ग्रामीण भाषा (हिंदी निबन्ध) : बालकृष्ण भट्ट
Grameen Bhasha (Hindi Nibandh) : Balkrishna Bhatt
हम समझते हैं कि सर्वसाधारण का कुछ ऐसा मत है कि हिंदी के बारे में जो कोई कुछ लिखा चाहे उनका यह मुख्य कर्तव्य है कि उस पुराने खुर्राट झगड़े को जो हिंदी, हिंदुस्तानी या बी उर्दू के बीच उठ रहा है। स्पष्ट होता है कि हिंदी और उर्दू का कोरा लक्षण दे कोई कृतकार्य और सत्य संकल्प न हो सका इसलिए भाषाओं का भेद दर्शन लक्षण लिखना छोड़ हम उनके बोलने वाले कौन और किस रंग के लोग हैं इस पर ध्यान देते हैं।
आप जो भाषा बोलेंगे वह किसी न किसी साँचे में ढली होगी। तो यह कैसी हो और किस साँचे में ढलै इसका तै करना अत्यंत आवश्यक है। लोग कहैंगे इसका ढलना अधिकतर कुल और जाति से संबंध रखता है अर्थात एक ब्राह्मण का लड़का कभी संभव नहीं कि नित्य के बोल चाल में 'खाकसार को क्या हुक्म होता है' इत्यादि के ढंग की फारसी मिली हुई बोलै। यह भी संभव नहीं कि कोई मुसलमान चाहे वह संस्कृत का बड़ा विद्वान क्यों न हो काशी के पंडि़तों के ढंग की भाषा बोलै। पर थोड़ा ही सोचने से यह बात खुल जायगी कि कुल, जाति या मजहब का बहुत कम असर भाषा पर पहुँच सकता है। इस देश के मुसलमानों की ही भाषा को लीजिए। हम समझते हैं वह आदमी निस्संदेह मुसलमान है जो मोहम्मद को खोदा का रसूल मानता हो नित्य नमाज पढ़ता हो अर्थात धर्म संबंधी सबूत जहाँ तक काम दे सकता है वहाँ तक वह अवश्य मुसलमान है। अच्छा तो अब लखनऊ के एक मुसलमान को लीजिये और उसकी भाषा पर ध्यान दीजिये देखिये कैसे लच्छेदार शीन काफ से जुड़ी हुई फसीह उर्दू बोलता है।
तब ढाका और मुर्शिदाबाद के प्रांत के एक बंगाली मुसलमान को लीजिये और उसकी भाषा को भी कान खोल कर सुनिये सुनते ही चट आप कह उठैंगे यह तो न फारसी है न उर्दू बल्कि शुद्ध बँगला है। कलकत्ते की चीना बाजार में हिंदुस्तानियों के घर के तोतों को भी कभी-कभी चीनियों की बोलियों का अनुकरण 'च्यं-च्यं, म्यं-म्यं' करते सुना है तब आदमियों की कौन कहै इसलिये यही बात ध्यान में आती है कि कुल जाति या धर्म नहीं वरन जैसे लोगों में कोई रहेगा वैसी ही उसकी भाषा अदल-बदल कर हो जायेगी या कभी-कभी अंगरेजी संस्कृत या फारसी आदि भाषाओं का प्रबल अभ्यास भी भाषा पर असर करता है। जिस भाषा का जो अधिक प्रबल अनुशीलन किए रहेगा वही भाषा अपने मामूली बोल चाल में बोलैगा। अर्थात पहले समाज का असर भाषा पर होता है फिर शिक्षा का। पर भाषा का पूरा-पूरा जोर देखने के लिये उन लोगों पर ध्यान दीजिये जो एक ढंग के 'शून्य भीति' हैं अर्थात् जिन पर किसी तरह की शिक्षा मात्र ने अपना रंग नहीं जमाया है और जो घर में तथा घर के बाहर छोटे बड़े सब से एक तार की अपनी सहज भाषा बोलते हैं। सच पूछिये तो ऐसी भाषा से बढ़ कर संसार में कोई दूसरी मीठी भाषा नहीं हो सकती। इस कारण अगर ठेठ हिंदी शब्दों की आप को खोज है तो गत काल के या वर्तमान समय की नपी जोखी प्राय: एक ही ढर्रे पर चलने वाली कवियों की वाणी से लेकर सहस्रों धारा से चलती हुई सजीव ग्रामीण भाषा को देखिये - यदि आप यह कहैं कि शिक्षा के अभाव से ऐसे लोग असभ्य या अश्लील शब्द अपनी बोल चाल में बहुत भरते हैं तो साथ ही इसके यह भी सोचना चाहिए कि कितने हजारों लाखों शब्द ऐसे भी मिलते हैं जिन के पुष्ट भाव या अर्थ गौरव को देख चकित ही हो जाना पड़ता है। कदाचित् आपको यह संदेह हो कि ग्रामीण भाषा से हमारा अभिप्राय निरे अपढ़ और नीच लोगों की बोल चाल से है तो इस प्रश्न की मीमांसा के उत्तर में हम यही कह सकते हैं कि यदि पाठकजन टुक ध्यान दे सोचैंगे तो यह बात उनके मन में सहज ही आ सकती है कि जिसको वे मातृभाषा कहते हैं वह उससे भिन्न है जिसे वह घर के बाहर बोलते हैं अर्थात आपस के बोल चाल की भाषा यद्यपि प्रिय मित्र के साथ प्रेमालाप में काम आती हो फिर भी वह भाषा एक तरह की और बनावट से भरी हुई जँचती है। तात्पर्य यह कि जैसा कुछ सरल भाव मिठास मातृ भाषा में भरा है वह बाहर की सभ्य साधु भाषा में आ ही नहीं सकता। इस सभ्य भाषा से हमारा प्रयोजन कोरी उर्दू ही से नहीं है किंतु उससे है जिसका नाम (Provincial dialects) भिन्न-भिन्न स्थानों की भाषा है जो लोगों के घर के भीतर बोली जाती है और जिस भाषा का बर्ताव नौकर चाकर के साथ किया जाता है। जिसकी सहज गति या प्रवाह होने के कारण जिसमें एक विचित्र लालित्य माधुर्य या कोमलता आ जाती है जिसमें अब तक हजारों लाखों अति पुष्ट अर्थ के द्योतक हिंदी शब्द भरे हैं और जो दुर्भाग्य से मनुष्यों की सभ्य मंडली से निकाल कर अलग फेंक दिये गये हैं। इस अन्याय का क्या कारण है? कारण केवल यही जान पड़ता है कि हम लोगों के बीच बिना बोलाये ही एक पाहुना आ घुसा है और उसी का नाम उर्दू है। माना कि स्त्रियों तथा दासी इत्यादिकों की भाषा सदा से सहज और प्राकृतिक, होती चली आई है पर समाज के दो भाग होते हैं एक पढ़े हुओं की भाषा दूसरे कम पढ़े या अपढ़ लोगों की भाषा इन दोनों में आज कल विचित्र भेद दिखलाई देता है। पूर्व काल में भेद था पर इस तरह का नहीं था अगर बेपढ़े लोग प्राकृत बोलते थे तो इसको भी संस्कृत का बच्चा ही कहना चाहिए।
इन दिनों कोई-कोई कायस्थ महाशय कुछ लोगों से तो अपने जन्म भूमि की भाषा बोलते हैं पर बाहर दूसरे लोगों से कुछ और भी चीज बोलते हैं और एक विचित्र भद्दे फारसी शब्द मिली उर्दू बोलते हैं जिस पर उन लोगों से जिनकी निज की भाषा उर्दू है बिना हँसे नहीं रहा जाता। ऐसों के संबंध में यह पुरानी कहावत सुघटित होती है। 'कौवा चला हंस की चाल अपनी भी भूल गया', 'आप जो पूजैं द्योहरा भूत पूजनी जोय। एकै घर में दो मता कुशल कहाँ से होय।' जो बात हमारे कोई-कोई कायस्थ महाशयों के संबंध में ठीक है वह थोड़ा-थोड़ा सब पर घटती है। फिर इस बात पर भी तो ध्यान देना चाहिए कि समाज का समाज एक विचित्र रास्ते पर चलै इसका कोई बड़ा भारी ही कारण होना चाहिये। इस बड़े कारण को खोजने के लिए आप को दूर न जाना होगा। बहुत दिन की बात नहीं है कि पढ़े-लिखे लोगों के समाज में जो ठेठ हिंदी शब्द बोलता था वह गँवार और देहाती का खिताब पाता था। अधिक नहीं 25 वर्ष पहले के हिंदी के इतिहास पर ध्यान दीजिये हरिश्चंद्र आदि के पूर्व हिंदी की क्या दशा थी और जब उन्होंने बहुत सा वित्त और मानसिक शक्ति को धूर में मिलाय बड़े यत्न के उपरांत मार-मार कर लोगों को हिंदी के पढ़ने का शौक दिलाया तब क्या दशा थी और अब क्या है। सच पूछिये तो इस थोड़े से समय में हिंदी की कुछ कम विजय नहीं हुई। वे ही सब शब्द जो किसी समय गँवारी भाषा समझे गये थे सो अब काल के हेर फेर से अधिकारशाली पढ़े लिखे लोगों के बर्ताव में आने लगे वरन ठेठ हिंदी शब्दों की खोज लोगों को है और वह ठेठ हिंदी हमारे ग्रामीण जनों ही के कंठ का आभरण है। सच है जिन पत्थर को म्यायारों ने बेकाम जान फेंक दिया वहीं कोने का मिरा हुआ। और भी हम शब्दों को ठीक सिक्के की तरह मानते हैं जैसा बाजार के रुपये आदि का कुछ मोल होता है वैसे ही मानसिक वाणिज्य अर्थात एक मनुष्य के ह्रद्गत भाव दूसरे के मन में पैठाना शब्दों ही के द्वारा हो सकता है यदि ऐसा है तो सिक्के घिस भी तो जाते हैं मुसलमानों के समय के सिक्के अनोखी वस्तु को जोगै कर रखने वाले ही के संदूक में मिलैंगे बाजार में नहीं चलते प्रयोजन यह कि ठेठ हिंदी के शब्द जो हम लोगों के काम में लाये जाते हैं सो इसके बदले की गँवार पने की बू उन से आवैं एक विचित्र लहलहापन और पुष्टता उनमें भरी हुई पाई जाती है और आप निश्चय जानिये, बहुत जल्द ही शब्दों की पूरी विजय होगी।
(1 जुलाई, 1885)