गृहत्याग (कहानी) : अज्ञेय
Griha Tyag (Hindi Story) : Agyeya
Let us rise up and part : no one will know.
Let us go seaward as the great winds go.
Full of blown sand and foam : what help is here?
(A.C.Swinburne-स्विनबर्न)
“कितने भोले थे हम - जो सच्चे दिल से इस शिक्षा को अपना कर सन्तुष्ट हो गये!” कह कर बूढ़े ने एक बहुत लम्बी साँस ली और उठ खड़ा हुआ। खड़े हो कर एक बार उसने अपने चारों ओर देखा, फिर धीरे-धीरे खिड़की के पास जाकर चौखट पर बैठ गया, और घुटने पर ठोड़ी टेककर धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाने लगा।
खिड़की के बाहर कोई बहुत सुन्दर दृश्य हो, यह बात नहीं थी। वह घर जिसकी कोठरी में वृद्ध बैठा था, मद्रास नगर की एक बहुत छोटी, बहुत गन्दी गली में था, और उस कोठरी तक सूर्य का प्रकाश कभी नहीं आ पाता था... उस खिड़की के बाहर का दृश्य एक तंग गली, जिसके दोनों ओर नालियाँ बह रही थीं, जिसमें छोटे-छोटे श्यामकाय बच्चे खेल रहे थे... इसमें ऊपर एक पकौड़ी की दुकान थी, जिसमें एक तेल के कड़ाहे के पास बैठी एक बुढ़िया धीरे-धीरे कुछ गा रही थी... कभी-कभी वह रुककर कीच से लथ-पथ लड़कों को धमकी देती थी, जिससे वे दूर भाग जाते थे और फिर नाली की कीच में कूद पड़ते थे...
बूढ़ा इसी दृश्य को देख रहा था - या इसी दृश्य में किसी सुदूर प्रदेश की कल्पना किये बैठा था... और वह धीरे-धीरे गुनगुनाता जाता था, मानो तेल से उठते हुए धुएँ से बातचीत कर रहा हो।
कमरे में वृद्ध अकेला ही था - बहुत अकेला। इतना अधिक अकेला कि उसे अपने वहाँ होने का भी ज्ञान नहीं था - उसके मुख से शब्द बिना आयास के या नियन्त्रण के निकलते जान पड़ते थे और ऐसा प्रतीत होता था कि वह स्वयं उन्हें सुन नहीं रहा-न समझ ही रहा है...
“कितने भोले थे हम-इतने बड़े जीवन में हम एक इतनी बात भी नहीं जान पाये कि स्वत्व क्या है... हमारे लिए वह सैद्धान्तिक चीज़ थी, हम उसकी परिभाषा कर सकते थे... किन्तु हमने उसका उपभोग कभी नहीं किया, न हमें उसकी कुछ अनुभूति ही है...
“कारखाने के निर्दय कार्यक्रम से समय बचाकर हमने किताब माँग-माँगकर पढ़ना शुरू किया, तो क्या पढ़ें? वही हृदय को जलाने वाली शिक्षा - जिसके सिद्धान्त बचपन से ही हमारे वक्ष-स्थल पर अमित अक्षरों में खुद गये थे। हम, जो जन्म के समय से वंचित, छलित, विवस्त्र, विवृत और विदग्ध थे, पढ़-लिखकर भी यही सीखे कि सम्पत्तिहीन होकर भी हमें शिकायत नहीं करनी चाहिए - क्योंकि जिन अधिकारों से हम वंचित रह गये, वे व्यक्तिगत होने ही नहीं चाहिए, वे समाज में ही अभिहित होने चाहिए... अभी तक हम बाध्य होकर निर्धन और वंचित थे, अब हमें शिक्षा मिली कि इस दशा में रहना मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है...”
बूढ़ा कुछ देर तक रुक गया, फिर एकाएक बोला, “कितने भोले थे हम!”
इसी समय खिड़की के नीचे कुछ कोलाहल हुआ, पकौड़ी वाली बुढ़िया का कर्कश स्वर सुन पड़ा, फिर एक लड़के के रोने की चीख...
“बुढ़िया ने मेरा खिलौना तोड़ दिया!”
वृद्ध एकाएक चौंका। उसने खिड़की के बाहर झाँककर पुकारा, “आ बेटा, मैं तुझे दूसरा खिलौना दूँगा!”
लेकिन वह लड़का रोता हुआ भाग गया था।
बूढ़े की बात सुनकर पकौड़ीवाली बुढ़िया चिल्लाकर बोली, “अरे कौन है यह खिलौनोंवाला? छोकरे को और बिगाड़ रहा है! खिलौने देने चला है - पहले अपने मुँह के दाँत तो गिन ले!”
गली में खड़े हुए सब लड़के, जो अब तक सशंक दृष्टि से बुढ़िया की ओर देख रहे थे, उसकी इस बात पर खिलखिला कर हँस पड़े।
वृद्ध ने उठकर खिड़की बन्द कर दी और अन्धकार में एक बड़ी लम्बी साँस ली।
फिर उसने दियासलाई से एक बहुत छोटा-सा दीपक जलाया और एक ओर आले में रखकर उसके सामने खड़ा हो गया। उसकी ओर देखता हुआ बोला, “क्यों रे, कल भी तुझे जलानेवाला कोई होगा, या नहीं?”
क्षण-भर वृद्ध ने अपने आप ही सिर हिलाया और, ‘तुझमें स्नेह नहीं है!’ कह कर वहाँ से चला। एक कोने से एक मिट्टी का घड़ा और पीतल का कमंडल लेकर वह कोठरी से बाहर निकल पड़ा।
सीढ़ियों से उतरकर वह एक छोटे से आँगन में पहुँचा। यहाँ पर नल के नीचे उसने घड़ा रख दिया और स्वयं के पास के चबूतरे पर बैठकर पानी की बहुत पतली धार की ओर देखने लगा।
घड़े में पड़ते हुए पानी की ‘घहर घहर घर!’ सुनते-सुनते उसे अपना नारकीयगत जीवन का कुछ भी प्रतीकार नहीं किया, प्रतिवाद तक नहीं! प्रबुद्ध होकर भी हमने कोई चेष्टा नहीं कि जिन वस्तुओं से हम सदा वंचित रहे, उन्हें अब स्वयं प्राप्त करें, या दूसरों को ही दिलायें... उलटे हम स्वयं इसी सिद्धान्त का प्रचार करने लगे कि किसी व्यक्ति का किसी वस्तु पर कोई स्वत्वाधिकार नहीं है, कभी-कभी संघ और समाज का है...
“किन्तु हमारा सिद्धान्त मिथ्या थोड़े ही था? हमारा मन कभी-कभी कठोर से कठोर यन्त्रणा से निकलकर अदम्य और उद्दंड भाव से स्वत्व-कामना करने लगता है, एक स्वत्व विशेष का -लेकिन इस आन्तरिक प्रेरणा का प्रज्ज्वलन विवेक-बुद्धि की शीतलता को मिथ्या नहीं करता... शायद वह प्रेरणा बिलकुल मरीचिका-”
बूढ़ा फिर एकाएक रुक गया, क्योंकि एक छोटी-सी, कोई सात-आठ वर्ष की बालिका, उस घड़े के पास आकर खड़ी हो गयी थी, और अपनी हथेली नल पर रखकर पानी इधर-उधर छिटका रही थी। बूढ़े ने उसे देखकर कहा “छोटी, घड़ा भर लेने दे। फिर मैं ही पानी उड़ाकर दिखाऊँगा।”
वह बालिका नल से हटकर बूढ़े के पास आकर खड़ी हो गयी। बोली, “बूढ़े बाबा, तुम्हारा नाम ही गंगाधर है?”
“हाँ, क्यों?”
“ऐसे ही। पिता कुछ बात कर रहे थे।’
वृद्ध ने बालिका का हाथ थामते हुए पूछा, ‘क्या?”
बालिका उसके और पास चली आयी और बोली, “बाबा, तुम हमारा घर छोड़कर चले जाओगे?”
वृद्ध ने प्रश्न से समझ लिया कि बालिका गृहस्वामी की लड़की है। उसने उसका नाम बहुत बार पुकारा जाता सुना था, किन्तु उसे देखा कभी नहीं था! उसने कुछ देर चुप रहकर कहा, “हाँ, मुझे जाना ही पड़ेगा। कल चला जाऊँगा।”
“क्यों गंगाधार, तुम्हें हमारा घर अच्छा नहीं लगा?”
वृद्ध ने एकाएक जवाब नहीं दिया। फिर टालते हुए बोला, “देखो, तुम्हारी शक्ल से तुम्हारा नाम बता सकता हूँ। तुम्हारा नाम कनकवल्ली है - क्यों ठीक है न?”
बालिका हँसकर बोली, “उँह, पिता से सुन लिया होगा!” फिर एकाएक गम्भीर होकर कहने लगी, “तुमने बताया नहीं, तुम्हें हमारा घर अच्छा नहीं लगता?”
वृद्ध ने उदास होकर कहा, “बहुत अच्छा लगता है।”
“नहीं, तुम मुँह बानाकर कह रहे हो। तुम्हें अच्छा नहीं लगता।” बालिका ने कहा।
वृद्ध ने बालिका का मन रखने के लिए कहा, “नहीं, नहीं। मैंने मुँह इसलिए बनाया है कि मुझे यह घर छोड़कर जाना पड़ेगा! मैं जाना नहीं चाहता।”
“तो फिर क्यों जाते हो? यहीं रहो न?”
वृद्ध ने फिर थोड़ी देर चुप रहकर कहा, “कनक, मेरे पास किराया देने को पैसे नहीं हैं, इसीलिए जाना पड़ेगा।”
बालिका थोड़ी देर गम्भीर मुद्रा से उसकी ओर देखती रही, फिर बोली, “तुम यहीं बैठे रहना, मैं अभी आती हूँ।”
“अच्छा।”
“कहीं जाना मत!” कहकर बालिका भाग गयी।
थोड़ी देर बाद वृद्ध ने देखा, वह लौटी आ रही है। उसकी दोनों बाँहों पर, पीठ पर, हाथों में, सिर पर कई तरह के बाँस और लकड़ी के खिलौने लगे हुए थे। वृद्ध उसको देखकर मुस्कराने लगा।
वह पास आकर बोली, “ये देखो मेरे खिलौने!”
वृद्ध ने बहुत धीमे स्वर में पूछा,” ये क्यों ले आयी?”
बालिका ने कुछ अप्रतिभ होकर पूछा, “क्यों, तुम्हें अच्छे नहीं लगे?”
वृद्ध बालिका को अपनी ओर खींचते हुए बोला, “कनक, ये खिलौने मेरे ही बनाये हुए हैं!”
कनक ने बड़े विस्मय और अविश्वास के स्वर में कहा, “सच?” फिर आप-ही आप बोली, “जानते हो, मैं ये सब क्यों लायी हूँ?”
वृद्ध कुछ नहीं बोला, ‘चुपचाप उसकी ओर देखता रहा।
“इन्हें बेच डालो। फिर उन पैसों से घर का किराया दे देना।” कहकर कनक ने सब खिलौने गंगाधर के पैरों में डाल दिये।
गंगाधर की आँखों में आँसू भर आये... उसने भर्राई हुई आवाज़ में कहा, “कनक, ये खिलौने उठाकर ले जाओ।”
कनक रुआँसी हो गयी और गंगाधर के मुख की ओर देखती रही।
वृद्ध ने यह देखकर फिर स्नेह के स्वर में कहा, “कनक, ये रख आओ, फिर मैं तुम्हें एक चीज़ दिखाऊँगा। बड़ी अच्छी चीज़ है!”
कनक ने धीरे-धीरे खिलौने उठाये और चली गयी। वृद्ध गंगाधर उठा और घड़े को हटाकर कमंडल भरने लगा। जब वह भर गया, तब वह दोनों को चबूतरे पर रखकर कनक की प्रतीक्षा करने लगा।
कनक आयी तो आते ही बोली, “क्या दिखाओगे?”
गंगाधर बोला, “मेरे साथ आओ।” और घड़ा तथा कमण्डल उठाकर अपने कमरे की ओर चला। कनक बोली, “कमंडल मुझे दे दो, मैं ले चलती हूँ!” और वृद्ध से कमंडल लेकर उसके पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। कभी उसके हाथ से पानी छलक जाता, तो हँस पड़ती।
गंगाधर ने कमरे में पहुँचकर घड़ा यथास्थान रख दिया। कनक ने कमंडल भी उसके पास रख दिया।
गंगाधर बोला, “आओ देखो।” कहकर दीया उठाकर कमरे के एक कोने में गया। सामने चादर से ढका हुआ एक बड़ा-सा ढेर था। उसने चादर उठा ली और फिर बोला, “यह देखो, कनक!”
कनक ने देखा, उस ढेर में बाँस और लकड़ी के पचासों खिलौने रखे हुए थे - हाथी, घोड़े, बन्दर हाथ-पैर हिलाने वाले आदमी, गाड़ियाँ पक्षी... वह थोड़ी देर के लिए स्तम्भित हो गयी। फिर बोली, “इतने खिलौने!”
गंगाधर हँस पड़ा। बालिका ने पूछा, “तो फिर इन्हें क्यों नहीं बेच देते?”
वृद्ध बोला, “आजकल लोग विदेशी खिलौने ही मोल लेते हैं, इनकी बिक्री ही नहीं होती। इसीलिए मैंने बनाना बन्द कर दिया है, और अब घर छोड़ रहा हूँ।”
“ये सब तुमने बनाये हैं?”
“सब!”
“तुमने सीखा कहाँ? मुझे भी सिखा दो! कैसे अच्छे खिलौने हैं?”
गंगाधर उदास भाव से बोला, “हाँ, बुरे नहीं हैं।”
बालिका का मन किसी दिशा में चला गया था! उसने पूछा, “गंगाधर, तुम बहुत दिन से हमारे में घर में रहते थे?”
“हाँ, मुझे पच्चीस साल हो गये हैं।”
“अरे, तब तो मैं थी ही नहीं। तब तुम्हें घर अच्छा लगता था?”
गंगाधर उसके इस भोले अहंकार में हँस पड़ा।
“तुम तब से ही खिलौने बनाते थे?”
“नहीं। पहले मैं लड़कों को पढ़ाया करता था। फिर-”
“लड़कों को पढ़ाने से तो यह काम अच्छा है न?” मैं तो यही करूँ।”
गंगाधर ने एक लम्बी साँस ली और चुप हो गया।
“गंगाधर, तुम तो रोने लगे?”
“नहीं, मैं एक बात याद कर रहा था। सुनो, तुम्हें अपनी कहानी सुनाऊँ! बहुत अज़ीब है, लेकिन तुम्हें सारी समझ नहीं आएगी।”
“क्यों नहीं। माँ जब कहानी कहती है, तो मैं समझ लेती हूँ!”
बिना किसी प्रेरणा के दोनों फिर खिड़की के चौखटे पर बैठ गये और गंगाधर खिड़की खोलते हुए बोला, “तो सुनो!”
गंगाधर धीरे-धीरे, बिना बालिका की ओर देखे, अपनी कहानी कहने लगा। पच्चीस वर्षों में उसे तमिल भाषा का बहुत ज्ञान हो गया था और लड़की से उसने बातचीत तमिल में ही की थी। अब वह अपनी कहानी भी तमिल में ही कह रहा था। किन्तु बीच में कभी-कभी जब आवेश में आ जाता, तब तमिल छोड़कर एक-एक हिन्दी बोलने लगता था - और कितनी परिष्कृत, परिमार्जित हिन्दी! फिर एकाएक चौंककर पूछता, “कनक, तुम क्या समझी?” उसके एकाग्र भाव को देखकर हँस पड़ता था। इसके बाद कथाक्रम पुनः चल पड़ता...।
“मैं जब बहुत बच्चा था, तब कानपुर में रहता था। वहाँ एक कारखाने में मेरे पिता मजदूरी करते थे; और मैं जब आठ साल का हुआ, तब मुझे भी उसी कारखाने में लगा दिया गया। मैं सुबह से शाम तक-दस-दस घंटे लगातार सूत के गोले बनाया करता था... घुमाते-घुमाते हाथ थक जाते थे, पेशियाँ जड़ हो जाती थीं, पर फिर भी हाथ मशीन की तरज चलते जाते थे...शाम को जब छुट्टी मिलती, तब मैं इतना थका हुआ होता था कि उठकर घर भी नहीं जा सकता था। पिता आते और उठाकर ले जाते थे। वे खुद इतने थके होते थे कि मैं अपने को उनकी गोद में देखकर लज्जित हो जाता था... पर करता क्या?”
गंगाधर ने कनक की ओर देखा। वह सहज सहानुभूति में बोली, “तो क्या दिन-भर में खेलना नहीं मिलता था? खिलौने-”
गंगाधर एक विषाद-पूर्ण मुस्कराहट के साथ कहने लगा, “वह भी कहता हूँ, सुनती जाओ।”
“हमें प्रातःकाल छह बजे ही काम पर चले जाना पड़ता था, इसलिए सवेरे तो कुछ खेलना मिलता ही नहीं था। शाम को छह बजे के क़रीब मैं घर पहुँचता तो थोड़ी देर तो फटी हुई चटाई पर लेट रहता था। भूख लगती थी तो इतना भी नहीं होता था कि रोकर रोटी माँग लूँ - चुपचाप पड़ा हुआ गली हुई छत की ओर देखा करता था कि बरसात में पानी से बचने के लिए कहाँ सोऊँगा... लेकिन जब सात बजने को होते थे, तब नीचे गली में बहुत-से लड़कों का क्रीड़ा-रव सुनकर मुझसे नहीं रहा जाता था, अपने थके-माँदे शरीर को किसी प्रकार मैं गली में ले जाता और उन लड़कों के खेलों में अपने को भुला देने का प्रयत्न करता था...
“हमारे पास कोई खिलौने नहीं थे, कोई भी चीज़ ऐसी नहीं थी जिसे हम अपना कह सकते। जब हमारा भाग्य बहुत ही अच्छा होता था, और आधे दिन की छुट्टी मिल जाती थी, तब हम सड़कों के किनारे की घास में लोटकर नदी के किनारे की रेत में घर बनाकर और आपस में लड़कर ही अपना मनोरंजन कर लेते थे। और जब ऐसा सुयोग नहीं मिलता था, तब... सड़कों की धूल में लौटकर, कूड़े के ढेरों में सिगरेट की डिबिया निकालकर, किताबों की दुकानों के बाहर से फटे-पुराने अखबारों के चित्रों का संकलन करके ही हम अपनी आत्मा की भूख मिटाया करते थे!”
वृद्ध ने एक बार-कनक की ओर ध्यान से देखा और फिर कहने लगा, ‘और जो चीज़ सबको मिल जाती है, अपने आत्मीयों का प्रेम - मुझे वह भी नहीं मिला। पिता को काम से ही छुट्टी नहीं मिलती थी, और माता मुझे बोध होने के पहले ही मर गयी थी... कनक, तुम्हारे माता है न?”
कनक ने कहा, “माँ मुझे बहुत प्यार करती है!”
गंगाधर ने यह सुना या नहीं, इसमें सन्देह है। उसका ध्यान बहुत दूर कहीं चला गया था। वह तमिल को छोड़कर हिन्दी में ही गुनगुनाने लग गया था।
“शायद अपनी बाल्यकालीन स्थिति के कारण, अपनी शिक्षा के दोष - या गुण के कारण, मेरी दशा बाद में ऐसी हो गयी... संघ-स्वत्व का प्रचार करते-करते कभी मानो पैरों के तले से धरती खिसक जाती है, अपने सब तर्क भूल जाते हैं, अपना आत्म-विश्वासजनित सन्तोष नष्ट हो जाता है, संसार सूना हो जाता है - केवल एक विराट् आशंका से, एक भैरव प्रशान्ति से, एक उद्भ्रान्त कामना से आकाश व्याप्त हो उठता है-जिन मनश्चेष्टाओं को हम अब तक छिपाते आ रहे हैं, वे एकाएक प्रलयंकार वेग से सामने आती हैं, एक ही आकांक्षा-स्वप्नेच्छा - कि इस विशाल विश्व में कम से कम एक वस्तु तो ऐसी हो जिस पर हमारा एकान्त स्वत्व हो, जिसे हम अपनी कह सकें... हमारे निरीह, निःस्नेह, नीरव हृदयों में कभी-कभी जो उथल-पुथल मच जाती है, कनक, तुम क्या समझी?”
कनक हँसकर बोली, “तुम बोल रहे थे, तो तुम्हारे मुँह पर दीये का प्रकाश बहुत काँपता मालूम होता था, मैं वही देख रही थी। अब कहानी नहीं सुनाओगे?”
“मैं क्या कह रहा था? हाँ, कि हमारे पास खिलौने नहीं थे। जब मैं तेरह साल का हुआ, तब मेरे पिता मर गये। उसके बाद-”
कनक ने गंगाधर के घुटने पर हाथ रखकर कहा, “गंगाधर, तुम तो बहुत रोये होंगे?”
“नहीं, रोने का समय नहीं मिला। मेरे पास पैसे नहीं थे, पाँच आने रोज़ी मिलती थी। जब पिता मर गये तब मैंने वह काम छोड़कर आदमी का काम शुरू किया। काम में हाथ-पैर टूटने लगते थे, पर पैसे ज्यादह मिलते थे-दस आने रोज़। मेरी एक बहिन भी थी, मुझसे साल-भर छोटी। उसे भी अब कारखाने में काम करना पड़ा। उसे चार आने रोज़ मिलते थे। पर वह उसी साल हैज़े से मर गयी और मैं अकेला रह गया।”
कनक ने क्षण-भर के लिए अपन चिबुक गंगाधर के घुटने पर रख दिया। वृद्ध फिर कहने लगा, “मैंने फिर वह घर भी छोड़ दिया जिसमें रहता था। उसके बाद कारखाने के बाहर की कहीं छप्पर में सो रहता था, और दिन-भर में पेट भरने के लिए दो आने भर खर्च करता था। बाक़ी पैसे बचा-बचाकर मैं एक शिल्पशाला में भरती हुआ, और दो साल तक काम सीखता रहा। फिर मैंने मज़दूरी छोड़ दी और उसी स्कूल में नौकर हुआ। यहीं मैंने पढ़ाई की और बढ़ती भी पायी... इसी तरह मैं कॉलेज में भरती हुआ और मैंने बी.ए. भी पास कर लिया।”
“बी.ए. क्या, चौदहवीं जमात को ही कहते हैं न?”
गंगाधर हँसा और बोला, “हाँ।”
“मैं तो अभी दूसरे में ही पढ़ती हूँ।”
गंगाधर फिर हँसा ओर बोला, “इस समय तक मेरे विचारों में बहुत बदली हो गयी थी। मैं अब अमीरों से डरता नहीं था, उनसे घृणा करता था। मुझे विश्वास हो गया था कि अपने देश की सरकार और अमीरों से लड़ाई किये बिना मुझ जैसे मजदूरों का कोई भला नहीं होगा। और मैं यह भी समझता था कि ग़रीबी का एक ही इलाज है कि सब पूँजी संघ को दे दी जाय - संघ जानती हो?”
“नहीं।”
“मतलब यह था कि पूँजी पर, रुपये-पैसे पर, सबका बराबर-बराबरा हक़ हो; एक आदमी दूसरे को भूखा मारकर अमीर न हो जाय। मैंने यह लड़ाई छेड़ने के लिए और भी आदमी इकट्ठे कर लिये, वे भी मेरी ही तरह विश्वास रखते थे और मेरी ही तरही ग़रीबी से उठे हुए थे।”
गंगाधर फिर हिन्दी में कहने लगा, “हमारी दीक्षा यही थी कि ‘प्रत्येक को उसकी पात्रता के अनुसार मिले।’ हमारा प्रयत्न भी यही था कि हरेक को यथोचित दें और हमें इस बात का अभिमान था कि हम अपने अधिकार से अधिक कुछ नहीं माँगते। अब अपनी इस कारातुल्य कोठरी की छोटी परिधि में, एक नीरस और निरानन्द शान्ति में मुझे यह स्पष्ट दीख पड़ता है कि हममें एक बड़ी भारी त्रुटि थी - जीवन में एक स्थान पर आकर हम इस सिद्धान्त को भूल जाते थे... इस स्थान पर हमारे लिए यह असह्य होता था कि हम किसी के भी द्वितीय हों -चाहे वह संसार का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति ही क्यों न हो। वहाँ पर हम सदा प्रथम होना चाहते हैं-या फिर होते ही नहीं-हमारा अस्तित्व ही मिट जाता है...” फिर एकाएक, तमिल में, “कनक, अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हें प्यार न करें, कोई भी न करे, तो तुम क्या करो?”
कनक ने प्रश्न पर विस्मित होकर कहा, “क्यों न करें, मैंने कोई बुरा काम किया है?”
गंगाधर एक फीकी हँसी हँसकर बोला, “ठीक है। तुम्हारी कल्पना के बाहर की बात है।” फिर वह अपने अभ्यस्त साधारण स्वर में कहने लगा, “दो साल ऐसे ही बीत गये। फिर एक दिन एकाएक मेरे सब साथी पकड़े गये - पुलिस को मालूम हो चुका था कि हम क्या करना चाहते हैं; और हममें से किसी ने पता दिया था कि कौन-कौन आदमी हैं। अकेला मैं ही बचा रहा - और मैं भी एक स्थान पर नहीं रह सका, कभी बंगाल, कभी महाराष्ट्र मैं सब जगह भागा फिरता था कि पुलिस मुझे भी न पकड़ ले। लेकिन कहीं कोई सहायक नहीं मिलता था, हर जगह झूठ बोलकर, धोखा देकर ही मैं अपने-आपको सुरक्षित रख सकता था। बंगाल और महाराष्ट्र दोनों में ही मेरे सिद्धान्त के आदमी थे, मुझे जानते थे और बाहर के लोगों से डरते-बचते थे। अगर कभी कोई आश्रय भी दे देता था, तो वैसे जैसे किसी बाजारू कुत्ते को एक टुकड़ा डाल देता है...
“मैं बहुत दिनों से इसी बात का भूखा था जो मुझे नहीं मिलती थी। मैं संसार से अलग होकर नहीं रहना चाहता था-क्यों चाहता? अपना स्थान जो मैंने इतने परिश्रम से प्राप्त किया था, क्यों छोड़ देता? मैं उनमें से नहीं था जो वन्य फूल की तरह अज्ञात, अदृष्ट, नामहीन रहकर ही जीवन व्यतीत करने में सन्तुष्ट होते हैं-मैं और कुछ चाहता था... मैंने बहुत-कुछ सहा था, स्नेह की कामना करते हुए भी उसके अभाव में प्रसन्न था, घृणा का सामना किया था, पर यह उपेक्षा मैं नहीं कर सका! मैं संसार का प्रतिद्वन्द्वी होकर रह लेता, परित्यक्त होकर नहीं रहा जाता था! कनक, तुम सुन रही हो न?”
“हाँ, सुनती हूँ। पर जल्दी-जल्दी कहो, नहीं तो पिता मारेंगे।”
“अच्छा! सब ओर से धक्के खाते-खाते तंग आ गया। पर हताश नहीं हुआ। मेरे लिए तिरस्कार नयी वस्तु नहीं थी - मेरी स्वाभाविक स्थिति ही यही थी कि मैं समाज की उपेक्षा का, घृणा का, तिरस्कार का पात्र रहूँ! अगर कोई मुझसे स्नेह करता, तो वही अपवाद होता-अस्वाभाविक और अस्थायी और भ्रान्तिमय!
“मैंने फिर यही निश्चय किया कि किसी से कुछ आशा नहीं करूँगा, अपने कार्य के अतिरिक्त किसी से कोई सम्पर्क नहीं रखूँगा। इसीलिए मैं पागलों की तरह अपने-आपको अपने काम में खो देने का प्रयत्न करने लगा। मैं रोज़ यह प्रार्थना किया करता कि मुझमें इतनी शक्ति, इतनी दृढ़ता हो कि मैं समाज की, मैत्री की, स्नेह की कमी और आवश्यकता का कभी अनुभव न करूँ, प्रत्युत उसकी उपेक्षा करता हुआ उसकी ईर्ष्या का पात्र होकर चला जाऊँ!
“पर यह बात भी नहीं हो सकी। मेरा काम भी तो ऐसा ही था कि नित्य ही लोगों से मिलना पड़ता, उनसे आश्रय माँगना पड़ता, भिक्षा माँगनी पड़ती... मैं स्नेह नहीं माँगता था, तो भी यह अपने आपसे नहीं छिप सकता था कि उसको पाने का अधिकार होकर भी मैं वंचित हूँ।
“बहुत दिनों तक मैं भरसक प्रयत्न करता रहा, देखते हुए भी अन्धा बना रहा...फिर एक दिन एकाएक मेरी सहनशीलता टूट गयी। किस कारण, यह नहीं कहूँगा। मैं एकाएक उठा, और जिस कोठरी में सोया था, उसका किवाड़ खोलकर बाहर निकल गया। बाहर वर्षा हो रही थी, उसकी ठंडी बूँदों से मेरा दिमाग़ कुछ स्थिर हुआ तो मैं सोचने लगा, कहाँ जाऊँ? संसार में ऐसा कोई नहीं था, जिसके पास जाकर मैं किसी अधिकार से सह सकता, “मुझे स्थान दो!”
कनक अपनी बड़ी-बड़ी आखें वृद्ध पर गड़ाकर बोली, “क्यों, तुम्हारे कोई सखा नहीं थे?”
‘मेरा सखा? मेरे मित्र? कनक, ग़रीब का दुनिया में कोई सखा नहीं होता...”
गंगाधर क्षण-भर के लिए चुप हो गया, फिर कहने लगा, “पहले तो मेरे जी में आया, इन सबों को चिढ़ाऊँ, गाली दूँ, मारूँ, इन सबका गला घोंट डालूँ, ताकि स्तिमित होकर न रह जाएँ! फिर उसी वक़्त मैंने अनुभव किया, वह केवल जी की जलन है, इसके आगे झुकना नीचता होगी। इसलिए मैंने अपने-आपको उस पुराने संसार से अलग कर देने का निश्चय कर लिया। सुन रही हो, न, कनक?”
“हाँ, हाँ, फिर क्या हुआ?”
“फिर मैं यहाँ चला आया। इस बात को आज पच्चीस साल हो गये हैं!
मेरा असली नाम अनन्त था, पर यहाँ आकर मैंने अपना नाम गंगाधर रखा, और खिलौने बनाकर बेचने लगा। पहले मेरे खिलानै बहुत चलते थे, पर अब धीरे-धीरे उनकी क़द्र घट गयी है। अब तो जिधर देखो, विलायती मोटर-गाड़ियों, हवाई जहाज़ों और गुड़ियों की धूम है। इसीलिए मेरा यह हाल हो गया है!”
“पर मेरे पास तो ऐसे ही खिलौने हैं!”
गंगाधर ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, “हर एक लड़की कनकवल्ली तो नहीं होती!”
कनक इस सीधी-सादी प्रशंसा से प्रसन्न हो गयी। बोली, “अगर मुझे पहले मालूम होता तो मैं और खिलौने भी ले लेती।”
वृद्ध हँस पड़ा। फिर कहने लगा, “अब कहानी समाप्त करता हूँ, तुम घर चली जाना। अब मेरी यह दशा हो गयी है कि मैं इस घर का किराया भी नहीं दे सकता। इसीलिए अब छोड़कर जा रहा हूँ।”
“कहाँ जाओगे?”
“पता नहीं।”
“क्या करोगे?”
“पता नहीं।”
“फिर वापस आओगे?”
“पता नहीं।”
बालिका हँसने लगी। बोली, “कुछ पता भी है?”
गंगाधर फिर हिन्दी में बातें करने लगा। “चला तो जाऊँगा, पर वह भूख कहाँ मिटेगी? अब मैं बूढ़ा हो गया, अब बदलना मेरे लिए सम्भव नहीं है। और फिर मेरी भूख तो नयी नहीं है, लाखों वर्षों की संस्कृति और मनश्चालन से उत्पन्न एक प्रवृत्ति है। पृथ्वी पर मनुष्य का आविर्भाव हुए करोड़ों वर्ष हो गये, और इन करोड़ों वर्षों से बिना किसी बाधा के हमारे हृदयों में व्यक्तिगत स्वत्व का भाव जाग्रत रखा गया है। और उससे भी पूर्व जब हमारे पुरखों ने अभी मनुष्यत्व नहीं प्राप्त किया था, तब भी यह स्वत्व-भाव पशुओं में था... इन असंख्य वर्षों से जो भाव हमारे मन में घर किये हैं, जिसकी रूढ़ि असंख्य वर्षों से हमारे मन को बाँधे हुए है, उसे विवेक के एक क्षण में, एक दिन में, एक वर्ष में-एक समूचे जीवन में भी समूल उखाड़ फेंकना हमारे लिए सम्भव नहीं है। विवेक द्वारा स्वत्व-भाव को दबाकर भी हम इस अस्फुट आकांक्षा के विद्रोह को दबा नहीं सकते...”
बालिका इतनी देर से चुप बैठी थी। अब बोली, “गंगाधर!”
“क्या है, कनक? मेरी बात नहीं समझी? मैं बीच-बीच में अपनी भाषा बोलने लग जाता हूँ।”
“एक बात कहूँ - मानोगे?”
“कहो?”
“हमारा घर छोड़कर मत जाओ।”
“क्यों? और फिर रहूँ कैसे?”
“मैं पिताजी से कहूँगी, वे किराया कम कर लें, या न ही लें। तुम खिलौने बनाया करना और बेचा करना। मैं भी मदद करूँगी। बोलो, रहोगे न?”
गंगाधर उसके इस आग्रह का सहसा कोई उत्तर न दे सका। उसने मुँह खिड़की से बाहर कर लिया, ताकि कनक उसकी आँखों के आँसू न देख सके।
बहुत देर तक दोनों ऐसे ही चुप बैठे रहे।
फिर गंगाधर बोला, “कनक, तुमने आज से पहले मुझे क्यों नहीं कहा? तब शायद...”
“आज से पहले मुझे कभी इधर आना ही नहीं मिला। आज जब पिताजी ने कहा कि तुम चले जाओगे, तब मैं तुम्हें देखने चली आयी थी।”
“तुम मुझे क्यों रहने को कहती हो?”
“मुझे तुम्हारे खिलौने, और तुम्हारी कहानियाँ, और तुम अच्छे लगते हो।”
वृद्ध एक लम्बी साँस लेकर चुप रहा। थोड़ी देर बाद कनक ने फिर पूछा, “गंगाधर, रहोगे न?” कहकर वह अपना कोपल धीरे-धीरे वृद्ध के घुटने पर मलने लगी।
गंगाधर का हृदय द्रवित हो गया। वह बोला, “कनक, पता नहीं, अब रह सकूँगा कि नहीं... पर तुम इतना कहती हो, तो यत्न करूँगा...”
“नहीं, ऐसे नहीं। वायदा करो, नहीं जाओगे।”
वृद्ध चुप रहा। कनक फिर बोली, “मेरी बात नहीं मानोगे? कह दो, नहीं जाओगे!”
“अच्छा, जैसे तुम कहो।”
“नहीं, कहो, वायदा करता हूँ, नहीं जाऊँगा।”
“अच्छा, वायदा करता हूँ, नहीं जाऊँगा। लो, अब तुम दौड़कर घर चली जाओ, बहुत देर हो गयी है।”
“अच्छा, कल फिर आऊँगी। तुम जाना मत।” कहर बालिका भाग गयी।
गंगाधर खिड़की की चौखट पर सिर रखकर बैठ गया, उसका दुबला शरीर अन्तर्दाह से हिलने लगा। इसी समय उसने दूर पर एक स्त्री का क्रुद्ध स्वर सुना, “क्यों री, चुड़ैल, कहाँ गयी थीं?” और उसके बाद ही कनक के रोने की आवाज़...
वह एकाएक उठकर दीपक के पास आकर खड़ा हो गया। बोला, “मैं किस विडम्बना में अपने-आपको भुला रहा हूँ। पचास वर्ष तक जो नहीं मिल सका, उस के मोह में आज भी पागल हो रहा हूँ। और आज भी, वह कहाँ मिला है? एक बच्चे का अस्थायी चापल्य... अगर कल वह चली गयी, या विमुख हो गयी, या भूल ही गयी, तो? गंगाधर, तुम पागल हो गये हो। तुम्हारे हृदय में, तुम्हारी नस-नस में, जो जीवन की तीक्ष्णता नाच रही है, उसको तुम एक सामान्य और क्षण-भंगुर आनन्द में कैसे भुला दोगे? तुम्हें चाहिए कि एक अशान्तिमय उपद्रव-या कुछ नहीं! हटाओ इस मोह-जाल को!”
गंगाधर ने एक बहुत लम्बी साँस लेकर चारों ओर देखा, फिर एक काग़ज़ के टुकड़े पर पेन्सिल से तमिल अक्षरों में लिखा, “मेरे सब खिलौने कनकवल्ली के लिए हैं, “ और उसे खिलौने के ढेर पर रख लिया। फिर किवाड़ से बाहर एक बार सीढ़ियों की ओर झाँककर देखा, फिर वापस आकर दीये के सामने खड़ा हो गया।
गंगाधर एक क्षण दीये की ओर देखता रहा, फिर फूँक से उसे भी बुझाकर टूटे हुए स्वर में बोला, “अब आगे अँधेरा है, अनन्त!”
(दिल्ली जेल, जुलाई 1932)