गाइड (अंग्रेज़ी उपन्यास) : आर. के. नारायण
The Guide (English Novel in Hindi) : R. K. Narayan
गाइड : अध्याय 1
उस अजनबी का आना राजू को अच्छा ही लगा-उस जगह की निबिड़ एकान्तता कुछ तो दूर हुई थी इससे । अजनबी श्रद्धापूर्वक उसके चेहरे की ओर टकटकी बाँधे खड़ा था। राजू को इससे कुतूहल भी हुआ और संकोच भी । खामोशी तोड़ने के लिए उसने कहा, "अगर चाहते हो तो बैठ जाओ।" अजनबी ने कृतज्ञतापूर्वक सिर हिलाकर इस सुझाव को स्वीकार किया और अपने पाँव और मुँह धोने के लिए घाट की सीढ़ियों से उतरकर नीचे नदी तक गया। फिर कन्धे पर रखे एक पीले, चारखाने तौलिये से हाथ-मुँह पोंछता हुआ ऊपर आया और उस पटिया से दो कदम नीचे बैठ गया जहाँ रामू टाँग पर टाँग रखे इस मुद्रा में बैठा था जैसे वह किसी प्राचीन मन्दिर के निकट राजसिंहासन पर बैठा हो । नदी की धारा पर छत्र की तरह छाई पेड़ों की शाखें उन चिड़ियों और बन्दरों की कूद -फान्द से पत्तियों में सरसराहट पैदा करती हुई कांप उठती थीं, जो उनपर रैनबसेरा करने के लिए उपयुक्त जगह तलाश कर रहे थे । जिधर से नदी का प्रवाह था, वहाँ पहाड़ी के पीछे सूरज डूब रहा था। राजू इन्तज़ार करता रहा कि अजनबी कुछ बोलेगा। वह शिष्टाचारवश खुद बात शुरू नहीं करना चाहता था ।
आखिरकार राजू ने पूछा, “तुम कहाँ के रहने वाले हो ?" उसे डर था कि कहीं अजनबी भी मुड़कर यही प्रश्न न पूछ बैठे ।
अजनबी ने उत्तर दिया, “मैं मंगल का रहने वाला हूँ... ।”
"मंगल कहाँ है?"
अजनबी ने बाँह हिलाकर नदी के ऊँचे कगार के पार की ओर इशारा किया। “यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है,” उसने कहा। फिर अजनबी ने अपने बारे में और भी बातें बताईं। "मेरी बेटी नज़दीक ही रहती है। मैं उससे मिलने गया था। अब मैं घर वापस जा रहा हूँ । खाने के बाद ही मैं उसके यहाँ से चल पड़ा था। उसने तो रात के खाने तक रुकने के लिए बड़ी मिन्नत की, लेकिन मैंने इन्कार कर दिया। रुक जाने का मतलब होता कि मैं कहीं आधी रात को लौटकर घर पहुँचता । मैं किसी चीज़ से डरता नहीं लेकिन जिस वक्त आदमी को बिस्तर में सोना चाहिए, वह पैदल चलने में क्यों गुजारे?"
"तुम बहुत समझदार हो,” राजू ने कहा ।
वे दोनों कुछ देर तक बन्दरों की चीं-चीं सुनते रहे, फिर उस अजनबी को जैसे कुछ ख्याल आ गया और वह बोला, “मेरी बेटी मेरी अपनी बहन के लड़के से ब्याही गई है, इसलिए कोई परेशानी की बात नहीं है। मैं अक्सर अपनी बहन से मिलने जाता हूँ और इस बहाने अपनी बेटी से भी मिल लेता हूँ। कोई बुरा नहीं मानता।”
"आखिर कोई बुरा भी क्यों मानेगा, जब तुम अपनी ही बेटी से मिलने जाते हो ?"
"अपने दामाद के यहाँ बार-बार जाना अच्छा नहीं माना जाता,” ग्रामीण अजनबी ने बताया ।
राजू को यह ऊटपटांग चर्चा अच्छी लग रही थी । एक दिन से ज़्यादा हुआ, वह इस जगह एकदम अकेला पड़ा था। फिर से इन्सान की आवाज़ सुनना उसे सुखकर लग रहा था। इसके बाद ग्रामीण अजनबी फिर बड़ी श्रद्धा से उसके मुँह की ओर एकटक निहारने लगा। राजू ने विचारपूर्ण मुद्रा में अपनी ठुड्डी सहलाकर देखी कि कहीं अचानक वहाँ एक पैगम्बरी दाढ़ी तो नहीं उग आई । लेकिन ठुड्डी अभी भी चिकनी थी। उसने अभी दो दिन पहले ही हजामत करवाई थी और अपने जेल जीवन के कड़े परिश्रम की कमाई में से उसके लिए पैसे दिए थे।
बातूनी हज्जाम ने, उस्तरे की तेज धार से साबुन की झाग छीलते हुए पूछा था, "अभी जेल से छूटकर आ रहे हो, क्यों?" राजू ने अपनी आँखें घुमाईं और चुप रहा। वह इस प्रश्न से चिढ़ गया, लेकिन उसने उस आदमी पर अपना भाव जाहिर नहीं होने दिया जिसके हाथ में उस्तरा था। “अभी छूटकर आ रहे हो?" हज्जाम ने फिर प्रश्न दुहराया ।
राजू ने सोचा कि ऐसे आदमी पर गुस्सा करने से कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि हज्जाम अपने तजुर्बे से बोल रहा था । फिर भी राजू ने पूछा, "तुम कैसे जानते हो ?”
“मैं बीस साल से यहाँ हजामत कर रहा हूँ । तुमने देखा नहीं कि जेल के फाटक से निकलकर यह पहली दुकान है ? कामयाबी का नुस्खा यह है कि सही जगह पर दुकानदारी की जाए। लेकिन इससे और लोगों की ईर्ष्या जाग उठती है और आदमी उनकी आँखों का काँटा बन जाता है!” उसने उस्तरा घुमाकर ईर्ष्यालु हज्जामों की फौज को जैसे खदेड़ते हुए कहा ।
“क्या तुम अन्दर जाकर कैदियों की हजामत नहीं करते?"
"नहीं, जब तक वे छूटकर बाहर नहीं आते तब तक नहीं । अन्दर के लिए मेरे भाई बेटे की ड्यूटी लगी है। मैं उससे मुकाबला नहीं करना चाहता, न मैं रोज़ जेल के फाटक के भीतर दाखिल ही होना चाहता हूँ ।"
"बुरी जगह तो नहीं है," राजू ने साबुन की झाग के बीच से कहा ।
"तो फिर अन्दर चले जाओ" हज्जाम ने कहा और पूछा, “क्या मामला था ? पुलिस ने क्या कहा?"
“इसकी चर्चा मत करो,” राजू ने तपाक से कहा और बाकी हजामत के दौरान एक गम्भीर चुप्पी साध कर बैठा रहा। लेकिन हज्जाम इतनी आसानी से दबने वाला नहीं था । गुंडे-बदमाशों से ज़िन्दगी भर उसका सम्पर्क होता रहा था, जिसने उसे भी सख्त बना दिया था। “अठारह महीने या चौबीस? मैं दावे से कह सकता हूँ कि इनमें से कोई न कोई तो है ही ।"
राजू के दिल में उस आदमी के लिए आदर का भाव उमड़ पड़ा। वह सचमुच उस्ताद था। उसपर नाराज़ होने से कोई फायदा नहीं था । "तुम इतने अक्लमंद और जानकार हो । फिर सवाल क्यों पूछते थे?"
हज्जाम इस तारीफ से बहुत प्रसन्न हुआ । उसकी उंगलियाँ एक क्षण के लिए ठहर गईं और उसने आगे को झुककर राजू के चेहरे का सामना करते हुए कहा, "सिर्फ तुम्हारे मुँह से सुनने के लिए | तुम्हारे चेहरे पर साफ लिखा है कि तुम दो साला कैदी हो, जिसका मतलब यह है कि तुम हत्यारे नहीं हो। "
"तुम यह कैसे कह सकते हो ?”
“क्यों, अगर तुम सात साल काट के आए होते तो तुम्हारी शक्ल ही दूसरी हो जाती । कत्ल अगर साबित न हो तो, जानते हो, सिर्फ सात साल की सजा होती है ।"
"अच्छा तो मैंने और क्या-क्या नहीं किया?” राजू ने पूछा ।
"तुमने कोई बड़ा गबन भी नहीं किया, शायद थोड़ी रकम ही गायब की हो।"
"और क्या?”
"तुमने न औरत भगाई है, न किसी औरत के साथ बलात्कार ही किया है, और न किसी के घर को आग लगाई है।"
“तुम यह क्यों नहीं बताते कि किस खास जुर्म में मुझे दो साल की सज़ा मिली थी ? अगर ठीक बूझ दोगे तो मैं चार आने इनाम दूँगा ।"
"बूझ-बुझौवल खेलने का वक्त नहीं है मेरे पास," हज्जाम ने कहा और पूछा, "तुम अब क्या करोगे?”
“मुझे नहीं मालूम। कहीं तो जाऊँगा ही, शायद,” राजू ने सोचते हुए कहा ।
“अगर तुम लौटकर अपने जेल के साथियों के पास जाना चाहते हो तो फिर बाज़ार में जाकर किसी की जेब क्यों नहीं काटते, या किसी घर के खुले दरवाज़े में घुसकर कोई रद्दी - सद्दी चीज़ ही क्यों नहीं उठाकर चलते बनते, जिससे लोग शोर मचाकर पुलिस को बुला लें? फिर तो तुम जहाँ जाना चाहते हो वहाँ पहुँचाने का जिम्मा पुलिस पर रहेगा ।"
"बुरी जगह तो नहीं है, ” राजू ने जेल की चारदीवारी की ओर सर हिलाकर इशारा करते हुए कहा । "वहाँ लोग दोस्ताना ढंग से पेश आते हैं- लेकिन पाँच बजे तड़के जगाए जाने से मुझे सख्त नफरत है।"
“हाँ, वह ऐसा वक्त होता है जब शायद चोर रात की कारगुजारी के बाद सोने के लिए घर वापस आता है," हज्जाम ने संकेत से लांछन लगाया । "अच्छा, अब उठो, हजामत हो गई।” उसने उस्तरा रखते हुए कहा । “अब तो तुम एक महाराजा दिखाई देते हो ।" हज्जाम ने कुरसी से ज़रा हटकर उसका निरीक्षण करते हुए कहा ।
निचली सीढ़ी पर बैठा ग्रामीण अजनबी सर उठाकर राजू के चेहरे की ओर इस श्रद्धाभाव से देख रहा था कि राजू को यह बात खटकने लगी । "तुम मेरी ओर ऐसे क्यों देख रहे हो?” उसने जल्दी से पूछा । अजनबी ने उत्तर दिया, “मैं नहीं जानता । मैं आपको नाराज़ नहीं करना चाहता, स्वामी ।" राजू सच-सच कह देना चाहता था, मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि मेरे पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है। मैं उन लोगों से दूर रहना चाहता हूँ जो मुझे पहचानते हैं।' लेकिन वह हिचकिचाया, सोचता रहा कि इस बात को कैसे कहा जाए। उसे लगा कि उसने अगर 'जेल' का नाम भी लिया तो उस अजनबी की हार्दिक भावनाओं को गहरी ठेस लगेगी। उसने फिर कोशिश करनी चाही, 'मैं उतना बड़ा आदमी नहीं हूँ, जितना तुम सोचते हो। मैं दरअसल बहुत मामूली आदमी हूँ।' लेकिन वह अभी शब्दों के लिए मन को टटोल ही रहा था कि अजनबी बोला, “मेरे सामने एक सवाल है, स्वामी ।"
“मुझे बताओ क्या सवाल है,” राजू ने दूसरों की मदद करने की अपनी पुरानी आदत से लाचार होकर पूछा। यात्री आपस में एक-दूसरे से उसकी सिफारिश करते हुए एक बार ज़रूर कहते थे, "अगर राजू तुम्हारा गाइड हुआ तो तुम सब कुछ जान जाओगे। वह न सिर्फ तुमको हर दर्शनीय स्थान दिखा देगा, बल्कि और सब बातों में भी तुम्हारी मदद करेगा।”
दूसरे लोगों के काम और मतलब की बातों में अपने को फँसा लेना उसका जैसे स्वभाव बन गया था। 'नहीं तो', राजू ने सोचा, 'मैं भी हज़ारों और लोगों की तरह नार्मल आदमी होता, जिनकी ज़िन्दगी में फालतू चिन्ताएँ नहीं होती ।
'रोज़ी न होती तो मेरी जिन्दगी में ये मुसीबतें कभी शुरू न होतीं (जैसा कि राजू ने इस अजनबी को, जिसका नाम वेलान था, बाद में अपनी कहानी सुनाते हुए बताया ) । वह अपने को रोज़ी कहकर क्यों पुकारती थी? वह विदेशी नहीं थी। वह तो खालिस हिन्दुस्तानी थी, जिस पर देवी, मीना, ललिता या वे हज़ारों नाम जो हमारे देश में चलते हैं, खूब फबते । लेकिन उसने अपने लिए रोजी नाम ही चुना। यह नाम सुनकर यह मत सोचना कि वह स्कर्ट पहनती थी या उसने मेमों की तरह बाल कटा रखे थे। वह एक नर्तकी थी और हमारे देश की परम्परावादी नर्तकियों की तरह ही दीखती थी। वह चटकीले रंगों की सुनहरी गोटा लगी साड़ियाँ पहनती थी, अपने घुंघराले बालों की वेणियाँ गूंथकर उनमें फूल-मालाएँ बाँधती थी, कानों में हीरे की ईयरिंग और गले में सोने का हार पहनती थी। मैंने पहली बार मौका पाते ही उससे कहा था कि वह कितनी महान नर्तकी है और वह किस तरह हमारी सांस्कृतिक परम्परा को आगे ले जा रही है, और यह सुनकर वह प्रसन्न हुई थी।
'तब से हज़ारों लोगों ने उससे यह बात कही होगी, लेकिन इस पंक्ति में मैं सबसे पहला आदमी था। हर कोई प्रशंसा के शब्द सुनना पसन्द करता है, और नर्तक - नर्तकी तो शायद सबसे ज्यादा। वे शायद हर घंटे बाद यह सुनना पसन्द करते हैं कि उनके अंग ताल और लय पर कैसे थिरकते हैं। मुझे जब भी अकेले में, उसके पति की नज़रों से बचाकर उसके कान में फुसफुसाकर कुछ कहने का मौका मिलता था, मैं उसकी कला की खुले दिल से तारीफ करता था। ओह, उसका पति भी कैसा आदमी था। मैंने आज तक अपनी ज़िन्दगी में उससे ज़्यादा विचित्र आदमी नहीं देखा । अपने को रोज़ी के नाम से पुकारने की बजाय यह ज़्यादा संगत होता अगर वह अपने पति को मार्कोपोलो कहकर पुकारती । उसका लिबास ऐसे आदमी जैसा था जो फौरन किसी सुदूर अभियान पर जा रहा हो। उसका मोटा रंगीन चश्मा, मोटा जैकेट, मोटा टोप जिस पर हमेशा एक हरा, चमकीला वाटर प्रूफ खोल चढ़ा रहता था—इन सबसे लैस उसकी शक्ल एक अन्तरिक्ष यात्री जैसी लगती थी। बेशक मुझे यह बिल्कुल नहीं मालूम कि असली मार्कोपोलो की शक्ल कैसी थी, लेकिन पहली बार उस पर नज़र पड़ते ही मेरी इच्छा उसको मार्को कह कर पुकारने की हुई थी और तब से और किसी नाम के साथ मैं उसका सम्बन्ध नहीं जोड़ सका हूँ ।
'उस दिन जब पहली बार रेलवे स्टेशन पर मेरी नज़र उस पर पड़ी तो उसी क्षण मैं समझ गया कि मुझे ज़िन्दगी भर के लिए एक ग्राहक मिल गया है। एक गाइड, आखिरकार, ज़िन्दगी-भर ऐसे आदमी के सम्पर्क में आने की ही तलाश में रहता है जो हमेशा एक स्थायी पर्यटक के लिबास में रहना पसन्द करता हो ।
'तुम शायद जानना चाहो कि मैंने क्यों और कब गाइड का पेशा अख्तियार किया । मेरे गाइड बनने का तो वही कारण था जिस कारण से कोई सिगनलर, कुली या गार्ड बनता है । मेरे भाग्य में यही लिखा था। रेलवे से सम्बन्ध रखने वाली इन मिसालों पर हँसने की ज़रूरत नहीं है। बहुत बचपन में ही रेलवे मेरे रक्त में घुलमिल गई थी। ज़बर्दस्त आवाज़ें करते हुए और धुआँ उगलते हुए इंजन मेरी चेतना को जैसे इन्द्रजाल में बाँध लेते थे। रेलवे प्लेटफार्म पर घूमने में मुझे सुख मिलता था और स्टेशन मास्टर और कुलियों की संगत में उठना-बैठना जैसे सबसे शानदार चीज़ थी और उनकी रेलवे-सम्बन्धी बातचीत सबसे ज्यादा बुद्धिमानीपूर्ण लगती थी। मैं उनके बीच ही बड़ा हुआ था। हमारा छोटा-सा मकान मलगुदी स्टेशन के ऐन सामने था। मेरे बाप ने जब खुद अपने हाथों से यह मकान बनाया था, उस वक्त तक वहाँ ट्रेन चलने की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी । मेरे बाप ने यह जगह इसलिए पसन्द की थी क्योंकि एक तो यह कस्बे से बाहर थी, दूसरे इसकी कीमत सस्ती थी। उन्होंने खुद नींवें खोदी थीं, कुएँ से पानी भरकर मिट्टी का गारा तैयार किया था और दीवारें चिनी थीं और उनपर ताड़ के पत्तों का छप्पर डाला था । उन्होंने उसके गिर्द पपीते के पेड़ लगाए थे, जिनमें खूब पपीते लगते थे। इन पपीतों को तोड़कर और उनकी फांकें काटकर वे बेचते थे - एक-एक पपीते से उन्हें करीब आठ आने की आमदनी हो जाती थी, वे कुशलतापूर्वक उन्हें छीलकर उनकी फाँकें काटते थे । मेरे बाप के पास तख्तों और टाट से बनी एक छोटी-सी दुकान थी और सारे दिन उस पर बैठे वे पिपरमिंट, फल, तमाखू, पान, भुने हुए चने (जिन्हें वे बांस की एक नली में भरकर नापते थे) और दूसरी कई चीजें बेचते रहते थे, जिनकी माँग ट्रंक रोड पर चलने वाले राहगीर किया करते थे । यह 'झोंपड़ी वाली दुकान' के नाम से मशहूर थी। उनकी दुकान के आगे हर वक्त किसानों और बैलगाड़ियों के हाँकने वालों की भीड़ जमा रहती थी । सचमुच वे बड़े व्यस्त आदमी थे। दोपहर का खाना खाने के लिए जाने से पहले वे मुझे बुलाते थे और रोज़ नियमपूर्वक एक ही आदेश देते। कहते, “राजू, आकर मेरी जगह बैठो। देखो, ख्याल रखना कि जो भी चीज़ ग्राहक कोदो, उसके पैसे न भूल जाओ । खाने की कोई चीज़ खुद मत खा लेना, ये सब चीजें बिक्री के लिए हैं। अगर किसी चीज़ के दाम के बारे में कोई शक हो तो आवाज़ देकर मुझे बुला लेना ।" और जब ग्राहक आता तो मैं चिल्लाकर पूछता, “बापू, हरी पिपरमिंट आने की कितनी ?" "तीन,” मेरे बाप घर के भीतर से कौर चबाते हुए चिल्लाकर जवाब देते। “लेकिन अगर पौने आने की खरीद रहा हो तो उसे ... ।" वे रियायत के बतौर कोई मुश्किल-सा अनुपात बताते जो मेरी समझ में कभी न आता। मैं ग्राहक से मिन्नत करके सिर्फ आधा आना ही लेता और उसे तीन पिपरमिण्ट पकड़ा देता । अगर संयोगवश बोतल में से चार हरी पिपरमिण्ट निकल आती तो हिसाब की पेचीदगियों से बचने के लिए मैं उसे फौरन निगल जाता ।
'पड़ौस का कोई सनकी मुर्गा बांग देकर सुबह होने की घोषणा करता - जब शायद उसे लगता कि हम लोग काफी वक्त सो लिए हैं। वह इतने ज़ोर की बांग लगाता कि मेरे बाप बिस्तर से उछलकर खड़े हो जाते और मुझे भी जगा देते ।
'मैं कुएँ पर जाकर स्नान करता, माथे पर पवित्र भस्म मलता, फिर दीवार पर टंगी देवताओं की तस्वीर के आगे कुछ देर तक हाथ जोड़कर ऊँचे स्वर में प्रार्थना के गीत गाता । मेरे पूजा के अभिनय को कुछ देर तक देखने के बाद मेरे बाप भैंस दुहने के लिए चुपके से पिछवाड़े के आँगन में चले जाते। फिर जब वे दूध की बाल्टी लेकर लौटते तो हमेशा कहते, “आज इस भैंस को कुछ हो गया है। आधा भी दूध नहीं दिया।" और मेरी माँ रोज़ एक ही उत्तर देती, “हाँ, हाँ, मुझे मालूम है, इसका दिमाग खराब हो गया है। मुझे मालूम है, क्या करने से यह दूध उतारेगी।” दूध की बाल्टी लेकर रसोई की ओर जाते हुए वे एक रहस्यमय, डरावना संकेत करती । फिर एक क्षण में ही मेरे लिए गरम दूध का कटोरा लेकर वे रसोई से बाहर आतीं।
‘एक पुराने, जंग लगे टीन में बढ़िया किस्म की चीनी थी, जो मेरी पहुँच से दूर रसोई की धुआंरी दीवार से लगे लकड़ी के एक टांड़ पर रखा रहता था । मेरा ख्याल है कि ज्यों-ज्यों मेरी उमर बढ़ती जाती थी, टीन की जगह भी बदलकर ऊँची होती जाती थी, क्योंकि मुझे याद है कि बचपन में बड़ों की मदद के बिना मैं कभी उस कम्बख्त जंग लगे टीन तक नहीं पहुँच सका था। जब आसमान सुबह के सूरज की रोशनी से प्रकाशमान हो उठता था, मेरे बाप बाहर चबूतरे पर मेरा इन्तज़ार करते थे । वहाँ वे एक पतली टहनी लेकर बैठते थे। उन दिनों बाल-मनोविज्ञान की आधुनिक धारणाएँ अज्ञात थीं । शिक्षक के हाथ में बेंत या छड़ी की अनिवार्यता में सभी का विश्वास था । "पिटाई के बिना बच्चा कभी सीख - पढ़ नहीं सकता,” मेरे बाप अक्सर पुराने ज्ञानियों की यह उक्ति दुहराते । उन्होंने मुझे की वर्णमाला सिखाई । वे मेरी स्लेट पर दोनों ओर वर्णमाला के अक्षर लिख देते। फिर मैं उनकी आकृतियों पर तब तक लगातार पेन्सिल घुमाता रहता जब तक उनकी शक्लें विकृत होकर पहचान में आने लायक न रह जातीं। बीच-बीच में मेरे बाप मेरे हाथ से स्लेट छीनकर देखते और फिर मेरी ओर क्रोध से घूरते हुए कहते, "क्या लीपा-पोती की है ! तुम अगर वर्णमाला के पवित्र अक्षरों की शक्लें इस तरह बिगाड़ोगे तो ज़िन्दगी में कभी तरक्की नहीं कर सकोगे।" इसके बाद वे गीले तौलिये से स्लेट साफ करते, दोबारा अक्षरों को लिखते और स्लेट मेरे हाथ में देते हुए आदेश करते, “याद रखो, इस बार फिर तुमने इन अक्षरों को बिगाड़ा तो मुझे गुस्सा आ जाएगा। जैसे मैंने लिखा है, ठीक उसी तरह उनपर पेन्सिल फेरो और उनपर अपने चील - गोड़े मत खींचना, समझे?" यह कहकर वे मारने की मुद्रा में मेरी आँखों के आगे टहनी को जोर से लपलपाते। मैं विनीत स्वर में कहता, "अच्छा, बापू,” और फिर लिखना शुरू करता । उस वक्त की तस्वीर आज भी मेरी आँखों में खिंचा है कि मैं अपनी जीभ बाहर निकालकर और अपने सर को एक ओर से मोड़कर किस तरह अपने नन्हे शरीर का सारा बोझ पेन्सिल पर डाल देता था - किस तरह अक्षरों की विचित्र रेखाकृतियों पर उसे ज़ोर से ठेलते हुए स्लेट से कैसी चीत्कारें-सी उठी थीं जिन्हें सुनकर मेरे बाप डाँट लगाते थे, “पेन्सिल से ये बेहूदी आवाज़ें मत निकालो! तुम्हें हो क्या गया है ? " इसके बाद गणित का नम्बर आता । दो और दो = चार, चार और तीन कुछ और। किसी बड़ी संख्या को छोटी संख्या से गुणा करो, छोटी संख्या को बड़ी संख्या से गुणा करो । हे ईश्वर, इन संख्याओं से तो मेरा सर ही चकरा जाता था। जिस समय बाहर खुले आसमान के नीचे सुबह की ठंडी हवा में चिड़ियाँ फुदकती और चहकती फिरती थीं, मैं बैठा अपने भाग्य को कोसता रहता था, जिसने मुझे अपने बाप की संगत में पढ़ाई का अभ्यास करने के लिए नजरबन्द कर दिया था। कभी-कभी जैसे मेरी मौन प्रार्थना के फलस्वरूप तड़के ही कोई ग्राहक दरवाज़े पर दिखाई दे जाता था और उस दिन मेरी पढ़ाई अचानक बीच में ही खत्म हो जाती थी। मेरे बाप यह कहते हुए उठकर चल देते, “सुबह के वक्त एक गधे को पढ़ाकर विद्वान बनाने से तो मेरे पास और दूसरे बेहतर काम है ।”
'हालाँकि ऐसे दिनों में भी मुझे लगता था कि मेरी पढ़ाई अनन्त काल तक चलती रही है, लेकिन मेरी माँ मुझे देखते ही कहतीं, “अच्छा तो आज इतनी जल्दी छुट्टी हो गई ! ताज्जुब है कि आधे घंटे में तुमने क्या सीखा होगा ।" मैं उनसे कहता, “माँ, मैं बाहर जाकर खेलूँगा। तुम्हें ज़रा भी तंग नहीं करूँगा । लेकिन मेहरबानी करके आज दोबारा मुझे पढ़ाई पर मत बैठाना।" और मैं सड़क के पार इमली के पेड़ की छांह में खेलने के लिए भाग जाता। यह एक प्राचीन पेड़ था, खूब फैला हुआ और घनी पत्तियों से लदा, जिनके बीच बन्दर और चिड़ियों का बसेरा था और जहाँ बन्दर हर वक्त किलकारियाँ मारते और चिड़ियाँ चहकती और कच्ची इमलियाँ कुतरती थीं। वहाँ सूअर और उनके बच्चे कहीं से आकर ज़मीन पर पड़ी पत्तियों की मोटी तह को अपनी थूथनी से कुरेदते थे और मैं सारे दिन खेलता था। मेरा ख्याल है कि मैं उन दिनों कल्पना करता था कि ये सूअर मेरे किसी खेल में शामिल हैं और मैं उनकी पीठ पर सवार होकर कहीं जा रहा हूँ। सड़क से गुज़रते हुए मेरे बाप के ग्राहक मुझे अक्सर प्यार से बुलाते। मेरे पास संगमरमर की बटियाँ, ढलकाने के लिए लोहे का चक्कर और रबड़ की एक गेंद थी, जिनसे मैं खेला करता था। मुझे न तो यह होश रहता था कि कब दोपहर हुई और कब शाम और न इस बात का कि मेरे गिर्द क्या हो रहा है। मैं अपने खेल में भूला रहता था ।
'कभी-कभी दुकान के लिए सामान सौदा खरीदने के लिए शहर जाते वक्त मेरे बाप मुझे भी अपने साथ ले जाते थे। वे सड़क पर जाती हुई किसी बैलगाड़ी को आवाज़ देकर रोक लेते। मैं तब तक याचना भरी दृष्टि से उनको देखता रहता ( मुझे सिखाया गया था कि मैं खुद कभी साथ जाने की माँग नहीं करूँ ) जब तक वे आदेश न देते, "बैलगाड़ी में चढ़ जाओ, नन्हें ।” उनका वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं उछलकर चढ़ जाता। बैल के गले की घंटियाँ बज उठतीं और गाड़ी के पहिये ऊबड़-खाबड़ सड़क की धूल उड़ाते और चूं-चर-मरर करते हुए बढ़ते । मैं गाड़ी के डंडों को पकड़कर लटक जाता था और मेरी हड्डियाँ काँपने लगती थीं, फिर भी मुझे गाड़ी में भरे भूसे की गन्ध और रास्ते के दृश्य बहुत पसन्द आते थे। आदमियों और गाड़ियों से, सूअरों और लड़कों से भरे चारों ओर के इस दृश्य ने मेरा दिल मोह लिया था ।
‘बाज़ार में मेरे पिता अपने एक परिचित दुकानदार के सामने लकड़ी के एक तख्त पर मुझे बैठाकर खुद खरीदारी करने चले जाते थे। मेरी जेबें तले हुए काजुओं और मिठाइयों से भरी रहती थीं । उन्हें खाते-खाते मैं बाज़ार में खरीद-फरोख्त करते, बहसें करते, हँसते, गालियाँ बकते और चिल्लाते हुए लोगों को देखा करता था। मुझे याद है कि अक्सर एक सवाल मुझे परेशान किया करता था, 'बापू आप तो खुद एक दुकानदार हैं, फिर आप क्यों दूसरी दुकानों पर खरीदारी करने के लिए जाते हैं?' मुझे इस सवाल का कभी कोई जवाब न मिला। तीसरे पहर की चिलचिलाती धूप में बाज़ार के अविरल कलरव से मेरी चेतना सुन्न हो जाती थी। मटमैली धूप से मेरी आँखें चौंधिया जाती थीं और मैं उस अपरिचित स्थान की दीवार का सहारा लेकर सो जाता था, जहाँ मेरे पिता मुझे छोड़ जाते थे।'
“श्रीमान, मेरी एक समस्या है, " वेलान ने कहा। राजू ने सिर हिलाकर कहा, “हर आदमी की कोई न कोई समस्या होती है।" अचानक उसके मन में पैगम्बरियत उमड़ पड़ी। जब से वेलान आकर उसके सामने बैठा टकटकी लगाकर उसकी तरफ देखने लगा था, उसे अपने महत्त्व का आभास होने लगा था। उसे लगा जैसे वह कोई अभिनेता हो, जिसे हमेशा सही वाक्य बोलना चाहिए। इस प्रसंग में सही वाक्य यह था, "अगर तुम मुझे कोई ऐसा इन्सान दिखा दो, जिसके सामने कोई समस्या नहीं है तो मैं तुम्हें सम्पूर्ण संसार के दर्शन करा सकता हूँ। जानते हो महान बुद्ध ने क्या कहा था?" वेलान सरककर नज़दीक आ गया। “एक बार एक औरत अपने बच्चे की लाश को सीने से लगाए हुए विलाप करती हुई बुद्ध महाराज के पास पहुँची। बुद्ध ने कहा, 'जाओ, जाकर यह मालूम करो, क्या शहर में कोई ऐसा घर भी है, जहाँ मौत नहीं आई। उस घर से मुट्ठी भर सरसों लाकर मुझे दो, तब मैं तुम्हें मौत पर काबू पाना सिखा दूँगा।" " वेलान ने जीभ तालू से सटाकर 'च्चि ! च्चि !' की आवाज़ की और पूछा, "और मरे हुए बच्चे का क्या हुआ श्रीमान ?”
"माँ को मजबूर होकर बच्चा दफनाना पड़ा और क्या !" राजू ने जवाब दिया, हालाँकि मन ही मन उसे इस तुलना पर सन्देह हो रहा था । "अगर तुम मुझे एक भी ऐसा घर दिखा सको जहाँ लोग समस्याओं से मुक्त हो चुके हों तो मैं तुम्हें सारे संसार की सभी समस्याओं से छुटकारा पाना सिखा दूँगा।” वेलान इस भारी-भरकम वक्तव्य से प्रभावित हुआ। उसने झुककर प्रणाम करते हुए कहा, “श्रीमान, मैंने आपको अपना नाम नहीं बताया। मैं वेलान हूँ । मेरे पिता ने अपनी ज़िन्दगी में तीन शादियाँ की थीं। मैं उनकी पहली पत्नी का सबसे बड़ा लड़का हूँ। उनकी तीसरी पत्नी की सबसे छोटी लड़की भी हमारे साथ ही रहती है । गृहस्वामी होने के नाते मैंने घर में उसे हर सुख-सुविधा दे रखी है। एक लड़की को जितने भी गहनों और कपड़ों की ज़रूरत हो सकती है, मैं उसे खरीदकर देता हूँ लेकिन...” वेलान अन्तिम आश्चर्यपूर्ण वाक्य कहने से पहले ही रुक गया। राजू ने उसकी बात पूरी की, “लेकिन लड़की कृतघ्न है।”
“बिलकुल ठीक, श्रीमान, " वेलान बोला ।
"और तुमने उसके लिए जो लड़का ढूँढ़ा है वह भी उसे पसन्द नहीं है ?"
"बिलकुल सच है श्रीमान,” वेलान ने चकित स्वर में कहा । "मेरे चचेरे भाई का बेटा बड़ा अच्छा लड़का है। शादी की तारीख भी पक्की हो गई थी, लेकिन जानते हैं श्रीमान, लड़की ने क्या किया ?"
“भाग गई। तुम उसे वापस कैसे लाए ?” राजू ने पूछा ।
"मैंने पूरे तीन दिन, तीन रात उसे ढूँढ़ने में लगा दिए। दूर किसी गाँव के मेले की एक भीड़ में जाकर मैंने उसे पकड़ा। मन्दिर के रथ को लोग खींच रहे थे । वहाँ पचास गाँवों के लोग इकट्ठे थे। मैं भीड़ में हर आदमी का चेहरा देखने लगा। मेरी बहन कठपुतली का तमाशा देख रही थी। जानते हैं, अब वह क्या कर रही है?” राजू ने इस बार वेलान को कहानी पूरी करने के सन्तोष से वंचित नहीं किया । वेलान ने कहा, "वह दिन-भर कोठरी में बैठी कुढ़ती रहती है। समझ में नहीं आता, क्या करूँ। हो सकता है उस पर कोई चुड़ैल सवार हो गई हो। बताइए उसका क्या इलाज करूँ, आपकी कृपा होगी, श्रीमान ।”
“राजू ने क्लान्त दार्शनिक मुद्रा में कहा, "ऐसी मामूली चीजें तो ज़िन्दगी में होती ही रहती हैं। किसी भी बात से ज़्यादा घबराना नहीं चाहिए ।"
"तो मैं उस लड़की का क्या इलाज करूँ, श्रीमान ?”
“उसे यहाँ ले आओ। मैं उससे बात करूँगा,” राजू ने शान से कहा। वेलान खड़ा हो गया। उसने झुककर प्रणाम किया और राजू के पैर छूने चाहे । राजू दूर हट गया । “मैं किसी को ऐसा काम करने की इजाज़त नहीं दे सकता। सिर्फ ईश्वर ही इस दण्डवत् प्रणाम का अधिकारी है। अगर हम लोगों ने ईश्वर का अधिकार छीनने की कोशिश की तो वह हमें नष्ट कर देगा ।" उसे लगा कि वह एक संत बनता जा रहा है। वेलान विनीत भाव से सीढ़ियाँ उतरकर नदी पार करने के बाद दूसरे किनारे पर जाकर ओझल हो गया। राजू सोचने लगा, 'काश मैं उससे यह पूछ लेता कि लड़की की उम्र क्या है। उम्मीद है कि वह दिलचस्प नहीं होगी। मैं ज़िन्दगी में बड़ी मुसीबतें झेल चुका हूँ।”
रात होने तक वह नदी का प्रवाह देखता रहा । बीच-बीच में पीपल और बरगद के पेड़ों की सरसराहट प्रचण्ड और भयानक हो उठती थी । आसमान साफ था। राजू को और कोई काम नहीं था, इसलिए उसने तारे गिनने शुरू कर दिए। वह मन ही मन कहने लगा, ‘मैंने मानव-जाति की जो गहरी सेवा की है, उसका पुरस्कार मुझे ज़रूर मिलेगा। लोग कहेंगे- यह है वह आदमी जिसे आकाश के तारों की सही संख्या मालूम है। अगर नक्षत्रों के कारण कोई आफत उठ खड़ी हो तो जाकर उसी से सलाह लो। वही रात के आसमान के बारे में तुम्हारा पथ-प्रदर्शक बन सकता है।' फिर वह अपने-आपसे कहने लगा, 'बेहतर होगा अगर मैं एक कोने से गिनती शुरू करूँ और आसमान को टुकड़ों में बाँटकर सारे तारों को गिन डालूँ। मध्य आकाश से क्षितिज की ओर जाने का कोई फायदा नहीं, बल्कि क्षितिज से मध्य आकाश की ओर गिनना चाहिए।' वह एक सिद्धान्त का प्रतिपादन करने जा रहा था। उसने बायीं तरफ दूर नदी पार खजूर के पेड़ों पर खिंची क्षितिज रेखा से गिनती शुरू की । एक-दो-पचपन अचानक उसे एहसास हुआ कि गहरा देखने पर तारों का एक और पुंज दिखाई देने लगता है। वह गिनती भूल गया और वह आँकड़ों के जाल में उलझ गया। उसे थक महसूस होने लगी और वह खुले आसमान तले एक पत्थर की सिल पर पैर फैलाकर सो गया।
आठ बजे सुबह की धूप उसके चेहरे पर चमक रही थी। राजू की आँखें खुलीं तो उसने देखा घाट की निचली सीढ़ी पर वेलान आदरपूर्वक खड़ा था । वेलान ने कहा, "मैं अपनी बहन को ले आया हूँ।" और उसने चौदह साल की एक लड़की को धकेलकर आगे कर दिया जिसने कसकर बालों को चोटियों में बाँध रखा था और गहने पहने थे। वेलान ने बताया, “ये गहने मैंने अपने पैसों से खरीदकर इसे दिए हैं, आखिरकार यह मेरी बहन है।" राजू आँखें मलता हुआ उठ बैठा। इतने सवेरे वह सांसारिक मामलों को सुलझाने की ज़िम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं था। वह तत्काल एकान्त जाकर नित्यकर्म से निबटना चाहता था। उसने वेलान और उसकी बहन से कहा, “तुम लोग वहाँ जाकर मेरा इन्तज़ार करो ।”
बाद में राजू ने देखा कि वे लोग पुराने खम्भोंवाले हॉल में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। राजू एक चबूतरे पर बैठ गया । वेलान ने उसके सामने केलों, खीरों, गन्ने के टुकड़ों, तले हुए काजुओं से भरी एक टोकरी और दूध से भरा एक ताम्बे का बर्तन रख दिया ।
राजू ने पूछा, "यह किसलिए है?"
“श्रीमान, अगर आप यह भेंट स्वीकार कर लें तो हमें बहुत खुशी होगी।"
राजू बैठा टोकरी की तरफ ताकता रहा। इस भेंट से उसे अप्रसन्नता नहीं हुई । अब वह कोई भी चीज़ खा सकता था और हज़म कर सकता था। उसने खाने-पीने के मामले में नखरा न करना सीख लिया था । अतीत के दिनों में वह कहता, 'यह कौन खाएगा, मुझे सुबह के वक्त सबसे पहले इडली और कॉफी चाहिए- ये चीजें बाद में चबाने के लिए ठीक हैं। लेकिन जेल की ज़िन्दगी ने उसे किसी वक्त कोई भी चीज़ खा सकने की आदत सिखा दी थी। कभी-कभी उसका कोई कैदी साथी किसी वार्डर की कृपा से छः दिन की बासी गोश्त की कचौड़ी छिपाकर ले आता, जिसके तेल में से खटाई की बू आती । राजू को भी उसमें से हिस्सा मिलता। एक बार राजू ने तड़के तीन बजे उठकर बासी कचौड़ी खाई थी ताकि दूसरे साथी उठकर हिस्सा न माँगने लगें। अब उसे जो चीज़ मिल जाती थी, वह खा लेता था। उसने पूछा, “आप मेरे लिए इतना कुछ क्यों कर रहे हैं?"
“ये चीजें हमारे अपने खेतों की हैं, आपको भेंट देकर हमें गर्व का अनुभव हो रहा है ।"
राजू को और ज्यादा सवाल पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी। ऐसे मौकों पर अनुभव द्वारा वह पूरी तरह से काबू पाना सीख गया था । वह महसूस कर रहा था कि यह भक्ति-भाव अवश्यम्भावी ही था । क्षण भर के लिए वह उस भेंट को देखता रहा फिर टोकरी उठाकर मन्दिर के भीतर चला गया। दोनों जनें उसके पीछे-पीछे चले गए। राज़ू अँधेरे में आले में बनी एक मूर्ति के सामने जाकर रुक गया । यह चार बाँहों वाले एक लम्बे देवता की मूर्ति थी जिसके एक हाथ में चक्र था और दूसरे हाथ में राजदण्ड था । मूर्ति का सिर बड़े सुन्दर ढंग से तराशा गया था, लेकिन एक शताब्दी से किसी ने इस मूर्ति की तरफ ध्यान नहीं दिया था। राजू ने धार्मिक भाव से टोकरी में रखी भेंट मूर्ति के चरणों में रखकर कहा, "यह इस देवता की पहली भेंट है। देवता को पहले भोग लगाकर हम लोग बचा खुचा खा लेंगे। जानते हो, ईश्वर को भेंट चढ़ाने के बाद खाने की चीजें कम होने की बजाय कितनी बढ़ती हैं? तुम्हें वह कहानी याद है न ।”
राजू ने प्राचीन काल के देवक नामक व्यक्ति की कथा सुनाई जो प्रतिदिन मन्दिर के फाटक पर भीख माँगा करता था और अपनी कमाई को खर्च करने से पहले देवता के चरणों में रख देता था । कथा पूरी करने से पहले राजू को एहसास हो गया कि न उसे कथा याद आ रही है न कथा का उद्देश्य ही याद आ रहा है। वह खामोश हो गया । वेलान धैर्य से कथा जारी रहने की प्रतीक्षा करने लगा। वह आदर्श चेला था। अधूरी नसीहत या कथा से उसके दिमाग में कोई परेशानी नहीं होती थी। वह इन बातों को जीवन के विधान का अंग समझता था। जब राजू पीठ मोड़कर शान से घाट की सीढ़ियों की तरफ जाने लगा तो वेलान और उसकी बहन भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े।
'बरसों पहले मेरी माँ ने जो कहानी मुझे सुनाई थी वह मुझे कैसे याद आ सकती है ? हर रोज रात को बापू दुकान बन्द करके जब घर लौटते थे तो हम उनका इन्तज़ार किया करते थे और माँ हमें कोई न कोई कहानी सुनाया करती थीं। बापू की दुकान आ रात तक खुली रहती थी। रोज़ शाम को सुदूर गाँवों से बैलगाड़ियों के लम्बे काफिले आया करते थे। इन गाड़ियों में नारियल, चावल और मण्डी में बिकने के लिए किस्म-किस्म का माल भरा रहता था । इमली के पेड़ तले गाड़ियों को खड़ा करके बैलों की गर्दनों पर से जुआ उतार दिया जाता था और गाड़ीवान दो या तीन-तीन करके गपशप करने, खाना खाने और बीड़ी पीने के लिए हमारी दुकान में चले जाते थे। मेरे बापू को उन लोगों से अनाज के दामों, वर्षा, फसलों और नहरों की हालत के बारे में बातें करने में कितना मज़ा आता था। वे लोग पुरानी मुकद्दमेबाजियों का ज़िक्र भी किया करते थे। उनकी बातचीत में बार-बार मजिस्ट्रेटों का, हलफनामों का, गवाहों का, अपीलों का ज़िक्र आता था, बीच-बीच में हँसी-ठहाकों की आवाजें आती थीं। कानून के किसी हास्यास्पद नुक्ते या खामी की स्मृति उन्हें गुदगुदा देती थी। मेरे पिता इन लोगों की सोहबत में खाना-पीना और सोना तक भूल जाते थे । मेरी माँ कई बार मुझे यह देखने के लिए दुकान में भेजती थीं कि पिता को घर आने के लिए राजी किया जा सकता है या नहीं। वे बड़े गर्ममिजाज आदमी थे और अगर उनकी बातों में कोई दखल देता तो वे क्या कर बैठते इसका कोई ठिकाना नहीं था । इसलिए मेरी माँ मुझे समझा-बुझाकर भेजतीं कि मैं जाकर उनका मूड देखूं और फिर शिष्ट स्वर में उनसे कहूँ कि वे घर आकर खाना खा लें। मैं दुकान की दहलीज पर खड़ा खाँसता- खखारता रहता, ताकि बापू की नज़र मुझपर पड़ जाए, लेकिन वे बातचीत में इतने बेसुध रहते कि उन्हें मेरी तरफ आँख उठाकर देखने की फुर्सत भी न मिलती। मैं भी उनकी बातचीत में खो जाता, हालाँकि बातचीत का एक भी शब्द मेरे पल्ले नहीं पड़ता था। थोड़ी देर बाद रात के सन्नाटे में मेरी माँ की मुलायम आवाज़ सुनाई देती थी, “राजू ! राजू!” और मेरे पिता बातों के बीच सिर उठाकर मेरी तरफ देखते और कहते, "जाकर अपनी माँ से कह दो, वे मेरा इन्तज़ार न करें। कटोरे में मुट्ठी भर चावल और रायता रख दें। नींबू के अचार का एक ही टुकड़ा रखें। मैं देर से लौटूंगा।" हफ्ते में पाँच दिनों तक यही फार्मूला चलता था और वे हमेशा साथ में यह वाक्य जोड़ देते थे, “आज रात सचमुच मुझे भूख नहीं है।" और मेरा ख्याल है, इसके बाद वे साथियों से स्वास्थ्य की समस्याओं पर चर्चा छेड़ देते थे । लेकिन मैं वहाँ रुके बगैर फौरन घर की तरफ चल देता। दुकान की रोशनी और हमारे घर की दहलीज़ में रखी हुई लालटेन की मद्धम लौ के बीच सिर्फ दस गज का फासला था, लेकिन वहाँ से गुज़रते वक्त मेरा शरीर ठण्डे पसीने से तर हो जाता था। मुझे लगता कि जंगली जानवर और भूत-प्रेत अंधेरे से निकलकर मुझपर टूट पड़ेंगे। मेरी माँ दहलीज़ के पास आकर कहतीं, “उन्हें भूख नहीं है न? अब उन्हें रात-भर गाँव के लोगों के साथ बैठकर गपबाज़ी करने का बहाना मिल गया। आकर वे मुश्किल से एक घण्टा सोएंगे और किसी बेवकूफ मुर्गे की बांग के साथ ही उठ जाएँगे। उनकी सेहत इसी तरह चौपट हो जाएगी।" मैं माँ के पीछे-पीछे रसोई में चला जाता। वह फर्श पर अपनी और मेरी थाली पास-पास रखकर पतीले में से चावल परोस देतीं और हम दीवार में एक कील से टंगी ढिबरी की धुआँ-भरी रोशनी में बैठकर खाना खत्म करते। माँ सामने वाली कोठरी में मेरे लिए एक चटाई बिछा देतीं, जिस पर लेटकर मैं सो जाता। वे मेरे सिरहाने बैठकर पिता का इन्तज़ार करती रहतीं। माँ के सामीप्य में मुझे एक अवर्णनीय सुख की अनुभूति होती । मैं उस सामीप्य का लाभ उठाने के लिए झूठमूठ शिकायत करता, “मेरे बालों में कोई चीज़ चल रही है । " माँ मेरे बालों में उंगलियाँ फेरतीं और गर्दन खुजलातीं । मैं फिर हुक्म जारी करता, "कोई कहानी सुनाओ।" माँ फौरन कहानी शुरू कर देतीं, “बहुत दिन पुरानी बात है, देवक नाम का एक आदमी था...” रोज़ रात को यह नाम सुनने में आता था । देवक हीरो या सन्त किस्म का आदमी था। उसके कारनामों की भूमिका समाप्त होने से पहले ही मुझे नींद आ जाती।'
"राजू घाट की सीढ़ी पर बैठकर सुबह की धूप में चमचमाती हुई नदी की धार को देखने लगा। हवा की ठंडक ने उसके मन में एकान्त पाने की इच्छा जगा दी। वेलान अपनी बहन के साथ धैर्यपूर्वक निचली सीढ़ी पर बैठा था- दोनों जने डाक्टर के कमरे में बैठे प्रतीक्षाकुल मरीजों की तरह मालूम हो रहे थे। राजू के मन को अनेक व्यक्तिगत समस्याएँ परेशान कर रही थीं। अचानक यह सोचकर कि वेलान उस पर अपनी ज़िम्मेदारियाँ थोप रहा है, उसने साफ-साफ कह दिया “वेलान, मैं तुम्हारी समस्याओं के बारे में नहीं सोचना चाहता - इस वक्त समय नहीं है।"
"क्या मैं इसका कारण जान सकता हूँ?" वेलान ने विनीत स्वर में पूछा ।
"बस कह जो दिया" राजू ने निश्चयात्मक स्वर में कहा ।
' “श्रीमान, मैं फिर कब आपको कष्ट दूँ?"
"राजू ने शान से जवाब दिया, “जब उसका समय आए।" बात समय की सीमा से निकलकर अनन्त में विलीन हो गई । वेलान ने इस फैसले को स्वीकार कर लिया और जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। राजू को उसपर तरस आया । वह खाद्य सामग्री के लिए कृतज्ञ था, इसलिए उसने वेलान को सन्तुष्ट करने के लिए पूछा, “तुम अपनी जिस बहन का ज़िक्र कर रहे थे, क्या यह वही लड़की है ?"
"हाँ श्रीमान, वही लड़की है।"
' “मैं तुम्हारी समस्या को समझता हूँ, लेकिन उस पर और विचार करना चाहता हूँ। हम ज़बर्दस्ती कोई समाधान नहीं निकाल सकते। हर समस्या अपना पूरा वक्त लेती है, समझे ।”
"जी श्रीमान, जी श्रीमान," वेलान ने उंगलियों से अपना मस्तक छूकर कहा, "यहाँ जो लिखा है वही होगा । हम लोग उसे रोक भी कैसे सकते हैं?"
"हम किस्मत को बदल तो नहीं सकते, लेकिन समझ ज़रूर सकते हैं,” राजू ने शान से कहा । "और ठीक से समझने के लिए समय की ज़रूरत है।" राजू को लगा जैसे उसके पंख उग आए हैं और थोड़ी देर बाद उसे महसूस हुआ कि जैसे वह हवा में उड़कर प्राचीन मन्दिर के कलश पर जा बैठेगा, उसे किसी बात पर हैरानी नहीं हो रही थी। अचानक उसके मन में यह सवाल उठा, 'मैंने कैद काटी है या मेरा पुनर्जन्म हुआ है?' वेलान की उद्विग्नता शान्त हो गई और अपने गुरु के मुख से इतनी सारी बातें सुनकर उसे मन ही मन गर्व महसूस होने लगा। उसने अर्थपूर्ण दृष्टि से अपनी जटिल बहन की तरफ देखा । बहन ने शर्म से सिर झुका लिया। राजू टकटकी वाँधे लड़की की तरफ देखता हुआ बोला, “जो होना है, वह होकर रहेगा, धरती या आकाश की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती जैसे कोई इस नदी का रुख नहीं बदल सकता।"
"दोनों जने नदी की तरफ देखने लगे, मानो उसी में उनकी समस्याओं का समाधान निहित हो और फिर वहाँ से जाने लगे। राजू ने उन्हें नदी पार करके दूसरे किनारे पर चढ़ते हुए देखा। जल्दी ही वे आँखों से ओझल हो गए ।
गाइड : अध्याय 2
'हमारे घर के सामने खेत पर बड़ी हलचल मची थी । हर रोज़ सुबह शहर से नये लोगों का दल आता और रात तक खेत में जुटा रहता। हम लोगों ने सुना कि वे लोग रेल की लाइन तैयार कर रहे थे । जब खाना खाने के लिए वे बापू की दुकान में आते तो बापू उत्सुक भाव से पूछते, "यहाँ ट्रेनें कब से आना शुरू होंगी?" अगर वे अच्छे मूड में हो तो जवाब देते, “क्या पता, छह या आठ महीने लग जाएं,” अगर बुरे मूड में होते तो कहते, “ऐसे सवाल मत पूछो ! इसके बाद तुम हुक्म दोगे कि हम तुम्हारी दुकान के सामने इंजन लाकर खड़ा करें।" फिर वे संजीदा हँसी हँसने लगते ।
"' काम तेज़ी से जारी था। इमली के पेड़ के नीचे मेरी खेल-कूद की आज़ादी कुछ हद तक खत्म हो गई, क्योंकि अब वहाँ ट्रक आकर खड़े होने लगे। मैं किसी ट्रक में चढ़कर खेलने लगता। मेरी तरफ ध्यान देने की फुर्सत किसी को नहीं थी । सारा दिन मैं ट्रकों के भीतर घुसा रहता और मेरे कपड़ों में सुर्ख रोड़ी के दाग लग जाते। ज़्यादातर ट्रक लाल रोड़ी लेकर आते थे, खेत के एक कोने में जिसकी ढेरी लगाई जा रही थी। मेरे लिए यह दृश्य बड़ा लुभावना था। इस टीले पर खड़े होकर मैं दूर-दूर तक के स्थानों को देख सकता था । वहाँ से मेप्पी पहाड़ियों की धुँधली रेखाएँ भी नज़र आती थीं। मैं भी पुरुषों की तरह व्यस्त हो जाता। मैं सारा दिन उन मजदूरों के संग गुज़ारता जो रेल की लाइन बिछा रहे थे, उनकी बातें सुनता और उनकी हँसी - दिल्लगी में भाग लेता । लकड़ी के स्लीपर और लोहे की चीज़ों से लदे और बहुत-से ट्रक वहाँ आए। हर ओर अनेक प्रकार के सामान के अम्बार लग गए । मैं लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े, ढिबरियाँ और पेंच जमा करने लगा और मैंने इस खजाने को माँ के बड़े बक्स के कोने में छिपाकर रख दिया। जहाँ माँ की पुरानी रेशमी साड़ियों के बीच, जिन्हें वे कभी नहीं पहनती थीं, मुझे अपनी चीजें रखने की इजाज़त थी ।
"'अपनी गायों को चराने वाला एक लड़का टीले के नीचे उस जगह पर पहुँचा जहाँ मैं अकेला अपने-आप कोई खेल खेल रहा था। उसकी गायें टीले के नीचे घास चर रही थीं, जहाँ मजदूर काम कर रहे थे और उस लड़के की इतनी जुर्रत कि वह ढलान पर चढ़ा हुआ वहाँ तक आ पहुँचा था, जहाँ मैं खेल रहा था। मेरे मन में यह भाव पैदा हो गया था कि मैं ही रेल का स्वामी हूँ और मैं उस जगह पर किसी अनधिकारी व्यक्ति का प्रवेश बर्दाश्त नहीं कर सकता था । मैंने गुस्से से चिल्लाकर उस लड़के से कहा, “यहाँ से चले जाओ!"
"'“क्यों?” उसने पूछा, “मेरी गायें यहाँ पर हैं, मैं उनकी रखवाली करता हूँ।”
' " अपनी गायों को लेकर फौरन भाग जाओ, नहीं तो वे रेल के नीचे कट जाएंगी, क्योंकि रेल बस अब आने ही वाली है । "
' " कट जाने दो, तुम्हें क्या पड़ी है?" उसने कहा । इस बात पर मुझे इतने ज़ोर का गुस्सा आया कि मैं चीखकर, “कुतिया के..." जैसी नई सीखी गालियाँ बकता हुआ उस पर झपटा। मेरे हमले का जवाब देने की बजाय वह लड़का गुहार मचाता हुआ भागकर मेरे पिता के पास पहुँचा, “तुम्हारा बेटा मुझे गन्दी गन्दी गालियाँ दे रहा है ।" यह सुनकर मेरे पिता फौरन उठ भागे । मेरा दुर्भाग्य ! मैं जहाँ खेल रहा था, वहाँ वे क्रोध से तमतमा हुए पहुँचे । "तुमने इस लड़के को क्या कह के पुकारा था?" मैंने गाली को न दोहराने की अक्लमन्दी दिखाई। मैं चुपचाप खड़ा आँखें झपकाता रहा । इस पर उस लड़के ने वे सब गालियाँ हू-ब-हू दोहराकर बताईं, जो मैंने उसे दी थीं । सुनकर मेरे पिता अप्रत्याशित रूप से उग्र हो गए। उन्होंने अपने पंजे से मेरी गर्दन पकड़कर मुझे झकझोरते हुए पूछा, “कहाँ से तीखी तूने ये गालियाँ ?” मैंने रेल की पटरी पर काम करते हुए मजदूरों की ओर इशारा किया। उन्होंने उनकी ओर नज़र उठाकर देखा, फिर एक क्षण खामोश रहकर बोले, "अच्छा, तो यह बात है ? अब तुम्हें गालियाँ और गन्दी बातें सीखने के लिए आवारा घूमने की इजाजत नहीं मिलेगी। कल से तुम रोज स्कूल जाया करोगे, समझे?” “बापू!...” मैं चिल्लाया। उन्होंने बहुत कड़ी सज़ा का फैसला सुनाया था। वे मुझे एक ऐसी जगह से हटाकर जिसे मैं प्यार करता था, उस जगह भेजना चाहते थे जिससे मैं नफरत करता था ।
"'स्कूल जाने से पहले घर में रोज हंगामा - सा मच जाता। माँ मुझे तड़के ही खिला-पिलाकर तैयार कर देतीं और एल्यूमीनियम के डिब्बे में दोपहर के लिए नाश्ता बनाकर रख देतीं । वे बड़ी सावधानी से एक बैग में मेरी स्लेट और किताबें रखकर उसे मेरे कन्धे पर लटका देतीं। मुझे साफ धुले निकर और कमीज पहनाकर मेरे बालों की कंघी की जाती, जिससे मेरी घुंघराली लटें पीछे गर्दन पर जमा हो जातीं। शुरू के कुछ दिनों तक तो मुझे यह देखभाल बहुत पसन्द आई, लेकिन बाद में मुझे इससे चिढ़ हो गई । मुझे यह पसन्द था कि मैं घर पर रहूँ और कोई मेरी देखभाल न करे, बजाय इसके कि लोग मेरी देखभाल करें और मुझे स्कूल भेजा जाए। लेकिन मेरे पिता कठोर अनुशासन के पाबन्द थे, शायद उनमें अहंकार भी था और वे लोगों के सामने गर्व से यह कहना चाहते थे कि उनका बेटा स्कूल जाता है। हर रोज़ सुबह जब तक मैं सही-सलामत सड़क पर नहीं पहुँच जाता था, वे मेरी हर गतिविधि का निरीक्षण करते थे। अपनी दुकान में बैठे-बैठे वे थोड़ी देर के बाद आवाज़ कर पूछते थे, “लड़के, तू यहीं है या चला गया है ?"
"'स्कूल का लम्बा रास्ता मुझे पैदल ही तय करना पड़ता था। स्कूल से मेरे घर की तरफ आने वाला कोई लड़का नहीं था। मैं रास्ते भर अपने से बातें करता रहता, रुककर राहगीरों को, मरियल चाल से चलने वाली किसी देहाती बैलगाड़ी को या किसी दरार में घुसते हुए किसी हरे टिड्डे को देखने में व्यस्त रहता। मेरी चाल इतनी सुस्त थी कि जब मैं बाज़ार की गली में पहुँचता तो उस वक्त मेरे सहपाठी सम्मिलित स्वर में अपना सबक याद कर रहे होते थे, क्योंकि हमारे बुड्ढे मास्टर साहब लड़कों से ज़्यादा से ज़्यादा शोर मचवाने में विश्वास करते थे। मालूम नहीं, किसकी सलाह से मेरे पिता ने मुझे वहाँ दाखिल करवाया था, क्योंकि फैशनेबल अल्बर्ट मिशन स्कूल हमारे घर के करीब ही था। अपने अल्बर्ट मिशन स्कूल का विद्यार्थी कहने में मैं गर्व महसूस कर सकता था लेकिन पिताजी अकसर कहा करते थे, “मैं अपने लड़के को वहाँ नहीं भेजूंगा; लगता है वे लोग हमारे लड़कों को ईसाई बनाने की कोशिश करते हैं और सारा वक्त हमारे देवी-देवताओं का अपमान करते रहते हैं।” पता नहीं यह बात बापू के दिमाग में कैसे बैठ गई थी। खैर, जो भी हो, उनका खयाल था कि मैं जिस स्कूल में जाता था, वह दुनिया का सबसे शानदार स्कूल था । वे अकसर गर्व से कहा करते थे, “बहुत-से लड़के इस बुड्ढे मास्टर से पढ़कर अब मद्रास में बड़े अफसर, कलक्टर वगैरह बन गए हैं..." यह पिताजी की कोरी कल्पना या बुड्ढे मास्टर की ईजाद थी। इस स्कूल को शानदार संस्था कहना तो दूर रहा, उसे किसी माने में स्कूल भी नहीं कहा जा सकता था। दरअसल यह 'चबूतरा' स्कूल था क्योंकि एक भद्र व्यक्ति के घर के चबूतरे पर क्लासें लगती थीं। कबीर कूचे में एक पुराना तंग-सा मकान था, जिसके सामने सीमेंट का एक चबूतरा बना था जिसके नीचे गली की गन्दी नाली बहती थी । हर रोज़ सुबह बुड्ढा मास्टर मेरी उम्र के बीस लड़कों को इकट्ठा करके खुद एक कोने में तकिये का सहारा लेकर बैठ जाता था और बेंत हिलाता हुआ लड़कों को डाँटता रहता था । सा क्लासें एक साथ लगती थीं और बुड्ढा मास्टर बारी-बारी से सब टोलियों की तरफ ध्यान देता था । मैं सबसे छोटी क्लास में था। हम लोगों को वर्णमाला और गिनती सिखाई जाती थी । मास्टर हम लोगों से वर्णमाला ऊँचे स्वर में पढ़वाता था, फिर स्लेटों पर हम लोग अक्षरों की नकल करते थे, मास्टर हर लड़के की स्लेट देखता था और बार-बार गलतियाँ करने वालों को डाँटता और बेंत मारता था । उसे गालियाँ देने की आदत थी । मेरे पिता मुझे रेलवे लाइन पर काम करने वाले मजदूरों की भाषा से बचाना चाहते थे, लेकिन मुझे इस बुड्ढे के पास भेजकर उन्होंने कोई खास अक्लमन्दी नहीं दिखाई थी। वह विद्यार्थियों को गधा कहता था और बड़ी सतर्कता से उनकी सातों पुश्तों का बखान करता था ।
"'उसे न सिर्फ हमारी गलतियों से बल्कि हमारी मौजूदगी से ही चिढ़ थी। छोटे फूहड़ लड़कों को देखकर, जो हर वक्त हिलते डुलते रहते थे, मास्टर को बड़ी बेचैनी होती थी । इसमें शक नहीं कि हम लोग चबूतरे पर बहुत शोर मचाते थे । खाना खाने, कुछ देर सुस्ताने या दर्जनों छोटे-मोटे कामों के लिए जब वह घर जाता था तो हम एक-दूसरे पर लुढ़कने लगते थे, खूब चीखते-चिल्लाते थे, एक-दूसरे को नोचते थे और लड़ते थे या जाकर मास्टर के घर में ताक-झाँक करते थे। एक बार हम छिपकर उसके घर में घुस गए, सब कमरों को पार करने के बाद, हम रसोईघर में पहुँचे जहाँ चूल्हे के सामने बैठा मास्टर कुछ पका रहा था । "ओह! मास्टर, तुम्हें खाना पकाना भी आता है!" हम खिलखिलाकर हँस पड़े । पास खड़ी एक औरत भी हँसने लगी । मास्टर ने गुस्से से हमारी तरफ देखकर हुक्म दिया, “निकल जाओ लड़को यहाँ से! यहाँ मत आना ! यह तुम्हारी क्लास का कमरा नहीं है।" हम लोग उछलकूद मचाते हुए अपनी जगह वापस आ गए। बाद में मास्टर ने इतनी ज़ोर से हमारे कान उमेठे कि हम लोग दर्द से चिल्ला उठे। उसने कहा, "मैंने तुम - शैतानों को सभ्य बनाने के लिए यहाँ भर्ती किया है, लेकिन तुम हो कि...” उसने हमारे गुनाहों और हमारी शरारतों का सूचीपत्र बखानना शुरू कर दिया । हम लोगों ने जब पश्चाताप प्रकट किया तो उसका दिल पसीज गया। उसने कहा, “खबरदार जो आज के बाद मैंने तुम्हें उस दहलीज से पार जाते देखा। अगर तुम भीतर घुसे तो मैं पुलिस के हवाले कर दूँगा।” बस मामला यहीं खत्म हो गया। हम लोगों ने कभी बुड्ढे मास्टर के घर में ताक-झांक नहीं की, लेकिन जब भी वह पीठ मोड़ता, हम चबूतरे के नीचे बहने वाली नाली की तरफ देखने लगते, कापियों में से पन्ने फाड़कर कश्तियाँ बनाते और नाली में बहा देते । देखते ही देखते कश्तियों की रेस शुरू हो जाती। हम पेट के बल लेट कर नाली में बहती कश्तियों को देखने लगते । मास्टर हमें चेतावनी देता, “ अगर इस नाली में गिरे तो सीधे सरयू नदी में जा पहुंचोगे । फिर क्या मैं तुम्हारे बाप को तुम्हें ढूंढ़ने वहां भेजूंगा?" इस भयंकर कल्पना से बूढ़ा मास्टर हंसने लगता । हम लोगों में उसकी दिलचस्पी एक रुपया महीना फीस और खाने-पीने की चीज़ों तक ही सीमित थी । मेरे पिताजी हर महीने उसे गुड़ की दो भेलियां भेजते थे। बाकी लड़के चावल, सब्जियाँ और समय-समय पर उसकी फरमाइश के अनुसार और दूसरी चीजें भी घर से लाते थे। रसोईघर में जब कोई चीज चुक जाती तो वह किसी एक लड़के को बुलाकर कहता, "अगर तुम अच्छे लड़के हो तो भाग कर अपने घर से थोड़ी-सी चीनी ले आओ। ज़रा देखूं तो तुम कितने फुर्तीले हो ।” ऐसे मौकों पर मास्टर अपना काम निकालने के लिए मीठे स्वर में बोलता था और उसकी सेवा करके हमें गर्व महसूस होने लगता था । हम जाकर माँ-बाप से लड़-झगड़कर मास्टर के लिए चीजें लाते थे और उसकी सेवा का फख हासिल करने के लिए आपस में होड़-सी लग जाती थी। हमारे माँ-बाप भी मास्टर के प्रति सदैव कृपालु रहते थे । शायद वे इसलिए उसके कृतज्ञ थे क्योंकि वह तड़के से लेकर शाम के चार बजे तक हमारी निगरानी करता था । उसके बाद हम लोग उछल-कूद मचाते हुए घर आते थे। ऊपर से दिखाई देनेवाली मारपीट और उद्देश्यहीनता के बावजूद, मेरा ख्याल है कि बुड्ढे मास्टर की निगरानी में हम लोगों ने काफी तरक्की की क्योंकि साल के भीतर ही मैं बोर्ड के हाईस्कूल की पहली जमात के काबिल बन गया था, कोर्स की किताबों से भी ज़्यादा भारी-भरकम किताबें पढ़ लेता था, बिना किसी की मदद के बीस तक के पहाड़े याद कर चुका था। बोर्ड स्कूल हाल में ही खुला था । बूड्ढा मास्टर मुझे वहाँ दाखिल कराने अपने साथ ले गया था । हम तीन लड़कों को वह क्लास में बिठाकर आया था और लौटने से पहले उसने हमें आशीर्वाद भी दिया था। उसकी सहृदयता देखकर हम चकित रह गए थे।'
"वेलान चमत्कारपूर्ण घटना का समाचार सुनाने के लिए व्याकुल था। वह हाथ जोड़कर राजू के सामने खड़ा हो गया और बोला, “महाराज, सब कुछ ठीक हो गया है।"
' “मुझे बड़ी खुशी है। लेकिन कैसे ?”
' “बिरादरी के सामने आकर मेरी बहन ने अपनी गलती कबूल कर ली। वह राज़ी हो गई है...।” वेलान ने सारी बात बताई, “सुबह के वक्त जब बिरादरी के लोग जमा हुए तो अचानक लड़की आकर सीधी खड़ी हो गई और सबकी ओर देखकर बोली, 'पिछले दिनों मैंने बहुत गलतियाँ की हैं। अब मेरा भाई और दूसरे बुजुर्ग जो कहेंगे, वही करूंगी। जानते हैं कि किस बात में हमारी भलाई है।' पहले तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ । यह जानने के लिए कि मैं कहीं सपना तो नहीं देख रहा, मैंने अपने शरीर में चुटकी काटी। उस लड़की की वजह से हमारे घर में अंधेरा छा गया था। जायदाद के बंटवारे के मुकदमें के बाद इतनी बड़ी आफत कभी नहीं आई थी । देखिए इस लड़की से हम लोग बहुत स्नेह करते हैं और जब वह खाना-पीना छोड़कर, मैले-कुचैले कपड़े पहने अंधेरी कोठरी में कुढ़ती रहती थी तो हमें बहुत दुःख होता था । हमने उसे खुश करने की बहुत कोशिशें कीं । आखिर लाचार होकर हमें चुप होना पड़ा। उसकी वजह से हम सभी लोग बहुत परेशान थे। आज सुबह हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने बालों में तेल डालकर उन्हें सलीके से गूंथा था और चोटियों में फूल लगाए थे। वह बड़ी खुश नज़र आ रही थी । कहने लगी, ‘मैंने इतने दिन आप लोगों को तंग किया। आप सब मुझे माफ कर दीजिए । मैं बड़े-बूढ़ों का कहना मानूँगी।' हम लोग सुनकर हैरान रह गए। फिर हमने पूछा, तुम अपने चचेरे भाई के साथ शादी करोगी न? वह चुपचाप सिर झुकाए खड़ी रही। मेरी बीवी ने एकान्त में ले जाकर उससे पूछा, 'क्या हम लड़केवालों के यहां सन्देशा भिजवा दें?' तो वह राज़ी हो गई। हम लोगों ने यह शुभ समाचार बिरादरी को बता दिया और जल्दी ही हमारे घर में शादी का आयोजन होगा। पैसा, कपड़ा, गहना सब तैयार है। कल सुबह मैं बाजेवालों को बुलाकर तय कर लूँगा । ज्योतिषी से मैंने शादी का मुहूर्त भी निकलवा लिया है और उसने कहा है कि ये दिन बड़े शुभ हैं। मैं नहीं चाहता कि इस शादी में क्षण-भर की भी देरी हो ।”
" इस डर से कि लड़की कहीं फैसला न बदल डाले ?” राजू ने पूछा। वह जानता था कि वेलान इतना उतावला क्यों है? इसके उतावलेपन का अनुमान लगाना कठिन नहीं था। लेकिन वेलान प्रशंसा से गद्गद हो उठा और पूछने लगा, “महाराज आपने मेरे दिल की बात कैसे भांप ली ?” राजू खामोश रहा। अजब खतरनाक हालत थी । उसके ज़बान खोलते ही वेलान प्रशंसा से गद्गद हो उठता था। राजू अपनी खिल्ली उड़ाने के मूड में था । उसने तेजी से कहा, “मेरे अनुमान में कोई असाधारण बात नहीं है।” वेलान ने फौरन जवाब दिया, “आपको ऐसा कहना शोभा नहीं देता, महाराज! आप जैसे महान आदमी के लिए यह आसान बात होगी, लेकिन हम जैसे क्षुद्र लोग कभी भी दूसरों के विचारों का अनुमान नहीं लगा सकते।” वेलान का ध्यान दूसरी तरफ हटाने के लिए राजू ने पूछा, “तुम्हें कुछ मालूम है कि दूल्हा क्या सोचता है? क्या वह इस रिश्ते के लिए तैयार है? लड़की की 'न' का उस पर क्या असर पड़ा था?"
"लड़की के राजी होने के बाद मैंने अपने पुरोहित को दूल्हे के पास भेजा था, उसने लौटकर बताया कि लड़का राज़ी है, बीती बातों पर बहस नहीं करना चाहता । जो बीत गया सो बीत गया।"
"सच है, सच है," राजू ने कहा। उसके पास कहने के लिए और कुछ नहीं था, न ही वह ज़्यादा अक्लमन्दी की बात करना चाहता था। आजकल उसे अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से डर लगने लगा था। इसी डर से वह अपनी ज़बान नहीं खोलता था । उसे मौनव्रत की शपथ का ध्यान आया, लेकिन मौन तो और भी ज़्यादा खतरनाक था। अपनी अक्लमन्दी के बावजूद राजू अपनी रक्षा न कर सका। वेलान अपनी समस्याएँ सुलझाने में सफल हो गया। एक दिन वह राजू को अपनी बहन की शादी का निमन्त्रण देने के लिए आया। राजू ने बहुत दलीलें देने के बाद किसी तरह अपना पिण्ड छुड़ाया। वेलान रेशमी कपड़ों से ढंकी हुई बड़ी-बड़ी थालियों में राजू के लिए फल लेकर आया था। राजू ने सोचा कि वह टूरिस्टों को कोई प्राचीन महल या हॉल दिखाते वक्त यह दृश्य प्रस्तुत करेगा ।
"वह लड़की की शादी में नहीं गया। वह नहीं चाहता था कि लोग उसे भीड़-भाड़ में देखें या उसके इर्द-गिर्द लोग यह देखने के लिए जमा हों कि जिद्दी लड़की का स्वभाव बदलने वाला व्यक्ति कैसा है। लेकिन अलग रहने से भी कोई लाभ नहीं हुआ। वह जानता था कि अगर वह शादी में न गया तो शादीवाले ज़रूर उसके पास आएँगे। देखते-देखते वेलान दूल्हा-दुल्हिन और रिश्तेदारों की भीड़ के साथ मन्दिर में आ गया। मालूम होता था, खुद लड़की ने लोगों से कहा था कि राजू ने उसका उद्धार किया है । " वे किसी से बात नहीं करते, लेकिन उनकी दृष्टि मात्र से ही इन्सान का कायाकल्प हो जाता है।"
"धीरे-धीरे राजू के पास आने वाले लोगों की संख्या बढ़ती गई । दिन-भर खेत में काम करने के बाद वेलान आकर घाट की निचली सीढ़ी पर बैठ जाता था। अगर राजू कुछ कहता था तो वेलान चुपचाप सुनता रहता था, वरना वह राजू के मौन को भी कृतज्ञभाव से स्वीकार करता था । अंधेरा होने पर वह चुपके से उठकर चला जाता था । धीरे-धीरे राजू के पास कुछ लोग नियमित रूप से आने लगे। राजू ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया, न ही वह उनसे पूछ सकता था कि वे कौन हैं? घाट सार्वजनिक स्थान था और खुद राजू ने जबर्दस्ती वहाँ कब्ज़ा किया था। लोग आकर घाट की सीढ़ी पर बैठ जाते और लगातार राजू की तरफ देखते रहते। राजू को कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं थी । वह एक ही जगह बैठकर नदी की तरफ, परले किनारे की तरफ देखता रहता और यह सोचने की कोशिश करता कि अब उसे कहाँ जाना चाहिए और आगे क्या करना चाहिए। लोग इस डर से कि कहीं राजू की शान्ति में विघ्न न पड़े, खामोश रहते थे। ऐसे मौकों पर राजू को बड़ी बेचैनी होने लगती थी और वह सोचता था कि उन लोगों से जान छुड़ाने का कोई तरीका निकल सकता है या नहीं। दिन-भर करीब-करीब वह अकेला रहता था, लेकिन अपना काम खत्म करने के बाद शाम को गाँव के लोग वहाँ आ जाते थे।
"एक दिन शाम को लोगों के आने से पहले ही वह मन्दिर के पिछवाड़े लाल फूलोंवाली एक झाड़ी के पीछे छिपकर बैठ गया। घाट की सीढ़ियों पर से लोगों की आवाजें सुनाई दे रही थीं। वे दबे स्वर में बातें कर रहे थे। लोगों ने मन्दिर की परिक्रमा की, फिर वे झाड़ी के नज़दीक से गुज़रे। राजू एक आक्रान्त पशु की तरह दुबककर बैठा था और उसका दिल ज़ोर से धड़क रहा था । वह सांस रोककर वहीं बैठा रहा। उसने सोचा कि लोगों ने अगर उसे वहाँ देख लिया तो वह कहेगा कि वह वहाँ समाधि लगाकर बैठा था, क्योंकि झाड़ी के नीचे उसे मन को एकाग्र करने में सुविधा होती है। खुशकिस्मती से उनकी दृष्टि राजू पर नहीं पड़ी। वे झाड़ी की ओट में खड़े होकर दबे स्वर में बातें करने लगे। एक ने पूछा, "आखिर वे कहाँ गए ?"
"वे महान व्यक्ति हैं । कहीं भी जा सकते हैं। उन्हें हजारों काम हो सकते हैं।"
"ओह, तुम नहीं जानते। उन्होंने संसार त्याग दिया है। चिन्तन के सिवा उन्हें और काम नहीं है। कितने दुःख की बात है कि वे आज यहाँ नहीं हैं।"
' “आह, उनके सामने कुछ मिनट बैठने से ही हमारे परिवार में कितना परिवर्तन आ गया, जानते हो? कल रात मेरे चचेरे भाई ने आकर वह प्रॉमिसरी नोट मुझे लौटा दिया। जब तक वह नोट उसके पास था, मुझे लगता था जैसे अपनी गर्दन कटवाने के लिए मैंने खुद उसके हाथों में छुरा पकड़ा दिया था ।"
" अब हमें किसी बात से डरने की ज़रूरत नहीं है। यह हमारा सौभाग्य है कि ये महात्मा हमारे बीच रहने के लिए यहाँ आए हैं।"
"लेकिन आज तो वे गायब हो गए हैं। कहीं हमेशा के लिए तो यहाँ से नहीं चले गए?"
"यह हमारा दुर्भाग्य होगा। उनके कपड़े तो अभी भी मन्दिर की ड्योढ़ी में रखे हैं । "
" उन्हें कोई डर नहीं है । कल मैं जो खाना लाया था, उन्होंने खा लिया ।"
' “इस वक्त तुम जो चीजें लाए हो, वहीं रख दो। बाहर घूमकर जब वे यहाँ लौटेंगे, तब उन्हें जरूर भूख लगेगी ।"
"राजू ने मन ही मन उस व्यक्ति की भावना के प्रति कृतज्ञता महसूस की।
" जानते हो, कई बार ये योगी अपनी आत्म-शक्ति के बल पर ही हिमालय की यात्रा कर आते हैं।"
"मेरे ख्याल में वे इस किस्म के योगी नहीं हैं । "
" कौन कह सकता है? इंसान के बाहरी रूप से कई बार हम धोखा खा जाते हैं, " किसी ने कहा। इसके बाद सब लोग जाकर घाट की सीढ़ी पर बैठ गए। राजू को उनकी बातचीत सुनाई देती रही। थोड़ी देर बाद वे वहाँ से चले गए। उनके पैरों से नदी में छप्-छप् की आवाज़ होने लगी। किसी ने कहा, “चलो यहाँ से चलें। कहीं ज़्यादा अँधेरा न हो जाए। सुना है नदी के इस हिस्से में एक बुड्ढा मगर रहता है। इसी जगह मेरे एक परिचित लड़के को टखने पकड़कर मगर ने पानी में खींच लिया था ।"
"फिर क्या हुआ ?"
" दूसरे दिन उसकी लाश निकली।”
"दूर से राजू को उनकी आवाजें सुनाई दे रही थीं । उसने झाड़ी के कोने से झाँककर देखा, नदी के पार उनकी धुंधली आकृतियाँ अभी भी दिखाई दे रही थीं । उनके ओझल हो जाने तक वह वहीं बैठा रहा । फिर भीतर जाकर उसने लालटेन जलाई । उसे भूख लग रही थी । वे लोग एक पुरानी प्रस्तर मूर्ति के सामने खाने की चीजें केले के पत्ते में लपेटकर रख गए थे। राजू का मन कृतज्ञता से भर उठा, और वह मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि कहीं वेलान यह न सोचने लगे कि राजू भूख-प्यास से ऊपर है और केवल हवा खाकर ही ज़िन्दा रह सकता है।
"अगले दिन नित्य कर्म से निवृत्त होकर उसने नदी में कपड़े धोए और चूल्हा जलाकर कॉफी बनाई। इस समय उसके मन में कोई परेशानी नहीं थी। अपने भविष्य के बारे में उसे आज ही फैसला करना था । या तो वह अपने शहर को वापस चला जाए, जहाँ कुछ दिनों तक लोग उसकी तरफ घूर घूरकर देखेंगे और मुँह बिचकाकर उस पर हँसेंगे, या फिर वह कहीं और जाकर रहे। लेकिन वह जा कहाँ सकता था ! उसने कठिन परिश्रम करके अपनी जीविका कमाने की आदत नहीं डाली थी । उसे अब बिना माँगे ही खाना मिल जाता था । अगर वह कहीं और चला जाए तो भला कौन उसे इस तरह खाना पहुँचाया करेगा। दुनिया में सिर्फ एक ही और ऐसी जगह थी जहाँ उसे इसी तरह खाना मिल सकता था, और वह जगह थी जेल । अब वह कहाँ जा सकता था? कहीं नहीं। दूर पहाड़ियों के ढलानों पर चरती हुई गायों ने इस जगह के वातावरण में एक अलौकिक शान्ति भर दी थी। राजू को अहसास हुआ कि अब वेलान द्वारा दी गई भूमिका को स्वीकार करने के अलावा उसके सामने कोई चारा नहीं था ।
"इस फैसले के बाद वह शाम को वेलान और उसके दोस्तों से मिलने की तैयारी करने लगा । वह हमेशा की तरह शान्त और आनन्दमयी मुद्रा में पत्थर की शिला पर बैठ गया । दरअसल उसे परेशानी इस बात की थी कि कहीं उसके मुँह से निकले हर शब्द को लोग चमत्कारपूर्ण न समझने लगें । इसलिए सतर्क होकर उसने मौन धारण करना शुरू कर दिया था। लेकिन अब वह डर दूर हो गया था । उसने तय किया कि वह अपनी भाव-भंगिमा को भरसक चमत्कारपूर्ण बनाने की कोशिश करेगा। अपनी ज़बान से विचारों के मोती बिखेरेगा। चेहरे को तेजस्वी बनाने की कोशिश करेगा और बिना किसी संकोच के लोगों का आध्यात्मिक मार्ग-प्रदर्शन करेगा। इस अभिनय को और भी चमत्कारपूर्ण बनाने के लिए उसने मंच की सज्जा पर पूरा ध्यान दिया । इस उद्देश्य से वह सिल को मन्दिर के भीतरी भाग में ले गया । इससे पृष्ठभूमि अधिक प्रभावशाली बन गई । वेलान और दूसरे लोगों के आने के समय वह भीतर जाकर बैठ गया और बेचैनी से उनका इन्तजार करने लगा । सूर्य अस्त हो रहा था, दीवार पर गुलाबी लालिमा छा गई थी और नारियल के पेड़ों की फुनगियाँ रक्तिम हो उठी थीं। रात को खामोश होने से पहले पक्षियों के स्वर आकाश में गूँज रहे थे । अँधेरा छा गया था। लेकिन वेलान या किसी दूसरे आदमी का वहाँ नामोनिशान नहीं था। उस रात वे लोग नहीं आए। राजू को भूखा रहना पड़ा। यह उसकी मुख्य परेशानी नहीं थी, अभी भी उसके पास कुछ केले बचे थे। मान लो अगर वे लोग कभी न आएं? तब क्या होगा ? राजू घबरा उठा। रात-भर वह चिन्तामग्न रहा। उसके पुराने डर फिर लौट आए। शहर लौटने पर उसे अपना बन्धक रखा मकान छुड़वाना पड़ेगा। अपने घर में रहने की जगह पाने के लिए या तो उसे लड़ाई करनी पड़ेगी या घर छुड़वाने के लिए नकद रुपयों का बन्दोबस्त करना पड़ेगा ।
"वह मन ही मन सोचने लगा कि क्या वह नदी पार करके गाँव में जाकर वेलान को तलाश करे। लेकिन यह कोई शालीन बात नहीं थी। हो सकता है लोग उसे घटिया आदमी समझने लगें और उसकी तरफ से लापरवाह हो जाएं।
"सुबह नदी के उस पार एक लड़का भेड़ें चराता हुआ दिखाई दिया। राजू ने ताली बजाकर आवाज़ दी, “इधर आओ।" वह घाट की सीढ़ियों से उतरकर ज़ोर से चिल्लाया, “ओ लड़के, मैं इस मन्दिर का नया पुजारी हूँ । यहाँ आ, तुझे मैं एक केला दूँगा । इधर देख !” उसने हाथ हिलाकर केला लड़के को दिखाया। वह सोच रहा था, शायद यह जोखिमवाला काम है। उसके पास बस सिर्फ यही केला बच रहा था। हो सकता है लड़के के साथ-साथ
"यह केला भी चला जाए। वेलान को यह पता ही नहीं चलेगा कि राजू को उसकी कितनी सख्त जरूरत है। राजू भूख से तड़पकर मर जाएगा और फिर एक दिन लोगों को धूप में पड़ी हुई उसकी सफेद हड्डियाँ मिलेंगी, जो आसपास के खण्डहरों में खो जाएंगी। लड़के ने राजू की आवाज़ सुन ली और वह नदी पार करके राजू के पास आ गया। वह नाटे कद का लड़का था और वह कानों तक भीग गया था। राजू ने कहा, “लड़के, अपनी पगड़ी उतारकर बदन सुखा ले।"
"मुझे पानी से डर नहीं लगता,” लड़के ने कहा ।
' “लेकिन इतना ज़्यादा भीगना तुम्हारे लिए अच्छा नहीं ।"
"लड़के ने केले के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, “मैं तैर सकता हूँ। हमेशा तैर सकता हूँ ।"
' “लेकिन मैंने तुम्हें यहाँ पहले कभी नहीं देखा,” राजू ने कहा ।
' “मैं इस तरफ नहीं आता, आगे जाकर तैरा करता हूँ ।"
"इधर क्यों नहीं आते?"
' “यहाँ एक घड़ियाल रहता है।"
" लेकिन मैंने तो यहाँ कोई घड़ियाल नहीं देखा ।"
" किसी दिन देख लोगे । मेरी भेड़ें वहाँ सामने चरती रहती हैं। मैं यहाँ किसी आदमी को देखने के लिए आया था।"
"क्यों?"
"मेरे चाचा ने मुझे भेजा था और कहा था, "उस मन्दिर के सामने भेड़ें हाँककर ले जाना और देखना वहाँ कोई आदमी है या नहीं। इसीलिए मैं आज यहाँ आया था । "
"राजू ने लड़के को केला देते हुए कहा, “अपने चाचा से जाकर कहना कि वह आदमी लौट आया है, और उसने सन्देश दिया है कि तुम्हारे चाचा शाम के वक्त यहाँ ज़रूर आएँ।”
"राजू ने उस लड़के के चाचा के बारे में पूछताछ नहीं की। वह चाहे कोई भी हो, राजू उसका स्वागत करेगा। लड़का छिलका उतारकर सारा केला एक साथ खा गया और फिर छिलका भी चबाने लगा। राजू ने पूछा, “तुम छिलका क्यों खा रहे हो? बीमार पड़ जाओगे ।"
"नहीं, नहीं पड़ूँगा”, लड़के ने जवाब दिया। वह मज़बूत इरादे का लड़का मालूम होता था, जिसे मालूम था कि वह क्या चाहता है ।
"राजू ने अस्पष्ट सलाह दी, "तुम ज़रूर अच्छे लड़के होगे। अब जाओ, और जाकर अपने चाचा से कह देना- "
"लड़का चला गया और जाते-जाते राजू को सावधान कर गया, “मेरे आने तक ज़रा इन भेड़ों का ध्यान रखना।" उसने नदी के दूसरे किनारे की तरफ संकेत किया।
गाइड : अध्याय 3
एक दिन सुबह इमली के पेड़ से दूर स्टेशन की इमारत तैयार हो गई। फौलाद की पटरियाँ धूप में चमकने लगीं। लाल और हरी बत्तियों वाले सिगनल खड़े हो गए; और हमारी दुनिया दो हिस्सों में बँट गई, एक हिस्सा स्टेशन के इस तरफ था, और दूसरा स्टेशन के दूसरी तरफ । सारी तैयारियाँ मुकम्मल हो गई थीं। फुर्सत के वक्त हम लोग आधी मील दूर पुलिया तक रेलवे लाइन के साथ-साथ चलते, और अपने स्टेशन के प्लेटफार्म पर चहलकदमी करते। स्टेशन के अहाते में गुलमोहर का एक पौधा लगाया गया था । हम लोग बरामदे में जाकर स्टेशनमास्टर के कमरे में झाँककर देखते ।
"'एक दिन हम सब लोगों को छुट्टी दी गई। लोग कह रहे थे, “आज हमारे शहर में ट्रेन आएगी।” स्टेशन को झंडियों और बन्दनवारों से सजाया गया था। शहनाई और बैण्ड बाजे बज रहे थे। रेल की पटरियों पर नारियल फोड़े जा रहे थे। इसी वक्त भक भक करता हुआ एक इंजन आया, जिसके पीछे दो डिब्बे लगे थे। शहर के बहुत-से बड़े-बड़े लोग वहाँ मौजूद थे। कलक्टर, पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट, म्युनिसपल कमेटी का चेयरमैन और हाथों में हरे रंग के निमन्त्रण-पत्र लिए स्थानीय व्यापारी भी इकट्ठे थे । प्लेटफार्म पर पुलिस का पहरा था और जनता को भीतर जाने की इजाज़त नहीं थी। मुझे लगा कि मेरे साथ धोखा किया गया है। मुझे इस बात का गुस्सा था कि कैसे कोई मुझे प्लेटफार्म पर जाने से रोक सकता था। प्लेटफार्म के सबसे परंले सिरे की रेलिंग में से निकलकर मैं भी इंजन का स्वागत करने वालों की भीड़ में शामिल हो गया । शायद मैं इतना छोटा था कि मेरी तरफ किसी का ध्यान न गया। बरामदे में मेजें सजाई गई थीं जिनके गिर्द बैठे अफसर लोग जलपान कर रहे थे। इसके बाद कुछ लोगों ने खड़े होकर लेक्चर दिया। पूरे लेक्चर में सिर्फ 'मालगाड़ी' शब्द मेरे पल्ले पड़ रहा था । लेक्चर खत्म होने पर लोगों ने तालियाँ बजाई, बैण्ड बजने लगा, इंजन ने सीटी मारी, स्टेशन की घंटी बजने लगी, गार्ड ने सीटी बजाई और जलपान करने वाले लोग जाकर ट्रेन में बैठ गए। मैं भी उनके पीछे जाना चाहता था, लेकिन पुलिसवालों ने मुझे रोक दिया। ट्रेन चलने लगी और जल्दी ही आँखों से ओझल हो गई। बाहर खड़ी भीड़ को अब प्लेटफार्म पर आने की इजाजत मिल गई। उस दिन मेरे पिता की दुकान पर इतनी बिक्री हुई, जितनी पहले कभी नहीं हुई थी। हमारे घर के ऐन सामने स्टेशन के पिछवाड़े बने पत्थर के एक छोटे से मकान में जब स्टेशन मास्टर और एक खलासी आकर रहने लगे, उस वक्त तक मेरे पिता इतने सम्पन्न हो गए थे कि उन्होंने शहर से सामान खरीदकर लाने के लिए एक तांगा और घोड़ा खरीद लिया था। मेरी माँ ने रत्ती भर उत्साह नहीं दिखाया । वे बोलीं, “दो भैंसों को सम्भालना तो मुश्किल हो रहा है, फिर तुमने यह नई इल्लत क्यों पाल ली ? घोड़ा लिया है तो उसके लिए दाने का भी बन्दोबस्त करना पड़ेगा।' पिता ने माँ की बात का ब्योरेवार जवाब नहीं दिया। उन्होंने सिर्फ इतना कहा, “तुम्हें इन बातों का कुछ पता नहीं। मुझे रोज शहर में इतना काम रहता है और अकसर बैंक भी जाना पड़ता है।” उन्होंने 'बैंक' शब्द पर गर्व से ज़ोर दिया, लेकिन मेरी माँ पर इसका कोई असर न पड़ा ।
"'अब हमारे अहाते में छप्पर डालकर एक अस्तबल बनाया गया, जिसमें कत्थई रंग का घोड़ा बाँधा जाता था । उसकी देखभाल के लिए मेरे पिता कहीं से एक साईस भी ले आए थे। घोड़ा-तांगा आने के बाद से सारे शहर में हमारी चर्चा होने लगी थी, लेकिन मेरी माँ इससे कभी खुश नहीं हुई । वह इसे मेरे पिता के असाधारण अहंकार का प्रदर्शन समझती थी और पिता के समझाने का उन पर कोई असर नहीं होता था । माँ का ख्याल था कि दरअसल मेरे पिता को इतना काम-काज नहीं रहता। जब भी पिता घर रहते और तांगा बेकार खड़ा रहता तो माँ उन्हें जली-कटी सुनातीं । शायद माँ चाहती थीं कि मेरे पिता हर वक्त तांगे में बैठकर गलियों के चक्कर काटते रहें। शहर में उन्हें मुश्किल से एक घंटे का काम होता था और वे ठीक वक्त पर आकर दुकान चलाते थे। तब पिताजी दिन में कई घंटों तक दुकान को एक दोस्त की देखभाल में छोड़ दिया करते थे । मेरा ख्याल है कि माँ की जली-कटी बातों का उनपर असर होने लगा था, क्योंकि उनका गुस्सा कम हो गया और जब भी तांगा और घोड़ा इमली के पेड़ तले बेकार खड़े रहते या पिताजी देर से घर लौटते तो वे क्षमा-याचना करने लगते। वे अकसर माँ से कहते, “तुम चाहो तो तांगा लेकर बाज़ार चली जाओ।" लेकिन माँ इन्कार कर देतीं । “रोज मुझे कहाँ जाना होता है ? हो सकता है तुम्हारे तांगे में बैठकर मैं किसी शुक्रवार को मन्दिर जाऊँ, लेकिन क्या मन्दिर जाने के लिए साल भर इतना खर्च बाँधना ठीक है? जानते हो, घास और चने का कितना खर्च है ?" माँ के लगातार विरोध से तंग आकर पिता ने घोड़ा बेचने की बात पर गम्भीरतापूर्वक सोचा और उन्हें एक 'विलक्षण' तरकीब सूझी। वे तांगा तुड़वाकर स्प्रिंगदार बैलगाड़ी बनवाना चाहते थे। बाज़ार के फाटक के पास बैठने वाले लुहार ने ऐसी बैलगाड़ी बनाने का वायदा किया था।
"‘साईस ने इस विचार का मज़ाक उड़ाते हुए मेरे पिताजी को यह यकीन दिलाने की कोशिश की कि लुहार तांगे को मेज-कुर्सी बनाकर छोड़ देगा जो सिर्फ इमली के पेड़ त रखने के काबिल होगा। " इसी तरह कोई घोड़े को बैल में बदलने का वादा भी कर सकता है।" फिर उसने एक ऐसा सुझाव दिया जो मेरे पिता की व्यावसायिक बुद्धि को बहुत अच्छा लगा । "मैं भाड़े पर इस तांगे को बाज़ार में चलाऊँगा । घोड़े की घास और चनों का खर्चा मेरे जिम्मे रहा। मैं रोज़ आकर आपको दो रुपये दे दिया करूँगा । आप सिर्फ मुझे अपना शेड इस्तेमाल करने दीजिए, शेड का किराया मैं एक रुपया महीने के हिसाब से दे दिया करूँगा और दो रुपये से ज़्यादा जितनी आमदनी होगी वह मेरी होगी।" यह बड़ा मज़ेदार सुझाव था। मेरे पिता को जिस वक्त भी ज़रूरत पड़ती, तांगा मिल जाता, बिना किसी झंझट के रोज़ किराया भी मिल जाता था। धीरे-धीरे तांगेवाले ने आकर सवारियाँ न मिलने का रोना शुरू किया। हमारे घर के सामने, सांझ के झुटपुटे में मेरे पिता तांगेवाले से बहस करते और अपने दो रुपये वसूल करने की कोशिश करते थे । अन्त में मेरी माँ भी झगड़े में हिस्सा लेने लगीं। “इन लोगों पर भरोसा मत करो। आज मेले के दिन भी यह कहता है कि इसने पैसे नहीं बनाए। हम इसपर कैसे यकीन कर सकते हैं?” मेरी माँ को यकीन था कि तांगेवाला अपनी कमाई शराब में फूँक डालता है। मेरे पिता तपाक से कहते, “शराब पीता है तो हमें क्या? हमें इस बात से कोई सरोकार नहीं।" हर रोज यही काण्ड होता था। रात के वक्त तांगेवाला इमली के पेड़ तले खड़ा होकर रिरियाता था । साफ जाहिर कि वह हमारे पैसे हड़प रहा था। कुछ दिनों के बाद आकर उसने कहा, “घोड़ा बहुत मरियल हो गया है, उससे अब अच्छी तरह भागा नहीं जाता, उसका दिमाग सही काम नहीं करता । बेहतर होगा कि इस घोड़े को बेचकर हम नया घोड़ा खरीद लें क्योंकि मुसाफिर अब कम किराया देते हैं। उन्हें तकलीफ पहुँचती हैं । पहियों के स्प्रिंग भी बदलवाने होंगे।" वह बार-बार सुझाव देता था कि यह तांगा बेचकर नया तांगा खरीदना चाहिए । जब भी मेरी माँ यह बात सुनती तो आग बबूला होकर चिल्लाने लगतीं कि एक घोड़ा और तांगा खरीदकर ही उन्हें काफी तजुर्बा हो गया है। इन सब बातों से तंग आकर मेरे पिता कहते कि उन्होंने खामखाह इल्लत पाल ली है, तांगेवाले ने कहा कि एक आदमी घोड़े और तांगे के लिए सत्तर रुपये देने को तैयार है। मेरे पिता ने बढ़वाकर कीमत सत्तर से पचहत्तर रुपये करवा ली और अन्त में तांगेवाला नकद रुपये लेकर आ गया और खुद तांगा चलाने लगा। मालूम होता था कि इस काम के लिए उसने हमारे पैसों में से काफी रकम बचा ली थी। खैर, तांगे से छुटकारा पाकर हमें खुशी हुई। तांगेवाले ने बड़ी चालाकी से सौदा किया था, क्योंकि जब रेलगाड़ियाँ नियमित रूप से हमारे स्टेशन पर आने लगीं तो हमने देखा कि हमारा तांगा शहर में सवारियाँ भरकर ले जाता था और तांगेवाले को खूब आमदनी होने लगी थी ।
' “मेरे पिता को रेलवे स्टेशन में दुकान चलाने की इजाजत मिल गई। वह कितनी शानदार दुकान थी! उसका फर्श सीमेण्ट का था और दीवारों में अल्मारियाँ बनी हुई थीं। इस दुकान में इतनी जगह थी कि जब मेरे पिता झोंपड़ी की पुरानी दुकान का सारा सामान वहाँ ले गए तो भी मुश्किल से एक-चौथाई जगह भर सकी। अल्मारियों के इतने ज़्यादा खाने खाली थे कि उन्हें देखकर मेरे पिता उदास हो जाते थे, उन्हें पहली बार यह एहसास हुआ था कि इनका पहला कारोबार कोई खास ज़्यादा बड़ा नहीं था। मेरी माँ भी नई दुकान को देखने आई थीं और बोलीं, “बस इतने से सामान के बूते पर तुम मोटरकार और न जाने क्या-क्या खरीदने चले थे।" मेरे पिता ने कभी भी मोटरकार खरीदने का इरादा नहीं प्रकट किया था, लेकिन उनसे झगड़ा करने में माँ को मज़ा आता था। बापू ने क्षीण स्वर में कहा, "क्यों अब उन पुरानी बातों को बीच में घसीट रही हो?" वे सारी स्थिति पर गौर कर रहे थे। “इस जगह को भरने के लिए मुझे कम से कम पाँच सौ रुपये का सामान खरीदना पड़ेगा ।" बूढ़ा स्टेशन मास्टर, जो सिर पर हरी पगड़ी बाँधे रहता था और चाँदी की कमानीवाला चश्मा पहनता था, दुकान का निरीक्षण करने आया। मेरे पिता ने स्टेशन मास्टर के प्रति आदरपूर्ण रुख अपनाया। उसके पीछे नीली कमीज और पगड़ी पहने कड़िया खलासी खड़ा था। मेरी माँ विनीत भाव से भीतर घर में चली गई ।
"'स्टेशन मास्टर सिर तिरछा करके दूरी से इस तरह दुकान को देखने लगा, जैसे कोई कलाकार किसी कलाकृति को देख रहा हो। वफादार खलासी भी स्टेशन मास्टर की हर बात का समर्थन करने के लिए तैयार हो गया। स्टेशन मास्टर ने कहा, "यह सारी जगह सामान से भर जानी चाहिए, वरना ए. टी. एस. आकर तरह-तरह के सवाल पूछेगा और हमारे सभी मामलों में दखल देगा। तुम्हें यह दुकान दिलाने में बड़ी परेशानी उठानी पड़ी थी...।" मेरे पिता मुझे दुकान में बैठाकर सामान खरीदने के लिए शहर चले गए। स्टेशन मास्टर ने सलाह दी थी, "बहुत ज़्यादा चावल और वैसी चीज़ों की नुमाइश की यहाँ ज़रूरत नहीं है.... दूसरी दुकान में ये चीजें रखी जा सकती हैं? सफर के दौरान मुसाफिर इमली और दालों की माँग नहीं करेंगे,” मेरे पिता ने स्टेशन मास्टर की हिदायतों का पूरी तरह से पालन किया । अब वह मेरे पिता की नज़रों में ईश्वर बन गया था और मेरे पिता खुशी-खुशी उसके हर हुक्म को बजा लाते थे। अब स्टेशनवाली दुकान में कीलों से केलों के बड़े-बड़े गुच्छे लटकने लगे। मेम्पू सन्तरे, बड़े-बड़े बर्तनों में तली चीजें, बोतलों में पिपरमेण्ट की रंगीन गोलियाँ, मिठाइयाँ, डबल- रोटियाँ और बन्ज दिखाई देने लगे। चीज़ों को इतने आकर्षक ढंग से सजाया गया था कि देखते ही भूख लगने लगती थी। अलमारी के बहुत-से खाने सिगरेटों से भरे थे। बापू को हर किस्म के ग्राहक को सन्तुष्ट रखने के लिए पहले से सारा इन्तज़ाम करना पड़ता था। पुरानी झोंपड़ीवाली दुकान पर उन्होंने मुझे बैठा दिया। उनके पुराने ग्राहक अभी भी अपनी आदत के अनुसार वहीं चीजें खरीदने और गपशप करने के लिए आते थे, मैं उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर पाता था। मुकद्दमेबाजी और सिंचाई की बातें सुनकर मैं ऊब जाता था। अभी मेरी उम्र छोटी थी, इसलिए मैं उनकी समस्याओं को और उनके कारोबार की बारीकियों को समझने में असमर्थ था। मैं गुमसुम होकर उनकी बातें सुनता रहता। जल्द ही वे भाँप गए कि मैं उनका साथ नहीं दे सकता। वे मुझे छोड़कर मेरे पिता के पास दूसरी दुकान में चले जाते लेकिन वहाँ भी उनकी मुराद पूरी न होती। नई दुकान उन्हें अजब और फैशनेबल मालूम होती और उन्हें अपनापन महसूस न होता ।
"'कुछ दिनों बाद मेरे पिता विनीत भाव से अपनी पुरानी दुकान पर आकर बैठ गए और उन्होंने मुझे नई दुकान सम्भालने के लिए भेज दिया। जब मलगुड़ी वाला पुल तैयार हो गया, तो हमारी लाइन पर नियमित रूप से गाड़ियाँ आने लगीं। जब स्टेशन मास्टर और नीली कमीज़वाला खलासी दिन में दो-दो गाड़ियों को 'रिसीव' और 'लाइन क्लीयर' देते थे तो देखने में बड़ा मजा आता था। दोपहर की ट्रेन मद्रास से आती थी और शाम की ट्रेन त्रीची से। नई दुकान में मैं बड़ी फुर्ती से काम करता। पाठकों ने अनुमान लगा लिया होगा कि परिवार के कारोबार बढ़ने से मेरी एक आकांक्षा की पूर्ति हुई थी - बिना किसी झंझट के मेरा स्कूल छूट गया था।'
गाइड : अध्याय 4
केले ने चमत्कार दिखाया। लड़के ने घर-घर जाकर खबर दी कि मन्दिर वाला संत लौट आया है । मर्द, औरतों और बच्चों का एक बड़ा-सा दल गाँव से आया। उनकी एक ही ख्वाहिश थी कि वे टकटकी बाँध उसके चेहरे की तेजस्विता को देखते रहें। बच्चे राजू के गिर्द जमा हो गए और आतंकित भाव से उसे देखने लगे। स्थिति सम्भालने के लिए राजू ने कुछ बच्चों के गालों पर चिकोटियाँ काटीं, इधर-उधर की अनर्थक बातें कीं, यहाँ तक कि वह बच्चों से तुतलाकर भी बोला। लड़कों के पास जाकर उसने शहर के बड़े आदमियों के अन्दाज़ में पूछा, “तुम लोग क्या पढ़ते हो?" लेकिन उन लोगों के सामने उस अन्दाज़ की नकल करना मूर्खता थी, क्योंकि लड़के खिलखिलाकर हँस पड़े और एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। फिर उन्होंने बताया, “हमारे लिए कोई स्कूल नहीं है।"
"तुम लोग दिन-भर क्या करते हो?” राजू ने पूछा। दरअसल उसे उन लोगों की समस्याओं में कोई दिलचस्पी नहीं थी। एक बुजुर्ग ने बीच में टोककर कहा, “आम शहरियों की तरह हम लोग अपने बच्चों को स्कूल में नहीं भेज सकते। उन्हें मवेशी चराने पड़ते हैं।" राजू ने ज़बान तालू से सटाकर नापसन्दगी जाहिर की और अपना सर हिलाया। लोग बड़े व्यथित और परेशान नज़र आने लगे। राजू ने रौब से समझाया, "सबसे पहले लड़कों का फर्ज है पढ़ना । इसमें शक नहीं कि उन्हें अपने माँ-बाप की मदद करनी चाहिए लेकिन उन्हें पढ़ाई के लिए भी वक्त निकालना चाहिए..." फिर किसी आकस्मिक प्रेरणा के वशीभूत होकर वह बोला, "अगर इन्हें दिन में पढ़ाई का वक्त नहीं मिलता तो क्यों नहीं वे शाम के वक्त इकट्ठे होकर पढ़ सकते ?”
"कहाँ ?” किसी ने सवाल किया।
"राजू ने मन्दिर के विशाल हाल की तरफ इशारा करते हुए कहा, “यहाँ भी पढ़ाई हो सकती है। आप किसी मास्टर को भी यहाँ बुला सकते हैं। क्या आप लोगों में से कोई स्कूल मास्टर नहीं है?"
' “हाँ हाँ,” बहुत से लोग एक साथ बोल उठे ।
' “उसे मेरे पास भेजिएगा,” राजू ने रौब से आदेश दिया, मानों किसी स्कूल की प्रबन्ध समिति का अध्यक्ष गलती करने वाले किसी छोटे मास्टर को बुलवा रहा हो ।
"अगले दिन दोपहर के वक्त एक दब्बू-सा आदमी, जिसकी पगड़ी के नीचे से सर की चुटिया लहरा रही थी, मन्दिर के हॉल में पेश हुआ। खाना खाकर राजू हॉल के ठण्डे फर्श पर सुस्ता रहा था। एक पुराने खम्भे के पीछे खड़े होकर दब्बू आदमी ने खखारकर अपना गला साफ किया। राजू ने आँखें खोलीं ओर शून्य दृष्टि से उसकी ओर देखा । उस समाज में जहाँ इतने लोग आते-जाते रहते थे, किसी से उसका परिचय पूछने का रिवाज नहीं था । राजू ने बांह हिलाकर उस आदमी को बैठने का इशारा किया और आँखें मूँदकर फिर सुस्ताने लगा। बाद में जब उसकी नींद खुली तो उसने उस आदमी को वहीं अपने पास बैठे देखा ।
' “मैं टीचर हूँ,” उस आदमी ने कहा । उनींदी हालत में राजू के मन में स्कूल मास्टरों के प्रति जो डर था, सहसा जाग उठा । क्षण-भर के लिए वह भूल गया कि उसका बचपन पीछे छूट गया है। वह उठकर बैठ गया। यह देखकर मास्टर को ताज्जुब हुआ ।
"उसने कहा, "उठने का कष्ट न कीजिए, मैं और इन्तजार कर सकता हूँ।”
"कोई बात नहीं,” राजू ने जवाब दिया । उसका सन्तुलन फिर ठीक हो गया था और वह अपने आसपास की परिस्थितियों के प्रति अधिक सचेत हो गया। उसने एक सरपरस्त के अन्दाज़ में पूछा, “अच्छा तो तुम्हीं वह स्कूल मास्टर हो ?”
"क्षण-भर सोचने के बाद उसने फिर सहज भाव से पूछा, “गाँव के क्या हाल-चाल हैं ?"
"मास्टर ने जवाब दिया, “कोई खास बात नहीं हुई । ज़िन्दगी अपने ढर्रे पर चल रही है ।"
' “तुम इस स्थिति से खुश हो ?”
" उससे क्या फर्क पड़ता है? मैं ईमानदारी से भरसक अपना फर्ज़ अदा करने की कोशिश करता हूँ।”
"वरना कोई भी काम करने का क्या फायदा है?" राजू ने पूछा। वह सोचने के लिए वक्त चाहता था। गहरी नींद के बाद अभी उसका दिमाग पूरी तरह से साफ नहीं हुआ था और इस वक्त लड़कों की तालीम उसकी दृष्टि में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं थी ।
"उसने कहा, "खैर जो भी हो, फर्ज तो..."
' “मैं भरसक कोशिश करता हूँ," मास्टर ने बचाव के लिए कहा। वह अपनी कमज़ोरी जाहिर नहीं करना चाहता था । आधा घण्टे की बातचीत के बाद मास्टर ने खुद स्थिति को साफ करते हुए कहा, “लगता है कि आप ही ने यह सुझाव दिया है कि लड़कों को रात के वक्त यहाँ इकट्ठा करके पढ़ाना चाहिए।"
' “ओह! हैं! हाँ, मैंने यह बात कही तो थी लेकिन इस मामले में फैसला सिर्फ तुम्हीं को लेना चाहिए। जो भी हो, स्वयं अपनी सहायता करना सबसे अच्छी बात है। मैं आज यहाँ हूँ, हो सकता है कि कल मैं यहाँ से चला जाऊँ। यह काम तुम्हीं को करना है । मेरा मतलब है कि अगर तुम्हें स्कूल के लिए जगह की ज़रूरत हो तो तुम इस जगह का इस्तेमाल कर सकते हो ।” राजू ने इस तरह हाथ हिलाया मानो वह ग्रामवासियों को कोई उपहार दे रहा हो ।
"क्षण भर के लिए मास्टर किसी सोच में पड़ गया और बोला, “लेकिन मुझे पक्की तरह मालूम नहीं..."
"अचानक राजू ने पक्का फैसला कर लिया और उसने रौब से दलीलें देनी शुरू कर दीं, "मैं लड़कों को साक्षर और अक्लमन्द देखना चाहता हूँ।” फिर उसने जोश से कहा, " हर आदमी को सुखी और अक्लमन्द बनाना हमारा फर्ज़ है । "
"इस परोपकारिता का मास्टर पर बहुत असर पड़ा। उसने कहा, “आपके निर्देशन में मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूँ।” राजू ने इस स्थिति को स्वीकार करते हुए कहा, "मैं तो माध्यम मात्र हूँ । निर्देशन करने वाला तो ईश्वर है । "
"इस मुलाकात के फलस्वरूप मास्टर में एक अद्भुत परिवर्तन आ गया। अगले दिन वह एक दर्जन बच्चों को लेकर खम्भों वाले हॉल में पहुँचा। बच्चों के माथों पर तिलक लगे थे और रात की खामोशी में उनकी स्लेटों की खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी। मास्टर उन्हें लेक्चर दे रहा था और राजू चबूतरे पर बैठा कृपालु दृष्टि से उन्हें देख रहा था । मास्टर इस बात पर शर्मिन्दा था कि वह सिर्फ एक दर्जन लड़कों को ही जुटा पाया था । "इन्हें अँधेरे में नदी पार करने से डर लगता है। इन्होंने घड़ियाल के बारे में सुन रखा है।"
"राजू ने रौब से कहा, "अगर मन स्वच्छ है और अन्तरात्मा शुद्ध है तो घड़ियाल तुम्हारा क्या बिगाड़ सकता है?” यह एक अद्भुत भावना थी। उसे आश्चर्य था कि उसके भीतर से कितनी बुद्धिमत्ता की बातें निकल रही थीं। उसने मास्टर से कहा, “इस बात पर निराश होने की ज़रूरत नहीं कि तुम सिर्फ एक दर्जन बच्चे जुटा पाए हो। अगर तुम सच्चे दिल से इन्हें पढ़ाओगे, तो समझ लो कि तुमने सौ गुना ज़्यादा बच्चों को पढ़ा दिया है ।" मास्टर ने कहा, "अगर आप गलत न समझें तो मैं एक बात कहूँ। क्या आप कभी-कभी इन बच्चों के सामने भाषण देंगे ?” अब राजू को बच्चों के सामने जीवन और शाश्वतता के विषय में अपने विचार रखने का मौका मिल गया। उसने उन्हें दिव्यता, स्वच्छता, रामायण और महाकाव्यों के पात्रों के विषय में बताया और सब प्रकार की बातें कीं। वह अपनी आवाज़ से सम्मोहित हो गया था। टिमटिमाती रोशनी में बच्चों के ऊपर उठे चेहरों को देखकर उसे लगा कि उसका आकार बढ़ता जा रहा है। इस दृश्य की भव्यता ने सबसे अधिक राजू को प्रभावित किया था ।
"'अतीत पर गौर करने से मुझे विश्वास हो गया है कि आखिरकार मैं बुद्ध बिल्कुल नहीं था। मुझे लगता है कि हम अपनी अक्लमन्दी का सही अनुमान नहीं लगा पाते। मुझे याद है, किस तरह मैं अपने मन को तैयार कर रहा था। स्टेशन की दुकान पर काम करते वक्त मैंने बहुत-सी अच्छी पुस्तकें पढ़ी थीं, मैं रोटी और सोडावाटर बेचा करता था। कई बार स्कूल के बच्चे अपनी किताबें बेचने के लिए मेरे पास आया करते थे। मेरे पिता अपनी दुकान को बहुत बड़ा समझते थे, लेकिन मैं उनके साथ सहमत नहीं था। रोटी, बिस्कुट के बदले में पैसे लेना मुझे बड़ा साधारण और फालतू काम मालूम होता था। मुझे हमेशा यह महसूस होता था कि मैं किसी बेहतर काम के लिए बना हूँ... ।
"'उसी साल बरसात के मौसम में मेरे पिताजी चल बसे। उनकी मौत अचानक ही आ गई थी। वे रात को देर तक झोंपड़ीवाली दुकान में बिक्री और अपने दोस्तों से बातचीत करते रहे थे। फिर नकदी गिनने के बाद वे घर आए। चावल और दही खाकर सो गए, उसके बाद वे नहीं उठे ।
"'मेरी माँ ने वैधव्य के अनुकूल अपने को ढाल लिया । पिताजी काफी पैसा छोड़ गए थे, जिससे आसानी से गुजारा हो सकता था। मैं अब ज्यादा वक्त माँ की देखभाल में लगाता था। माँ की रजामन्दी से मैंने झोंपड़ेवाली दुकान बन्द कर दी और स्टेशन की दुकान को नये ढंग से चलाने लगा। मैं पुराने अखबार और पत्रिकाएँ रखने लगा, और स्कूलों की किताबें खरीदने और बेचने लगा। मेरे ग्राहकों की संख्या अधिक नहीं थी लेकिन ट्रेन में सफर करने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने लगी थी । साढ़े दसवाली लोकल गाड़ी में अल्बर्ट मिशन कॉलेज जाने वाले नौजवान भरे रहते थे। यह कॉलेज मलगुड़ी में हाल ही में खुला था। मुझे लोगों से बातें करने का, और उनकी बातें सुनने का शौक था। मुझे ऐसे ग्राहक पसन्द थे जो सिर्फ केला खाने के लिए मुँह नहीं खोलते थे, बल्कि फसलों, कीमतों और मुकद्दमेबाज़ी के सिवा किसी भी विषय पर बातचीत कर सकते थे। पिताजी की मृत्यु के बाद एक-एक करके उनके पुराने दोस्त अदृश्य हो गए, क्योंकि कोई उनकी बात सुनने वाला नहीं था ।
"'ट्रेनों का इन्तजार करने वाले विद्यार्थी मेरी दुकान पर इकट्ठे होते थे। धीरे-धीरे नारियल के ढेर की जगह किताबें इकट्ठी होती गईं। लोग पुरानी और चुराई हुई चीजें, हर किस्म की छपी हुई चीजें मेरे पास लाकर पटक देते थे। मैं सौदेबाज़ी में पक्का था। खरीदते वक्त उदासीनता का अभिनय करता था और बेचते वक्त बहुत सतर्कता से काम लेता था । कायदे के मुताबिक तो यह गलत कार्य था, लेकिन स्टेशन मास्टर हमारे परिवार का मित्र था । वह और उसके बच्चे मेरी दुकान से बेहिसाब चीजें उधार पर ले जाते थे और पढ़ने की सामग्री भी वह मेरी दुकान से मँगवाता था। सौदा लपेटने के लिए पुराने कागज़ की तलाश करते-करते मैंने किताबें बेचनी शुरू कर दी थी; मुझे यह सख्त नापसन्द था कि लोग हाथ में चीजें उठाकर ले जाएं। मैं चीज़ों को अच्छी तरह लपेटकर देना चाहता था। लेकिन जब तक मेरे पिताजी का रौब - दाब था, वे कहा करते थे, “अगर कोई अपने साथ कागज़ लाता है तो बेशक चीजें लपेटकर ले जाए, मैं तो उसकी चीजें लपेटने से रहा । इतना कम मुनाफा होता है कि हम कागज़ का खर्च नहीं उठा सकते, अगर किसी को तेल की ज़रूरत होती है तो वह अपना बर्तन साथ लाए, क्या बर्तन देना भी हमारा जिम्मा है ?" पिताजी के इस दर्शन को देखते हुए हमारी दुकान में कागज़ की चिप्पी मिलना भी मुश्किल था । पिता की मृत्यु के बाद मैंने नई नीति अपनाई । मैंने दूर-दूर तक यह प्रचार किया कि मुझे रद्दी कागज़ और किताबों की ज़रूरत है। जल्द ही दुकान पर कागज़ों का ढेर लग गया। फुर्सत के वक्त मैं कागज़ों को तरतीब से छाँटता था। जब ट्रेनों का वक्त नहीं रहता था और प्लेटफार्म पर खामोशी छा जाती थी, तो मैं किस्म-किस्म की किताबों के बण्डल खोलकर आराम से बैठकर पढ़ने लगता था और बीच-बीच में खेत में उगे इमली के विशाल पेड़ को देखने लगता था । कुछ किताबें मुझे दिलचस्प मालूम होती थीं, कुछ को पढ़कर मैं उकता जाता था और कुछ को पढ़कर मैं घबरा जाता था और अपनी जगह पर बैठे-बैठे सो जाता था। मुझे ऐसी किताबें पसन्द थी जिनसे मन में नेक विचार पैदा होते थे, या जिनमें आकर्षित करने वाला जीवन-दर्शन रहता था। मैं प्राचीन मन्दिरों, खण्डहरों, नई इमारतों, जंगी जहाजों, सिपाहियों और खूबसूरत लड़कियों की तस्वीरों को देखता था, जिनके विचार हर वक्त मेरे दिल में मण्डराते रहते थे रद्दी कागज़ों से मैंने बहुत कुछ सीखा।'
"राजू का भाषण सुनकर बच्चे मन्त्रमुग्ध हो गए थे (यहाँ तक कि मास्टर भी आश्चर्य से मुँह बाए बैठा था । घर जाकर बच्चों ने वो आश्चर्यजनक बातें अपने माँ-बाप को बताईं जो उन्होंने राजू से सुनी थी। वे अगले दिन फिर वहाँ आकर राजू का भाषण सुनने के लिए बेचैन थे। जल्द ही बच्चों के माँ-बाप भी बच्चों के साथ आने लगे और उन्होंने क्षमायाचना के स्वर में कहा, “महाराज, बच्चे रात को देर से लौटते हैं, खासतौर पर नदी पार करने में इन्हें डर लगता है..."
"राजू ने कहा, “बहुत खूब! बहुत खूब ! मैं खुद आपलोगों को यही सुझाव देने वाला था। मुझे खुशी है कि आप लोगों ने इस बात को सोचा। कोई हर्ज नहीं, अगर आप भी अपना मुँह बन्द रखें और कान खुले रखें। आपका भला होगा।" राजू को अक्लमन्दी से भरी यह कहावत सूझी।
"बहुत-से लोग राजू को घेरकर बैठ गए। बच्चे बैठे राजू का मुँह ताक रहे थे। मास्टर भी बैठा राजू की तरफ देख रहा था। गाँववाले अपने साथ लालटेनें लाए थे, जिनकी रौशनी से खम्भोंवाला हॉल जगमगा उठा था। मालूम होता था वहाँ कोई भारी सभा होने वाली थी। राजू ने महसूस किया कि वह रंगमंच का अभिनेता है, दर्शक उसका इन्तज़ार कर रहे हैं। लेकिन उसके पास बोलने के लिए न कोई पंक्तियाँ हैं न मुद्राएँ हैं। उसने मास्टर से कहा, "तुम बच्चों को कोने में ले जाकर पढ़ाओ। एक लालटेन अपने साथ लेते जाओ।" वह सोच रहा था कि वह अजनबी लड़कों के बारे में हुक्म दे रहा है, जबकि मास्टर यह हुक्म मानने के लिए बाध्य नहीं है। वह ऐसे लम्प की तरफ इशारा कर रहा था जो उसकी निजी सम्पत्ति नहीं थी। मास्टर तो हुक्म मानने के लिए तैयार था, लेकिन लड़के वहीं डटे रहे। राजू ने कहा, “पहले जाकर पढ़ाई करो, फिर मैं आकर तुम लोगों से बातें करूँगा। अभी मैं तुम्हारे बुजुर्गों से कुछ कहना चाहता हूँ। इन बातों में तुम्हें कोई दिलचस्पी नहीं होगी।" बच्चे उठ खड़े हुए और हॉल के कोने में चले गए । वेलान ने साहस बाँधकर कहा, "महाराज, हमें कोई उपदेश दीजिए।" राजू उसकी बात की तरफ ध्यान दिए बगैर चिन्तन की मुद्रा में बैठ गया । वेलान ने कहा, "हम आपकी सद्बुद्धि का लाभ उठाना चाहते हैं।" बाकी लोगों ने भी वेलान का समर्थन किया। राजू उनकी पकड़ में आ गया और सोचने लगा कि ये लोग जिस भूमिका की मुझसे आशा करते हैं, वह मुझे अदा करनी ही पड़ेगी। अब बचने का कोई रास्ता नहीं है । वह सर खपाकर सोचने लगा कि किस प्रसंग से बात शुरू करे । क्या वह मलगुड़ी के दर्शनीय स्थानों के बारे में बात करे या कोई नैतिक उपदेश दे या बताए कि किसी जमाने में अमुक अच्छे या बुरे व्यक्ति ने अमुक काम करते समय असफलता से व्यग्र होकर ईश्वर से प्रार्थना की इत्यादि, इत्यादि । वह ऊबने लगा था। लगता था, अब वह केवल जेलखाने की ज़िन्दगी और उसके फायदों के बारे में ही अधिकारपूर्वक बातचीत कर सकता था। खास तौर पर ऐसे व्यक्ति के लिए यह विषय सर्वथा अनुकूल था, जिसे लोग गलती से साधु-महात्मा समझ बैठे थे। सब लोग आदरपूर्वक राजू की प्रेरणा की प्रतीक्ष कर रहे थे। उसके जी में आया कि चिल्लाकर कहे, 'अबे बेवकूफो, मुझे अकेला क्यों नहीं छोड़ते? अगर मेरे लिए खाना लाए हो, तो धन्यवाद, खाना यहीं छोड़कर चले जाओ। फिर लम्बी सोच-भरी खामोशी के बाद ये शब्द उसके मुँह से निकले, “हर चीज़ का अपना वक्त होता है जिसके लिए इन्तज़ार करना पड़ता है।" अगली कतार में बैठे वेलान और उसके साथी क्षण-भर के लिए परेशान नज़र आए। अभी भी उनकी मुद्रा आदरपूर्ण थी। लेकिन राजू की बात का सिर-पैर उनकी समझ में नहीं आ रहा था। थोड़ी देर खामोश रहने के बाद उसने बड़प्पन की मुद्रा बनाकर कहा, "मैं फिर किसी दिन आप लोगों से बात करूँगा।"
"एक आदमी ने सवाल किया, "किसी और दिन क्यों, महाराज?"
' “बस, ऐसा ही होगा,” राजू ने रहस्यपूर्ण अन्दाज़ में कहा । "मेरी सलाह है कि जब तक बच्चे अपना सबक खत्म न कर लें, आप सब सुबह से लेकर अब तक की अपनी बातों और कामों पर संजीदगी से गौर करें।"
"कौन-सी बातें और कौन से काम?" इस सलाह से परेशान होकर एक ने पूछा । “अपनी बातें। आज सुबह से अब तक अपने मुँह से निकले हुए हर शब्द पर गौर करें।"
' “मुझे तो ठीक से याद भी नहीं ।"
' “इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि याद करो और गौर करो। जब तुम्हें अपने शब्द ही याद नहीं हैं तो दूसरों के शब्द कैसे याद रहेंगे?"
"इस चुटीली उक्ति से श्रोताओं का मनोविनोद हुआ। लोग दबे स्वर में हँसने लगे । हँसी बन्द होने पर राजू ने कहा, "मैं चाहता हूँ, आप सब लोग अपनी मरजी से, स्वतन्त्र रूप से इन बातों पर गौर करें, ताकि आपको जानवरों की तरह न हाँका जाए ।"
"इस सलाह पर कुछ लोगों ने विनम्र स्वर में अपना मतभेद प्रकट किया। वेलान ने पूछा, “महाराज, यह काम हमसे कैसे होगा ? हम खेत जोतते हैं और मवेशियों की देखभाल करते हैं... ये सब तो हमारे बस की बातें हैं, लेकिन ऊँची बातें सोचना हमारे बस में नहीं है । यह मुमकिन नहीं। आप जैसे बुद्धिमान व्यक्तियों को ही ये बातें सोचनी चाहिए।"
" और आप हमें सुबह से कही गई बातों की याद क्यों दिलाना चाहते हैं ? "
'खुद राजू को इसका जवाब मालूम नहीं था, इसलिए उसने कहा, "अगर आप ऐसा करेंगे तो आपको स्वयं ही इसका कारण मालूम हो जाएगा।" लगता था कि रहस्यपूर्ण उक्तियों में ही महात्मापन निहित था। उसने पूछा, “बिना कोशिश किए ही आप लोग अपनी क्षमताओं को कैसे जान सकते हो?" वह उन मासूम लोगों को धुंधले विचारों की दलदल में और भी गहरा घसीट रहा था। उसके एक भक्त ने शिकायत की, "मुझे तो यह भी याद नहीं है कि मैंने थोड़ी देर पहले क्या कहा था। आदमी के दिमाग में बहुत-सी चीजें आती हैं। "
"बिल्कुल ठीक। मैं यही तो चाहता हूँ कि तुम इस कठिनाई को पार करने की कोशिश करो,” राजू ने कहा । "जब तक तुम ऐसा नहीं करोगे, इसका आनन्द भी तुम्हें नहीं मिल सकता।” उसने भक्त मण्डली में से तीन जनों को चुनकर उनसे कहा, “तुम लोग कल या किसी और दिन जब यहाँ आओ तो तुममें से हर एक मुझे कम से कम ऐसे छः शब्द दुहराकर बताना जो तुम सुबह से बोलते रहे हो । मैं तुमसे सिर्फ़ छः शब्द ही याद करने को कह रहा हूँ, छः सौ नहीं, “उसने अनुरोधपूर्वक कहा मानो वह भारी रियायत कर रहा हो ।
"छह सौ ! क्या महाराज कोई आदमी छः सौ शब्द भी याद रख सकता है?" एक ने आश्चर्यपूर्वक कहा ।
' “हाँ, मैं याद रख सकता हूँ," राजू ने उत्तर दिया। इस पर प्रसंशात्मक स्वर में सबने साधुवाद किया, जिसका राजू अपने को हकदार समझता था। इतने में उसके भाग्य से बच्चे वहाँ आ गए और राजू तुरन्त उठ खड़ा हुआ, मानो कह रहा हो कि 'बस, आज यहीं तक,' और नदी की तरफ़ चल पड़ा। सारे लोग उसके पीछे-पीछे चल दिए । “इन बच्चों को नींद आ रही होगी। इनको हिफ़ाजत से घर ले जाओ और फिर आना।"
"जब दोबारा यह सभा एकत्र हुई तो राजू ने एक निश्चित कार्यक्रम पेश किया। उसने हाथों से ताल देकर एक मधुर लय में भजन गाना शुरू किया, जिसको दर्शक भी आसानी से दुहरा सकते थे । मन्दिर की प्राचीन छत मर्दों, औरतों और बच्चों के समवेत स्वर से गूँज उठी। एक आदमी पीतल के लम्बे चिरागदान ले आया और उसने उनपर रखे दीपक जला दिए। दूसरों ने उनमें तेल भर दिया। कुछ लोग इन दीपकों के लिए सारे दिन बैठे रुई की बत्तियाँ बटते रहे थे। लोग अपने-आप ही विभिन्न देवताओं की छोटी-छोटी फ्रेम में मढ़ी तस्वीरें ले आए थे जिनको उन्होंने हॉल के खम्भों पर टांग दिया था । औरतों के जत्थों ने आकर दिन में ही मन्दिर के फर्श धो-पोंछ दिए थे और उनपर आटे से विभिन्न पैटनों के सांतिये काढ़ दिए थे। उन्होंने हर जगह फूल और पत्तियों के बन्दनवार टांग दिए थे । खम्भोंवाले हॉल की कायापलट हो गई। किसी ने हॉल के बीच के चबूतरे को एक रंगीन, मुलायम कालीन से ढंक दिया था और लोगों के बैठने के लिए फर्श पर चटाइयाँ बिछा दी थीं।
"राजू ने शीघ्र ही महसूस किया कि अगर वह दाढ़ी रख ले और उसके केश बढ़कर उसकी नाभि तक आ जाएँ तो भक्तों की दृष्टि में उसका सम्मान बहुत बढ़ जाएगा । दाढ़ी-मूंछरहित और महीन कटे बालों वाला सन्त तो लोगों के अनुभव के विपरीत जन्तु होता है। उसने सन्त का यह मेकअप बनाने के लिए साधना की सभी मंज़िलें बड़े धैर्य और बहादुरी से पूरी की, यहाँ तक कि आरम्भ में बालों के चुभने की भी परवाह नहीं की । आखिरकार वह जब उस मंज़िल पर पहुँचा, जब वह विचारमग्न मुद्रा बनाकर अपनी लम्बी दाढ़ी को सहलाने लगा, तब तक उसकी ख्याति और प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गई थी जिसकी वह स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था। उसके जीवन की व्यक्तिगत सीमाएँ बेमानी हो गई थीं और उसकी सभाओं में इतने लोग जमा होते थे कि मन्दिर के बरामदों और नदी के किनारे तक उन्हें बैठने की जगह न मिलती थी । वेलान और कुछ अन्य लोगों को छोड़कर राजू को अपने असंख्य भक्तों के चेहरे तक याद नहीं थे और न वह यह जानने की परवाह करता था कि वह किससे बात कर रहा है। वह अब दुनिया का बन गया था। उसका प्रभाव असीम था। वह सिर्फ भजन ही नहीं गाता था, या दार्शनिक उपदेश ही नहीं देता था, बल्कि अब बीमार लोगों को दवा-दारू भी बताता था । माताएँ उसके पास उन बच्चों को लेकर आती थीं जिन्हें रात को नींद नहीं आती थी । वह उनका पेट टटोलकर एक जड़ी पीसकर खिलाने का आदेश देते हुए कहता, "अगर इससे बच्चे को आराम न हो तो फिर मेरे पास लाना ।” लोगों में यह आस्था पैदा हो गई थी कि वह जिस बच्चे के सर को अपने हाथ से सहला देता है, वह चंगा हो जाता है। खैर, लोग उसके पास अपनी पैतृक सम्पत्ति के बंटवारे के झगड़े लेकर तो आते ही थे। इन कार्यों के लिए उसने दोपहर के बाद के कई घंटे निश्चित कर दिए थे। फिर ऐसा वक्त आया जब वह रोज तड़के उठकर जल्दी से नित्य कर्म से निवृत्त होकर तैयार होने के लिए विवश हो गया, क्योंकि उसके भक्त सवेरे ही आकर उसे घेर लेते थे। उसकी ज़िन्दगी एक कठिन आवर्त में फँस गई थी और जब नदी के किनारे रात-भर के लिए भक्तों का कलरव शान्त हो जाता, तब वह सुख की गहरी सांस लेकर अपनी ओर मुड़ता, स्वयं होने की कोशिश करता और एक साधारण इन्सान की तरह अपना भोजन करता और सो जाता।
(अनुवाद : शिवदान सिंह चौहान
विजय सिंह चौहान)