गुरुदेव (उपन्यास) : दिनकर जोशी
Gurudev (Novel) : Dinkar Joshi
रवींद्र-दर्शन की वेला में
गुजराती कवि वीर नर्मद, महात्मा गांधी के ज्येष्ठ पुत्र हरिलाल गांधी और
देश-विभाजन के प्रमुख अपराधी मुहम्मद अली जिन्ना: इन तीनों के जीवन पर
आधारित क्रमशः ‘एक टुकड़ा आकाश का’, ‘उजाले
की परछाईं’ और ‘प्रतिनायक’ उपन्यासों के पश्चात् उसी
श्रेणी में अब कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर के जीवन पर आधारित यह मेरा चौथा
उपन्यास है। सांप्रत इतिहास के किसी भी विशेष पात्र को केंद्र में रख उसके
जीवन की घटनाओं को उपन्यास के कलेवर में ढालना या तो दुधारी तलवार चलाना
हो अथवा सख्त तनी रस्सी पर चलते हुए संतुलन साधने जैसा कार्य है। ऐसे
पात्र और उनका समय समकालीनों के लिए तो अभी-अभी तत्कालीन इतिहास ही होता
है। अतः उनके बारे में कुछ भी कहना हो तो उसके लिए एक या दूसरे प्रकार से
समर्थन प्राप्त करना अनिवार्य होता है। इसके बावजूद उपन्यास एक ऐसा कला
स्वरूप है, जिसमें ऐसे पात्रों के मनोव्यापार उन घटनाओं से कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण होते हैं। ये मनोव्यापार सहजता से उपलब्ध नहीं होते।
परिणाम-स्वरूप जीवन की टूटी कड़ियों को जोड़ने के लिए लेखक को
संबंधित
पात्र और विवरण के संदर्भ में, कला क्षेत्र के लिए जो अनिवार्य है, उन
कल्पनाओं का आश्रय लिये बिना नहीं चलता। यहाँ शर्त वही है कि आप मूलभूत
सत्यों के साथ कहीं भी समझौता नहीं कर सकते। बावजूद यह उपन्यास है, कोई
दस्तावेजी इतिहास नहीं। मेरा अपना अनुभव यह है कि कुछ पाठक इन दोनों के
बीच जो अंतर है वह विस्मृत कर बैठते हैं और फिर अकारण ही उपन्यास के बारे
में प्रश्न उठाते हैं। किसी भी कलाकृति को अपनी निजी पसंद या नापसंद
द्वारा आँकने के बदले तटस्थता से उसका निरीक्षण किया जाए तो वह अधिक
रुचिमय आयाम बन सकता है।
रवींद्रनाथ के जीवन में प्रत्यक्ष संघर्ष अपेक्षाकृत कम हैं। उनके संघर्ष
अधिकांशतः कोमल मानसिक धरातल पर ही रहे हैं। इस अतल धरातल की थाह पाने के
लिए उनकी विभिन्न रचनाओं का संबंध लाजिमी है। यह कार्य किसी गणितिक
सूक्ष्मता से या सटीकता से नहीं हो सकता। इस मार्ग पर यथाशक्ति, यथामति
यात्रा करते हुए जो उपलब्ध हुआ उसको यहाँ उपन्यास के कलेवर में ढालने का
प्रयत्न किया है।
-दिनकर जोशी
102-ए, पार्क एवेन्यू,
दहाणुकर वाडी, एम.जी.रोड,
कांदिवली (पश्चिमी),
मुंबई-400067
प्रकरण-1
व्यापारी से सीधे-सीधे मुल्क की मालिक बन बैठी अंग्रेजी हुकूमत के गश्ती
घुड़सवार दस्तों के घोड़ों की टापें राजमार्ग पर गूँजनी बंद हो चुकी थीं।
न ही कहीं से पालकी ढोनेवाले, कहारों की
‘हेइसो-हेइसो’ सुनाई
दे रही थी। ठाकुर लोगों की बग्घियों की सजावट बनी घंटियों की टनटनाहट भी
शांत हो गई थी।
कलकत्ता अभी महानगर बनाने की दहलीज पर था। यह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध
का आखिरी चरण था। शहर के घनी आबादीवाले इलाके में शुमार जोड़ासांके की
द्वारकानाथ लेन की 5 नंबर की हवेली के दरवाजे पर खड़ा चौकीदार किरासिन के
लैंप के मद्धिम प्रकाश में तंबाकू मलता हुआ खड़ा था। करीब एक एकड़ में
फैले, ‘ठाकुर की हवेली’ के नाम से विख्यात इस मकान की
दूसरी
मंजिल की छत से एकमात्र पियानो की आवाज से टँके गीत-संगीत की सुरावली इस
सन्नाटे की नीरसता को विचलित कर रही थी।
ठाकुर की हवेली की दीवारों के लिए सुर-संगीत या अभिनय कोई अजूबा नहीं थे।
ज्योतिरिंद्रनाथ जब इस हवेली के संयुक्त परिवार में रहते थे तब प्रायः हर
दिन दूसरी मंजिल की यह छत संगीत के सुरों से सुरभित रहती थी।
शायद ही कोई सप्ताह या बहुत हुआ तो एकाध पखवाड़ा कोरा निकलता, जिसमें
तल-मंजिल स्थित अतिथि कक्ष में किसी-न-किसी नाट्य कृति का मंचन न हुआ हो।
ज्योतिरिंद्रनाथ अपने सदर स्ट्रीटवाले बँगले में अलग रहने गए उनके बाद भी
इस हवेली में महफिलों का दौर जारी रहा था। कादंबरी की उपस्थिति से इन
महफिलों में जान पड़ जाती थी। वह बात अब नहीं रही। महफिल में कादंबरी की
अनुपस्थिति बेतरह खलती थी। ज्योतिरिंद्रनाथ और कादंबरी अपने इस पितृगृह
में यदा-कदा रुकने के लिए आते रहते थे। तब रात की यह महफिल महक उठती थी।
बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ घर में हों तो ऐसी महफिल में दिल से हिस्सा लेते।
ठाकुर मोशाय, महर्षि देवेंद्रनाथ भी कभी-कभी खुशी-खुशी इन महफिलों में
शामिल होते, किंतु आज ये दोनों नहीं थे। द्विजेंद्रनाथ जमींदारी के काम से
किसी दौरे पर गए थे तो ठाकुर मोशाय कुछ अस्वस्थता के कारण सायं जल्दी ही
अपने कक्ष में चले गए थे।
बिहारीलाल चक्रवर्ती रवींद्रनाथ और कादंबरी दोनों के आदर्श थे।
ज्योतिरिंद्रनाथ के हृदय में भी इस बँगला कवि के लिए गहरा आदर था।
रवींद्रनाथ जब कोई नई कविता लिखते तो उसे वे सदा की तरह भाभी रानी कादंबरी
को सबसे पहले सुनाते। कविता सुन खिलखिलाती कादंबरी कहती,
‘‘कविता तो बढ़िया है रवि बाबू, पर बिहारीलाल
चक्रवर्ती की
बराबरी में कहीं है।’’
छत पर एक कोने में लगे झूले पर बैठे हुए ज्योतिरिंद्रनाथ झूले को
हौले—हौले एड़ी से ठेलते हुए अपने आस-पास बिखरे कागजों में से
चुन-चुनकर जाँच रहे थे।
‘‘दादा, यह आप कब तक देखते रहेगें ? अजी, छोड़िए
इन्हें।
अक्षय चौधरी कब से पियानो पर उँगलियाँ चला रहा है। बिहारी मोशाय भी हवेली
का जीना चढ़ रहे हैं।’’ रवींद्रनाथ ने बड़े भाई
ज्योतिरिंद्रनाथ का ध्यान खींचा।
ज्योतिरिंद्रनाथ ने सिर घुमाकर रवींद्रनाथ की ओर किया और कहा,
‘‘तुम लोग शुरू करो, मुझे अभी कुछ और कागज देखने हैं।
थोड़ा
वक्त और लगेगा। फिर मैं भी आ जाऊँगा।’’
इतने में कदमों की धम-धम की आवाज ने कवि बिहारीलाल चक्रवर्ती के
हष्ट-पुष्ट शरीर के आगमन की सूचना दी।
‘‘रवि बाबू, बिहारी मोशाय के लिए मैंने यह आसन खासतौर
से
बनाया है। उनको आज इसी आसन पर बैठाओ।’’ यह कहकर
कादंबरी ने
अपनी साड़ी के पल्लू से ढका आसन बाहर निकाला। लाल रंग के इस आसन पर
कांदबरी ने बिहारीलाल चक्रवर्ती की एक काव्य-पंक्ति का कशीदा काढ़ा था।
‘‘लो, यह आसन तुम इन अतिथिदेव के लिए बिछाओ और इस पर
बैठने के
लिए इन्हें कहो।’’
‘‘अरे वाह ठकुराइन ! क्या बात है, जो आज आप इतनी
खिली-खिली
नजर आ रही हैं ?’’ छत पर कदम रखते हुए बिहारीलाल
चक्रवर्ती ने
रवींद्रनाथ की ओर आसन बढ़ाती हुई कादंबरी के आखिरी वाक्य को बीच में ही
काटते हुए कहा। कादंबरी लजा गई और धीरे से पलकें घुमाते हुए बोली,
‘‘दादा, ‘आर्यदर्शन’ में छपी
आपकी काव्य श्रृंखला
‘शारदामंगल’ मुझे इतनी अच्छी लगी कि उसको मैंने खास
आज के लिए
बनाए गए आपके आसन में काढ़ दिया। आप आज इस आसन पर बिराजें
!’’ यह कहते हुए कादंबरी ने स्वयं ही गद्दे
पर वह खास
आसन बिछाया। बिहारीलाल ने प्रसन्नता से हाथ फिराया और कादंबरी की ओर देखते
हुए कहा, ‘‘ठकुराइन ! आपने तो मुझे भारी दुविधा में
डाल
दिया।’’
‘‘वह कैसे दादा ?’’ कादंबरी के
चेहरे पर प्रश्न छा गया।
‘‘देखो, इस आसन पर मेरी ही काव्य-पंक्ति का कशीदा है।
अब
तुम्हीं कहो, वास्तव में तो मुझे इस काव्य-पंक्ति के चरण में बैठना
चाहिए।’’
कादंबरी का मुँह उतर गया। बिहारीलाल का तर्क उसे छू गया, लेकिन वह तुरंत
बोली, ‘‘काव्य-पंक्ति तो कवि का सर्जन है, दादा !
सर्जन की
अपेक्षा सर्जक का स्थान सदैव ऊँचा ही रहता है।’’
बिहारीलाल ने ‘हो-हो’ कर ठहाका लगाया और रवींद्र की
ओर मुड़ते
हुए बोले, ‘‘देखो रवि बाबू, आपकी इन भाभी रानी ने
मेरी कैसी
बोलती बंद कर दी !’’ इतना कह बिहारीलाल उस लाल आसन पर
पालथी
मारकर बैठ गए। रवींद्रनाथ ने कादंबरी की ओर देखा। एक क्षण पहले मुरझाया
चेहरा अब ताजे फूल-सा खिलकर दमक रहा था।
‘‘आज तो रवींद्रनाथ के गीत ही सुनने
हैं।’’ चाँदी
की तश्तरी से बादाम का दाना मुँह में डालते हुए बिहारीलाल ने फरमाइश की।
‘‘नहीं-नहीं, दादा, ऐसा मत कहो
!’’ रवींद्रनाथ ने
बिहारीलाल के पास बैठते हुए विरोध किया। ‘‘आज तो
अक्षय पियानो
पर कोई बढ़िया प्राचीन बंगाली गीत सुनाएँगे और फिर आपसे
‘शारदामंगल’ की कविताएँ ही
सुनेंगे।’’
‘‘आप जानते हैं दादा !’’ कादंबरी
ने दोनों के
सामने बैठते हुए बिहारीलाल से कहा,
‘‘आर्यदर्शन’ का अंक
जैसे ही दादा ठाकुर बैठक से अंदर महल में भेजते हैं कि तुरंत ही
‘शारदामंगल’ काव्य श्रृंखला की नई कड़ी पहले पढ़ने के
लिए हम
दोनों में छीना-झपटी होती है।’’ कादंबरी ने अपनी
बड़ी-बड़ी
भावप्रवण आँखें रवींद्रनाथ पर टिकाईं।
‘‘तो कौन जीतता है इस छीना-झपटी में
?’’ बिहारीलाल ने रुचि दिखाते हुए पूछा।
‘‘न ही कोई हारता है और न कोई जीतता
है।’’
रवींद्रनाथ ने नजरें झुकाते हुए कहा, ‘‘दादा, सच कहूँ
तो हम
दोनों ही जीतते हैं।’’
‘‘कैसे ? यह तो तुमने अपनी कविता जैसी ही पहले बना
दी, रवि बाबू !’’
‘‘एकदम आसान है।’’ कादंबरी बोली,
‘‘रवि बाबू ऊँचे स्वर में पढ़कर मुझे कविता सुनाते
हैं।
बताइए, अब इसमें कौन हारा, कौन जीता ?’’
बिहारीलाल फिर एक बार जोरदार ठहाके के साथ हँस पड़े।
एक कोने में पियानो पर अंगुलियाँ चलाते हुए अक्षय अचानक बीच में बोल पड़ा,
‘‘सुनिए, सब शांति रखें, अब मैं आपको विद्यापति की एक
वैष्णव
रचना सुनाने जा रहा हूँ।’’
विद्यापति की इस रचना ने कई पलों तक वातावरण में स्तब्धता भर दी। लालटेन
के प्रकाश में अचानक भाभी के चेहरे पर रवींद्रनाथ की निगाह पड़ी। वे पल्लू
से आँखें पोंछ रही थीं।
गीत जैसे ही खत्म हुआ, बिहारीलाल बोल पड़े, ‘‘सुंदर,
अति
सुंदर ! विद्यापति और चंडीदास की यही खासियत है। प्राचीन बंगाली साहित्य
में इन्होंने जो वैष्णव परंपरा विकसित की, वह आज इतने बरसों के बाद भी
ताजे फूलों की तरह महक रही है। अक्षय बाबू, एक और गीत हो जाने
दें।’’
रवींद्रनाथ ने तुरंत आगाह किया, ‘‘और देखो, भाभी रानी
को रुलाई आए, ऐसा गीत न हो।’’
अचानक पकड़े जाने का अहसास होते ही कादंबरी ने चेहरे पर लगाया पल्लू तुरंत
ही हटा लिया।
अक्षय चौधरी ने कुशलता से पियानो पर उँगलियाँ चलाईं और दूसरा गीत शुरू
किया-श्याम कृष्ण और गोरी राधा।
कृष्ण राधा को छूते हैं तो वह झूठ-मूठ का गुस्सा करती है-ए ! मेरे
गोरे-गोरे अंग पर तुम्हारे श्याम रंग का दाग लगता है।
नटखट कृष्ण शरारत भरे स्मित के साथ कहते हैं-तो यह दाग मेरे श्याम तन से
रगड़कर दूर कर लो।
गीत इस कदर भाव-विभोर होकर गाया गया था कि राधा-कृष्ण का यह संवाद भले ही
हजारों वर्ष पूर्व वृंदावन में यमुना किनारे हुआ हो, उसका साक्षात् सजीव
दर्शन यहाँ इस वक्त हो रहा था।
‘‘आज के हमारे बँगला विवेचकों के हाथ में यदि यह रचना
पड़ जाए
तो वे इसे अश्लील कह थू-थू करें, ऐसे हैं।’’
ज्योतिरिंद्रनाथ
ने पहली बार बातचीत में रुचि लेते हुए कहा।
‘‘रवि बाबू की ‘कवि काहिनी’
कविताओं का भी तो यही हश्र हुआ था।’’ कादंबरी ने याद
दिलाया।
‘‘सच्चा समीक्षक तो समय है। आप बेहिचक अपने ढंग से
कविताएँ
लिखते रहिए, रवि बाबू !’’ बिहारीलाल ने हौसला बढ़ाया।
हुक्का गुड़गुड़ाते बिहारीलाल से कांदबरी ने कहा,
‘‘दादा ! अब आप ‘शारदामंगल’
काव्य सुनाइए।’’
बिहारीलाल ने कुछ क्षण के लिए आँखें मूँदीं, हुक्के का एक और लंबा कश
खींचा। निगाली अक्षय को थमाते हुए धीरे से कुछ गुनगुनाने लगे। गुनगुनाते
होंठों पर सबकी निगाहें टिक गईं। जीवन अमंगल तत्वों से बना है, फिर भी
विजय अंततः मंगल तत्वों की ही होती है।
बिहारीलाल ने जैसे ही कविता पूरी की कि कादंबरी तालियाँ बजाते हुए झूम
उठी। कादंबरी की इस प्रसन्नता को देख वहाँ उपस्थिति चारों पुरुषों को कुछ
अटपटा-सा लगा।
बिहारीलाल ने तुरंत दूसरी कविता शुरू की-दैवी और आसुरी दोनों प्रकार के
तत्त्व एक ही साथ मनुष्य में रहते हैं और संघर्ष करते हैं। आसुरी तत्त्वों
को जीतने से रोकने के लिए जरूरी हो तो आदमी को आत्मबलिदान करने से भी नहीं
हिचकना चाहिए। ऐसे बलिदानों से ही दैवी तत्त्वों की जीत होती है।
‘‘वाह-वाह दादा ! क्या खूब
कहा।’’ कादंबरी दुगनी
प्रसन्नता से बोल पड़ी, ‘‘किंतु इन तत्त्वों को
पहचानने के
लिए अलग कैसे करेंगे, दादा ?’’
‘‘हम इन तत्त्वों को जानते ही हैं,
ठकुराइन।’’
बिहारीलाल ने कहा, ‘‘बुद्धि के व्यभिचार द्वारा हम
आत्मा को
छलते हैं। आत्मा तो रास्ता दिखाने के लिए तत्पर ही
है।’’
कादंबरी ने इसका कुछ भी प्रतिवाद नहीं किया। बाहर आधी रात का गजर अभी-अभी
बजा था।
‘‘रवि बाबू !’’ अक्षय ने
रवींद्रनाथ से आग्रह
किया, ‘‘आप ‘स्वप्न प्रयाण’
सुनाइए। भाभी रानी को
यह कविता बहुत प्रिय है।’’
‘‘नहीं, आज तो रवि बाबू के काव्य-संग्रह
‘छवि-ओ-गान’ की ‘राह का प्रेम’
काव्य सुनना
है।’’ यह कहते हुए कादंबरी ने रवींद्रनाथ के हाथ में
‘छवि-ओ-गान’ पुस्तक थमा दी।
रवींद्रनाथ ने पुस्तक के पन्ने पलटना शुरू किया। यह पुस्तक उन्होंने भाभी
रानी को अर्पित की थी। अर्पण पृष्ठ पर स्वयं अपने हाथ से लिखे वाक्य को
रवींद्रनाथ ने मन-ही-मन पढ़ा-
एक भी गीत गाए बिना,
आपने मुझे गीत गाता कर दिया।
इस एक ही वाक्य को रवींद्रनाथ बार-बार पढ़ते रहे। अंगुलियाँ पन्ने पलटकर
‘राहु का प्रेम’ तक पन्ने पलटना ही मानो भूल गई थीं।
रवींद्रनाथ के कंठ से भाभी रानी की प्रिय कविता सुनने की बेताबी ने शांति
व्याप्त कर दी। सबकी निगाहें रवींद्रनाथ के चेहरे पर टिक गईं। अत्यंत
कर्णमंजुल पर दर्द भरे स्वर में रवींद्रनाथ ने कंठ खोला-राहु और चंद्र
दोनों आकाशी पदार्थ।
कभी एक हो ही न सकें ऐसी इनकी जुदा-जुदा जगहें।
एक दिन चंद्र की सौम्यता देख राहु का चित्त चंचल हुआ।
चंद्र को पाने के लिए राहु उसकी ओर थोड़ा सरका। राहु की छाया पड़ने के साथ
ही चंद्र पर कालिमा के दाग पड़ गए। राहु ने ज्यों-ज्यों चंद्र के निकट
पहुँचने का प्रयास किया त्यों-त्यों चंद्र की चाँदनी धूमिल पड़ती गई।
राहु और चंद्र के इस असंभाव्य मिलन का क्षण मानो सदा के लिए खो गया। एक
धक्का-सा खाकर राहु अपनी जगह पर वापस लौट आया।
काव्य गान पूरा हुआ। कुछ पलों के लिए महफिल में सन्नाटा छा गया।
‘‘दूसरी बार राहु ने चंद्र के पास जाने का प्रयास
किया कि
नहीं, रवि बाबू ?’’ कादंबरी ने स्पष्ट उत्तर पाना
चाहा।
‘‘राहु यदि दूसरी बार चंद्र के पास जाने का प्रयास
करता तो
उसका प्रेम स्वार्थी माना जाता।’’ रवींद्रनाथ ने पूरी
गंभीरता
से कहा, ‘‘एक बार थोड़ा सा पास जाने पर यदि उसकी
परछाईं से
चंद्रमा पर कालिख लग जाती है, यह जानने के बावजूद, राहु बार-बार चंद्रमा
के निकट जाने का यत्न करे तो जैसा कि अभी-अभी दादा ने कहा, यह आसुरी
तत्त्व है।’’
‘‘सही है !’’ बिहारीलाल ने मानो
फैसला देते हुए रवींद्रनाथ का समर्थन प्रेम की कसौटी
है।’’
ज्योतिरिंद्रनाथ अपने कागजों से उकताकर दाहिने हाथ से पंखे से हवा कर गरमी
की उमस दूर करने का प्रयत्न कर रहे थे।
‘‘बस, अब महफिल का विसर्जन
करें।’’ बिहारीलाल ने
ऊपर आकाश में कृष्णपक्ष की मध्य रात्रि के अर्धचंद्र की ओर देखते हुए कहा।
सब खड़े हो गए। ज्योतिरिंद्रनाथ अपने शयनकक्ष की ओर मुड़ गए, लेकिन
कादंबरी अभी जीने के पास ही रुकी हुई थी।
‘‘रवि बाबू !’’
‘‘आपने मुझसे कुछ कहा, भाभी रानी
?’’ अपने
शयनकक्ष की ओर कदम बढ़ा चुके रवींद्रनाथ ठिठके। उन्होंने कादंबरी की ओर
देखा।
‘‘रवि बाबू ! आप बहुत अच्छा लिखते हैं ! सदा ऐसे ही
लिखते
रहिए, लगातार।’’ कादंबरी के होंठ हलके से हिले।
कादंबरी ने
तेजी से अपने शयनकक्ष की ओर कदम बढ़ाए।
रवींद्रनाथ के चेहरे पर पल भर के लिए उलझन झलकी। दूसरे ही पल उनके चेहरे
पर मुसकान कौंधी और विलीन हो गई। वे पहली मंजिल पर अपने शयनकक्ष की ओर
जाने लगे।
.........