Dr. Dayanand Francis डॉ. दयानंदन फ्रांसिस
डॉ. दयानंदन फ्रांसिस तमिल और अंग्रेजी के विद्वान् हैं। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य, संस्कृति एवं उनके आचार-विचार पर अनेक लेख और किताबों का प्रकाशन किया है। तमिल में कई दलित साहित्य से संबंधित लेखों का संकलन करके उन्हें प्रकाशित किया है। इसके अतिरिक्त हिंदी में भी उनकी कहानियों के अनुवाद कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हए हैं।।
गरीब का खून (कहानी) : डॉ. दयानंदन फ्रांसिस
Gareeb Ka Khoon (Tamil Story in Hindi) : Dr. Dayanand Francis
"क्यों भाई! आज इतनी देर कर दी आने में? क्यों जी, मेरे प्यारे मालिक रुद्रजी ने क्या काम लेते-लेते तुम्हारी कमर तोड़ दी?'
'क्यों, तुम अपना सा मुँह लेकर खड़ी हो? अब तुम्हारी सेहत कैसी है? ठीक है न? खैर छोड़ो, थोड़ा पानी पिलाओ।'
मुनिया अँधेरी कोठरी में दौड़ती हुई चली गई। कल्लू द्वार पर बैठा था। उसकी दृष्टि आकाश की ओर थी। वह कोई खगोल शास्त्र अथवा अंतरिक्ष के ग्रह-नक्षत्रों की ओर नहीं देख रहा था, अपितु अपने शारीरिक व मानसिक क्लेश को कम करने के लिए आकाश में छितरे नक्षत्रों को निहार रहा था। ठीक है, कम-से-कम गरीबों को इस तरह प्रकृति के रसास्वादन का सुअवसर तो मिलता था।
कहा जाता है कि आकाश ऐसा प्रतीत होता है, मानो नीलम की थाली में हीरे जड़े हों, किंतु जिसे दो जून पेट भर खाना नसीब न हो, उसे इसका खयाल तक न आएगा। लेखक ऐसी स्थिति को जैसा चाहे वर्णन करे। अपने वर्णन-कुशलता से बाज न आकर लिख सकता है कि 'मैं उस समय जिले का हाकिम था। दोपहर का समय था। मैं निश्चिंत हो सोफे पर आराम से बैठा समय काटने की इच्छा से, 'पनामा सिगरेट' का कश खींच रहा था, आदि-आदि।'
मैं उन लेखकों में से नहीं हूँ, जो कहानी में सोना-चाँदी का वर्णन कर अपनी झूठी शान बघारते हैं।
चाँद असंख्य निहारिकाओं के मध्य बादलों की ओट में अपने को छिपा रहा था। उस दृश्य को देखकर उसे लगा कि अपना मालिक अपने विरुद्ध खड़े हुए मजदूरों के झुंड से अपने आपको बचाने के लिए सबकी नजरें बचाकर भाग रहा हो।
उसे पता ही नहीं चला कि उसका बेटा उसके कुरते की जेब को टटोल रहा था। वह इतना भावमग्न था कि आस-पास की सुध ही न रही। वह एकटक आकाश को ताक रहा था।
'क्यों जी, पचास रुपए का नोट मुन्ने के हाथ में क्यों दिया है, क्या वह उसे कागज समझ फाड़ेगा नहीं? यह नोट क्या मालिक ने दिया है?'
'क्यों नहीं देंगे? अगर मैं उनको सौ रुपए उधार देता तो वह शायद आज मुझे पचास रुपए लौटा देते। कितने दयालु हैं, तुम नहीं जानतीं।' उसकी आवाज में घृणा थी।
'तब यह कैसे?'
'क्या मतलब, तुम जाकर पंसारी की दुकान से सोंठ खरीद लाओ, मेरी नस-नस टूट रही है। 'मसाला चाय' बनाकर दो।'
मुनिया दुकान के लिए निकली। उसके बच्चे भी उसके पीछे-पीछे निकले। मुनिया के मन में केवल एक ही प्रश्न था, 'मेरे पति के पास पचास रुपए कहाँ से आए? कहीं उसने चोरी तो नहीं की?' यह सोचसोचकर उसका मन बेचैन हो रहा था।
कल्लू ने न चोरी की थी, न जेब काटी थी। वह मालिक की तरह गरीबों के पेट पर लात मारकर दिन दहाड़े किसी को लूटता न था। वह बहुत ईमानदारी से नेकी से पचास रुपए कमाकर लाया है। उसका मालिक अपने वचन का पालन अवश्य करता था। एक बार यदि उसके मुख से 'न' निकले तो अपनी अतिम साँस तक निभाता था। पंसारी की दुकान की चीजों के दाम में ही नहीं, अपने यहाँ काम करते मजदूरों के प्रति वह रूखा व्यवहार करते थे।
कल्लू पिछले दस वर्षों से महेशजी की दुकान में काम करता था। इन दस वर्षों में मालिक की माली हालत की खूब बढ़ोतरी हुई। उनकी प्रगति का प्रमाण उनकी तोंद दे रही थी। उनका खजाना, बढ़ते तल्ले तल्लों का मकान आदि सब उनकी समृद्धि का ढिंढोरा पीट रहा था। उनमें जो उदारता दस वर्ष के पहले थी, अब न थी। वह धीरे-धीरे लुप्त हो चुकी थी।
कल्लू उनके पैरों पर पड़ा गिड़गिड़ाया। उसने न भीख माँगी न कोई क्षमा माँगी। उसने उनसे कहा-मेरा बेटा दो दिनों से भूखा है। वेतन पेशगी मात्र दे दें, वह भी सप्ताहांत में जो मजदूरी दी जाती थी, उसका थोड़ा सा अंश।
मालिक तो गिरवी पत्रों या गहनों पर भी विश्वास न था तो बेचारे गरीब की जुबान पर कैसे भरोसा करे।
कल्लू ने आँसू बहा–बहाकर अनुनय-विनय की। अगर उसके मालिक अपने जीवन में भूलकर ही क्यों न हो, गरीबों के आँसू और पसीने को देखकर पसीजते तो क्या लखपति बन सकते थे?
'सुन, ठेले में तीस बोरे चावल ले जाकर हमारे बड़े अस्पताल में पहुँचाकर आ।'
जेठ की चिलचिलाती धूप में वह भी दोपहर दो बजे, सोफे पर पसरे बिजली के पंखे की हवा खाते और ठंडी पेप्सी पीते हुए रुद्रजी ने हुक्म दिया।
उनकी मोटर तथा लॉरी समय-समय पर उनकी आज्ञा का पालन नहीं करते थे। कोई-न-कोई बहाना बना देते थे। लेकिन मारवाड़ी ठेलेवाला कभी भी बहाना नहीं बनाता था, सदा उनका हुक्म बजाता था। यह जरूरी नहीं होता कि ठेलेवाले का पेट सदा भरा हो। यदि मानवयंत्र ने कह दिया कि मैं अस्वस्थ हूँ, तो क्या कहें, झट उस मानवयंत्र को मंडी से निकाल बाहर फेंक दिया जाता।
कल्लू को मिलाकर चार मजदूर उस भारवाहक ठेले पर तीस बोरे अपनी पीठ पर लादकर ले जाते थे। दो मजदूर ठेले को आगे से खींचते थे और दो पीछे से ढकेलते थे। तब ठेला चलता था।
"कहाँ है सुख निर्धन को? निर्धन हो तो, है दु:खमय संसार...।" क्या गीत बज रहा था। बेचारे रेडियो को क्या पता कि वह असमय यह गीत गा रहा है। चलचित्र की तरह थोड़े ही एक भिखारी ने उनके सामने गाया।
अब बेचारा मालिक रेडियो का क्या कर सकता है। उसने उसका स्विच दबाकर बंद कर दिया। अगर इस तरह के गीत को कोई गरीब भिखारी गाता, तो दो चार चपत मारकर चुप करा देता, लेकिन रेडियो को... अस्पताल में एक इश्तहार लगा था, जिस पर कच्छ की नजर पड़ी। यह अच्छा था कि वह पढ़ सकता था, वह अपने मालिक की भाँति पढ़ा-लिखा था। लक्ष्मी की प्रसन्नता की दृष्टि दोनों पर अलग-अलग थी। दोनों में जमीन-आसमान का अंतर था। लेकिन सरस्वती की कृपा दोनों पर भरपूर थी। दोनों पाँचवीं पास थे। उसने विज्ञापन पढ़ा-
"त्यागी बनो!
हमें चाहिए रक्त।
आपको चाहिए अर्थ।
मिलेंगे आपको पचास रुपए
त्याग करें राष्ट्र कल्याण के लिए।
कल्लू बार-बार उसे पढ़ता था। वह अस्पताल से लौटते वक्त ठेलागाड़ी पर बैठ गया। उसके दोस्त उसे खींच ले जा रहे थे, कत्थू अपने विचारों में दबा था। पचास रुपए, पचास रुपए भिन्न दिशाओं की ओर देख वह हँसता रहा, अंत में उसने निर्णय कर लिया।
उस दिन शाम को छह बजे कल्लू को मालिक ने छुट्टी दी। उसके पैर अपने आप अस्पताल की ओर बढ़ने लगे। इतने दिनों से वह अपना खून-पसीना आँसुओं की तरह बहाता आ रहा था। आज उसे अपने निजी रूप में 'रक्त' के रूप में बहाया। पचास का नोट जेब के हवाले किया। डगमगाते हुए वह अपने घर पहुंचा। दस दिन बाद बीच सड़क पर भीड़ इकट्ठी हो गई। चिलचिलाती जेठ की दोपहर में कल्लू अपनी झोंपड़ी की ओर बढ़ रहा था। थकान और भूख से बेहाल हो वह बीच रास्ते पर गिर पड़ा। इतने में एक लॉरी उसे कुचलती हुई निकल गई। क्या कहें, उसके खून से रास्ता लथपथ हो गया। जहाँ वह पसीना बहाता, वहाँ आज उसके शरीर का पूरा-का-पूरा खून बह गया और सारी मिट्टी लाल हो गई।
हाय बेचारा! कितना खून बह गया। एक दयालु राही ने अपनी मौखिक सहानुभूति प्रकट की। पसीने और आँसुओं के रूप में तो बेचारे का खून अस्पताल में त्याग के प्रतीक रूप में बह गया था। अब नगण्य शेष रक्त ही वहाँ पड़ा था। उसकी दारुण दशा न मालिक जानता था और न कोई और!