गोधरा कैम्प (कहानी) : नईम आरवी
Godhra Camp (Story in Hindi) : Naeem Arvi
उसके बाल हवा से उड़ रहे थे। चेहरे पर वहशत बरस रही थीं और उसने दोनों हाथों में मज़बूती से कँटीले तारों को पकड़ रखा था। बन्द मुट्ठियों से ख़ून की बूँदें इधर-उधर से रास्ता पाकर कलाइयों पर फिसल रही थीं। वह अपने चारों तरफ़ से बेपरवाह चीख़ रही थी, चिल्ला रही थी :
"शम्स...उद्दीन...शम्सु...द्दीन"
कँटीले तारों के बाहर रेत के एक टीले के क़रीब काफ़ी लोग जमा थे। अन्दर हाते में, चार-पाँच बंगाली औरतें उसे वहाँ से ले जाने की कोशिश करतीं मगर वह तो जैसे पत्थर का बुत बनकर रह गयी थी। किसी चीज़ का असर उस पर नहीं हो रहा था। वह जब चिल्लाने के लिए अपना मुँह खोलती तो उसकी बड़ी-बड़ी सियाह आँखों में भय व पीड़ा की चिनगारियाँ-सी उड़ने लगतीं और उसकी आवाज़ सियाह रात के सन्नाटे में किसी भटकती हुई बैचेन आत्मा की आवाज़-सी प्रतीत होती,
"शम्सु...शम्सु...उद्दीन..."
टीले के क़रीब उधर से गुज़रने वाले इक्का-दुक्का राहगीर वस्तुस्थिति जानने के लिए कुछ देर के लिए रुक जाते। इस तरह वहाँ अच्छी-ख़ासी भीड़ लग जाती। आपस में कानापूफसी और टीका-टिप्पणी होने लगती।
एक नौजवान लड़का जो सूरत-शक्ल से मोटर मेकेनिक मालूम होता था, बड़ी देर से लोगों की हवाइयाँ सुन-सुनकर उकता गया था, ने ख़ास शरणाख्रथयों वाले लहज़े में बताया कि मैं यहाँ से क़रीब रहता हूँ, यह औरत पागल है। हर रोज़ तमाशा करती है। पहले दिन हमें भी बड़ी जिज्ञासा रही। दरअसल बात यह है कि उसका शौहर भी फ़ौज में था, एटाबाद में पोस्टिंग थी। एक दिन मौक़ा पाकर बंगालियों के साथ, जो उसके साथ फ़ौज में थे, फरार होकर ढाका पहुँच गया और वहाँ मुक्तिवाहनी के साथ लड़ता हुआ किसी मोर्चे पर मारा गया। उसकी मौत की ख़बर जब उसकी बीबी को मिली तो वह अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठी। अक्सर जब उस पर दौरे पड़ते हैं तो वह काँटेदार तारों को पकड़कर इसी तरह चीख़ती-चिल्लाती है। शमसुद्दीन उसके शौहर का नाम है। नौजवान लड़के ने कहानी ख़त्म करके विजयी अन्दाज़ में उन लोगों की तरफ़ देखा जो एक दायरे में खड़े हुए बड़ी दिलचस्पी के साथ कहानी सुन रहे थे।
"अच्छा तो यह पागल है और ग़द्दार बंगाली की बीवी है।"
"जी हाँ।"
"पागल है?"
"जी हाँ।"
"ठीक...ठीक"
तमाशाइयों की भीड़ छँट गयी। थोड़ी देर में वहाँ सन्नाटा छा गया और रेत का टीला तेज़ धूप की गर्मी में सनसनाने लगा। वहाँ से पागल औरत भी जा चुकी थी। काँटेदार तारों में उसकी साड़ी का फटा हुआ पल्लू मुर्दा जिस्म की तरह झूल रहा था। मगर उसकी दिल छील देने वाली चीख़ों की प्रतिध्वनि लम्बे-चौड़े मैदान में अब भी मँडरा रही थी।
"शम्सु...शम्सुद्दीन..."
गोधरा कैम्प के क़रीब काफ़ी अरसे से फ़्लैट बन रहे थे। रेंग-रेंगकर, आहिस्ता-आहिस्ता। शुरू में थोड़ी-सी दिलचस्पी रही फिर निगाहें उकता गयीं। गाड़ी उधर से गुज़र जाती मगर ख़याल तक न आता कि इस लम्बे-चौड़े रेत के मैदान में बन रहे फ़्लैटों में थोड़े दिनों के बाद ज़िन्दगी की गर्मी दौड़ जायेगी और सुनसान क्षेत्र जहाँ आदम न आदमजाद, आबादी में तब्दील होकर कुछ मुद्दत के लिए इन्सानी निगाहों का मरकज बन जायेगा और जब हम उसे देख-देखकर थक जायेंगे तो फिर उसकी तरफ़ से मुँह मोड़कर शान से गुज़र जायेंगे। कभी कहीं ज़िक्र आ जायेगा तो बड़ी उकताहट से कह देंगे, "हाँ गोधरा कैम्प हमारे रास्ते में पड़ता है।"
मगर यह बात भी तय है कि हर काम हमारी सोच के मुताबिक़ नहीं होता, अक्सर हम जो सोचते हैं, जो मंसूबे बनाते हैं, उसके बिल्कुल उल्टी बातें सामने आती हैं और हमारी कल्पना के ख़ाके पुरजे-पुरजे होकर बिखर जाते हैं। गोधरा कैम्प के सामने से गुज़रना मेरा रोज़ का मामूल था और अब उसकी तामीर में मेरी कोई दिलचस्पी न थी। लेकिन उस दिन मेरी हैरत की सीमा न रही जब मैंने देखा, दो बुलडोज़र बड़ी तेज़ी से अहाते की ज़मीन को बराबर कर रहे थे और उसके चारों तरफ़ काँटेदार तारों की बाड़ लगायी जा रही थी। दूसरे महायुद्ध की फ़िल्मों की तरह हूबहू जं़गी क़ैदियों का कैम्प दिखायी दे रहा था। अहाते के दरवाज़े पर चौकी क़ायम हो चुकी थीं और रात के वक़्त भारी-भारी सर्चलाइटों की रौशनी से पूरा इलाक़ा जो हर वक़्त गहरी तारीकी में डूबा रहता था इस वक़्त दिन का समाँ पेश कर रहा था - बेशुमार मज़दूर ज़ोर-शोर से काम में मसरूफ़ थे।
मैंने अपना चश्मा साफ़ करके उस तब्दीली को एक बार फिर बड़ी हैरत से देखा तो मेरी सीट के क़रीब बैठे एक अधेड़ उम्र के देशभक्त शहरी ने खशखशी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, "अलहम्दो लिल्लाह कि ग़द्दार बंगालियों को ग्राउण्ड कर दिया गया।" मैं समझा नहीं। मेरे लहज़े की हैरत व मासूमियत का लुत्फ़ लेते हुए वह बोला "मैं डिफेंस सोसाइटी के लिए बँगले में काम करता हूँ उसका मालिक एक रिटायर्ड कर्नल है, उसने मुझे बताया कि गोधरा कैम्प में जो फ़्लैट्स तामीर हो रहे हैं उनको फिलहाल कैम्प में तब्दील कर दिया गया है। उसमें ग्राउण्ड किये जाने वाले एयरफोर्स के बंगाली अफ़सरों की फैमिली रहेगी। उन्हें एक तरह से ज़ेरे हिरासत रखा जायेगा।" बड़े मियाँ ने निहायत सावधानी से दाढ़ी में उँगलियों से कंघी करते हुए कहा, "अजी ये लोग तो सँपौलिए निकले, मुसलमान होते हुए कमबख़्त हिन्दुओं से मिल गये। पाकिस्तान को तबाह कर दिया। चार साढ़े-चार फ़ुट के इन काले-कलूटों ने हमें बड़ा तंग किया। अच्छा हुआ जो इनसे छुटकारा मिल गया। आखि़र पाकिस्तान इनका बोझ कब तक बरदाश्त करता।"
गोधरा कैम्प या नज़रबन्दी कैम्प बंगाली ख़ानदानों से आबाद हो चुका था। उधर गुज़रते हुए निगाहें ज़रूर उठ जाती। छह मंज़िला फ़्लैटों की पाँच इमारतें एक दूसरे के पहलू में स्वप्निल-स्वप्निल-सी नज़र आतीं। सीढ़ियों के क़रीब ही दीवार के साथ सुबह व शाम के वक़्त चन्द बैंचे डाल दी जाती। उन पर अक्सर अधेड़ उम्र के बंगाली जिनकी ठोड़ियों पर चुनगी दाढ़ी उगी होती और जिनकी छोटी-छोटी आँखों के नीचे मकड़ी की जालियाँ तनी होतीं, बड़े ध्यान से डान और पाकिस्तान टाइम्स पढ़ते नज़र आते। लुंगी और बनियान में वे दूर से पहचान में आ जाते। उनके क़रीब ही साँवले-सलौने बच्चे दौड़ते-भागते, चीख़ते-चिल्लाते, गेंद-बल्ला खेलते रहते, कभी कोई बड़े मियाँ, बच्चों के शोर से तंग आ जाते तो रुककर दाढ़ी खुजाते और नाक की फुन्गी पर अटके हुए चश्मे के ऊपरी हिस्से से घूरते हुए बड़ी ज़ोर से घुड़कते, "ए छेले, ग़ुण्डो गोल करो ना"। कभी-कभी किसी फ़्लैट की खिड़की खुलती और कोई औरत अपना सारा बोझ खिड़की पर डालकर चिल्लाती, "ताड़ा-ताड़ी एश्शू।"
यह रोज़ का मामूल था। काँटेदार तारों पर भीगे हुए कपड़े, साड़ी, लुँगी, लिहाफ़, बनियान, बच्चों के निकर हवा और चमकदार धूप में गोली खाये जिस्मों की तरह झूलते रहते। गोधरा कैम्प में पहरे का बड़ा सख़्त इन्तज़ाम था। मेनगेट पर एक चौकी बनी हुई थी, जिस पर बैठा हुआ सशस्त्र पहरेदार इजाज़तनामे के बग़ैर किसी बाहरी आदमी को अन्दर व अन्दर से बाहर न जाने देता। चौकी के साथ ही कैम्प था जिसमें ड्यूटी देने वाले सन्तरी अपनी बारी से आराम व छुट्टी के वक़्त गुज़ारते। पागल औरत चीख़ती-चिल्लाती जब कभी काँटेदार तारों को झिंझोरती हुई अपने हाथों को लहुलूहान कर लेती तो कोई पहरेदार आखि़र इन्सानी जज़्बात से मजबूर होकर पहुँच जाता और उसे वहाँ से ले जाने में मदद देता।
काफ़ी दिन गुज़र गये उस मंज़र में कोई तब्दीली न हुई। इलाक़े वाले भी मायूस हो गये। अलबत्ता जब कभी सफ़र के दौरान बसों व मिनी बसों में सियासत की बात छिड़ जाती तो उसमें बैठे लोग बंगालियों की "ग़द्दारी" पर दुख से हाथ ज़रूर मलते।
"बंगाली न किसी के होते हैं और न होंगे, एक दिन देखना भारत की भी ऐसी-तैसी कर देंगे।" "...मुजीब ग़द्दार है, शुरू से अलग होने की साज़िश कर रहा था।"
"...यह सब कहने की बातें हैं, बंगालियों से ज़्यादा वतन से प्यार करने वाला और कौन है। पूर्वी बंगाल ने सबसे पहले पाकिस्तान के हक़ में राय दी थी। शेरे बंगाल फ़ज़लुलहक़ ने करारदाद पाकिस्तान पेश की थी।"
"बकवास है, क़ायदे आजम की किसने मुख़ालिफ़त की थी, जब उन्होंने ढाका में कहा था कि पाकिस्तान की सिर्फ़ एक क़ौमी ज़बान उर्दू है। किन लोगों ने उनके खि़लाफ़ नारे लगाये, कौन कहता है मशरिकी पाकिस्तान को मगरिबी पाकिस्तान ने लूटा। यह नफ़रत तास्सुब और इलाक़ापरस्ती के बीज कौन बोता है, सबको मालूम है।"
"न मुजीब ग़द्दार है और न बंगाली साज़िशी। न मशरिकी पाकिस्तान को मगरिबी पाकिस्तान के अवाम ने लूटा। दोनों जगहों के अवाम ग़रीब और एक ही जैसे हालात के शिकार हैं, लूटने वाले वहाँ भी चैन से हैं और यहाँ भी आराम से। पाकिस्तान सियासतदानों की काली करतूतों से टूटा, नाइन्साफ़ी और ग़रीबी की वजह से अलग हुआ।" यह पढ़े-लिखे एक तीसरे साहब का तबसिरा था। कुछ लोग सहमति में ज़ोर-ज़ोर से गरदन हिलाने लगे और जो लोग सहमत न थे वे बदमजगी से मुँह चलाते हुए खिड़की से बाहर देखने लगते।
"कम्युनिस्ट हैं स्साले... कम्युनिस्ट।"
"भाई मियाँ, मैं तो कहूँ कि सारी ज़िम्मेदारी याहिया पर आती है, साले रंगीले ताजदार ने मुल्क़ का बेड़ा गर्क कर दिया।"
"याहिया क्यों, भुट्टो को क्यों नहीं इल्जाम देते। उसी ने तो कहा था कि ख़ुदा ने पाकिस्तान को बचा लिया। कहाँ बचा पाकिस्तान? टण्टा हो गया, मरवा दिया स्साले ने।"
"भुट्टो ने क्या किया?"
"याहिया को ग़लत मशविरा दिया। हुकूमत को अँधेरे में रखा। फ़ौज को ज़लीलोख़्वार किया। क्या महज इक़्तदार हासिल करने के लिए?"
"अगर भुट्टो ने ग़लत मशविरा दिया तो याहिया ख़ाँ और उसके सलाहकारों की अक़्ल पर क्या पत्थर पड़ गया था। भई यह क्यों नहीं कहते कि यह सब मार्शल ला का किया धरा है। जहाँ मार्शल ला, वहाँ सबकुछ मुमकिन। कुसूर तो उन लोगों का है जो इक़्तदार की कुर्सी पर बैठे हुए थे। भुट्टो को नहीं याहिया को पकड़ो जो सियाह सफ़ेद के मालिक हैं।"
"और वो लोग क्या तुम्हारे बाबा लगते हैं जो धानमण्डी जाते हुए अपनी कारों पर बांग्लादेश का परचम लगाते थे।"
कभी-कभी जब बातचीत इस बिन्दु पर आ जाती तो झगड़े की नौबत आ जाती। तू-तकार के बाद गाली-गलौज और हाथापाई शुरू हो जाती। लेकिन ज़्यादातर तो होता यह कि बहस-मुबाहिसा और कठहुज्जती किसी बड़े हंगामे में तब्दील न होती। चन्द लम्हों के बाद जज़्बात में उबाल कम होता तो सब ठण्डे पड़ जाते।
लड़ने-भिड़ने की ताक़त कहाँ रह जाती है। इस क़िस्म के बहस-मुबाहिसे और झगड़े के दौरान एक दिलचस्प बात अमूमन नज़र आती। कोई ऊँघता हुआ मुसाफ़िर शोर सुनकर हड़बड़ाकर आँखें खोलता, कुछ देर हालात का जायजा लेता और फिर किसी न किसी लहज़े में समझदारी के फूल बिखेरता, "भाइयो, आपस में क्यों लड़ते हो, लड़ाने वालों को क्यों नहीं पकड़ते। क्या हमारे नसीब में ऊपरवालों के इशारों पर नाचना और लड़ना ही रह गया है च्च...च्च...।"
गोधरा कैम्प के क़रीब मिनी बस एक धक्के के साथ रुक गयी। काफ़ी देर से मुसाफ़िर खड़े थे। मेरी निगाह ग़ैरइरादी तौर पर कैम्प की जानिब उठ गयी। एक बार फिर मुझ पर हैरतों के पहाड़ टूट पड़े। पूरा कैम्प ख़ाली पड़ा भाँय-भाँय कर रहा था। मुख्य द्वार पर म्यानवाली और झेलम के लम्बे-तड़गे, बड़ी मूँछों और सुर्ख़ आँखों वाले पहरेदार भी मौजूद नहीं थे। मेनगेट का एक बड़ा दरवाज़ा तिरछा, होकर खुला हुआ था। मैदान में अखवरात के फटे हुए पन्ने, चिपके फटे-पुराने तक़ियों की रूई हवा के तेज़ झक्कड़ से उड़ती फिर रही थीं। बेंचें ग़ायब थीं। चुग्गी दाढ़ीवाले अधेड़ उम्र के बंगाली जो बड़े ध्यान से डान और पाकिस्तान टाइम्स पढ़ा करते थे और बच्चों को उनकी शरारतों पर डाँटते थे और वह बंगाली औरतें जो सारा-सारा दिन बावर्चीख़ाने में काम करतीं और कभी-कभी खिड़की से सिर निकालकर अपने बच्चों को पुकारती थीं और वे सारे साँवले-सलोने छोटे-छोटे बच्चे और बच्चियाँ जो मैदान में खेलती और लड़ती-झगड़ती थीं, कहीं चली गयी थीं। पाँचों फ़्लैटों की इमारतों के कमरे और खिड़कियाँ मुर्दे की आँख की तरह तारीक, गहरी और भयानक दिखायी दे रही थीं। ज़िन्दगी के सारे आसार ग़ायब थे।
मैंने न चाहते हुए भी क़रीबी सीट पर बैठे हुए जुकामशुदा शख़्स से सवाल किया तो उसने सबसे पहले मेरा जायजा लिया। सुड़-सुड़ करती नाक को उसने कई बार अपनी मोटी-भद्दी और निशानजदा उँगलियों को पोंछा। इसके बाद उसने भर्रायी हुई आवाज़ में जवाब दिया, "बंगाली थे, बांग्लादेश चले गये। भुट्टो ने मुजीब और बंगालियों को छोड़कर बहुत बुरा किया। पहले बिहारियों का मसला तय करना चाहिए था जिन पर वहाँ क़यामतें टूट रही हैं। बेचारे बिहारी...।"
काफ़ी दिनों तक कैम्प वीरान पड़ा रहा। मैं सोचता, अब यह फ़्लैट दूसरों को एलॉट किये जायेंगे। मेरी ख़्वाहिश थी कि मैं इन फ़्लैटों को अन्दर से देखता। बंगाली जिस मानसिक दबाव से गुज़र गये थे, यक़ीनन मुख़्तलिफ़ शक्लों में उसकी निशानियाँ छोड़ गये होंगे। उनका अध्ययन एक दिलचस्प तजुर्बा होता। नये आने वाले तो दीवारों, फ़र्श और छतों पर रंग-रोगन करके उन तमाम निशानियों को हर्फ़ग़लत की तरह मिटा देंगे। भला उन्हें इस बात से क्या दिलचस्पी हो सकती हैं। मामूल की आम्दोर"रत में मजीद एक हफ़्ता गुज़र गया। गोधरा कैम्प में कोई ख़ास तब्दीली नज़र न आयी। मेरी दिलचस्पी धीरे-धीरे कम हो रही थीं कि एक दिन फिर हैरतअंगेज मंज़र फ़िल्मों की तरह निगाहों के सामने घूम गया। बिल्कुल बंगालियों से मिलते-जुलते लोग मैदान में घूम रहे थे। उसी तरह साँवले-सलोने बच्चे मैदान में खेल रहे थे। गन्दे, नंगे-धड़ंगे। मर्दों के चेहरों पर ख़ाक उड़ रही थी और औरतें थकी-थकी, निढाल बेजान क़दमों के सारे सहारे कामकाज में मसरूफ़ थीं। उनकी आँखों में मायूसी और चेहरे पर दहशत की परछाईयाँ डरावने ख़्वाब का क़िस्सा सुना रही थीं। मैं मिनी बस से उतरकर बड़े क़रीब से मुहब्बे वतन बिहारियों के पहले लुटे-पिटे काफ़िले का जायजा ले रहा था। पुलिस और फ़ौज का पहरा न था बस इतना ही यहाँ से जाने वाले बंगालियों और वहाँ से आने वाले बिहारियों में फ़र्क़ था। बाक़ी सबकुछ एक जैसा था। इन्सान के हाथों के क़त्ल होने का हौलनाक मंज़र।
काँटेदार तारों के क़रीब एक अधेड़ उम्र की औरत बैठी हुई ज़मीन पर लकीरें खींच रही थी। बिहारी औरत चाहे कुछ हो जाये सिर पर आँचल ज़रूर डालती है। मगर उसका सिर नंगा था, साड़ी मैली और उस पर जगह-जगह पैबन्द लगे थे। मुझे क़रीब देखकर सिर उठाया। क्या बताऊँ उसकी सादी आँखों में क्या था। वह कई लम्हें मुझे ख़ाली-ख़ाली निगाहों से घूरती रही। फिर अचानक उठ खड़ी हुई और मेरे क़रीब आकर सवाल किया।
"निहाल मिला था - निहाल, बबुआ निहाल मिल जाये तो कहियो तुम्हारी माँ इन्तज़ार करत हैं।"
शाम को जब वापिस हुआ तो मिनी बस मुसाफ़िरों से खचाखच भरी हुई थी। गोधरे पर गाड़ी पहुँची तो एक नौजवान ने जो सूरत-शक्ल और लिबास से सब्ज़ी फरोश मालूम हो रहा था, खिड़की के शीशे जल्दी से खोलकर कैम्प की जानिब देखा। उसके होंठों पर बड़ी मानीखेज मुस्कुराहट थी। उसने अपने दूसरे साथियों से जो पूरी सीट पर क़ब्ज़ा जमाये बैठे थे, कहा, "रशीदे, कल चलेंगे, सुना है बहुत-सी बे आसरा लौंडियाँ आयी हुई हैं।"