गुड़िया का घर (कहानी) : जिलानी बानो
Gudiya Ka Ghar (Story in Hindi) : Jilani Bano
बादल धीरे धीरे बढ़ते आ रहे थे। दिल में घुस आने वाले यक़ीन की तरह शाम की भीगी भीगी हवाएं बशारत दे रही थीं कि अब मेंह बरसने वाला है। दिल्ली में जून की इस तप्ती हुई शाम को कोई यक़ीन नहीं कर सकता कि इस वक़्त उस्मानिया यूनीवर्सिटी कैम्पस में ऐसे काले बादल छाए होंगे और फ़िज़ा में ऐसी ख़ुनकी होगी जो आदमी को आप कपकपा देती है।
मैं बस-स्टॉप पर तन्हा खड़ा था।
मगर बिल्कुल तन्हा भी नहीं। मेरे आस-पास घरों को वापस जानेवाले लड़के लड़कियां और कॉलेज के टीचरों का हुजूम था, जो बसों का इंतिज़ार कर रहे थे, कुछ लड़कियां इंतिज़ार से बोर हो कर फुटपाथ के पत्थरों पर जा बैठी थीं। लड़के भी किसी न किसी बहाने उसी तरफ़ ढल गए थे और लड़कियों के हाथों से किताबें और मैगज़ीन छीन छीन कर क़हक़हे लगा रहे थे।
मैंने यूनीवर्सिटी की तरफ़ देखा। अभी कुछ और प्रोफ़ेसरनुमा, सूखे मारे, थकन से चूर, अपने वज़न से ज़्यादा बोझल ब्रीफकेस सँभाले हुए लोग, बस स्टॉप की तरफ़ आ रहे थे। बहुत आहिस्ता-आहिस्ता। थके थके क़दमों के साथ। जब सड़क पर कोई कार ज़न से गुज़रती तो ये लोग बड़ी रश्क भरी नज़रों से कार का तआक़ुब करते थे। ये मुल्क को दानिश्वर, लीडर, डाक्टर और इंजिनियर ढाल कर देने वाले लोग थे, जिन्हें शाम को अपने घर पहुंचने के लिए किसी बस में सीट नहीं मिलती थी। पहले उन्होंने कारों के ख़्वाब देखे, फिर स्कूटर के और आख़िर में सिर्फ़ उस तरफ़ देखने लगे जिधर से बस आती है। मगर नहीं, मैं भूल गया। ये बस स्टॉप दिल्ली यूनीवर्सिटी का नहीं है। मैं तो सिर्फ़ दो दिन के लिए एक VIVA- VOCE लेने के लिए हैदराबाद आया था। आने वाली बारिश की ख़ुनकी से बोझल हवाओं से मुझे नींद आ रही थी, जी चाह रहा था जल्दी से गेस्ट हाऊस जा कर सो जाऊं। मगर कैम्पस से दूर, झिलमिलाने वाली रोशनियां जैसे मुझे आँख मार के इशारे कर रही थीं कि इधर आओ ना...
जाने क्यों सुर्ख़ धरती और स्याह पत्थरों से घिरे, ऊंची डेवढ़ियों वाले, हैदराबाद में क़दम रखते ही मुझे ऐसा लगता है जैसे यहां अब आवारा हवाओं जैसे अशद पसंद शहज़ादे और बिरहा की मारी कोयल जैसी किसी ग़म नसीब शहज़ादी की कहानी ज़रूर मिलेगी। मगर ऊंची ऊंची डेवढ़ियों की आरास्ता ख़्वाबगाहों में सोने चांदी के पायों वाले छप्पर खट पर, चांद सितारों की मच्छरदानी तले सोने चांदी के पायों वाले छप्पर खट पर, चांद सितारों की मच्छरदानी तले सोने वाली नाज़ुक इंदाम शहज़ादियाँ बेल बॉटम और कोटि पहने, सड़क के फुटपाथ पर बैठी, मार्क्स के सरमाया की वर्क़ गरदानी कर रही थीं और उनके लिए हीरों के तौक़ पहनने वाले, हाथी पर सवार हो कर, ज़रबफ्त की शेरवानियों पर सच्चे मोतियों का सहरा बाँधे, दोनों हाथों से अशर्फ़ियां लुटाते आने वाले बन्ने, अपनी कार्टून छपी हुई, रंग-बिरंगी बुशरटों की ख़ाली जेबों को टटोल टटोल कर देख रहे थे कि वो अपनी गर्लफ्रेंड का टिकट ख़रीद सकते हैं या नहीं! पता नहीं क्यों जब भी हैदराबाद आता हूँ तो मेरा दिल एक तजस्सुस आमेज़ ख़ुशी से भर जाता है। इस अलिफ़ लैला की दास्तानों जैसे शहर में रंगा-रंग कहानियों, अदब-ओ-तहज़ीब की महफ़िलों और गुलाब की तरह खिले हुए लोगों से मिलकर बेपनाह ख़ुशी का एहसास होता है। यूं लगता है जैसे अब एक रुई के बालों जैसा, स्याह फ़र्ग़ुल पहने बूढ़ा लाठी टेकता हुआ उठेगा और कहना शुरू करेगा कि,
तो प्यारे हाज़िरीन बातमकीन... बहुत दिन हुए जब दक्कन की एक साँवली एक ख़ूबसूरत तरहदार पाशा ज़ादे के दाम-ए-उलफ़त में गिरफ़्तार हुई, जीने से बेज़ार हुई, रात-दिन ग़म खाना और आँसूओं से मुँह धोना उस का शआर...
अबे यूसुफ़ बे कारवां इधर कहाँ आ निकला यार तू!अचानक भीड़ को चीरता हुआ सुरेंद्र आया और हस्ब-ए-आदत मेरी बाँहों में झूल गया।
दिल्ली से कब आए, किधर भागने की सोच रहे थे? मेरे डिपार्टमेंट क्यों नहीं आए? उस के तमाम सवालों के जवाब में मैंने कहा,
क़सुम ख़ुदा की यार, दाद देने वालों ने दिमाग़ निचोड़ लिया। अब मैं तुम्हारी तलाश की फ़िक्र कर रहा था। सुरेंद्र के पीछे एक लड़की और एक मर्द भी था। ये मेरे दोस्त डाक्टर प्रकाश राव हैं, बॉटनी पढ़ाते हैं और ये हैं मिस विनीता गौड़... साईकलोजी की लेक्चरर। लेकिन उन दोनों पर एक नज़र डाल कर ही मैं समझ गया कि सुरेंद्र को बीच में और लगाने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि वो दोनों बहुत पास पास थे या पास पास होना चाहते थे।
और भई ये हमारे महात्मा, दानिश्वर, जीनियस, शायर और हिन्दोस्तान के बहुत अहम नक़्क़ाद सय्यद यूसुफ़ अली... प्रकाश, यार ज़रा इनसे बच कर रहना, वो ये अपना तमाम फ़लसफ़ा तुम्हारे दिमाग़ में उंडेल कर छोड़ेंगे।
हम सबने क़हक़हों के साथ एक दूसरे से हाथ मिलाए। प्रकाश बड़ा सेहत मंद, ऊंचा पूरा, ख़ुश शक्ल नौजवान था। विनीता को देखकर यूं लगा जैसे दुनिया की हर ख़ुशी को वो अपना हक़ समझती हो। जैसे उसके हँसने, क़हक़हे लगाने के लिए ही आज मौसम इतना सलोना हो रहा था। हवाएं गुनगुना रही थीं, बादल झूमते हुए नीचे झुके चले आ रहे थे। दो मुहब्बत करने वालों के बीच जो एक कशिश सी होती है, एक अंजाना सा बंधन, वो मुझे प्रकाश और विनीता के दरमियान जाने कैसे महसूस हो रहा था। शायद इसलिए कि मैं कभी-कभार शायरी भी करता था। मैंने रिसर्च की थी तो उर्दू शायरी में इन्सानी फ़ित्रत के बड़े नाज़ुक गोशों पर भी ग़ौर करना पड़ा। मगर मीर और ग़ालिब को ऐसी महबूबा नहीं मिली थी जो विनीता की तरह प्रकाश से बिल्कुल लग कर ही खड़ी होना चाहती थी, किसी बे-इख़्तियार जज़्बे के साथ उसकी तरफ़ खिंची चली जाती थी।
बातें करते में, चलते में, हँसने में बार-बार विनीता प्रकाश की तरफ़ देखे जाती थी। कभी उसका हाथ पकड़ लेती, कभी उसके कांधे के पास सर ले जाकर ग़ैर महसूस धूल झटकने लगती और कभी बस यूँही क़हक़हे लगाए जाती थी। बस में सवार होने के बाद प्रकाश ने मुड़ कर सुरेंद्र से कहा,
सुरेंद्र! यूसुफ़ साहिब तुम्हारे दोस्त हैं तो आज से हमारे भी दोस्त हो गए। अब उन्हें किसी होटल ले जा कर हैदराबादी बिरयानी खिलाएंगे।
होटल क्यों? विनीता ने बुरा सा मुँह बनाया।
प्रकाश, इन्हें अपने घर ले चलो न। मम्मी और मैं दोनों मिलकर झटपट ख़ूब मज़ेदार खाना बना देंगे। विनीता ने बेहद ख़ुश हो कर कहा।
अरे नहीं। प्रकाश ने नागवारी से मुँह फेर लिया।
शाम के वक़्त घर में बड़ी बोरीयत होगी।
हाँ भई यूसुफ़, मैं तुमसे ये कहना तो भूल गया कि ये जो हमारे प्रकाश बाबू हैं न, ये बड़े मनमौजी हैं। बस हर वक़्त पिकनिक के मूड में रहते हैं। उन्हें घर में बैठने से बड़ी नफ़रत है।
वाह वाह। तो फिर मिलाओ यार हाथ। मैंने बढ़कर गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया तो प्रकाश बड़ी मुहब्बत से गले लग गया।
मेरी उम्र चालीस बरस है। इसमें से बीस बरस मैंने घर से दूर सफ़र में गुज़ारे हैं। मैंने झुक कर कहा।
अरे हाँ यार! यूसुफ़ मियां तो यूरोप की गली गली छान आए हैं। बक़ौल शख़से घाट घाट का पानी पी चुके हैं। हम तीनों फिर ज़ोर से हंस पड़े सबसे जानदार और ऊंचा क़हक़हा विनीता का था।
यू आर वेरी लकी मैन। प्रकाश बड़ी देर तक मेरा हाथ थामे रहा। बस 'आबिद शाप' के स्टॉप पर रुकी तो प्रकाश ने सबसे कहा,
यस, यहां उतर जाते हैं। क्वालिटी चलेंगे।
मगर वहां अंधेरा बहुत होता है। विनीता ने बड़ी शोख़ नज़रों से प्रकाश को देखा।
ये तुम दोनों के लिए बहुत अच्छा है, सुरेंद्र ने मुस्कुरा के विनीता से कहा, अलबत्ता हम जैसे अकेलों को बोरीयत होगी! क्यों यूसुफ़ भाई? इस बात पर फिर सबसे ऊंचा क़हक़हा विनीता का था। एक कोने की मेज़ के आस-पास सब बैठ गए तो प्रकाश ने मुझसे पूछा,
बीयर चलेगी यूसुफ़ साहिब?
यस... मैंने गर्दन हिलाई। आप तीनों से मुलाक़ात की इस यादगार शाम को रंगीन तो बनाना ही पड़ेगा।
विनीता के लिए ऑरेंज जूस आ गया। प्रकाश के चेहरे का हर रिएक्शन विनीता के चेहरे पर उभरता, डूबता और झिलमिला कर रह जाता था। दो बरस के बाद सुरेंद्र से मुलाक़ात हुई थी इसलिए बातों का एक बोझ मेरे दिमाग़ पर रखा हुआ था। मगर प्रकाश और विनीता के क़हक़हे किसी को संजीदा नहीं होने दे रहे थे। बार में बैठे हुए लोग मुड़ मुड़ के हमें देख रहे थे। बल्कि सिर्फ़ विनीता को। उसके चारों तरफ़ रंगों और ख़ुशियों का हाला सा खिंचा हुआ था। क्वालिटी के धुँदलके में उसकी आँखें चमक चमक जातीं, होंटों के गुलाब खिल खिल उठते। विनीता के चेहरे पर सबसे अच्छे उसके होंट थे, तीखे, उभरने वाले और बार-बार अपनी बनावट बदल कर जज़्बात का इज़हार करने वाले। उसकी आँखें छोटी छोटी सी थीं, बातें करते वक़्त ज़ोर से हंसते वक़्त वो अपनी छोटी सी नाक के साथ आँखों को भी और सुकेड़ लेती थी। नन्ही बच्चियों की तरह। मगर फिर भी उसके गंदुमी रंग, कटे हुए बे-तरतीब बालों और सेहतमंद बदन में बड़ी कशिश थी। स्याह बेल बॉटम और सुर्ख़ छोटी सी शर्ट में भी वो अच्छी लग रही थी। यूँही जैसे आप हर रोज़ बस स्टॉप, सिनेमा हाऊस या कॉलेज के सामने, बहुत सी ख़ुश शक्ल लड़कियों को देखते हैं जो ख़ूबसूरत नहीं होतीं, मगर फिर भी आपकी नज़रें दूर तक उनका तआक़ुब करती हैं, उनके नज़रों से छुप जाने पर जाने कैसे दुख का एहसास सा हर तरफ़ छा जाता है। मगर विनीता तो मेरे सामने बैठी थी और आज बियर में बड़ा मज़ा आ रहा था। मैं सुरेंद्र के साथ बातों में मसरूफ़ था। प्रकाश भी हमारा साथ दे रहा था। विनीता जूस का गिलास सामने रखे माचिस की तीलियों से एक घर बनाने में मसरूफ़ थी जो बार-बार ढय् जाता था। फिर भी वो हँसे जाती, जाने किस बात पर। कई बार कोई मज़ेदार चीज़ उसने अपने हाथ से प्रकाश को खिलाई।
मुझे सुरेंद्र की इस बात पर यक़ीन नहीं आ रहा था जो उसने विनीता के बारे में बताई थी। बी.ए. की स्टूडेंट मालूम हो रही थी। बीस-बाईस बरस की। मगर जब वो चलते चलते सबसे आगे निकल जाती, सड़क सबसे पहले पार कर लेती, आगे बढ़कर टैक्सी को बुला लेती, तो मुझे यक़ीन हो गया कि वो लेक्चरर भी हो सकती है। प्रकाश उम्र में उससे छः सात बरस बड़ा लगता था, मगर वो एक बच्चे की तरह उसकी देख-भाल कर रही थी। आज प्रकाश को ज़ुकाम था और वो प्रकाश की हर छींक पर घबरा के कहती,
प्रकाश, प्लीज़! डाक्टर के पास आज चले जाओ, कहीं फ्लू न हो जाये।
ओफ़्फ़ो प्रकाश ने झुंजला कर कहा, विनीति, ज़रा मज़े की बातें हो रही हैं यूसुफ़ साहिब से। इस वक़्त, डाक्टर का नाम लेकर बोर मत करो यार। और फिर हम दिल्ली की सियासत के अंदरूनी हक़ायक़ पर क़हक़हे लगाते रहे। बा'ज़ औरतें सिर्फ़ माँ होती हैं। वो अपने बाप, भाई, बेटे और महबूब सब के लिए ममता का जज़्बा जगाए रखती हैं, मुझे ऐसा लगा जैसे पल पल की ख़बर-गीरी से प्रकाश बोर हो रहा था। लेकिन विनीता को मुँह फुलाए माचिस की तीलियों से खेलते देखकर वो उस की तरफ़ मुड़ गया।
हाँ तो भई विंती, अब तुम भी तो यूसुफ़ साहिब से कुछ बातें करो ना। वो जो शादी के बाद हमारा घर बनेगा, उसकी कहानी सुनाओ। एक बात सुन लीजिए यूसुफ़ साहिब। उसने विनती की तरफ़ बड़ी प्यार भरी नज़रों से देखकर कहा, हमारे दरवाज़े पर काल बेल नहीं लगेगी। ये हमारी विनती को पसंद नहीं है। आप आएं तो विनती का नाम लेकर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाना पड़ेगा।
मेरा क्यों? विंती ने छोटी बच्चियों की तरह तुनक कर कहा।
आपका नाम लेकर पुकारेंगे सब लोग। वो मकान तो आपका होगा।
हटाओ झगड़ा क्या है, क्यों न हम तुम दोनों को इकट्ठे पुकारें, प्रकाश विनीता।
सुरेंद्र ज़ोर से चिल्लाया तो विनीता भी हंस पड़ी और कुर्सी के तकीए पर सर रखकर छत देखने लगी।
कितनी ख़ूबसूरत सीलिंग है न? हम भी अपने घर में ऐसी ही छत लगाएँगे।
अच्छा! ओहो! हम सब फिर हँसने लगे और प्रकाश ने दोनों हाथ अपने सर पर रखकर कहा।
यारो! मेरे सर पर छत गिर रही है मुझे बचाओ, एक-बार फिर बियर के सुरूर में डूबे हुए क़हक़हों से सारा बार गूंज उठा।
इस लड़की को दुनिया की हर ख़ूबसूरती चुरा के अपने घर में भर लेने का ख़ब्त है। प्रकाश ने हंसते हंसते विनीता के सर पर एक धप मार के कहा।
हाँ जिस तरह उसने दुनिया की हर ख़ूबसूरती छीन कर अपने चेहरे पर जमा कर रखी है। अब की बार सुरेंद्र की बात पर सबको हँसना लाज़िमी था।
चलो हटो। सुरेंद्र भय्या को हँसाना बहुत आता है। विनीता ने मुँह बना लिया और फिर कुछ संजीदा सी हो कर मुझसे बोली,
यूसुफ़ साहिब! मुझे घर सजाने का बहुत शौक़ है जब मैं बहुत छोटी सी थी, मद्रास के एक हॉस्टल में पढ़ती थी, तो दिन भर कार्ड बोर्ड से नन्हे से घर बनाया करती थी। मुझे गड़ियों का घर बनाने का बहुत शौक़ था। फिर कपड़े की छोटी छोटी सी गुड़ियाँ बना कर उसमें बिठा देती। मुझे रात को सोते वक़्त ऐसा लगता था जैसे वो गुड़ियाँ अब चुपके से उठकर घर में चल फिर रही होंगी, मगर सुबह मुझे देखकर फिर सोती बन जाएँगी। वो दोनों हाथों में चेहरा थामे, मेज़ पर झुकी बहुत आहिस्ता-आहिस्ता कह रही थी जैसे अभी तक वो किसी गुड़िया के बजाय अपने आपको एक नन्हे से घर में बैठा देख रही हो।
तो मियां प्रकाश! अब तुम भी काठ के उल्लू बनाए जाओगे। बस चुपचाप बैठे रहना किसी ताक़ में। सुरेंद्र की बात पर हम तीनों का हंसते हंसते बुरा हाल हो गया।
सच कहते हो यारो! न जाने ये लड़की मुझे कितने नाच नचाने वाली है।
प्रकाश ने नशे से बोझल हाथों से विनीता को अपनी तरफ़ खींचा तो वो दूर हट गई।
अच्छा। आपको एक मज़े की बात सुनाऊँगी, विनीता ने मुँह पर से बाल झटक बड़ी शोख़ी से कहा।
प्रकाश को घर में बयाज़े अच्छा नहीं लगता है ना। इसलिए ये अपने घर का नाम पिंजरा रखेंगे। अपनी बात पर विनीता ख़ुद ही बड़े ज़ोर से हंस पड़ी।
हाँ और मैं किसी जानदार को पिंजरे में बंद नहीं देख सकता। प्रकाश ने सिगरेट सुलगाया और दूसरा सिगरेट मुझे ऑफ़र किया।
यारो! यहां सब हमें पागल समझ रहे हैं। इससे पहले कि मैनेजर ख़ुद आकर गेट आउट कर दे, हमें ख़ुद अब सर पर पैर रखकर भागना चाहिए यहां से। प्रकाश ने बिल की प्लेट में एक सौ का नोट रखा और उठ खड़ा हुआ। बाहर सड़क पर आए तो ठंडी हवाएं हमारे इस्तिक़बाल को खड़ी थीं, बारिश हो कर थम चुकी थी
इक्का दुक्का बूँद बर्फ़ की डलियों की तरह गर्म बदन पर लग रही थी।
बाहर तो ख़ूब सर्दी है। विनीता ने अपने दोनों हाथ दोनों बाज़ुओं पर लपेट कर कहा।
मुझे तो यूं लग रहा है यार सुरेंद्र, यूसुफ़ साहिब से हमारी बहुत पुरानी मुलाक़ात है। प्रकाश ने सुरेंद्र से कहा।
हाँ, उनमें एक ये भी ख़ासीयत है कि ये दोस्ती को मिनटों में पुराना कर देते हैं। सुरेंद्र मेरी तरफ़ बढ़ा।
तो फिर कब आओगे हैदराबाद?
मेरा ख़याल है प्रकाश और विनीता की शादी पर आना पड़ेगा। ज़रा मुझे ये बताईए कि आप दोनों की शादी कब और कहाँ होगी?
हमारी शादी? प्रकाश ने सर खुजा कर सोचते हुए कहा, मेरा ख़याल है कि हमारी शादी तो हो चुकी है, क्यों वंती? विनीता ने इस बात पर ख़ालिस लड़कियों वाले अंदाज़ में शर्मा कर सर झुका लिया। मैं और सुरेंद्र फिर हंस पड़े।
अच्छा तो इसका मतलब ये है कि अभी नहना हुई वो फिर मेरी तरफ़ मुड़ गया, कब होगी और कहाँ होगी। इस बात का यक़ीन नहीं है। अलबत्ता अब की छुट्टीयों में हम एक टूर पर निकलेंगे। पहले बैंगलोर फिर कोदईकनाल, फिर शिमला, फिर दिल्ली। बस इस सफ़र में कहीं न कहीं शादी भी कर लेंगे। क्यों वंती ठीक है ना?
बस करो। विनीता ने झूट-मूट के ग़ुस्से से प्रकाश के मुँह पर हाथ रख दिया। मुझे अभी से थकान हो रही है, इतने पहाड़ों पर चढ़ने से। तुम्हारा बस चले तो हर वक़्त हवाओं में उड़ते फिरो। जाने क्या मिलता है इस आवारागर्दी में।
बहुत कुछ मिलता है। क्यों यूसुफ़ साहिब? उसने हंसकर मेरी तरफ़ देखा।
क्या-क्या? विनीता ने चिड़ कर पूछा।
दूसरी रंगीन चिड़ियों का साथ। प्रकाश ने पहले ही से विनीता की चपत से बचने के लिए सर पर दोनों हाथ रखकर कहा। विनीता उसे पकड़ने लपकी और फिर चारों तरफ़ बे फ़िक्रे तमाशाइयों को अपनी तरफ़ मुतवज्जा पा कर उसकी कलाई पर काटने लगी।
हाय मर गया। प्रकाश झूट-मूट के ग़ुस्से से चिल्लाया।
मुझे इस साईक्लोजी की उस्तानी माँ से बचाओ यारो! आई ऐम वेरी सारी। कहो तो हॉस्टल जाने के बाद मुर्ग़ा भी बन जाऊं। वो छोटे बच्चों की तरह कान पकड़े कह रहा था।
बनने की क्या ज़रूरत? विनीता की इस बात पर एक-बार फिर सब हंस पड़े।
अच्छा तो अब इजाज़त दीजिए। ये ख़ुशगवार शाम जो आप लोगों के साथ गुज़री मैं कभी नहीं भूलूँगा। मैंने प्रकाश से हाथ मिलाया और फिर विनीता की तरफ़ देखा।
तो फिर अगली बार जब हैदराबाद आऊँगा तो आपके घर पर मुलाक़ात होगी?
लेकिन आपको प्रकाश से एक-बार मिलने के लिए हमारे घर दस बार आना पड़ेगा। विनीता ने मुँह फला कर कहा।
अच्छा, वो क्यों? क्या आप उनसे हर वक़्त नहीं मिलने देंगी?
जी नहीं जनाब, ये मिस्टर सैर सपाटे के बड़े शौक़ीन हैं, मुझे मालूम है कि कभी वक़्त पर घर नहीं आया करेंगे। मुझे तो डर है कि ये मुझे बिल्कुल ही अपनी धर्म पत्नी न बना दें कि रात के बारह बारह बजे तक मेज़ पर खाना रखे जागती रहूंगी पति देव के इंतिज़ार में।
ये तो हुआ करेगा। प्रकाश ने कुंजियों का गुच्छा हवा में उछालते हुए कहा।
अपुन रमी तो छोड़ने वाले नहीं हैं।
तो फिर क्या छोड़ने वाले हैं? विनीता एक दम संजीदा हो गई।
फ़िलहाल इस सड़क को छोड़ने वाले हैं। वर्ना होटल का मैनेजर अब हमें नाशता करने फिर अन्दर बुलालेगा। प्रकाश ने आगे बढ़कर एक टैक्सी बुलाई।
तो फिर कल मिलेंगे यूसुफ़ भाई, आप सुबह आठ बजे तक विनीता के हॉस्टल आ जाईए। कल उस्मान सागर ले चलेंगे आपको। ज़रा खुले आसमान तले गपशप होगी।
मगर एक बात सुनो प्रकाश, जब तुम अपना घर बनवाओ न तो उस पर छत मत डलवाना ताकि खुले आसमान तले रह सको। सुरेंद्र ने टैक्सी में बैठने से पहले कहा।
मगर घर की भी क्या ज़रूरत है यार, हम घूम फिर के भी ज़िंदगी गुज़ार सकते हैं। उसने विनीता के थप्पड़ की उम्मीद में फिर दोनों हाथ सर पर रख लिये।
बहुत हो चुकी बकवास, मुझे जल्दी हॉस्टल पहुंचा दो वर्ना हॉस्टल की वार्डन मुझे मारेगी। विनीता ने सच-मुच घबरा के कहा।
आप हॉस्टल में क्यों रहती हैं? मैंने विनीता के कमरे में आने के बाद पूछा।
अभी आपसे बात करती हूँ। विनीता अपने भीगे बालों को झटकते हुए अन्दर चली गई।
विनीता ने आज बड़ी ख़ूबसूरती से मेक-अप किया था और स्याह प्रिंटेड मैक्सी पहनी थी और कोई भीनी सी ख़ुशबू लगाई थी जो कमरे के अंदर आते ही एक ख़ुशगवार मूड के साथ इस्तिक़बाल करती थी। उसका कमरा लकड़ी के पार्टीशन से दो हिस्सों में बटा हुआ था। एक तरफ़ बेडरूम, दूसरी तरफ़ जहां मैं बैठा था, उसमें विनीता ने किचन, स्टोर और डाइनिंग रुम सब कुछ बना रखा था। मगर हर चीज़ बड़ी नफ़ासत और सलीक़े से अपनी जगह रखी हुई थी, जैसे उसने इस छोटे से कमरे में हर चीज़ रखने के बारे में काफ़ी सोच बिचार क्या हो। कोने की एक मेज़ पर स्टोव और उसके ऊपर शेल्फ़ में किचन का सारा सामान रखा था। छोटे साइज़ के फ़्रिज के ऊपर सूरजमुखी के ताज़ा फूलों का बड़ा सा गुलदस्ता था। रेडियो के ऊपर मनी प्लांट की बेल का वाज़ था। सोफ़े पर ख़ूबसूरती से बनाए हुए कुशन पड़े थे। शोकेस में हर क़िस्म की गुड़ियाँ मुस्कुरा रही थीं, नाचती-गाती, बंजारों का लिबास पहने, पंजाबी सूट में मुस्कुराती, दूल्हा-दुल्हन बनी, छोटे बच्चों की तरह देखने वालों की तरफ़ हुमकती हुई उन गड़ियों की वजह से यूं लगता जैसे कमरे में बहुत से लोगों की चहल पहल हो। विनीता तौलिये में बाल लपेट कर अंदर आई। उसने फ़्रिज से फल और मिठाई निकाली और मेरे सामने रख दी।
ये गुलाब जामुन मैंने ख़ुद बनाए हैं। प्रकाश बड़े शौक़ से खाता है। उन गुलाबजामुनों का ज़ायक़ा मुझे विनीता के सारे चेहरे पर घुला हुआ लग रहा था।
आप हॉस्टल में क्यों रहती हैं? मैंने गुलाब जामुन खाते खाते पूछा। विनीता ने गर्म पानी टी पाट में डालते होई मेरी तरफ़ देखा और फिर कुछ रुक कर बोली,
मेरा घर कहाँ है अभी। मुझे अभी छः महीने पहले जॉब मिली है। फिर वो मेरे सामने वाले सोफ़े पर आ बैठी और अपने हाथों को नैपकिन से साफ़ करने लगी।
इससे पहले मैं एक मकान में पेइंग गेस्ट थी।
तो क्या आप हैदराबाद की रहने वाली नहीं हैं? विनीता ने कांटा उठा कर प्लेट में पड़ी हुई गुलाब जामुन के दो टुकड़े किए, फिर तीन और फिर उन टुकड़ों को अलग अलग करते हुए धीरे धीरे कहने लगी,
मेरा घर कहीं भी नहीं है यूसुफ़ साहिब। मैं तीन बरस की थी जब मम्मी के मरने के बाद पप्पा ने दूसरा शादी की तो मुझे बोर्डिंग में दाख़िल कर दिया। मैं छुट्टीयों में घर जाती थी तो मेरी सौतेली बहनें कहती थीं, तुम हमारे घर क्यों आती हो। तब मैं सोचती, फिर मेरा घर कहाँ है? मेरे ऐसे सवालों से घबरा के पप्पा मुझे छुट्टीयों में आंटी के घर भेज देते थे। कभी चाचा के हाँ। इसी तरह में इतनी बड़ी हो गई। उसने छत की तरफ़ नज़रें उठा कर देखा उसकी आँखें छलक रही थीं जिन्हें वो रोकने की कोशिश कर रही थी।
ख़ैर अब प्रकाश आपके लिए बहुत ख़ूबसूरत घर बना देंगे। मैंने उसे ख़ुश करने के लिए कहा।
हाँ, मुझे भी ऐसा ही लगता है। वो एक दम बच्चों की तरह ख़ुश हो गई। मैंने सोच लिया है मैं अपना घर ख़ुद बनाऊँगी। ख़ुद ही उसे बनाऊँगी। वैसे प्रकाश का बड़ा ख़ूबसूरत मकान है, उसके डैडी बहुत बड़े बिज़नस मैन हैं। वो अपनी माँ का इकलौता बेटा है ना। इसलिए मम्मी ने उसे बचपन में हर वक़्त अपने सीने से लगाए रखा। बस घर में रहते रहते प्रकाश बोर हो गया है अब।
आप जाती हैं प्रकाश की मम्मी से मिलने? मैंने चाय की प्याली उठा कर पूछा।
हाँ, बड़ी प्यारी सी है प्रकाश की मम्मी। वो हमारे इंगेज्मेंट पर बहुत ख़ुश हैं। वो भी यही चाहती हैं कि प्रकाश अब किसी एक जगह ठिकाने से बैठना सीखे। आप चाय और लेंगे?
जी बस, शुक्रिया... सिगरेट सुलगा सकता हूँ? मैंने झुक कर कहा और विनीता के गर्दन हिलाने पर मैंने शुक्रिया अदा किया।
अब तो आपको इस कमरे में सिर्फ़ चंद महीने रहना है। मगर आपने यहां हर तरफ़ बाग़ लगाने की कोशिश की है। मैंने दीवार के सहारे चढ़ने वाले रंग बिरंगे पौदे और बेलें देखकर कहा।
मुझे पौदे लगाने का बड़ा शौक़ है। विनीता ने एक बेल के पास जा कर उसकी पत्तियों पर बड़ी मुहब्बत से हाथ फेरते हुए कहा। फूलों-फलों के दरख़्तों की मौजूदगी से घर की सी फ़िज़ा बनती है ना। ये जो बेल है इसे मैंने ज़रा सा रस्सी का सहारा दिया तो कितनी ऊपर आ गई।
दूर कहीं सड़क पर प्रकाश की कार का हॉर्न गूँजा और विनीता चौंक पड़ी।
वो आ गए... मैक्सी को दोनों हाथों में समेट कर वो बाहर भागी। प्रकाश आ गए... उठिए। विनीता छोटी बच्चियों की तरह तालियाँ बजाती हुई अंदर आ गई। आज मैंने वहां खाने के लिए रात-भर जाग कर ख़ूब चीज़ें पकाई हैं। वो जल्दी जल्दी टिफिन कैरियर, बास्कट और कुछ पैकेट लाला कर सामने रख रही थी। इसमें पूरियां और आलू की करी, ये करेले का सालन है। प्रकाश करेले बहुत शौक़ से खाता है।
हेलो... यानी आप आ चुके हैं। प्रकाश ने अंदर आकर मुझसे हाथ मिलाया।
अब जल्दी उठिए, वर्ना सूरज निकल आया तो ठंडी हवाओं का मज़ा नहीं आएगा। फिर उसने विनीता की छोड़ी हुई अधूरी चाय की प्याली मुँह से लगाई और मुड़ के विनीता की तरफ़ देखा।
उफ़ इतनी मीठी चाय... यक़ीनन विनीता, तुमने इसमें अपने होंट डुबोए होंगे।
चलो हटो। विनीता सच-मुच शर्मा गई।
मगर तुम इस सज-धज के साथ मेरे साथ बैठोगी तो मैं कार कैसे चलाऊंगा। उसने फिर विनीता की तरफ़ देखा।
यूसुफ़ भाई! आपको कार ड्राईवर करना आती है तो बस आप और सुरेंद्र सामने की सीट पर।
अब सताईए मत वर्ना मैं नहीं जाऊँगी। विनीता बालों को झटक कर मचलने लगी। फिर उसे अचानक कुछ याद आया और वो टिफिन कैरियर उठाने लगी।
प्रकाश गुलाब जामुन खाओगे? मैंने बड़ी मेहनत से बनाए हैं। प्रकाश कुछ जवाब देना चाहता था, मगर उसकी नज़र टिफिन कैरियर पर गई और फिर उसने बास्कट को देखा।
ये, ये क्या सामान है वंती! क्या तुमने गांव वालों की तरह अपने खाने की पोटली तैयार कर ली है? प्रकाश कुछ अचानक ग़ुस्से में आ गया। कोई सामान साथ नहीं जाएगा। अरे जंगल में भी जाओ तो घर की पूरियां ही निगलना पड़ें। विनीता का चेहरा उतर गया। वो एक कोने में हट कर खड़ी हो गई तो सुरेंद्र ने कहा,
मगर हम तो आज विनीता के हाथ का बनाया हुआ खाना ही खाएँगे। इसलिए ये टिफिन कैरियर हमारे साथ जाएगा।
प्रकाश साहिब, आपको मालूम है इस खाने को तैयार करने के लिए विनीता रात-भर जागी है।
मुझे मालूम है। प्रकाश ने मुँह बना कर कहा, तो फिर हम बाहर क्यों जाएं। सारी रात जाग कर बनाया हुआ खाना यहीं खाए लेते हैं।
बिल्कुल अड़ियल टट्टू है ये शख़्स। सुरेंद्र ने मेरी तरफ़ देखकर कहा, सब का मूड तबाह कर दिया इस वक़्त।
मूड तो मेरा तबाह हुआ है। प्रकाश बच्चों की तरह जताने लगा।
अब ये खाना कोई नहीं खाएगा विनीता ने टिफिन कैरियर उठा कर तेज़ी से दरोज़े से बाहर फेंका, पर्स उठाया और तेज़ी से बाहर चली गई। चंद मिनट तक सब चुप-चाप खड़े रहे। फिर मैंने प्रकाश से कहा,
विनीता को मना कर ले आओ प्रकाश।
वो कहीं नहीं जाएगी। अभी मूलियां और गाजरें ख़रीद कर आ जाएगी। प्रकाश इत्मिनान से सोफ़े पर बैठ कर गुलाब जामुनें खाने लगा।
यूसुफ़ भाई! मेरे डैडी ने मेरे लिए बहुत रुपया जमा किया है। मैं ख़ुद दो हज़ार रुपये कमाता हूँ। फिर विनीता को अपने हाथ से काम करने की क्या ज़रूरत है? लेकिन खाना बनाना और तरकारियां ख़रीदना उसकी हाबी है।
ख़ैर चलो अब, देर हो रही है। मैंने सबको बाहर की तरफ़ हाँका।
पहले चल कर विनीता को मना लें, वर्ना रास्ते भर मुँह फुलाए रहेगी। प्रकाश ने कार स्टार्ट करते हुए कहा। हम सब बहुत देर तक मार्कीट में विनीता को तलाश करते रहे। फिर हम विनीता की दोस्त सलमा के हाँ गए। वो वहां भी नहीं आई थी।
वो मम्मी के पास गई है। मेरी शिकायत करने। प्रकाश ने माथे से पसीना पोंछ कर कहा। विनीता के खो जाने से वो कुछ घबरा सा गया था। उधर पिकनिक का प्रोग्राम ख़राब करने की वजह से सुरेंद्र उस पर मुसलसल लॉन तान किए जा रहा था।
अबे मम्मी के चाँटे भी खाना पड़ेंगे। प्रकाश ने कार फाटक के बाहर रोक दी और दौड़ता हुआ अंदर गया। फिर उतनी ही तेज़ी से बाहर आया। पीछे पीछे उस की मम्मी थीं घबराई हुई सी। विनीता वहां भी नहीं आई थी।
बात क्या है प्रकाश? विनीता कहाँ चली गई? गोरी चिट्टी नर्म-ओ-नाज़ुक सी मम्मी घबरा घबरा के पूछती रही। मगर प्रकाश ने हाथ हिला कर टाटा करते हुए कहा,
घबराओ मत मम्मी! कोई बात नहीं है। हम ज़रा जल्दी में हैं। मकान से ज़रा आगे जा कर प्रकाश ने कार सड़क के किनारे रोक ली और स्टेरिंग व्हील पर सर रखकर बैठ गया।
इतना घबराने की क्या बात है? तुम पीछे आ जाओ। मैं कार ड्राईव करता हूँ। सुरेंद्र ने उसे पीछे बिठाया और कार स्टार्ट कर के बोला, फिर हॉस्टल चलते हैं शायद वहीं वापस आ गई हो। प्रकाश पीछे की तरफ़ सर टेक कर बैठ गया, हम दोनों चुप-चाप बैठे रहे।
हॉस्टल में विनीता का कमरा अभी उसी तरह खुला पड़ा था जैसे हम छोड़ गए थे। प्रकाश अंदर गया और चुप-चाप बिस्तर पर लेट गया। सुरेंद्र भी बहुत परेशान था, मगर वो प्रकाश के पास बैठ गया।
घबराओ मत प्रकाश! कहीं अपनी किसी दोस्त के हाँ जा बैठी होगी। ग़ुस्सा कम हो जाएगा तो आ जाएगी। वो भला तुम्हें छोड़कर कहीं जा सकती है? और फिर सुरेंद्र ने मुझे इशारा किया कि हम दोनों एक बार फिर उसे ढूंढें।
हम ज़रा यूनीवर्सिटी कैम्पस जा कर देखते हैं। मुम्किन है अपने किसी दोस्त के हाँ बैठी हो। प्रकाश ने कोई जवाब नहीं दिया। वो अपनी बाहोँ में मुँह छुपाए चुप-चाप लेटा रहा। विनीता को हर जगह ढ़ूंडा वो कहीं नहीं मिली। मगर हम ये बात प्रकाश से कहने भी नहीं जा सकते थे। मुझे शाम की ट्रेन से दिल्ली जाना था। इसलिए मैं गेस्ट हाऊस जाना चाहता था। मगर सुरेंद्र ने कहा कि एहतियातन हम दो-चार पुलिस स्टेशनों पर भी इत्तिला दें क्यों कि वो बड़ी जज़्बाती लड़की है। न जाने प्रकाश अपनी इस तेज़ मिज़ाजी से क्या कर देगा किसी दिन। दो-चार अहम पुलिस स्टेशनों को इत्तिला देने के बाद विनीता और प्रकाश की इस मुहब्बत के अंजाम से दिल घबराने लगा। दिन भर की इस भाग दौड़ से हम दोनों बहुत थक गए थे। सुबह नाशता भी ठीक से नहीं किया था। लेकिन अभी प्रकाश को तसल्ली देकर रुख़्सटी हासिल करने का मरहला बाक़ी था। सिर्फ़ एक ही दो मुलाक़ातों में हम बहुत क़रीब आ चुके थे। मुझे विनीता से ग़ैरमामूली दिलचस्पी पैदा हो चुकी थी। कार बाहर रोक कर हम निहायत मरियल क़दमों से हॉस्टल की तरफ़ बढ़े। पता नहीं प्रकाश कितनी बेचैनी से हमारा मुंतज़िर होगा और विनीता को हमारे साथ न पाकर क्या कर बैठे।कमरे का दरवाज़ा आहिस्ते से खोला और हम दोनों उछल कर पीछे हटे। विनीता सामने सोफ़े पर बैठी थी और बड़े प्यार से बड़े इन्हिमाक के साथ प्रकाश को केक खिला रही थी।
हमें देखकर उन दोनों ने एक ज़ोरदार क़हक़हा लगाया। ऐसा क़हक़हा जो आतिशबाज़ी के अनार की तरह अंधेरे आसमान पर बहुत ऊपर जा कर हज़ारों रंग बिरंगे सितारों में बदल जाता है। मगर ये क़हक़हा बुझा नहीं क्योंकि हमारे मसर्रत से भरे क़हक़हे बड़ी देर तक उसको जगमगाते रहे। हम लोग दस पंद्रह मिनट तक ख़ूब क़हक़हे लगा कर अपनी थकन उतार चुके तो सुरेंद्र ज़रा सँभल कर बैठ गया और चेहरे पर काफ़ी संजीदगी ला कर बोला,
हम तो अब पुलिस स्टेशन से तुम्हारी डेड बॉडी उठा कर लाने के इंतिज़ाम में मसरूफ़ हो चुके थे और ये मुहतरमा यहां बैठी अपने दूल्हा मियां का मुँह मीठा करने की फ़िक्र में हैं।
मैं क्या करूँ? विनीता ने मुँह पर से बाल झटक कर बड़ी मासूमियत से कहा, ये घर की बनी हुई चीज़ें नहीं खा रहे थे इसलिए आटो रिक्शा में बैठ कर सिकंदराबाद गई थी, अनन्नास का केक लाने। देख लो अब कैसे मज़े से खा रहे हैं। प्रकाश चुपके चुपके हमारी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहा था।
अभी जाने कितना थकाएगा ये आदमी मुझे।
और जो हम दोनों का सारा दिन तबाह हुआ है? आज बिचारे यूसुफ़ को ख़्वाह-मख़ाह भूका प्यासा परेशान होना पड़ा। कमबख़्तो! अब तुम दोनों हम दोनों से माफ़ी माँगो और जुर्माना दो, मगर जल्दी से। यूसुफ़ की ट्रेन छूटने में सिर्फ़ दो घंटे बाक़ी हैं।
सिर्फ़ दो घंटे... प्रकाश घबरा कर उठ खड़ा हुआ। वंती! जल्दी चल ये सब तेरी वजह से हुआ है। प्रकाश ने विनीता का हाथ पकड़ के कार की तरफ़ धकेलते हुए कहा।
मुझे हैदराबाद से वापस आए तक़रीबन छः महीने हुए होंगे, एक दिन अचानक प्रकाश हमारे डिपार्टमेंट में आ निकला। यूँही हँसता खिलखिलाता हुआ। प्रकाश का क़हक़हा बड़ा गूंजदार होता है, रंगीला चमकीला। वो बात महज़ इसलिए करता था कि क़हक़हा लगा सके। वो हर बात पर हँसता था। अपने पर, दूसरों पर, हालात पर। कल के बारे में सोचने वालों से वो बहुत चिड़ता था। उसे सिर्फ़ आज पसंद था किसी बात के लिए सब्र करना, इंतिज़ार करना उसे बिल्कुल नहीं आता था।
वो दिल्ली अकेला आया था। दिल्ली जैसी जगह और प्रकाश अकेला। मुझे जाने क्यों अकेला प्रकाश अच्छा नहीं लगा। बा'ज़ औरतें जाने क्यों अच्छी लगने लगती हैं। चाहे वो ख़ूबसूरत नहीं हों। क़ाबिल न हों। किसी और मर्द को प्यार करती हों। ज़िंदगी की किसी भी मंज़िल पर उन्हें पाने, छूने की उम्मीद न हो। मगर फिर भी हम उन्हें गुलाब के शगुफ़्ता फूल की तरह देखे जाते हैं। वो गुलाब के कांटे की तरह दिल के आस-पास खटकती रहती हैं जी चाहता है वो सामने रहें, उनकी बातों को सुनते रहें, बेमानी और बे-तुकी बातें। सहल सी बातों पर ताज्जुब और बड़ी अहम बातों से बे-तअल्लुक़ी का इज़हार।
विनीता को साथ नहीं लाये? आख़िर मैंने पूछ ही लिया।
वो तो बहुत मसरूफ़ है घर बनाने में। मम्मी ने उसे ज़मीन ख़रीद कर दी है ताकि वो अपनी पसंद का घर बना ले। अब उसे मेरे साथ कहीं आने की फ़ुर्सत कहाँ है। अचानक प्रकाश ने अपना क़हक़हा रोक कर पहली बार संजीदगी से जवाब दिया।
मैंने सोचा जब तक वो किचन के डेकोरेशन में मसरूफ़ है मैं दिल्ली की इस मीटिंग में शरीक हो जाऊं। वो फिर हँसने लगा।
मुबारक! फिर तो बड़ा आईडीयल घर यक़ीनन तैयार हो जाएगा क्यों उसे घर बनाने के सिवा और कुछ याद नहीं है।
शादी की तारीख़ भी? मैंने ताज्जुब से पूछा।
वो भी शायद इसलिए याद हो कि बेडरूम सजाने के लिए एक मर्द की मौजूदगी ज़रूरी है। इस बार प्रकाश बहुत ज़ोर से हंसा मगर मुझे उसका क़हक़हा बहुत फीका लगा। बुझा बुझा सा बेजान सा और फिर वो ख़ामोशी से पांव हिला हिला कर थोड़ी देर चुप-चाप बैठा रहा लेकिन अचानक उसे एहसास हुआ कि उसकी ख़ामोशी से मैं कुछ महसूस न करलूं।
चलो! बाहर चल कर ज़रा दिल्ली की हवा खाएँ। तुम्हारा ड्राइंगरूम बहुत छोटा है यार। वो घबरा के उठ खड़ा हुआ। फिर सड़क पर आकर वो थोड़ी देर के लिए रुक गया।
पता नहीं यार! मुझे ये क्या बीमारी हो गई है कि कमरे में बैठूँ तो यूं लगता है जैसे दीवारें आपस में मिलकर मुझे पीस देंगी। वो जल्दी जल्दी सिगरेट के कश लेने लगा।
तुम बड़े वहमी हो। दीवारें तो हमारी पनाहगाह हैं, एक हद हैं, जिसके पार हमेशा ख़तरे हैं। मैंने उसे समझाया। फिर मैंने घड़ी देखी।
अरे! तुम्हारी फ़्लाईट का वक़्त हो रहा है। तीन बज गए।
बजने दो। फिर उसने एक टैक्सी बुलाते हुए कहा,
बड़ा मज़ा आएगा अगर मैं विनीता को प्लेन से उतरता हुआ नज़र न आऊँ वो फिर हँसने लगा। टैक्सी आगे बढ़ गई मगर प्रकाश का क़हक़हा नहीं रुका। मैं जब अपने ड्राइंगरूम में वापस आया तो वहां भी जैसे प्रकाश के क़हक़हों का टेप किसी ने लगा दिया था। वो हँसे जा रहा था। सोते वक़्त भी मुझे जैसे एक धड़का सा लगा हुआ था। कहीं ऐसा न हो कि विनीता को प्लेन की सीढ़ियों से उतरता हुआ प्रकाश नज़र न आए। इस ख़्याल के साथ ही जैसे किसी ने प्रकाश के क़हक़हों का टेप फिर लगा दिया।
रात धीरे धीरे यूं बढ़ रही थी जैसे आदमी का अपने ऊपर से एतिमाद उठता है। आज मुझे हैदराबाद में बड़ी सर्दी सी लग रही थी। मीटिंग ख़त्म कर के बाहर आया तो शाम हो चुकी थी। प्रकाश और विनीता घर जा चुके होंगे। हवाएं थमी थमी सी थीं। सख़्त गर्मी और घुटन थी। हैदराबाद के इस बदले हुए मौसम पर मुझे ताज्जुब हुआ। अभी ठंड थी, अब गर्मी लग रही है। मेरे मूड की तरह। मुझे प्रकाश के मकान का रास्ता याद न था। सुरेंद्र का फ़ोन नंबर भी भूल चुका था। अलबत्ता विनीता के हॉस्टल जा सकता हूँ। मगर तीन बरस हो गए उनसे से मिले हुए। अब तक तो विनीता कई बच्चों की माँ बन गई होगी। उस हॉस्टल में क्यों रहने लगी। मैं बस स्टॉप पर खड़ा हुआ था। कई बसें आईं और लोग उनकी तरफ़ भागे। मगर मैं आगे नहीं बढ़ा। मुझे कहाँ जाना था? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि बढ़ते हुए अंधेरे में बिजली सी चमकी, नहीं, तारा सा टूटा, नहीं शायद कहीं दूर सड़क के उस पार विनीता चमक रही थी। बिल्कुल उसी जैसी शक्ल-ओ-सूरत। मगर साड़ी पहने बड़ी संजीदा सी बनी। शाम के धुँदलके में रेडियम के मोती की तरह चमकने वाली विनीता ही हो सकती है। वो मेरी तरफ़ पीठ किए अपने किसी स्टूडेंट से बातें कर रही थी। लेकिन मैं रास्ते से गुज़रने वाली कारों और बसों की पर्वा किए बग़ैर उसकी तरफ़ यूं भागा जैसे एक मिनट भी देर की तो वो ख़्वाब की तरह फ़िज़ा में तहलील हो जाएगी।
हेलो विनीता...
हाय यूसुफ़ कैसे हो? कब आए दिल्ली से? विनीता ने हस्ब-ए-आदत आँखें फैला कर, होंट खोल कर, मुस्कुरा के कहा। वो हमेशा चेहरे पर शदीद तास्सुर फैला के बात करती थी। मगर ऐसा ख़ुश्क और बग़ैर क़हक़हे का इस्तिक़बाल देखकर मैं कुछ रुक सा गया।
एक मीटिंग के सिलसिले में आज ही सुबह आया था। सारा दिन इसी में मसरूफ़ रहा। अब मेरी शामत है। मैं अभी तक सुरेंद्र से मिला हूँ न प्रकाश से। अब उन्हें तुमसे मालूम होगा तो दोनों ख़फ़ा हो जाऐंगे।
हाँ वो तो होगा... आँखें अंधेरे की आदी हो गईं तो मैंने देखा कि विनीता काफ़ी बदली बदली सी लग रही थी। जैसे इन तीन बरसों में कम से कम दस बरस और बड़ी हो गई हो। शायद इसलिए कि मैंने पहली बार उसे साड़ी पहने, बट्टू लगाए देखा था।
प्रकाश कैसे हैं?
बिल्कुल ठीक। विनीता ने सर हिला के कहा, वो कुछ रुकी। मेरी तरफ़ देखा और फिर हंसकर बोली,
हमारा एक घर बन गया है अब।
अच्छा! मुबारक! ये कब हुआ, मैं वाक़ई बेहद ख़ुश हुआ। तो आख़िर चुपके चुपके ही शादी की तुम दोनों ने। हमें ख़बर तक नहीं की। विनीता ज़रा सा मुस्कुराई फिर अपना बड़ा सा बैग कांधे पर लटका के कहा,
यूसुफ़! यहां बस के इंतिज़ार में खड़े खड़े तो लोग बूढ़े हो जाते हैं। आईए, कैंटीन में बैठ कर चाय पियें।
हाँ, मगर प्रकाश कहाँ हैं? वो हज़रत तुम्हारे साथ नहीं हैं आज, मैंने इधर उधर देखकर पूछा।
ऊँह। विनीता ने हस्ब-ए-आदत मुँह बना कर जवाब दिया। हम दोनों कैंटीन में जा बैठे। विनीता गुम-सुम सी थी। शादी ने उसे कुछ संजीदा मिज़ाज बना दिया था। अब उसके सोभाव में एक संजीदगी और ठहराव सा आ गया था।
वो बार-बार मेरे चेहरे को देखे जा रही थी।
यूसुफ़! बहुत दिनों के बाद तुम्हें यहां कैंटीन में देखकर मुझे एक बहुत ख़ूबसूरत शाम याद आ रही है। वो क्वालिटी का अंधेरे वाला डिनर जब हम लोग ख़ूब हँसे थे।
हाँ हाँ, मुझे याद है। मैं हँसने लगा वो चमकीली रात तो मुझे एक ख़ूबसूरत पेंटिंग की तरह याद थी। मुझे उस वक़्त भी यूं लग रहा था जैसे हम सब आज भी इस शाम की पेंटिंग में बैठे एक फ्रे़म के अंदर जड़े हुए हों और किसी मुसव्विर के हल्के हल्के ब्रश से मेरे और प्रकाश और विनीता के नुक़ूश उभर रहे हों।
विनीता भी जैसे उस शाम की सारी तफ़सील अपने ज़हन में जगा रही थी। उसने आहिस्ता से प्याली मेज़ पर रखी।
कितनी अच्छी शामें थीं वो! हम लोग कितना हंसते थे।
हंसते थे। मैं विनीता के चेहरे पर कुछ ढ़ूढ़ने लगा। विनीता ने अब उसे तन्हा क्यों छोड़ दिया? बा'ज़ लड़कियां शादी को भी किसी फ़िल्म का रूमानी मंज़र समझती हैं। फिर जब फ़िल्म ख़त्म हो जाये तो हक़ीक़त का सामना करना पड़ता है। प्रकाश आशिक़ तो बहुत अच्छा था मगर शायद वो अच्छा शौहर नहीं बन सका जभी तो आज विनीता के चेहरे पर हर लम्हा बदलने वाले रंग ग़ायब हो चुके थे। वो बात बात पर उसका चमकीला रंगीला क़हक़हा कहाँ गया जो उजाले की एक लकीर की तरह दिल के अंधेरे में चला जाता है और बड़ी देर तक उसमें रंगीन सितारे चमक चमक कर चुभते जाते हैं। मुहमल सी बातों पर ताज्जुब करना और अहम बातों पर लापरवाई का इज़हार... वो सर झुकाए चाय की प्याली में जाने क्या घोले जा रही थी।
क्या तुम्हारे दो-चार बार हिलाने से इस में मिठास नहीं आऐगी? मैंने उसे छेड़ने के लिए पूछा।
नहीं। उसने सिगरेट केस निकाल कर एक सिगरेट मुझे पेश किया और दूसरा अपने मुँह में दबा कर लाइटर ढ़ूढ़ने लगी। मुझे ताज्जुब हुआ क्यों कि विनीता सिगरेट नहीं पीती थी। प्रकाश को औरतों का सिगरेट पीना अच्छा नहीं लगता था।
दो-चार बार हिलाने से कोई भी चीज़ मीठी नहीं होती यूसुफ़। उसने एक गहरा कश लेकर कहा।
अच्छा, बात क्या है? मुझे यूं लगता है अब तुम क्लासरूम में साईक्लोजी बड़ी संजीदगी से पढ़ा रही हो।
हाँ, मगर मैं तुम्हें संजीदा नज़र आ रही हूँ क्या? उसने हस्ब-ए-आदत बड़े ताज्जुब से पूछा, हालाँकि अब मुझे संजीदा होना चाहिए। लेकिन वही अड़ियल पन, बचपन के रंगीन ख़्वाब और उन ख़्वाबों की ताबीर पुर इसरार। ये सब क्या हमाक़त है। मैंने देखा विनीता के आस-पास धुंए की एक रस्सी सी लपक रही थी।
और फिर तुम्हारा साथ भी तो एक बच्चे ही से पड़ा है। मैंने हंसकर कहा।
बच्चा? उसने सिगरेट का धुआँ उगल कर कहा। प्रकाश बच्चा नहीं है यूसुफ़! वो तो बहुत बड़ा है। कई सदियों से जी रहा है वो।
विनीता के लहजे से मैं समझ गया कि उसे प्रकाश से क्या शिकायत हो सकती है। इसलिए मैंने लापरवाई सेकहा, शादी के साल भर बाद सब मर्दों का यही हाल हो जाता है विनीता। उनकी दीवानगी कम हो जाती है। रूमानी ख़ुमार उतर जाता है।
दीवानगी...? रूमानी ख़ुमार? विनीता बहुत ज़ोर से हंसी। तुम प्रकाश के साथ बहुत कम रहे हो यूसुफ़!
दूसरे दिन शाम ढले मैंने प्रकाश के गेट पर काल बेल बजाई तो मैं एक बेपनाह ख़ुशी से सरशार था। एक ऐसी दिली मसर्रत से जो अपने किसी चहेते दोस्त के घर बन जाने, उसकी महबूबा से उसकी शादी हो जाने, और फिर उन दोनों को इकट्ठा देखकर होती है।
आज मैं प्रकाश के घर पर खड़ा था। गेट के एक तरफ़ डाक्टर प्रकाश राव की नेम प्लेट लगी हुई थी। सारा घर चारों तरफ़ से दरख़्तों में घिरा हुआ था। फ़िज़ा में न जाने कितने फूलों की महक खिली हुई थी। बस यही स्वर्ग है। मैंने सोचा, जिसकी आरज़ू में इन्सान मज़हब और समाज के सहारे कितनी मंज़िलें तय करता है। कहाँ कहाँ भटकता है। मगर रूह का सुकून, जिस्म को आराम, किसी ऐसे ही घर में मिलता है। दरवाज़ा विनीता ने खोला। मेक-अप से आरी चहरा और एक बदरंगी सी ढीली मैक्सी पहने... हालाँकि नई शादीशुदा औरतों को ख़ब्त होता है शाम के वक़्त मेक-अप के तमाम रंगों को चेहरे पर खिलाने का, जहेज़ की तमाम साड़ियों को बदन पर चमकाने का।
तुम्हें घर आसानी से मिल गया? उसने अंदर आते हुए कहा, बा'ज़ वक़्त ये घर बड़ी मुश्किल से मिलता है। छोटी गलियाँ और मोड़ बहुत हैं ना। इसलिए... साफ़ सुथरे, बड़ी नज़ाकत और नफ़ासत से सजाये हुए ड्राइंगरूम में मुझे ला कर वो बीच में क़ालीन पर खड़ी हो गई और दिली मसर्रत से कहा,
ये प्रकाश का घर है, मैंने बड़ी मुहब्बत से सजाया है। अच्छा लगा ना?
वाह! क्या कहने! भई तुम दोनों को दिली मुबारकबाद कि आख़िरकार प्रकाश का घर बन गया। मगर ये हज़रत कहाँ छुपे बैठे हैं? क्या 'पिंजरे' से बाहर नहीं निकलते?
अचानक विनीता जैसे किसी पत्थर की ज़रब से उछल पड़ी। पीछे हटी और मेरी तरफ़ पीठ कर के वाज़ के फूलों को ठीक करते हुए बोली, हाँ, उनें भी घर में होना चाहिए था न? नहीं हैं। एक वक़्त ऐसा होता है जब हम किसी दुख की ख़ुशबू आप ही सूंघ लेते हैं। मैंने महसूस किया कि विनीता के घर में मुझे इतनी ज़ोर से नहीं हँसना चाहिए और फिर अचानक जैसे किसी कमज़ोरी के एहसास को लिए मैं बैठने की जगह ढ़ूढ़ने लगा। सोफ़े पर प्लास्टिक की बास्कट में सुर्ख़ ऊन के गोले पड़े थे और एक नन्ही सी आस्तीन एक सचमुच के स्वेटर में बदलने वाली थी। एक सिगरेट का पैकेट और एक सस्ता सा रुमानी नॉवेल भी पड़ा था। मुझे वहां बैठने के लिए इन चीज़ों की जगह बिगाड़ना पड़ी तो विनीता घबरा उठी।
इन चीज़ों को वहीं रहने दो यूसुफ़! तुम यहां बैठ जाओ। ये सामने वाला सोफा प्रकाश का है। वो एक कोने वाली कुर्सी पर बैठ गई।
प्रकाश का सोफा मैंने ऐसी जगह रखा है कि शीशे से बाहर लॉन का सारा वेव नज़र आता रहे।
ये तुमने अच्छा किया कि प्रकाश की जगह मुक़र्रर कर दी। बेसाख़्ता क़हक़हे लगाने का मेरा मूड हो गया। मगर विनीता सिर्फ़ मुस्कुरा के रह गई। फिर वो उठी और टेप रिकार्डर ऑन कर दिया। रवी शंकर सितार पर जाने कौन सी उदास धुन बजाने लगा और मैं जैसे सहम सा गया फिर मैंने विनीता की तरफ़ देखकर कहा,
ख़ुश तो हो ना तुम?
बहुत विनीता ने जवाब में कहा। ख़ुश क्यों ना हूंगी भला? तुम्हें ऐसा शुबहा क्यों हुआ यूसुफ़? वो मेरी तरफ़ घबरा के देखने लगी। उसकी आवाज़ में जाने क्यों मुझे हल्का सा तंज़ लगा। सिर्फ मेरे ही लिए नहीं बल्कि इस पूरी फ़िज़ा पर जिसका मैं इस वक़्त एक हिस्सा था। विनीता अपनी मैक्सी की सलवटें साफ़ कर रही थी। अब मुझे ख़याल आया कि इस सजे-बने कमरे के सारे रंग मैक्सी ने फीके कर दिए थे। बार-बार मेरे सामने से विनीता का चेहरा खो जाता, उसकी बद-रंग मैक्सी फैल जाती।
तुम औरतें बड़ी धुन की पक्की होती हैं। मैं जानता था कि अब तुम प्रकाश को ज़िंदगीभर छोड़ने वाली नहीं हो।
मगर प्रकाश ऐसा नहीं सोचता था। उसने छोटी सी ऊन की आस्तीन को उधेड़ते हुए कहा। फिर उसने ऊन को उंगलियों पर लपेटना शुरू कर दिया।
घबरा गए मेरी बात पर? उसने हंसकर मेरी तरफ़ देखा, तुम हमारा घर देखकर बहुत ख़ुश हुए ना, तो बस ख़ुश ही रहो। क्योंकि आजकल दुनिया में ख़ुशी बड़ी नायाब शय है। इसलिए अगर कोई ख़ुश है तो उसे ख़ुश रहने देना सबसे बड़ी नेकी है। वो हाथ से आस्तीन का साइज़ नापते हुए बोली।
लेकिन तुम लोग अभी हनीमून पीरियड में हो। अभी से ख़ुशी और ग़म के मसाइल पर ग़ौर करने की ज़रूरत है? मैंने ग़ौर से विनीता को देखा और सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगा। मुझे ऐसा लगा जैसे विनीता आज हर बात कहने से पहले उसे तौल रही थी। बा'ज़ बातें तो वो सिर्फ़ तौलती रह जाती, बोल नहीं पाती थी।
प्रकाश कहाँ है? अब मैंने उकता कर पूछा।
वो है... मैंने जल्दी से गर्दन फेर के देखा। दीवार पर प्रकाश का एक बड़ा सा पोर्ट्रेट लगा था, चेहरे पर बाल बिखराए, एक अब्रू उठाए, वो अपने मख़सूस स्टाइल से मुस्कुरा रहा था। विनीता क़हक़हा मार के हंस पड़ी।
डर गए? प्रकाश को इस कमरे में देखकर डर गए क्या? विनीता के क़हक़हे पर मैं सच-मुच सहम गया, इस बोझल सी, घुटी घुटी रात में मुझे विनीता की ये आवाज़ अजनबी सी लगी जिसका नाम हंसी था।
अब मैं एक ऐसी फ़िज़ा में पहुंच गया था जहां बहुत सी बातें अजनबी लगती हैं या कुछ भी अजनबी नहीं लगता। आप ही सोचिए कि जब घर का एक अहम फ़र्द अचानक ग़ायब हो कर किसी दीवार के फ्रे़म में कील से जुड़ा हुआ नज़र आए तो ऐसी मस्लूब फ़िज़ा में दम कैसे नहीं घुटेगा! रवी शंकर जिस धन की द्रुत पर पहुंच गया था, उस में शिकवे ही शिकवे थे, शिकायतें और तन्हाई का दुख। बस ऐसा ही कोई रोग था जिसकी मुझे पहचान नहीं हो रही थी।
नहीं, ये उम्मीद फ़ुज़ूल है कि आज प्रकाश देर से आएगा। वो किसी दोस्त के हाँ गया है। अभी लौट आएगा। ये कमरा उसका मुंतज़िर नहीं था। इसलिए विनीता ने प्रकाश के वजूद को एक कील से दीवार पर जड़ दिया था और मुझसे कह रह थी,
इंतिज़ार करो न अपने दोस्त का। आते होंगे।
मगर मैं तन्हा कब तक उसका इंतिज़ार करूँ? मेरे दिल की बात जैसे विनीता ने सुन ली और वो अचानक जैसे बेक़रार हो कर उठी, ऊन और बास्कट ज़मीन पर गिर गई। वो अपनी ढीली ढाली मैक्सी समेट कर खिड़की की तरफ़ गई और दूर तक सड़क पर प्रकाश को ढ़ूढ़ने लगी।
तुम यहां तन्हा बैठे हुए मुझे अच्छे नहीं लग रहे हो यूसुफ़। मैंने तुम्हें हमेशा सुरेंद्र और प्रकाश के साथ ही देखा है ना। अगर मुझे मालूम होता कि तुम आज ही शाम को आ रहे हो तो मैं तुम्हारे लिए उन दोनों को कहीं से ढूंढ लाती। तुमने आने से पहले मुझे रिंग क्यों नहीं किया? अब तक तुम तीनों मिलकर एक हज़ार क़हक़हे लगा लेते ना।
मेरे लिए? मेरे क़हक़हों के लिए? मैं सिर्फ़ यही बात सोचता रहा। विनीता को क्या जवाब देता! फिर एक अधेड़ उम्र की आया अंदर आई। विनीता ने मुझसे पूछा,
अकेले बियर पीते हुए बोर तो नहीं होगे? उसने मेरा सिगरेट केस उठाया और मेरे पास बैठ कर सिगरेट सुलगाने लगी। मैंने झुँझला कर कहा,
ऊँह, क्या अकेले, अकेले की रट लगाई है तुमने? मैंने झुँझला कर कहा, सच्ची बात तो ये है विनीता कि मैं तुम्हें अकेला देखकर सख़्त बोर हो रहा हूँ तुम्हें एक बात सुनाऊँ। मैंने उस वक़्त की बोझल फ़िज़ा को बदलने के लिए कहा, जब सबसे पहले सुरेंद्र ने तुम दोनों का तआरुफ़ करवाते वक़्त कहा था कि ये प्रकाश है और ये विनीता तो मैंने सोचा था कि सुरेंद्र को बीच में और लगाने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि तुम दोनों बहुत क़रीब थे। मेरी बात सुनकर विनीता ख़ुशी से खिल उठी उसने जल्दी से सिगरेट ऐश ट्रे में मसल दिया।
सच? तुमने ऐसा सोचा था! तो ये बात प्रकाश को भी बताई थी? इतने में आया बियर के दो मग एक ट्रे में रखकर ले आई। ट्रे उसने तिपाई पर रखी तो मैंने विनीता से कहा, तुम भी साथ दे रही हो क्या?
मैं...? उसने दिल पर हाथ रखकर ताज्जुब से पूछा।
आई ऐम वेरी सोरी... मैं नहीं पीती। ये दूसरा गिलास तो प्रकाश के लिए बनवा दिया है। शायद आ जाए वो मुझे बड़ी तलाश के बाद उसके लिए अच्छी शराब लाकर रखना पड़ती है। मैंने ग़ौर किया कि विनीता जब ये कह रही थी तो आया बड़े ग़ौर से विनीता को देख रही थी।
हाँ, अब प्रकाश को आना चाहिए। मैंने घड़ी देखी। दस बज रहे हैं। क्या रोज़ उतनी ही देर से आते हैं? मैंने बियर चखी। उसका मज़ा बिल्कुल फीका था जैसे विनीता ने अपनी उदासी इसमें घोल दी हो।
ये मत पूछो यूसुफ़, उसने दोनों हाथ मलकर सोफ़े की पुश्त पर सर टेक कर कहा, मैं प्रकाश का कितना इंतिज़ार करती हूँ। दस दस बार सालन गर्म करो। चाय तैयार करो। पिक्चर का प्रोग्राम बना लो, कुछ कर लो मगर वो नहीं आते। मेरी बजाय कोई और औरत होती न तो पागल हो जाती अब तक। इस बार वो अपने बहने वाले आँसू नहीं रोक सकी। विनीता के आँसूओं से मैं डर गया और फिर उस का मूड बदलने के लिए कहा,
तो आख़िर बना दिया न प्रकाश ने तुम्हें अपनी धरम पत्नी?
ओह प्लीज़ ऐसी बात मत कहो यूसुफ़! उसने कानों पर हाथ रखकर बड़े दुख से कहा। अब मुझे चुप हो जाना चाहिए था। लेकिन मुझमें एक ऐसी हरारत आ गई थी जो सिर्फ़ पीने के बाद ही आती है। मैंने बियर का गिलास मेज़ पर रखकर आहिस्ता से पूछा।
प्रकाश की क्या मस्रूफ़ियत है? विनीता सिगरेट केस में से एक और सिगरेट निकाल कर उसे अपनी उंगलियों में दबे हुए जलते सिगरेट से सुलगाने लगी। इस का मतलब ये था कि वो मेरी बात का जवाब देना नहीं चाहती थी।
तो इस का मतलब ये हुआ विनीता कि तुम्हें प्रकाश को बाँधने का गुर नहीं आया हालाँकि ये गुर शादी के बाद हर लड़की को ख़ुद बख़ुद आजाता है।
शादी के बाद? विनीता ने ताज्जुब से पूछा और फिर सिगरेट की राख ऐश ट्रे में झाड़कर उसने कुछ सोचते हुए कहा,
हो सकता है। क्योंकि उसे पीछे पीछे दुम हिलाते हुए चलना आता है, ये मैं जानती हूँ।
किस के पीछे...? मैंने गिलास उठा कर विनीता को ग़ौर से देखा तो वो फिर मेरी बात का जवाब तौलने लगी और इत्मिनान से कहा।
मेरा ख़याल है अब आया को मछली तलने के लिए कह दूं।? तुम्हारा क्या ख़याल है अब प्रकाश को आ जाना चाहिए ना?
यक़ीनन... ग्यारह बज रहे हैं ना... मैंने घड़ी देखकर कहा। विनीता किचन में गई और सोती हुई आया को उठा कर मछली तलने के लिए कहा। मैंने
देखा वो परेशान सी थी। घर में एक मेहमान आया था शायद इसलिए उसका जी चाह रहा था कि आज प्रकाश जल्दी से आ जाये। वापस आकर ऊन की बनी हुई नन्ही सी आस्तीन उसने घुटने पर रखी और बड़े प्यार से उस पर हाथ फेरने लगी। शायद इस स्वेटर को पहनने वाला अब जल्द ही इस घर में आने वाला था। ये बात पूछने की क्या ज़रूरत थी। मछली की भूक लगाने वाली ख़ुशबू से ड्राइंगरूम भर गया। विनीता खिड़की से बाहर फैले हुए अंधेरे को देखकर बोली,
हर चीज़ ठंडी हो जाती है उनके इंतिज़ार में। बस इंतिज़ार किए जाओ उनका। मैंने ग़ौर से देखा। विनीता भी धीरे धीरे ठंडी हो रही थी। जैसे अगरबत्ती का आख़िरी सर जाने कब चुपके से राख बन जाता है। विनीता के चेहरे की शादाबी उसके क़हक़हे और उसके बदन की रानाई हर चीज़ यूं मुरझा रही थी जैसे किसी पौदे को लोग पानी देना भूल गए हों।
अब मुझे विनीता के कमरे में वहशत होने लगी शायद और थोड़ी देर यहां बैठा तो मेरा दम घुट जाएगा।
परसों तो दिल्ली वापिस जाना है। कल शाम प्रकाश को रस्सी से बांध के रखना। मैं तुम्हारी मछली खाने ज़रूर आऊँगा मगर मिठाई पहले खाना है। मैं कुर्सी से उठ रहा था कि लाईट चली गई।
ये अलग मुसीबत है इस कॉलोनी में। आए दिन लाईट चली जाती है, मगर मुझे घुप अँधेरे में भी विनीता यूं नज़र आ रही थी जैसे रेडियम का मोती चमक रहा हो।
मोमबत्ती ले आऊँ? कहीं से आया की आवाज़ आई।
नहीं, ज़रूरत नहीं है। विनीता ने कहा।
यूसुफ़! बा'ज़ वक़्त मुझे यूं लगता है जैसे अंधेरा ही पनाह है। हम अपनी बहुत सी ख़ुश फ़हमियों को अंधेरे में छुपा कर जी सकते हैं। उजाला तो ख़्वाब भी छीन लेता है हमसे
मगर अंधेरा तो धोका देता है विनीता! ख़्वाबों से कब तक कोई बहल सकता है। मैंने कहा। विनीता ने नया सिगरेट सुलगाया एक लम्हे को लाइटर का शोला उसके चेहरे पर भड़का और फिर बुझ गया।
तो फिर ज़िंदगी में और क्या है? हक़ीक़त कोई मअनी रखती है क्या? हर दानिश्वर हक़ीक़त की तलाश करते करते मर गया। वही फ़ायदे में रहे जिन्होंने अपने आपको बहलाने के लिए खिलौने सामने रख लिये। जैसे एक छोटी सी बच्ची काग़ज़ की कतरनों से एक छोटा सा घर बनाती है और गुड़िया की बजा-ए-ख़ुद उसमें बैठ जाती है। पल भर में उस के बच्चों से घर भर जाता है, बच्चे ही बच्चे... सारे घर में, सारी कॉलोनी में, सारी दुनिया में। और फिर-फिर उजाला हो गया... अचानक मरकरी लाईट ने विनीता को चुप करा दिया। वो बार-बार आँखें झपका के बड़ी मुश्किल से उजाले को क़बूल कर पाई।
अच्छा तो अब इजाज़त दो विनीता। उसने कुछ नहीं कहा। स्वेटर की छोटी सी अधूरी आस्तीन पर हाथों से इस्त्री करती रही।
अब तुम भी सो जाओ, जाने किस अहम काम में उलझ गए हैं प्रकाश।
हाँ! जाने किस काम में उलझ गए होंगे। गुड नाइट यूसुफ़!
मैं वरांडे में आया तो चारों तरफ़ से इस ख़ुशबू ने फिर घेर लिया जो इस घर में स्वर्ग की याद दिलाती थी। गहरे अंधेरे में, अशोक के ऊंचे दरख़्त, चारों तरफ़ से विनीता को घेरे खड़े थे।
बहुत दूर जा कर मैंने पलट के देखा। वो अपने स्वर्ग की खिड़की में रेडियम के मोती की तरह चमक रही थी जैसे कार्ड बोर्ड के नन्हे से घर में एक गुड़िया बैठी हो। पता नहीं प्रकाश की क्या मस्रूफ़ियत है अब। उसे अभी तक घर में बंद रहने से वहशत होती है। तू विनीता को साथ क्यों नहीं ले जाता? शादी के बाद इतनी लापरवाई?
कल मैं प्रकाश को इस बात पर ख़ूब डांटुंगा। मैंने विनीता को अपने होटल का पता दिया था इसलिए मैं सारा दिन मुंतज़िर रहा कि प्रकाश विनीता के साथ हँसता गाता मेरे पास आएगा और फिर सब मिलकर कहीं खुली फ़िज़ा में क़हक़हे लगाने चलेंगे। मगर शाम हो गई मेरे दिल पर जाने क्यों उदासी की बारिश सी होने लगी। शादी के बाद प्रकाश को शायद ये पसंद न हो कि मैं पहले वाली बेतकल्लुफ़ी को क़ायम रखूं। फिर मैं क्यों जाऊं उस के घर? सुरेंद्र को कई बार फ़ोन किया लेकिन वो उस वक़्त आया जब मैं एयरपोर्ट के लिए टैक्सी में बैठ चुका था। रास्ते में ख़ूब गपबाजी हुई और जब मुसाफ़िरों को प्लेन में बैठ जाने की हिदायत मिल गई तो मैंने ब्रीफकेस उठाया और अपने दिल के ऊपर से एक भारी पत्थर हटाने के लिए कहा,
सुरेंद्र, इस बार प्रकाश से मेरी मुलाक़ात नहीं हुई। परसों रात उसके हाँ गया था मगर विनीता बता रही थी कि बड़ी रात गए घर आता है वो।
रात गए? सुरेंद्र बड़ी ज़ोर से हंसा।
विनीता बेचारी तो पागल हो गई है। क्या तुम्हें नहीं मालूम हुआ? प्रकाश से विनीता की शादी नहीं हुई!
क्या? मेरे हाथ से ब्रीफकेस छूट गया, ये क्या कह रहे हो सुरेंद्र?
हाँ भई, ढाई बरस हो गए। प्रकाश तो यूरोप में है। सुना है किसी आवारा अमरीकन लड़की का चक्कर है।
तो उसने अमरीकन लड़की से शादी कर ली?
अब ये मुझे नहीं मालूम। सुरेंद्र ने हस्ब-ए-आदत सर खुजाते हुए कहा, उसने अमरीकन लड़की से शादी कर ली है या अभी उसे साथ लिए खुली फ़िज़ाओं में उड़ता फिर रहा है।