गूँग-महल (कश्मीरी कहानी) : सोमनाथ जुत्शी

Goong-Mehal (Kashmiri Story) : Somnath Zutshi

राजमहल के बाग के बीचोबीच काले संगमरमर से बने मेहसाबदार चबूतरे पर शहनाई-वादकों के सूक्ष्म स्वर उष:काल में स्वरित होते थे। नगर के राजा को बीते सपनों से जगाते थे और निशांत के उज्ज्वल सपनों का संकेत देते। शहनाई-वादकों की कई पीढ़ियाँ यही करती आई थीं। वे प्रभातकाल में बड़े ही सुंदर ढंग से, मधुर स्वरों में, अपनी कला का प्रदर्शन करते। राजा प्रसन्‍न होकर उन्हें मोतियों के हार, बाजूबंद आदि पुरस्कार-स्वरूप देते थे। शहनाई के स्वर, उनकी अनुराग भरी रात के उफनते समंदर को, हँसते-खिलते दिन के लिए प्रोत्साहित करते।

आज भी शहनाई के मधुर स्वर वातावरण में खुशियाँ बिखेर रहे थे। परंतु नया राजा राज-शय्या पर करवटें बदल रहा था। चेहरे पर आक्रोश था। वह कई दिनों से बेकरार रातें गुजार रहा था। मन में उमंग भरनेवाला संगीत उसे शोर लगता था। उसने अपने कानों में उँगलियाँ ठूँस लीं, मगर फिर भी यह शोर कम नहीं हुआ। उसे बहुत गुस्सा आया। उसने शय्या के साथ लगा हुआ बटन दबाया। शयनालय के बाहर तैनात सुरक्षा-अधिकारी ने घंटी की अवाज सुनी तो राजा के निजी- सेवक को शयनगृह के द्वार पर भेजा।

“महाराज की जय हो! आज्ञा सरकार?” सिर झुकाए, अपना मुँह छिपाते हुए सेवक ने अभिवादन किया।

“निष्कासित करो इन शहनाई-वादकों को। जब से हम राजा बने हैं, तब से हमने केवल शोर सुना है। दिन में भी और रातों में भी। एक क्षण भी आराम नहीं। मंत्रियों को संदेश भिजवाइए कि राज-सभा में उपस्थित हों। अभी, इसी क्षण।”
“जो आज्ञा महाराज! ”

निजी सेवक गया और यह बात सुरक्षा-अधिकारी से कही। उसने यह समाचार आगे अपने से बड़े राज्याधिकारी तक भेजा। राज्याधिकारी ने यह बात महामंत्री से कही। महामंत्री ने सभी मंत्रियों को सूचित किया। सभी विचलित और अशांत। चेहरे फक; हड़बड़ाए--न जाने क्‍या हो?

शहनाई की धुन बंद हो गई। परंतु बाग की कोकिलों का कुहकना शुरू हो गया। राजा की आँखों में गुस्सा था। दाँत किटकिटा रहा था और शय्या पर कुलबुलाहट में डोल रहा था। वह अपने आपसे बोला, “यह चाटुकारिता है। इनसानों की और पक्षियों की भी। आज मधुर स्वरों में बोल रहे हैं। मगर कल ये सब गर्जन करेंगे। राजमहल की चारों तरफ शोर-ही-शोर होगा। हम शोर को समाप्त कर देंगे। जब से राजा बने हैं। तब से नगर की चारों दिशाओं से आनेवाला शोर ही सुन रहे हैं। निर्लज्ज रातों में यह शोर सर्प के डंक-सा लगता है।"
वह जोर से चिल्लाया, “बंद करो यह शोर।”
यह सुनते ही सेवक भागा-भागा आया और द्वार पर सिर झुकाते हुए कहा, “ आज्ञा सरकार! ”
“किसने बुलाया? ”
“महाराज, आपकी चीख-सी सुनाई पड़ी, तो मैं घबरा गया।”

राजा ने धीरे से कहा, “क्या हमने चिल्लाया? क्या हम स्वयं ही शोर मचाते हैं...हूँ...जाओ तुम...शोर समाप्त होगा। इसका अंत होगा।"

सेवक गया और सारी बात सुरक्षा-अधिकारी को सुनाई। उसने यह समाचार अपने से बड़े राजाधिकारी को सुनाया। उसने महामंत्री को बताया। महामंत्री घबरा गया। उसने सभी मंत्रियों को सूचित किया। सभी हड़बड़ाए--न जाने क्या हो!

जब तक यह बात अधिकारियों और मंत्रियों के कानों में पड़ी, तब तक राजा रेशमी गाउन पहने स्नानगृह में गया। बाहर आया और व्यग्र हो चहलकदमी करता रहा। स्नान किया। परंतु पूजा किए बिना ही वापस अपने शयनावास में गया। सिर पकड़ मखमली आसन पर बैठ गया। ऐसा उसने पहले कभी नहीं किया था। प्रतिदिन वह ठाकुरद्वारे से निकलकर अपने भोजन-कक्ष की ओर जाता, मगर आज शयनगृह में चला गया। सेवक ने इतनी देर में यह सब बातें, चुपके से, रानी तक पहुँचाईं और उनसे जान-बख्शी की विनती भी की थी। रानी विचलित हो गई, परंतु तय किया कि नाश्ता शयनावास में ही भिजवाएगी और खुद भी जाएगी।

राजा आसन पर बैठा बेचैन था और अपने पिता के आदमकद चित्र, माता की मूर्ति को देखते हुए कह रहा था, “यह महल पुराने ढंग का है। महल की एक-एक चीज पुराने समय के राजाओं की पुरानी सोच दरशा रही है। यह लंबी-लंबी मूँछें अब नहीं चलेंगी। ये मंत्री, ये सेवक--सभी पुराने जमाने के हैं। हम बीसवीं शती को पीछे छोड़कर इक्कीसवों में कदम रखनेवाले हैं। यह शोर वातावरण को दूषित करता है। यह हमारी और तुम्हारी मौत है।”
सेवक हाथों में चाँदी की बड़ी-बड़ी थालियाँ लेकर आ गए। उनमें रखी सोने की तश्तरियों में राजा के लिए नाश्ता था।
“महाराज की जय हो!” सेवक ने कहा और थालियाँ मेज पर सजाई जाने लगीं।
“उठाइए यह सब।” राजा ने खीझकर कहा।

रानी ने प्रवेश किया, “प्रणाम हो देव! आप ठीक तो हैं?” उसने सेवकों को जाने का संकेत दिया। वे चले गए, तो रानी ने राजा के पास आकर कहा, “क्या हम आपके निकट बैठ सकते हैं?"
“आज्ञा माँगने की आवश्यकता? हम तो एक प्राण हैं।”
“यदि ऐसा ही होता, तब हम भी इस स्वप्नगृह की राज शय्या की शोभा बढ़ा रही होतीं। लीजिए, जलपान कीजिए।”

“कोई इच्छा नहीं। चिंता के कारण रातों की नींद चली गई है। जब से यह राज-काज सँभाला, तब से इस शोर ने व्याकुल किया है। यह कोलाहल मनुष्य की नींद तक उड़ा ले जाता है। यही कारण है कि हमने आपको शयनगृह में आने का कष्ट नहीं दिया। प्रभु ने चाहा तो स्वयं ठीक हो जाएगा।” राजा ने कहा।
“तो यह कौन सा कठिन कार्य है? घोषणा करवा दीजिए और इस पर रोक लगवा दीजिए।” रानी ने सुझाया।

राजा मुसकराया, “यह इतना आसान नहीं। शोर कई प्रकार का होता है। उसके कई रूप हैं --कलरव, काँय-काँय, पशुओं की आवाजें, गाना-बजाना, हँसना-हंगामा। हमने इस पर विचार करने के लिए सभा बुलवाई है।”

“देखते हैं कि मंत्री क्या कहते हैं! लेकिन अभी आप जलपान करें। देखिए, यदि आप कुछ नहीं खाएँगे तो मैं भी अन्न-जल त्याग दूँगी।”

राजा चुप हो गया। मुसकराते हुए रानी को देखने लगा। रानी उसके समीप आ गई। राजा को भुजपाश में घेरा। कामोत्तेजक नजरों से देखने लगी। जैसे कामार्थी मेनका विश्वामित्र के पास। धीरे से कहा, “महाराज! इस राज-पाट का क्या करना, यदि संतान न हो? मर्यादा का पालन करने के लिए हमारा पुत्र तो होना ही चाहिए न! वैसे भी स्त्री और पुरुष...पति और पत्नी होते हुए भी हम क्‍यों नहीं...? ”

राजा ने आलिंगन किया, ललाट चूमा और आश्वस्त करते हुए कहा, “हम इस बात से अनभिज्ञ नहीं। हम आपसे विमुख नहीं, मगर राज-काज की समस्याएँ इतनी कि...परंतु अब नहीं, कल से आप इस राज-शय्या की शोभा बढ़ाएँगी।” उसने रानी को एक बार फिर चूमा और जलपान करना शुरू किया।

राज-सभा की काररवाई प्रारंभ हुई। मंत्री अपनी-अपनी वरिष्ठता के अनुसार अपने-अपने स्थानों पर बैठे थे। सब-के-सब सिर झुकाए हुए, इस प्रतीक्षा में कि राजा क्या कहे! राजा एक- एक कर उनको ऐसे देख रहा था, जैसे उनके मन में झाँक रहा हो। जब महामंत्री को भी चुप देखा, तब राजा ने चिल्लाकर कहा, “महामंत्री! आप सब लोग लज्जित-से क्‍यों हैं? लज्जित तो हमें होना चाहिए। आप जैसे रत्न हमारे मंत्रिमंडल में हैं। इस रत्नाकर के आगे हम कुछ भी नहीं...आह! आह! आह!!!...”

महामंत्री उठ खड़ा हुआ और सिर झुकाकर बोला, “सरकार! हम वैसे ही शर्मिंदा हैं, हमें और लज्जित न करें।”

राजा ने असंतुष्ट होकर कहा, “फिर यह मौन क्यों? जैसे हमें इस राजभवन के बाहर का कोलाहल अशांत करता है, वैसे ही इस सभा का मौन भी व्याकुल करता है। पिछली सभा में तो सभी मंत्री धाराप्रवाह बोल रहे थे, आज क्या हो गया! आज सब अवाक्‌ क्‍यों? हम नहीं चाहते कि हमारे मंत्री मौन हों। हम चाहते हैं कि बाहर का शोर समाप्त हो। पर्यावरण शुद्ध हो। शोर, मृत्यु है। हमारी, तुम्हारी, हम सबकी मृत्यु! संभवत: आप समझ गए होंगे? ”

महामंत्री ने स्वीकृति में सिर हिलाया और कहा, “राजन! आपकी बात सच है। शोर समस्याएँ पैदा करते हैं। मौन समस्याओं को सदा के लिए समाप्त करता है।”

राजा बोला, “फिर क्‍यों नहीं मंत्रिमंडल ने अब तक कोई योजना बनाई? मंत्रिमंडल एक अबोध बालक जैसा नहीं कि उसे हाथ पकड़कर चलना सिखाएँ। कितने दिनों से हमारी नींद उचटी हुई है! दिन में शोर। रातों को शोर। कभी कुत्तों का भौंकना, कभी चिल्लाहट, कभी ढोल- डढक्का, कभी लोगों का हुल्लड़। क्या सभ्य समाज में यही होता है? यदि हम पिछली शती के राजा होते, तो शोर के आदी हो गए होते। हमने युद्ध में भाग लेकर शोर को अपनी प्रकृति का हिस्सा बना लिया होता। लेकिन हम बीसवीं सदी को ठोकर मारकर नई सदी में प्रवेश करनेवाले हैं। हम विज्ञान के युग में जी रहे हैं। इस शोर का अंत होना चाहिए।"

महामंत्री ने जी-हुजूरी करते हुए कहा, “हाँ महाराज! और यदि आज्ञा हो तो प्रसंगयुक्त एक घटना की चर्चा करना चाहूँगा? ”
“आज्ञा है, कह दीजिए, परंतु कम शब्दों में।"
“जी महाराज! ”

मंत्री उठ खड़ा हुआ और कहने लगा, “सरकार! कहते हैं कि शहंशाह अकबर ने एक प्रयोग किया था। उन्होंने एक बड़ा सा महल बनवाया था जिसका संचालन और व्यवस्था गूँगे-बहरे लोगों के हाथों में थी। उस महल का नाम 'गूँग-महल' था। जब भी कोई ऐसा बच्चा जन्म लेता, जिसकी माँ प्रसव में मर जाती, तो उस बच्चे को वहाँ लाया जाता। यदि कोई माता-पिता किसी बच्चे का लालन-पालन नहीं कर सकता, तो उस बच्चे को भी वहीं ले जाया जाता। दूर-दूर से आए, देश के असंख्य बच्चे उस महल में रहने लगे। वहाँ गूँगे-बहरे कर्मचारियों के सिवा किसी को जाने की आज्ञा न थी। महाराज, कहते हैं, दो वर्ष पूरे होने पर जब वहाँ रहनेवाले बच्चों को बाहर निकाला गया, वे सभी गूँगे और बहरे थे। यह प्रयोग...।"

राजा ने उसकी बात काटते हुए कहा, “आप बूढ़े हो चुके है। इस युग में उस समय का प्रयोग भला किस काम का? हमारे नगर के बच्चे यदि इस प्रयोग में झोंक दिए जाएँगे तो क्या होगा? परिणाम जानने में वर्षों लगेंगे। तब तक उनके माता-पिता क्या करेंगे? आप सोच-समझकर क्‍यों नहीं बोलते? आप अपने राजा के मन की बात भी नहीं जानते, कितने खेद की बात है! ”

उपमंत्री जल्दी-जल्दी उठ खड़ा हुआ, “सरकार! हमें घोषणा करानी होगी। शोर पर प्रतिबंध लगाना होगा। किसी भी प्रकार का शोर, हँसना-खेलना, नाचना-गाना, रोना प्रतिबंधित होगा। अध्यापकों के व्याख्यान के सिवा सभी गतिविधियों पर रोक लगानी होगी। गाड़ियों, रेलगाड़ियों और मोटरगाडियों के मार्ग निश्चित होंगे तथा भोंपू बजाने पर प्रतिबंध होगा। सभी पशु मार दिए जाएँगे। रहा सवाल दूध का, वह किसी दूसरे नगर से मँगवाया जा सकता है।”
“ऐं? यह तो कोई समाधान नहीं हुआ! ” राजा ने उपमंत्री की सुझाव अस्वीकार करते हुए कहा।

सभी सिर झुकाकर बैठे थे। मगर पाँचवाँ मंत्री राजा की तरफ टकटकी बाँधे देख रहा था। वह बाकी मंत्रियों से उम्र में छोटा था।

छोटे मंत्री ने राजा की तरफ देखते हुए कहा, “महाराज! शोर कई प्रकार का होता है। यह तब तक बंद नहीं होगा, जब तक यह संसार है। मशीनों का शोर, जीवन-जगत्‌ का शोर। एक तीसरे प्रकार का शोर भी है। जो हमने, यानी मैंने, महामंत्री ने, बाकी मंत्रियों ने और सरकार ने उत्पन्न कर रखा है। हम कौन-कौन सा शोर समाप्त करें और कौन सा समाप्त करना चाहते हैं? कितना भी रोके यह रुकेगा नहीं, यह थमेगा नहीं। यदि कानों में रुई भी ठूँस लें या बंद कमरों में बैठें, तब भी यह प्रतिध्वनित होता रहेगा। सरकार! मेरी राय यह है कि हमें इसका आदी होना चाहिए। एक दिन शोर थक जाएगा। यदि नहीं, तो हम कारण जानने की कोशिश करेंगे।"

राजा ने आँखें टेढ़ी कर लीं, “क्या हम आपसे यही अपेक्षा करते थे? हमने क्या स्वयं ही शोर उत्पन्न किया हैं? आप कहना क्या चाहते हैं? आपको लगता है, हम जीवन-जगत्‌ के शत्रु हैं? हमें लगता है कि इस सभा के आयोजन से कोई लाभ नहीं हुआ है। हम स्वयं ही इस समस्या का हल ढूँढ़ लेंगे। छोटे मंत्री, आपने यह भी कहा कि शोर कई प्रकार का होता है और होता रहेगा, परंतु यह हमारे लिए असहनीय है।"

राजा गुस्से में उठ खड़ा हुआ और अपने शयनालय में गया। मंत्री आपस में उलझते रहे। महामंत्री और उपमंत्री ने छोटे मंत्री को लताड़ा। वे सभी अशांत हो गए। चेहरे फक पड़ गए। हड़बड़ाए--न जाने क्‍या हो? तय हुआ कि अधिकारियों को बुलाया जाए। उन्हें आदेश दें कि वे किसी भी प्रकार के शोर को बंद करवा दें। पशुओं को नगर की सीमाओं से बाहर ले जाएँ। किसी ने कहा, “यदि इसमें सफलता मिली, तो हमारी कीर्ति बनी रहेगी और राजा की चंचलता भी कम होगी।”

राजा ने अपने गुप्तचरों द्वारा नगर के दो बड़े वैज्ञानिक बुलवाए। उनके साथ गुप्त मंत्रणा हुई। अकबर के गूँग-महल की भी चर्चा हुई। राजा ने उन वैज्ञानिकों से कहा कि यदि वे शोर को समाप्त करने में सफल हो जाएँगे तो उन्हें राजकोष से बहुत सा धन दिया जाएगा।
“...मगर महाराज! यह बात गुप्त ही रहे तो अच्छा है। हमारे परिवारों को कोई हानि न पहुँचाए।” एक आविष्कर्ता ने कहा।
“आप दोनों और आपके परिवारों की सुरक्षा का जिम्मा हमारा।" राजा ने आश्वस्त किया।

दोनों ने एक तरफ जाकर कुछ बात की और एक ने कुछ सोचकर राजा से कहा, “महाराज! शोर बिल्कुल समाप्त होगा।”
दूसरे ने राजा के कान में कुछ कहा। राजा ने प्रसन्‍न होकर उत्तर दिया, “यही तो मैं चाहता हूं।”
“इसके लिए कुछ निर्माण कराना होगा। जितना जल्द हो, उतना अच्छा।” पहले ने कहा।
“कितना बड़ा काम है? ” राजा ने उत्सुक हो पूछा।

“महाराज! ऐसा कि दो दिनों में समाप्त हो जाए और हो सकता है कि एक सप्ताह भी लगे। वैसे कुछ ज्यादा तो करना है नहीं, एक बड़ा सा शेड बनाना होगा। उसमें एक तरफ जाने का और दूसरी तरफ आने का द्वार हो। उस द्वार के करीब तीन मील तक एक सुंदर मार्ग बने, जिसके दोनों तरफ टीन की चादरें लगी हों। बस इतना-सा।” दूसरे ने कहा।
“हम यह कार्य चार दिनों में पूरा कराएँगे।” राजा ने कहा।
“महाराज! तो फिर हम चौथे दिन शाम को उपस्थित होंगे।” दोनों वैज्ञानिक राजा से आज्ञा लेकर चले गए।
राजा अपने स्वप्नगृह की ओर गया। वह बहुत प्रसन्‍न था। उसने रानी को संदेश भिजवाया। कुछ ही क्षणों में रानी ने प्रवेश किया।
“महाराज की जय हो! आज आप अति प्रसन्‍न दिख रहे हैं।”
“हाँ ।”
“मेरे लिए आज्ञा? ”
“आपके लिए आज्ञा? आप और हम एक प्राण हैं। हम स्वयं को ही कया आज्ञा दें? ”
“फिर भी?” रानी ने पूछा।
“हम अपना प्रण पूरा करना चाहते हैं। आज से आप रात्रिभोज के पश्चात्‌, हमारे साथ ही शयनावास में आया करेंगी।” राजा ने कहा।
“ आज्ञा का पालन होगा।” रानी ने उत्तर दिया।
“प्रेम में न आज्ञा, न विनती।” राजा ने प्रेमपूर्वक कहा।

चार दिनों बाद शाम के समय, दोनों वैज्ञानिक राजा के पास आ गए। राजा अप्रसन्‍न दिख रहा था। एक आविष्कारर्ता ने डरते-डरते इसका कारण पूछा तो राजा ने बताया, “काम अभी पूरा नहीं हुआ है। कितने ही लोगों को हमने इस देरी के कारण निलंबित किया है। आप लोगों को दो-तीन दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।"

वैज्ञानिकों के मुँह से जैसे किसी ने जिह्वा छीन ली हो। वे कुछ नहीं बोले। लोगों को निकाले जाने की बात सुनकर ये चिंता में डूब गए, लगा कि उनके साथ भी कहीं ऐसा ही न हो! सिर झुकाए खड़े रहे।
“आप चिंता मत कीजिए। यदि दो-तीन दिनों तक यह कार्य पूरा न हो पाया तो आप देखना, हम उनके सिर शरीर से अलग करवा देंगे।”

सिर अलग होने की बात सुनकर दोनों काँपने लगे। राजा ने उन्हें थरथराते देखा तो पूछा, “हमें लगता है आप लोगों को ठंड लग गई है।”
“राजन! ठंड तो नहीं लगी है। मगर यह सिर अलग होने की बात सुनकर...।” एक ने कहा।
“क्या? ” राजा ने आदेशात्मक स्वर में पूछा।

दूसरे ने डरते-डरते और फिर मुसकराते हुए कहा, “महाराज! मुझे...क्या कहूँ...मतलब...मतलब यह कि उस दिन हम कुछ जल्दी में थे “जल्दी में एक बात कहना भूल ही गए...।”
“क्या भूल गए? सच-सच कहो।” राजा ने हैरान होकर पूछा।

“राजन! जान की अमानत...हमारे सिर आपके चरण-कमलों में पड़े हैं...हम सदा आपके दास बने रहेंगे...महाराज जीवन-दान दें...।” पहले ने कहा।

“महाराज! हम यह बताना भूल गए थे कि नगर के चारों तरफ एक काँटेदार तार बँधवानी होगी, जिससे कि लोग बिना पूछे आ-जा न सकें। अब हमारी इस भूल के कारण इस काम में और भी देरी हो सकती है।” दूसरे ने कहा।
राजा क्रोधित हुआ, “क्या?...अभी भी समय लगेगा? हमें प्रतीक्षा में और कितने दिन बिताने होंगे?”
“सरकार! हमारे शीश आपके चरणों में पड़े हैं। इन्हें हमारे शरीर से अलग न होने दें।”
राजा ने खिन्‍न होकर पूछा, “इस कार्य को पूरा होने में और कितना समय लगेगा?”

“महाराज! यदि कार्य आज शुरू हो, चारों तरफ एक साथ काम हो तो ज्यादा समय नहीं लगेगा।...सरकार! एक सप्ताह, ज्यादा-से-ज्यादा दस दिन।” पहले वैज्ञानिक ने कहा।
“इतनी आवश्यक बात आप कैसे भूल सकते हैं? आश्चर्य है...।” राजा ने कहा।
“महाराज! हम आपकी शरण में हैं। आप राजा हैं।...प्रजापालक...महाराज! हमें जीवनदान दें।” दोनों विनती करने लगे।
“...और कोई बात तो नहीं भूले हो न?”
“नहीं महाराज! बस यही भूल गए थे।”
“जाइए, कार्य शुरू करवा दीजिए। नौवें दिन इसी समय मेरे पास आ जाना।”

दोनों गदगद हो गए और प्रणाम करते-करते निकल गए। उन दोनों के चले जाने के बाद राजा ने महामंत्री को संदेश भिजवाया। थोड़ी ही देर में महामंत्री आया तो राजा ने कहा, “जब तक ये दोनों वैज्ञानिक अपना काम करें, तब तक सारे नगर में मुनादी करा दीजिए कि प्रजा चुपचाप, बिना किसी शोर के, अपना काम करे। उन्हें कहें कि राजा को शोर पसंद नहीं, क्योंकि शोर मनुष्य का मस्तिष्क खराब करता है। सिर भारी हो जाता है, जिसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता है। महामंत्री, किसी भी राजतंत्र की सफलता इस पर निर्भर करती है कि वहाँ का राजा कैसे प्रजा के शोर को दबाता है।”
महामंत्री ने सिर हिलाते हुए स्वीकृति दी। फिर दोनों हाथ जोड़कर कहा, “महाराज! और कोई आज्ञा?”

“लोगों से कहें, दुःख मन में छिपाने के लिए होता है। वे फूट-फूटकर रोते हैं। यदि आज के बाद हमारे कानों में किसी का रुदन पड़ा या कोई प्रसन्‍न होकर पागलों की तरह हँसता-फिरता मिला और शांत वातावरण को तहस-नहस किया, तो हम क्षमा नहीं करेंगे। ऐसे लोगों की कमर से पत्थर बँधवाकर उन्हें बहती नदी में फेंक दिया जाएगा या उनकी चमड़ी उधेड़ दी जाएगी।” राजा क्रोध में उठ खड़ा हुआ। महामंत्री डर गया और बड़ी मुश्किल से बोल पाया, “जैसी आज्ञा महाराज।” यह कहकर महामंत्री राजमहल से बाहर आ गया।

राजा को संतुष्टि मिली और प्रसन्न मुद्रा में अपने शयनालय की ओर बढ़ा। वहाँ महारानी प्रतीक्षा में बैठी थी। विलासशाला में आते ही राजा को फिर से क्रोध आया, क्योंकि सभी खिड़कियाँ और दरवाजे खुले थे। नगर की गतिविधियों से उभरता शोर भीतर आ रहा था। उसने ... क्रोध में आवाज लगाई, “अंतरद्वार बंद करो।हम कोई शोर नहीं सुनना चाहते हैं।”

सेवक और सेविकाएँ आ गए और खिड़कियों-दरवाजों के पट बंद करके चले गए। शोर लुप्त हो गया। इसी बीच, कहीं दूर से मुनादी की हल्की आवाज आने लगी। वह आवाज सुन राजा प्रसन्‍न हुआ और रानी से कहा, “अब नगरवासी शोर नहीं मचा सकते। सभी गूँगे और बहरे हो जाएँगे।"

रानी ने अपनी कोमल भुजाएँ राजा के कंधों पर रखीं। फिर उसे बाहुपाश में बाँधा और अपने वक्षस्थल से लगाया। राजा और रानी एक हो गए।

वहाँ, सीमा पर काँटेदार तार बाँधी जा रही थी। प्रजा यह तमाशा देखकर हैरान थी। फुसफुसाहटें शुरू हो गई। परंतु किसी ने कुछ पूछने की हिम्मत न की। एक आदमी से रहा न गया। उसने हिम्मत जुटाई और लोगों को सच्चाई मालूम पड़ गई। तब तक सीमा के तीनों तरफ तार बाँधा जा चुका था। नगरवासियों ने अपने बुजुर्गों से सलाह ली। उसके बाद सीमा के अंतिम छोर के बंद होने से पहले, रात के अँधेरे में लोग छोटी-छोटी टोलियों में नगर से भाग गए।

नगर की सभी सीमाएँ बंद हो गईं। राजा को समाचार मिला तो वह हर्षित हुआ। प्रसन्न मुद्रा में वह राजप्रासाद की अटाल पर चढ़ गया। चारों तरफ मौन था। राजा ने प्रसन्‍नता में महामंत्री को संदेश भिजवाया। थोड़ी हो देर में महामंत्री आ गया। राजा ने कहा, “महामंत्री, हम अति प्रसन्न हैं। इस नगर में से शोर समाप्त करने का जो काम हमने आपको सौंपा था। वह आपने बहुत अच्छे से पूरा किया है। कल अच्छा दिन है। मुनादी करवा दीजिए कि कल सारी प्रजा नगर के बड़े मैदान में इकट्ठी हो। हम उन सबके सामने आपको और दोनों वैज्ञानिकों को पुरस्कृत करेंगे।”
“परंतु प्रजा कहाँ है?” महामंत्री ने कहा।
“मतलब?” राजा ने गुस्से में महामंत्री को देखा।

“मतलब यह राजन्‌ कि जब आज सुबह मैं नगर में गया तो देखा कि सारा नगर खाली हो गया। एक-एक आदमी चला गया है, अपना सारा सामान लेकर। अब इस नगर में कोई इनसान नहीं है।”
“क्या?” राजा उठ खड़ा हुआ।

“ले आओ उन दोनों वैज्ञानिकों को। हम उन्हें मृत्युदंड दे देंगे। यदि सभी सीमाएँ बंद हैं तो प्रजा कैसे भाग सकती है?”
“महाराज! अब हम राज करें तो किन पर! इस उजाड़ नगर पर या उन जले हुए खेतों पर?” महामंत्री ने कहा।
राजा ने उत्तर दिया, “एक-एक को घसीटकर वापस इस नगर में ले आएँगे।"
इसी बीच कोलाहल हुआ। राजा बौखला गया।

“यह देखो, आ गए! हमारे बिना कैसे रह पाएँगे?” राजा ने ऊँची बुर्ज से देखा। दूर काँटेदार तार के पीछे से अपार जन-समूह उमड़ पड़ा था। भीड़-भड़क्के ने सभी तारें तोड़ दी थीं। लोग राजमहल की ओर आ रहे थे। यह देख राजा को चक्कर आ गया। वह प्रासाद की ऊँची अटाल से नीचे गिर गया। लोगों ने देखा तो दौड़े चले आए। राजा का मृत शरीर धरती पर पड़ा हुआ था। चारों ओर विजयनाद हुआ। शहनाई बज उठी। ढोल बजने लगा। सारा नगर आह्लादित हुआ।

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