गोकुल मथुरा द्वारिका (उपन्यास) : रघुवीर चौधरी

Gokul Mathura Dwarka (Gujrati Novel Hindi) : Raghuveer Chaudhari

(मूल गुजराती में समादृत इस कथात्रयी गोकुल मथुरा द्वारिका के नायक हैं श्रीकृष्ण, जो कथा में आद्योपांत यवनिका के पीछे तिरोहित रहते हैं, किंतु पाठक पग-पग पर उनका सान्निध्य पाता चलता है - अदृश्य, अगोचर, किंतु अनुभूति में व्याप्त। फिर ऐसे श्रीकृष्ण का जीवन-चरित लिखते हुए लेखक ने गोकुल मथुरा द्वारिका जैसे स्थलवाचक नाम क्यों दिये? श्रीकृष्ण का जीवन तो समग्र भारतवर्ष के साथ संबद्ध है?
गोकुल मथुरा द्वारिका कहते ही क्या संपूर्ण कृष्ण हमारे मानसपटल पर नहीं आ उपस्थित होते?
गोकुल के लोकनायक कृष्ण!
मथुरा के युगपुरुष कृष्ण!
द्वारिका के योगेश्वर कृष्ण!
अपने-अपने में परिपूर्ण मगर एक दूसरे की सर्वथापूरक यह उपन्यास-त्रयी हिंदी पाठकों को उस श्रीकृष्ण से परिचित करवाने का प्रयास है जो रसेश्वर से योगेश्वर बने हैं।
एक से बढ़कर एक चुनौतियों का सामना करनेवाला यह चरित्र प्रत्येक युग के लिए प्रेरणादायक है। वे समग्र रूप में पुरुषोत्तम हैं! आनंद रूप में अनुभव-गम्य हैं!
‘अमृता’ उपन्यास के माध्यम से हिंदी पाठक जगत के बीच सुख्यात और साहित्य अकादमी पुरस्कारजयी कृतिकार रघुवीर चौधरी की यह उपन्यास-त्रयी इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें मिथक की गरिमा और कथात्मकता की रक्षा करते हुए आधुनिक जीवन और परिवेश की झलक भी पाठकों को स्पष्ट रूप में मिल जाती है।)

गोकुल- 1

श्रीकृष्ण और राधा इतने में ही कहीं होंगे, यह वृन्दावन है।

यहाँ नैसर्गिक संगीत है। घने लताकुंज, लहराते वृक्षों से आबद्ध वीथिका और सूर्योन्मुखी तृणाकुरों से ताल मिलाता हुआ मृदु सुगन्धित समीर धन्य है।

यह संगीत और सुगन्ध आगन्तुक का एकसाथ स्वागत करते हैं।

मनुष्य, प्राणी और पक्षियों में से इस स्वागत के लिए सबसे अधिक ऋणी कौन है यह कालिन्दी जानती है। कभी इस किनारे से कहती है, कभी उस किनारे को।

पहले नन्दराय का गोकुल उस किनारे बसा था, अब इस किनारे बस गया है। सब जानते हैं, ऋषि देख रहे हैं। कभी परोक्ष रूप से देखा था, आज प्रत्यक्ष देखने के लिए आ रहे हैं।

हरिद्वार की गोष्ठी में सांदीपनि मुनि का गर्गाचार्य से परिचय हुआ। थोड़े ही समय में आत्मीयता बढ़ गई। जीव और जगेत को देखने की अलग-अलग दृष्टि होते हुए भी उन्हें एक-दूसरे में किसी आधारभूत साम्य का अनुभव हुआ। साथ ही साथ वापस लौटे। एक विद्याप्रेमी सार्थ ने उनके लिए रथ का प्रबन्ध कर दिया था। सीधे मथुरा पहुँच गए होते परन्तु ब्रजभूमि में प्रवेश करते ही गर्गाचार्य को नन्दराय के गोकुल में जाने की अदम्य इच्छा हुई। उनके साथ सांदीपनि मुनि का अन्तःकरण जुड़ गया। इस गोकुल की सीमा में प्रवेश करते ही वे रथ से उतर गए। उमंग में चलने लगे, चलने से उमंग और बढ़ी। ब्रजभूमि में गोकुल स्थानान्तर करते रहते हैं, परन्तु नन्दराय के गोकुल को कोई निश्चित स्थान मिल गया है इसलिए वह यहीं स्थिर हो गया है।

कोयल ने स्वागत किया, मोर नाच उठे। संगीत को समर्थन देने के लिए सौन्दर्य खिल उठा।

'इस भूमि पर चलते समय मैंने सदैव स्फूर्ति का अनुभव किया है।' गर्गाचार्य ने कहा। सांदीपनि मुनि पीछे रह गए थे। धीरे-धीरे इस संतोष के साथ चल रहे थे कि पहुँचने का स्थान समीप ही हो।

उनकी एक आँख में आनन्द था, दूसरी में विस्मय।

इस भूमि का नैसर्गिक सौन्दर्य अद्भुत है। जिस तरह पत्ते और पुष्प अपने-अपने उचित स्थान पर थे, उसी तरह मनुष्य, प्राणी और पक्षी अपने-अपने सर्वथा योग्य स्थान पर थे। परस्पर की इस अनुरूपता के कारण सारा परिवेश सचेतन लगता था। उसकी धड़कन में ऐसी सुसंगति थी, ऐसी विशालता थी कि आगन्तुक तुरन्त ही उसका भाग बन जाए।

गर्गाचार्य आगे थे। परिचित की तरह सीधी दिशा में चल रहे थे। सांदीपनि चाहक थे, कुछ छूट न जाए इस तरह चारों ओर दृष्टि डालते हुए चल रहे थे। इस समय शायद वे साँस भी आँखों से ले रहे थे।

वहीं एक अद्भुत दृश्य दिखाई दिया। आगमन का प्रयोजन सिद्ध हो गया हो इस तरह मुनि रुक गए।

सघन लताकुंज और कदम्ब के एक छोटे वृक्ष के बीच खड़ा बालक सूर्य के सामने प्रकाशमान हो रहा था। यद्यपि उसके परम मनोहर मुख पर परावर्तन का प्रकाश था फिर भी उसमें से ही स्फुटित होता हो, ऐसा लगता था। उसकी आत्मतेजस मुद्रा पर प्रकृति का सम्पूर्ण सन्नेिवश मुग्ध था। मुनि पुरुष और काल का तत्त्व भूलकर प्रकृति के अभिन्न अंग बन गए थे। अब वे समग्र अस्तित्व से देखने लगे। बालक का श्याम वर्ण अत्यन्त जाज्वल्यमान बन गया है। अरे! उसने पुष्प लेने के लिए हाथ बढ़ाया या लता स्वयं झुक गई? घटना के सत्य को संवेदना के रूप में अनुभव करने के लिए मुनि स्थिर हो गए, अपने में।

पाँचेक कदम आगे बढ़ने के बाद गर्गाचार्य का उस ओर ध्यान गया।

परम आश्चर्य!

मध्य देश का यह विद्वान, काशी से उज्जयिनी जाकर अंकपाद आश्रम का कुलपति बना, शस्त्र और शास्त्र का विख्यात आचार्य, किसी के सामने कभी हाथ न फैलानेवाला निर्मोही ऋषि, इस तरह एक अनजान बालक को देखकर मोहित हो जाए? जो सर्वज्ञ है, मानो वह अपनी दिशा और गति को पूरी तरह भूल गया है। या फिर यह बालक उन्हें इतना अनजान लगता ही नहीं होगा! मैंने उन्हें जो बताया नहीं वह भी-गर्गाचार्य मुग्ध होकर निहारने लगे, उनके कानों में आवाज आई।

'धन्य!'

सांदीपनि मुनि के मुख पर विस्मय का भाव अंकित था। उनके ध्यानमग्न रहने से निर्मल हुए नेत्रों में निरी मुग्धता थी। धन्यता के भाव को पूर्ण रूप से व्यक्त करने के लिए उन्हें अभी दूसरा सार्थक शब्द नहीं मिला था। आनन्द की लहरों के रूप में उनका हृदयाकाश उस बालक तक विस्तरित हो चुका था। गर्गाचार्य को बाह्य रूप से जो अन्तर दिखाई दे रहा था वह आभासी था। मुनि जहाँ देख रहे थे, वहाँ नहीं थे। गर्गाचार्य ने वापस लौटकर धीमे से पूछा, 'समाधि लग गई है क्या?'

'समाधि से भी कुछ विशेष । केवल अभेद की अनुभूति । शुद्ध आनन्द । इस बालक के प्रति जगी निर्हेतुक प्रीति का अभी मैं वाणी से वर्णन नहीं कर सकता। वर्णन कर पाऊँ तो मेरी वाणी मंत्र बन जाए, परन्तु यह कार्य तो किसी आर्षद्रष्टा ऋषि का है। मैं ठहरा एक शिक्षक। जो मेरे आश्रम में आता है, उसे ही शिक्षा देता हूँ। यहाँ कैसा लोभ मन में जागा है, बताऊँ? इस बालक को चाहकर मैं स्वयं को शिक्षित करूँ! आपने मुझे यहाँ से गुजारकर मुझ पर बहुत बड़ी कृपा की है आचार्य! जो यात्रा परिश्रम के रूप में पूरी होती, उसने इस भूमि के केन्द्र में लाकर मुझे तीर्थ प्रदान किया। इस बालक के दर्शन के बाद प्रत्येक शिशु मेरे लिए तीर्थोत्तम होगा। शास्त्र-ज्ञान का शुष्क कार्य करनेवाले को आज प्रीतिपात्र मिल गया है। उसने मुझे दाता में से चाहक बना दिया है। चलो!' ।

मुनि ने आचार्य के पीछे कदम तो बढ़ाया लेकिन उन्हें अब तक दृष्टि वापस नहीं मिली थी। दिग्भ्रमित रूप में चलते-चलते उन्होंने बार-बार उस बालक की ओर देखा। प्रत्येक दर्शन की रमणीयता अपूर्व थी।

जो देखा था उसे जानने की इच्छा से प्रेरित होकर उन्होंने पूछा, 'आप अवश्य इस बालक को पहचानते होंगे। काफी दूर पहुँच जाने पर भी 'इस बालक' कहकर मुनि ने आन्तरिक नैकट्य बनाए रखा। इसे जानकर आचार्य प्रसन्न हुए।

वे यादवों के पुरोहित थे। उत्तरापथ में उनका सर्वत्र सम्मान है। वे त्रिकालज्ञानी कहलाते हैं। निर्मम और निष्ठुर शासक भी उनके आगे नम्रता से पेश आते हैं। उन्हें किसी का भय नहीं है। फिर भी किन्हीं कारणों से उन्होंने इस बालक का नामकरण संस्कार गुप्त रूप से एकान्त में लिया था।

ब्रजमंडल में वसुदेव और नन्दराय की मैत्री प्रसिद्ध है। दोनों एक गोत्र के होते हुए भी एक क्षत्रिय है, दूसरा गोपालक। कर्म भिन्न परन्तु गुणों में समानता है। दोनों निर्भय। शुभ में श्रद्धा रखनेवाले।

एक दशक से अधिक समय से वसुदेव पर मथुरा का राजा कंस कुपित है। नन्दराय मानते हैं कि इसका कारण वसुदेव का कोई अपराध नहीं है। सत्तालालसा के सन्देह के कारण ऐसे धीरोदात्त यादवश्रेष्ठ के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए था, परन्तु किसी ने प्रतिकार नहीं किया। स्वयं ठहरे गाँव के निवासी, एक गोपकुल के नायक। लोग प्रेम के कारण ही राजा कहते हैं। कर एकत्र करके राजकोष में जमा कराने के अतिरिक्त दूसरी विशेष सत्ता नहीं है। फिर भी सेना, मल्लदल और शस्त्रों के पीछे खर्च करने के लिए प्रजा के विभिन्न वर्गों पर कर-भार बढ़ाया था, उस समय अन्य नायकों की तरह नन्दराय चुप नहीं रहे। उन्होंने महामात्य को सम्बोधित करते हुए, परन्तु वास्तव में राजा को सुनाते हुए कहा था-

'अपने राजपुरुष अपना दायित्व निभाने में प्रमाद करते हों, ऐसे में कर-भार बढ़ाने का प्रयोजन समझ में नहीं आता। क्या आप उनके प्रमाद को पोषित करना चाहते हैं? विलास को बढ़ावा देना चाहते हैं?'

नन्दराय की आँखों में आत्मविश्वास था, आवाज में दृढ़ता थी। महामात्य अक्रूर यह देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने कोई उत्तर न दिया, परन्तु कंस असहिष्णु हो गया। एक गोपनायक की श्रेणी का आदमी ऐसा आक्षेप कैसे कर सकता है? उसने उग्र होकर कहा, 'राज्यादेश की अवज्ञा सहन नहीं होगी। ब्रजमंडल का एक वरिष्ठ गोपनायक मानकर हम तुम्हें सम्मान देते हैं और तुम ऐसी अशिष्टता दिखा रहे हो? ध्यान रखना, भविष्य में इस प्रकार का व्यवहार दंडनीय माना जाएगा।'

नन्दराय अपने द्वारा कहे गए शब्दों का अर्थ अच्छी तरह समझते थे। उनमें कहीं दुराशय या विद्रोह नहीं था। यदि कंस के स्थान पर महाराज उग्रसेन गद्दी पर विराजे होते तो उन्होंने महामात्य से कहा होता, ‘गोपनायक का सुझाव लिख लिया जाए।' वे इस सुझाव का स्वागत करते। जबकि यह राजा तो अपनी विरासत को ही भूल गया! विरोध का मर्म समझे बिना ही उसने राज्य की दंड-शक्ति का प्रयोग करना चाहा है।

राजसभा में विराजे हुए सदस्यों में से किसी ने भी नन्दराय के समर्थन में कुछ नहीं कहा। सूर्य-प्रकाश के बिना पीले पड़ गए लटकते पत्तों जैसी राजपुरुषों की मुख-मुद्रा थी। एक मात्र अक्रूर होंठ बन्द रखकर अपनी प्रसन्नता दबाकर नन्दराय के चरणों में दृष्टि टिकाए थे।

नन्दराय खड़े थे। अब किस सम्मान के लिए यहाँ बैठे रहना? उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उनके जैसे प्रजावत्सल और राजभक्त नायक का इस तरह अपमान होगा। यह राजा अपने शुभचिन्तकों को ही दंडनीय मानने लगेगा तो?

मथुरा के बाजार में से बालकों के लिए कुछ खरीदकर ले जाने की उनकी आदत थी। इस बार भूल गए। मार्ग में याद आया, तब बहुत आगे निकल गए थे। रंज दुगना हो गया। खैर! बालक उन पर नाराज होंगे तो यशोदाजी उन्हें मना लेंगी। संसार की सभी शक्तियाँ उनके स्नेह में बसी हुई हैं।

पति की मुखमुद्रा देखकर यशोदाजी समझ गईं कि कुछ अशुभ घटित हुआ है। पास बैठकर पूछा। राजसभा में राजा द्वारा हुए अपमान की बात शुरू हुई। उस समय दोनों बच्चे वहीं बैठे थे।

सरपंच मथुरा से लौट आए हैं, यह जानकर गोकुल के अग्रणी मिलने आए। शाम का समय होने के कारण काम पूरा करके गाँववाले भी दालान में एकत्र हो गए।

राजा ने कर-भार बढ़ाया है इसका उन्होंने विरोध किया था, यह सुनकर तो सब प्रसन्न हुए। परन्तु राजा क्रोधित हुआ और चेतावनी दी, यह जानकर नन्दराय के प्रति उनके आदर में कमी आने लगी। राजा रूठे इससे बड़ा दुर्भाग्य कौन-सा होगा?

नन्दराय पर कंस की कोपदृष्टि की बात धीरे-धीरे पूरे ब्रजमंडल में फैल गई। नन्दराय अपने गाँव के मुखिया होने के अलावा चौदह गोकुलों के नायक थे। उन सबका हित इनके हृदय में बसा हुआ था। राजा का विरोध करने के लिए गोप समाज को नन्दराय के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए, परन्तु हुआ इससे विपरीत। सात गोकुलों ने ही प्रकट रूप में उनका समर्थन किया। ज्यादातर मौन रहे और कई भीरु और स्वार्थ-लोलुप मनुष्यों ने नन्दराय के साथ अपने सम्बन्ध काट लिए। वे ऐसे लोग थे जो अपने बच्चों के हिस्से का दही, माखन भी मथुरा के बाजार में बेचकर धनवान होकर अन्त में नगरवासी बनना चाहते थे।

इन दिनों में निर्भय एवं सत्यनिष्ठ गोप नन्दराय के अधिक निकट आए। दालान की भीड़ तो कम हो गई, परन्तु सच्चे मनुष्यों की आत्मीयता देखकर नन्द-यशोदा स्वयं को अधिक भाग्यशाली मानने लगे। वे सिर्फ नायक थे फिर भी ब्रजवासी उन्हें राजा के योग्य सम्मान देते थे, इसके केन्द्र में उनकी उदारता थी। सभी को सहायता करने की तत्परता थी। सामने से मिलनेवाले प्रेम को उन्होंने ईश्वर की कृपा माना है। फिर भी स्वार्थी लोगों की खशामद को देखकर कभी-कभी उन्हें ऊब होने लगती थी। यह स्थिति और उसका कारण जानकर उन्होंने मन ही मन राजा का आभार माना।

इस दम्पति के यहाँ प्रौढ़ उम्र में पालना बँधा था। सबने कहा : सत्कर्मों का फल है। यशोदाजी ने कहा : इस जन्म में तो मैंने कौन से अच्छे कर्म कर डाले हैं? परन्तु पूर्व जन्म में अवश्य शुभ कार्य किए होंगे। बिना ऐसा किए ऐसा सुन्दर और सदा प्रसन्न रहनेवाला पुत्र कहाँ से प्राप्त होता। मेरे यहाँ रोहिणी अतिथि की तरह रहने लगी और उसने मुझे सेवा करने का अवसर दिया। उस समय धन्यता का अनुभव करनेवाला मेरा जीवन अब कृतार्थ हो गया। एक स्त्री को इससे ज्यादा और क्या चाहिए।

दिन, महीने और साल बीतने के साथ यशोदाजी के इस लाड़ले पर ग्रामवासियों का अधिकार बढ़ता गया। सभी को यही लगता कि नन्द कुँवर मेरे यहाँ ही आता है क्योंकि मुझे उनसे विशेष लगाव है। वास्तविकता यह थी कि बालक की स्वस्थता और सुन्दरता देखकर मन में जाग्रत हुए आनन्द को यह लोग विशेष लगाव मानते थे और अपने यहाँ कभी भी आने और तोड़ने-फोड़ने की अनुमति दे देते थे। इस छूट का उपयोग करने में बालक कभी नहीं चूकता। वह सभी के साथ मिल जाता है और उसे सब जगह अच्छा लगता है। धूल में, घास पर, फलों की शैया पर, तुलसी के कुंडे के पास या रेशमी सुखासने पर, वह बिना किसी भेदभाव के बैठ सकता है। कोई भी आँगन उसके लिए पराया नहीं है। अनजान मनुष्य ने उसे दूर से देखा हो तो पास आकर देखने के लिए लालायित हो जाता। इस कारण नन्दभवन के आँगन की ओर का मार्ग चुननेवालों में किशोर युवक-युवती ही नहीं, प्रौढ़ और वृद्ध भी थे।

सबके अनन्य स्नेह के अतिरिक्त नन्दराय के लिए धन्यता का अनुभव करने की एक दूसरी भी घटना घटी। इसके बारे में यशोदाजी भी पूरी तरह नहीं जानतीं। नामकरण संस्कार के प्रसंग पर एक सामान्य ब्राह्मण के रूप में गर्गाचार्य स्वयं पधारे थे। शास्त्र-सम्मत सम्पूर्ण विधि-विधान से कार्य सम्पन्न किया। फिर एकान्त कक्ष में नन्दराय के सामने कई भविष्यवाणियाँ की जिनमें से आज तक ज्यादातर सच हुई हैं। जैसे यह बालक जहाँ हो वहाँ सभी का ध्यान खींचेगा। इसके नेतृत्व में इससे बड़े बालक भी आनन्दित रहेंगे। नन्दराय ने इन भविष्यवाणियों में से यशोदाजी को इतना ही बताया कि मैं कंस जैसा राजा नहीं हूँ, परन्तु राजा से अधिक हूँ। राजा को महाराज बनने की आकांक्षा होती है जबकि मैं तो इस बालक को देखकर भविष्य की चिन्ता ही भूल जाता हूँ।

लगभग तीन वर्ष पहले की बात है। कारावास से मुक्त हुए वसुदेव के निवास स्थान पर गर्गाचार्य पधारे थे। वहाँ अक्रूर के रथ में बैठकर नन्दराय अप्रकट रूप से पहुंचे थे। बालक की क्रीड़ाओं की बात निकली। गर्गाचार्य ने कहा, 'मैं बड़ा ज्योतिषी और ज्ञानी तो हूँ। तुम सब कहते हो तो गलत नहीं होगा। मैंने एक रहस्य किसी से नहीं कहा है, वह आज तुम दोनों के समक्ष प्रकट करता हूँ। तुम्हारी इस संतान के नामकरण के समय उसका रूप देखकर मैं अपना ही नाम भूल गया था। वह अनुभूति ऐसी थी, धैर्य छूट जाता है। शरीर कम्पित होता है, बुद्धि लुप्त हो जाती है। अरे! जब मैं इस शिशु का नाम रखने आया हूँ तब इसने तो मुझसे अपना नाम ही भुलवा दिया।'

इस समय ब्रजभूमि पर अपना पद भूलकर गर्गाचार्य स्मरण-सुख प्राप्त कर रहे थे। सबकुछ कह देने का मन हुआ है। सांदीपनि मुनि से कह देने में कोई आपत्ति नहीं, परन्तु नहीं। ऐसा अधीर बनना मुझे शोभा नहीं देगा। अच्छा तो यही होगा कि इस बालक के प्रति अपने अपार स्नेह को हृदय में छिपाकर ही आगे बढूँ। फिर कभी भी अकेला आ सकता हूँ। नन्दराय के भवन तक जाने की आवश्यकता नहीं। इस भूमि से गुजरो और इस नटखट से मुलाकात न हो तो ही आश्चर्य!

'मुनि, चलो इस माया को छोड़कर।' गर्गाचार्य ने विनोद में कहा।

'यदि यह भी माया हो तो इसे छोड़ने का मन नहीं होता।!' मुनि ने प्रसन्न गम्भीरता से कहा और संकल्पपूर्वक सामने देखकर चलने लगे। आँखें भले ही इस सौन्दर्य से वंचित रहें, ओतप्रोत हृदय इस कमी को पूरा करेगा।

निःस्पृह भाव से चलना प्रारम्भ किया। उसके दूसरे ही क्षण यह बालक गर्गाचार्य और उनके बीच से दौड़ता हुआ निकल गया। कैसी गति थी! मानो तेज की झलक! अरे यह क्या! कुछ धीमे दौड़ रही फिर भी रूप में बिजली की तरह चिदाकाश को चकाचौंध करनेवाली यह कन्या कहाँ से उतर आई? एक क्षण पहले तो वह थी ही नहीं। आकाश और प्रकाश में से निर्मित हुई यह धवलोज्ज्वल कन्या जिस लगन से इस घनश्याम बालक का पीछा कर रही थी, यह देखकर इसका कारण जानने की इच्छा हुई। इसमें विलम्ब नहीं हुआ। कन्या ने ही बताया।

उसके पास हरे बाँस का एक सुन्दर टुकड़ा था। उसे वह टुकड़ा प्रिय था, इसका एक निश्चित कारण था। उसने उसे हाथ में लिया ही था कि उसकी अभिमानी गाय लौट आई थी। गाय निर्दिष्ट स्थान पर ग्वाले के पास पहुँच गई थी। इसके बाद उसे कोई काम नहीं था अतः बालसखा की याद आई। तमाल के पास वह खड़ा था। तमाल से भी श्याम इस सखा को खोजना मात्र उसके लिए ही सरल था। चुपचाप उसके पास पहुंच गई। प्रिय सखा ने उसके आगमन पर ध्यान भी नहीं दिया। उसका ध्यान दूसरी ओर था। वह तमाल की निचली डाल पर बैठे मोर के पंख के गिरने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहा था। परन्तु कन्या अधीर हो गई। उसके और सूर्य के बीच जाकर खड़ी हो गई। उसे अपनी छाया में छिपाने का खेल खेला और उसमें सफल हुई। इतना सुनकर गर्गाचार्य ने स्वीकार किया, 'तेरी छाया में उसके विलीन हो जाने का अद्भुत दृश्य मैंने वक्र दृष्टि से देख लिया था। परन्तु तू बता, तेरे मुख से सुनकर पहले देखा हुआ और सुन्दर लगेगा।'

'उसने हरा बाँस माँगा। वह जो माँगता है, वह सबकुछ मैं दे देती हूँ। परन्तु आज थोड़ी देर हुई। इस कारण यह मुझसे झपटकर भाग गया। वह भले झपट ले, परन्तु भाग क्यों जाता है? आप उसे डाँटो। वह अपने माँ-बाप का कहना भी नहीं मानता। शायद आप जैसे ऋषि-मुनियों का कहना मान ले।'

ऋषि-मुनि क्या कहें? वह आया, वैसा ही सुगन्धित समीर की तरह अदृश्य हो गया।

कन्या गर्गाचार्य की अंगुली पकड़े खड़ी रही। उस बालक के विरुद्ध अपनी अधूरी शिकायत को इस तरह आगे बढ़ाया।

एक के स्थान पर दोनों ऋषियों की प्रेमपूर्ण दृष्टि देखकर कन्या प्रोत्साहित हुई और पूरी तरह स्वस्थ हो गई। मधुर कोमल स्वर से कोई बड़ी शिकायत करने लगी, ‘एक दिन उसने मुझसे मोरपंख छीन लिया था। आज यह हरा बाँस ले लिया। मुझसे जरा भी डरता नहीं। कहने जाऊँगी तो सुना देगा-तेरे पास होगा वह सब छीन लूँगा। इससे बचने का यही उपाय है कि मैं झपट लूँ उससे पहले ही तू खुश होकर मुझे दे दे।'

सांदीपनि मुनि के मन में सवाल उठा, 'इस कन्या ने शिकायत की है या अपनी प्रशंसा?' इतनी उत्फुल्लता के साथ बोलते हुए उन्होंने किसी कन्या को नहीं देखा था। अपनी ऐसी पुत्री होती तो कैसा रहता! मुनि के मन में मोह जागा।

कन्या की शिकायत के प्रभाव में गर्गाचार्य असावधान बन गए और बालक के साथ अपने सम्बन्ध को प्रकट कर बैठे। वह भी जोर से, 'कृष्ण! ओ कृष्ण!!'

बालक ने सुना लेकिन अनसुना कर दिया।

'नहीं आएगा, आप उसे कृष्ण नहीं श्रीकृष्ण कहोगे तो ही आएगा।'

'परन्तु उसका नाम तो...'

'मैं उसे श्रीकृष्ण कहती हूँ, भूल से कृष्ण कहती हूँ तो सुनता ही नहीं है।'

'देखता हूँ, कैसे नहीं सुनता। कृष्ण! ओ कृष्ण, अरे कन्हैया, यहाँ आ। देख, राधा क्या कह रही है?'

बालक ने हार स्वीकार कर ली है। इस तरह पीठ के पीछे बाँस छिपाकर धीरे-धीरे कदम बढ़ाने लगा।

'कृष्ण-कन्हैया कहने पर आया या नहीं?' गर्गाचार्य ने गौरवपूर्ण ढंग से कहा।

'शायद ऐसा हो कि वह अपना नाम नहीं; राधा का नाम सुनकर आया हो।' मुनि ने मधुर हास्य के साथ कहा।

'वैसे तो मैं रोने लगूं तो भी दौड़कर आ जाता है, परन्तु वह हो तो मुझे रोना आता ही नहीं।'

'यह बालक सीधा क्यों नहीं चल रहा? यह चल रहा है या नाच रहा है?'

'यह राधा क्या कह रही है?' गर्गाचार्य को प्रयत्नपूर्वक बुजुर्ग बनना पड़ा।

'मुझसे तो यह कुछ कहती नहीं।' कृष्ण से उसकी आवाज अधिक समीप लगी।

'मैं नहीं कहती, यही मेरा अपराध है। तो मेरी सारी वस्तुएँ नहीं छीन लेता? बोल?' राधा अब निर्भय और निश्चिन्त थी। कृष्ण अब पास आ गया था और दोनों ऋषियों की प्रेमपूर्ण दृष्टि ने विश्वास दिला दिया था कि वे उसके पक्ष में रहनेवाले हैं।

'मैं छीन लेता हूँ या तू मेरे लिए ले आती है।' कृष्ण बायाँ हाथ कमर पर रखकर विजेता के रूप में बोला।

'यह सही है परन्तु...' राधा झिझकी। कृष्ण को उलाहना देने का उत्साह जोर मार रहा था परन्तु उसे झूठा सिद्ध करना उसे स्वयं भी अच्छा नहीं लगता। इस समय पास खड़ा है। ऐसे में जो उसे अच्छा नहीं लगे वह बोलने पर वह चला गया तो? जैसी उसकी इच्छा। वह भले छीन ले। इसमें भी नया अनुभव होता है। खेलने में आनन्द आता है। उसने पहली बार मोरपंख छीन लिया था फिर वह कितने मोरपंख बीन लाई थी। हाँ, सुबह जल्दी उठकर अकेली बीनने निकल पड़ी थी। राधा के पिता वृषभानु कोई ऐसे-वैसे आदमी नहीं हैं। अहीरों के एक गाँव के मुखिया हैं। और उन्हें अपनी इस प्रतिष्ठा और पद से भी राधा अधिक प्रिय है। उसने माँग की होती तो सेवक को भेजकर पूरे वन के मोरपंख मँगवा दिए होते। परन्तु हठीली बेटी स्वयं बीनना चाहती थी। मना करने पर रूठ गई तो? उन पंखों से कृष्ण के लिए मुकुट बनाकर ही उसने साँस ली। मुकुट भी कैसा? बिल्कुल सही नाप का! कृष्ण को बुलाकर पिछवाड़े की बाड़ी में ले गई। मुकुट पहनाकर एक चुम्बन किया और दोनों को पूरी बाड़ी देखे इस तरह कृष्ण की बगल में खड़ी रही।

वह छवि देखकर वृषभानु भूल गए कि यह मेरी बेटी है।

एक क्षण के लिए दोनों मुनिवर्य अपने गंतव्य को भूल गए। राधा की वाणी और कृष्ण का रूप देखने के बाद जीवन में यही विश्राम-स्थल हो, इस तरह वहाँ खड़े थे।

हरे बाँस का टुकड़ा बगल में दबाए हुए कृष्ण इस तरह खड़ा था कि उसका एक कोना उसकी ठोढ़ी को छू रहा था। यह मुद्रा कभी किसी ने नहीं देखी थी। वहीं उन्हें एक अपूर्व ध्वनि सुनाई दी। बार-बार सुनने का मन हो ऐसी थी वह ध्वनि। अपूर्व और अद्भुत! बिल्कुल अनजाने ही कृष्ण ने बाँस के टुकड़े में फूंक मारी थी। सांदीपनि ने गर्गाचार्य के सामने देखा। आचार्य बोले नहीं, प्रसन्न चित्त बने रहे। जो सहज रूप से प्राप्त हो, वह पर्याप्त है। यह ध्वनि पुनः सुनने की इच्छा गलत नहीं है, परन्तु उसने मना कर दिया तो?

'इस बाँस में से कोई वाद्य नहीं बन सकता? मैं जानता हूँ वहाँ तक-'

'उल्लेख मिलते हैं परन्तु ऐसा वाद्य बनाने की विद्या न सीख पाने का आज मुझे अफसोस हो रहा है। कृष्ण के लिए मैं कुछ कर सकता!'

'राधा के लिए भी, क्योंकि वस्तु तो उसकी है। गर्गाचार्य ने विस्मय-विमूढ़ राधा की ओर देखा-'सच है न पुत्री?'

'हाँ, मेरी कौन-सी वस्तु?' राधा बिल्कुल भूल गई थी कि हरा बाँस उसका था।

'धन्य है यह बालिका। स्वयं निसर्गश्री ने ही उसे शिक्षा दी है। चलो, आज सात्विक शिशु-लीला देखकर हृदय कृतार्थ हो गया।

'परन्तु वाद्य की बात तो...' सांदीपनि कृतार्थ होकर मौन नहीं रहना चाहते थे। अपनी ओर से भी कुछ कहना चाहते थे। उन्होंने भारपूर्वक पूछा। आचार्य इस क्षेत्र से परिचित थे, कहने लगे, यमुना तट से नन्दगाँव की ओर जानेवाले मार्ग में एक श्रमिक कारीगर रहता है। उसका नाम तरंगपाल है। सब उसे तरंग कहते हैं। वह एक विलक्षण व्यक्ति है। विश्राम के समय में वह विविध वाद्य बनाता है, फिर सामने किनारे पर रहते संगीताचार्य शिवानन्द को भेंट चढ़ाता है। उस नए वाद्य पर आचार्य शिवानन्द को संगीत-रचना करते देर नहीं लगती। परन्तु तब तक तरंग नया वाद्य यंत्र बना चुका होता है। गुरु की कसौटी करते रहने में ही उसकी सर्जकता सक्रिय रहती है। उसके पिता रामकथा गाते थे और संगीत विद्या सीखने की इच्छा रखते थे। परिवार छोड़कर किसी योग्य गुरु की खोज में निकल सकें, ऐसा सम्भव नहीं था। पुत्र के बड़े होने पर, अपने स्वप्न को पूरा करने के लिए उन्होंने तरंग को शिवानन्द की संगीतशाला में रखा। अनुशासन का विशेष आग्रह करनेवाले के रूप में शिवानन्द मथुरा में प्रसिद्धि पा चुके थे। उन्हें तरंग मनमौजी लगा। सीखा हुआ याद हो जाए तो उसे अभ्यास के द्वारा कंठस्थ करना चाहिए। परन्तु ऐसा न करके तरंग अभिनव प्रयोग करता। शिवानन्द ने उसे चेतावनी दी, 'स्वरों को मिलाओ मत, संगीत में शुद्धि परम आवश्यक है।

'क्या जगत में उतने ही स्वर हैं, जितने आपके नियमों में आते हैं? इन पक्षियों के नादमाधुर्य में कितनी विविधता है! क्या इस विविधता में आप अशुद्धि देखेंगे?'

'नहीं! कहते हैं कि पक्षियों के कलनाद की नियमित आवृत्तियों पर से ही मनुष्य ने संगीत प्राप्त किया है। प्रथम अनुसरण, फिर सर्जन।'

'अनुकरण की प्रक्रिया में ही सर्जन क्यों नहीं?'

आचार्य शिवानन्द इस कथन से प्रसन्न हुए। यह उद्धत शिष्य उन्हें पहले से ही प्रिय था क्योंकि वह अभिनव उन्मेष का प्रदर्शन करता रहता था। परन्तु अब उसका प्रभाव कई अपरिपक्व शिष्यों पर भी पड़ने लगा। शिवानन्द अनुशासन को अपनी संगीतशाला की मुख्य सम्पत्ति मानते थे। एक दिन उन्होंने क्रोधित होने का विशेष अधिकार लेकर छोटी गलती की बड़ी सजा दे डाली, 'तुझे यहाँ के नियम अनुकूल नहीं आएँगे तरंगपाल! तेरे पिता की तरह तेरी योग्यता भी श्रमिक की है, मैंने तुझे संगीतकार बनाने का उत्तरदायित्व उठाकर भूल की। अब मैं अपनी भूल सुधारना चाहता हूँ।'

'अच्छा, मैं इसी समय से इस काम में आपकी सहायता करता हूँ। आप शास्त्रों के बन्धन में सुरक्षित रहें, मुझे प्रकृति सिखाएगी।'

तरंगपाल ने संगीतशाला छोड़ी, इससे उसके पिता को विशेष दुख हुआ, 'तो तू भी मेरी तरह आजीवन श्रमिक ही रहेगा!' संगीतकार को वे बहुत उच्च श्रेणी में गिनते थे। तरंग को श्रमिक और संगीतकार में कोई तात्त्विक भेद नहीं लगता था। आजीविका के लिए श्रमं करनेवाला संगीतकार क्यों नहीं हो सकता? जीने के लिए जरूरी शक्ति के अतिरिक्त मनुष्य के पास जो अतिरिक्त ऊर्जा होती है, उसमें से ही कला उत्पन्न हुई होगी।

नवयुवक पुत्र के उद्गार सुनकर पिता स्तब्ध रह गए। उन्हें अधिक आश्चर्य हो, वह बात तो तरंगपाल ने इसके बाद कही, 'आचार्य शिवानन्द ने भले ही मुझे अपने शिष्य पद से हटा दिया। परन्तु मैं उन्हीं को अपना गुरु मानूँगा और उनका शिष्य होने के अधिकार से संगीतशास्त्र में उन्हें पराजित करूँगा। इसके लिए पूरी योग्यता सिद्ध करूँगा। मैं कला को अपनी आजीविका नहीं बनाऊँगा। श्रम करके जीवित रहूँगा और एकान्त साधना से कलाकार बनूंगा।'

कालिन्दी के दोनों किनारों पर बसनेवाले तरंग को जानते हैं। प्रतिदिन वह दो प्रहर श्रम करता है और एक प्रहर वाद्य की रचना करता है। इससे श्रम की थकान उतरती है और कर्म का आनन्द मिलता है। आचार्य शिवानन्द के लिए अब अनुशासन का प्रश्न नहीं रहा है। वे तरंगपाल की सर्जकता के प्रशंसक बन गए हैं। मथुरा के अभिजात्य वर्ग में मौज करने, सम्पत्ति और सम्मान प्राप्त करने के स्थान पर उसने श्रमजीवियों के साथ रहना पसन्द किया है। मधुर कोलाहल के लिए प्रसिद्ध कालिन्दी के किनारे बसनेवाले पक्षी तरंग के द्वारा सर्जित नए वाद्य की प्रारम्भिक ध्वनि सुनकर शान्त हो जाते हैं। संगीताचार्य शिवानन्द कभी-कभी विचार करने लगते हैं, और किसी को नहीं, वह तरंगपाल को कैसे सूझता है? उन्होंने एक बार गर्गाचार्य से कहा था, 'तरंग इस तरह अपनी अधूरी शिक्षा की मुझे सवाई गुरु दक्षिणा देता है, मैं अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए उसे प्रोत्साहन देता हूँ।'

'तब तो तरंगपाल इस बाँस में से अवश्य ही एक सुन्दर वाद्य बना देगा।' सांदीपनि मुनि ने कहा।

तरंगदा,' कहते हुए कृष्ण ने कालिन्दी की ओर कदम उठाया। बलराम और सुबल के साथ वह स्वयं दो बार तरंगदा की कुटिया पर गया था। उन्होंने गोद में बैठाकर माखन-मिसरी खिलाई थी। एक बार उत्तम की गाड़ी में बैठकर तरंगदा पिताजी से मिलने आए थे। मथुरा की बातें कर रहे थे। उनकी कुटिया तक पहुंचने में कितनी देर! यह पहुँचा।

राधा की इच्छा नहीं थी कि कृष्ण उसे यहाँ अकेली छोड़कर चला जाए। यह सही है कि कभी-कभी वह घर कहे बिना ही भाग जाता है परन्तु आज तो वह स्वयं यशोदाजी से विनती करके साथ लाई है। वह क्या उत्तर देगी? दोबारा फिर साथ भी नहीं भेजेंगी। कृष्ण को वापस लौटाने के लिए उसने युक्ति खोज ली।

'तरंगदा की कुटिया तो कितनी दूर है।'

'तो चल, दौड़ने लगें।'

'थक जाएँगे।'

'मैं नहीं थकूँगा और तू थक जाएगी?'

'वहाँ घना जंगल है, मुझे डर लगेगा।'

'डर कैसा? मैं साथ जो हूँ।'

कृष्ण का यह उद्गार सुनकर मुनिजन हँस पड़े। स्वयं एक निर्भय बालक के सामने खड़े हैं, इसका उन्हें अभिमान हुआ। देखते हैं कि कृष्ण एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ रहा है।

राधा अब पल भर भी अकेली खड़ी नहीं रह सकती। उसे ऐसी आशा थी कि कृष्ण उसकी बात मान लेगा। नहीं मानी इसलिए क्षणार्ध वह गम्भीर हो गई। तुरन्त भाव बदले। चली, फिर दौड़ने लगी। कृष्ण के शब्दों ने विश्वास जगाया था, 'मैं साथ जो हूँ।'

कृष्ण-राधा दौड़ाते हुए चले जाते हैं, मुनियों के मन उस ओर खिंचते हैं। आचार्य गर्ग सांदीपनि मुनि से कहते हैं, 'मथुरा में वसुदेव और अक्रूर के सिवा कोई नहीं जानता है कि इस बालक का नामकरण संस्कार मैंने किया है। गुप्तता आवश्यक थी। इसलिए सांकेतिक ढंग से मैंने नन्दराय से कहा था : तुम्हारा पुत्र घनश्याम रंग वाला है, अतः कृष्ण कहलाएगा। यह नाम रखने का सही कारण दूसरा था, वह मैंने नन्दराय को नहीं बतलाया था, आपसे कहता हूँ, 'कृष्ण संज्ञा की धातु का जो मूल अर्थ होता है, वही इसके बारे में सच है। 'कृष' यानी खींचना, खींचे वह कृष्ण। कुछ क्षण पहले इसने आपको खींचा, फिर बालिका को खींचा। अब हम दोनों को खींच रहा है।'

गर्गाचार्य मानो सांदीपनि मुनि के अन्तःकरण को ही वाणी दे रहे थे। दोनों की आँखों में कृष्ण के लिए आशीष थी।

जगत की ग्लानि दूर करने के लिए ही ऐसे बालक जन्म लेते होंगे! वन-जीवन को बाहर से सूर्य आलोकित करता है, अन्दर से बालक!

मुनि का पुत्र पुनर्दत्त बड़ा हो गया है। वह कहता था, 'पिताजी, आपका अंकपाद आश्रम अब पहले जैसा सुरक्षित नहीं है।'

हरिद्वार में एकत्रित हए अलग-अलग जनपदों के ऋषि-मनि कहते थे : 'समाज के कल्याण के लिए नदी किनारे आकर बसनेवाले तपस्वियों को वापस हिमालय चला जाना पड़ेगा।' गुरुजनों का ध्यान रखनेवाले शासक अब गणिकाओं का ध्यान रखते हैं। अब राजा ईश्वर से नहीं डरते, सम्राट से डरते हैं। उन्हें मुद्रा का उपहार देते हैं। और प्रजा की ओर से उदासीन और उद्दण्ड होते जाते हैं। प्रजा के विभिन्न वर्गों के दुखों की ओर हम उनका ध्यान आकृष्ट कराएँ तो वे सहमत नहीं होते और हमारी आज्ञा का पालन करने में उदासीनता दिखलाते हैं। इससे पूर्व इस भूमि पर ऐसी असुर वृत्ति नहीं फैली थी। समष्टि की रक्षा और संवर्धन के लिए अस्तित्व में आया हुआ राज्य, विलास का केन्द्र बनता जा रहा है। इस निरी ऐहिकता के सामने त्यागी-तपस्वी निरुपाय बनते जा रहे हैं। इस कारण उत्पन्न हुई ग्लानि से भरकर दोनों मुनिजन हरिद्वार से निकले थे। अच्छा हुआ कि ब्रजभूमि में प्रवेश किया। हरिद्वार अद्भुत तीर्थ है! शान्तिदायक और आश्वासक है। ब्रजभूमि उससे एक कदम आगे है, इसका पता आज चला। यहाँ कोई प्रेरक तत्त्व व्याप्त है।

बाल कृष्ण की निर्भयता और शक्ति देखकर नवजीवन में विश्वास बैठा है। अंगांग में प्रसन्नता प्रकट हुई है, गति में स्फूर्ति की वृद्धि हुई है। वृक्ष, लता, तृण समेत पूरी वनराशि में सुसंगति लगती है।

यहाँ की वनराशि मनुष्य के प्रति उदासीन नहीं है और ऊपर से उसमें बसन्त का आगमन हुआ है। यहाँ पुष्पराशि में वह दृष्टिगोचर होता है तो वहाँ वनपल्लवों की घटाओं में। यह वृक्ष वर्षा में खिलेंगे, बरसते जल को सुगन्धित कर देंगे, और फिर महक उठेगी भीगी मिट्टी जो राधा-कृष्ण के पैरों के निशान से अंकित होगी। इससे पहले ऐसे दो-दो ऋषियों के चरणों का स्पर्श पाकर धन्य हो गई है।

'इस धरित्री के स्वभाव में ही स्वागत का भाव लगता है। ऐसा कहते हुए मुनिवर गर्गाचार्य का अनुसरण करने लगे।

'देखो! स्वागत का दूसरा प्रमाण!' आचार्य ने ध्यान खींचा।

'अभी तो काम का समय कहा जाएगा, इस तरह सैकड़ों पुरुष एकत्र होकर प्रमाद को पोषित करें तो...' मुनि चुप हो गए। द्विधा में पड़ गए। यहाँ के लोग अपनी कर्मठता के लिए प्रसिद्ध हैं। बालक और किशोर गायें चराते हैं। युवक और प्रौढ़ गोपालन करते और वृक्ष उगाते हैं, अन्न उत्पन्न करते हैं। पहले घूमनेवाला यह गोप समाज कुछ वर्षों से इस प्रदेश में स्थिर हो गया है। फिर भी गाँव घास-चारे की सुविधा के लिए स्थल बदलते रहते हैं। एक बड़े विस्तार के अन्दर का यह परिवर्तन मातृभूमि की भावना को संकीर्ण नहीं होने देता। घर हो या कुटिया, कन्याएँ आँगन को स्वच्छ रखती हैं और तीज-त्यौहार पर सजाती हैं। दही-माखन के काम से फुरसत पाकर गृहिणियाँ रसोई बनाती हैं। लोभिनी हो, वह घर के सदस्यों के लिए पर्याप्त भाग न छोड़कर दही-माखन बेचने निकल पड़ती है। कई तो मथुरा की हाट तक पहुँच जाती हैं। बदले में सोना-चाँदी ले आती हैं। अड़ोसी-पड़ोसी ने रंग मँगाए हों तो वह भी कभी-कभी ले आती हैं। गर्गाचार्य ने सुना था कि कुछ वर्षों से गोकुल की गोपियाँ रोज अपने आँगन में रंगोली बनाती हैं। इसका कारण क्या हो सकता है? कृष्ण को ललचाकर खींच लाना? हो सकता है कृष्ण पास आए। उसे रँगोली देखने से संतोष न हो तो उस पर पैर रखे। फिर उसे डाँटने के बहाने भी थोड़ी देर रोक सकें, धमका सकें और उसका उत्तर सुनने का लाभ लिया जा सके। यशोदाजी लड़ने आएँ तो अपनी ओर से शिकायत कहाँ नहीं की जा सकती? कृष्ण के प्रति उनकी स्वयं की शिकायतें कहाँ कम होती हैं? जो सुना था उसमें से कुछ विशिष्ट देखने को मिले उससे पहले ही नटखट कृष्ण भाग गए।

‘आपको लगता है कि कृष्ण-राधा फिर से अपने मार्ग में आ जाएँगे?' आचार्य ने पीछे नजर करके कहा। दूर से आ रहे सैकड़ों गोपों को देखकर सांदीपनि मुनि ने कहा, 'वे नहीं आएँ तो कभी हम ही उनके मार्ग में आ जाएँगे।'

'अवश्य। मुझे लगता है कि हम परमतत्त्व के साक्षात्कार सम्बन्धी विवाद से समय निकालकर ऐसे बालक और पुष्पों के बीच में रहें तो कैसा रहे?'

'बालक और पुष्प परमतत्त्व की विभूति हैं।' सांदीपनि ने कहा।

'सब बालक या यह एक ही...?' गर्गाचार्य वाक्य को पूरा नहीं कर सके।

‘एक यानी। हमने तो आज दो बालक देखे। कृष्ण और राधा!'

‘राधा के विषय में तो मैं नहीं कह सकता। परन्तु कृष्ण के जन्म के समय के ग्रहों का मैंने अध्ययन किया है। परमब्रह्म के अवतार के रूप में वह ख्याति पाएगा। मैं उसे सामान्य मनुष्य की तरह नहीं देख सकता।'

'आचार्य! मनुष्य होना कोई साधारण बात है? मैंने तो राधा-कृष्ण को मानव-शिशु की तरह देखा और धन्य हो गया। इस यात्रा की ही नहीं जीवन-भर के परिभ्रमणों की थकान उतर गई। इनका सौन्दर्य मानवीय है, ऐसा स्वीकार करने से आपको संतोष नहीं होता?'

'मैं तो इनके अलौकिक सौन्दर्य से ही-' आचार्य चुप हो गए। आज वे बहुत बोले थे। कृष्ण के बारे में कुछ तथ्य गोपनीय थे। वे संकल्प से बँधे हुए थे।

सांदीपनि विचारमग्न हो गए। हम दोनों को अद्भुत असाधारण आनन्द हुआ, एकसाथ हुआ, परन्तु उसके कारण बिल्कुल भिन्न थे। मुझे जो लौकिक रूप निर्मल आनन्द दे गया, वही उन्हें अलौकिक रूप में मिला। कृष्ण-राधा को फिर से एक बार देख लेने की अभिलाषा से उन्होंने दूर-दूर तक दृष्टि की, परन्तु दाईं ओर से आ रहा गोपसमूह अब उनके दृष्टिपथ को रोकने लगा था। उनके सुगठित शरीर और तालबद्ध गति उनकी आन्तरिक निर्भयता का संकेत दे रही थी। फिर हाथ में छोटी-बड़ी लाठियाँ क्यों? क्या ये किसी प्रतिकार के लिए तैयार हुए होंगे? शासकों की जिस अमर्यादित सत्ता को अंकुशित रखने में हमारे जैसे मुनि निष्फल गए हैं उनसे यह ग्रामीण लोक-समूह कह सकेगा, तुम जिस सिंहासन पर बैठे हो उसके वास्तविक अधिकारी तो हम हैं; तुम जो सम्पत्ति भोग रहे हो, उसके मूल स्रोत हम हैं।

गोकुल- 2

नन्दराय ने आगे बढ़कर गर्गाचार्य की चरणधूल ली और उतने ही आदर से नाम-पता पूछे बिना सांदीपनि मुनि को प्रणाम किया।

दूसरे गोप भी पहले लाठी नीचे रख देते थे, बाद में चरण-स्पर्श करते थे। प्रत्येक व्यक्ति ने भक्ति-भावना से परिपूर्ण होकर तपस्वियों का आशीर्वाद प्राप्त किया।

लाठियों की ओर धार्मिक दृष्टि से देखकर आचार्य ने सांदीपनि मुनि का परिचय कराया। नन्दराय और वृषभानु ने उनकी स्तुति की और दोनों तपस्वियों की जय-जयकार बुलाई।

ऋषियों को प्रणाम करके वहाँ से तुरन्त भागने वाले युवकों में से एक तुरन्त दोनों हाथों में एक-एक चौकी लेकर दौड़ता हुआ आया। 'उत्तम गाड़ी जोतने गया है। माताएँ अर्घ्य लेकर आ रही हैं। सुबल ने कहा। दौड़ने से उसकी साँस नहीं फूलती।

नन्दराय ने अपने खेस से चौकियाँ साफ करके विनती की, 'विराजें, आपका विधिपूर्वक सम्मान हो उसके पहले हमें अपनी पवित्र वाणी से लाभान्वित करें।'

'पहले यह बताओ कि इतनी बड़ी-बड़ी लाठियाँ क्यों रखते हो? गायों को हाँकने के लिए?' गर्गाचार्य ने पूछा।

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