गुरु-पर्व (असमिया कहानी) : डॉ. लक्ष्मीनंदन बोरा

Guru-Parva (Asamiya Story) : Dr. Lakshmi Nandan Bora

आदिगुरु के पिता की कोई भी बात सीधी नहीं होती । उनका टेढ़ी-मेढ़ी बातों वाला प्यार अंतर में सीधे घुस जाता है । अगर कभी आंगन में दंवरी को छोड़कर अंदर गया होता और पूलों को उकेरना होता, तो वे अंदर देखकर पुकार लगाते- “अरी बेटी, उसे अच्छी तरह से बनाकर एक तामोल खिला और इधर भेज दे।” शरमाकर मैं झट से बाहर निकल आता, क्योंकि शादी को सिर्फ दो ही महीने हुए हैं । “अंदर जाकर कपड़े बदले ले” वह कहें, तो समझना चाहिए कि खेत में जाने का समय हो गया है । “धोती सहेज ले” कहें, तो समझना होगा कि बांस काटना है । सुबह-सुबह अगर पुकारकर कहें- "मुन्ना, बैलगाड़ी पर छत लगा देना”, तो पत्नी से बात करने की समाप्ति समझनी चाहिए । “मैं उसे अभी नहीं भेजूंगा”, मेरे कथन का वह विपरीत आदेश है।

उनके बाद के गुरु को पिता के आदेश से ही वरण करना पड़ा था। वे मेरे गंधर्व-गुरु थे। उन्हीं से मैंने गीत-पद और सूत्रधारी अभिनय आदि सीखा है । पाठशाला में जिन्हें पाया था, उन शिक्षा-गुरुओं की अब चर्चा ही क्या करूं? वे सब सरकारी वेतन पाने वाले गुरु थे, सिर्फ मेरे ही नहीं, गांव भर के गुरु रहे।

एक दिन पिताजी बाहरी कमरे में बैठे बेंत की कमाची छील रहे थे। मैं पास के कमरे में बैठा था, पत्नी के साथ तामोल चबाता । तभी पिताजी को आवाज देते हुए श्रीधर, भोटोक, भोकोला और वसंत ताबै वहां आ पहुंचे । ये चारों बुधवारी गोसांई से एक ही साथ दीक्षित हुए थे। पिताजी ने “गृहत थाकिया पेखिलों तयु चरण" (यानी घर में रहते हुए आपके चरणों का दर्शन किया) यह घोषा पद गाकर दंडवत् किया। उसके बाद आपस में हथेली फैला जमीन पर रख, सिर नवा आसन पर बैठे गये । मैंने एक बार बीच में आकर एक नजर डाली और अंदर चला गया। पहले-पहल वसंत चाचा ने आवाज दी - “बांछा आतै, अरे समझे न, जमाना बिलकुल बदल गया है । लदर सूत्र ने गांव छोड़ दिया, कई दिन पहले । सुना है, कांहिगुड़ी में मास्टरी मिली है। साथ ही जमीन लेकर खेती-बाड़ी करने की भी इच्छा है । भादो महीने में भी, सुना है, आ नहीं सकेंगे।"

उनकी बात खत्म होते न होते भोकोला भाई बोल उठे- “कहते हैं न, कि ‘धन रैल परि, देहा गैल उरि तथापि मानिष विषय-विकल' यानी, धन पड़ा रहा, देह उड़ गयी फिर भी मनुष्य विषय-विकल है । हरि-हरि, भला कितने दिन खिला-पहनाकर इस सड़े-गले शरीर का बोझ ढोते रहेंगे? फिर भी यह करतूत?"

तभी घर की छत पर एक छिपकली के टिक्-टिक करते ही उत्साह के मारे जमीन पर तीन ठोकर मारकर, सत्य, सत्य' कह श्रीधर बामन बोले- “इन्होंने सच्ची बात कही है। कहा है न, 'विषयर सुख इटो, तिले करि चूर, यमर किंकरे धरि निबे यमपुर' यानी इस विषय-सुख को पल में चूरकर यमदूत पकड़कर यमलोक ले जायेंगे। फिर भी तो लोगों को सुमति नहीं आती। हमारा कहना था कि हे सूत्र, इस घट को छोड़ने के और कितने दिन हैं ? इन थोड़े-से दिनों को आंखों के सामने रखकर हरिनाम जपते हुए ही आंखें क्यों न मुं? मगर सूत्र का विचार तो उलटा है।"

तीनों के विचार सुनते हुए पिताजी अब तक मौन थे। मानो उनकी राय जानने के लिए ही उन लोगों ने ये बातें कही थीं। आखिर पिताजी की गंभीर आवाज कान में पड़ी - “सूत्र ने अच्छा काम किया या बुरा किया, निश्चित रूप से कुछ बता नहीं सकता, प्रभुगण ! इस बारे में मुकुंद गोसांई का विचार मैंने अपना लिया है । उनका कहना है, विषय-वासना को छोड़ने की भावना होने पर भी, उन बातों को जबान से उच्चारण न करना ही अच्छा है । छोड़ने की बात कहते फिरते हैं, छोड़ न पाने के कारण ही । वे सब ज्यादा ही जकड़कर बांध लेते हैं । भला हममें कौन आदमी संसारी नहीं है ? खैर, वह सब छोड़ देते हैं। क्या सूत्र के साथ कोई अनहोनी हो गयी?”

पिताजी की बात से मानो तीनों ही मायाजाल में फंस गये हों, ऐसा अनुभव कर सभी कुछ क्षण स्तब्ध-से रह गये। अब तक चुप्पी साधे रहने वाला भोटोक गायन अब असली मुद्दे पर आया। उसने कहा - "भला ये सारी बातें सोचकर हमारा क्या भला होने वाला है ? सूत्र को भला हित-अहित का ज्ञान कौन दे? जिसे हम देख नहीं पाते, उस विषय में आवाज उठाकर हमारा क्या लाभ होगा? यह बात खैर छोड़ ही दे रहे हैं । धर्ममूर्ति माधवदेव की तिथि पर कोई नाटक अभिनय किये बगैर कैसे चलेगा? इतने दिनों से, उस भेदो सूत्र के जमाने से ही सूत्र सभासदों को तन्मय कर देने वाले भाओना अभिनय की पतवार पकड़े हुए था। मगर अब तो हम लाचार हो गये हैं। आदमी में भी कैसे अजीब-अजीब गुण होते हैं । बांछा आतै, लेकिन नामघर सूना नहीं रह सकता।”

यह बात सुनते ही सभासद-गण गंभीर हो गये। पास के कमरे से अब उनकी बातें मुझे सुनायी नहीं दे रही थीं। शायद किसी गोपनीय बात की चर्चा होने लगी थी। कुछ क्षण बाद पिताजी की आवाज आयी- “पिछली बार, राजा का अभिनय करेगा, ऐसा मुझे बताकर मुझसे दस रुपये ले गया था, मगर पैसा खर्च किये बगैर लाल-लाल कागज की जीभ लगाकर असुर बनकर निकला था, मुझे उसने पहली और आखिरी बार धोखा दिया था, पर इस बार वह कैसे बच सकता है ?” प्रकारांतर से पिताजी मुझे ही डांट रहे हैं, यह बात समझने में बाकी न रहने पर भी मुझे कोई खास डर नहीं लगा था। लगा था, वे यह बात हंसते हुए कह रहे हैं । लगा था, गुरुभाई लोग, मेरी बड़ाई ही कर रहे हैं । अचानक पिताजी ने अंदर देखते हुए आवाज लगायी, - “अब तक उसका कंघी करना क्या खत्म नहीं हुआ?" मतलब कि मुझे वहां हाजिर होना है । जैसे ही वहां पहुंचा उन्होंने कहा - "तुझे लोदो के सूत्र का अभिनय करना होगा। भाओना के लिए अब सिर्फ बीस दिन हैं । कल ही मुकुंद गोसाई से कह दूंगा, वे घर पर ही आकर सिखला देंगे। उनके घर में तो लड़कों-बच्चों के कारण ही हो-हल्ला मचा रहता है। सुन रहा है न?”

मैंने भी 'हां' कह दिया और दंग होकर खड़ा रहा। नहीं कहने का तो कोई उपाय ही न था। सूत्रधार बनने का मौका पाकर अचानक मन दमक उठा, अपनी नयी पली को नये पद का गौरव दिखलाने के लिए, अपने नवविवाहित मन को 'रुक्मिणी-हरण' नाटक में समोये रखने का मौका मिलने के कारण ।

मुकुंद गोसांई का नाम बचपन से सुनता आ रहा हूं । नगांव के भाठी की तरफ उनका बहुत नाम था । गोसांई की रागिनी जिसने एक बार सुन ली, उसके कानों में वह कई दिनों तक बजती रहती थी। लोगों के विचार से शुद्ध रूप से धनश्री राग गाने वाला उस इलाके में गोसांई के सिवा और कोई रहा ही नहीं । मगर मैंने गोसांई को देखा न था। गोसांई चरिपोता सत्र के थे, जो हमारे घर से दो मील दूर है । हमसे उनका संप्रदाय भी अलग है और हम भगत भी न थे। इसी कारण उनसे हमारा संबंध कम ही था । तिस पर बूढ़े हो जाने के कारण गोसांई बाहर ज्यादा नहीं निकलते थे।

पिताजी के मुंह से ही सुना था कि चरिपोता सत्र के प्रभु लोग खोल-ताल आदि में दक्ष थे। सुना है, किसी चरित पोथी में यह लिखा हुआ है कि एक बार गुरु-पुरुष शंकरदेव एवं धर्ममूर्ति माधवदेव जब नाव में भाठी की तरफ जा रहे थे, तब उसी जगह उस नाव का एक चरि यानी डंडा गाड़कर चावल उबाला था। तभी से उस सत्र का नाम चरिपोता पड़ गया । वह सत्र पुराने जमाने का था। उनके पूर्वजों को देवताओं की कला के ज्ञाता मानकर सम्मान दिया जाता था। मुकुंद गोसांई में अनेक गुण हैं । महापुरुष शंकरदेव के चार नाटक वे जबानी बोल सकते हैं, राग-रागिनी, तोट्य-भटिमा की तो बात ही क्या? खोल-ताल, गीत-पद, गायन, भाव-भक्ति आदि से वे पूर्वजों के गुणों की रक्षा करते आये हैं । फिर भी पहले की वह भरी-पूरी, जय-जय की स्थिति अब नहीं रही। शिष्य-भक्त आदि भी दिनों-दिन घटते गये हैं। मगर गोसांई को कोई खास परेशानी न थी। इकलौती बेटी की शादी करने के बाद बिलकुल स्वतंत्र हो गये थे। मगर विधवा भातृवधू के बच्चे-पोसने में गोसांई लाचार हो गये हैं।

बैलों को खेतों में छोड़ आने के बाद आंगन में आकर देखा, पिता जी एक आदमी से बातें कर रहे हैं। एक मैली-सी धोती पहने और शरीर पर एक झीनी चादर डाले गोरे-से, सुंदर सज्जन । लंबी नाक और उभरे ललाट के कारण पहले-पहल देखने में दूसरों से अलग जान पड़े । कपाल पर चंदन-तिलक और लंबे बालों के सिरे पर तुलसी के पत्ते, पवित्र-भावना जगा रहे थे। मैं समझ गया, ये ही गुरु हैं । मैं वहां जाऊं कि न जाऊं के पेशोपेश के बाद मेरे अंदर घुसते हो पिताजी ने कहा, “चटाई दीवार से टिकायी हुई है ।” बैठने का निर्देश पाकर मैं भी उसी प्रकार बैठ गया। पिताजी की बातें शुरू हो गयीं - "बंदे का है, ऐसा गर्व भला क्या करूं? प्रभु ने इसी को जिलाये रखा है।" लगा कि दूर से ही उन्होंने आंखों के संकेत से मेरी तरफ इशारा किया।

मेरा परिचय पाने के बाद दास्य-भक्ति के विनयावनत स्वर से गोसांई ने अपनी बात का आखिरी हिस्सा यों कहना शुरू किया, “मन में उमंग आ जाने पर जैसे कौवे कांव-कांव करते हैं, हम भी उसी तरह नामघर में घुसकर शोरगुल किया करते हैं । बस इतना ही है। किसी जमाने में बरगीत वन की हिरनी भी कान खड़ेकर तल्लीन हो सुना करती थी। हिंसक जंतु भी शिकार करने की भावना छोड़ देते थे। बराडि राग से सागर में रहने वाली मछलियों में भी खलबली मच जाया करती थी। कहा है न,

'मत्स्य मगर सागर तर किर जाय ।
सेहि बेला कानाइ बराडि राग गाय ॥

यानी - जब कन्हैया बराड़ि राग गाते थे तब मछलियां, मगर आदि सागर में खलबली मचा देते थे।.. ऐसी भी वह देव-विद्या । क्या हम उसके लायक हैं?”

गोसांई की इस विनम्रता से मैं मुग्ध हो गया । संकेत पाकर दक्षिणा के साथ सुपारी के बटा को सामने कर घुटने टेकने के लिए ज्योंही बैठना चाहा, पिताजी ने आवाज लगायी - "तुम लोग पढ़े-लिखे लड़के हो न? तुमसे एक बात पूछता हूं - कृष्ण थे जगद्गुरु, अर्जुन के सखा । फिर भी बाण मारते समय अर्जुन किसका स्मरण करता था?" थोड़ा विचारकर सिर खुजलाते हुए मैंने धीमे से कहा- “शिक्षा-गुरु द्रोण का ।” जवाब से संतुष्ट होकर गोसांई बोले, "सच कहा। शिक्षा-गुरु द्रोण का ही स्मरण करता था । द्रोण दरिद्र था, अंत में उसने पांडवों के विरुद्ध लड़ाई भी की थी। फिर भी गुरु पर अर्जुन की अविचल भक्ति थी । इसी कारण अर्जुन ऐसा महान धनुर्धरबन सका, जिसके सारे बाण अव्यर्थ थे।” नवागत गुरु के प्रति श्रद्धा दिखानी चाहिए, ऐसा सोचकर जमीन को हाथ से पोंछ, बटा उनके सामने रखकर मैंने प्रणाम किया। गोसांई प्रभु ने भी सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया- “विद्या बढ़ती रहे, मनोकामना सिद्ध होवे !”

दूसरे दिन से शिक्षा शुरू हो गयी। पहले-पहल उन्होंने कुछ गीतों की धुनें और सूत्रधारी-नृत्य में आवश्यक मृदग के बोल सिखाने का निश्चय किया। पहले दिन उन्होंने बताया कि “खोल-ताल, नगाड़ा, घंटा आदि देववाद्यों की क्षमता अपार है । गुरु-पुरुष शंकरदेव ने पहले पहल जब खोल बनाकर उस पर मसाले का लेप किया था, तब ऐसी आवाज नहीं हुई थी। एक दिन लेप लगाकर उन्होंने खोल को धूप में रख दिया था। तब एक कौवे ने उसमें पाच मार दी। उसके बाद ही देखा गया कि गुरु-पुरुष ने जैसा चाहा था, वैसी ही आवाज उस खोल से आरही है, क्योंकि उस कौवे की चोंच में जूठी पत्तल का भात लगा हुआ था । मसाले से उसका संपर्क होते ही खोल इस तरह की आवाज करने लगी। कौवे की यह घटना भी प्रभु का संकेत भर थी। इसी कारण आज भी खोल पर मसाले का लेप किया जाये तो उसमें बासी भात पीसकर मसाले पर लगाये बगैर अच्छी आवाज नहीं निकलती । मृदंग के बारे में भी वही बात है । पहले-पहल मृदंग बनाकर उसे बजाने के बारे में सोचते हुए गुरु-पुरुष चबूतरे पर आ बैठे । कई दिन बीत गये पर उनकी समझ में कुछ नहीं आया। एक दिन जब वैसे ही बैठे हुए थे, तो आकाश से एक चिड़िया उड़ती हुई आयी और उनकी तरफ सीधे कुछ बोल छोड़ती गयी। उन्हीं बोलों को उन्होंने मृदंगकी धुन बना लिया । उस चिड़िया का नाम है भेदो कालि । सुनते हैं कि आज भी वह साल में या कई साल बाद एक बार संसार में आती है।" ये बातें जैसी भी हों लेकिन, चूंकि गुरु की जबान से वाद्य-यंत्र के बारे में पवित्र-भाव से कही गयी बातें हैं, अतःसुनकर कुछ बड़ा काम करने के लिए उत्साहित मेरे मन में उथल-पुथल मच गयी थी।

सूत्रधारी सिखाने के लिए उन्होंने शंकरदेव का रुक्मिणी-हरण नाटक चुना । गुरु हमेशा दिन-ढले आते और शाम होते ही चले जाते । नयी-नयी राग-रागिनी और भटिमा की तान और धुनें सीखने में मुझे बड़ा आनंद आता । अर्थ-व्यंजक हाथ चलाने में मेरी बड़ी दिलचस्पी थी। गुरुजी के मुंह से रागिनी सुनकर मैं अभिभूत हो जाता था। कंठ स्वर के कंपन से हर्ष-विवाद की लय अच्छी तरह समझने लगा था।

मैं मन लगाकर सीखने लगा, इससे पिता जी के मन में भी हर्ष था। गोसांई के जाते ही वे एक-दो पूरा धान नौकर के हाथ उनके घर भिजवा देते, जिससे गोसांई को पता न चले। नौकर कभी जाने में आनाकानी करता तो पिताजी कहते - “तुम सब क्या समझोगे? ऐसे पुरुष जो हमारे यहां आते हैं, यह भी अपना परम भाग्य है।"

गुरु-कृपा से हो, या पिताजी के प्रयास से मैं किसी तरह भाओना में सूत्रधार की भूमिका करने लायक बन गया। नौजवान सूत्रधार बड़ा ही मन-पसंद हुआ है, गांव के सभी लोगों ने एक स्वर से कहा । गुरुजी के प्रति कृतज्ञता से सिर झुक गया। भादो का महीना निकल गया। पिताजी के अनुरोध से गुरु और एक पखवाड़े तक आते रहे।

अगहन में फिर रास-यात्रा के लिए तैयारी करनी पड़ी। गुरु न होने के कारण रिहर्सल-घर में मेरी अवस्था कैसी हो गयी, मैं ही जानता हूं । कुछ दिन रिहर्सल करने के बाद ही अपने को धिक्कारने लगा। केलि गोपाल के आखिरी हिस्से के कई श्लोक ठीक से गा नहीं पाता था। ऐसे उत्तम गुरु से भी अच्छी तरह से सीख न पाने के कारण अपने को बड़ा असमर्थ-सा महसूस करने लगा। गुरु के पास जाना भी संभव न था। वे बीमार हो गये थे।

एक दिन दोपहर को नाटक हाथ में लेकर मन मारे बैठा था, तभी हेमारबड़ी का रूपाइ सूत्र आ पहुंचा । मन के दुख से अपनी सारी दुर्बलता उससे प्रकटकर दी। दोनों नाटकों के सारे श्लोक और गीत-पद आदि वे बड़े सुंदर ढंग से गा सकते थे। मेरी हालत सुनकर उन्होंने जो कहा, वह नुकीले बाण जैसा मेरे दिल में चुभकर मुझे बिलकुल निढालकर गया। सूत्र ने बताया कि राग गाने-समझने का एक बढ़िया नियम है। उदाहरणस्वरूप, सिंधुरा राग के प्रारंभिक सात अक्षरों को कोमल रूप में लाकर पीछे की ओर चढ़ा देना होता है । अहीर राग में पहले के दो अक्षरों को अलग से खींचकर पिछला हिस्सा करुण स्वर से एक ही साथ गाते जाना चाहिए । श्रीगांधार में पहले के तीन अक्षरों को तेजी से गाकर पिछला हिस्सा धीरे-धीरे घटा लाना चाहिए । इस तरह दस-बारह श्लोक गाने के बाद बात मेरी समझ में आ गयी थी। जाते-जाते वे कह गये- “आपको सिखाने वाले ने बार-बार गाकर कुछ स्वरों को याद करवाना चाहा है, पर किस राग की पहचान कैसे कर सकते हैं, एक का दूसरे से क्या अंतर है, इसके विश्लेषण की कोई जानकारी उन्होंने नहीं दी।” यह बात मुझे जहर-सी लगी। सीख न पाना मेरा दोष हो सकता है, मगर इसी कारण असमर्थ शिष्य के गुरु तो दोष के भागी नहीं हो सकते ।

सूत्र के जाने के बाद जाइंमला बूढ़ी अंदर से निकली । लगता था, वह हमारी बातें अंदर से सुन रही थी। दूसरों के कपट की बातों का प्रचार करती फिरने वाली, पर खुद कपटी, इस बूढ़ी को देखते ही मेरे शरीर में आग लग जाती है। बुढ़िया ने लहजेदार आवाज में कहा“मुन्ना, मैं भी यही कहती हूं । सूत्र असली बात की तरफ इशारा कर गया है । हजार हो, वे ठहरे गोसांई । गोसांई आदमी के लिए किसी शूदिर (शूद्र) को निष्कपट रूप से सब कुछ दे देना कठिन है । किसी शूद्र का बेटा नाचने-गाने में जाना-माना बन जाये, ऐसा करने को गोसांई का मन नहीं होगा। यह सब विद्या उनकी निजी संपदा है।"

इस बात पर मेरी ओर से कोई उत्साह न मिलने के कारण बुढ़िया चुप रह गयी । वह जा नहीं रही थी, यह देखकर मैंने गुस्से से कहा, "मुंहझौसी बुढ़िया, यहां से भाग । बेकार की बातों में सिरन खपा । परनिंदा में ही तो तेरी तीन-चौथाई जिंदगी बीत गयो।” अपने बेटों की भांति मेरी अवज्ञाभरी डांट सुनकर बुढ़िया नौ-दो-ग्यारह हो गयी।

बार-बार गुरुजी की याद आने लगी। सोते समय सोचा- गुरुजी, एक महीने से बीमार पड़े हैं। इसीलिए जाइंमला बूढी यह बात कह सकी, रुपाइ सूत्र अपनी पंडिताई दिखला सका। गुरुजी चंगे हो जायें। सब कुछ पूरा-पूरा सीखकर इन निंदकों के चेहरों पर कालिख पोत दूंगा। गीत-पद-रागिनी आदि तो स्कूलों में सिखाया जाने वाला गणित का हिसाब नहीं कि नियम सीख लेने पर ही सब कुछ हो जायेगा । अपने को धिक्कारते सूत्रधार पद ग्रहण करने के कारण शर्मिंदा और दिल पर बोझ बनी अनेक बातों पर सोच-विचार करते आधी रात बीत गयी। बिस्तर से उठकर आंगन में आया। देखा, पिता जी आंगन के बीच आत्मलीन-से खड़े हैं। गहरी रात । दूर से आती हुई उल्लू की बोली, और पास की बांस की झाड़ी के घुप्प अंधेरे में झीना उजेला बिखेरते जुगनुओं के कारण रात और ज्यादा गहरी लग रही थी। मेरे पास आकर पिताजी ने पूछा, "कुछ सुनायी दे रहा है ?” मैंने अच्छी तरह कान लगाकर सुना, तो मेरी छाती अचानक दहल उठी । दूर खेतों की ओर से शायद धमपुरा पोखरे के किनारे से किसी औरत के रोने की आवाज आ रही थी। पिताजी ने गंभीर आवाज में सिर्फ इतना कहा - “वह किसी ऐरी-गैरी औरत की रुलाई नहीं है। वह हमारे अंचल की भाग्यलक्ष्मी है। किसी संत-महात्मा के जाने का समय होने पर, देश की धरती हिल उठेगी, इसी आशंका से भाग्यलक्ष्मी फूट-फूटकर रोया करती है । इस बार पछंद बाप के चलाचली के समय भी ऐसी ही रुलाई सुनी थी। लगता है, मुकुंद गोसांई भी शुक्ल पक्ष तक रह नहीं पायेंगे।"

पिताजी की बातें मुझे उस रुलाई से भी ज्यादा भयावह जान पड़ीं। उसी दिन से वे हमेशा गुरु के यहां जाते और मैं भी तीन-चार दिन के अंतर से जाता रहता । राग-पद या सूत्रधार आदि की बातें मन से हट चुकी थीं। गुरु के घर की फूस-झड़ी, छत, भ्रातृ-वधू का बिखरे बालों वाला करुण चेहरा, और बच्चों की दयनीय स्थिति देखकर सोचा करता- इस स्थिति में भी रुक्मिणी के रूप-वर्णन के सुंदर चपय प्रेम उमड़ाने वाले विरह-गीत, और मुक्तिमंगल भटिमा आदि का इतना हृदयस्पर्शी गायन गुरुजी कर पाते थे, यह कितनी अद्भुत बात है । कठोर चट्टान पर संगीत की जड़ जमा सकना ही मानो उसका व्यतिक्रम है।

पड़ोसी और धनहीन भगतों की सेवा-टहल के बावजूद गुरु की हालत सुधरने की ओर नहीं आयी । पुढे सूख गये, कानों की लुटकियां ढीली पड़ गयीं। दवा पिलाते समय पीने से इनकार करते । नमक गर्मकर शरीर सेंकने की बात पर कह देते- “मरी हुई बत्तख के लिए चटाई बिछा रखने की कोई जरूरत नहीं।” हम निराश हो बैठे रहते।

एक दिन शाम को गुरु जी के पास सिर्फ पिताजी और हम थे। उन्होंने हम दोनों को पास बुलाकर कहा- “बांछा आतै, आज दो दिन से तुम्हें और सूत्र बेटे को एकांत में पाने की बात सोच रहा था। आज वह मौका मिला है। नहीं तो शायद मन की बात मन ही में रह जाती। बात बड़ी जटिल है । मैं तुम्हारा और सूत्र बेटे का अपराधी हूं। सब कुछ मुझे कह लेने दो। बीच में टोकना मत । सब कुछ कह लेने पर मेरा मन शांत हो जायेगा । मरने में तो अब चार दिन भी नहीं है। अपने शरीर से ही मुझे अनुभव हो रहा है। तुम भी शायद दो-एक लक्षण देख रहे हो । तिस पर कल एक सपना देखा है । बालि सत्र के आता को स्वर्गवासी हुए लगभग नौ साल हो गये। कल देखा कि उनसे बातें कर रहा हूं | पता चला, वे आजकल बरदोवा के उधर डेला डालकर अनेक साधु-संतों के साथ हरिकीर्तन करते हुए अमृत-आनंद में हैं। मुझे भी वहां ले जाने को आये हैं। बार-बार समझाने पर मैं भी लाचार होकर सहमत हो गया और दोनों शांति-जान से होकर उजान की तरफ नाव से चल पड़े। तभी नींद खुल गयी। सपने से पता चल गया, मेरी आयु अब खत्म हो चुकी है। तुम तो जानते ही हो, सपने में अगर कोई मृत व्यक्ति बार-बार चेहरे की ओर देखे तो सपना देखने वाले के प्राणों पर संकट आता है। चेहरे की ओर प्यार से देखने की बात तो दूर, हम तो एक-दूसरे से सटकर बैठे थे।"

लेटे-लेटे एक बार करवट बदलकर लंबी सांस लेकर वे फिर कहने लगे - “खैर, जो भी हो। आप लोगों से एक बात बताना रह गया है। अगर कह न जाऊं तो शायद मरने पर भी शांति न मिलेगी । इस लड़के को मैंने जो सिखाया था उसमें बहुत खामी रह गयी थी । पहले ही महीने उसे काफी अच्छी चीजें दे सकता था, मगर मेरे इस जर्जर पातकी मन ने रुकावट डाल दी। सोचा था, इसे जो-जो जरूरत होगी कार्तिक महीने तक सिखाता रहूंगा। हालांकि बीमारी की वजह से वह भी संभव न हो सका । असली बात कहने को जबान ही नहीं खुलती।"

गुरु जी की आवाज धीरे-धीरे कांपने-सी लगी । तब पिताजी ने “वह सब बीती बातें छोड़ दें" कहकर ज्यों ही कुछ कहना चाहा, गुरुजी ने उन्हें रोककर ऊंची आवाज में कहा - "इस लड़के से ईर्ष्या करने के कारण नहीं, बांछा आतै ! विषय-जंजाल में पड़कर ही ऐसा किया था । यह तो जानते ही हो कि घर में बच्चों की कैसी मुसीबत है। सावन के बाद से घर में मुट्ठी भर धान नहीं रहता। आज दो साल से एक-दो टुकड़ा जमीन बेचकर किसी तरह से चल रहा था ! पूस के पहले कभी करार का धान नहीं मिलता। यह तो हालत है मेरी ! इसी बीच आपके अनुरोध पर इस लड़के को सिखाना पड़ा। हमने कभी कोई चर्चा नहीं की, फिर भी विज्ञ मानकर आप दो मुट्ठी धान देते रहे उसी से किसी तरह चलता रहा । मगर एक बात मन में आते ही मेरा मन पिशाच बन गया। मगर बांछा आतै, यह साधारण-सी बात भी भला पहले मन में क्यों नहीं आयी?"

कोई गंभीर बात कहते-कहते गुरुजी अचानक रुक गये । मानो किसी ने उनका गला दबा दिया हो । पिताजी ने अंदाजा लगाकर गुरुजी के मन को हल्का करने के उद्देश्य से पूछा, क्या बात है, प्रभु?"

गुरुजी ने कहा, मेरे मन में यह बात आनी चाहिए थी कि मुन्ने को सिखा चुकने के बाद भी उससे या आपसे मेरा संपर्क कट नहीं जायेगा। संकट के दिनों की बात सुनकर मैं न जाने कैसा बन गया था। इसी कारण उसे जल्दी-जल्दी सब कुछ सिखाने से बचता रहा।” गुरुजी ने बात इतने आवेग से कही, मानो वे मेरी उपस्थिति बिलकुल भूल ही गये हों।

पिताजी भी स्तब्ध-से हो गये थे। गुरुजी की ओर नजर डालकर देखा, उनके चेहरे पर कई रंग बदल रहे हैं। कुछ क्षण रुककर पिताजी की ओर असहाय भाव से देखते हुए फिर बोले - “और ऐसी भावना भला होगी भी क्यों नहीं, बांछा आतै ? आज मुट्ठी भर पेट में डालने के बाद कल की क्या व्यवस्था होगी, यही चिंता जलाती रहती है। हम गोसांई लोगों के दुख की जलन का अनुभव दूसरे नहीं कर सकते । ऐसी स्थिति में सुबह-शाम नहाने से या माथे पर चंदन का तिलक लगाने से ही क्या अंतर पवित्र हो सकेगा? देव-विद्या सिखाने के लिए भी इस अंतर को मरोड़कर रख नहीं सका । शास्त्रों में पढ़ा था कि भावी दिनों के बारे में सोचना-विचारना नहीं चाहिए। उसके बारे में भावी दिन स्वयं ही विचार करेंगे। इस बात का मर्म समझ पाने पर भी मेरा विचार है कि शास्त्रों के सभी मतों को युगधर्म नहीं अपनाता। चालीस साल तक दिल लगाकर कितने ही लोगों को सिखाया था, उन दिनों मेरे चारों ओर सब कुछ की बाढ़ थी, सत्र के हर लय से मन निर्मल हो उठता है। अब सोचता हूं- हे प्रभु, भाग्य देकर इस सेवक से उसका हृदय भी छीन लिया । पूजा-घर में ताल बजाता हूं, गीत गाता हूं, विनय-घोषा के पद दुहराता हूं । पर उसमें भी चाह न पाकर पद्य-छंद, ताल-मान छोड़कर नीरस गद्य में ही कहता हूं - हे प्रभु, सेवक भला तुम्हारी महिमा क्या समझे? तुम्हारे द्वारा सृजित मुट्ठी भर जीवों में एक सामान्य जीव ठहरा । फिर भी मन में यह विश्वास है कि हमें जब दुख होता है तो शायद उससे तुम भी दुखी होते हो । यह लघु-सांत्वना लिये ही अब तक जीता रहा । इसी कारण, बांछा आतै, जीवन में इस मूढमति ने जो पहला और आखिरी अहित किया, उसे जैसे निज गुण से क्षमा कर दें। और एक बात, अंत में कहे देता हूं । उस मचान पर जो बही है उसमें राग और ताल की सारी बातें विस्तार से लिखकर रखी हुई हैं । मेरी चिता की आग बुझने के पहले ही इसे अपने घर ले जायें । यह पुस्तक मुझसे दो पीढ़ी पहले के एक आता ने लिखी थी । यह लड़का उसी से जो हो सके, सीखे । देव-विद्या का बीज इसी तरह अगर एक-दो के बीच न रह जाये तो संसार सूखी रेत भर रह जायेगा।"

फिर मेरी ओर देखते हुए कहा, “बेटे, मुझ पर रोष न रखना ।” मेरी आंखों से आंसू बहने लगे।

बात खत्म होने पर गुरुजी पिताजी के हाथ पकड़कर उनके मुंह की ओर देखते रहे। पिताजी ने भी रुंधे गले से कहा, “अब इतने पर हो...” और ज्यादा कुछ कह नहीं सके । पिताजी के भाव को ताड़कर उनमें कातरता देखकर गुरुजी को विश्वास हो गया और क्षण भर में उनके पीले पड़े चेहरे पर खून की लाली आ गयी । मगर मुझे गुरुजी की सेवा-टहल करने के लिए दो दिन का समय भी नहीं मिला। उनके शव के पास निढाल पड़ी बुढ़िया भ्रातृ-वधू आखिरी बार के लिए फूट-फूटकर रोयी, क्योंकि अब तो जिंदगी में उसे और किसी के लिए रोना नहीं है। असहाय बच्चे आगा-पीछा कुछ भी सोच न पाकर अवाक् होकर देख रहे थे। आंगन में इकट्ठे सारे लोगों की आंखें उस गुणीजन की यादों के आसुओं से तर थीं। इस कारण शायद भाग्यलक्ष्मी उस प्रकार से फूट-फूटकर उस दिन रोयी थी।

बच्चों के पुतले जैसे चेहरों पर भविष्य की करुण तस्वीर देखकर सोचता रहा - अगर इंसान के प्यार से जिंदा रहने के दिन चले गये हैं, तब तो इनके कठोर जीवन में कभी इनकी जुबान से गीत-पद नहीं निकलेंगे । बचपन में ही लोगों के सामने हाथ फैलाकर ये बस यही टोकारी गीत गाते फिरेंगे-

"ए मन सुंदर देहा कौन दिया जाय, ऐ मन भारसा नाइ...।"

(यानी- यह सुंदर देह किस दिन चली जाये रे मन, इसका कोई भरोसा नहीं।)

(घोषा=नाम-कीर्तन के साथ गाया जाने वाला पद या पंक्ति; बांछा आतै=गुरुभाई; माधवदेव=महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव के प्रमुख शिष्य; भाओना=शंकरदेव-माधवदेव एवं उनके शिष्यों द्वारा रचित धार्मिक नाटक; भगत=शंकरदेव-माधवदेव एवं अन्य वैष्णव संतों के चेले; खोल-ताल=मृदंग; तोट्य-भटिमा=स्तुति आदि; नामघर=वह स्थान जहां लोग पूजन, कीर्तन आदि करते हैं; बरगीत=महापुरुष शंकरदेव-माधवदेव रचित ब्रजावली भक्ति-पद; पूरा=लगभग पांच सेर का तौल; केलि गोपाल=शंकरदेव-रचित नाटक; पछंद बाप=गुरु आदि के लिए प्रयुक्त होने वाला सम्मानपूर्ण वैष्णवी संबोधन; चपय=एक छंद; भटिमा=स्तोत्र; आता=शंकरदेव माधवदेव के परवर्ती धर्मगुरुओं को आता कहते हैं; बरदोवा=शंकरदेव का जन्मस्थान; शांति-जान=एक नदी का नाम; टोकारी गीत=एक तरह का लोकगीत)

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