान बनना चाहती थी.....मेरी ससुराल वाले कहते थे मैं अपने पिता की औलाद नहीं हूँ... ,तुम मेरे भाई नहीं हो.... ,यह सब प्रमाणित करने के लिये ही मैंने दावा किया था। तुम्हें नहीं पता मैंने कितनी जलालत सहन की है.....मुझे अवैध संतान माना जाने लगा था...।’’

वह रोती रह गयी थी, लेकिन रंजन निर्मम चेहरा लिए घर चला गया। उस बरस रंजन ने राखी के त्यौहार पर उसे नहीं बुलाया। रक्षाबंधन का दिन आने पर वह खुद राखी बाँधने जाना चाहती थी। पति ने मना भी किया कि बिना बुलाये नहीं जाना चाहिए। तब सुखदा बोली थी , ‘‘ आज ही का दिन तो ऐसा है जिसमे बहन बिना बुलाये भाई के घर जा सकती है।’’

सुखदा स्नेह भाव के साथ रंजन के घर पहुँची । रंजन ने उसका स्वागत करना तो दूर राखी बंधाने से मना कर दिया और वह बैंरंग वापस आ गयी थी। उसे लग रहा था कि जिस जमीन पर वह चल रही है, वह जमीन खिसक कर उसके हक की जमीन में जाकर सिमट गयी है। वह सोच रही थी धरती तो माँ होती है, वह अपने सब बच्चों में मेल कराती है। पर जब यह जमीन का रूप धारण कर लेती है तो दिलों में दूरियाँ बढ़ा देती है। उसे लगा जमीन जम की इन (सराय) है जो सब कुछ निगल लेती है ।
वह फिर कभी गाँव नहीं गयी, न अपनी ज़मीन की सुध ली ।
हर बरस वह इन्तजार करती कि रंजन राखी बंधवाने जरूर आयेगा। रूठ गया है मान जायेगा।
लेकिन वह नहीं माना.. , नहीं आया।

कोर्ट के फैसले के बाद जब रंजन ने नाता तोड़ लिया । तब से वह इस गुड्डे को ही हर साल रक्षाबंधन के दिन राखी बांधती आ रही है। जन्माष्टमी पर वह राखी उतारकर एक डिब्बे में सहेजकर रख देती थी।

‘‘मम्मी किसका पत्र है’’ बेटे की आवाज ने सुखदा को चौंका दिया। वह अतीत के झरोखों से बाहर निकल आयी और खुशी में उमगती बोली, ‘‘देख बेटा तेरे मामा का खत आया है... ,वह आ रहा है... , मुझसे राखी बँधवाने ! ’’ कहते -कहते उसका गला रुंध गया।
वर्षों बाद रंजन के आने की खबर से उसके पति भी खुश थे।

वह तैयारियों में जुट गयी। राखी के दिन खुद के पहनने के लिए नई नकोर साड़ी लाना है, भैया के लिये खड़पूड़ी, शक्कर के बने हाथी- घोड़े की आकृतियाँ, बच्चों के लिये डगडगी, खेल खिलौने और न जाने क्या-क्या.... सुखदा की लम्बी -चौड़ी लिस्ट तैयार हो गयी ।

सुखदा के मन में द्वंद्व था कि रंजन कैसे मान गया..., वह तो बड़ा जिद्दी है। मैंने तो सदा ही अपने भाई को माना है..., उसकी लंबी उम्र की प्रार्थना की है। जिस ज़मीन की गांठ वह बाँधे बैठा था उसे मैने कभी अपना माना ही नही...।उसे याद आया उसके पेट में पथरी का दर्द उठा था। डाक्टर ने ऑपरेशन करवाने की सलाह दी। हाथ में पैसे नहीं थे। सबने दबाव डाला कि भैया वाली ज़मीन बेच दो लेकिन वह टस से मस नहीं हुयी। उसका दृढ़ निश्चय था कि जो मेरा नहीं है उसे मैं कैसे बेच सकती हूँ ? उसके इस निर्णय के आगे सब झुक गये थे। फिर कभी किसी ने ज़मीन बेचने की बात नहीं कही।

देहरी पर बैठी सुखदा पुरानी एलबम देख रही थी। उस समय के ब्लेक एण्ड ब्हाइट फोटो में भी भैया का चेहरा दमकता दिखाई दे रहा था। एक फोटो मे भैया की बेटी नैनी भी बैठी थी। वह सोचने लगी अब तो नैनी युवा हो गयी होगी। वह उंगलियों पर गिनने लगी कि अठारह-उन्नीस साल की हो गयी होगी नैनी...।

उधर रंजन के मन में भी द्वंद्व था कि बहन मानेगी या नहीं... मुझे माफ कर देगी या नही....। अब तो वह बुढ़ा गयी होगी कैसी लग रही होगी मेरी बहन। मेरे भी तो बाल सफेद हो गये हैं। मैं क्या कहूँगा जाकर..., कैसे मनाऊँगा..., उसे पगी हुयी गुजिया पसंद है... ,वही लेकर जाऊँगा... ,वह नहीं मानेगी तो पैरों पर लोट जाऊँगा। जीवन के इस पड़ाव में उसे बहन की याद बहुत सता रही थी। मन भी बावला है ,समय रहते ज्ञान नहीं आता बाद में पछताता है। पता नहीं उसे चिट्ठी मिली होगी कि नहीं..., इसी कसमकस में उसने सुखदा के गाँव में कदम रखा।

दुःख में समय धीरे-धीरे गुजरता है। खुशी में दिन जल्दी ही बीत गये। राखी का दिन आया।
उसने दरवाजे पर गेरू से सुनौरा - सुनौरी बनायी। उनकी पूजा की, उन्हें मिठाई का भोग लगाया। राखी के धागे पर थोड़ी सी मिठाई लगाकर उनके हाथेां पर चिपका दिया।

...भैया आया तो लिपटकर रो उठी । उसकी खूब खातिर की उसने । रंजन को ध्यान से देखा तो पाया उसके चेहरे पर बुजुर्गियत झलक रही है। रंजन में अपने प्रति सुखद परिवर्तन देख कर सुखदा समझ नहीं पा रही थी कि कारण क्या है ? सुखदा के मन के भाव समझकर वह पास आया और हाथ पकड़कर रोते हुए कहने लगा , ‘‘दीदी मुझे माफ कर दो। तुमने तो सिर्फ पिता का नाम पाने के लिये कोशिश की थी, यह मुझे बहुत दिन बाद समझ में आया। मुझे मालूम है तुम्हारी जिन्दगी में खूब उतार-चढ़ाव आये लेकिन तुमने जमीन को हाथ तक नहीं लगाया... ,लेकिन आज मेरी ही बेटी जायदाद में से हिस्सा मांग रही है। तब मुझे लगा कि तुमने जो किया था वह गलत नहीं था। इसीलिये आज माफी मांगने चला आया ।’’

सुखदा अवाक् थी, ‘‘दूज का बदला तीज ने ले लिया था।’’
रंजन अपने आंसू पौंछते हुए बोला, ‘‘चलो जल्दी से राखी बांध दो । ’’

सुखदा को महसूस हुआ छुटपन में जब उसने कहा था ‘‘चलो राखी बांध दो’’ और आज के ‘‘चलो जल्दी से राखी बांध दो’’ दोनों वाक्यों में अन्तर है। आज शब्दों में अनुनय है..., क्षमा की याचना है..., प्यार भरा निवेदन है..., छोटे होने का हठ है...। जबकि पहले शब्दों में , वाक्यों में , हर क्रिया- प्रतिक्रिया में अभिमान भरा था।

सुखदा ने कहा, ‘‘पहले हाथ मुँह धोकर खाना तो खा लो।’’ वह हाथ पकड़कर पटे तक ले गयी । अपने हाथों से थाली परोसकर लायी और उसे भोजन कराने लगी। इसी बीच उसने घर-परिवार का पूरा ब्यौरा ले लिया। अपने घर के भी किस्से सुनाए। उसकी आवाज में अजब सा उत्साह था।

सुखदा आज भी बचपन की तरह ,जल्दी से पहले जैसी थाली सजाकर ले आयी। उसने अनामिका उंगली से रंजन के माथे पर गोल बिन्दी लगायी, अंगूठे से उसे ऊपर तक तिकोन आकार देकर खींचा.... चावल माथे पर चिपकाए और कुछ चावल उसके सिर के ऊपर से पीछे फेंक दिये। राखी बंधवाने पर रंजन ने सगुन जेब से निकाला तो सुखदा ने दृढ़ता से मना कर दिया और नारियल के साथ एक छोटा सा बॉक्स देकर बोली , ‘‘अभी तक तू मुझे देता आया है आज मैं तुझे कुछ देना चाहती हूँ, तू मुझसे छोटा है ना ! मना मत करना ।’’

स्तब्ध और व्यग्र रंजन ने बॉक्स खोला। उसमें कुछ कागजात और राखियाँ रखी थीं। वह कुछ पूछता उससे पहले सुखदा बोल पड़ी , ‘‘इसमें वो राखियाँ है जो इतने वर्षो से मैंने अपने गुड्डे को बांधी थीं तेरी कलाई समझकर...। और ये कागजात उस ज़मीन के है, जिसने बहन को भाई से अलग कर दिया था। ’’
कागजात लौटाते हुए रंजन बोला, ‘‘ नहीं दीदी इन पर तुम्हारा हक है...’’

‘‘मेरा हक तो मुझे मिल गया पगले ! ये सौगात मेरी तरफ से अपनी बेटी को दे देना। ’’ कहते - कहते सुखदा रंजन के गले लिपटकर रो पड़ी।

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