गाइड (अंग्रेज़ी उपन्यास) : आर. के. नारायण

The Guide (English Novel in Hindi) : R. K. Narayan

गाइड : अध्याय 5

'मुझे लोग 'रेलवे राजू' के नाम से पुकारने लगे। मलगुड़ी स्टेशन पर उतरते ही अजनबी लोग भी मेरा पता पूछते। कुछ लोगों के कपाल की रेखा में लिखा रहता है कि उन्हें एकान्त नसीब नहीं होगा। मेरा ख्याल है कि मैं भी उन्हीं लोगों में से हूँ, हालाँकि मैंने कभी लोगों से परिचय बढ़ाने की कोशिश नहीं की। लेकिन लोग खुद-ब-खुद आकर मुझसे मिलते थे। गाड़ी से उतरकर लोग हमेशा सिगरेट या सोडा खरीदने के लिए मेरी दुकान पर आते, किताब के ढेर को उलटते-पलटते और हमेशा यही सवाल पूछते, “फलां जगह यहाँ से कितनी दूर है ?” या “फलां जगह पहुँचने के लिए किधर से होकर जाना पड़ता है ? ... ." "क्या यहाँ बहुत-से ऐतिहासिक स्थान हैं?" "मैंने सुना है कि तुम्हारी सरयू नदी यहीं किसी पहाड़ी में से निकलती है जो बड़ी खूबसूरत जगह है।" इस तरह के सवालों को सुनकर मैं सोचने लगता कि मैंने इस विषय पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। मैं यह कभी नहीं कहता था, “मुझे नहीं मालूम।” शायद यह कहना मेरे स्वभाव के विपरीत था । अगर मेरी यह कहने की प्रवृत्ि होती, "पता नहीं तुम किस बारे में बात कर रहे हो,” तो मेरी ज़िन्दगी शायद दूसरे किस्म की होती। इसकी बजाय मैं कहता था, "हाँ, वह बहुत अच्छी जगह है। क्या तुम अभी तक वहाँ नहीं गए? तुम्हें वक्त निकालकर वहाँ ज़रूर जाना चाहिए, वरना तुम्हारा यहाँ आना बेकार होगा।” मुझे अफसोस है कि मैं सफेद झूठ बोला करता था, इसलिए नहीं कि मैं झूठ बोलना चाहता था, बल्कि इसलिए कि मैं खुशगवार बनना चाहता था । यह स्वाभाविक था कि इसके बाद वे मुझसे पहाड़ी का रास्ता पूछते थे। मैं कहता, “बाज़ार के चौराहे पर जाकर किसी टैक्सी ड्राइवर से पूछ लेना...।" यह सन्तोषजनक निर्देशन नहीं था। फौरन ही एक आदमी ने कहा कि मैं उसे बाज़ार के चौराहे तक ले जाकर टैक्सी दिलवा दूँ । जब भी कोई ट्रेन आने वाली होती थी तो खलासी का छोटा बेटा सिगनल के प्वॉइण्ट्स की ड्यूटी पर तैनात रहता था, बाकी वक्त उसे खास काम नहीं रहता था। मैं उस लड़के को दुकान पर बैठाकर यात्री को टैक्सी दिलवाने के लिए चला गया। बाज़ार में फव्वारे के पास बूढ़ा घाघ गफ्फूर किसी शिकार की तलाश में खड़ा था। वह मुल्क की पुरानी मोटरों को खरीदकर मरम्मत करवाने में माहिर था । वह पुरानी मोटरों में नई जान डाल देता था और उन्हें पहाड़ी सड़कों और जंगलों में चलाता था। आम तौर पर वह फव्वारे के पत्थर पर बैठा रहता था और उसकी मोटर सड़क पर नाले के पास धूप में खड़ी रहती थी। मैंने आवाज़ दी, "गफ्फूर, ये सज्जन मेरे दोस्त हैं। ये ... जगह देखना चाहते हैं । इन्हें घुमाने ले जाओ और सही-सलामत लौटाकर लाना.... इसीलिए मैं खुद इन्हें तुम्हारे पास लाया हूँ, हालाँकि इस वक्त मुझे अपनी दुकान अकेली नहीं छोड़नी चाहिए।" हम लोगों ने किराये पर झगड़ा किया। यात्री ने जो रकम बताई, मैंने गफ्फूर को उस पर राजी कर लिया। जब यात्री मोटर की शक्ल देखकर हिचकिचाया तो मैंने गुफ्फूर का पक्ष लेकर समझाया, “गफ्फूर कोई बेवकूफ नहीं है। उसने सोच-समझकर ही इस किस्म की मोटर खरीदी है। इस मॉडल की मोटर उसने बड़ी मेहनत के बाद तलाश की है। सिर्फ यही मोटर उन जगहों में जा सकती है जहाँ कोई सड़क नहीं है, लेकिन गफ्फूर आपको वहाँ ले जाएगा और रात के खाने के वक्त यहाँ पहुँचा देगा । पहुँचा दोगे न गफ्फूर ?”

“खैर, दोनों तरफ सत्तर-सत्तर मील का सफर है । इस वक्त एक बजा है। अगर हम फौरन चल दें और रास्ते में गाड़ी का पंक्चर न हो तो...." गफ्फूर नकसुरी आवाज़ में बोला । लेकिन मैंने इतनी जल्दी मचाई कि वह अपना वाक्य खत्म न कर सका। जिस वक्त वे लोग वापस लौटे उसे खाने का वक्त नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि आधी रात हो गई थी। लेकिन गफ्फूर यात्री को सही-सलामत ले आया था। उसने हॉर्न बजाकर मुझे जगाया, अपना किराया वसूल किया और चला गया। यात्री को अगले दिन सुबह आठ बजे की गाड़ी से जाना था। उसे प्लेटफार्म पर मेरे तिरपाल के नीचे सोकर रात काटनी पड़ी। भूख लगने पर मैंने उसे फल वगैरह दे दिया। यात्री बड़े उत्साही जीव होते हैं। बस, उन्हें अगर कोई दर्शनीय स्थान देखने को मिल जाए तो वे किसी भी असुविधा की परवाह नहीं करते। यह बात मेरी समझ में नहीं आती थी कि कोई आदमी खाना-पीना और आराम छोड़कर किसलिए सौ मीलों की खाक छानता है, लेकिन इसके कारण से मुझे कोई सरोकार नहीं था, जिस तरह मेरी दुकान पर लोग क्या खाते थे या कौन-सा सिगरेट पीते थे इससे मुझे कोई सरोकार नहीं था। मेरा काम सिर्फ उनकी जरूरत की चीजें मुहैया करना था। जब सरयू नदी पहाड़ से लुढ़ककर अपने-आप हमारे दरवाज़े के पास आ गई थी तो फिर उसके उद्गम स्थान को देखने के लिए इतनी तकलीफ उठाना मुझे बेवकूफी मालूम होती थी। मैंने उस वक्त तक नदी के उद्गम का ज़िक्र तक नहीं सुना था। लेकिन वह यात्री उस स्थान की तारीफों के पुल बाँध रहा था, "मुझे अफसोस है कि मैं अपनी बीबी और माँ को अपने साथ नहीं सका।" ज़िन्दगी में बाद में जाकर मैंने देखा कि हर आदमी जो किसी दर्शनीय स्थान को देखने जाता है उसे यही अफसोस होता है कि वह अपनी बीवी या बेटी को साथ लेकर नहीं आया। उनकी बातों से ऐसा लगता था, मानो उन्होंने अपनी बीवी या बेटी को किसी बढ़िया चीज़ से वंचित कर दिया हो। बाद में जब मैं बाकायदा टूरिस्ट गाइड बन गया तो मैं अक्सर यह कहकर यात्रियों में उदासी पैदा कर देता था, "यह दृश्य तो पूरे परिवार के देखने के काबिल है” यात्री कसमें खाता कि अगले साल वह अपने पूरे परिवार को लेकर वहाँ आएगा ।

सरयू नदी के उद्गम को देखकर लौटने वाला यात्री रात भर उस स्थान की तारीफें करता रहा। उसने बताया कि वहाँ पहाड़ की चोटी पर एक छोटा-सा मन्दिर है । " पौराणिक कथाओं में पार्वती के यज्ञकुण्ड में कूदने की घटना लिखी है। जरूर यह वही जगह होगी । मन्दिर के एक खम्भे पर पार्वती के कुण्ड में कूदने का और उस स्थान से पानी की धारा फूटने का दृश्य अंकित है ।" वगैरह-वगैरह । कभी-कभी कोई विद्वान किस्म का आदमी आकर इन तथ्यों में कोई नई बात जोड़ देता और कहता कि मन्दिर की छत ईसा से तीन शताब्दी पहले बनी होगी, या पोशाक की शैली से मालूम होता है कि मूर्ति तीसरी शताब्दी की है । लेकिन मेरी दृष्टि में ये तथ्य एक समान थे। जैसा यात्री होता और उस समय मेरा जैसा मूड होता उसी के अनुसार मैं ऐतिहासिक तिथियाँ बताया करता था। अगर यात्री विद्वान किस्म का व्यक्ति होता तो मैं तथ्यों और आँकड़ों को सतर्कता से दबाकर केवल साधारण बातें बताता और उसे जी भरकर बातें करने का मौका देता । यकीन कीजिए, इस बात से उसे बहुत खुशी होती। और अगर कोई सीधा-सादा आदमी होता तो मैं जी खोलकर उससे बातें करता और बताता कि अमुक चीज़ दुनिया में सबसे विशाल और ऊँची है। मैं उसे मनगढन्त आँकड़े सुनाने लगता। अपने मूड के अनुसार किसी भी ऐतिहासिक अवशेष को ईसा से तेरह शताब्दी पहले या बाद का बता देता । जब मुझे थकान या ऊब महसूस होती तो मैं एक ही प्रहार में यात्री का सारा आकर्षण समाप्त कर देता। कहता " यह स्थान सिर्फ बीस साल पुराना है। इसे जानबूझकर खण्डहर में बदल दिया गया है। यहाँ ऐसे बीसियों स्थान हैं।” लेकिन इस लापरवाही और आत्मविश्वास की अवस्था तक पहुँचने में मुझे कई वर्ष लगे। खालासी का लड़का दिन-भर दुकान में बैठा रहता था। हर रोज़ रात को मैं नकदी और सामान का हिसाब किया करता । खलासी के लड़के की तनख्वाह मुकर्रर नहीं थी । मैं कभी-कभी उसे कुछ पैसे दे दिया करता था। लेकिन मेरी माँ ऐतराज़ करती थी । "राजू तुम इस लड़के से क्यों काम लेते हो? या तो उसे कोई निश्चित काम सौंपो, नहीं तो देहात में भटकना छोड़कर खुद दुकान पर काम करो। आखिर तुम्हें भटकते फिरने में क्या हासिल होता है?" मैं रात को देर से खाना खाते हुए जवाब देता, "तुम नहीं जानती माँ, यह काम दुकानदारी से कहीं बेहतर है। मैं बहुत-सी जगह घूम आता हूँ और मुझे आमदनी भी होती है। मैं यात्रियों के साथ उनकी कार में या बस में जाता हूँ, उनसे बातें करता हूँ। कभी-कभी वे मुझे खाना भी खिलाते हैं। जानती हो मैं कितना मशहूर हो गया हूँ ? लोग बम्बई, मद्रास और सैकड़ों मील दूर और जगहों से आकर मेरा नाम पूछते हैं। वे मुझे 'रेलवे राजू' कहते हैं। मैंने सुना है कि लखनऊ में भी लोग मेरे नाम से वाकिफ हैं। दुकान पर बैठकर ग्राहकों को तम्बाकू, माचिस बेचने की बजाय मशहूर होना कितनी अच्छी बात है ?"

' "तो क्या तुम्हारे पिता दुकानदारी से सन्तुष्ट नहीं थे?" "मैं दुकानदारी के खिलाफ कुछ नहीं कह रहा । मैं दुकान की देख-भाल भी करूँगा।" मेरी माँ इस बात से बहुत खुश होतीं। रात को बत्ती बुझाने से पहले वह अक्सर अपनी भतीजी का ज़िक्र किया करतीं जो गाँव में रहती थी। उन्हें उम्मीद थी कि मैं किसी दिन उस लड़की से शादी करने के लिए राज़ी हो जाऊँगा । स्पष्ट शब्दों में कहने की बजाय वे कहा करती थीं, “जानते हो ललिता को स्कूल में इनाम मिला है। आज भाई का खत आया है।" गाड़ी के सिगनल तक पहुँचते ही मैं ग्राहक को भाँप लेता, ठीक उसी तरह जैसे कोई सयाना जमीन देखकर बता देता है कि वहाँ कुआँ खोदने पर पानी निकलेगा या नहीं। अगर मुझे यह अन्दाज़ हो जाता है कि कोई अच्छा ग्राहक आनेवाला है तो मैं फौरन ट्रेन की दिशा में चला जाता और ऐन उसी जगह खड़ा होता जहाँ आकर यात्री मेरे बारे में पूछताछ करते थे । कन्धे से लटके कैमरे या दूरबीन से ही मैं ग्राहक का अन्दाज नहीं लगाता था, उसके बगैर ही मैं ग्राहक को भांप लेता था। इंजन के प्लेटफार्म पर आने से पहले ही अगर मैं फाटक की तरह भागता तो इसका मतलब साफ यह होता कि मुझे कोई ग्राहक नज़र नहीं आ रहा। कुछ ही महीनों में मैं अनुभवी गाइड बन गया। पहले मैं दुकानदारी को अपना पेशा और गाइड के काम.. को अपना शौक समझता था, लेकिन धीरे-धीरे मैं अपने को पार्ट टाइम दुकानदार और फूल टाइम टूरिस्ट गाइड समझने लगा। जिस दिन कोई भी टूरिस्ट न होता, उस दिन भी मैं दुकान पर बैठने की बजाय फव्वारे की तरफ चल देता और गफ्फूर से टूटी-फूटी पुरानी मोटरों की बातें सुनता रहता।

"मैंने सब टूरिस्टों को वर्गों में बाँट रखा था। मैं पाठकों को बता सकता हूँ कि टूरिस्टों में कई किस्म के लोग होते थे । कुछ को फोटोग्राफी का मर्ज था। वे कैमरे के व्यू-फाइण्डर के अलावा किसी चीज़ को नहीं देखना चाहते थे। ट्रेन से उतरते ही, सामान उठवाने से पहले, वे पूछते, “क्या यहाँ फोटोग्राफर की दुकान है जहाँ कैमरे की फिल्में धुल सकती हैं ? "

"ज़रूर, मलगुड़ी फोटो ब्यूरो, जो सबसे बड़ी दुकानों में से है..."

" और अगर कैमरे के लिए फिल्मों की ज़रूरत पड़ी, खैर, मैं अपने साथ काफी फिल्में लाया हूँ। लेकिन अगर वे खत्म हो गई तो... क्या यहाँ सुपर पैन्क्रो-थ्री कलर या ऐसी कोई फिल्म मिल सकेगी ?"

“ज़रूर मिल सकेगी। ऐसी चीजें तो उस दुकान में खासतौर पर रहती हैं । "

"क्या वह मेरे सामने ही फिल्म धो देगा ?"

“हाँ, आपके बीस तक गिनती गिनने से पहले ही, वह उस्ताद है ।"

' "यह तो अच्छी बात है, तो सबसे पहले तुम मुझे कहाँ ले चलोगे?" इस श्रेणी के टूरिस्ट यही सवाल पूछते थे । मेरे पास इन सवालों के सन्तोषजनक जवाब पहले से तैयार रहते थे। जवाब देने से पहले मैं बहुत सी बातों की जानकारी हासिल करना ज़रूरी समझता था, मिसाल के लिए वह आदमी कितना वक्त और पैसा खर्च करना चाहता था । मलगुड़ी और उसके आसपास के स्थानों की सैर कराने में मैं माहिर था । मैं अगर चाहता तो टूरिस्टों को एक झलक दिखाकर वापस ले आता या पूरा दृश्य देखने का मौका देता । मैं अपनी मर्ज़ी से इस प्रोग्राम को बदल सकता था। कुछ ही घंटों में सारे स्थान दिखाने से लेकर पूरे हफ्ते तक किसी पहाड़, नदी के दृश्य या पुरातत्व सामग्री में टूरिस्ट को उलझाए रखना मेरी मर्ज़ी पर निर्भर करता था। यह जाने बगैर कि उस आदमी के पास कितनी नकदी है, चेक बुक है या नहीं और उसकी आर्थिक स्थिति क्या है, मैं कोई फैसला नहीं कर सकता था। एक और मामला भी बड़ा नाजुक था । कभी-कभी अगर कोई टूरिस्ट किसी के नाम चेक काटना चाहता था, तो हमारा गफ्फूर, फोटो की दुकान का मालिक या मेम्पी हिल्ज के जंगल के बंगले का चौकीदार किसी भी अजनबी पर भरोसा करके चेक लेने को तैयार नहीं होता था । ऐसे नाजुक मौकों पर मुझे बड़ी होशियारी से काम लेना पड़ता था और मैं यह कहकर टाल देता था, "ओह आप नहीं जानते, हमारे शहर में बैंकों की हालत बहुत खराब है, कई बार तो वे चेक भुनाने में पूरे बीस दिन लगा देते हैं। लेकिन ये बेचारे गरीब भला कैसे रुक सकते हैं?" यह बात सचमुच चौंका देनेवाली थी लेकिन मुझे इस बात की रत्ती भर परवाह नहीं थी कि इससे हमारे शहर के बैंकों की बदनामी होती है।

‘किसी टूरिस्ट के आते ही मैं यह देखता था कि वह सामान के लिए कुली बुलाता है या हर चीज़ को हाथों से उठाता है। आँख झपकते ही मुझे इन बातों पर गौर करना पड़ता था। स्टेशन से बाहर आकर वह होटल की तरफ पैदल जाता है, टैक्सी बुलाता है या एक घोड़ेवाले इक्के के साथ सौदेबाजी करता है, ये बातें भी मुझे देखनी पड़ती थीं । मैं उसकी मर्जी के मुताबिक सारे इन्तज़ाम करवा देता था, लेकिन उदासीन भाव से, सिर्फ इसलिए चूँकि वह गाड़ी से उतरते ही रेलवे राजू को बुलाता था और मैं जान लेता था कि वह चाहे सुदूर उत्तर से आया हो, या पास ही दक्खिन से किसी न किसी ने ज़रूर उसकी सिफारिश की होगी। होटल में पहुँचकर उसे उसकी पसन्द के मुताबिक सबसे शानदार या सबसे घटिया कमरा दिलवाना भी मेरी ज़िम्मेदारी थी । सस्ते भाड़ेवाली बारक में जाने वाले कहते थे, "आखिर मुझे सिर्फ यहाँ सोना ही तो है। दिन-भर तो मैं बाहर रहूँगा । जब दिन-भर कमरे में ताला ही लगाना है तो बेकार में किराया देने से क्या फायदा? क्यों, ठीक है न?"

' “बिलकुल, बिलकुल " मैं सर हिलाकर हामी भरता और उसके इस सवाल का जवाब दिए बगैर कि “पहले तुम मुझे कौन-सी जगह दिखाओगे?" उसकी हर गतिविधि का सूक्ष्म निरीक्षण करता और कोई सुझाव न देता। ट्रेन से उतरकर जब तक आदमी का दिमाग साफ न हो, तब तक उससे बात करने का कोई फायदा नहीं। पहला वह नहा-धोकर कपड़े बदल ले, इडली और कॉफी से तरोताज़ा हो जाए तभी दक्षिण में कोई आदमी इहलोक और परलोक की बातों पर साफ दिमाग से सोच सकता है । अगर वह मुझे नाश्ता खाने के लिए आग्रह करता तो मैं समझ जाता कि वह अपेक्षाकृत सहृदय हैं। लेकिन जब तक हमारी दोस्ती और गहरी न हो जाती, तब तक मैं किसी भी टूरिस्ट से खाने की कोई चीज़ कबूल नहीं करता था। फिर उचित समय आने पर मैं सवाल करता, “आप यहाँ कितने दिन रहेंगे ?"

'वह जवाब देता, "ज्यादा से ज्यादा तीन दिन । क्या इस अरसे में सारी जगहें देख सकेंगे?”

' " ज़रूर ! यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि आप खास तौर पर किन जगहों को देखना चाहेंगे।” फिर मैं एक अर्थ में उससे सब कुछ कबूल करवा लेता था, और उसकी रूचि को जानने की कोशिश करता था । मैं उसे बताता कि मलगुड़ी में ऐतिहासिक और प्राकृतिक सौन्दर्य और आधुनिक विकास की दृष्टि से बहुत-से स्थान दर्शनीय हैं वगैरह-वगैरह । अगर कोई तीर्थयात्री होता तो मैं उसे पचास मील के इलाके में एक दर्जन मन्दिर दिखा सकता था। मेम्पी शिखर से लेकर सरयू के किनारे बने अनेक पवित्र स्थानों पर उसे स्नान के लिए ले जा सकता था। टूरिस्ट गाइड बनकर मैंने एक बात यह भी सीखी कि भोजन की तरह भ्रमण के मामले में भी हर आदमी की अपनी अलग रूचि होती है । कुछ लोग जल-प्रपात देखना चाहते हैं, कुछ को खण्डहरों में दिलचस्पी होती है । (ओह ! टूटे पलस्तर, भग्न मूर्तियों और भुरभुराती ईंटों को देखकर उन्हें कैसे आनन्द की अनुभूति होती है ।) कुछ लोग किसी देवता को पूजना चाहते हैं, कुछ लोग हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट में दिलचस्पी रखते हैं। कुछ लोगों को मेम्पी शिखर पर बने शीशों से ढके बंगले जैसी जगह पसन्द आती है जहाँ से वे सौ मील दूर के क्षितिज को और शिखर के पास घूमते जंगली जानवरों को देख सकते हैं। इनमें भी दो किस्म के लोग होते हैं । कवि-स्वभाव के लोग तो प्राकृतिक सौन्दर्य देखकर सन्तुष्ट हो जाते हैं और वापस लौटना चाहते हैं । दूसरे लोग प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेने के साथ-साथ वहाँ बैठकर शराब भी पीना चाहते हैं-न जाने क्यों ? मेम्पी शिखर पर बना बंगला कुछ लोगों में अप्रत्याशित प्रतिक्रियाएँ जगाता था । वह काव्यमय स्थल जो था। मैं 'कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो अपने साथ औरतों को लाते थे। जंगलों से घिरा हुआ, वह खामोश सुरम्य स्थल, जहाँ से घाटी का दृश्य दिखाई देता था, मेरे विचार में तो चिन्तन और काव्य-रचना के लिए ज्यादा उपयुक्त था, लेकिन कुछ लोगों को वहाँ कामोत्तेजना का अनुभव होता था। खैर, इन बातों पर टीका-टिप्पणी करना मेरा काम नहीं था। मेरा काम तो सिर्फ इतना ही था कि मैं उन्हें वहाँ पहुँचा दूँ और गफ्फूर उन्हें ठीक वक्त पर घुमाने के लिए ले जाए ।

‘मुझे उन लोगों से बहुत डर लगता था जो मेरा इम्तहान लेना शुरू कर देते थे, जिनके पास सारे दर्शनीय स्थानों की सूची तैयार रहती थी और जिनका आग्रह था कि सैर के पूरे दाम वसूल करो। “इस शहर की आबादी कितनी है ?” “क्षेत्रफल कितना है?" "झूठ मत बोलो, मैं जानता हूँ कि यह स्थान कब बनाया गया था... दूसरी शताब्दी में नहीं बल्कि बारहवीं शताब्दी में।” या वे मुझे रूट शब्द का सही उच्चारण बतलाते थे... ऐसे लोगों के सामने मैं विनीत भाव से अपने को दबा लेता था और कृतज्ञभाव से अपनी गलतियों के सुधार को कबूल कर लेता था और अन्त में मुझे यह भी सुनना पड़ता था, "अगर तुम्हें यह भी मालूम नहीं तो फिर अपने को टूरिस्ट गाइड क्यों कहते हो ?..." इत्यादि ।

‘आप यह सवाल कर सकते हैं कि मुझे इस पेशे से क्या हासिल होता था ? खैर, इस सवाल का कोई निश्चित उत्तर नहीं है। यह सब परिस्थितियों पर और यात्रियों की किस्म पर निर्भर करता था। आमतौर पर मैं यात्रियों के साथ जाने के लिए कम-से-कम दस रुपयों की माँग किया करता था, और अगर कहीं दूर जाना होता तो मैं ज़्यादा रकम माँगता था । इसके अलावा गफ्फूर फोटो स्टोर का मालिक, होटल का मैनेजर और दूसरे लोग, जिनके पास मैं किसी टूरिस्ट को ले जाता था, निश्चित कायदे के मुताबिक अपनी आमदनी में से मुझे कमीशन देते। टूरिस्टों को घुमाते - घुमाते मैं भी बहुत-सी बातें सीखता था और सीखते- सीखते कमाई करता था। इन सब बातों में मुझे बड़ा मज़ा आता था ।

'कई बार खास मौके भी आते थे, मिसाल के लिए जब हाथियों के झुण्ड को पकड़ना होता था । जाड़े के महीनों में जंगल विभाग के कर्मचारी हाथियों को पकड़ने के लिए लम्बी-चौड़ी तैयारियाँ करते थे। वे हाथियों के पूरे के पूरे झुण्ड को देखकर घेर लेते थे और गड्ढों की तरफ खदेड़ देते थे। ऐसे दृश्यों को देखने के लिए लोग बहुत भारी संख्या में एकत्रित थे। हाथी पकड़ने के दिन आसपास के सभी देहातों के लोग आकर मुझसे मिन्नत करते कि उन्हें मेम्पी के विशाल बांस के जंगलों में गड्ढों के आसपास बैठने के लिए जगह दी जाए। हाथी पकड़ने वाले लोगों के साथ मेरा खास रसूख था। उस रसूख को बनाए रखने के लिए मुझे जंगल के पड़ाव के कई बार चक्कर लगाने पड़ते थे और अफसरों को शहर से जिन छोटी-मोटी चीज़ों की ज़रूरत होती थी वे उनको लाकर देनी पड़ती थी, और जब हाथी पकड़ने का वक्त आता था तो सिर्फ उन्हीं लोगों को अहातों के फाटकों में से गुज़रने दिया जाता था, जो मेरे साथ आते थे। मैं लोगों को छोटी-छोटी टोलियों में अपने साथ ले जाता और उन्हें यह समझाते - समझाते मेरा गला बैठ जाता - " जानते हो, जंगली हाथियों के झुण्ड पर महीनों पहले से निगरानी रखी जाती है...।" यह मत समझिए कि मुझे हाथियों में कोई व्यक्तिगत दिलचस्पी थी। टूरिस्टों को जो चीज़ पसन्द आती थी वह मुझे भी पसन्द आती थी। मेरी निजी पसन्दगी - नापसन्दगी गौण चीज़ थी । अगर कोई शेर देखना चाहता था या शिकार करना चाहता था तो मैं उसका इन्तजाम करना भी जानता था । मैं शेर को आकर्षित करने के लिए बकरी के बच्चे का इन्तजाम करता, ऊँचे मचान बनवाता, ताकि जब बेचारा शेर मेमने को खाने के लिए आए तो बहादुर शिकारी उसे गोली मारकर खत्म कर सकें, हालाँकि मुझे न मेमने की मौत का दर्शक बनना पसन्द था न शेर की मौत का । अगर कोई नागराज को फन फैलाए देखना चाहता था तो मैं उसका भी इन्तज़ाम कर देता था, क्योंकि संपेरा मेरा परिचित था । मद्रास से आने वाली एक लड़की ने मलगुड़ी में कदम रखते ही सवाल किया, “क्या तुम मुझे ऐसा नाग दिखा सकते हो जो बांसुरी के स्वरों पर अपना फन फैलाकर नाच सके?"

"क्यों?" मैंने सवाल किया ।

“मैं देखना चाहती हूँ। बस,” लड़की ने जवाब दिया। पर उसके पति ने कहा, "रोज़ी, अभी और बहुत सी बातों पर सोचना है, साँप बाद में देखा जाएगा।"

"मैं यह तो नहीं कह रही कि ये फौरन सांप को पेश कर दें। मैं माँग नहीं कर रही, सिर्फ इसका ज़िक्र ही तो कर रही हूँ ।"

' “अगर तुम्हें साँप में दिलचस्पी है तो तुम अपना अलग इन्तज़ाम कर सकती हो। मुझसे यह उम्मीद मत रखना कि मैं तुम्हारे साथ जाऊँगा। मैं साँप की सूरत तक बर्दाश्त नहीं कर सकता । तुम्हें भयानक चीजें पसन्द आती हैं।" मुझे वह आदमी नापसन्द आया, वह सांप जैसे अलौकिक जीव का मजाक उड़ा रहा था। मुझे उस लड़की से हमदर्दी थी। वह कितनी प्यारी और शालीन थी ! उसके आने के बाद से मैंने अपना खाकी बुशकोट और धोती उतारकर अपना हुलिया संवारा। रेशमी 'जिब्बा' और जालीदार धोती पहनकर मैंने अपने बाल संवारे, और जब मैं घर से जाने लगा तो मेरी माँ ने कहा, “आह! तुम बिल्कुल दूल्हा दिखाई देते हो!” और जब मैं उन लोगों से मिलने के लिए होटल गया तो गफ्फूर ने आँख मारकर मुझसे बहुत-सी आरोप लगाने वाली बातें कहीं।

'लड़की के आने से मुझे हैरानी हुई थी। उसका पति पहले आया था। मैंने उसे आनन्दभवन होटल में ठहराया था। एक दिन सैर करने के बाद अचानक दोपहर के वक्त उसने मुझसे कहा, “मुझे मद्रास से आने वाली गाड़ी पर जाना है। एक और व्यक्ति आ रहा है।” उसने मुझसे यह तक नहीं पूछा कि गाड़ी किस वक्त आएगी। उसे जैसे हर बात पहले से मालूम थी । वह बड़ा अजब आदमी था, जो अक्सर यह बताना ज़रूरी नहीं समझता था कि वह आगे क्या करने वाला है। उसने अगर मुझे पहले से आगाह कर दिया कि वह हमारे स्टेशन पर इतने शानदार व्यक्तित्व से मिलने जा रहा है तो मैं भी शायद अवसर के अनुकूल सज-धज के जाता। मैं रोज की तरह खाकी बुशशर्ट और धोती पहने था। इन दोनों का मेल हमेशा ही भयंकर रूप से अनाकर्षक और भौंडा लगता है, लेकिन मेरे जैसे काम के लिए सबसे सुविधाजनक और युक्तिसंगत होता है । वह जैसे ही ट्रेन से नीचे उतरी, मेरी इच्छा हुई कि काश मैं कहीं छिप जाता। उसके व्यक्तित्व में अत्यधिक चमक-दमक नहीं थी, लेकिन उसका शरीर इकहरा और सुता हुआ था, अपूर्व सौन्दर्य के सांचे में ढाला हुआ। उसकी आँखें तारों की तरह चमकती थीं। रंग सफेद नहीं, बल्कि किंचित् धुंधला - सा था, जिससे उसका केवल आधा रूप ही नज़र आता था मानो आप उसे ड के पानी की कोमल फिल्म के पीछे से देख रहे हों। क्षमा करें, अगर आपको लगता हो कि मैं काव्य की भाषा में बहक गया हूँ। मैंने साथ न जाने का बहाना करके उन दोनों को होटल की ओर रवाना कर दिया और खुद साफ - सुथरे कपड़े पहनने के लिए घर की ओर भागा ।

'गफ्फूर की मदद से मैंने कुछ तथ्यों की खोज-बीन की। वह मुझे इल्लामन स्ट्रीट पर एक आदमी के पास ले गया, जिसके चचेरे भाई को, जो म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर में काम करता था, एक ऐसे जादूगर का पता था जिसके पास किंग कोबरा सांप था। मैं अपनी खोज में लगा रहा। इस बीच मैंने अतिथि को नार्थ एक्सटेंशन में स्थित ईश्वर मन्दिर की दीवार के पत्थरों पर खुदे रामायण के प्रसंगों को डिसाइफर करने के लिए अकेला छोड़ दिया । मन्दिर की दीवार पर असंख्य सूक्ष्म आकृतियाँ खुदी हुई थीं। उनमें अभिव्यक्त एक-एक प्रसंग को समझने के लिए उस व्यक्ति को अपना पूरा वक्त देना पड़ा। मैं उन मूर्ति- अंकित प्रसंगों से पूरी तरह परिचित था और मैं आँख बन्द करके उनका क्रम बता सकता था । लेकिन उस व्यक्ति ने मेरी सहायता नहीं ली। वह स्वयं उनके बारे में पूरा जानकार था।

'अपनी खोज पूरी करके जब मैं लौटा तो देखा कि वह लड़की अलग खड़ी हुई है । उसके चेहरे से लगता था जैसे वह बिल्कुल ऊब रही है । मैंने प्रस्ताव किया, “अगर आप एक घंटे के लिए मेरे साथ चल सको तो मैं आपको एक कोबरा सांप दिखा सकता हूँ ।" वह जैसे प्रसन्नता से खिल गई। उसने उस व्यक्ति के कंधे को छूकर कहा, “तुम यहाँ और कितनी देर रहना चाहते हो?" वह व्यक्ति झुककर किसी मूर्ति का निरीक्षण कर रहा था । “कम से कम दो घंटे और,” उसने बिना मुड़े ही उत्तर दिया ।

"मैं इस बीच बाहर घूमने जा रही हूँ ।"

“खुशी से ।” फिर उसने मुझसे कहा, “सीधे होटल चले जाना। मैं रास्ता तलाश करके खुद पहुँच जाऊँगा।”

'म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर से हमने अपने गाइड को साथ लिया और हमारी कार रेतीली सड़क पर फिसलती हुई आगे बढ़ने लगी । नलप्पा कुंज के पास पुल पार करके हम नदी के दूसरे किनारे पहुँचे। सड़क में बैलगाड़ियों की लीकें खुदी हुई थीं । गफ्फूर ने अपने पास बैठे आदमी की ओर क्रोधपूर्वक देखा । “क्या तुम चाहते हो कि मैं इस कार को एक बैलगाड़ी बना दूँ जो हमें इस बीहड़ रास्ते पर खींच लाए हो ? आखिर हमें जाना किधर है? उधर तो मुझे कब्रिस्तान के अलावा और कोई बस्ती नहीं दिखाई देती।” उसने नदी पार के एक वीरान अहाते के पीछे से उठते हुए धुएँ की ओर इशारा करते हुए कहा। मुझे यह अच्छा नहीं लगा कि पिछली सीट में बैठी परीजाद देवी के सामने कब्रिस्तान जैसे अपशकुन भरे शब्द बोले जाएँ, इसलिए मैंने जोर से कुछ कहकर उस शब्द पर एक परदा डालने की कोशिश की ।

'नदी पार आगे चलकर हम एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ कुछ झोंपड़ियाँ थीं । कार के रुकते ही इन झोंपड़ियों में से अनेक सिर निकलकर झाँकने लगे, और नंग-धड़ंग बच्चों का एक झुण्ड आकर कार के गिर्द खड़ा हो गया और आँखें फाड़कर उसमें बैठे मेहमानों को देखने लगा। हमारा गाइड कार से उतरकर दौड़ता हुआ गाँव के परले कोने की झोंपड़ी गया और कुछ क्षणों में ही एक आदमी को साथ लेकर लौट आया, जिसके सर पर एक लाल पगड़ी बँधी थी। इसके अलावा उसके बदन पर सिर्फ एक जांघिया था । "क्या इस आदमी के पास किंग कोबरा साँप है?” मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए पूछा, “ज़रा देखें तो।” इस पर बच्चों ने कहा, “सचमुचे इसके पास बहुत बड़ा साँप है - इसके घर में ।” और मैंने उस युवती से कहा, "क्या हम लोग देखने के लिए चलेंगे?" और हम चल पड़े। गफ्फूर बोला, “मैं यहीं पर रहूँगा, नहीं तो ये बन्दर इस गाड़ी के पुर्जे -पुर्जे अलग कर देंगे।" मैंने उन दोनों से पीछे रुककर गफ्फूर से कहा, “आज तुम्हारा मिज़ाज क्यों बिगड़ा हुआ है, गफ्फूर ? आखिर पहले तो तुम इससे भी खराब सड़कों पर गए हो, लेकिन तुमने कभी शिकायत नहीं की।"

' “मुझे मोटर के लिए स्प्रिंग और शॉक एब्जार्वर खरीदने पड़े हैं। उनकी कीमत जानते हो ?”

' “ओह, तुम जल्द ही उनके दाम वसूल कर लोगे। खुश रहो ।”

' "हमारे कुछ मुसाफिरों को मोटर की नहीं, बल्कि ट्रैक्टर की ज़रूरत पड़ती है। इस आदमी को ही देखो ।” उसके मन में धुंधला-सा असन्तोष था। मुझे मालूम था कि उसका गुस्सा हमारे खिलाफ नहीं, बल्कि उस गाइड के खिलाफ था, क्योंकि उसने कहा था, "मैं सोचता हूँ, इस आदमी को शहर तक पैदल वापस लौटने देना चाहिए। भला कोई इतनी दूर सांप को देखने के लिए आता है?" मैंने उससे कुछ नहीं कहा। उसे खुश करने की कोशिश बेकार थी । शायद घर से चलते वक्त उसकी बीवी ने उससे झगड़ा किया था ।

'जब सपेरा छड़ी से कोंचकर सांप को टोकरी से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था, उस वक्त लड़की एक पेड़ की छांह में खड़ी थी। सांप काफी लम्बा था। फूत्कार करते हुए उसने अपना फन फैलाया। लड़के चीखते हुए भाग गए और थोड़ी देर में फिर लौट आए। सपेरा चिल्लाया, "अगर तुम सांप को नाराज कर दोगे तो यह तुम्हारा पीछा करेगा।" मैंने लड़कों को खामोश रहने के लिए कहा और संपेरे से पूछा, "यह पक्की बात हैन कि तुम सांप को अपने काबू में रखोगे?" लड़की ने सुझाव दिया, "तुम बांसुरी बजाकर सांप को नचवाओ।” सपेरे ने तुम्बे की बीन उठाकर उसमें से बारीक आवाज़ निकाली । काले नाग ने फन उठाकर झूमना शुरू किया। मुझे इस दृश्य से ग्लानि हो रही थी, लेकिन लड़की मन्त्र-मुग्ध खड़ी इस दृश्य को देख रही थी। उसने बांह आगे बढ़ाकर सांप के झूमने की नकल की और बीन की लय पर खुद झूमने लगी- क्षण-भर के लिए, सिर्फ क्षण-भर के लिए। लेकिन इतने में ही मैं समझ गया कि वह इस शताब्दी की सबसे बड़ी नर्तकी है ।

'जब हम शाम को होटल पहुँचे तो सात बज चुके थे । मोटर से उतरते ही उसने बिना किसी विशेष व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए 'धन्यवाद' कहा और जीने के ऊपर चली गई । उसका पति पोर्च में खड़ा था। उसने कहा, "आज बस इतना ही काफी है । बाद में तुम सारा हिसाब दे देना। कल दस बजे मुझे मोटर चाहिए।" वह अपने कमरे में वापस चला गया।

'मुझे उस वक्त बहुत गुस्सा आया । आखिर वह मुझे क्या समझता था? वह मुझे हुक्म दे रहा था कि उसे फलां वक्त मोटर चाहिए। क्या वह समझता है कि मैं दलाल हूँ? इस बात से मुझे बड़ा गुस्सा आया, लेकिन दरअसल मैं एक दलाल ही तो था । गफ्फूर, संपेरे और टूरिस्टों के गिर्द मण्डराना ही मेरा काम था। उस आदमी ने न मुझे अपने बारे में कुछ बताया न यह कि वह कल सुबह कहाँ जाना चाहता है। कितना अजब आदमी था वह !

'मुझे उससे नफरत हो गई। इससे पहले मुझे किसी टूरिस्ट से इतनी नफरत नहीं हुई थी। लौटते वक्त मैंने गफ्फूर से कहा, “कल सुबह ! उसने मोटर की फरमाइश इस अन्दाज़ में की है, जैसे यह गाड़ी उसके बाप की हो! तुम्हें कुछ अन्दाज़ है, वह कहाँ जाना चाहता है?" "मैं क्यों मगजपच्ची करूँ। अगर वह पूरा किराया देता है तो जिस वक्त चाहे मोटर मंगवा सकता है। मुझे तो बस इतना सरोकार है। कौन भाड़े पर मोटर लेता है, इसमें कोई दिलचस्पी नहीं...।” वह अपने व्यक्तिगत जीवन-दर्शन का विवरण देने लगा । इसमें मुझे कोई रूचि नहीं थी ।

'मेरी माँ हमेशा की तरह मेरी प्रतीक्षा कर रही थी । खाना परोसते समय उसने पूछा, “ आज तुम किधर गए थे? दिन-भर क्या किया ?” मैंने उसे संपेरे के बारे में बताया। माँ ने कहा, “शायद ये लोग बर्मा के रहने वाले हैं और साँप की पूजा करते हैं । मेरा चचेरा भाई बर्मा में रहता था, उसने मुझे वहाँ की नागकन्याओं के बारे में बताया था ।”

' “फिजूल बातें मत करो माँ। वह लड़की बड़ी अच्छी है। वह नाग पूजक नहीं बल्कि नर्तकी है।"

"ओह नर्तकी ! हो सकता है, लेकिन इन नाचने वाली लड़कियों के साथ कभी सरोकार न रखना। यह सब बड़ी खराब होती हैं।" मैं चुपचाप खाना खाता रहा और मन ही मन उस लड़की के सुवासित व्यक्तित्व की स्मृतियाँ जगाता रहा ।

'अगले दिन दस बजे मैं होटल पहुँच गया। गफ्फूर की मोटर पहले से ही पोर्च में खड़ी थी। मुझे देखते ही उसने आँख मारकर कहा, “आहा ! क्या ठाट हैं!”

‘मैंने उसकी बात अनसुनी करके व्यावसायिक अन्दाज में पूछा, “क्या वे लोग अभी अन्दर हैं?"

' "ख्याल तो ऐसा ही है। वे अभी तक बाहर नहीं निकले," गफ्फूर ने उत्तर दिया । वह एक शब्द की जगह बीस शब्दों का प्रयोग कर रहा था। न जाने उसे क्या हो गया था। वह बड़ा बातूनी बन गया था, और अचानक मैंने अपने दिल में ईर्ष्या का डंक महसूस किया। मुझे एहसास हुआ कि उस लड़की से प्रभावित होकर वह उसके आगे अपनी शा बघारना चाहता है। इस ईर्ष्या से दुःखित होकर मैंने मन ही मन कहा, 'अगर भविष्य में भी गफ्फूर इसी तरह पेश आएगा तो मैं उससे पीछा छुड़ाकर कोई दूसरा आदमी ढूँढ़ लूंगा। हर बात में दखल देने वाला टैक्सी ड्राइवर मेरे लिए बेकार है ।

'मैं सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरी मंजिल पर पहुँचा और मैंने अधिकारपूर्वक 28 नम्बर के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। “रुको," भीतर से आवाज़ आई। यह आदमी की आवाज़ थी। मुझे उम्मीद थी कि लड़की की आवाज़ सुनाई देगी। मैं मन ही मन कुढ़ता हुआ कुछ मिनटों तक बाहर खड़ा रहा। मैंने घड़ी देखी, दस बज गए थे और उस आदमी ने कहा था, “रुको” क्या वह उस लड़की के साथ अभी तक बिस्तर में लेटा था ? मुझे लगा कि मुझे दरवाज़ा खोलकर भीतर घुस जाना चाहिए। इतने में दरवाज़ा खुला और वह तैयार होकर बाहर निकल आया। उसने बाहर से दरवाज़ा फेर दिया। मैं स्तब्ध होकर उससे पूछने ही वाला था कि क्या वह साथ नहीं जाएगी, लेकिन मैं खामोश रहा और चुपचाप उसके पीछे-पीछे नीचे उतर आया।

'उसने मेरी तरफ इस तरह देखा जैसे मैंने उसे खुश करने के लिए कपड़े पहने हों और वह मेरे कपड़ों की दाद दे रहा हो । मोटर में बैठने से पहले उसने कहा, “आज मैं फिर पत्थर पर नक्काशी का काम देखना चाहता हूँ ।"

मैंने मन ही मन कहा, 'ठीक है, ठीक है, नक्काशी का अध्ययन करो या चाहे जिस चीज़ का अध्ययन करो। लेकिन उसके लिए मेरी क्या ज़रूरत है?' फिर जैसे मेरे विचारों के जवाब में उसने कहा, “उसके बाद...” उसने जेब में से कागज़ का एक पुर्ज़ा निकालकर पढ़ा।

'यह आदमी ज़िन्दगी भर दीवारों की नक्काशी देखता फिरेगा और वह बेचारी होटल के कमरे में सड़ती रहेगी। कितना अजब आदमी है ! वह लड़की को अपने साथ क्यों नहीं लाया? शायद वह भुलक्कड़ था। मैंने पूछा, “क्या और कोई आपके साथ नहीं आ रहा?" उसने जैसे मेरे मन की बात भाँप ली और तपाक से जवाब दिया, "नहीं।" फिर अपने हाथ का कागज़ देखकर उसने पूछा, “क्या इस इलाके में गुफा चित्र हैं?" मैंने इस सवाल को हँसकर टाल दिया, “हाँ, हर आदमी को ऐसे स्थानों में दिलचस्पी नहीं होती। सिर्फ थोड़े-से लोगों ने ही अब तक उन गुफाओं को देखने का आग्रह किया है। लेकिन... वहाँ सारा दिन लग जाएगा, हो सकता है हम आज रात लौट न सकें।" वह अपने कमरे में चला गया और कुछ मिनटों बाद मुँह लटकाकर लौटा। इस बीच मैंने गफ्फूर की मदद से खर्चे का तख्मीना लगा लिया था । हम जानते थे कि पीक हाउस के फॉरेस्ट बंगले में रात भर रुकना होगा और फिर दो मील पैदल चलकर आगे जाना पड़ेगा। मुझे यह तो मालूम था कि गुफाएँ कहाँ हैं लेकिन मैं पहली बार उन्हें देखने के लिए जा रहा था। मालूम होता था कि मलगुड़ी में हर बार सैर के लिए कोई न कोई नई जगह निकल आती थी ।

'मोटर में बैठकर उस आदमी ने कहा, "शायद तुम नहीं जानते कि औरतों से किस तरह पेश आया जाता है, क्यों?" मुझे यह देखकर खुशी हुई कि उसका दृष्टिकोण अधिक मानवीय होता जा रहा था। मैंने जवाब दिया, "मैं नहीं जानता," और हँस पड़ा ताकि उसे यह देखकर खुशी हो कि मैं उसके मजाक पर हँस रहा था। फिर मैंने हिम्मत बाँधकर पूछा, "आखिर किस बात की परेशानी है?" नई पोशाक और चालढाल से मुझमें एक नया साहस पैदा हो गया था। उसने मैत्रीपूर्ण मुस्कान के साथ मेरी तरफ देखा और आगे झुककर कहा, "अगर मर्द मानसिक शान्ति चाहता है तो उसके लिए सबसे अच्छी बात यही है कि वह स्त्री जाति को बिल्कुल भुला दे ।" तीन दिन में पहली बार उसने खुलकर मुझसे बात की थी। पहले वह हमेशा खामोश रहता था या तीखी बात करता था । मैंने अनुमान लगाया कि जब उसकी ज़बान इस हद तक खुल गई है तो ज़रूर स्थिति खतरनाक होगी । गफ्फूर ठोड़ी पर हाथ रखे अपनी सीट पर बैठा था और कहीं दूर देख रहा था । उसका सारा रुख जैसे यह कह रहा था कि 'तुम दोनों जने वक्त बर्बाद करने वाले हो, तुम्हारे साथ मेरी सुबह भी बर्बाद हो रही है।' एक साहसपूर्ण विचार मेरे दिल में पैदा हो रहा था अगर वह सफल हो गया तो अन्त में मेरी जीत होगी और अगर मैं असफल रहा तो वह आदमी या तो मुझे ठोकर मारकर निकाल देगा या पुलिस बुलवा लेगा। मैंने कहा, “क्या मैं जाकर आपकी तरफ से कोशिश करूँ?"

' “करोगे?” उसने खिलखिलाकर पूछा, “अगर हिम्मत है तो जाओ।" मैं उसकी बात सुने बगैर ही मोटर से कूदकर उतर गया और एक साथ चार-चार सीढ़ियाँ पार करता हुआ 28 नम्बर के कमरे के सामने पहुँचकर दरवाज़ा खटखटाने लगा । भीतर से लड़की की आवाज़ सुनाई दी, "मुझे तंग मत करो। मैं तुम्हारे साथ नहीं जाना चाहतीं । परेशान न करो। " मैं हिचकिचाया, सोचने लगा कि क्या कहूँ । उस परीज़ादी से मुझे पहली बार स्वतन्त्र रूप से अकेले में बात करने का मौका मिला था। मैं या तो अपने को बेवकूफ बना लूँगा या स्वर्ग जीत लाऊँगा। मैं क्या कहकर अपना परिचय दूँगा ? क्या वह मेरे प्रसिद्ध नाम को पहचान लेगी? मैंने कहा, "वे नहीं आए, मैं आया हूँ ।"

' “क्या?” उसने मीठी आवाज़ में पूछा। आवाज़ में हैरानी और चिड़चिड़ापन था । मैंने फिर कहा, “वे नहीं आए, मैं हूँ। क्या तुम मेरी आवाज़ नहीं पहचानतीं? क्या कल मैं तुम्हारे साथ संपेरे के पास नहीं गया था। रात भर मुझे नींद नहीं आई। फिर मैंने धीमी आवाज़ में दरवाज़े की दरार में से कुछ फुसफुसाकर कहा, "रात भर मुझे नींद नहीं आई । तुम्हारे नृत्य की मुद्रा की स्मृति मुझे परेशान करती रही।"

'मेरा वाक्य खत्म होने से पहले ही दरवाज़ा आधा खुला और उसने मेरी तरफ देखकर कहा, “अरे तुम !” उसकी आँखों में पहचान की चमक थी। "मेरा नाम राजू है ।" मैंने कहा । उसने पूरी तरह से मेरा निरीक्षण किया और बोली, “हाँ, मैं तुम्हें जानती हूँ ।" मैं सद्भाव से मुस्कुराया, वह मेरी सबसे शानदार मुस्कान थी, मानों किसी फोटोग्राफर ने मुझे मुस्कुराने के लिए कहा हो। उसने पूछा, "वह कहाँ है?"

' "मोटर में तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा है। तुम तैयार होकर बाहर नहीं चलोगी?” उसका हुलिया बिगड़ा हुआ था। आँखें ताज़े आँसुओं से गीली थीं, और उसने एक घिसी हुई सूती साड़ी पहन रखी थी, चेहरे पर न मेकअप था न उसने सेंट ही लगाया था, लेकिन मैं उसे उसी हालत में साथ ले जाने के लिए तैयार था। मैंने कहा, "तुम इसी तरह चलो, किसी को बुरा नहीं लगेगा। भला इन्द्रधनुष को भी सजावट की ज़रूरत होती है?” उसने कहा, “तुम सोचते हो कि तुम इन बातों से मुझे खुश कर सकते हो और मैं अपना निश्चय बदल लूँगी ?"

“हाँ, क्यों नहीं ?"

"तुम क्यों चाहते हो कि मैं उसके साथ बाहर जाऊँ? मुझे चैन से रहने दो,” उसने विस्फारित नेत्रों से कहा। अब मुझे उसके चेहरे के नज़दीक जाकर फुसफुसाने का मौका मिल गया । "क्योंकि तुम्हारे बगैर ज़िन्दगी सूनी-सूनी लगती है।"

वह अगर चाहती तो चिल्लाकर मेरा मुँह दूसरी तरफ फेर सकती थी, 'तुम्हें ऐसी बातें करने की जुर्रत कैसे हुई?" वह अगर चाहती तो मुझे बाहर धकेलकर दरवाजा बन्द कर सकती थी। लेकिन उसने यह सब नहीं किया, सिर्फ इतना कहा, “मैं नहीं जानती थी कि तुम इतनी मुसीबत कर दोगे। अच्छा तो एक मिनट रुको।" वह अपने कमरे में चली गई। मैं अपनी समस्त चेतना के साथ चिल्लाना चाहता था, 'मुझे भीतर आने दो।' मैं जोर से दरवाज़ा पीटना चाहता था लेकिन मैंने अपने ऊपर संयम कर लिया। इसी वक्त किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। उसका पति यह देखने के लिए ऊपर आ गया था कि मेरे प्रयत्नों का क्या फल निकला है ।

' "वह आ रही है या नहीं? मैं सब कुछ बर्बाद करने के लिए तैयार नहीं...” उसने कहा ।

' “छि ! वह अभी बाहर आ जाएगी। मेहरबानी करके जाकर मोटर में बैठो।"

' "सच ?" वह चकित स्वर में बड़बड़ाया। "तुम जादूगर हो?" फिर वह बिना दबे पाँव वापस जाकर मोटर में बैठ गया। उसी वक्त लड़की अलौकिक प्रतिभा की तरह अचानक भीतर से प्रकट हुई और कहने लगी, “आओ चलें, अगर तुम न होते तो मैं इस ढंग से पेश आती कि सब दंग रह जाते !"

' "क्या ?"

' “मैं अगली गाड़ी से वापस लौट जाती । "

' "हम लोग एक बहुत खूबसूरत जगह देखने जा रहे हैं। मेहरबानी करके हमेशा की तरह अपनी मधुरता बनाए रखना - कम से कम मेरी खातिर ।”

' उसने कहा, “अच्छा” और वह सीढ़ियों से उतरकर नीचे आ गई। मैं उसके पीछे-पीछे आया । उसने मोटर का दरवाज़ा खोला और सीधे भीतर चली गई । उसके पति ने आगे सरककर उसके बैठने के लिए जगह बना दी। मैं दूसरे दरवाजे से आकर उसके पति के पास बैठ गया। इस अवस्था में मैं गफ्फूर के पास जाकर बैठने के लिए तैयार नहीं था । गफ्फूर ने यह पूछने के लिए सर घुमाया कि अब वह मोटर स्टार्ट करे या न करे, “अगर हम पीक हाउस जाएंगे तो आज रात लौटना मुमकिन नहीं होगा।"

' "हमें लौटने की कोशिश करनी चाहिए,” लड़की के पति ने कहा ।

' “हम कोशिश ज़रूर करेंगे लेकिन वहाँ रुकने के लिए तैयारी करने में कोई हर्ज नहीं है। अपने साथ कपड़े ले जाने चाहिए। उससे कोई नुकसान नहीं होगा। मैं गफ्फूर से कहूँगा कि थोड़ी देर के लिए मेरे घर मोटर ले चले।” मैंने कहा ।

'लड़की बोली, "मेहरबानी करके एक मिनट रुक जाइए।" वह भागती हुई ऊपर चली गई और एक छोटा-सा सूटकेस लेकर लौट आई। उसने अपने पति से कहा, “तुम्हारे कपड़े भी इसी में हैं।” “वेरी गुड,” पति ने मुस्कुराकर जवाब दिया । लड़की भी मुस्कुरा दी और उस हँसी में सुबह का सारा तनाव कुछ हद तक गायब हो गया। फिर भी वातावरण में कुछ तनाव बाकी था। मैंने गफ्फूर से कहा कि वह रेलवे स्टेशन के सामने थोड़ी देर के लिए मोटर रोके । मैं नहीं चाहता था कि वे लोग मेरा घर देखें । “मैं अभी आया" कहकर मैं घर की तरफ भागा। दुकान के लड़के ने मुझे देखते ही कुछ कहने के लिए मुँह खोला । मैं उसे नज़र- अन्दाज़ करके भागता चला गया, और घर से एक बैग उठा लाया। मेरी माँ रसोईघर में थीं । चलते वक्त मैंने कहा, “हो सकता है, आज रात मैं बाहर रहूँ।"

' शाम को चार बजे के करीब हम लोग पीक हाउस पहुँचे। डाकबंगले की देखभाल करने वाला आदमी हमें देखकर बहुत खुश हुआ। टूरिस्टों के पैसे से मैं उसे अक्सर दिल खोलकर इनाम दिया करता था। मैं पहले से ही टूरिस्टों को कह देता था, "उस आदमी को अगर खुश रखोगे तो वह आपकी अच्छी तरह सेवा करेगा और आपके लिए दुर्लभ से दुर्लभ चीजें भी जुटा देगा।" वही फॉर्मूला मैंने इस बार भी दुहराया और लड़की के पति ने (जिसे अब मैं मार्को नाम से पुकारूंगा) कहा, “तुम जैसा चाहो करो। मुझे तुम्हारी मदद का ही आसरा है। जानते हो, ज़िन्दगी में मेरा एक उसूल है । मैं छोटी-छोटी परेशानियों से बचना चाहता हूँ। मुझे खर्च की कोई चिन्ता नहीं ।" मैंने जोज़ेफ से कहा कि वह दो मील दूर अपने गाँव से जाकर खाने-पीने की चीजें ला दे। फिर मैंने मार्को से कहा, “क्या आप मुझे कुछ रुपये दे देंगे? बाद में मैं आपको सारा हिसाब दे दूँगा ताकि बार-बार छोटी-छोटी रकमों की अदायगी के लिए आपको परेशान न करूँ।" इस बात का मार्को पर क्या असर पड़ेगा, यह पहले से बताना मुश्किल था । वह अस्थिर प्रकृति का आदमी था - कभी वह ऊँची . आवाज़ में कहता कि उसे रुपये-पैसे की कोई परवाह नहीं, अगले ही क्षण अचानक वह कंजूसी दिखाने लगता और बही-खाता जाँचने वाले ऑडीटर सरीखी मनोवृत्ति का प्रदर्शन करता - लेकिन मैंने देखा कि रसीद दिखाने पर वह पाई-पाई चुका देता था। बिना रसीद के वह एक आना तक देने को तैयार नहीं होता था। लेकिन अगर उसके हाथ में कागज़ थमा दिया जाता तो शायद वह अपनी सारी जायदाद आपके नाम कर देता। अब वह तिकड़म मेरी समझ में आ गई थी। चूंकि उसकी जुबान से साफ-साफ बात नहीं निकल रही थी, इसलिए मैंने कहा, “आपको हर रकम की रसीद मिलेगी, इसकी ज़िम्मेदारी मैं लेता हूँ।” इस बात से वह खुश हुआ और उसने अपना बटुआ खोला। मैं टैक्सी को वापस भेज रहा था । गफ्फूर से रसीद पर दस्तखत करवाने के बाद मैंने जोज़ेफ को पैसे दिए कि वह गाँव के होटल से जाकर खाना ले आए। चूँकि मैं इन्तज़ाम करने में लगा था इसलिए अपनी प्रियतमा के चेहरे की तरफ देखने की मुझे फुर्सत नहीं थी, हालाँकि मैं बार-बार उसकी तरफ देख रहा था। जोज़ेफ ने कहा, “गुफाएँ यहाँ से दो मील दूर हैं। इस वक्त तो हम वहाँ नहीं जा सकते। कल सुबह जाना ठीक रहेगा। नाश्ते के बाद जाकर दोपहर के खाने तक लौट सकते हो।"

'पीक हाउस मेम्पी की पहाड़ियों के शिखर पर बना था सड़क यहीं पर खत्म हो जाती थी; उत्तरी बरामदे में शीशे की दीवार बनी थी जहाँ से सौ मील दूर तक का क्षितिज दिखाई देता था । नीचे जंगल घाटी तक फैला था, और जिस दिन आसमान साफ रहता था, धूप में चमचमाती सरयू नदी की धारा दिखाई देती थी । प्राकृतिक वातावरण के प्रेमियों और जंगली पशुओं को देखने के शौकीन लोगों के लिए वह स्थान स्वर्ग के समान था । रात के वक्त बरामदे के शीशों में से जंगल में घूमते हुए जानवर साफ दिखाई देते थे । लड़की इस दृश्य को देखकर आनन्दविभोर हो उठी थी । बंगले के चारों तरफ घनी हरियाली थी । वह खुशी से चीखती हुई पेड़-पौधों को छू रही थी, लेकिन उसके पति ने किसी प्रकार की भावुकता का प्रदर्शन नहीं किया। लड़की जिन चीज़ों में भी दिलचस्पी लेती थी, लगता था उसके पति को उन चीजों से चिढ़ हो जाती थी। अचानक हजारों फुट नीचे घूप में नहाए मैदानों को देखकर वह ठिठक गई। मुझे डर लगा कि शायद रात के वक्त वह इस दृश्य से भयभीत हो जाएगी। गीदड़ बोल रहे थे, हर किस्म के जानवरों की गुर्राहटें और दहाड़ें सुनाई दे रही थीं। जोज़ेफ एक टोकरी में खाना ले आया और मेज पर रखकर चला गया। वह सुबह के नाश्ते के लिए दूध, कॉफी और चीनी भी ले आया था और उसने मुझे वह जगह दिखाई जहाँ कोयलों की अंगीठी रखी थी। लड़की खुशी से चिल्लाई, "जब मैं आवाज़ दूं, तभी सब लोग उठना ! मैं सबके लिए कॉफी बनाऊंगी।” जोज़ेफ ने कहा, “मेहरबानी करके भीतर से दरवाजा बन्द कर लीजिएगा । उस बरामदे में बैठकर आप शेरों और दूसरे जानवरों को घूमता हुआ देख सकती हैं। लेकिन किसी किस्म की आवाज़ मत कीजिएगा - यही असली राज है ।" इसके बाद जोज़ेफ लालटेन उठाकर सीढ़ियों से नीचे उतर गया। पेड़-पौधों में से उसकी लालटेन की टिमटिमाहट कुछ देर तक दिखाई देती रही, फिर अदृश्य हो गई । लड़की ने कहा, “बेचारा जोज़ेफ, वह कितना बहादुर है। अकेला ही जंगल में चला गया।" उसके पति ने लापरवाही से जवाब दिया, "इसमें कोई ताज्जुब नहीं । शायद उसकी पैदाइश और परवरिश यहीं हुई है।” फिर उसने मेरे तरफ देखकर पूछा, “क्या तुम उसे जानते हो?” “हाँ, वह उस गाँव में पैदा हुआ था, और बचपन से ही इस बंगले की देखभाल करता आ रहा है। उसकी उम्र कम से कम साठ साल होगी।"

' " वह ईसाई कैसे बना?"

' “यहाँ ईसाई मिशन था । मिशनरी लोग हर किस्म की जगहों पर जाकर बस जाते हैं यह तो आप जानते ही हैं।" मैंने कहा ।

'जोज़ेफ हमें पीतल के दो लैम्प तेल से भरकर दे गया था। एक मैंने रसोईघर की मेज़ पर रख दिया और दूसरा मैंने लड़की के पति को दे दिया- बंगले का बाकी हिस्सा अँधेरे में था । बरामदे के शीशों में से आसमान के तारे दिखाई दे रहे थे। हम तीनों मेज़ के गिर्द बैठ गए। मुझे मालूम था कि प्लेटें कहाँ रखी हैं, मैंने प्लेटें मेज़ पर लगा दीं। शाम के करीब साढ़े सात बजे थे। हमने बड़ा शानदार सूर्यास्त देखा था। उसके बाद उत्तरी आकाश पर छाई लालिमा की तारीफ भी की थी। सूरज के नज़रों से ओझल होने के बाद भी पेड़ों की फुनगियाँ भटकी हुई लाल किरणों से आलोकित हो उठी थीं। इस प्रशंसा की एक सांझी भाषा पैदा हो गई थी। लड़की का पति चुपचाप हम दोनों के पीछे-पीछे चल रहा था। मेरे मन का संगीत फूट पड़ा था। अचानक उस आदमी ने कहा, “अरे, राजू, तुम भी कवि हो ।” मैंने विनीत भाव से इस प्रशंसा को ग्रहण किया। खाने के वक्त मैंने प्लेट उठाकर खाना परोसने की कोशिश की, लेकिन लड़की ने कहा, “नहीं, नहीं, मैं तुम दोनों को खाना खिलाकर अच्छी गृहिणी की तरह खुद बाद में खाऊँगी।”

' "अहा ! यह तो बड़ा अच्छा विचार है।” पति ने मज़ाक किया। लड़की ने प्लेट पकड़ने के लिए मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन मैंने खुद खाना परोसने का आग्रह किया । अचानक उसने आगे बढ़कर प्लेट जबरदस्ती मेरे हाथ से छीन ली। ओह ! उस स्पर्श से क्षण-भर के लिए मेरा सर चकरा गया। मेरी दृष्टि धुंधली पड़ गई। हर चीज़ एक मीठी, अन्धेरी धुँध में खो गई, मानो वातावरण में क्लोरोफार्म छिड़क दिया गया हो। खाना खाते वक्त मैं उस स्पर्श के बारे में सोचता रहा। हम क्या खा रहे थे और वे लोग क्या बातें कर रहे थे, इसकी मुझे कतई होश नहीं थी, मैं सर झुकाए बैठा था, लड़की के चहरे की ओर जब मेरी नज़र जाती या जब उसकी नजरों से मेरी नज़रें टकरातीं तो मैं घबरा उठता। मुझे याद नहीं, हम लोगों ने किस वक्त खाना खत्म किया और वह प्लेटें उठाकर ले गई। मुझे सिर्फ उसकी कोमल अदाओं का हल्का-सा आभास हो रहा था और मैं उसके सुनहरी स्पर्श के बारे में सोच रहा था। मेरे मन का एक हिस्सा लगातार कह रहा था, 'नहीं, नहीं, यह बात ठीक नहीं है। याद रखो, मार्को उसका पति है। ऐसी बात तुम्हें सोचनी भी नहीं चाहिए ।' लेकिन विचारों को पीछे धकेलना नामुमकिन था । मेरी थकी अन्तरात्मा ने कहा, 'कहीं मार्को तुम्हें गोली से न उड़ा दे।' ‘क्या उसके पास पिस्तौल है!' मेरे मन के दूसरे हिस्से ने कहा ।

'खाने के बाद लड़की ने कहा, “चलो शीशेवाले बरामदे में चलें। मैं जंगली जानवरों को ज़रूर देखूँगी । तुम्हारा क्या ख्याल है, क्या वे इस वक्त यहाँ आएंगे ?"

‘ “हाँ, अगर हम खुशकिस्मत हुए और हमने धीरज दिखाया। लेकिन क्या तुम्हें डर नहीं लगेगा? अँधेरे में बैठना पड़ता है।" मेरे इस डर दिखाने पर वह खिल-खिलाकर हँस पड़ी और उसने मार्को को साथ आने का निमन्त्रण दिया। लेकिन मार्को ने कहा कि वह एकान्त चाहता है। उसने कुर्सी लैम्प के नजदीक खिसका ली, अपना बैग निकाला और फौरन कागज़ों को पढ़ने में तल्लीन हो गया। लड़की ने कहा, “अपने लैम्प को ढाँपकर रखो, मैं नहीं चाहती कि मेरे जानवर डरकर भाग जाए।" वह दबे कदमों से बरामदे में गई और एक कुर्सी खींचकर बैठ गई। फिर उसने मुझसे पूछा, “क्या तुम भी कागज़ों में खो जाओगे ?”

' “नहीं, नहीं,” मैंने जवाब दिया और हिचकिचाता हुआ अपने और उसके कमरे के बीच आकर खड़ा हो गया।

' "तो फिर आओ भी । तुम मुझे जंगली जानवरों के रहम पर तो नहीं छोड़ देना चाहते?" मैंने उसके पति की प्रतिक्रिया जानने के लिए उसकी तरफ देखा । लेकिन वह पढ़ने तल्लीन था । मैंने पूछा, “आपको किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं ? "

' "नहीं ।"

' "मैं बरामदे में हूँ।”

' " ज़रूर जाओ,” उसने सर ऊपर उठाए बगैर कहा ।

' लड़की शीशे की दीवार के साथ सटकर बैठी थी और गौर से बाहर देख रही थी । मैं धीरे से अपनी कुर्सी उसकी कुर्सी की बगल में रखकर बैठ गया । कुछ देर बाद उसने पूछा, “यहाँ तो कोई भी नहीं। क्या सचमुच जानवर यहाँ आते हैं या यह भी कोई मनगढन्त किस्सा है?"

' "नहीं, बहुत-से लोगों ने जानवरों को देखा है । "

' "कौन-से जानवर ?”

' "शेर..."

' "यहाँ शेर ?" वह हँसने लगी, “मैंने तो किताबों में पढ़ा है कि शेर सिर्फ अफ्रीका में पाए जाते हैं। लेकिन सचमुच यह तो..."

' "नहीं, माफ करना,” मुझसे गलती हो गई थी, "मेरा मतलब चीतों, तेंदुओं और भालुओं से था। कई बार हाथी भी घाटी पार करके तालाब में पानी पीने आते हैं।"

' “मैं पूरी रात यहाँ गुज़ारने के लिए तैयार हूँ। उन्हें भी एकान्त पसन्द है । कम से कम यहाँ खामोशी और अँधेरा है, और अँधेरे में हम किसी चीज़ का इन्तज़ार तो कर सकते हैं।” मुझे कोई जवाब न सूझा। उसकी सुवास मेरे रोम-रोम पर छा गई थी। शीशे के पार आसमान में तारे चमक रहे थे।

'उसने उबासी लेकर पूछा, "क्या हाथी इस शीशे को तोड़कर भीतर नहीं आ सकता ?”

' “नहीं, दूसरी तरफ एक खाई है। जानवर यहाँ तक नहीं पहुँच सकते।" इसी वक्त हरियाली में किसी जानवर की चमकदार आँखें दिखाई दीं। रोजी ने मेरी आस्तीन खींचकर उत्तेजित स्वर में फुसफुसाकर कहा, "कोई चीज़ है - कौन - सा जानवर है?”

' “शायद तेंदुआ है,” मैंने बातचीत जारी रखने के लिए कहा। ओह, वे फुसफुसाहटें, सितारें और अंधेरा कितना मादक था— उत्तेजना से मेरे श्वास की गति तेज़ हो गई। उसने पूछा, “क्या तुम्हें जुकाम हो गया है?" मैंने कहा, "नहीं तो। "

' “फिर तुम्हारी साँस में इतनी आवाज़ क्यों है?" मेरे जी में आया कि अपना चेहरा उसके चेहरे के साथ सटा दूँ और फुसफुसाकर कहूँ, 'तुम्हारा नृत्य बहुत शानदार था। तुम बड़ी प्रतिभाशाली हो । किसी दिन फिर नाचना । ईश्वर तुम पर कृपालु रहे। क्या तुम मेरी प्रेयसी बनोगी?' लेकिन खुशकिस्मती से मैंने अपने मन पर काबू पा लिया। मैंने पीछे मुड़कर देखा, मार्को दबे पाँव आकर हमारे पीछे खड़ा हो गया था । "कुछ दिखाई दिया ?” उसने फुसफुसाकर पूछा ।

' “कोई जानवर आया तो था, लेकिन वह लौट गया है, आप बैठोगे नहीं : " मैंने उसे अपनी कुर्सी दे दी, वह बैठकर शीशे में से झाँकने लगा ।

'अगले दिन सुबह वातावरण फिर कलुषित और तनावपूर्ण हो गया। पिछली शाम की सारी जिन्दादिली गायब हो गई। जब उन लोगों का कमरा खुला तो सिर्फ मार्को ही पूरी तरह तैयार होकर बाहर निकला । कोयले की अंगीठी पर मैंने कॉफी बना ली थी। उसने आकर यन्त्रवत् मेरी ओर हाथ बढ़ाया जैसे मैं कॉफी के काउण्टर के पीछे खड़ा होनेवाला दुकानदार होऊँ । मैंने प्याले में कॉफी ढालते हुए कहा, "जोज़ेफ आपका टिफिन ले आया है । आप खाएंगे नहीं ?"

' "नहीं, हमें फौरन चल देना चाहिए। मैं गुफाओं तक जल्दी पहुँचना चाहता हूँ ।"

' " और श्रीमतीजी क्या करेंगी?" मैंने पूछा।

' "उन्हें अकेला रहने दो,” उसने मचलकर कहा । "मैं बेकार वक्त जाया करके सिर्फ इधर-उधर घूमता नहीं रह सकता।" लगता है कि रोज़ सुबह उनके बीच ऐसी ही कटुभावना रहती थी। कल रात वह कितने स्नेह से उसके पास आकर बरामदे में बैठ गया था। आखिर रात को ऐसा क्या हुआ कि इस वक्त वे एक-दूसरे को नोंच खाना चाहते थे! क्या वे बिस्तर में बैठकर आपस में लड़ते-झगड़ते रहे थे या कि उसने अपने शिकवों से मार्को को थका दिया था? मैं चीखकर कहना चाहता था, 'अरे राक्षस, तुम उस परीज़ादी से रात को कैसा दुर्व्यवहार करते हो कि वह सुबह उठकर भी दुखी बनी रहती है । तुम्हारे पास कितना बड़ा खजाना है, उसकी कीमत तुम्हें नहीं मालूम, जैसे बन्दर के हाथ में माला आ गई हो !” फिर एक रोमांचक विचार मेरे मन में कौंध गया- हो सकता है कि वह नाराज़गी का बहाना कर रही हो, ताकि मैं उसकी ओर से बीच-बचाव करूँ ! मार्को ने कॉफी पीकर प्याला रख दिया और कहा, "अब हमें चल पड़ना चाहिए।" मुझे दोबारा उससे उसकी पत्नी के बारे में पूछते हुए लगा । वह बड़ी बेसब्री से एक बेंत घुमा रहा था। क्या यह सम्भव था कि रात में उसने अपनी बीवी के खिलाफ इस बेंत का इस्तेमाल किया हो? मैंने उससे दोबारा यह पूछने की गलती नहीं की कि 'क्या मैं उसको बुला लाऊँ?' क्योंकि इससे बहुत गम्भीर स्थिति पैदा हो जाती। मैंने सिर्फ इतना ही पूछा, "क्या उनको कॉफी के बारे में मालूम है?"

' "हाँ, हाँ," मार्को उत्तेजित स्वर में चिल्लाया । "कॉफी यहीं छोड़ दो; वह खुद पी लेगी। अपनी देखभाल करने लायक अक्ल तो उसमें है।" उसने स्विच का बटन बन्द कर दिया और हम लोग कमरे से बाहर निकल आए। मैंने एक बार ही पीछे मुड़कर देखा, इस आशा में कि शायद वह खिड़की से झाँकेगी और हमें वापस बुला लेगी । 'क्या मैं इस राक्षस के संग घूमने के लिए इतनी दूर से चल कर आया था ?' पहाड़ी के ढलान से नीचे उतरते हुए मैंने अपने-आप से यह प्रश्न पूछा । कितना अच्छा हो अगर वह ठोकर खाकर लुढ़कता हुआ पहाड़ी से नीचे खड्ड में जा गिरे ! बहुत बुरा विचार था, बहुत बुरा विचार था यह । वह मुझसे आगे-आगे चल रहा था। हम दोनों अफ्रीकन शिकारियों जैसे दीख रहे थे। दरअसल उसकी पोशाक - सिर पर लोहे का टोप और मोटी जाकेट, जैसा मैं पहले बता चुका हूँ- एक जंगली अफ्रीकन शिकारी जैसी ही थी । घास और झाड़ियों के बीच से होती हुई हमारी पगडंडी घाटी की ओर जाती थी। उसके आधे मार्ग पर वह गुफा थी। मुझे उसकी तेज रफ्तार पर गुस्सा आ रहा था। वह बेंत हिलाता हुआ और अपने पोर्टफोलियो को बगल में दबाए इस विश्वास-भरे अन्दाज़ में आगे बढ़ रहा था, जैसे उसे रास्ता मालूम हो । जिस प्यार से वह पोर्टफोलियो को बगल में दबाए था, काश उसकी आधी गरमाई ही वह कहीं और दिखा पाता ! मैंने अचानक पूछ ही लिया, "क्या आपको रास्ता मालूम है?" "अरे नहीं” उसने कहा । "लेकिन आप तो मेरे आगे-आगे ही चल रहे हैं।" मैंने इस वाक्य में जैसे मन का सारा व्यंग्य भर दिया था । "ओह!" वह किंचित् परेशान होकर बोला, और रुककर मार्ग से एक कदम हटते हुए बोला, “लो तुम हमें रास्ता दिखाओ,” और फिर जैसे उसने आदतन एक असंगत शब्द जोड़ दिया, “हे कृपालु रोशनी । "

'गुफा के द्वार तक पहुँचने के लिए लेण्टाना के कुँज को पार करना पड़ता था । जंक लगे कब्ज़ों पर टिका एक विशाल फाटक खुला हुआ था। साथ ही, उखड़ी हुई ईंटों और पलस्तर का मलबा भी वहीं पड़ा था। इस गुफा की सारी छत एक ही विशाल चट्टान से ढंकी थी। किसी आदमी ने ऐसे निर्जन स्थान में क्यों इस गुफा को बनाने की तकलीफ उठाई, यह बात मेरी समझ में नहीं आती थी । मार्को ने बाहर खड़े होकर गुफा के द्वार का निरीक्षण किया। “देखते हो, यह दरवाज़ा जरूर बाद की चीज़ है। गुफा तो मुझे मालूम है कि ईसा की पहली शताब्दी के लगभग की है। यह द्वार और फाटक बहुत बाद की चीजें हैं। जानते हो, इस तरह के लम्बे द्वारों और नक्काशी किए हुए फाटकों का सातवीं-आठवीं शताब्दी में ही प्रलचन हुआ था, जब दक्षिण भारत के नरेश ऐसी चीजों के..." वह बोलता जा रहा था। मुर्दा और जीर्ण चीजें ही उसकी ज़बान को खोलती थीं और उसकी कल्पना को जगाती थीं, न कि वे चीजें जो जिन्दा हैं, घूमती-फिरती हैं और जिनके अंगों में स्पन्दन है। एक गाइड के रूप में मेरा कोई काम ही नहीं रहा था। उसे इन चीज़ों के बारे में मुझसे कहीं ज़्यादा ज्ञान था। गुफा में घुसते ही वह बाहर की दुनिया और उसके निवासियों को एकदम भूल गया। गुफा की छत यद्यपि नीची थी लेकिन दीवारों में एक इंच जगह भी ऐसी नहीं थी जहाँ आकृतियों के चित्र न बने हों। उसने दीवारों पर टार्च की रोशनी डाली । फिर अपनी जेब से एक शीशा निकालकर वह उसे गुफा के बाहर रख आया ताकि वह सूरज की किरणें प्रतिबिम्बित करके अन्दर गुफा की दीवारों पर प्रकाश फेंक सकें । अन्दर चमगादड़ें चक्कर काट रही थीं, फर्श टूटा था और उसमें जगह-जगह गड्ढे पड़े हुए थे। लेकिन उसे इन चीज़ों की तनिक परवाह नहीं थी । वह तो अपने काम में तुरन्त लीन हो गया, फीते से नापने, कापी में नोट करने और कैमरा से चित्र खींचने में, और इस बीच वह लगातार बोलता जा रहा था, इसकी चिन्ता किए बगैर कि मैं उसकी बातों को सुन भी रहा हूँ या नहीं । मैं उसकी ध्वंसावशेष-संग्रही कार्रवाइयों से ऊब गया था । भित्तिचित्रों में महाकाव्यों और पुराणों में वर्णित घटनाएँ अंकित थीं । यहाँ हर प्रकार के पैटर्न और भाव चित्रित थे, जिनमें पुरुष, स्त्रियाँ, नरेश और पशु विचित्र पृष्ठभूमियों और अपने विचित्र अनुपातों में अंकित थे और उतने ही प्राचीन थे जितनी प्राचीन वहाँ की चट्टानें थी। मैंने ऐसे सैकड़ों चित्र देखे थे और अब ज़्यादा देखने में कोई मतलब नज़र नहीं आता था । मुझे इन प्राचीन चित्रों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जिस तरह उसे अन्य किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं थी । “ज़रा होशियार रहें,” मैंने कहा, "इसकी दरारों में साँप-बिच्छू हो सकते हैं।” “अरे नहीं,” उसने लापरवाही से कहा, “साँप-बिच्छू ऐसी दिलचस्प जगहों में नहीं रहते। इसके अलावा मेरे पास यह है,” उसने बेंत हिलाते हुए कहा, “मैं उनसे समझ लूँगा। मुझे उनका डर नहीं है।” मैंने एकाएक कहा, “मुझे पहाड़ी पर कार की आवाज़ सुनाई दे रही है। अगर गफ्फूर आया है तो मुझे बंगले पर रहना चाहिए। आपको एतराज़ तो नहीं अगर मैं चला जाऊँ? मैं फिर वापस आ जाऊँगा।” उसने उत्तर दिया, “उसे रोक रखना, जाने मत देना । "

' " लौटते वक्त आप उस रास्ते से ही आइएगा, जिससे हम यहाँ आए थे ताकि आप रास्ता भूल न जाएं।” लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया, चित्रों के निरीक्षण में व्यस्त रहा।

'मैं भागता हुआ बंगले पर पहुँचा। पिछले आँगन में रूककर मैंने साँस ली, फिर हाथों से अपने बाल सँवारता हुआ और अपनी मुद्रा को संयत करके मैं अन्दर दाखिल हुआ। भीतर कदम रखते ही मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी, “क्या मुझे ढूँढ़ रहे हो?" वह एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठी थी। उसने ज़रूर मुझे पहाड़ी पर चढ़ते हुए देखा होगा । " मैं तो तुम्हें आधे मील से देख रही थी, लेकिन तुम मुझे नहीं देख सकते थे,” उसने ऐसे कहा जैसे उसने कोई गलती पकड़ी हो।

' “तुम ऊपर चोटी पर थीं और मैं नीचे घाटी में था,” मैंने कहा। मैं उसके पास गया और मैंने बड़े शिष्ट अन्दाज़ में उससे कॉफी पीने के बारे में पूछा। वह इस वक्त बड़ी उदास और गम्भीर दीख रही थी । मैं भी उसके पास पड़े एक पत्थर पर बैठ गया । " तो तुम अकेले लौट आए हो और शायद वे दीवारों को ताक रहे हैं,” उसने कहा ।

' "हाँ,” मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया ।

' "वे हर जगह यही करते हैं।"

' "शायद उन्हें इसमें बहुत गहरी दिलचस्पी है, इसीलिए ।"

' " और मैं? मेरी दिलचस्पी किसी और चीज़ में है।"

' "तुम्हारी दिलचस्पी किस चीज़ में है ? "

' "ठंडी और जीर्ण-पुरातन दीवारों के अलावा हर चीज़ में,” उसने कहा । मैंने अपनी घड़ी की ओर देखा। मुझे मार्को के पास से आए करीब एक घंटा हो गया था । मैं अपना समय बरबाद कर रहा था । समय मेरी उंगलियों में से फिसलकर बहा जा रहा था । मुझे अगर सफलता पानी है तो मुझे इस मौके का फायदा उठाना चाहिए। मैंने साहसपूर्वक पूछा, " हर रात को शायद तुम लोग बैठकर आपस में झगड़ते हो, है न?"

' "हम लोग जब अकेले में होते हैं, तब बातें करते-करते बहस करने लगते हैं और फिर हर बात पर झगड़ते हैं। अधिकतर बातों में हमारा मतभेद रहता है । फिर वह मुझे अकेला छोड़कर चला जाता है और जब लौटता है तब हमारे बीच कोई झगड़ा नहीं रहता । बस इतनी सी बात है । "

' "हाँ, जब तक फिर रात नहीं आती,” मैंने कहा ।

' “हाँ, हाँ।"

' "यह बात कल्पना में भी नहीं आती कि कोई तुमसे बहस या झगड़ा भी कर सकता है - तुम्हारे पास होना- भर कितना बड़ा सुख है !"

' उसने तपाक से पूछा, "तुम्हारा मतलब?"

'मैंने स्पष्ट शब्दों में बात समझाई। मैं ज़रूरत पड़ने पर आज अपने को बर्बाद करने के लिए भी तैयार था, लेकिन मैं आज उसको सब कुछ बता दूँगा। अगर वह मुझे ठोकर मारकर निकाल देना चाहे तो ऐसा कर सकती थी, लेकिन मेरी बात सुनने के बाद ही । मैंने अपने मन की बात कही। मैंने उसके नृत्य की तारीफ की। मैंने अपने प्रेम का निवेदन किया लेकिन बीच-बीच में उसकी कला की प्रशंसा भी करता गया । एक सांस में मैं उसे कलाकार कहता, दूसरी साँस में अपने हृदय की रानी । मेरे बोलने की तर्ज यह थी, "तुम्हारा सर्प-नृत्य कितना शानदार था ! ओह, मैं सारी रात तुम्हारे बारे में सोचता रहता हूँ। तुम दुनिया की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी हो ! क्या तुम नहीं देखतीं कि मैं हर क्षण तुम्हारा ही ध्यान करता रहता हूँ? तुम्हारी चाह ही मेरे मन में बसी रहती है।”

'इसका उस पर अनुकूल असर पड़ा। वह बोली, “तुम मेरे भाई की तरह हो,” ('आह, नहीं,' मैं चीखना चाहता था) और मैं तुम्हें बता रही हूँ कि आखिर होता क्या..." फिर उसने अपने नित्य प्रति के झगड़ों का पूरा विवरण सुनाया ।

"तुमने शादी ही क्यों की?" मैंने दुस्साहस करके पूछा। वह कुछ देर खामोश रही, फिर बोली, "मुझे नहीं मालूम। बस हो गई..."

' “तुमने उसकी दौलत के लिए उससे शादी की है, और इसके लिए तुम्हारे चाचा और दूसरे सगे-सम्बन्धियों ने तुम्हें सलाह दी थी,” मैंने कहा ।

'उसने मेरी आस्तीन पकड़कर कहा, “अच्छा बताओ, क्या तुम अन्दाज लगा सकते हो कि मैं किस वर्ग में पैदा हुई थी?” मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखकर कहा, 'सबसे उत्तम वर्ग में, वह चाहे जो भी हो। वैसे मैं वर्ग या जात-पात में विश्वास नहीं करता । तुम चाहे जिस ज़ात या वर्ग में पैदा हुई हो, तुम उसके लिए गौरव और गर्व की चीज़ हो ।”

' "मैं देवदासियों के एक परिवार में पैदा हुई थी, जिसने परम्परा से मन्दिरों में नृत्य करने के लिए अपने को उत्सर्ग कर दिया था। मेरी माँ, मेरी दादी और उससे भी पहले उनकी माँ और दादी- सभी देवदासियाँ थीं। मैं जब बच्ची थी, उस वक्त से ही गाँव के मन्दिर में नाचने लगी थी। तुम तो जानते हो कि हमारी जात को लोग किस नज़र से देखते हैं ।"

' " मेरी नज़र में यह दुनिया की सबसे पवित्र और कुलीन ज़ात है,” मैंने कहा ।

' "लेकिन लोग हमें वेश्या समझते हैं,” उसने स्पष्ट शब्दों में कहा और मुझे यह शब्द सुनकर रोमांच हो आया । " लोग हमें शरीफ या सभ्य नहीं समझते।”

' “पुराने ज़माने में ही लोगों के ऐसे विचार थे, लेकिन अब लोग ऐसा नहीं सोचते । वक्त बदल गया है। आज कोई जात या वर्ग का भेद नहीं रहा । "

' “मेरी माँ ने मेरे लिए इससे भिन्न ज़िन्दगी की व्यवस्था की थी। उन्होंने मुझे छोटी उमर में ही स्कूल में पढ़ने के लिए बिठा दिया। मैंने भी मन लगाकर पढ़ाई की। मैंने अर्थशास्त्र में एम.ए. पास किया। लेकिन कालेज से निकलने पर मेरे सामने प्रश्न उठा कि मैं नर्तकी का पेशा अख्तियार करूँ या कोई और काम करूँ। एक दिन मैंने अपने यहाँ के अखबार में एक विज्ञापन पढ़ा-वैसा ही जैसा तुमने अक्सर देखा होगा - उसमें लिखा था : 'एक धनी, अध्ययनशील व्यक्ति से विवाह के लिए सुन्दर और पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए । जात-पांत का कोई बन्धन नहीं है । सुन्दरता और यूनिवर्सिटी की डिग्री ही आवश्यक है।' और मैंने अपने-आप से प्रश्न किया, 'क्या मैं सुन्दर हूँ?"

' "ओह, इसमें भी किसी को सन्देह हो सकता था?"

' “मैंने यूनिवर्सिटी की डिग्री हाथ में पकड़कर तस्वीर खिंचवाई और विज्ञापन के जवाब में भेज दी। तो इस तरह हम मिले । मार्को ने मुझे अच्छी तरह देखभाल कर मेरी डिग्री की जाँच की और फिर रजिस्ट्रार के यहाँ जाकर हमने शादी कर ली।”

' " क्या पहली बार देखकर तुम्हें मार्को पसन्द आया था ?”

' " अब यह सब मुझसे मत पूछो,” उसने मुझे डाँटा । "शादी का फैसला करने से पहले हमने कई बार आपस में बहस-मुबाहिसा किया था। मेरे यहाँ लोगों के सामने यह प्रश्न था कि क्या अपने वर्ग और अपनी हैसियत से इतने ऊपर उठकर मुझे शादी करनी चाहिए। लेकिन मेरे परिवार की सभी औरतें बहुत प्रभावित थीं और वे खुशी से फूली नहीं समाती थीं कि एक इतना धनी आदमी हमारे वर्ग में शादी करने आ रहा है, और यह तय हुआ कि अगर अपने परम्परागत हुनर को छोड़ना ज़रूरी हो तो यह त्याग इस सम्बन्ध के मुकाबले में बड़ा नहीं है। मार्कों के पास एक बड़ी कोठी थी, कार थी, समाज में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । उसकी कोठी मद्रास से बाहर थी और वह उसमें अकेला ही रहता था; वह अपनी पुस्तकों और अपने कागज़ों के साथ रहता था ।"

' " तो तुम्हारी सास नहीं है?" मैंने पूछा।

' "अगर मेरा पति एक जिन्दा, यथार्थ आदमी होता तो मैं कैसी भी सास के साथ रह लेती,” उसने उत्तर दिया। मैंने उसकी बात का अर्थ भांपने के लिए उसके मुख की ओर देखा । मैंने उसके कन्धे पर अपना हाथ रख दिया और उंगलियों से सहलाने लगा । "तुम्हारे बारे में सोचकर मैं बहुत उदास हो जाता हूँ- दुनिया ने कितना बड़ा हीरा खो दिया । मैं अगर मार्कों की जगह होता तो तुम्हें इस संसार की रानी बना देता ।” उसने मेरा हाथ नहीं हटाया। मैंने हाथ सरकाकर उसके कान की लोर सहलाई और उसके बालों से मेरी उंगलियाँ खेलने लगीं ।

'गफ्फूर की मोटर नहीं आई। रास्ते से गुज़रती एक लॉरी के ड्राइवर ने सन्देश दिया कि गफ्फूर की मोटर खराब हो गई है और वह कल आएगा। किसी ने इस बात पर बुरा नहीं माना। जोज़ेफ ने बहुत अच्छी तरह हमारी देखभाल की। मार्को ने कहा कि उसे दीवारों की नक्काशी के अध्ययन का मौका मिल गया है। मैंने भी बुरा नहीं माना। मैं रात के वक्त शीशे में से जंगली जानवर देखता और लड़की का हाथ अपने हाथ में ले लेता । मार्को अपने कमरे में बैठकर नोट्स का अध्ययन करने मे तल्लीन रहता ।

'जब गफ्फूर की मोटर आई तो मार्को ने कहा, "मैं यहाँ और रुकना चाहता हूँ, मुझे नहीं मालूम था कि यहाँ ज्यादा वक्त लग जाएगा। क्या तुम होटल के कमरे में से मेरा क सन्दूक ला सकते हो? उसमें कुछ कागज़ रखे हैं। अगर तुम्हें ज़्यादा फर्क न पड़े तो मैं चाहूँगा कि तुम भी यहीं रहो।"

‘मैं हिचकिचाया फिर मैंने क्षण-भर के लिए लड़की की तरफ देखा । उसकी आँखों में एक मूक निवेदन था । मैं राज़ी हो गया।

‘मार्को ने कहा, “अगर तुम्हारे और कामों में हर्ज न होता हो तो तुम इसे भी अपने काम का हिस्सा समझ सकते हो।"

'मैंने हिचकिचाकर कहा, “ठीक है लेकिन मैं आपकी मदद करना चाहूँगा। एक बार जब मैं किसी टूरिस्ट की ज़िम्मेदारी ले लेता हूँ तो जब तक वह सही-सलामत विदा नहीं हो जाता तब तक मुझे ज़िम्मेदारी का एहसास बना रहता है।" जब मैं मोटर में जाकर बैठा तो लड़की ने अपने पति से कहा, “मैं भी शहर वापस जा रही हूँ। मुझे अपने सन्दूक से कुछ चीजें निकालनी हैं।” मैंने कहा, “हो सकता है। हम लोग आज रात न लौट सकें।"

मार्को ने अपनी बीवी से पूछा, “तुम सब कुछ सम्भाल लोगी?”

' “हाँ।"

'जब मोटर पहाड़ी सड़क के नीचे उतर रही थी तो मैंने देखा कि गफ्फूर शीशे में से बार-बार हमारी तरफ देख रहा था, हम दूर सरककर बैठ गए जहाँ तक उसकी निगाह नहीं जा सकती थी। शाम के वक्त हम होटल पहुँचे। मैं उसके पीछे-पीछे उसके कमरे में गया। “क्या हम आज रात को ही वापस लौट चलें ?” मैंने पूछा ।

' "क्यों ? मान लो रास्ते में गफ्फूर की मोटर खराब हो जाए तो? उस सड़क पर इस मोटर का कोई भरोसा नहीं। मैं आज रात यहीं रहूँगी।"

'मैं कपड़े बदलने घर चला गया। मुझे देखते ही माँ ने सवाल करने शुरू कर दिए। उसे बहुत-सी बातें मालूम थीं। मैंने उसकी बातें अनसुनी कर दीं, नहा-धोकर मैंने अपना एक खास जोड़ा निकाला और पुराने कपड़ों की गठरी बनाकर माँ को दे दी, “दुकानवाले लड़के के हाथ ये कपड़े धोबी के यहाँ भिजवा दो और कहलवा दो कि इन्हें अच्छी तरह से धोकर इस्तरी करे। कल मुझे इन कपड़ों की ज़रूरत पड़ सकती है।"

' "छैला बनते जा रहे हो?" माँ ने गौर से मुझे देखते हुए कहा । " आजकल इतनी भगदड़ क्यों मचाते हो?" मैं कोई बहाना बनाकर वहाँ से चला आया ।

‘उस दिन मैंने अपने घूमने के लिए गफ्फूर की मोटर किराये पर ली । मैं सच्चे अर्थों में गाइड बन गया था। इतने उत्साह से मैंने कभी किसी यात्री को शहर नहीं दिखाया था । मैंने रोजी को सारा शहर दिखाया, टाउन हॉल का टॉवर दिखाया, फिर सरयू के किनारे रेत पर बैठकर हम लोगों ने नमकीन मूंगफली खाई । वह बिलकुल बच्ची की तरह पेश आ रही थी। हर चीज़ को देखकर वह खिल उठती थी, हर चीज़ उसे पसन्द आती थी । मैं उसे शहर के नजदीक की बस्ती के बाज़ार में ले गया और कहा कि वह अपने मनपसन्द की कोई भी चीज़ खरीद ले । शायद वह पहली बार दुनिया को देख रही थी। दुकान से बाहर निकलकर गफ्फूर ने एकान्त में ले जाकर मुझे चेतावनी दी, “याद रखो वह शादीशुदा औरत है ।"

' "तो क्या हुआ ? तुम मुझे यह बात क्यों बता रहे हो?”

' “जनाब, नाराज़ मत होओ। मैं सिर्फ यही कहना चाहता हूँ कि ज़रा धीमी रफ्तार से चलो।"

' “गफ्फूर, तुम्हारे दिल में गन्दे विचार हैं। मैं उसे अपनी बहन समझता हूँ,” मैंने यह कहकर उसकी ज़बान बन्द कर दी। उसने सिर्फ इतना कहा, “तुम ठीक कहते हो । मुझे क्या? जिसने उससे शादी की है वह यहाँ मौजूद है, और मुझे अपनी बीवी की चिन्ता करनी चाहिए।” फिर मैं दुकान के भीतर चला गया। रोज़ी ने मोर के आकार का एक चांदी का ब्रूच पसन्द किया था। मैंने वह ब्रूच खरीदकर उसकी साड़ी पर लगा दिया। फिर हम लोगों ने ताज की छत पर बैठकर खाना खाया, जहाँ से सरयू नदी की सर्पिल धारा दिखाई देती थी। जब मैंने उस दृश्य की तरफ उसका ध्यान आकर्षित किया तो वह बोली, "यह सुहावना दृश्य है । लेकिन इस बार मैंने इतनी घाटियाँ, पेड़ और नाले देखे हैं जो ज़िन्दगीभर के लिए काफी होंगे।" हम दोनों हँस पड़े। आजकल हम हर वक्त खिलखिलाते रहते थे ।

' उसे बाज़ार में घूमना, होटल की भीड़ में बैठकर खाना खाना, सिनेमा देखना, बहुत पसन्द था- मालूम होता था कि इन दिनों वह इन साधारण सुखों से वंचित रही थी । मैंने सिनेमा पहुँचकर मोटर वापस लौटा दी । मैं नहीं चाहता था कि गफ्फूर मेरी गतिविधियों का निरीक्षण करे। पिक्चर देखने के बाद हम लोग पैदल होटल की तरफ चल पड़े। पिक्चर में क्या था, उसकी तरफ हमारा ध्यान नहीं गया था। मैंने बॉक्स की टिकटें खरीदी थीं । हल्के पीले रंग की क्रेप की साड़ी में वह इतनी आकर्षक लग रही थी कि लोग लगातार उसी की तरफ देखते जा रहे थे। उसकी आँखों में जिन्दादिली और कृतज्ञता की चमक थी । मैं जानता था कि मैंने उस पर ऐहसान किया था ।

' आधी रात होने वाली थी। होटल के डेस्क पर बैठे आदमी ने उदासीन भाव से हमें कमरे की तरफ जाते देखा। इन लोगों को जिज्ञासु न होने की तालीम दी जाती है। 28 नम्बर के कमरे के सामने जाकर मैं ठिठक गया । वह दरवाज़ा खोलकर हिचकिचाहट भरे अन्दाज़ में भीतर चली गई, और दरवाज़े को आधा खुला छोड़ गई। क्षण-भर के लिए उसने मेरी तरफ देखा - उसी तरह जैसे उसने पहले दिन देखा था। मैंने फुसफुसाकर पूछा, "क्या मैं चला जाऊँ?” “हाँ चले जाओ, गुडनाइट ।” उसने क्षीण स्वर में कहा ।

' " तुम्हारी इजाज़त हो तो मैं भीतर न आ जाऊँ?” मैंने चेहरे पर ज़्यादा से ज़्यादा उदासी का भाव लाकर कहा।

' "नहीं, नहीं, वापस चले जाओ।" लेकिन किसी सहजभावना से प्रेरित होकर मैंने उसे हल्का-सा धक्का देकर रास्ते से हटा दिया, और भीतर जाकर जैसे दुनिया के दरवाज़े पर ताला लगा दिया।

गाइड : अध्याय 6

राजू इन कामों में इतना व्यस्त था कि उसे वक्त बीतने का एहसास ही न रहा । वह हमेशा व्यस्त रहता था और उसके लिए एक दिन और दूसरे दिन में कोई फर्क नहीं था। इसी तरह कई महीने (या शायद कई साल ) गुज़र गए। वह मौसमों का हिसाब खास-खा घटनाओं से लगाता था, जैसे जनवरी में फसल कटती थी जब उसके भक्त उसे गन्ना और गन्ने के रस में पकी चावल की खीर लाकर भेंट करते थे। और जब वे मिठाइयाँ और फल लाकर देते थे तो वह समझ जाता था कि तमिल का नया वर्ष शुरू हो गया है। दशहरे पर लोग अतिरिक्त दीये लाकर उसके यहाँ मन्दिर में जलाते थे और औरतें नौ दिन तक खम्भोंवाले हॉल को रंगीन झंड़ियों और चमकदार कागज़ों से सजाती थीं । दीपावली के दिन वे उसके लिए नए कपड़े और पटाखे लेकर आते थे। वह बच्चों को खास तौर पर बुलाकर पटाखे छुड़वाता था । इस तरह उसे गर्मी, वर्षा और कुहरे के मौसमों के साथ-साथ वक्त का अन्दाज़ होता था । इस तरह तीन मौसमों के चक्र के बाद उसने वक्त का हिसाब रखना छोड़ दिया। उसे एहसास हुआ कि वक्त का हिसाब रखने से कोई फायदा नहीं ।

उसकी दाढ़ी छाती तक लम्बी हो गई थी, सर के बाल पीठ तक आ गए थे । गले में उसने रुद्राक्ष की माला पहन रखी थी। उसकी आँखों में करुणा, कोमलता और बुद्धिमत्ता की ज्योति थी । गाँव के लोग उसके लिए इतने उपहार लेकर आते थे कि उसे चीजें जमा करने में कोई दिलचस्पी नहीं रही थी । वह शाम को सत्संग के बाद सारी चीजें लोगों में बाँट देता। वे लोग उसके लिए सूर्यमुखी के फूलों के हार और टोकरियों में चमेली और गुलाब की पंखुड़ियाँ भरकर लाते, जिन्हें वह औरतों और बच्चों में बाँट देता। एक दिन उसने वेलान से कहा, “मैं गरीब आदमी हूँ। तुम भी गरीब हो । फिर क्यों मुझे इतनी चीजें देते हो? आगे से ऐसा मत करना।” लेकिन इन बातों को बन्द करना मुमकिन नहीं था । उसके लिए उपहार लाने में लोगों को आनन्द आता था। उसके भक्त उसे स्वामीजी कहते थे और उसके रहने की जगह मन्दिर बन गई थी। 'स्वामीजी ने यह कहा है,' या 'मैं मन्दिर जा रहा हूँ,' लोगों की रोज़मर्रा की बातचीत के शब्द बन गए थे। लोगों को इस स्थान से इतना प्रेम था कि वे दीवारों पर सफेदी करते और लाल रंग की लकीरें खींचते ।

छह महीने तक रोज़ शाम को बादलों की गर्जन के साथ दो घंटे तक बारिश होती थी; बाकी महीनों में वर्षा की झड़ी लग जाती थी, लेकिन बारिश के बावजूद भी लोग वहाँ जमा होते थे, वे नारियल की चटाइयाँ, छाते लेकर वहाँ आते थे। बारिश में तो भीड़ और भी बढ़ जाती थी, क्योंकि बाहरवाले आँगन में पूरी भीड़ नहीं समा सकती थी । भीतर बैठकर लोगों को सुख और ठंडक महसूस होती थी और उन्हें सत्संग दिलचस्प मालूम होता था । पेड़ों में हवा की सरसराहट और उमड़ते हुए दरिया से शाम की सभा और आकर्षक बन जाती थी (लोग बच्चों को कंधों पर बैठाकर उथले पानी में चलकर आते थे) राजू को यह मौसम बहुत पसन्द था क्योंकि चारों ओर हरियाली छाई रहती थी, आसमान में बादल तरह-तरह के खेल खेलते थे । राजू खम्भेवाले हॉल में बैठा-बैठा सारा दृश्य देखा करता था ।

अचानक साल के अन्त में उसने देखा कि आसमान में बादल नहीं आते, गर्मी का मौसम लगातार चल रहा था। राजू ने पूछा, "बारिशें कहाँ गई ?”

वेलान ने लम्बूतरा मुँह बनाकर जवाब दिया, “स्वामीजी, मौसम के शुरू की बारिश तो हुई ही नहीं। अब तक हम लोग बाजरे की फसल काट भी चुके होते, लेकिन फसल झुलस गई है। हम लोग बहुत परेशान हैं।”

एक दूसरे आदमी ने कहा, "केले के हजारों पौधे तबाह हो गए हैं। अगर यही हालत रही तो न जाने क्या होगा?" सब लोग परेशान दिखाई देते थे। राजू ने हमेशा की तरह सान्त्वनापूर्ण स्वर में भविष्यवाणी की, "ऐसी बातें तो होती ही रहती हैं। उनके बारे में ज्यादा चिन्ता नहीं करनी चाहिए। हमें कल्याण की आशा करनी चाहिए।" लेकिन लोग बहसें करते, "जानते हैं, स्वामी जी, हमारे मवेशियों को घास तक नसीब नहीं होती, वे मिट्टी कीचड़ सूँघकर लौट आते हैं।” राजू के पास हर शिकायत का सान्त्वानापूर्ण उत्तर मौजूद रहता था। लोग सन्तुष्ट होकर लौट जाते थे, “महाराज, आपसे ज्यादा कौन जानता है।” कहकर वे चले जाते | राजू को याद आया कि आजकल नहाने के लिए उसे तीन सीढ़ियाँ उतरकर नीचे जाना होता है। वह नीचे उतरकर नदी के प्रवाह को देखने लगा। उसने अपनी बाईं ओर देखा जिधर नदी की धारा पर्वत श्रेणियों को लपेटती हुई मेम्पी में अपने उद्गम स्थान तक चली गई थी, जहाँ वह अक्सर अपने सैलानियों को ले जाता था। इतनी छोटी तलहटी, करीब सौ वर्ग फुट, जिसमें छोटा-सा मन्दिर था - आखिर यह नदी इस जगह इतनी सिकुड़ क्यों गई थी? उसने देखा कि उसके किनारे चौड़े थे, पहले से ज्यादा चट्टानें नज़र आने लगी थीं और दूसरे किनारे का कगार कुछ ज्यादा ही ऊँचा दीख रहा था । और भी लक्षण वहाँ मौजूद थे। फसल के उत्सव के समय पहले जैसा उल्लास कहीं नहीं था । "गन्ने एकदम सूख गए हैं। बड़ी मुश्किल से ढूँढ़कर हम बस इतने ही ला सके हैं। कृपा करके स्वीकार कीजिए।”

“इन्हें बच्चों में बाँट दो,” राजू ने कहा। आजकल उपहार आने कम हो गए थे। किसी ने कहा, "ज्योतिषी ने कहा है कि अगले साल बारिशें बहुत जल्दी शुरू हो जाएँगी।" लोग हर वक्त बारिश के बारे में ही बातें करते थे, और उदासीन मन से व्याख्यान और दर्शन की बातें सुनते थे। राजू के गिर्द बैठकर वे अपने भय और आशाओं को व्यक्त करते थे। "स्वामीजी, क्या यह सच है कि हवाई जहाज़ों से बादलों पर ज़ोर पड़ता है और बारिश होती है? आजकल आसपास में बहुत-से हवाई जहाज़ हैं।" स्वामीजी, क्या यह सच है कि एटम बमों की वजह से बादल सूख गए हैं।” विज्ञान, पुराण, मौसमों की रिपोर्ट, पाप-पुण्य और सब तरह की सम्भावनाओं का बारिश के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जाता था। राजू भरसक हर शंका का समाधान करने की कोशिश करता, लेकिन उसने देखा कि उसकी बातों का लोगों के मन पर कोई असर नहीं पड़ता था । उसने फतवा दिया, “तुम लोगों को इस बारे में ज्यादा नहीं सोचना चाहिए। जो लोग इन्द्र देवता के बारे में ज्यादा सोचते हैं कई बार इन्द्र देवता उन्हें तंग करता है। अगर कोई लगातार चौबीसों घंटे तुम्हारा नाम लेता रहे, तो तुम्हें कैसा लगेगा?” लोगों को इस मिसाल के मज़ाक में मज़ा आया और वे अपने-अपने घर चले गए। लेकिन अब ऐसी स्थिति पैदा हो रही थी, जिसमें सान्त्वना के शब्द और विचारों का अनुशासन भी व्यर्थ सिद्ध हो रहा था । एक नए स्तर पर ऐसी बात घटित हो रही थी जिसपर किसी का कोई बस नहीं था, न ही लोगों के सामने कोई दूसरा रास्ता था । दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ सकता था । गायें दूध देने में असमर्थ थीं, बैलों में इतनी शक्ति नहीं थी कि हल खींच सकें। भेड़ों के बाल गिरने लगे थे, सूखे रोग से उनके पेट की हड्डियाँ उभर आई थीं।

गाँवों में कुओं का पानी सूख रहा था । औरतें दल बनाकर नदी से घड़ों में पानी भरने के लिए आती थीं। नदी का पानी भी दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा था। सुबह से रात तक नदी के किनारे औरतों का तांता बँधा रहता था। जब वे सामने के टीले पर से गुज़रती तो राजू उनकी कतारें देखता रहता । वह दृश्य चित्र सरीखा था, लेकिन उसमें चित्र की-सी शान्ति नहीं थी। वे नदी के पास आकर पानी के लिए झगड़तीं, उनकी आवाज़ों में भय, क्षोभ और अवसाद था ।

धरती तेज़ी से सूखती जा रही थी । एक पगडंडी पर एक भैंस मरी हुई पाई गई। एक दिन तड़के ही वेलान ने आकर स्वामी को यह खबर दी। राजू अभी सो रहा था । वेलान ने कहा, “स्वामीजी, आप हमारे साथ चलेंगे?"

"क्यों?"

" मवेशी मरने लगे हैं,” वेलान के स्वर में विधि के प्रति शान्त समर्पण भाव था ।

राजू उठकर बैठ गया। उसके जी में आया कि पूछे, 'मैं इस मामले में क्या कर सकता हूँ?” लेकिन वह ऐसी बात ज़बान पर नहीं ला सकता था । उसने सान्त्वना भरे स्वर में कहा, " अरे नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।"

"हमारे गाँव के बाहर जंगल की पगडंडी पर एक भैंस मरी हुई पाई गई है।" “क्या तुमने अपनी आँखों से देखा है ?"

“हाँ, स्वामीजी, मैं वहीं से आ रहा हूँ ।"

"इतनी बुरी हालत नहीं हो सकती, वेलान ! भैंस किसी दूसरी बीमारी से मरी होगी।”

"आप आकर देखिए तो सही, अगर आप उसकी मौत का कारण समझा देंगे तो हमारे दिल का बोझ कम हो जाएगा। आप जैसे विद्वान व्यक्ति को ही वहां सारा हाल आँखों से देखना चाहिए और लोगों को समझाना चाहिए।"

ज़ाहिर था कि लोग अपना सन्तुलन खोने लगे थे, वे जैसे भयंकर दुःस्वप्न की अवस्था में से गुज़र रहे थे। स्वामीजी को ज़िन्दा या मरे जानवरों के बारे में कोई ज्ञान नहीं था, इसलिए उनका भैंस के पास जाने से कोई लाभ नहीं था। लेकिन चूँकि लोगों की यही इच्छा थी, इसलिए राजू ने वेलान से कुछ क्षणों तक रुकने के लिए कहा और फिर वेलान के साथ चल पड़ा। गाँव की गली उजाड़ दिखाई दे रही थी । बच्चे धूल में खेल रहे थे, क्योंकि स्कूल मास्टर मालगुज़ारी के अधिकारियों के नाम अर्जी लेकर शहर गया था, इसलिए स्कूल बन्द था । औरतें पानी के घड़े सर पर उठाए आ-जा रही थीं, और चलते-चलते कह रही थीं, “मुश्किल से आज आधा घड़ा पानी मिला है।” कोई कहती, "न जाने दुनिया का क्या बनेगा। स्वामीजी, आप हमें रास्ता दिखाइए।" राजू ने हाथ उठाकर मानो कहना चाहा, 'शान्त रहो। सब ठीक हो जाएगा । मैं देवताओं से कहकर सब ठीक करवा दूँगा।' लोगों की भीड़ यही बातें दुहराती हुई राजू और वेलान के पीछे-पीछे जंगल की पगडंडी तक गई। किसी ने बताया कि साथ वाले गाँव में तो इससे भी ज्यादा बुरी घटनाएँ हो रही हैं। हैजा फैलने से हज़ारों लोग मर रहे हैं वगैरह-वगैरह। बाकी लोगों ने उस आदमी को इस तरह की अफवाहें फैलाकर लोगों में दहशत पैदा करने के लिए डाँटा राजू ने उस बातूनी आदमी की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया ।

गाँव के बाहर जंगल में जाने वाली पगडंडी पर एक भैंस मरी पड़ी थी, जिसकी हड्डियाँ बाहर निकली थीं। उसके ऊपर कौओं और गिद्धों का दल मंडरा रहा था, इन्सानों को देखकर वे दूर उड़ गए। वहाँ बड़ी बदबू आ रही थी, जिससे राजू का जी मिचलाने लगा। इस घटना के बाद से राजू उस मौसम का सम्बन्ध उस बदबू से जोड़ने लगा। हालत इतनी बिगड़ गई थी कि अब भविष्यवाणी से काम नहीं चल सकता था। राजू ने नाक को कपड़े से ढांपकर भैंस को थोड़ी देर तक देखा । फिर पूछा, "यह किसकी भैंस थी ?"

"हमारी तो नहीं है । यह साथवाले गाँव की है।" किसी ने कहा। इस बात से लोगों को कुछ तसल्ली हुई, अगर वह दूसरे गाँव की है तो मुसीबत उनसे कुछ दूर है। अब किसी भी बहाने से, किसी भी दलील से लोगों को समझाया जा सकता था। किसी दूसरे आदमी ने कहा, "यह तो जंगली भैंस मालूम होती है । लगता है यह पालतू नहीं है ।" यह तो और भी अच्छी बात थी। इस समस्या को सुलझाने को दूसरी सम्भावनाएँ निकल आई थीं, यह देखकर राजू कुछ आश्वस्त हुआ। भैंस की तरफ देखकर उसने कहा, “ज़रूर किसी जहरीले कीड़े ने इसे काटा होगा ।" इस बात से लोगों को तसल्ली हुई । पेड़ों की सूखी टहनियों और सूखे कीचड़ को, जहाँ हरियाली का नामोनिशान तक नहीं था, देखे बगैर ही राजू वहाँ से चला गया।

राजू की इस व्याख्या से लोग बहुत खुश हुए और उन्हें बेहद तसल्ली मिली। वातावरण का तनाव अचानक शान्त हो गया। रात के वक्त मवेशियों को बाड़े में बन्द करते वक्त लोगों के दिलों में कोई चिन्ता नहीं थी । वे कह रहे थे, “मवेशियों के लिए काफी चारा है | स्वामीजी ने कहा है कि भैंस की मौत किसी ज़हरीले कीड़े के काटने से हुई है। स्वामीजी सब कुछ जानते हैं।" इस व्याख्या की पुष्टि के लिए रहस्यपूर्ण कारणों से मरने वाले मवेशियों की अनेक कहानियाँ सुनाई गईं। “साँप उनके खुरों में घुस जाते हैं।" “कुछ ऐसी चींटियाँ भी होती हैं, जिनके काटने से मवेशी मर जाते हैं।"

इधर-उधर और मवेशी भी मरे हुए पाए गए। धरती को खुरचने पर भीतर से सिर्फ महीन मिट्टी के बादल निकलते थे। अधिकांश घरों में अनाज की कोठरियाँ खाली होने लगी थीं और गाँव के दुकानदार ने कीमतें बढ़ा दी थीं। एक तसला चावल के लिए वह चौदह आने माँगता था। एक ग्राहक ने गुस्से में आकर दुकानदार के मूँह पर तमाचा मारा। दुकानदार दरांती ले आया और ग्राहक पर टूट पड़ा। ग्राहक के हमदर्दों ने मिलकर दुकान पर धावा बोल दिया। रात के वक्त दुकानदार के रिश्तेदार और दोस्त सलाखें और छुरे लेकर आए और उन्होंने लोगों को जख्मी कर दिया ।

वेलान अपने साथियों समेत कुल्हाड़ियाँ और चाकू लेकर लड़ने के लिए निकल पड़ा । आसमान लोगों की चीख- दहाड़ों और गालियों से गूंज उठा। गाँव के बचे-खुचे भूसे को आग लगा दी और अँधेरी रात में आग की लपटें धू-धूकर उठने लगीं। रात की सुनसान हवा में राजू ने चीखों की आवाज़ सुनी और टीले के पीछे से उसने आग की लपटों को भी देखा । कुछ घंटों पहले हर चीज़ खामोश दिखाई दे रही थी। उसने सर हिलाकर जैसे अपने-आप से कहा, 'गाँव के लोग शान्त नहीं रह सकते । वे दिन-प्रतिदिन उत्तेजित होते जा रहे हैं। अगर यही हालत रही तो मुझे रहने के लिए कोई दूसरी जगह तलाश करनी पड़ेगी।' वह जाकर फिर सो गया, गाँव वालों की बातों में अब वह और ज्यादा दिलचस्पी लेने में असमर्थ था।

लेकिन अगले दिन सुबह ही उसको सारी खबरें मिल गईं। अभी उसकी नींद पूरी तरह खुली भी नहीं थी कि वेलान के भाई ने आकर बताया कि वेलान की खोपड़ी पर ज़ख्म लगे हैं और उसका शरीर झुलस गया है। उसने उन औरतों और बच्चों की सूची भी बताई जो झगड़े में जख्मी हुई थे । वे लोग अपनी बची-खुची ताकत से दूसरे दल पर रात को हमला करने की योजना बना रहे थे। ये बातें सुनकर राजू दंग रह गया। अब उसे क्या करना चाहिए, यह उसे नहीं मालूम था । वह इस असमंजस में था कि उनके अभियान को रोके या अपना आशीर्वाद दे। व्यक्तिगत तौर पर वह यह महसूस करता था कि अगर वे लोग एक-दूसरे की खोपड़ियाँ तोड़ दें तो अच्छा हो, तब सूखे की सारी चिन्ता ही मिट जाएगी । उसे वेलान की हालत सुनकर तरस आया। उसने पूछा, "क्या उसे ज्यादा चोट आई है?”

“अरे नहीं, थोड़ी-सी जगहों पर चोटें लगी हैं।" उसके जवाब से ऐसा लगा जैसे उसे किसी विद्यार्थी के कम नम्बरों को देखकर असन्तोष हुआ हो । राजू सोचता रहा कि उसे वेलान को देखने जाना चाहिए या नहीं। लेकिन वह अपनी जगह से हिलना-डुलना नहीं चाहता था। उसने सोचा अगर वेलान को चोटें लगी हैं तो बस, वह अच्छा हो जाएगा और वेलान के भाई ने उसकी चोटों के बारे में जो सच्चा या झूठा विवरण दिया था वह राजू के लिए सुविधाजनक था । वेलान के पास जाने की अब कोई ज़रूरत नहीं थी, उसे डर लगा कि अगर गाँववाले उसे रोज़ बुलाने लगे तो किसी न किसी बात पर उसे रोज़ बुलावा आने लगेगा और उसकी सुख-शान्ति समाप्त हो जाएगी, उसने वेलान के भाई से पूछा, “तुम कैसे बच गए ?"

"ओह! मैं भी वहीं था। लेकिन उन लोगों ने मुझे नहीं मारा। अगर मारते तो मैं दस जनों को वहीं धराशायी कर देता। लेकिन मेरे भाई ने लापरवाही दिखाई थी ।"

राजू ने सोचा, 'यह झाड़ू की तरह पतला-दुबला आदमी है लेकिन बढ़-बढ़कर इस तरह बातें करता है, जैसे कोई भीमकाय आदमी हो।' उसने सलाह दी - " अपने भाई से कह दो कि वह अपने ज़ख्मों पर हल्दी पोत ले ।” वेलान का भाई जिस लापरवाह अन्दाज़ में बातें कर रहा था, उससे राजू के मन में शक हुआ कि कहीं उसने खुद ही तो पीछे से अपने भाई पर वार नहीं किया। इस गाँव में जो न हो थोड़ा है। सब परिवारों के भाई आपस में मुकद्दमेबाज़ी कर रहे थे, हाल ही में होने वाली सनसनीखेज घटनाओं को देखते हुए कोई भी आदमी कुछ कर सकता है। वेलान का भाई जाने के लिए खड़ा हो गया। राजू ने कहा, “उससे कहना कि बिस्तर में आराम करे।"

“नहीं महाराज, वह आराम कैसे कर सकता है? वह तो आज रात अपने दुश्मनों पर हमला करने जा रहा है और जब तक दुश्मनों के घर जलकर खाक नहीं हो जाते, उसे चैन नहीं आ सकती ।"

"यह अच्छी बात नहीं है," राजू ने कहा । वह इस लड़ाई-झगड़े के प्रसंग से चिढ़ गया था।

वेलान का भाई गाँव के मन्दबुद्धि लोगों में से था । इक्कीस बरस का होने पर भी वह निरा अहमक था और वेलान पर बोझ बनकर उसकी मुसीबतों को बढ़ा रहा था। वह दिन-भर गाँव के मवेशियों को पहाड़ियों पर चराता रहता था। तड़के ही वह मवेशियों को हाँककर ले जाता और शाम को उन्हें वापस ले आता। दिन-भर वह पेड़ की छांह तले सुस्ताता और दोपहर के वक्त उबले हुए बाजरे की एक मुट्ठी खाकर सूरज के ढकने की इन्तजार करता रहता । दिन-भर मवेशियों के सिवा वह किसी से बातें नहीं कर सकता था। वह जानवरों को बराबर समझकर उनसे बातें करता और दिल खोलकर उन्हें और उनकी पिछली पीढ़ियों को गालियाँ देता । जंगल की निस्तब्धता में दोपहर के वक्त किसी दिन भी उसकी आवाज़ की गूंज सुनाई दे सकती थी । वह लाठी लेकर गालियाँ बकता हुआ मवेशियों के पीछे जाता । उसे सिर्फ इसी काम के लायक समझा गया था और हर घर से उसे महीने में चवन्नी मिलती थी। इससे ज्यादा ज़िम्मेदारी का काम उसे नहीं सौंपा जाता था। वह गाँव के उन इने-गिने लोगों में से था जो शाम के वक्त स्वामीजी के पास जाने की बजाय घर में सोना पसन्द करते थे। आज शायद वह पहली बार यहाँ आया था। दूसरे लोग रात की लड़ाई की तैयारियों में लगे थे और वेलान का यह भाई उन लोगों में से था जो सूखा पड़ने के बाद से बेकार हो गए थे। जानवरों को सूखी रेत सूंघने के लिए भेजना और उस अहमक को महीने में चवन्नी देना गाँव के लोगों को बेतुका मालूम होता था।

आज सुबह उसे किसी ने स्वामीजी के नाम सन्देशा देकर नहीं भेजा था, बल्कि घबराहट के मारे वह खुद-ब-खुद मन्दिर में स्वामीजी का आशीर्वाद लेने के लिए आया था। गाँव वाले लड़ाई-झगड़े की बातों की तरफ स्वामीजी का ध्यान कतई नहीं दिलाना चाहते थे, हालांकि लड़ाई के बाद वे अपने कारनामों को घटाकर स्वामीजी को बताते। लेकिन यह लड़का खुद-ब-खुद यह खबर पहुँचाने आया था और गाँववालों की करतूतों का पक्ष ले रहा था। उसने क्रुद्ध स्वर में पूछा, “स्वामीजी, उन लोगों ने मेरे भाई के चेहरे पर क्यों चोटें पहुँचाईं ? क्या उन्हें ऐसे कामों के लिए छूट दे दी जाए?" राजू ने धीरज से उसे दलील दी, लेकिन तुम्हीं लोगों ने पहले दुकानदार को पीटा था न ?” लड़के ने इस बात का शाब्दिक अर्थ लगाया और कहा, “मैंने तो दुकानदार को नहीं पीटा था। जिसने उसे पीटा था उसका नाम..." उसने गाँव के अनेक लोगों के नाम बताए। राजू इतना उकता गया था कि लड़के की गलती सुधारने या उसकी समझ बढ़ाने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने सिर्फ इतना ही कहा, " झगड़े-फसाद से कोई फायदा नहीं। किसी को झगड़ना नहीं चाहिए।" उस लड़के के सामने शान्ति की नैतिकता पर भाषण देना नामुमकिन था, इसलिए उसने केवल यही कहा, “किसी को भी झगड़ा-फसाद नहीं करना चाहिए।" "लेकिन वे लोग जो झगड़ते हैं! वे आकर हमें पीटते हैं !” लड़के ने बहस शुरू की और फिर सोच-विचार के बाद बोला, “वे जल्द ही हम लोगों को मार डालेंगे।” राजू ने परेशानी महसूस की। उसे इतना उत्पात पसन्द नहीं था । इससे गाँव की शान्ति में विघ्न पड़ सकता था और पुलिस भी वहाँ पहुँच सकती थी। वह नहीं चाहता था कि बाहर का कोई भी आदमी गाँव में आए। अचानक वह रचनात्मक ढंग से इस समस्या के बारे में सोचने लगा। उसने लड़के की कोहनी पकड़कर कहा, “जाओ, जाकर वेलान और बाकी लोगों से कह दो कि मुझे उनका यह लड़ाई-झगड़ा पसन्द नहीं है।... उन्हें क्या करना चाहिए यह मैं बाद में बता दूँगा।” लड़का अपनी आदत के अनुसार कोई दलील देने ही वाला था कि राजू ने अधीर स्वर में कहा, "बोलो मत, मैं जो कहता हूँ उसे सुनो।"

इस आकस्मिक तेजी को देखकर लड़के ने डरकर कहा, “हाँ महाराज।"

" तुम्हारा भाई जहाँ भी हो, उसे जाकर कह दो कि अगर वे लोग नेक न बने तो मैं कभी खाना नहीं खाऊँगा।"

"क्या चीज़ नहीं खाएंगे?” लड़के ने विस्मित भाव से पूछा ।

“उन्हें कह दो कि मैं भूखा रहूँगा। सवाल मत पूछो। जब तक वे नेक नहीं बनेंगे, मैं भूखा रहूँगा।"

"नेक? कहाँ ?"

दरअसल ये बातें लड़के की समझ से बाहर थीं। वह फिर पूछना चाहता था, कौन-सी खाने की चीज़ ?” लेकिन वह डर के मारे चुप रहा । विस्मय से उसकी आँखें फटी रह गईं। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर गाँववालों के झगड़े और इस आदमी के भूखे रहने में क्या सम्बन्ध है। वह सिर्फ यही चाहता था कि स्वामीजी उसकी बांह छोड़ दें। उसने महसूस किया कि यहाँ अकेले आकर उसने भारी गलती की है। स्वामी का दाढ़ीवाला चेहरा उसके चेहरे के नज़दीक सटा था उसे देखकर लड़का भयभीत हो उठा था । उसने सोचा शायद स्वामी उसे कच्चा ही न चबा जाए। वह वहाँ से निकलने के लिए बेचैन हो रहा था, इसलिए उसने कहा, “अच्छा महाराज, मैं यह काम कर दूँगा।” ज्योंही राजू ने उसकी बांह छोड़ी, त्योंही वह क्षण-भर में रेतीले किनारे को पार करके अदृश्य हो गया।

जब वह गाँव के बुजुर्गों की पंचायत में पहुँचा तो वह हाँफ रहा था। गाँव के बीचों- बीच एक चबूतरे पर बैठकर लोग वर्षा के बारे में बहस कर रहे थे। एक पुराने पीपल के पेड़ के गिर्द ईंटों का चबूतरा बना था, जिसके नीचे पत्थर की मूर्तियाँ रखी थीं। लोग अक्सर इन मूर्तियों को तेल लगाकर उनकी पूजा करते थे । यह चबूतरा एक प्रकार से टाउन हॉल का काम देता था। यह जगह खूब खुली और ठण्डी थीं, एक तरफ बैठकर मर्द स्थानीय समस्याओं पर सोच-विचार करते थे, दूसरी तरफ सर पर टोकरियाँ ढोने वाली औरतें आराम . करती थीं, बच्चे एक-दूसरे के पीछे भागते थे और गाँव के कुत्ते सुस्ताया करते थे। यहीं गाँव के लोग बैठकर बारिश, आज रात होने वाले झगड़े और उसके दांव-पेंच के बारे में बहस कर रहे थे । इस अभियान को लेकर उनके मन में कई तरह के सन्देह उठ रहे थे । इस मामले में स्वामीजी का दृष्टिकोण क्या होगा, यह बाद में देखा जाएगा। हो सकता है कि वे झगड़ों को पसन्द न करें। जब तक उनके दिमाग में सारा कार्यक्रम स्पष्ट नहीं हो जाता तब तक स्वामीजी के पास इन्हें नहीं जाना चाहिए। रही दूसरे दल की बात सो उन लोगों को सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए। बहस करने वाले बहुत से लोगों के शरीरों पर चोटों के निशान थे। लेकिन उन्हें पुलिस का डर था । उन्हें याद आया कि पिछली बार जब दो दलों में लड़ाई हुई थी, तो सरकार ने वहाँ एक स्थायी पुलिस चौकी बैठा दी थी, गाँव के लोगों को सिपाहियों के लिए पैसा और खाना जुटाना पड़ता था । रणनीति पर विचार करने वाली इस गोष्ठी में वेलान का भाई जा घुसा। वातावरण का तनाव बढ़ गया । वेलान ने पूछा, "क्या है भाई?" बोलने से पहले लड़का साँस लेने के लिए रूका। लोगों ने उसे कंधे से झकझोरना शुरू किया। अब वह घबराकर बड़बड़ाने लगा। अन्त में उसने कहा, "स्वामीजी कहते हैं कि उन्हें खाना नहीं चाहिए। वहाँ खाना लेकर मत जाना ।”

"क्यों? क्यों?"

“क्योंकि, क्योंकि....बारिश नहीं हो रही।" अचानक उसे झगड़े का ख्याल आया और उसने कहा, "स्वामीजी ने यह भी कहा है कि किसी किस्म का झगड़ा नहीं होना चाहिए ।"

"तुम्हें किसने वहाँ जाने के लिए कहा था?" वेलान ने रौबीले अन्दाज में पूछा ।

"मैं... मैंने नहीं कहा, लेकिन जब मैं वहाँ पहुँचा... तो उन्होंने पूछा और मैंने उनसे कहा...."

"तुमने उनसे क्या कहा ?” लड़का यकायक घबरा गया । वह जानता था कि अगर उसने बता दिया कि उसने झगड़े का जिक्र किया था तो उस पर कड़ी मार पड़ेगी। वह नहीं चाहता था कि कोई उसके कंधे पकड़कर झकझोरे - दरअसल उसे यह कतई पसन्द नहीं था कि कोई उसके किसी अंग को पकड़कर झकझोरे । उसे इस बात का दुःख था कि वह इस मामले में व्यर्थ ही फँस गया था। इन लोगों से कोई सम्बन्ध न रखना ही बेहतर था । इन लोगों को अगर मालूम हो गया कि उसने स्वामीजी को झगड़े की खबर दी है तो ये लोग उसका कन्धा तोड़ देंगे। इसलिए उसने सारे मामले पर परदा डालने का निश्चय किया । उसने आँखें मिचकाईं। उन्होंने उससे फिर पूछा, “तुमने उनसे क्या कहा ?"

"यही कि बारिश नहीं हो रही,” लड़के ने सोचकर तत्काल उत्तर दिया। उन्होंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, “बड़े भारी ज्योतिषी हो जो यह खबर सुनाने के लिए वहाँ दौड़े गए ! उन्हें शायद तुम्हारे बताने से पहले इस बात का पता नहीं था!” इसके बाद उन्होंने हँसकर सारी घटना को भूलने की कोशिश की ।

फिर उसको उस सन्देश की याद आई जो उसे पहुँचाने के लिए कहा गया था । उसने सोचा कि उसके बारे में अभी बता देना ठीक होगा, नहीं तो अगर उस महान व्यक्ति को उसकी गफलत का पता चल गया तो वह उसे शाप दे देगा। इसलिए उसने फिर शुरू से बात शुरू करते हुए कहा, "स्वामीजी उस समय तक किसी तरह का भोजन नहीं स्वीकार करेंगे, जब तक सब ठीक नहीं हो जाता ।" उसने यह सूचना इतने गम्भीर स्वर में दी कि लागों ने हठात् उससे पूछा, "उन्होंने क्या कहा था? हमे ठीक-ठीक बताओ।” लड़के ने एक क्षण सोचकर कहा, "अपने भाई से कह देना कि अब मेरे लिए भोजन न लाए। मैं भोजन त्यागकर उपवास करूँगा। मैं अगर उपवास करूँगा तो सब ठीक हो जाएगा। सभी कुछ ठीक हो जाएगा।” उन्होंने भौंचक होकर लड़के की ओर देखा। लड़का मुस्कराया। वह खुश था कि उसे इतना महत्त्व दिया जा रहा था। लोग थोड़ी देर तक चिन्ता में डूबे जहाँ के तहाँ खड़े रहे।

और फिर उनमें से एक ने कहा, "इस मंगल प्रदेश का सौभाग्य है कि हमारे बीच स्वामीजी जैसा महान व्यक्ति मौजूद है। वह महात्मा जैसा आदमी है। महात्मा गाँधी ने जब उपवास किया था तब इस देश में कितनी बड़ी बातें घटित हुई थीं! हमारे स्वामीजी भी वैसे ही पहुँचे हुए आदमी हैं । वे अगर उपवास करेंगे तो बारिश ज़रूर होगी। हम लोगों पर अपने अगाध प्रेम के कारण ही उन्होंने इतनी यन्त्रणा झेलने का फैसला किया है। इससे बारिश ज़रूर होगी और हमें बड़ी मदद मिलेगी। एक बार एक आदमी ने इक्कीस दिन का उपवास किया तो इतनी बारिश हुई कि पूरा जल-प्लावन हो गया। सिर्फ उन महान आत्माओं की बदौलत ही, जो ऐसे कार्य...” सारे वातावरण में जैसे बिजली दौड़ गई थी। वे उस झगड़े को तथा अपनी आपस की अन्य छोटी-मोटी परेशानियों और बहसों को भूल गए थे ।

सारे गाँव में एक उत्साह की लहर उमड़ पड़ी। और सब बातें इस समय छोटी और बेमानी लगने लगीं। किसी ने आकर खबर दी कि नदी के उद्गम की दिशा में रेती पर एक घड़ियाल मरा पाया गया है। पानी के बिना वह सूखी बालू पर सूरज की तपती किरणों से झुलस गया था। किसी और ने आकर खबर दी कि पड़ौस के गाँव की झील का पानी तेजी से सूख रहा था और अब झील के बीचों-बीच एक मन्दिर का स्तूप नज़र आने लगा था, जो एक शताब्दी पहले जब झील पैदा हुई थी, तब उसमें डूब गया था । उस मन्दिर के भीतरी कक्ष में भगवान की मूर्ति अब भी ज्यों की त्यों सुरक्षित थी – इतने दिनों पानी में डूबी रहने के बाद भी उसको कोई क्षति नहीं पहुँची थी और मन्दिर के चारों कोनों पर नारियल के जो चार वृक्ष थे वे भी वैसे ही खड़े हैं।... हर घंटे इस करिश्मे के बारे में और ताजे ब्यौरे प्राप्त होते जा रहे थे। आसपास के गाँवों के सैकड़ों आदमी झील की सूखी तलहटी पर चलकर मन्दिर का दर्शन करने पहुँच गए थे और कुछ लापरवाह लोगों को अपने प्राणों से भी हाथ धोने पड़े थे क्योंकि पनियारी मिट्टी ने उन्हें निगल लिया था। इन सब खबरों ने सब लोगों में जबर्दस्त दिलचस्पी पैदा कर दी थी। अब वे उस दुकानदार के प्रति भी उदारता दिखाने को तैयार थे जिसने अपने ग्राहक पर हाथ छोड़ा था । "जो भी हो, उसको भी तो दुकानदार को छिनाल का बेटा नहीं कहना चाहिए था, यह उचित शब्द नहीं है।"

"यह भी ठीक है कि लोग अपने रिश्तेदारों की मदद करते हैं, वरना रिश्तेदारों का फायदा ही क्या?” वेलान अपने माथे की चोट के बारे में सोचने लगा। दूसरे लोगों को भी अपनी किस्म-किस्म की चोटों का ध्यान आया। वे यह फैसला न कर सके कि किस हद तक वे इन गलतियों को माफ कर सकते हैं। यह सोचकर उन्हें तसल्ली हुई कि दूसरे पक्ष के लोग भी अपनी चोटों को सहला रहे होंगे, यह विचार बहुत सन्तोषजनक था। अचानक उन्होंने तय किया कि अगर कोई मध्यस्थ आकर बीच-बचाव करे तो इस झगड़े को रफा-दफा किया जा सकता है - बशर्ते, दूसरे पक्ष के लोग भी जलाए गए भूसे के ढेरों को हर्जाना दें और इस पक्ष के नेताओं को एक दावत भी दें... वे शान्ति की शर्तों पर बहस करने लगे फिर एक साथ खड़े होकर उन्होंने घोषणा की, “चलो सब जनें स्वामीजी के पास चलें। वे हमारा उद्धार करेंगे।"

राजू हमेशा की तरह खाने और उपहारों का इन्तजार कर रहा था। उसकी टोकरी में फल और खाने-पीने की दूसरी चीजें रखी थीं, लेकिन उसे उम्मीद थी कि लोग दूसरी किस्म की चीजें लाएंगे। उसने सुझाव दिया था कि वे उसके लिए गेहूँ और चावल के आटे के साथ कुछ मसाले भी लाकर दें। मुँह का स्वाद बदलने के लिए वह कुछ नई चीजें पकाना चाहता था। अपनी ज़रूरत को एक विशेष ढंग से व्यक्त करता था। आम तौर पर वह वेलान को एकान्त में ले जाकर कहता, “देखो अगर थोड़ा-सा चावल का आटा और लाल मिर्च आ जाए तो बुधवार के दिन मैं कोई नया काम..." फिर वह जीवन का कोई सिद्धान्त प्रतिपादित करता कि खास तौर पर बुधवार को वह चावल के आटे के साथ अमुक मसाला पसन्द करता है। श्रोतागण सोचते कि यह भी कोई आध्यात्मिक आवश्यकता है जो स्वामीजी के आत्मिक अनुशासन के लिए जरूरी है, ताकि अलौकिक शक्तियों के साथ उनका सम्बन्ध सन्तुलित रह सके। राजू को 'बोंडा' बहुत पसन्द था। रेलवे स्टेशन पर जब भी बोंडा बेचने वाला यात्रियों के पास जाता तो राजू ज़रूर उसे खरीदता । बोंडा आटा, आलू, प्याज के टुकड़े, धनिया और हरी मिर्च डालकर बनाया जाता है। आह, वह कितनी स्वादिष्ट वस्तु थी, हालाँकि दुकानदार तलने के लिए मिट्टी के तेल का भी इस्तेमाल करने से न हिचकिचाता अगर उससे फायदा रहता । फिर भी उसका बनाया हुआ बोंडा बहुत स्वादिष्ट होता था। जब राजू उससे बोंडा बनाने का तरीका पूछता तो 'दुकानदार कहता, “बस अदरक का छोटा-सा टुकड़ा लो," फिर वह उसमें पड़ने वाले मसालों का बखान करने लगता। अभी कुछ दिन पहले अपने भक्तों के सामने भगवद्गीता का उपदेश करते-करते राजू के दिल में तीव्र इच्छा हुई कि वह अपने हाथों से बोंडा तैयार करे। अब उसके पास कोयले की अंगीठी और कड़ाही भी थी। भला अच्छी तरह से गंधे हुए आटे को खौलते हुए तेल में डालने से अधिक मधुर और संगीतमय कौन- सी आवाज़ हो सकती है? उसने वेलान के आगे अपनी इच्छाएँ बड़े सूक्ष्म ढंग से व्यक्त की थीं।

उसे जब टीले के पार से आती हुई आवाजें सुनाई दीं तो वह आश्वस्त हो गया । वह अपने मुख की मुद्राओं को सुस्थिर करके अपने पेशे का अभिनय करने के लिए तैयार हो गया। उसने अपनी दाढ़ी और केशों पर हाथ फेरा और अपने आसन पर एक पुस्तक लेकर बैठ गया। आवाज़ें जब नज़दीक पहुँची तो उसे मालूम हुआ कि और दिनों से आज ज्यादा बड़ी भीड़ बालू को पार करके आ रही है। पहले तो उसे आश्चर्य हुआ, फिर उसने सोचा कि वे लोग शायद इस बात से खुश हो रहे हैं कि उसने मारपीट को आगे बढ़ने से रोक दिया था। उसे भी खुशी थी कि आखिरकार उसने कुछ तो कर दिखाया था और गाँव की रक्षा कर ली थी। वेलान का मूर्ख भाई शायद इतना बुरा लड़का नहीं था। उसने आशा की कि वे लोग बोरी में आटा ज़रूर लाएंगे। उनके आते ही आटे की माँग करना उचित नहीं होगा । वे ज़रूर जाने से पहले उसे रसोई घर में रख जाएंगे।

स्तम्भों वाले मन्दिर के हाल के पास पहुँचकर उन लोगों ने अपनी चाल और आवाजें धीमी कर लीं। औरतें तुरन्त फर्श झाड़ने और मिट्टी के दीयों में तेल भरने में लग गई । दस मिनट तक राजू ने न तो उनकी ओर देखा न उनसे कुछ कहा, बल्कि अपनी पुस्तक के पन्ने पलटता रहा। वह यह जानने के लिए उत्सुक था कि बेलान के शरीर में अभी भी कुछ साबित बचा है या नहीं। उसने आँख बचाकर वेलान के माथे पर चोट के निशानों को देखा और फिर चारों ओर उड़ती हुई नज़र डाली। उसे लगा कि इस मारपीट में उतना नुकसान नहीं हुआ जितने की उसने कल्पना की थी। उसने फिर पुस्तक पढ़ना शुरू कर दिया और पूरे दस मिनट बाद ही उसने निगाह उठाकर उपस्थित भीड़ का सर्वेक्षण किया। उसने अपने भक्तों की ओर देखा, फिर वेलान पर अपनी दृष्टि गड़ाकर राजू ने कहा, "भगवान कृष्ण ने यहाँ पर कहा है", उसने रोशनी के आगे पुस्तक का पृष्ठ करके संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा। “जानते हो इसका क्या मतलब है?" इसके बाद राजू एक लम्बे-चौड़े दार्शनिक विवेचन में लग गया, जिसमें उसने स्वादिष्ट भोजन करने से लेकर ईश्वर की नेकी में पूर्ण विश्वास रखने तक की जटिल समस्याओं की व्याख्या कर डाली। वे लोग बिना बोले खामोश उसका व्याख्यान सुनते रहे और जब एक घंटे के बाद वह साँस लेने के लिए रुका, तो वेलान ने कहा, “आपकी प्रार्थना को भगवान जरूर सुनेंगे और हमारे गाँव की रक्षा करेंगे। गाँव का हर प्राणी दिन-रात यही दुआ माँगता रहता है कि आप इस तपस्या से सफल होकर निकलें।" राजू यह बात सुनकर उलझन में पड़ गया। लेकिन उसने सोचा कि इतने ऊँचे और अलंकारपूर्ण शब्दों में तारीफ करने की तो इन लोगों की आदत ही है, दरअसल वे उसके प्रति अपनी कृतज्ञता जता रहे थे कि उसके उपदेश से उन्हें यह समझ आ गई थी कि मारपीट और झगड़ा जारी रखने में किसी का लाभ नहीं था । लोग और भी मुखर होकर उसकी तारीफ के पुल बाँधने लगे। एक स्त्री ने आकर उसके चरण छू लिए। इसके बाद दूसरी ने उस स्त्री का अनुकरण किया। राजू चिल्लाया, “क्या मैंने पहले नहीं बताया कि मैं यह चरण-वरण छूना कतई पसन्द नहीं करता ? किसी इन्सान को दूसरे इन्सान के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए।" इस पर दो-तीन आदमी उठकर आगे आए, उनमें से एक ने- कहा, “आप कोई ‘दूसरे इन्सान' नहीं हैं। आप तो एक महात्मा हैं। आपके चरणों की धूल पाकर हम अपने को धन्य समझते हैं।"

“अरे नहीं, नहीं, ऐसा मत कहो,” राजू ने अपने पैर पीछे खींचने की कोशिश की । लेकिन उन्होंने उसको घेर लिया था। उसने अपने पैरों को चादर से ढंकने की चेष्टा की । उसे पैरों को छिपाने - हटाने की यह सारी क्रिया बड़ी हास्यास्पद लगी । लेकिन उनको लोगों के हाथों से बचाकर रखने की कोई जगह नहीं थी । वे चारों ओर से उसको खींच रहे थे और बगलों में गुदगुदाने से वह खड़ा हो सके तो वे इसके लिए भी तैयार थे। उसने महसूस किया कि अब उसे इस प्रदर्शन से मुक्ति नहीं मिलेगी, इसलिए इन लोगों की इच्छा पूरी कर देने में ही अपनी भलाई है। भीड़ में से हरेक बारी-बारी से उसके पैर छूकर पीछे हट गया था, लेकिन ज़्यादा दूर नहीं । वे उसे घेर कर खड़े थे और वहाँ से हटने का नाम नहीं लेते थे। सभी उसके पैरों की ओर एक नए अन्दाज़ से ताक रहे थे । वातावरण में एक ऐसी गम्भीरता छा गई थी, जैसी उसने पहले कभी नहीं देखी थी। वेलान ने कहा, “आपकी तपस्या भी महात्मा गाँधी के समान है। वे हमारी रक्षा के लिए आपके रूप में अपना प्रतिनिधि छोड़ गए हैं।" अपने अनघड़ और अटपटे शब्दों में वे भरसक उसका धन्यवाद कर रहे थे । कभी-कभी वे सब एक साथ बोल पड़ते और शोरगुल - सा मच जाता । कभी वे एक वाक्य शुरू करते लेकिन उसको पूरा न कर पाते। उसे महसूस हुआ कि वे लोग अपनी सच्ची भावना के आवेश में बोल रहे थे । वे कृतज्ञतापूर्वक अपने भाव व्यक्त कर रहे थे, यद्यपि उनकी भाषा अति-रंजनापूर्ण थी। उनकी बातों का सिर-पैर समझ में नहीं आता था, लेकिन राजू के प्रति उनकी भक्ति पर सन्देह नहीं किया जा सकता था। उसके प्रति उनके व्यवहार में इतनी ऊष्मा थी कि राजू को महसूस हुआ कि ऐसी मनःस्थिति में उसके पैर छूकर वे ठीक ही कर रहे थे। दरअसल, उसने यह भी महसूस किया कि शायद वह खुद भी नीचे झुककर अपने पैरों की धूलि अपनी आँखों से लगा सकता था । उसे लगा कि उसके व्यक्तित्व में एक गरिमायुक्त प्रकाशपुंज है ... लोग रोज के वक्त लौटने की बजाय वहीं रुके रहे।

पिछले महीनों में आज पहली बार लोग उसके लिए खाना नहीं लाए थे, चूँकि वेलान का खयाल था कि आज स्वामीजी ने व्रत रखा है। चलो ठीक ही हुआ। जब वे लोग उसके व्रत को इतना महत्त्व देते हैं तो राजू उनसे यह तो नहीं पूछ सकता था, 'मेरे लिए बोंडे का मसाला कहाँ है?' यह सवाल अशोभनीय होता । बाद में इस बारे में बात करने में कोई हर्ज नहीं होगा। लोगों ने सोचा था कि उनका फसाद बन्द करने के लिए राजू ने व्रत रखा था, वह उन्हें यह नहीं बताएगा कि वह दिन में दो बार खाना खा चुका है, वह इस बारे में कुछ नहीं कहेगा और अगर लोगों को महसूस हो कि थकान से उसकी आँखें मुंदी जा रही हैं, तो यह उचित ही होगा। जब सारी कार्रवाई खत्म हो गई है तो ये लोग घर क्यों नहीं जाते? उसने वेलान को इशारे से अपने पास बुलाकर कहा, “बच्चों और औरतों को वापस क्यों नहीं भेज देते? क्या देर नहीं हो रही ?" लोग आधी रात के करीब वहाँ से चले गए, लेकिन वेलान खम्भे का सहारा लेकर बैठा रहा, जहाँ वह शाम से बैठा था। राजू ने पूछा, "तुम्हें नींद नहीं आ रही?"

“नहीं महाराज! आप हम लोगों के लिए जो कुछ कर रहे हैं उसे देखते हुए तो जागते रहना कोई बड़ी कुर्बानी नहीं है।"

"इस बात को ज़्यादा महत्त्व मत दो। मैं सिर्फ अपना फर्ज निभा रहा हूँ। उससे ज़्यादा कुछ नहीं कर रहा। अगर तुम चाहो तो घर लौट सकते हो।"

"नहीं महाराज, कल सुबह जब मुखिया ड्यूटी देने के लिए आएगा, तब मैं जाऊँगा । वह पाँच बजे आएगा और दोपहर तक रहेगा । मैं घर जाकर काम-काज देखूँगा और घर लौट आऊँगा ।"

"ओह, यह जरूरी नहीं है कि कोई हर वक्त यहाँ रहे। मैं अपनी देखभाल अच्छी तरह कर सकता हूँ ।"

“महाराज, कृपा करके यह काम हमारे जिम्मे रहने दें। हम सिर्फ अपना फर्ज निभा रहे हैं। महाराज, आप बहुत बड़ी कुर्बानी कर रहे हैं। हम कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि आपके नजदीक रहें। आपके दर्शनों से हमें लाभ होता है, महाराज ।”

इस दृष्टिकोण से राजू का हृदय द्रवित हो उठा। लेकिन उसने सोचा कि अब मामले की गहराई में जाने का अवसर आ गया है। इसलिए उसने कहा, “तुम ठीक कहते हो । त्याग करने वाले की सेवा करने वाला व्यक्ति भी प्रशंसा का पात्र है। शास्त्र यही कहते हैं । तुम्हारी बात ठीक है। मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि मेरी कोशिश सफल हो गई है और तुम लोगों में सुलह हो गई है। मेरे लिए यही चिन्ता का विषय था। अच्छा हुआ, सारे मामले सुलझ गए। अब तुम घर जा सकते हो। कल मैं पूर्ववत् भोजन करूँगा और मेरी तबियत ठीक हो जाएगी। याद रखना, मेरे लिए चावल का आटा, हरी मिर्च और .... " भक्ति-भाव के कारण वेलान अपने आश्चर्य को शब्दों में व्यक्त न कर सका। लेकिन वह अपनी जबान पर भी काबू न रख सका। उसने पूछा, “महाराज, आपका क्या ख्याल है, कल बारिश होगी ?" 'खैर...' राजू ने क्षण-भर के लिए सोचा । 'कार्य-सूची में यह नया विषय कहाँ से आ टपका?' उसने जवाब दिया, "क्या पता? सब ईश्वर की मर्जी से होता है । हो सकता है, कल बारिश हो ।” अब वेलान ने नज़दीक आकर बताया कि उसके भाई ने जाकर गाँव के लोगों पर क्या असर डाला था और लोगों को राजू से क्या-क्या उम्मीदें हैं, इस बात का सांगोपांग वर्णन वेलान ने किया। राजू घुटनों तक गहरे पानी में खड़ा होकर आसमान की तरफ ताकेगा, दो हफ्तों तक मन्त्रों का जाप करेगा और इस बीच व्रत रखेगा - लोगों का यही खयाल है कि फिर ज़रूर बारिश होगी, बशर्ते तप करने वाले की आत्मा पवित्र हो और वह महात्मा हो । आसपास के सभी गाँवों के लोग आनन्दविभोर हो रहे थे, क्योंकि एक महात्मा तप करने जा रहा था ।

वेलान के स्वर में इतनी गम्भीरता थी कि राजू की आँखों में आँसू आ गए। उसे याद आया कि कुछ दिन पहले ही उसने श्रोताओं के सामने इस प्रकार की तपस्या का जिक्र किया था और यह भी बताया था कि वह तपस्या किस तरह सम्पन्न हो सकती है। उसने अपनी माँ से इस बारे में जो सुना था, उसमें कुछ मनगढ़न्त बातें भी जोड़ दी थीं। इस व्याख्यान से श्रोताओं की शाम कट गई थी और वेलान उनका ध्यान सूखे से हटाने में सफल हुआ था। उसने लोगों से कहा था, “सही मौका आने पर सब ठीक हो जाएगा। अचानक कोई ऐसा व्यक्ति प्रकट होगा जो आपके लिए बारिश लाएगा।" लोगों ने इन शब्दों की अपने ढंग से व्याख्या की थी और वे उसके शब्दों को वर्तमान स्थिति पर लागू कर रहे थे । राजू को लगा कि अब उसने अपने लिए ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर ली है जिनसे उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। वह वेलान के सामने अपना विस्मय व्यक्त नहीं कर सकता था । उसे लगा कि आखिरकार उसे गम्भीर बनाना पड़ेगा और अपने ही शब्दों की कीमत समझन पड़ेगी। इस सारे मामले पर सोच-विचार करने के लिए उसे समय और एकान्त की ज़रूरत थी। सबसे पहला कदम उसने यह उठाया कि वह अपने उच्चासन से नीचे उतर कर सोचने लगा। इस आसन ने उसे महिमा - मण्डित कर दिया था। उसे लगा कि उस ऊँचाई पर बैठने से लोग उसे साधारण व्यक्ति नहीं समझते। उसे अपनी बनाई सृष्टि की विशालता का आभास पहली बार हुआ । पत्थर की उस चौकी पर उसने अपना रौबदार सिंहासन बना लिया था और अपने क्षुद्र व्यक्तित्व में से एक भीमकाय व्यक्तित्व का निर्माण किया था । वह अचानक उस चौकी को छोड़कर खड़ा हो गया मानो किसी बर्र ने उसे डंक मार दिया हो। वह वेलान के पास गया। उसके स्वर में सच्ची विनय और भय था । उसकी गम्भीर मुद्रा को देखकर वेलान चुपचाप बैठा रहा, मानों किसी सन्तरी को काठ मार गया हो ।

“सुनो वेलान, आज रात और कल के दिन मुझे एकान्त चाहिए। तुम कल रात आकर मुझसे मिलना तभी मैं तुमसे बात करूँगा । उससे पहले मैं न तो तुमसे, न किसी और से मिलना चाहता हूँ।” यह बात वेलान को इतनी रहस्यपूर्ण और बड़ी मालूम हुई कि वह चुपचाप "उठकर खड़ा हो गया। उसने पूछा, “महाराज, तो मैं आपको कल अकेला मिलूं?”

“हाँ, हाँ, बिल्कुल अकेले ।”

" बहुत अच्छा, स्वामी । कारण तो आप ही जानें । 'क्या' और 'क्यों' पूछना हम लोगों का काम नहीं। यहाँ लोगों का जमघट शुरू होगा, मैं उन्हें पीछे हटाने के लिए नदी के किनारे अपने आदमी खड़े कर दूँगा। यह काम कठिन तो जरूर होगा, लेकिन अगर आपकी ऐसी आज्ञा है तो इसका पालन किया जाएगा।" फिर वह स्वामीजी को प्रणाम करके चला गया । कुछ देर तक राजू खड़ा उसे देखता रहा, फिर वह एक भीतरवाले कमरे में गया, जिसे वह शयन कक्ष की तरह इस्तेमाल में ला रहा था, और लेट गया। दिन-भर बैठे-बैठे उसका शरीर थक गया था और दर्शन के लिए आने वाले लोगों से बातें करके वह और भी शिथिलता महसूस कर रहा था । उस अँधेरे कमरे में जहाँ चमगादड़ें चक्कर काट रही थीं, गाँव की दूरागत आवाजें बन्द हो गईं और एक गहरी खामोशी छा गई। उसके मन को कई समस्याएँ कचोट रही थीं। उसने सोने की कोशिश की। किसी तरह उसने दुःस्वप्नों से भरे, चिन्ताकुल तीन घंटे गुजारे ।

क्या लोग उससे उम्मीद करते थे कि वह पन्द्रह दिन तक उपवास करे, और आठ-आठ घण्टे रोज़ घुटनों तक पानी में खड़ा रहे ? यकायक वह उठकर बैठ गया। उसे अफसोस हुआ कि उसने ऐसा विचार लोगों के मन में डाला ही क्यों? उस वक्त तो यह विचार अत्यन्त रोमांचकारी मालूम हुआ था, लेकिन अगर उसे मालूम होता कि यह काम उसी के मा जाएगा तो वह कोई दूसरा फार्मूला बता देता, मिसाल के लिए यह कि गाँव के सारे लोग मिलकर लगातार पन्द्रह दिन तक उसे 'बोंडा' खिलाएं, और इस बात का जिम्मा लें कि उसे बोंडे की कमी न रहे। इसके बाद वह महात्मा रोज नदी में दो मिनट तक खड़ा हो जाएगा। इसका नतीजा यह होगा कि देर-सबेर बारिश ज़रूर हो जाएगी। उसकी माँ एक तमिल कविता में से सुनाया करती थीं, "अगर कहीं एक भी नेक आदमी होगा तो उसकी खातिर इन्द्र देवता ज़रूर बरसेंगे, इससे सारे दुनिया को लाभ होगा।" उसके मन में यह विचार उठा इस यन्त्रणा से बचने का सबसे अच्छा रास्ता यही होगा कि वह वहाँ से भाग जाए। वह कहीं से भी बस में बैठ सकता है और शहर पहुँच सकता है, जहाँ उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं देगा, लोग यही समझेंगे कि एक और दाढ़ी वाला साधू सड़क पर घूम रहा है। वेलान और उसके साथी उसे ढूँढ़ेगे और यह सन्तोष करके बैठ जाएंगे कि वह हिमालय में जाकर अदृश्य हो गया है लेकिन यह कैसे होगा ?

आखिरकार छिपकर वह कितनी दूर जा सकता है? आधे घण्टे के भीतर ही कोई न कोई उसे पहचान लेगा। यह व्यावहारिक समाधान नहीं है। हो सकता है, वे लोग उसे पकड़कर फिर यहीं ले आएं और सजा दें, क्योंकि उसने उन्हें मूर्ख बनाया था। लेकिन उसे सिर्फ इसी बात का डर नहीं था । वह शायद यह दुःसाहस कर भी लेता अगर वहाँ से सफलतापूर्वक भागने की थोड़ी-सी भी सम्भावना होती। लेकिन इतने बच्चों और औरतों के समूह ने उसके पैर छुए थे, इस स्मृति से ही उसका हृदय पसीज उठा। उसकी कृतज्ञता की कल्पना मात्र से ही वह प्रभावित हो गया। उसने उठकर आग जलाई और खाना पकाया । फिर नदी में जाकर स्नान किया (ऐसी जगह जहाँ रेत में गड्ढा खोदकर उसे पाँच मिनट तक अपना बर्तन भरने के लिए रुकना पड़ता था), इसके बाद उसने झटपट खाना निगल लिया, ताकि अचानक ही गाँव का कोई आदमी आकर उसे खाना खाते न देख ले। थोड़ा-सा खाना उसने भीतर के कमरे में छिपाकर रख दिया, ताकि रात में उठकर दोबारा खा सके। उसने यकायक सोचा कि अगर वे लोग रात के वक्त उसे अकेला छोड़ दिया करें तो वह अपनी क्षुधापूर्ति का प्रबन्ध करके इस यातना को झेल सकेगा। तब तो घुटने-भर पानी में खड़े होने मात्र की ही यातना रह जाएगी ( अगर घुटने-भर पानी कहीं नसीब हो सके) और आठ घण्टे तक मन्त्रोच्चार करना पड़ेगा (इस काम को भी खैर, वह आसान बना लेगा ) । पानी में खड़े रहने से उसके जोड़ों में तो ज़रूर दर्द होगा, लेकिन कुछ दिन के लिए तो यह सब बर्दाश्त करना ही पड़ेगा। और उसे यह भी विश्वास था कि किसी न किसी दिन बारिश आ ही जाएगी। उपवास के मामले में अगर उसके लिए सम्भव होता तो वह उन्हें कभी धोखा न देता ।

वेलान जब रात को वहाँ आया तो राजू ने उसे अपना राज बताया और कहा, "वेलान, तुम मेरे दोस्त रहे हो । अब तुम्हें मेरी एक बात सुननी पड़ेगी । तुम यह क्यों सोचते हो कि मैं बारिश ला सकता हूँ?"

"उस लड़के ने आकर हम लोगों से यही कहा था। क्या आपने उसके हाथ यह बात नहीं कहला भेजी थी?"

राजू को सीधा जवाब देने में हिचकिचाहट महसूस हुई। शायद इस समय भी वह साफ बात करके इस मामले को सुलझा सकता था। वह क्षण-भर तक सोचता रहा। इस समय भी, अपनी आदत के अनुसार, वह सीधी, साफ, सच्ची बात से बचना चाहता था । उसने गोलमोल जवाब दिया, “मैंने यह बात नहीं पूछी। मैं तो पूछता हूँ कि मेरे बारे में तुम ऐसा क्यों सोचते हो?"

वेलान असहाय भाव से आँखें झपकाने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह महान व्यक्ति उससे क्या सवाल कर रहा था । उसने सोचा कि इस बात की तह में कोई उदात्त अर्थ होगा, लेकिन वह उसका उत्तर देने में असमर्थ था । उसने कहा, “इसके अलावा आखिर हम सोच भी क्या सकते हैं?"

“यहाँ, मेरे नज़दीक आकर बैठो और मेरी बात सुनो। तुम यहाँ सो सकते हो। तुम लोगों की खातिर मैं उपवास करने को तैयार हूँ और कुछ भी कर सकता हूँ अगर उससे देश का लाभ हो, लेकिन यह किसी सच्चे सन्त को ही करना चाहिए। मैं सन्त नहीं हूँ ।" वेलान के कंठ से प्रतिवाद की अनेक आवाजें निकलीं। उसके विश्वास को तोड़ने में राजू को हार्दिक दुःख हो रहा था । लेकिन उपवास की यन्त्रणा से बचने का और कोई मार्ग नहीं था। रात ठंडी थी। राजू वेलान को लेकर नदी के घाट की सीढ़ियों पर गया । वह एक सीढ़ी पर बैठ गया और वेलान उससे नीचे वाली सीढ़ी पर बैठ गया। राजू भी उतरकर उसकी बगल में जा बैठा । "तुम्हें मेरी बात समझनी पड़ेगी, इसलिए इतने दूर जाकर मत बैठो । वेलान, मुझे तुम्हारे कान में कुछ कहना है। मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ उसे ध्यान देकर सुनो...देखो, मैं कोई सन्त-महात्मा नहीं हूँ, वेलान, मैं भी औरों की तरह एक साधारण-सा इन्सान हूँ । तुम मेरी कहानी सुनो। तुम खुद इस बात को समझ जाओगे।" नदी में पानी की बहुत छोटी-छोटी धारें बह रही थीं, इसलिए कोई आवाज़ नहीं आ रही थी । पीपल के पेड़ के सूखे पत्ते फरफरा रहे थे। कहीं कोई गीदड़ चिल्ला उठा। राजू की आवाज़ रात में जैसे छा गई थी। वेलान बिना किसी हैरानी के विनीत भाव से सारी बातें सुनता रहा। फर्क सिर्फ इतना था कि सदा की अपेक्षा वह आज अधिक गम्भीर दिखाई दे रहा था और उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ थीं ।

गाइड : अध्याय 7

‘मार्को मुझे अपने परिवार का सदस्य समझने लगा था। एक टूरिस्ट गाइड की जगह अब मैं जैसे एक ही परिवार का गाइड बन गया था । मार्को बिल्कुल अव्यावहारिक व्यक्ति था, नितान्त असहाय आदमी । उसको सिर्फ एक ही काम आता था, प्राचीन वस्तुओं की नकल करना और उनके बारे में लिखना । उसका दिमाग इस काम में ही रमा रहता था। जीवन की व्यावहारिक बातें उसके अनुभव और कार्य क्षेत्र से बाहर की चीजें थीं। उनका उसे कोई ज्ञान न था । खाने की चीजें रहने की जगह तलाश करना या रेल की टिकट खरीदना जैसे साधारण काम भी उसे दुःसाध्य लगते थे. शायद उसने शादी भी इसीलिए की थी कि कोई उसकी देखभाल करे, लेकिन उसने चुनाव गलत किया था - वह लड़की तो खुद ही हमेशा सपनों में खोई रहती थी । उसका पति अगर उसकी देखभाल कर सकता तो वह जिन्दगी में बहुत तरक्की कर सकती थी । इसीलिए तो मेरे जैसा आदमी उन्हें इतना उपयोगी लगा। मैं भी अपने पेशे के और सब काम छोड़कर केवल उनकी मदद में ही लग गया।

'मार्को करीब एक महीने तक पीक हाउस में रहा। इस बीच उसका सारा प्रबन्ध मेरे ही हाथों में था । खर्च की वह परवाह नहीं करता था, अगर साथ में रसीद पेश की जाती। होटल का कमरा उन्होंने अभी भी अपने पास रखा था। उसने गफ्फूर की कार स्थायी रूप से किराये पर ले ली थी, मानो वह उसका मालिक हो । पीक हाउस और शहर के बीच कार कम से कम एक बार रोज़ चक्कर लगाती थी। जोज़ेफ मार्को की देखभाल इतने अच्छे ढंग से करता था कि किसी और को उसके बारे में चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं थी । मेरे बारे में यह समझ लिया गया था कि मैं अपने और कामों का हर्ज किए बगैर मार्को और उसकी पत्नी की देख रेख करूँगा । वह मेरी रोजाना की उजरत देता था और मुझे अपने पेशे से सम्बन्धित दूसरे 'नित्य' कार्य करने की सुविधा भी देता था। अब मेरा नित्य का काम कहने को चाहे जितना बड़ा लगे, लेकिन दरअसल इससे अधिक नहीं था कि मुझे रोज़ी के संग रहना पड़ता था और उसका मनोरंजन करना होता था। वह हर तीसरे दिन अपने पति से मिलने के लिए जाती थी। आजकल वह अपने पति के प्रति विशेष रूप से स्नेहशील हो गई थी। वह उसके लिए ज़रूरत से ज़्यादा परवाह करने लगी थी। लेकिन मार्को को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था । उसकी मेज़ पर उसके लिखे नोट्स और तारीखें बिखरी रहती थीं और वह कहता, "रोज़ी, इनके नज़दीक न जाना। मैं नहीं चाहता कि तुम इन्हें गड्डमड्ड कर दो। मैंने बड़ी मुश्किल से इनको कुछ तरतीब दी है।" मैं कभी यह जानने की कोशिश न करता कि वह क्या कर रहा है। यह मेरा काम नहीं था । और न शायद उसकी पत्नी ही उसके काम के बारे में जानने को उत्सुक थी। वह सिर्फ पूछती, "तुम्हें खाना पसन्द आया?" हमारे बीच अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित हो जाने के बाद से अब उसने अपने पति के साथ छल की एक नई टेकनीक अपना ली थी। वह उसका कमरा सम्भालती । जोज़ेफ को उसके खाने के बारे में विशेष हिदायतें देती । कभी-कभी मार्को से कहती, “मैं आज तुम्हारे पास ही रहूँगी, तुम्हें अकेला लगता होगा ।" और मार्को बिल्कुल निर्लिप्त भाव से इस बात का समर्थन करता और खोए-खोए अन्दाज़ में कहता, "अच्छी बात है, अगर यहाँ रूकना चाहती हो तो रुक जाओ। और हाँ, राजू तुम? तुम भी रूक रहे हो या वापस जा रहे हो?" मैं रोज़ी के साथ ही वहाँ रूक जाने की भावना पर काबू पाकर, क्योंकि मैं जानता था कि होटल में तो मैं उसके संग का पूर्ण आनन्द ले ही रहा हूँ, इन्कार कर देता। यह उचित ही था कि रोज़ी को अपने पति के पास अकेला छोड़ दिया जाए। इसलिए मैं मार्को की तरफ देखे बगैर ही जवाब देता, “मुझे वापस लौट जाना चाहिए। आज कुछ और टूरिस्ट आ रहे हैं। उम्मीद है कि आप बुरा नहीं मानोगे ।" वह कहता, "बिल्कुल नहीं तुम कामकाजी आदमी हो, हर वक्त तुम्हें घेरे रहना मुनासिब नहीं है ।"

' “कल आपको गाड़ी कितने बजे चाहिए?" वह अपनी बीवी की तरफ देखता, वह कहती, "कल जितनी जल्दी गाड़ी ला सको, ले आना।" वह आम तौर पर कहता "मेरे लिए थोड़ा कार्बन पेपर ला सकते हो?"

'जब गाड़ी ढलान की तरफ जाती तो गफ्फूर शीशे में से मेरी तरफ कनखियों से देखने लगता । आजकल मैं उससे दूर-दूर रहने की कोशिश करता था और नहीं चाहता था कि वह किसी भी विषय पर ज्यादा बात करे। मुझे बातों से डर लगने लगा था। मेरा मन अभी भी सम्वेदनशील था और गफ्फूर के साथ अकेले रहने में मुझे डर महसूस होता था और जब तक उसकी बातचीत मोटरों तक ही सीमित रहती, मैं आश्वस्त रहता, लेकिन इसी विषय तक सीमित रहना उसके स्वभाव के प्रतिकूल था । वह मोटरों की बात शुरू करता लेकिन जल्द ही उसका दिमाग गड्डमड्ड हो जाता और वह कहता, "कल मुझे ब्रेकें ठीक करने के लिए एक घंटा चाहिए। चाहे जो भी हो, ब्रेक तो आखिर मशीन ही है। मेरी अभी भी यह राय है कि नए ढंग की ब्रेकों से ये पुरानी बेहतर हैं, जिस तरह बूढ़ी अनपढ़ बीवी नये फैशन की लड़की से बेहतर है। ओह! आजकल की लड़कियाँ कितनी हिम्मतवाली हैं। अगर मुझे किसी पहाड़ी की चोटी पर रहकर ड्यूटी देनी पड़े तो मैं हरगिज़ अपनी बीवी को होटल में अकेला नहीं रहने दूँगा।" इन बातों से मुझे घबराहट महसूस होने लगती और मैं तुरन्त ही प्रसंग बदल देता, “तुम्हारे ख्याल में मोटरों का डिज़ाइन बनाने वाले तुमसे कम अनुभवी होते हैं?"

' "तो तुम समझते हो कि इन इंजीनियरों को ज़्यादा ज्ञान है? मुझ जैसे आदमी को, जिसे ठोंक-पीटकर गाड़ी चालू रखनी पड़ती है, निश्चय ही ज़्यादा अनुभव है...” अब मैं अपने को सुरक्षित महसूस करने लगता, क्योंकि उसका ध्यान रोज़ी से हट जाता था। मेरे दिल धुकर पुकर मचने लगती और मैं चुपचाप बैठा रहता । मेरा दिमाग इन दिनों सुस्थिर नहीं था । गफ्फूर से यह बात भी छिपी न रह सकी। पहाड़ी से नीचे की ओर मोटर ड्राइव करते हुए वह अक्सर बड़बड़ाता, "तुम अब बहुत उद्विग्न रहने लगे हो राजू । तुम अब पहले जैसे दोस्त नहीं रहे ।" यह बात सच थी। मेरे मन का सन्तुलन खोता जा रहा था। मेरे दिमाग पर हर समय रोज़ी छाई रहती थी। मैं उसके साथ गुजारे हुए घंटों की याद करके अगली मुलाकातों के सपने देखता रहता था। मुझे कई समस्याओं का सामना करना था। उनमें से उसका पति तो सबसे कम परेशान करने वाली समस्या था । वह भला आदमी अपने काम में ही डूबा रहता था और उसमें दूसरों पर विश्वास करने की असाधारण क्षमता थी । मैं कई बातों के कारण बेहद सम्वेदनशील और चिन्ताकुल हो गया था। मान लो - मान लो - मान लो? क्या ? मैं अपनी सारी चिन्ताओं को तरतीब देकर सोच भी नहीं सकता था। मेरे दिमाग में परेशानियाँ गड्डमड्ड हो रही थीं। कभी अचानक भय आ घेरते, कभी मन में यह सोच उठता कि मैं अपनी प्रियतमा के लायक सुन्दर नहीं दिखाई देता । कभी मैं डर जाता कि मैंने शायद अच्छी तरह शेव नहीं किया है और रोजी मेरे होंठों और ठुड्डी पर उंगलियाँ फेरकर देखेगी और मुझे निकाल बाहर करेगी। कभी मुझे लगता कि मैं जैसे चिथड़े पहने हुए हूँ । रेशमी जिब्बा या किनारीदार धोती या तो बहुत भड़कीले हैं या पुराने फैशन के हैं। मुझे लगता कि वह मुझे बाहर निकालकर दरवाजा बन्द कर रही है क्योंकि मैं उसके लिए पर्याप्त रूप से आधुनिक व्यक्ति नहीं हूँ । मन में इस भावना के उठते ही मुझे भागकर दर्जी के यहाँ जाना पड़ा और कुछ शानदार बुशशर्टे और कार्डराय की पतलूनों का आर्डर देना पड़ा। साथ ही मैंने अपने बालों और चेहरे की क्रीम - लोशन और खुशबूदार इत्र-सेंटों पर भी काफी पैसे खर्च किए। मेरा खर्च दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। दुकान ही मेरी आमदनी का मुख्य जरिया थी । इसके अलावा कुछ पैसे दैनिक वेतन के रूप में मुझे मार्को से मिलते थे। मैं जानता था कि मुझे दुकान का हिसाब-किताब ज़्यादा ध्यान से देखना चाहिए। मैंने ज़रूरत से ज़्यादा उस लड़के के भरोसे पर छोड़ दिया था। माँ जब मुझे पकड़ पातीं तो अक्सर कहतीं, “तुम्हें उस लड़के पर भी एक नज़र रखनी चाहिए। मैं देखती हूँ कि उसके गिर्द बहुत-से ठलुए जमा रहते हैं। क्या तुम्हें मालूम है कि बिक्री से कितने पैसे उसके पास आते हैं और उनका वह क्या करता है?” मैं उनको उत्तर देता, “मुझे इन चीज़ों का पूरा पता है। यह मत सोचो कि मैं बिल्कुल लापरवाह हूँ ।" और माँ चुप हो जातीं। मैं दुकान पर जाता और कठोर स्वर अपनाकर हिसाब-किताब की जाँच करता । लड़का हिसाब दिखाता, कुछ नकदी सामने लाकर रखता, दुकान में मौजूद सामान का विवरण देता, आगे क्या-क्या खरीदकर लाना है, इसकी फेहरिस्त पेश करता और कुछ अपनी निजी समस्याओं का ज़िक्र करता। उसकी समस्याओं को सुनने का धैर्य मेरे अन्दर न होता। मैं खुद अपनी समस्याओं में उलझा रहता था। इसलिए मैं उसे डाँटता कि हर छोटी-मोटी बात का ज़िक्र करके मेरा समय न बर्बाद करे और उस पर ऐसा रौब डालता ( जो सिर्फ रौब ही होता और कुछ नहीं) जैसे हिसाब-किताब मेरे बायें हाथ का खेल है - कोई गलती मेरी नज़र से छिपी नहीं रह सकती। वह हमेशा कहता, 'जनाब, आपको पूछते हुए दो यात्री आए थे।” ओह, इन मनहूस यात्रियों की किसे ज़रूरत थी? "वे क्या चाहते थे?” मैं बिना उत्सुकता दिखाए पूछता । “वे लोग तीन दिनों तक यहाँ के दर्शनीय स्थानों का पर्यटन करना चाहते थे, जनाब। वे यहाँ बहुत निराश होकर लौट गए।" पर्यटक हमेशा ही आते रहते थे। इस कार्य में मेरी दिलचस्पी कम हो जाने के बावजूद गाइड के रूप में मेरी ख्याति खत्म नहीं हुई थी । 'रेलवे राजू' एक प्रतिष्ठित नाम था और यात्री और पर्यटक अभी भी उसकी मदद लेने उसके पास पहुँचते थे। लड़का अपनी बात जारी रखता, " वे लोग पूछ रहे थे कि आप कहाँ मिलेंगे।" इससे मैं सोच में पड़ गया। मैं नहीं चाहता था कि यह मूर्ख लड़का यात्रियों को होटल के 28 नं. के कमरे में मेरे पास भेज दिया करे। सौभाग्य से उसको इस कमरे का पता नहीं था, नहीं तो शायद वह उनको भेज ही देता । “राजू जनाब, उन लोगों से क्या कह दूँ?” वह मुझे 'राजू जनाब' कहकर पुकारता था । इस तरह वह इज्जत करने के साथ अपनी बेतकल्लुफी भी जतला देता था। मैंने उसे संक्षिप्त सा उत्तर दिया, "उनसे कह देना, मैं आजकल बहुत व्यस्त हूँ। बस । मेरे पास वक्त नहीं है। बहुत व्यस्त हूँ ।"

' "तो क्या जनाब, मैं खुद उनका गाइड बन जाऊँ” उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा। यह छोकरा मेरे कामों में एक-एक करके मेरा वारिस बनता जा रहा था। अगली बार शायद वह रोज़ी का मनबहलाव करने के लिए उसके साथ रहने की माँग करेगा! मैं उसके सवाल से चिढ़ गया और तीखे स्वर में पूछा, "और दुकान कौन चलाएगा?"

' "मेरा एक चचेरा भाई है। वह मेरे पीछे दुकान पर बैठ सकेगा।" मुझे इसका कोई उत्तर न सूझा। मैं कोई निर्णय नहीं कर सका। इस सारे मामले में बहुत ज़्यादा झंझट था । मेरी पुरानी ज़िन्दगी, जिसमें अब मुझे कतई कोई दिलचस्पी नहीं थी, मेरे कदमों को रोक रही थी। मेरी माँ मेरे लिए बहुत-सी समस्याएँ खड़ी कर रही थीं। फिर म्यूनिसिपैलिटी का टैक्स अदा करना था, रसोईघर की ईंटों की मरम्मत होनी थी, उधर दुकान, हिसाब-किताब, और अपनी सेहत का भी ध्यान रखना था; मेरे लिए वह स्वप्नों के संसार की एक गुड़िया थी, जिसके मुँह से अस्फुट स्वर निकलते थे, और यह लड़का अपने ढंग से मुझे घेरकर हमला करता था। उधर गफ्फूर मक्कारी-भरी नज़रों से मेरी तरफ देखता था और हर वक्त कोई न कोई बात बनाने के लिए तैयार रहता था - ओह! मैं इन बातों से थक गया था। मेरा मन किसी चीज़ में नहीं लगता था। हर वक्त दूसरी परेशानियाँ मुझे घेरे रहती थीं। रुपये-पैसों का भी मेरी नज़रों में अब कोई महत्त्व नहीं रहा था, हालाँकि बचत की कॉपी को देखकर मुझे अन्दाज हो सकता था कि मेरा कोष खाली हो रहा था। जब तक दुकानवाला छोकरा मेरी ज़रूरत के लिए नकदी देता जाता था, तब तक मैं हिसाब की जाँच-पड़ताल नहीं करना चाहता था । मेरे पिता की कंजूसी की वजह से बैंक में मेरे नाम पर बचत का खाता खुल सका था। मेरे जीवन और चेतना में रोज़ी ही एक यथार्थ रह गई थी । मेरे मन की सारी शक्तियाँ उसे अपने निकट रखने में लगी थीं, ताकि वह सारा वक्त मुस्कुराती रहे। इनमें से एक काम भी आसान नहीं था। मुझे सारा वक्त जोंक की तरह उससे चिपके रहने में बड़ी खुशी होती, लेकिन उस होटल में यह बात आसान नहीं थी। मुझे हर वक्त यह चिन्ता सताती रहती थी कि डेस्क पर बैठा रिसेप्शनिस्ट और होटल के बेयरे मुझपर निगरानी रख रहे थे और मेरी पीठ के पीछे मेरी निन्दा कर रहे थे ।

'मैं नहीं चाहता था कि लोग मुझे 28 नम्बर के कमरे में जाते हुए देखें। मुझे इस बात का बहुत ज़्यादा एहसास होता था और मैं चाहता था कि किसी तरह से होटल का डिज़ाइन बदल जाता ताकि रिसेप्शनिस्ट की नज़रें बचाकर मैं 28 नम्बर के कमरे में जा सकता । मुझे यकीन था कि जब-जब मैं रोज़ी के साथ होटल में आता था और बाहर निकलता था उसी वक्त वह हर बात को नोट करता था और उसका रुग्ण, जिज्ञासु मन इस बात की कलपनाओं में डूबा होगा कि 28 नम्बर के कमरे के बन्द दरवाजों के पीछे क्या कुछ हो रहा है। हर बार मुझे देखकर वह अजब नज़रों से घूरता था, जो मुझे सख्त नापसन्द थीं। मुझे उसके होंठों की सिकुड़न भी पसन्द नहीं थी- मुझे मालूम था वह मन ही मन मेरा मज़ाक उड़ा रहा है। मैं उसे नज़र अन्दाज़ करना चाहता था, लेकिन वह मेरा बहुत पुराना साथी था, इसलिए उससे एकाध बात तो करनी ही पड़ती थी। उसके नज़दीक से गुज़रते हुए मैं लापरवाही दिखाने की कोशिश करता और रुककर कहता, "देखा, नेहरूजी लन्दन जा रहे हैं।" या "नये टैक्सों से लोगों की सारी हिम्मत खत्म हो जाएगी।" वह सहमत होकर कोई बात समझाता, बस इतना ही काफी था । हम भारत सरकार की टूरिस्टों के प्रति नीति या होटल के प्रबन्धों की बात करने लगते। ऐसे वक्त मुझे उसकी बातें सुननी पड़ती थीं । उस बेचाने के मन में रत्ती भर शक नहीं था कि अब मुझे टैक्सों में, टूरिस्टों में या किसी और चीज़ में कतई दिलचस्पी नहीं थी । मैं कई बार सोचता कि रोज़ी को किसी दूसरे होटल में टिका दूं। लेकिन यह काम आसान नहीं था । रोज़ी और उसके पति दोनों को यह होटल बहुत पसन्द था । उसका पति न जाने क्यों होटल बदलने के खिलाफ था, हालाँकि वह कभी पहाड़ी से उतरकर नीचे नहीं आता था। लड़की इस कमरे की आदी हो गई थी, जिसकी खिड़की में से नारियल के वृक्षों का झुरमुट दिखाई देता था । लोग कुएँ में से पानी लाकर सिंचाई करते थे । रोज़ी में एक ऐसा आकर्षण था जो न आसानी से मेरी समझ में आता था न ही मैं उसे समझा सकता था। कई और भी ऐसी बातें थीं जो मेरी समझ से बाहर थीं। मैंने देखा कि वह धीरे-धीरे अपने पहले दिनों की स्वच्छन्दता खो रही थी । उसने मुझे प्यार करने की इजाज़त दे रखी थी, लेकिन वह अब अपने पति के बारे में भी ज़रूरत से ज़्यादा चिन्ता प्रकट करने लगी थी। उसका पति अभी भी पहाड़ी के रेस्ट हाउस में रह रहा था। वह अचानक मेरे आलिंगनपाश में से अपने को छुड़ाकर कहती, “जाकर गफ्फूर से कहे कि गाड़ी ले आए। मैं वहाँ जाकर उन्हें देखना चाहती हूँ।" मेरे लिए अभी उसे डाँटने-डपटने की या गुस्सा दिखाने की नौबत नहीं आई थी। इसलिए मैंने शान्त स्वर में जवाब दिया, " गफ्फूर कल इस वक्त से पहले नहीं आएगा। तुम कल ही तो पहाड़ी पर गई थीं। अब फिर वहाँ क्यों जाना चाहती हो? वह तो कल तुम्हारा इन्तज़ार करेगा ।”

'वह 'हाँ' कहकर सोच में पड़ जाती। जब वह सलवटों-भरे कपड़े पहने बाल बिखेरकर, पलंग पर बैठ जाती थी तो मुझे बहुत बुरा लगता था । वह अपने घुटनो को हाथों से जकड़ ती थी। मुझे पूछना पड़ता, “तुम्हें क्या परेशानी है? मुझे नहीं बताओगी? मैं हमेशा तुम्हारी सहायता करूँगा।” वह सर झटककर कहती "जो भी हो, आखिकार वह मेरा पति है। मुझे उसकी इज्ज़त करनी पड़ेगी। मैं उसे वहाँ अकेला नहीं छोड़ सकती।” मैं औरतों के बारे में अनुभवहीन था और मेरा सारा अनुभव उसी तक सीमित था, इसलिए मैं यह तय न कर सका कि उसकी बातों के प्रति क्या रुख अपनाऊँ। मैं यह न समझ सका कि वह झूठी बहानेबाज़ी कर रही है या उसने अपने पति की जिन कमियों का जिक्र किया था वे सरासर झूठ थीं- सिर्फ मुझे जाल में फँसाने के लिए उसने ये बातें कही थीं, सारा मामला बड़ा पेचीदा और रहस्यपूर्ण था। मुझे कहना पड़ा, "रोज़ी, तुम अच्छी तरह जानती हो कि अगर गफ्फूर आ भी जाए तो भी वह इस वक्त गाड़ी को पहाड़ी पर नहीं ले जा सकता।"

' “हाँ, हाँ, मैं समझती हूँ," वह जवाब देती और फिर रहस्यपूर्ण चुप्पी में खो जाती ।

' " तुम्हें क्या परेशानी है?"

'उसने रोना शुरू कर दिया, "जो भी हो... जो भी हो... मैं जो कर रही हूँ, क्या यह उचित है? जो भी हो, उसने मेरे साथ अच्छाई की है, मुझे हर किस्म का आराम और आज़ादी दी है। दुनिया में कौन-सा पति है जो अपनी बीवी को सौ मील दूर होटल के कमरे में अकेला रहने देगा ?"

‘मैंने उसकी गलती सुधारी, “सौ मील नहीं, बल्कि सिर्फ अट्ठावन मील। क्या मैं तुम्हारे लिए कॉफी या खाने की कोई चीज़ मंगवाऊँ ?”

"नहीं," वह तुरन्त जवाब देती और सोच में डूबी रहती । "वह शरीफ है, हो सकता है वह बुरा न माने, लेकिन क्या बीवी का फर्ज़ नहीं है कि वह अपने पति की रखवाली और मदद करे, चाहे उसका पति उससे कैसा ही सलूक करता हो ?” आखिरी बात उसने इसलिए कही थी ताकि मैं उसे मार्को के उदासीन व्यवहार की याद न दिला सकूँ। बड़ी पेचीदा स्थिति थी । मैं उसकी बात में कोई कमी-बेशी नहीं कर सकता था । यह स्वाभाविक था कि मैं इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ले सकता था- दूरी ने उसके मन में आकर्षण पैदा कर दिया था, लेकिन मैं जानता था कि मार्को के साथ कुछ घंटे बिताने के बाद ही वह क्रुद्ध क्षुब्ध स्वर में प्रलाप करती हुई पहाड़ी से नीचे आ जाएगी और मार्को के बारे में हर किस्म की बुरी बातें कहेगी। कई बार यह मेरी हार्दिक इच्छा होती थी कि मार्कों पहाड़ी की ऊँचाइयों से नीचे उतर आए और अपनी बीवी को साथ लेकर वहाँ से दफा हो जाए। कम से कम इस तरह वह अनिश्चितता तो हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी और मैं रेलवे प्लेटफॉर्म पर जाकर अपना काम-काज फिर से शुरू कर सकूँगा। मैं अब भी काम पर लौटने की कोशिश कर सकता था । इस लड़की को मैं अकेला क्यों नहीं छोड़ सकता था? मार्को को काम खत्म करने में जितनी देरी लग रही थी, यह यन्त्रणा भी उतनी ही लम्बी होती जा रही थी। लेकिन मार्को एकान्त में खूब पनप रहा था। शायद ज़िन्दगी भर उसे इसी चीज़ की तलाश थी। लेकिन वह अपनी बीवी के लिए कोई इन्तज़ाम क्यों नहीं कर सकता था? वह निरा अन्धा था। कई बार उसके बारे में सोचकर ही मुझे गुस्सा आने लगता था । उसने मुझे बुरी आफत में फँसा दिया था। मैंने मजबूर होकर रोजी से पूछा, "तो फिर तुम उसके साथ ही क्यों नहीं ठहरतीं?” उसने सिर्फ इतना जवाब दिया, "वह रात भर बैठकर लिखता रहता है और..."

' "अगर वह रात भर बैठकर लिखता रहता है तो तुम्हें दिन के वक्त उससे बातें करनी चाहिए,” मैं मासूम चेहरा बनाकर कहता ।

' "लेकिन दिन भर वह गुफा में रहता है।"

' "तो तुम भी जाकर गुफा को देख सकती हो, उसमें क्या हर्ज है? तुम्हें भी उसमें दिलचस्पी लेनी चाहिए ।"

' " जब वह कॉपी करता है तो उस वक्त कोई उससे बात नहीं कर सकता।"

' “उससे बातें मत करो, लेकिन खुद मूर्तियों का अध्ययन करो। एक अच्छी पत्नी को अपने पति के हर काम में दिलचस्पी लेनी चाहिए।"

' "यह सच है, ” उसने कहा और सिर्फ एक ठंडी साँस लेकर चुप रह गई । इस गलत दृष्टिकोण से मैंने अपनी अनुभवहीनता का परिचय दिया था, जिसका कोई नतीजा नहीं निकल सकता था। बल्कि वह पहले से भी ज़्यादा उदास और गुमसुम हो जाती थी ।

'जब मैंने नाच का ज़िक्र किया तो उसकी आँखें एक नई आशा से चमकने लगीं। आखिरकार सबसे पहले मुझे उसकी कला ने ही तो आकर्षित किया था। अब कुछ अरसे से जब हम प्रेमी-प्रेमिका की तरह रहने की कोशिशें कर रहे थे, यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू पृष्ठभूमि में चला गया था। दुकानों, सिनेमा और आलिंगनों में वह अपने कलाप्रेम को भूल गई थी, जिसके पीछे वह दरअसल पागल थी । लेकिन बहुत दिनों तक वह इस शौक को नहीं भूल पाई। एक दिन शाम को उसने सीधे ही मुझसे पूछ लिया, “क्या तुम भी उसी जैसे हो?"

' "किस दृष्टि से?"

' "मेरा नाच देखकर तुम्हें भी चिढ़ होती है ?"

' “बिल्कुल नहीं, तुम ऐसा क्यों सोचती हो?"

' " एक ज़माने में तुम कला-प्रेमियों जैसी बातें किया करते थे। आजकल तुम इस बारे में बिल्कुल नहीं सोचते ।”

'यह सच था। मैंने अपनी सफाई देने के लिए कुछ कहा। उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर गम्भीर स्वर में कसम खाई, " तुम्हारी खातिर मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ । तुम्हारा नाच देखने के लिए मैं अपनी ज़िन्दगी भी कुर्बान कर सकता हूँ। तुम जो भी हुक्म दोगी, मैं करूँगा।”

'वह खिल उठी । नाच के ज़िक्र से उसकी आँखों में एक नये उल्लास की चमक आ गई ! मैं भी उसके साथ बैठकर उसके दिवास्वप्नों में सहायता देने लगा। मैंने यह सुराग लगा लिया कि उसका प्यार किस तरह हासिल किया जा सकता है और मैंने इस तरकीब का पूरा इस्तेमाल किया । वह एक साथ अपनी कला और अपने पति के बारे में नहीं सोच सकती थी। एक का विचार मन में आते ही, दूसरे का विचार मन से निकल जाता था ।

'उसके मन में बहुत-सी योजनाएँ थीं। तड़के पाँच बजे उठकर वह तीन घंटों तक एक बड़े से कमरे में नृत्य का अभ्यास करती । उसकी माँग थी कि फर्श पर एक मोटा-सा कालीन होना चाहिए, जो न बहुत नर्म हो, न बहुत खुरदरा । एक कोने में वह नटराज की मूर्ति रखती, जिनके आदि नृत्य से सारी सृष्टि स्पन्दित और मुखरित हो उठी थी ! एक लम्बे-से आतिशदान में दिन-भर अगरबत्तियाँ जलती रहती थीं। नृत्य के अभ्यास के बाद वह ड्राइवर को बुलवाती । "तुम्हें कार की ज़रूरत है?” मैं पूछता । " ज़ाहिर है, वरना मैं कैसे बाहर जा सकती हूँ। इतने काम हैं कि गाड़ी के बिना नहीं चलेगा। ठीक है न?”

' " ज़रूर मैं समझ गया ।"

'फिर दोपहर से पहले वह नृत्यशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करती । भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को पढ़ती, क्योंकि प्राचीन नाट्यकला के अध्ययन के बिना शास्त्रीय नृत्यों के मूल रूप को बनाए रखना असम्भव था। उसकी सारी पुस्तकें उसके चाचा के. यहाँ पड़ी थीं और वह पत्र लिखकर उन्हें धीरे-धीरे मंगवाती जा रही थी । ये ग्रन्थ प्राचीन सूत्रात्मक शैली में लिखे हुए थे, इसलिए वह उन्हें समझने के लिए एक पण्डित की सहायता चाहती थी । “क्या तुम संस्कृत के किसी पण्डित को बुलवा सकते हो ?” उसने पूछा ।

' “ ज़रूर बुलवा सकता हूँ। यहाँ दर्जनों पण्डित हैं ।"

' “मैं यह भी चाहती हूँ कि पण्डित मुझे रामायण और महाभारत की कथाएँ पढ़कर सुनाए, क्योंकि ये ग्रन्थ अमूल्य रत्नों के भण्डार हैं और उनमें से नये नृत्यों के लिए बहुत-से मौलिक विचार मिल सकते हैं।" दोपहर के खाने के बाद कुछ देर आराम करती । तीन बजे वह खरीददारी और मोटर की सैर के लिए निकलती और शाम को आकर कहीं नाच का प्रोग्राम न होता तो वह घर लौट आती या सिनेमा देखने चली जाती। जिस दिन नाच का प्रोग्राम होता, उस दिन तीन बजे तक आराम करती और शो से सिर्फ आधा घंटा पहले हॉल में पहुँचती। “इतना वक्त काफी है क्योंकि मैं यहाँ से ही नृत्य की पोशाक पहनकर और मेक-अप करके चलूँगी।"

'वह बारीकी से हर पहलू पर सोचती और दिन-रात इन्हीं विचारों में डूबी रहती । नृत्य के अभ्यास के लिए उसे साज़िन्दों की ज़रूरत होती और जब वह स्टेज पर लोगों के सामने आने के लिए तैयार हो जाती तो मुझे सूचित कर देती ताकि मैं उसके नृत्य का प्रोग्राम तय करवा सकूँ। उसका उत्साह देखकर मैं सकपका जाता और सोचता कि काश, मैं कला-चर्चा उसका साथ दे सकूँ! मैंने महसूस किया कि मुझे फौरन नृत्य सम्बन्धी शब्दावली सीख लेनी चाहिए। उसे नाचते और कला की चर्चा करते देखकर मेरी ज़बान बन्द हो जाती थी और मैं अपने को मूर्ख समझने लगता था। मेरे सामने अब दो ही रास्ते बचे थे - या तो मैं डींग और भाग्य के भरोसे बैठा रहता या स्पष्टवादिता से काम लेता। दो दिनों तक उसकी बातें सुनने के बाद अन्त में मैंने उसके सामने कबूल किया, “मैं साधारण आदमी हूँ। मुझे नृत्यकला की पेचीदगियाँ नहीं मालूम। मैं इस बारे में तुमसे सीखना चाहता हूँ।" मैं नहीं चाहता था कि वह मुझे अपनी कला के प्रति उदासीन समझे । सम्भव था कि वह फिर अपने पिता के पास वापस चली जाती, इसलिए मैंने अपने कला-प्रेम के आडम्बर को बनाए रखा। इनमें हम दोनों की घनिष्ठता में एक नई ताज़गी आ गई और हम एक-दूसरे के ज़्यादा करीब आ गए। हम जहाँ कहीं होते, नृत्य कला की बारीकियों और पेचीदगियों के बारे में वह मुझे समझाती, जैसे किसी बच्चे को नृत्य की भाषा समझाई जाती है। दिन-ब-दिन अपने आसपास की चीज़ों में उसकी दिलचस्पी कम होती जा रही थी। गफ्फूर की मोटर में बैठते ही वह कहती, “जानते हो पल्लवी क्या होती है? उसमें सबसे अधिक महत्त्व ताल का होता है। इसमें हमेशा, एक-दो, एक-दो, नहीं बल्कि तरह-तरह के ताल होते हैं।" फिर वह तोड़े सुनाने लगती, "ता-का-ता-की-ता-ता- का..." मुझे बड़ा कौतूहल होता। “जानते हो इसे पाँच और सात की मात्रा में बाँधने के लिए कितने अभ्यास की ज़रूरत होती है और जब ताल बदल जाता है तो..." ऐसी बातों को गफ्फूर अगर चोरी से सुन भी लेता तो कोई हर्ज नहीं था। पहाड़ी की तरफ जाते हुए, किसी दुकान से बाहर निकलते हुए या सिनेमा देखते वक्त वह इसी किस्म की बातें किया करती । पिक्चर देखते-देखते वह अचानक कह उठती, “मेरे चाचा के पास भोजपत्र पर लिखा एक बहुत प्राचीन गीत है। उसे किसी ने नहीं देखा। सारे देश में अकेली मेरी माँ को ही वह गीत आता था और वही उस पर नाच सकती थी- मैं चाचा से उस गीत को भी मंगवा लूँगी। मैं तुम्हें नाचकर दिखलाऊँगी। हम लोग अपने कमरे में क्यों न चलें? मैं यह पिक्चर और नहीं देखना चाहती। बिल्कुल बकवास है। "

‘हम फौरन 28 नं. के कमरे की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर वह मुझे बैठने की ताकीद कर बगल के कमरे में चली जाती और थोड़ी देर में ही नाच की पोशाक पहनकर निकलती । वह कहती, “मैं नाचकर तुम्हें दिखाऊँगी। साज़िन्दों के बिना बात नहीं बनती, कम से कम पखावज बजानेवाला तो एक होना ही चाहिए... खैर, उस कुर्सी को कोने में सरकार तुम बिस्तर पर बैठ जाओ। मुझे नाच के लिए यह जगह चाहिए।" वह कमरे के किनारे पर खड़ी होकर धीमे, मधुर स्वर में गीत गाती वह संस्कृत का एक प्राचीन गीत था जिसमें एक युवक और युवती जमना के किनारे मिलते हैं। यह नृत्य - रचना कितने हुमक के साथ शुरू होती! और जब वह अपना पांव कोमलता से उठाकर घुंघरूओं को झंकृत होने देती तो मैं रोमांचित हो जाता। हालांकि मैं नृत्य की बारीकियों से अपरिचित था, और गीत के शब्दों का ठीक अर्थ भी नहीं समझता था, फिर भी गीत के साथ उसके अभिनय, नृत्य की लय- ताल से मैं झूम उठता। वह बीच में रुक-रुककर समझाती: नारी का अर्थ लड़की है और मणि एक प्रकार के हीरे को कहते हैं... पूरी पंक्ति का अर्थ है- 'तुमने जो प्रेम का यह उपहार दिया है, इसका भार उठाना मेरे लिए संभव नहीं है।' वह अर्थ समझते हुए हांफती जाती। उसके माथे और होंठों पर पसीने की बूंदें चमक उठतीं। वह फिर एक-दो तोड़े नाचकर समझाती, “प्रेमी का अर्थ हमेशा ईश्वर होता है।" और फिर वह नृत्य की लय और मुद्राओं की बारीकियां समझाने लगती। उसके थिरकते हुए कदमों की चाप से कमरे का फर्श गूंज उठता। मुझे डर लगता कि शायद नीचे की मंजिलवाले नाच बंद करने के लिए कहेंगे, लेकिन उसे इसकी चिंता नहीं थी, वह किसी बात से नहीं डरती थी। उसके नृत्य से मैं इस रचना की भव्यता, इसकी प्रतीकात्मकता कि एक तरुण देवता किस तरह किशोरावस्था पार कर के विवाह में अपनी कामनाओं की पूर्ति पाता है और फिर समय बीतने के साथ वह यौवन से वृद्धावस्था में प्रवेश करता है, फिर भी जल में खिले हुए कमल की तरह उसके हृदय 'में प्रेम की वह ताजगी बनी रहती है - यह सब कुछ नृत्य की मुद्राओं से देख सका था। वह करीब एक घंटे तक यह नृत्य करती रही । उसे देखकर मुझे लगा कि पृथ्वी पर शायद इससे सुंदर और सुखकर चीज़ और नहीं हो सकती। मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि इस नृत्य के दौरान मेरा मन जैसे आनंद की मुक्तावस्था को प्राप्त कर गया था, जहां कोई कलुषित विचार या कामुक भावना प्रवेश नहीं पा सकती। मैं उसे कला और सौंदर्य एक शुद्ध और अमूर्त वस्तु के रूप में देख रहा था । यकायक नृत्य बंद करके वह मेरे पास आई और अपने शरीर का सारा भार मेरे ऊपर फेंकती हुई उल्लास भरे स्वर में बोली, “कितने प्यारे हो तुम! तुम मुझे एक नई ज़िंदगी दे रहे हो ।”

'अगली बार जब हम पहाड़ी पर गए तो हमारी योजना तैयार थी। उसे वहां छोड़कर मैं वापस शहर आनेवाला था। वह वहां दो दिन रहकर एकाकीपन और चिढ़न को बर्दाश्त करेगी और अपने पति से बात करेगी। आगे बढ़ने से पहले यह निहायत ज़रूरी था कि उसके पति के साथ इस बारे में खुलकर बात कर ली जाए। वह दो दिन तक बातें करेगी फिर मैं जाकर उन दोनों से मिलूंगा और हम मिलकर उसके भविष्य की रूप-रेखा तय करेंगे। अचानक अपने पति के बारे में वह बड़ी आशावान हो गई थी और अक्सर मेरी तरफ झुककर दबे स्वर में कहती थी, ताकि गफ्फूर न सुन सके, “मेरा खयाल है कि वह इस सुझाव पर राज़ी हो जाएगा ।" या फिर वह अपनी इच्छाओं को व्यक्त करती, “वह बुरा आदमी नहीं है। जानते हो, वह सिर्फ उदासीनता का दिखावा कर रहा है। तुम उससे बिल्कुल बात न करना। मैं सारी बात करूंगी। मैं जानती हूं कि उससे कैसे पेश आना चाहिए। तुम सारा मामला मुझपर छोड़ दो,” पहाड़ी पर पहुंचने तक वह इसी किस्म की बातें करती रही। “ओह ! ज़रा उन पक्षियों को तो देखो! कितने सुंदर रंग हैं! जानते हो एक युवती की बांह पर गुदे हुए तोते के बारे में भी एक नृत्य है, किसी वक्त मैं तुम्हें दिखाऊँगी ।"

'मार्कों इतना खुश नज़र आ रहा था कि विश्वास नहीं होता था। वह अपनी बीवी से उत्साहपूर्वक मिला। “जानती हो, वहां एक तीसरी गुफा भी है। वहां तक एक सुरंगनुमा रास्ता जाता है। मैंने चूने को उखेड़कर देखा, वहां प्रतीकात्मक भाषा में एक भित्ति चित्र पर संगीत की स्वरलिपियों अंकित हैं, पांचवी शताब्दी की शैली में। मुझे ताज्जुब है कि इतनी सदियों का अंतर कैसे पड़ गया ?" मार्को ने बरामदे में हमारा स्वागत करते हुए कहा । वह एक कुर्सी खींचकर घाटी की तरफ देख रहा था। उसकी गोद कागज़ों से भरी थी। उसने अपनी नवीनतम खोज दिखाई। उसकी पत्नी ने आनन्दोल्लास से चित्र की तरफ देखकर कहा, “संगीत की स्वरलिपियां ! कितनी आश्चर्यजनक चीजें हैं। तुम मुझे वह भित्ति चित्र दिखाओगे न ?"

' “हाँ, कल सुबह मेरे साथ चलना । मैं तुम्हें उस चित्र के बारे में समझाऊंगा।

' “ओह ! यह तो शानदार बात है।” रोज़ी के स्वर में कृत्रिमता थी, “मैं उन स्वरों को गाने की कोशिश करूंगी।"

' “मुझे शक है कि तुम गा सकोगी। तुम नहीं जानती, वह स्वर - योजना कितनी कठिन है।”

' लगता था, रोज़ी को जैसे बुखार चढ़ा है। वह मार्कों को प्रसन्न करने के लिए उत्सुक थी। यह अच्छा शगुन नहीं था। न जाने क्यों दोनों पक्षों की यह प्रफुल्लता मुझे पसंद नहीं आई थी। मार्को ने मेरी तरफ मुड़कर पूछा, “और राजू तुम? तुम भी मेरी खोज को देखना चाहोगे ?”

' “जरूर । लेकिन मुझे जल्द से जल्द शहर वापस लौटना है। मैं इन्हें यहां पहुंचाने आया था, क्योंकि ये बहुत परेशान थीं। मैं यह भी पूछने आया था कि आपका काम कैस चल रहा है और आपको किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है। "

' “ओह ! बिल्कुल ठीक चल रहा है! वह जोज़ेफ बड़ा शानदार आदमी है। मुझे न उसकी सूरत दिखाई देती है न उसकी आवाज़ सुनाई देती है, फिर भी वह ठीक वक्त पर सारा काम निपटा लेता है। मैं चाहता हूँ, सारे काम इसी ढंग से हों। मेरा ख्याल है, उसके तलवों में जैसे बाल-बेयरिंग लगे हों, जिनपर वह हर वक्त फिसलता चलता है ।"

'ऐसा ही मुझे रोज़ी को देखकर लगा था, जब उसने कमरे में मुझे अपना नृत्य दिखाया था। लगता था जैसे उसके पांवों की क्षिप्र गति हड्डी - मांस-मज्जा और फर्श और दीवारों के अचल स्वभाव का अतिक्रमण कर रही थी ।

'मार्को ने जोज़ेफ की तारीफ जारी रखी, "मेरे लिए ऐसी अच्छी जगह और जोज़ेफ जैसा वफादार और मुस्तैद आदमी तलाश करके तुमने मेरे ऊपर जो ऐहसान किया है, उसका शुक्रिया मैं कभी अदा नहीं कर सकता। वह सचमुच एक असाधारण आदमी है। कितने अफसोस की बात है कि वह इस छोटी-सी पहाड़ी पर अपनी क्षमताओं को बरबाद कर रहा है । "

' “आप बड़े कद्रदान व्यक्ति हैं, " मैंने कहा । मेरा विश्वास है कि वह अपने बारे में आपकी राय सुनकर खुशी से फूल जाएगा ।”

' "ओह, मैंने बिना किसी संकोच के उसको अपनी राय बता दी है। मैंने उसको इस बात की भी दावत दी है कि जब भी उसका मन करे वह मद्रास में मेरे घर आकर रह सकता है।”

‘मार्को आज असामान्य रूप से सहृदय और वाचाल हो रहा था। स्वभाव से वह अकेले में या गुफाओं में अंकित भित्ति चित्रों के बीच ही खुश रहता था। मैंने सोचा कि जोज़ेफ अगर उसकी पत्नी होता तो मार्को कितना सुखी होता! उसकी बातें सुनते हुए मैं कुछ इस ढंग से सोचने में व्यस्त हो गया। रोज़ी एक स्नेहशील पत्नी की तरह बोली, “मेरा ख्याल है, खाने की चीज़ें काफी हैं और सब कुछ ठीक है। अगर दूध हो तो क्या मैं तुम लोगों के लिए कॉफी बना दूँ ?” वह भागकर अन्दर गई और शीघ्र ही लौटकर बोली, “हाँ, दूध तो है। मैं तुम सबके लिए कॉफी बनाकर लाती हूँ। पाँच मिनट से ज़्यादा नहीं लगेंगे।”

'मैं आज काफी परेशान था। मेरे मन में कई उद्विग्न करने वाले विचार और अनिश्चितता की एक तीखी भावना घुमड़ रही थी। मुझे चिन्ता हो रही थी कि न जाने वह रोज़ी से क्या कहेगा और मैं चाहता था कि वह रोज़ी को कोई नुकसान न पहुँचाए। साथ ही मेरे मन में यह भय भी उठ रहा था कि अगर वह सचमुच रोज़ी के प्रति गहरा स्नेह दिखाएगा तो शायद वह मुझसे विमुख न हो जाए। मैं चाहता था कि वह रोज़ी के प्रति उदार हो, उसके प्रस्तावों और मंसूबों को सहानुभूतिपूर्वक सुने और फिर उसे देखभाल के लिए मेरे हाथों में छोड़ दे। कितनी आश्चर्यजनक और विपरीत सम्भावनाओं का योग मैं चाहता था! रोज़ी जब अन्दर कॉफी तैयार करने में लगी थी, वह मेरे लिए एक कुर्सी खींच लाया। “मैं अपना काम हमेशा यहाँ बैठकर करता हूँ,” उसने कहा। मुझे लगा जैसे वह अपनी सरपरस्ती से नीचे की घाटी को सम्मानित कर रहा था। उसने एक अल्बम में से कागज़ों का एक बण्डल और कुछ फोटोग्राफ निकाले । उसने गुफा के सभी भित्ति चित्रों पर विपुल नोट्स तैयार किए थे। उसने उनका वर्णन करते हुए और उनके रेखा-चित्र बनाते हुए पन्ने के पन्ने रंग डाले थे। ये नोट्स काफी अस्पष्ट और दुरूह थे, लेकिन फिर भी मैं दिलचस्पी का अभिनय करते हुए उनको पढ़ता गया । मैं इन भित्ति चित्रों के ऐतिहासिक मूल्य के बारे में उससे पूछना चाहता था, लेकिन मेरी ज़बान जैसे बन्द हो गई, क्योंकि मैं अनुसन्धान की शब्दावली से अपरिचित था। काश, मुझे भी ऐसी विशिष्ट शब्दावली सिखाने वाले किसी स्कूल में शिक्षा मिली होती! तब मैं कई प्रकार के लोगों से बराबरी के दर्जे पर बात कर सकता। अब कोई मेरे अज्ञान पर तरस खाकर रोज़ी की तरह मुझे सिखाने का कष्ट नहीं उठाएगा। मैं उसकी बातें सुनता गया । वह प्राचीन तिथियों, प्रमाणों, निष्कर्षो और विभिन्न भित्ति चित्रों के विवरणों की चर्चा करता गया। आखिर उसके इस काम का क्या उपयोग था, यह पूछने का साहस मुझमें नहीं हुआ। रोजी जब ट्रे में कॉफी लेकर आई ( वह क्षिप्र पगों से जैसे फर्श पर तैरती हुई आई थी, मानो दिखा रही हो कि वह जोज़ेफ की चाल का मुकाबला कर सकती है) उस वक्त मार्को ने मुझसे कहा, “प्रकाशित होकर सभ्यता के इतिहास के बारे में यह पुस्तक हमारी वर्तमान सभी धारणाओं को बदल देगी। इस स्थान की खोज करने में मैं तुम्हारा कितना आभारी हूँ, इसका जिक्र मैं पुस्तक में ज़रूर करूँगा ।"

'दो दिन बाद मैं फिर वहाँ गया। मैं दोपहर के वक्त वहाँ पहुँचा- ऐसे वक्त जब मुझे मालूम था कि मार्को नीचे गुफा में होगा और मुझे रोज़ी के साथ एकांत में कुछ क्षण गुज़ारने को मिल जाएंगे। वे लोग बंगले में नहीं थे । जोज़ेफ पिछले कमरे में उनके लंच का प्रबन्ध कर रहा था। उसने कहा, "दोनों नीचे गए हैं और अभी तक नहीं लौटे।" मैंने वहाँ की स्थिति भाँपने के लिए जोज़ेफ के चेहरे की ओर देखा। लेकिन उसका चेहरा भाव शून्य था। मैंने उल्लसित भाव से पूछा, " कहो सब ठीक-ठाक है न, जोज़ेफ?"

' "जी हाँ, सब ठीक है ।"

' “मार्को तुमसे बहुत खुश है!” मैंने उसको प्रसन्न करने के लिए कहा। लेकिन उसने अपनी उदासीनता दिखाते हुए कहा, "अगर खुश है तो क्या हुआ ? मैं तो सिर्फ अपनी ड्यूटी पूरी करता हूँ। अपने इस पेशे में कौन मेरी तारीफ करता है और कौन मुझे कोसता है, इसकी मैं परवाह नहीं करता। पिछले महीने यात्रियों का एक गिरोह मेरी पिटाई करने को तुल गया था, क्योंकि मैंने साफ कह दिया था कि मैं उनके लिए लड़कियाँ नहीं ला सकता । लेकिन इससे क्या मैं डर गया? मैंने उनको ताकीद की कि अगले सुबह ही यह जगह छोड़कर भाग जाएँ। यह जगह भले लोगों के रहने के लिए है। मैं अपनी ओर से यात्रियों के आराम की भरसक कोशिश करता हूँ। एक घड़ा पानी के लिए यहाँ अक्सर आठ आने लगते हैं और मुझे पहाड़ी के नीचे जानेवाली लॉरियों के साथ टीन और डिब्बे भेजकर उनके लौटने का इंतज़ार करना पड़ता है। लेकिन मेहमानों को इस मुश्किल का पता नहीं चलने देता । उन्हें इसका पता भी नहीं होना चाहिए। उनके लिए पानी का इन्तज़ाम करने का जिम्मा मेरा है और बिल अदा करने का जिम्मा उनका है। मैं अपनी ड्यूटी करता हूँ और दूसरों को अपनी ड्यूटी करनी चाहिए। इसमें किसी शक-ओ-शुबह की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। लेकिन अगर कोई मेहमान सोचे कि मैं लड़कियाँ लाने का दलाल हूँ तो मैं गुस्सा नहीं रोक पाता ।"

' "बिल्कुल ठीक है, कोई भी ऐसी बात पसन्द नहीं करेगा,” मैंने उसके एकांत भाषण का सिलसिला तोड़ने के लिए कहा । "मेरा ख्याल है कि यह आदमी तुम्हें कतई तंग नहीं करता ।"

' “नहीं, नहीं, यह तो हीरा है । बहुत नेक आदमी है। अगर इसकी बीवी इसको अकेला छोड़ दे तो यह आदमी और भी भला हो जाए। बीवी के बिना वह कितना खुश था। तुम उसे यहाँ लाए ही क्यों? वह तो भयंकर झगड़ालू औरत है । "

' "अच्छी बात है तो मैं उसे पहाड़ी से नीचे ले जाऊँगा और मार्को को एकान्त में छोड़ दूँगा," मैंने गुफा की तरफ चलते हुए कहा । मार्को के आने-जाने से घास पर पगडंडी चिकनी और सफेद हो गई थी । झाड़ियों के बाद मैं बालू के मैदान को पार कर ही रहा था कि मैंने उसे सामने से लौटते हुए देखा । वह हमेशा की तरह मोटे कपड़े पहने था और उसका पोर्टफोलियों उसके हाथ में था । उससे कुछ गज़ पीछे रोजी आ रही थी। उनके चेहरों से मुझे उनके मूड का कुछ पता नहीं चला।

' “हलो!” मैंने उसकी तरफ देखकर प्रफुल्ल स्वर में कहा। उसने नज़रें ऊपर उठाईं, रुककर कुछ कहने के लिए मुँह खोला, फिर अपने शब्दों को निगल गया । मुझसे बचने के लिए वह एक तरफ खड़ा हो गया और उसने आगे चलना जारी रखा। रोज़ी उसके पीछे इस तरह चल रही थी मानो नींद में चल रही हो । उसने मुड़कर मेरी तरफ देखा तक नहीं । रोज़ी के कुछ गज़ के फासले पर मैं पीछे-पीछे चलने लगा और हम कारवाँ की शक्ल में डाक बंगले के फाटक के भीतर दाखिल हुए। मैंने महसूस किया कि मुझे भी उन्हीं की तरह खामोश रहना चाहिए और उन्हीं की तरह गुपचुप और उदास दिखाई देना चाहिए, तभी मैं उन लोगों में जंचूंगा ।

‘बरामदे की ऊपरी सीढ़ियों पर पहुँचकर उसने हम दोनों से कहा, “तुम दोनों में से किसी को भीतर आने की ज़रूरत नहीं है।" फिर उसने अपने कमरे में जाकर भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया ।

'जोज़ेफ एक प्लेट पोंछता हुआ रसोईघर के दरवाज़े में से निकला। उसने कहा, “मैं पूछने आया हूँ कि खाने के लिए क्या बनेगा ।"

'रोज़ी बिना कुछ कहे बरामदा पार करके मार्को के कमरे की तरफ चली गई और उसने भीतर से दरवाज़ा बन्द कर लिया। यह नितान्त मौन मेरे लिए असह्य होता जा रहा था । यह नितान्त अप्रत्याशित था और मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उसके जवाब में किस ढंग से पेश आऊँ । मेरा अनुमान था कि वह हम लोगों से लड़ाई-झगड़ा या बहस करेगा, लेकिन उसके इस व्यवहार ने मुझे बिल्कुल चकित कर दिया ।

' गफ्फूर दांतों के बीच एक तिनका चबाता हुआ आया और पूछने लगा, “हम लोग किस वक्त नीचे जा रहे हैं?" मैं जानता था कि दरअसल वह सारा नाटक देखने की मंशा से आया था। वह ज़रूर इस बीच जोज़ेफ के साथ गप्पें हाँकता रहा होगा और दोनों ने रोजी के बारे में अपनी जानकारी का आदान-प्रदान किया होगा। मैंने कहा, “जल्दी क्यों मचा रहे हो गफ्फूर ?" फिर कटु स्वर में मैंने यह वाक्य भी जोड़ दिया, " जबकि तुम यहाँ रुककर बढ़िया तमाशा देख सकते हो ।” उसने मेरे नज़दीक आकर कहा, "राजू, यह बात बिल्कुल अच्छी नहीं । आओ हम यहाँ से चले जाएँ। इन दोनों को अकेला रहने दो। जो भी हो, आखिरकार वे पति-पत्नी हैं। वे सुलह कर लेंगे। आओ, वापस अपने काम पर चले जाओ। तब तुम कितने मस्त और खुश थे। तुम्हें हर चीज़ में इतनी दिलचस्पी थी ।" मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। अगर उस क्षण भी ईश्वर मुझे गफ्फूर की सलाह पर चलने की सद्बुद्धि देता तो मेरे जीवन की दिशा बदल जाती। मुझे रोज़ी को वहीं छोड़कर वापस चले आना चाहिए था ताकि वह अपने पति के साथ बैठकर अपनी समस्याएँ सुलझा लेती। तब मेरी ज़िन्दगी में आने वाले बहुत-से गहरे मोड़ बच जाते। मैंने अपने गुस्से को ज़ाहिर न करते हुए गफ्फूर से कहा, “तुम कार के पास इन्तजार करो। मैं फिर बताऊँगा ।" गफ्फूर बड़बड़ाता हुआ चला गया। कुछ देर बाद मैंने गफ्फूर को हॉर्न बजाते हुए सुना, उसी जल्दबाज़ी के अन्दाज़ में जिस तरह बस वाले सड़क की टी-शॉप पर खड़े अपने यात्रियों को बुलाने के लिए बजाते हैं। मैंने इस हॉर्न पर ध्यान न देने का निश्चय किया। मार्को ने बाहर के बरामदे में निकलकर कहा, “ड्राइवर, क्या तुम जाने को तैयार हो ?”

' "जी हाँ, जनाब, " गफ्फूर ने उत्तर दिया।

' “अच्छा तो चलो,” मार्को ने कहा और वह अपना बंडल उठाकर कार की ओर चल पड़ा। मैंने कमरे की खिड़की के शीशों में से उसे आते देखा। मैं घबरा गया। मैंने हॉल पार करके दरवाज़े से बाहर निकलना चाहा, लेकिन वह बन्द था। मैं जल्द से मुड़कर सीढ़ियों से उतरता हुआ घूमकर गफ्फूर की कार के पास पहुँचा। मार्को तब तक गाड़ी में बैठ चुका था। लेकिन गफ्फूर ने अभी तक इंजन स्टार्ट नहीं किया था । औरों के बारे में पूछते हुए उसे डर लग रहा था, इसीलिए वह स्विच की चाबी को झूठ-मूठ घुमाकर वक्त गुज़ार रहा था। उसे हॉर्न बजाने के परिणाम से ताज्जुब हुआ होगा। ईश्वर जाने उसने क्यों हॉर्न बजाया था । वह शायद उसकी जाँच कर रहा था या योंही उससे खेल रहा था या फिर सबको बता देना चाहता था कि वक्त बीत रहा है।

‘मैंने साहस करके कार में सिर डालकर मार्को से पूछा, “आप कहाँ जा रहे हैं ?”

' “मैं होटल जा रहा हूँ, वहाँ का हिसाब चुकाने ।”

' “सो किसलिए ?” मैंने पूछा। उसने एक तप्त दृष्टि से मुझे ऊपर से नीचे तक देखकर कहा, 'मेरे लिए इसका जवाब देना ज़रूरी नहीं है। कमरा मैंने लिया था और अब मैं उसका हिसाब चुका रहा हूँ- बस । ड्राइवर, तुम सीधे मुझे अपना बिल दे सकते हो। जब पैसे लेने हों, अपनी रसीद तैयार रखना । "

' “क्या और कोई नहीं चल रहा ?" गफ्फूर ने साहस करके बंगले की ओर देखते हुए पूछा। “नहीं,” मार्को ने कहा। “अगर और कोई चलेगा तो मैं कार से उतर पड़ूँगा।”

“ड्राइवर,” मैंने अधिकारपूर्ण स्वर में कहा। गफ्फूर मेरे मुँह से 'ड्राइवर' का सम्बोधन सुनकर चौंक गया। “यह व्यक्ति जहाँ भी जाना चाहे, इसको ले जाओ और अपने किराये - भाड़े का पूरा हिसाब इससे कर लेना और कल यह कार मेरे लिए ले आना। मेरा अलग से हिसाब रखना । " मैं अपनी गुस्ताखी का और भी ज़्यादा प्रदर्शन कर सकता था। कह सकता था कि यह कार मैंने अपने बिज़िनेस के लिए रखी थी, लेकिन मुझे आगे बात बढ़ाने में कोई लाभ नहीं दीखा। वहाँ खड़े होकर मार्को को देखते हुए मेरे अन्दर अनजाने ही एकाएक एक तीव्र भावना जागी और मैंने एक झटके से कार का दरवाजा खोलकर मार्को को बाहर घसीट लिया। मोटे चश्मों और लोहे के टोप के बावजूद वह एक दुर्बल आदमी था - गुफाओं में बहुत ज़्यादा वक्त गुज़ारने से वह कमज़ोर हो गया था । " हैं ? क्या तुम मुझे पीटना चाहते हो ?” वह जोर से चिल्लाया।

' “नहीं, मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ। और मैं चाहता हूँ कि तुम मुझसे बात करो। मैं तुम्हें इस तरह यहाँ से नहीं जाने दूँगा।” मैंने देखा कि उसकी साँस ज़ोर-ज़ोर से चल रही थी । मैं शान्त हो गया और मैंने अपने स्वर को कोमल बनाकर कहा, “अन्दर आकर अपना खाना खाओ और जो तुम्हारे मन में है वह साफ-साफ कहो । जाओ पहले हम सारी बातें कर लें, उसके बाद तुम्हारे जी में जो भी आए तुम करना । तुम इस जगह पर अपनी बीवी को अकेला छोड़कर नहीं भाग सकते।" मैंने गफ्फूर की ओर देखकर पूछा, “तुम्हें जल्दी तो नहीं है, क्यों?"

' "नहीं, नहीं। आप अपना खाना खा लें, जनाब। अभी तो बहुत वक्त है..."

' “मैं जोज़ेफ से कहता हूँ कि वह आपका खाना फौरन लगा दे।” मुझे अफसोस हुआ कि मैंने पहले ही दखल देकर सारी स्थिति काबू में क्यों नहीं कर ली ।

' "तुम कौन हो?" मार्को ने अचानक पूछा । “मुझसे तुम्हारा क्या काम है ?"

' " बहुत काम है। मैंने तुम्हारी मदद की है। मैंने तुम्हारे काम को अपना काफी वक्त दिया है। पिछले हफ्तों में तुम्हारे वास्ते मैंने काफी जिम्मेदारियाँ उठाई हैं।”

' " और मैं इस मिनट से ही तुम्हें बर्खास्त करता हूँ," वह चिल्लाया । "मुझे अपना बिल दो और यहाँ से दफा हो जाओ।" अपनी उत्तेजित अवस्था में भी वह बिलों की बात नहीं भूलता था। मैंने कहा, “ हिसाब के मामले में शान्त मन से कहीं बैठकर सोचना क्या बेहतर न होगा - मेरा मतलब है, हिसाब जोड़ने के लिए। मेरे पास तुम्हारी दी हुई रकम में से कुछ पैसे बाकी हैं।"

' "अच्छी बात है,” वह गुर्राया, "लाओ सारा हिसाब कर डालें। इसके बाद मैं तुम्हारी सूरत नहीं देखना चाहता।"

' "इसमें कोई दिक्कत नहीं,” मैंने कहा, "लेकिन याद रखो कि इस बंगले में कमरों दो स्यूट हैं और मैं उनमें से एक को बिल्कुल जायज़ ढंग से किराये पर ले सकता हूँ ।" इसी समय जोज़ेफ ने सीढ़ियों पर आकर पूछा, "क्या रात को आपके लिए डिनर पकाऊँ?”

' "नहीं,” उसने उत्तर दिया ।

' “हाँ, मैं शायद डिनर खाऊँगा,” मैंने कहा । "और जोज़ेफ, अगर तुम्हें जल्दी हो तो तुम जा सकते हो। मैं तुम्हें फिर बुला लूँगा। तुम दूसरा स्यूट खोल दो और उसका किराया मेरे हिसाब में डालना ।"

' " बहुत अच्छा जनाब,” कहकर उसने एक दरवाज़े का ताला खोला और मैं मकान मालिक की अकड़ से उसमें दाखिल हुआ। मैंने दरवाजा बन्द नहीं किया । यह मेरा कमरा था और दरवाज़ा खुला छोड़ देना मेरी मर्जी पर था ।"

'मैंने खिड़की से बाहर झाँककर देखा । पश्चिम से सूरज की किरणें पेड़ों की फुनगियों को स्वर्ण से मण्डित कर रही थीं। यह अत्यन्त मनोहर दृश्य था । मेरी इच्छा हुई कि रोज़ी भी इसे देख सकती। लेकिन वह अन्दर थी। मैं अपने कमरे की लकड़ी की कुर्सी पर बैठकर सोचने लगा कि अब क्या किया जाए। मैंने क्या कर डाला था? मेरे सामने आगे का कोई स्पष्ट प्रोग्राम नहीं था । इसमें सन्देह नहीं कि मैंने उसे कार से घसीटकर उतार लिया था । लेकिन इससे बात क्या बनी? उसने अन्दर जाकर दरवाजा बन्द कर लिया था और मैं अपने कमरे में बैठा था। मैंने अगर उसको जाने दिया होता तो शायद मुझे रोज़ी को अपने बारे में बात करने के लिए राज़ी करने का मौका मिल जाता। अब मैंने बीच में दखल देकर सब कुछ चौपट कर डाला था। क्या मैं फिर जाकर गफ्फूर से कहूँ की हॉर्न बजाओ, जिससे शायद वह आदमी फिर अपने कमरे में निकल पड़े?

'इस तरह आधा घंटा बीत गया। बगल के कमरे से किसी हरकत या बातचीत का कोई स्वर नहीं सुनाई दिया। मैं पैर की उंगलियों के बल चलकर बाहर निकला, फिर रसोईघर में गया। जोज़ेफ वहाँ से गायब था। मैंने पतीलों के ढक्कन उठाकर देखा । खाना पका रखा था। लगता था कि किसी ने उसको छूआ तक नहीं था। मुझे उस आदमी के प्रति अचानक बड़ी दया महसूस हुई। रोज़ी तो अब तक भूख से मिट गई होगी। हर दो घंटे के बाद कुछ खाने की उसकी आदत थी । होटल में मैं लगातार उसके खाने के लिए ट्रे मँगवाया करता था । हम लोग अगर बाहर सैर पर होते तो मैं रास्ते में रूककर उसके लिए फल या नाश्ते की अन्य चीजें खरीदता रहता था। अब तो उस बेचारी लड़की का बुरा हाल होगा और उसपर वह आज गुफा तक गई और आई थी। उसका विचार मन में उठते ही मुझे सहसा क्रोध आ गया । आखिर वह अपना खाना क्यों नहीं खा सकती थी या फिर मुझसे सारी स्थिति क्यों नहीं बता सकती थी? बजाय इसके, वह इस वक्त गूंगी-बहरी बनी कहीं बैठी थी। इस राक्षस ने कहीं उसकी जबान तो नहीं काट ली ? मैने सचमुच डर से घबराकर सोचा । मैंने प्लेटों में खाना परोसा, फिर प्लेटों को ट्रे में सजाकर मैं उनके दरवाजे की ओर गया । बाहर मैं एक क्षण के लिए हिचकिचाया - सिर्फ एक क्षण के लिए ही, क्योंकि मैं जानता था कि अगर एक क्षण से ज्यादा पशोपेश में पड़ा रहा तो कभी अन्दर दाखिल नहीं हो सकूँगा। मैंने पैर से धक्का देकर दरवाज़ा खोला। रोज़ी अपने बिस्तर पर आँखें बन्द किए पड़ी थी। (क्या वह बेहोश थी? मैंने एक क्षण के लिए सोचा ।) मैंने उसे पहले कभी इतनी दुखी अवस्था में नहीं देखा था। वह अपनी कुरसी पर बैठा हुआ था, मेज़ पर कोहनियाँ रखे और मुट्ठियों पर अपनी ठुड्डी टिकाए। मैंने उसे इतना रिक्त पहले कभी नहीं देखा था । मुझे उस पर दया आ गई । मैंने इस काण्ड के लिए स्वयं अपने को जिम्मेदार ठहराया। मैं इस झगड़े से तटस्थ क्यों नहीं रहा। मैंने ट्रे मार्को के सामने रख दी ।

' “लोग आज अपना खाना ही भूल गए। अगर तुम्हारे दिमाग पर कोई बोझ है तो इसका यह मतलब तो नहीं कि खाना बरबाद किया जाए।"

'रोज़ी ने अपनी आँखें खोलीं। वे सूजी हुई थीं। उसकी आँखें बड़ी और आकर्षक थीं, लेकिन इस समय वे कुछ और बड़ी, बाहर निकली हुई और डरी हुई, लाल और उदास लग रही थीं। वह उठकर बैठ गई और बोली, “तुम हम लोगों के साथ अपना वक्त बरबाद मत करो। तुम वापस चले जाओ। मुझे सिर्फ इतना ही कहना है।" उसकी आवाज़ मोटी, भर्राई हुई और उखड़ी-उखड़ी थी । “मैं सच कहती हूँ, तुम हमारे साथ मत रहो ।”

'आज इस औरत को क्या हो गया? क्या यह भी अपने पति के साथ मिली हुई थी। मुझे निकल जाने का आदेश देने का उसको पूरा अधिकार था। शायद उसे पश्चात्ताप हो रहा था कि वह लगातार मुझे अपने निकट खींचती रही थी। मैं इसके जवाब में सिर्फ इतना ही कह सका, “पहले तुम खाना खा लो । आखिर यह उपवास किसलिए कर रही हो ?"

' “क्या तुम नीचे नहीं जा रहे ?" मैंने मार्को से पूछा। लेकिन उस आदमी का व्यवहार ऐसा था जैसे वह गूंगा-बहरा हो । उसने हम लोगों की बातें सुनी हैं, उसकी मुद्रा से इसका कोई संकेत नहीं मिला ।

'रोज़ी ने फिर दुहराया, “मैं तुम्हें यहाँ से जाने के लिए कह रही हूँ । सुनते हो?"

' उसके स्वर ने मुझे कमजोर और डरपोक बना दिया। मैंने अस्फुट स्वर में कहा, "मेरा मतलब है तुम - या शायद वह नीचे शहर जाना चाहता हो, अगर ऐसा हो तो..." घृणा से उसकी जीभ ने एक विचित्र आवाज़ की । “क्या तुम्हारी समझ में यह बात नहीं आई? हम लोग चाहते हैं कि तुम यहाँ से चले जाओ।”

'मुझे क्रोध आ गया। जो औरत अभी अड़तालीस घंटे पहले मेरे आलिंगन में रही थी, वह इस समय मुझपर रौब छांट रही थी । अनेक अपमानपूर्ण और लांछना-भरी बातें मेरे कण्ठ में मचल रही थीं। लेकिन उस हालात में भी मुझमें इतनी अक्ल बाकी थी कि मैंने अपने शब्दों को निगल लिया, यह सोचकर कि वहाँ ज़्यादा देर खड़ा होना मेरे लिए खतरनाक है, मैं पीठ मोड़कर कार की तरफ बढ़ा और मैंने कहा, “गफ्फूर चलो चलें।"

' "सिर्फ एक ही सवारी है?"

' "हाँ" मैंने सीट पर बैठकर धम्म से दरवाजा बन्द करते हुए कहा ।

' "और वे लोग?"

' “मैं नहीं जानता। बाद में तुम उनसे निबट लेना ।"

' “अगर उनसे बात करने के लिए मुझे दोबारा यहाँ आना पड़ा तो फिर इस चक्कर का किराया कौन देगा?" मैंने अपना माथा पीटते हुए कहा, “भले आदमी, फौरन चलो। इन सब मामलों को बाद में आकर निबटाना ।"

' गफ्फूर एक दार्शनिक की तरह अपनी सीट में बैठ गया और उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी। मैंने इस उम्मीद में पीछे मुड़कर देखा कि शायद वह खिड़की में से मेरी तरफ झांक रही होगी। लेकिन मेरी यह खुशकिस्मती कहाँ थी! कार ढलान पर तेज़ी से चलने लगी । गफ्फूर ने कहा, “अब तुम्हारे परिवार के बड़े-बूढ़ों को चाहिए कि तुम्हारे लिए एक दुल्हन ढूंढ़े।” मैं चुप रहा। अंधेरा बढ़ रहा था । उसने कहा, “राजू, मैं उम्र में तुमसे बड़ा हूँ। मेरा ख्याल है कि इस बार तुमने बहुत अक्लमन्दी दिखाई है। इसके बाद तुम सुखी रहोगे ।”

‘आनेवाले दिनों में गफ्फूर की भविष्यवाणी पूरी नहीं हुई। मैंने जीवन में इतने दुःखदायी दिन कभी नहीं देखे। सभी सामान्य लक्षण तो मौजूद थे ही- यानी न खाने में रूचि थी, न नींद आती थी, न पाँव कहीं एक जगह टिकता था, न मन में शान्ति थी, न बोलने या स्वभाव में मधुरता थी, बस नहीं, नहीं, नहीं, सब चीजें नहीं थीं। एक बार इरादा पक्का करके मैं फिर अपने पेशे में लग गया। लेकिन मुझे हर चीज़ अवास्तविक लगती थी। मैंने दुकान के लड़के को निकाल दिया और खुद बैठकर चीजें बेचने और उनके दाम वसूल करने लगा, लेकिन हर बार मुझे महसूस होता कि यह मूर्खतापूर्ण काम है । जब ट्रेन आती, मैं प्लेटफार्म पर इधर से उधर चहलकदमी करता । निश्चय ही मैं घुमाने के लिए यात्री तो हमेशा पा सकता था। “क्या तुम रेलवे राजू हो?" "जी हाँ।" और इसके बाद मोटा पति, पत्नी और दो बच्चे । “देखो, हम लोग... से आ रहे हैं। अमुक-अमुक व्यक्तियों ने तुम्हारा ज़िक्र किया था और कहा था कि तुम ज़रूर हमारी मदद करोगे... और देखो मेरी पत्नी सरयू के उद्गम में स्नान करने की जिद कर रही है। इसके अलावा मैं हाथियों का कैम्प भी देखना चाहता हूँ। तुम अगर कोई और जगह बताओगे तो वह भी हम लोग खुशी से देखेंगे। लेकिन, याद रखो हमारे पास कुल तीन दिन का वक्त है। इससे ज़्यादा मुझे एक घंटे की भी छुट्टी नहीं मिल सकती। मुझे...तारीख को अपने दफ्तर में ज़रूर पहुँचना है।” यात्रियों की इन बातों पर मैं शायद ही कभी ध्यान देता। मुझे पहले से ही पता होता था कि वे लोग क्या- क्या कहेंगे। मैं सिर्फ एक ही बात पर ध्यान देता था, वह यह कि उनके पास कितना वक्त है और उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है। दरअसल मैं उनकी आर्थिक स्थिति पर भी उतना ध्यान नहीं देता था, लेकिन आदतन यह बात मेरे ध्यान में आ जाती थी, जानबूझकर नहीं। मैं गफ्फूर को बुलाता, सामने की सीट पर बैठ जाता और यात्रियों की पार्टी को घुमाने के लिए ले जाता। न्यू एक्सटेन्शन के पास से जब कार गुज़रती, मैं बिना सर घुमाए ही कहता, “सर फ्रीड्रिक लॉले - " जब हम मूर्ति के पास से गुज़रते तब मैं समझ जाता कि ठीक किस समय सवाल पूछा जाएगा-‘यह किसकी मूर्ति है ? ' और मुझे यह भी मालूम होता कि अगला प्रश्न कब पूछा जाएगा और मैं पहले से ही अपना उत्तर तैयार रखता-“ज़िले का शासन चलाने के लिए राबर्ट क्लाइव इस आदमी को पीछे छोड़ गया था। उसने ही सारे बाँध और तालाब बनवाकर ज़िले का विकास किया था। भला आदमी था; इसीलिए यह मूर्ति यहाँ पर है । " विनायक स्ट्रीट पर स्थित दसवीं शताब्दी के ईश्वर मन्दिर के पास से गुज़रते हुए मैं उसकी दीवारों पर बनी मूर्तियों का विवरण सुनाता जाता, “अगर आप गौर से देखेंगे तो आपको मालूम होगा कि रामायण की सारी घटनाएँ दीवारों पर खुदी हुई हैं," आदि-आदि। मैं उन्हें बादलों और कोहरे से घिरे मेम्पी शिखर पर स्थित सरयू के उद्गम पर ले गया। वहाँ पहले तो स्त्री ने कुण्ड में डुबकी लगाई, फिर पुरुष यह कहते-कहते कि वह इन रिवाजों की परवाह नहीं करता, खुद भी उसमें कूद पड़ा। इसके बाद मैं उन्हें मन्दिर के भीतरी भाग में ले गया, वहाँ मैंने उन्हें खम्भे पर बनी पत्थर की प्राचीन मूर्ति दिखाई जिसमें शिव भगवान गंगा को अपनी जटाओं में लपेटे हुए हैं... मैंने उनसे अपनी फीस ली और गफ्फूर तथा दूसरे लोगों से अपना कमीशन वसूल किया और अगले दिन उन्हें गाड़ी पर चढ़ा दिया। यह सारा काम मैंने यन्त्रवत् ढंग से, बिना कोई उत्साह महसूस किए ही किया था। मैं हर समय रोज़ी के बारे में ही सोचता रहा था। 'उस आदमी ने शायद रोज़ी को भूखों मार डाला है या उसे पागल बना दिया है या शेर चीतों के खाने के लिए वह उसे खुले जंगल में छोड़कर भाग गया है,' मैंने मन ही मन कहा। मैं एक अनाथ बालक की तरह दीखता था। किसी काम में मेरी दिलचस्पी नहीं थी। माँ ने इसका कारण जानना चाहा। उन्होंने पूछा, “तुम्हें क्या तकलीफ है ?"

' “कुछ नहीं,” मैंने जवाब दिया। मेरी माँ मुझे घर पर इतना कम देखने की आदी थीं कि उनको यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मैं अक्सर अब कहीं नहीं जाता। लेकिन उन्होंने ज़्यादा कुछ नहीं कहा। मैं खाता था, सोता था, प्लेटफार्म पर घूमता था और कभी-कभी यात्रियों को घुमाने के लिए भी ले जाता था, लेकिन मेरे मन में ज़रा भी शान्ति नहीं थी । मेरा मन हर समय उद्विग्न रहता था। यह अशान्ति स्वाभाविक थी। मैं यह तक न जानता था कि उसका आखिर हुआ क्या है - और इस मर्मान्तक खामोशी और अस्वाभाविक धैर्य का मतलब क्या है। यह बिलकुल अप्रत्याशित बात हुई थी । मैंने अपने सुखद स्वप्नों की भाषा में सोचा था कि वह अपनी पत्नी को मेरे हाथों में सौंपते हुए कृतज्ञतापूर्वक कहेगा, 'मुझे खुशी है कि तुम रोज़ी और उसकी कला की देखभाल करोगे। मैं खुद गुफा के चित्रों का अध्ययन करने के लिए एकान्त चाहता हूँ। तुम कितने अच्छे हो ।' या फिर वह अपनी आस्तीनें चढ़ाकर मुझे धक्के मारकर निकाल देगा। इन दो में से एक स्थिति ज़रूर आएगी, मैंने यही कल्पना की थी। लेकिन मैंने इस तरह के अनकहे तनाव की बात भी नहीं सोची थी। और फिर यह तो अकल्पनीय था कि रोज़ी इतने खूंखार ढंग से अपने पति का पक्ष लेगी। मैं उसके हृदय की इस कपट चाल से स्तम्भित रह गया था। मैं इस पर बार-बार मर्माहत होकर सोचता, सारी घटनाओं को मन में दुहराकर उनका अर्थ समझने की कोशिश करता। मैंने जान-बूझकर गफ्फूर से इस बारे में कोई चर्चा नहीं की । वह मेरी भावनाओं की कद्र करता था, इसलिए उसने भी कभी यह चर्चा नहीं छेड़ी, हालाँकि मैं रोज बेसब्री से इस बात का इन्तज़ार करता कि वह उन लोगों के बारे में कोई खबर सुनाएगा। किसी-किसी दिन, जब मुझे उसकी कार की ज़रूरत पड़ती, वह कहीं नज़र न आता। तब मैं समझ जाता कि उस दिन वह पीक हाउस गया होगा। मैंने आनन्द भवन के करीब जाने से अपने को रोक रखा था। अगर मेरा कोई ग्राहक होटल में ठहरने की इच्छा प्रकट करता तो मैं उसे अब ताज होटल में भेज देता। मुझे उनके बारे में व्यर्थ चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। मार्को ने कहा था कि वह सीधे उनका हिसाब कर लिया करेगा- इसमें शक नहीं कि इस मामले में वह काफी चौकस है। मैं तो उन लोगों से या खुद गफ्फूर से अपना कमीशन वसूल करने के लिए ही इस तस्वीर में आता था। लेकिन मैं अपना सारा कमीशन छोड़ने को तैयार था। पैसा कमाने का मूड इस वक्त मेरे अन्दर नहीं था । मैं अन्धकार की जिस दुनिया में डूबा हुआ था, वहाँ पैसों के लिए कोई जगह नहीं थी । मेरा ख्याल है, कहीं कुछ रुपये ज़रूर पड़े होंगे। मेरी माँ उनसे हमेशा की तरह घर तो चला ही लेगी, और दुकान भी अपनी जगह कायम रहेगी। मैं जानता था कि गफ्फूर का हिसाब भी उसने चुका दिया होगा। लेकिन गफ्फूर ने इस बारे में कभी एक शब्द भी नहीं कहा। अच्छा ही हुआ । मैं नहीं चाहता था कि कोई बीते दिनों की याद दिलाए।

‘रोज़मर्रा की साधारण ज़िन्दगी से मैं बेहद ऊब और डर गया क्योंकि मैं शान-शौकत की रोमांटिक ज़िन्दगी का इस बीच आदी हो गया था। धीरे-धीरे मुझे यात्रियों को घुमाने ATT काम बेमानी लगने लगा। मैंने रेलवे स्टेशन पर जाना कम कर दिया। मैं अब खलासी के लड़के को यात्रियों से मिलने के लिए स्टेशन भेज देता। वह पहले भी इस काम में कुछ अनुभव प्राप्त कर चुका था। बेशक यात्रियों को मेरे भाषणों और वर्णनों से वंचित रहना पड़ता था, लेकिन पिछले दिनों से मेरी बुद्धि भी कुन्द हो गई थी, और शायद उनको यह लड़का पसन्द था, क्योंकि दर्शनीय स्थान देखने के लिए वह भी उन्हीं की तरह उत्सुक रहता था। शायद ‘रेलवे राजू' का नाम पुकारने पर वह खुद 'हाँ' कहने लग गया था।

‘इस तरह कितने दिन बीते? सिर्फ तीस दिन, हालाँकि मुझे लगा कि बरसों गुज़र गए हैं। दोपहर को एक दिन मैं अपने घर के फर्श पर सो रहा था। मेरी नींद गहरी नहीं थी, क्योंकि मैंने नोट किया था कि साढ़े चार बजे की मद्रास मेल अभी-अभी गई है। ट्रेन की छुक-छुक जब समाप्त हो गई तो मैंने फिर सोने की कोशिश की। दरअसल ट्रेन के आने के शोर से ही मेरी नींद टूट गई थी। इसी वक्त मेरी माँ ने आकर कहा, “तुमसे कोई मिलने आया है।" माँ मेरे सवालों की प्रतीक्षा न करके रसोई में चली गई। मैं उठकर दरवाज़े पर गया। वहाँ रोज़ी खड़ी थी। उसके पाँव के पास एक ट्रंक रखा था और उसकी बगल में एक बण्डल था। “रोज़ी, तुमने खबर क्यों नहीं की कि तुम यहाँ आ रही हो? अन्दर आओ, अन्दर आओ। वहाँ क्यों खड़ी हो? वह तो मेरी माँ थी ।" मैं उसका ट्रंक उठाकर अन्दर ले गया। उसके इस हठात् आगमन के बारे में मैं अनेक अनुमान लगा सकता था । मैं उससे कोई सवाल नहीं पूछना चाहता था। मैं कुछ नहीं जानना चाहता था। मैं उसका प्रबन्ध करने के लिए व्यग्र था। मेरी सुध-बुध खो गई थी। मैं चिल्लाया, “माँ, यह रोज़ी है । यह हमारे घर में मेहमान रहेगी।" मेरी माँ औपचारिक ढंग से रसोई से निकलीं। उन्होंने मुस्कुराकर रोज़ी का स्वागत किया । “उस चटाई पर बैठ जाओ। तुम्हारा नाम क्या है, बेटी ?" माँ ने स्नेहपूर्ण स्वर में पूछा, लेकिन शायद 'रोजी' नाम सुनकर वे चौंक गई। वे किसी धार्मिक नाम की आशा करती थीं। उन्हें जैसे एक क्षण दुख हुआ, आश्चर्य हुआ, कि वे किसी 'रोजी' को अपने घर में आतिथ्य कैसे देंगी। मैं खुद बड़े फूहड़ ढंग से खड़ा था। मैंने सुबह से शेव नहीं किया था और न अपने बालों में कंघी की थी। मेरी धोती मैली थी और उसमें सलवटें पड़ी हुई थीं। मेरी बनियान में आगे-पीछे कई छेद थे। इन छेदों को छिपाने के लिए मैंने सीने पर दोनों हाथ बाँध लिए। मैं कोशिश करके भी कभी इतना फूहड़ नज़र नहीं आ सकता था, जितना इस वक्त था। मुझे फटी हुई चटाई पर शर्म आई । यह उस वक्त से हमारे यहाँ थी, जब यह घर बना था । अँधेरे कमरे की दीवारें और खपरैल की छत धुएँ से काली हो रही थी। रोजी पर अपनी सम्पन्नता और आधुनिकता का प्रभाव डालने के लिए मैंने कितनी भी कोशिशें की थीं, वे एक क्षण में ही धूल में मिल गई। अगर उसने महसूस किया कि मैं आमतौर पर ऐसी ही गन्दी जिन्दगी का आदी हूँ, तो ईश्वर जाने उसे कैसा लगेगा। मुझे बहरहाल इतनी खुशी तो थी कि मैं चाहे फटी ही सही, लेकिन एक बनियान तो पहने था - वैसे मैं घर पर नंगे बदन बैठने का आदी था, माँ मेरी छाती के घने बालों पर कभी ध्यान नहीं देती थी, लेकिन रोजी, ओह...

'माँ रसोई में व्यस्त थीं, लेकिन एक मेहमान का स्वागत करने की रस्म अदा करने के लिए वे किसी तरह बाहर निकल आई थीं। मेहमान तो मेहमान थी, चाहे वह कोई 'रोजी' ही क्यों न हो। इसलिए माँ आकर चटाई पर बैठ गई, मेहमान से बातचीत करने की खातिर । उन्होंने पहला ही सवाल जो पूछा वह था, “तुम्हारे साथ कौन आया है रोज़ी?” रोजी शरमा गई, वह हिचकिचाई और मेरी ओर देखने लगी। मैं दो कदम पीछे हट गया ताकि इस फटेहाल स्थिति में वह मुझे साफ-साफ न देख सके ।

'मैंने उत्तर दिया, "मेरा ख्याल है माँ, रोज़ी अकेली ही आई है।"

'माँ आश्चर्यचकित रह गई । “आजकल की लड़कियाँ ! तुम कितनी हिम्मतवाली हो ! अपने दिनों में हमलोग तो किसी को साथ लिए बगैर सड़क के किनारे तक नहीं निकलते थे। और मैं सारी जिन्दगी में सिर्फ एक बार ही बाज़ार गई थी, तब राजू के बाप जिन्दा थे।"

'रोज़ी आँखें झपकाती हुई चुपचाप सुनती रही। उसकी समझ में नहीं आया कि वह इन भावनाओं का क्या उत्तर दे। उसने आँखें फाड़कर और भौंहें उठाकर देखा । मेरी नज़र उस पर गड़ी थी। वह कुछ पीली और परेशान दीख रही थी, लेकिन उस दिन की तरह सूजी हुई आँखों और कठोर स्वरवाली चण्डिका नहीं । उसका स्वर हमेशा की तरह मधुर था। वह पहले से कुछ कमज़ोर हो गई थी, लेकिन लगता था, जैसे उसे किसी बात की भी चिन्ता नहीं थी। माँ ने कहा, “पानी उबल रहा है। मैं तुम्हें कॉफी बनाकर देती हूँ। तुम्हें कॉफी पसन्द है न?" मुझे खुशी हुई कि बातचीत अब इस आत्मीय स्तर पर आ गई है। मैंने मन में कामना की कि माँ सवाल पूछने की बजाय सिर्फ अपने बारे में बातें करेंगी। लेकिन ऐसा होना नहीं था। उन्होंने आगे पूछा, "तुम कहाँ की रहने वाली हो ?”

' “मद्रास की,” मैंने तुरन्त जवाब दिया ।

' “यहाँ क्यों आई हो?"

' “यहाँ कुछ मित्रों से मिलने आई है।"

' " क्या तुम्हारी शादी हो चुकी है ? "

' "नहीं" मैंने फौरन कहा। माँ ने तीर की तरह मेरे ऊपर दृष्टि फेंकी। यह दृष्टि अर्थपूर्ण थी। फिर अपने मेहमान की ओर स्नेहपूर्वक देखकर उन्होंने पूछा, “क्या तुम्हें तमिल भाषा नहीं आती?” मैं जानता था कि अब मुझे चुप रहना चाहिए। मैंने रोज़ी को ही तमिल में इसका उत्तर देने दिया । "हाँ, आती है। घर पर हमलोग तमिल ही बोलते हैं । "

' " तुम्हारे घर में और कौन लोग हैं?"

' "मेरे चाचा, चाची, और..." वह धीरे-धीरे बता रही थी कि माँ एक और भयंकर सवाल कर बैठी, “तुम्हारे पिता का क्या नाम है ?” रोज़ी के लिए यह एक भयंकर सवाल था। वह सिर्फ अपनी माँ को ही जानती थी और हमेशा अपनी माँ का ही जिक्र करती थी। मैंने कभी उससे उसके बाप के बारे में नहीं पूछा था। रोजी एक क्षण तक खामोश रही, फिर बोली, "मेरे पिता- अब नहीं रहे।"

'मेरी माँ का हृदय सहानुभूति से द्रवित हो गया । वे आर्द्र स्वर में बोली, “बेचारी, न बाप हैं न माँ। तुम्हारे चाचा जरूर तुम्हारी देखभाल करते होंगे। क्या तुम बी.ए. पास हो ?"

' “हाँ,” मैंने गलती सुधारते हुए कहा, "रोजी एम. ए. पास है ।"

' "वाह, वाह, बड़ी बहादुर लड़की हो । तब तो तुम्हें दुनिया में किसी बात की कमी नहीं है। तुम हमारी तरह अनपढ़ औरत नहीं हो। तुम कहीं भी अपना रास्ता बना सक हो। तुम खुद अपनी रेलवे टिकट खरीद सकती हो, अगर कोई तंग करे तो पुलिसवाले को बुला सकती हो और अपने पैसे खुद सम्भाल के रख सकती हो। तुम क्या करना चाहती हो ? क्या सरकारी नौकरी करके अपनी जीविका खुद कमाओगी? बड़ी बहादुर लड़की हो ।” माँ रोज़ी से बहुत प्रभावित हुई। वे उठकर गईं और उसके लिए कॉफी का गिलास ले आईं। रोज़ी ने कृतज्ञतापूर्वक कॉफी पी। मैं सोच रहा था कि किस तरह वहाँ से निकल भागूं और ठीक से कपड़े बदलकर आऊँ । लेकिन वहाँ से निकलने का कोई मौका नहीं था। मेरे पिता की भवन-निर्माण- कला इससे आगे नहीं बढ़ी थी कि उन्होंने कुल एक बड़ा-सा कमरा और एक रसोई ही बनवाई थी। यह ठीक है कि बाहर एक चबूतरा था, जिसपर अक्सर मेहमान और मर्द लोग बैठा करते थे। लेकिन मैं रोज़ी से किस तरह कह सकता था कि वहाँ जाकर बैठे। वह खुला सार्वजनिक स्थान था और दुकान पर काम करनेवाला लड़का और उसके दोस्त जमा होकर उसे घूरेंगे और उससे पूछेंगे कि उसकी शादी हो गई या नहीं। मैं बड़ी कठिनाई में पड़ गया। हम सब तो एक ही कमरे में रहने के आदी थे और हमें इसमें कभी कोई बुराई नज़र नहीं आई थी। हमें इससे ज़्यादा की ज़रूरत भी नहीं महसूस हुई थी । मेरे बाप दुकान पर रहते थे, मैं पेड़ के नीचे खेलता रहता था और मर्द मेहमान आकर बाहर के चबूतरे पर बैठते थे। अन्दर का कमरा माँ या उनसे मिलने के लिए आनेवाली स्त्रियों के लिए रहता था। रात को सोने के लिए ही हम लोग कमरे में जाते थे। अगर मौसम ज़्यादा गरम होता तो हमलोग चबूतरे पर सोते । वह बड़ा कमरा अन्दर जाने का रास्ता भी था, बैठक, कपड़े बदलने और पढ़ने का कमरा भी था। मेरे शेव का शीशा वहाँ एक कील पर टंगा था। नहाने के लिए मैं अन्दर आँगन की एक खुली छतवाले स्नान गृह में जाता था, जहाँ कुएँ से बाल्टी भरकर मैं सर पर डाल लेता था । मैं नहा-धोकर और कपड़े बदलकर तैयार होने के बीच कभी अन्दर आता, कभी बाहर जाता, और माँ तब तक या तो रसोई में व्यस्त रहतीं या कमरे में बैठी रहतीं। हम इन कार्यों के बीच एक-दूसरे की मौजूदगी के अभ्यस्त हो गए थे और इसमें शर्म या संकोच का सवाल नहीं उठता था। लेकिन अब रोज़ी के सामने ?

'माँ ने मेरी कठिनाई को भांपकर लड़की से कहा, “मैं पानी भरने के लिए कुएँ तक जा रही हूँ, तुम चलोगी मेरे साथ? तुम तो शहर की लड़की हो, तुम्हें हम गाँववालों की ज़िन्दगी भी देखनी समझनी चाहिए।” रोजी चुपचाप उठकर माँ के पीछे चल दी। मैं दिल में मनाता रहा कि वहाँ माँ फिर उससे टेढ़े सवाल न करें। खैर, उनके जाते ही मैं व्यस्त हो गया, इधर से उधर अपनी तैयारी में भागता फिरा । जल्दी से मैंने दाढ़ी छीली, एक जगह काट भी ली, फिर नहाया, कंघी की और साफ धुले हुए कपड़े पहनकर तैयार हुआ। वे लोग जब लौटकर आईं उस वक्त तक मैं पृथ्वी की राजकुमारी की नजरों के आगे पड़ने के काबिल हो गया था। मैं बाहर दुकान में गया और लड़के से कहा कि जाकर गफ्फूर को बुला लाए।

' " रोज़ी अगर तुम नहाकर कपड़े बदलना चाहो तो संकोच न करना। मैं बाहर रहूँगा । फिर हम लोग घूमने चलेंगे।"

' " गफ्फूर की कार किराये पर मँगाना शायद अनावश्यक खर्च का बोझ उठाना था, लेकिन और चारा भी तो नहीं था । मैं अपने घर में रोज़ी से बातें नहीं कर सकता था, न मैं उसे लेकर सड़क पर टहलने के लिए जा सकता था । उसके साथ घुमने में मुझे किंचित् शर्म महसूस होती थी ।

'मैंने गफ्फूर से कहा, "वह वापस आ गई है। "

'वह बोला, “मुझे मालूम है । वे लोग यहाँ होटल में थे, और वह अभी मद्रास मेल से चला गया है।"

' " तुमने तो कभी मुझे बताया नहीं ।"

' "मैं क्यों बताता ? तुम्हें मालूम तो हो ही जाना था ।"

' "क्या, क्या हुआ है?"

' "लेडी से ही पूछ लो, अब तो वह तुम्हारी जेब में है," गफ्फूर ने चिढ़कर उत्तर दिया। मैंने उसको खुश करने के अन्दाज़ में कहा, “अरे नाराज मत हो गफ्फूर ... मुझे शाम को गाड़ी चाहिए।"

' "जैसा 'हुक्म, जनाब। टैक्सी का फायदा ही क्या अगर आपके हुक्म पर ला न सकूँ?” उसने आँख मारी और मुझे यह देखकर खुशी हुई कि वह फिर पुराने दोस्ताना मूड में आ गया था। रोज़ी जब तैयार होकर बाहर निकली तो मैंने अंदर जाकर माँ से कहा, ‘‘हम लोग ज़रा घूमकर अभी आते हैं माँ।’’

(अनुवाद : शिवदान सिंह चौहान
विजय सिंह चौहान)

(अधूरी रचना)

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