गोदावरी हँस पड़ी (कहानी) : चिंता दीक्षितुलु
Godavari Hans Padi (Telugu Story in Hindi) : Chinta Deekshitulu
संध्या का समय, सूर्य सुहागिन स्त्री की भाँति हल्दी-कुंकुम लगाए गोदावरी में डुबकी लगाने जा रहा है। पक्षी घोंसलों में आश्रय लेने जा रहे हैं। चौपाए घर लौट रहे हैं। आधुनिक सभ्यता से अछूते ग्रामीण भी अपने-अपने घरों को आ रहे हैं। ऐसे समय सभ्य शहरी लोग क्लबों के लिए चल पड़े। मैं सभ्य हूँ और शहरी भी, किंतु क्लब को न जाकर सैर के लिए जा रहा हूँ।
गोदावरी के किनारे-किनारे मैं पैदल चलने लगा। वायु का प्रवाह नगर की ओर से गोदावरी की तरफ था। इसीलिए मैंने देखा, कोई वयोवृद्ध पुरुष किसी स्त्री को समझा रहा है—'स्वास्थ्य के लिए कॉफी के स्थान पर दूसरा पेय ठीक रहेगा।' एक जगह दो व्यापारी तेजी-मंदी को लेकर अपने नफे-नुकसान पर गंभीरता से विचार कर रहे थे। एक स्थान पर कोई दरिद्र विद्यार्थी जापानी रेशमी पेंट और पोलो कॉलरवाले कमीज का स्मरण करते हुए आत्मविभोर हो रहा है।
मैं किनारे-किनारे आगे बढ़ रहा हूँ। नगर से आनेवाली दुर्गंध कम हो गई है। अब नए ढंग की गंध आने लगी है। यह गंध समीप के गाँव से आ रही है।
वृक्ष हिलने लगे। उन वृक्षों की हवा गोदावरी के जल को छूकर बहुत सुखद लगती है। पेड़ों के हरे, चिकने, सुंदर पत्ते सांध्य प्रकाश में खेल रहे हैं। उन पत्तों पर मोटरों के कारण उड़नेवाली धूल दिखाई नहीं देती। गोदावरी के किनारे हरी दूब स्वच्छंदता से फैली हुई है। इस दूब पर बालिकाएँ चल रही हैं। आस-पास के पेड़ों पर पक्षी गा रहे हैं। गोदावरी में उठनेवाली लहरें भी धीरे-धीरे ताल देकर गा रही हैं। चलनेवाली बालिकाएँ फटे-पुराने कपड़े पहने हुई हैं। उनके शरीर पर कोई जापानी कपड़ा नहीं था। आजकल की शिक्षा -प्राप्त युवतियों के भड़कीले कपड़ों को देखनेवाले मेरे नेत्र इन फटे-पुराने कपड़ों से परेशान नहीं हुए। दरिद्रता प्रदर्शित करनेवाले ये कपड़े मेरी आँखों को अच्छे लगे। अपने और माँगकर लिये हुए कपड़ों में अंतर होता है। विदेशी कपड़ा माँगा हुआ लगता है।
किशोरियों की संदर आकतियाँ पाउडर से ढंकी हई नहीं हैं। उनके केश जापान अथवा इग्लैंड की युवतियों की तरह सजाए नहीं गए हैं।
गोदावरी के तट पर विकसित होनेवाले हरे-भरे पलाश पर खिलनेवाले लाल फूल की भाँति वे बालिकाएँ अपने अकृत्रिम सहज सौंदर्य से शोभायमान हैं।
आधा सूर्यमंडल गोदावरी में डूब गया।
लकड़ियों से भरी टोकरियाँ लादे वे लड़कियाँ किनारे पर आई और घर का रास्ता पकड़ा। मैं उस समय उन तीनों लड़कियों से छिपा नहीं रह सका।
गाँव के चौपाए नगर निवासियों को देखकर कितने भयभीत होते हैं! वे तीनों लड़कियाँ मुझे देखकर उसी __ भाँति डर गई थीं। घबराई हुई वे अपने घरों को चली गईं।
यदि मझ पर नगर की सभ्यता का नशा चढा होता तो मैं उन्हें अंग्रेजी में पश अवश्य कहता। कछ समय __ पश्चात् मैंने सोचा तो मुझे प्रतीत हुआ कि वे किशोरियाँ पौधों पर खिलनेवाले पुष्प के समान हैं और मेरी श्रेणी के लोग तो सब-के-सब कागज के फूल हैं।
थोड़ी दूर तक मैं भी उन किशोरियों के पीछे-पीछे चलता रहा। उस दिन मकर संक्रांति थी। इसीलिए तीनों लड़कियाँ गीत गाती जा रही थीं। गीत सुनने के लिए मैं भी उनके निकट पहुँचा। मेरे निकट पहुँचने से पहले ही गीत बंद हो गया। उनकी आँखों में आश्चर्य का भाव दिखाई दिया। मैं पीछे की ओर हट गया।
तभी गाय-भैंस चरानेवाले ग्वाले घर लौट रहे थे। मैंने उनसे पूछा, "ये चौपाए तुम्हारे हैं?"
ग्वालों ने बहुत ही विचित्र ढंग से एक बार मेरी ओर देखा और सिर हिलाते हुए अपने जानवरों को हाँकने लगे।
शहर में किसी-न-किसी कार्य से आए हुए नर-नारी गाँव लौट रहे हैं। कुछ स्त्रियों के कंधों पर खाली टोकरियाँ हैं। कुछ लोग नगर से सौदा खरीदकर ला रहे हैं, इंग्लैंड में छपनेवाले अखबारों से बँधे पुड़ों में।
केवल मैं ही ऐसा व्यक्ति था, जो गोदावरी के तट पर यों ही निरुद्देश्य घूम रहा था। बाकी सब लोग काम से आ-जा रहे थे।
सूर्यमंडल अभी पूरी तरह गोदावरी में डूबा नहीं है। अस्ताचलगामी सूर्य की किरणों से बादल अपने आपको सजाने लगे। गोदावरी की लहरें उत्तरोत्तर बढ़ती गई।
तीनों लड़कियाँ बातचीत करती जा रही थीं। लकड़ियों के बोझ के कारण उनकी सुंदर गरदन झुकी जा रही थी।
तीनों लड़कियाँ अपने-अपने घर पहुंच गई। उनकी माताएँ अभी-अभी घर लौटी थीं, बाजार में चावल खरीदने गई थीं। उन तीनों लड़कियों के पिता, भाई तथा अन्य संबंधी भी इसी समय मजदूरी लेकर घर आए हैं।
लड़कियों ने अपनी-अपनी माताओं को वे लकड़ियाँ सौंप दी, जो वे जंगल से चुनकर लाई थीं। माताएँ उन लकड़ियों से पानी गरम करके उन लड़कियों के पिता तथा भाइयों को नहलाने लगीं। फिर उन्हीं लकड़ियों से घर भर के लिए भोजन बनने लगा। भाई तथा पिता की लाई मजदूरी और माँ के लाए चावल पर्याप्त रहे, दूसरे दिन पूर्ववत् लड़कियाँ लकड़ी बीनने, माँ चावल लेने और पिता तथा भाई मजदूरी करने के लिए तैयार हो जाते हैं।
उन लड़कियों और लड़कियों के माता-पिता तथा चिड़ियों में मुझे कोई अंतर दिखाई नहीं दिया। देहाती लोग और चिड़ियाँ, दोनों समान रूप से अपने जन्मदाता ईश्वर पर पूरा-पूरा विश्वास रखते हैं।
किसी चिड़िया के पास जाकर यदि हम उससे प्रश्न करें-"चिड़िया, चिड़िया! तू नित्य प्रति अपने खानेदाने के लिए इतनी परेशान क्यों होती है? जिस दिन अधिक मिले, उसी दिन अन्न इकट्ठा क्यों नहीं कर लेती, जिससे कई दिन आराम करती रहे?" आप जानते हैं, चिड़िया इस प्रश्न का उत्तर क्या देगी? वह कहेगीभगवान् ने सभी प्राणियों के लिए संसार में अभीष्ट पदार्थों की व्यवस्था की है। तब मैं पृथक् रूप से और क्या व्यवस्था करूँ? चिड़िया के इस प्रकार के उत्तर में मुझ जैसे सभ्य नागरिक के लिए कोई सचाई दिखाई नहीं देगी।
मैंने गोदावरी की ओर मुड़कर देखा, सूर्यदेव पूरी तरह अस्त हो चुके थे। गाँव के लोग अपना-अपना भोजन करके सोने की तैयारी में लग गए।
***
मैं गोदावरी के किनारे पर चला आया हूँ। पक्षी घोंसलों में सो चुके हैं। पेड़ भी सो रहे हैं। किसी तरह डग भरता मैं नदी के किनारे-किनारे नगर में लौट आया। इस नगर के निवासी अब तक घरों में बंद नहीं हुए थे। शहरी-जीवन से मुझे घृणा हो आई। मेरे मन में आया कि मैं भी गाँव में रहने लगें तो कितना अच्छा हो! कितना आनंद रहेगा यदि मैं भी सवेरे ग्वालों के साथ चौपायों को हाँकता–हाँकता दूर जंगल में पहुँच जाऊँ और छाया में बैठ प्रकृति से बातचीत करूँ! किसी पेड़ की छाया में कलेवा करके अपने चौपायों के साथ गोदावरी का पानी पीऊँ और फिर किनारे पर ही पेड़ों की छाया में खेलता रहूँ। वहीं प्रकृति की गोद में सो जाऊँ!
अथवा उन लड़कियों के साथ मैं भी टोकरा उठाए, चप्पल पहने लकड़ी—कंडे बीनता फिरूँ तो कितना अच्छा हो! उन लड़कियों के साथ मैं भी गीत गाऊँ, हम लोगों के साथ वे चिड़ियाँ भी अपना गान छेड़ें और उस गान को गोदावरी सुने तो कितना अच्छा हो; किंतु कठिनाई यह है कि मैं नगर निवासी हूँ। क्या वे लड़कियाँ मुझे अपने पास आने देंगी? कहा जाता है, यदि किसी पक्षी को मनुष्य छू ले तो दूसरे पक्षी उस पक्षी को अपने दल में सम्मिलित नहीं करते। वे लड़कियाँ क्या मुझे अपने साथ लकड़ियाँ बीनने देंगी?
उन ग्रामीणों के साथ मैं भी उस गाँव में निश्चिंतता का जीवन व्यतीत कर सकूँ तो कैसा रहेगा! इस प्रश्न पर विचार करते समय मुझे ज्ञात हुआ कि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। मजदूरी करते हुए हाथों में छाले पड़ जाएँ, इसका अभ्यास मुझे कहाँ है? मेरे पाँव कँटीले झाड़-झंखाड़ों और खेत की मेंड़ों पर नहीं चल सकते। मेरी देह सर्दी-गरमी को एक भाव से कहाँ सहन कर सकती है! मुझ में इतनी समबुद्धि कहाँ है कि जैसी स्थिति आए, उसी में संतुष्ट रहूँ। अपने आपको विश्व की एक साधारण इकाई मानने के लिए मैं कहाँ प्रस्तुत हूँ? मेरा शरीर शीत और उष्ण दोनों का प्रभाव तुरंत ग्रहण करता है और मेरे पाँव धरती के कृमियों को आकर्षित करते हैं। मैं अपने हाथों से चट्टान तो नहीं उठा सकता।
मैंने अपने मन को समझाया, मैं पढ़ा-लिखा आदमी हूँ। ग्रामीणों को पढ़ाकर जीविका उपार्जित कर सकता हूँ। कुछ काल गाँव में रहकर ग्रामीणों की कृतज्ञता क्यों न प्राप्त करूँ? मेरे शिक्षित हृदय की भावना तो देखिए! मैं पढ़ाऊँगा तो ग्रामीणों को मेरे प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए! लकड़ी बीननेवाली वे लड़कियाँ क्या अपनी माताओं से कृतज्ञता की अपेक्षा रखती हैं? मैं हूँ कि अध्यापन के बदले ग्रामीणों की कृतज्ञता का आकांक्षी हूँ!
कुछ समय पश्चात् गाँव में छोटा सा घर बनाकर अपनी गृहस्थी बसा लूँ, लकड़ी बीननेवाली एक लड़की के साथ विवाह करके...
***
प्रतिदिन गोदावरी के तट पर टहलने की आदत मैं डाल चुका हूँ। मैंने निश्चय किया है कि उस ग्राम के निवासियों के साथ घनिष्ठता बढ़ाऊँ और फिर उनकी सहमति लेकर वहाँ बसूं। मैंने उस गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों से परिचय पाकर एक पाठशाला खोलने का संकल्प किया। इस पाठशाला में तेलुगु, अंग्रेजी, गणित, नागरिक शास्त्र आदि विषयों की शिक्षा देने का निर्णय भी मन-ही-मन कर लिया।
उन तीन किशोरियों में से एक के साथ मित्रता स्थापित करके उस मित्रता को प्रणय में परिवर्तित करने का निश्चय भी कर चुका।
एक संध्या को मैं गोदावरी के किनारे खड़ा था। हर रोज पत्ते देखते थे, अत: मुझे पेड़ों के पत्ते ऐसे प्रतीत हुए, जैसे वे मुझे अच्छी तरह जानते हों।
चिड़ियाँ चहचहा रही थीं। उन झाड़ियों में मेरे नेत्र किसी को खोजने में लगे थे। पाठक समझ गए होंगे कि मैं किसे ढूँढ़ रहा था? दूर्वादलों और पेड़ों ने खाली हाथ घुमा-घुमाकर मुझे उत्तर दिया-
सामने गोदावरी है। गोदावरी के परली पार आकाश छोटे-छोटे मेघ-खंडों से भरा है। उस किनारे का एक गीत लहरों पर लहराता हुआ मेरे कानों से आ टकराया। मैंने चौंककर उस ओर देखा तो एक काली सी छाया दिखाई दी, लकड़ी बीनने वाली लड़की ही संभवतः गीत गा रही है।
मुझसे थोड़ी ही दूर खेत की क्यारी है, क्यारी में एक किशोर काम कर रहा है। गीत सुनकर किशोर ने कमर सीधी की और गोदावरी के दूसरे किनारे पर दृष्टि डाली। उसने भी उस ग्रामीण लडकी को एक ग्राम-1 भेजा। किशोरी और किशोर के बीच का अंतराल दोनों के गीतों का मार्ग बन गया। उस मार्ग से दोनों के हृदय यात्रा करने लगे। गीतों के मार्ग से यात्रा करनेवाले किशोरी के हृदय को किशोर ने अपने में छिपा लिया है और इसी मार्ग से किशोरी ने भी किशोर का हृदय पाया है। इस लुकाछिपी को देख गोदावरी हँस पड़ी और मेरा मन उदास हो गया।
दोनों निकट आने लगे। किशोरी गोदावरी पार कर सिर पर लकड़ी का टोकरा लादे युवक की ओर बढ़ने लगी। दोनों मिले। एक-दूसरे का हाथ पकड़ खेत के किनारे आए और तब अपने घर की ओर चल दिए। लड़की ने फटे-पुराने कपड़े पहन रखे हैं। किशोरी की आँखों से किशोर का हृदय झाँक रहा है। किशोर के हाथ में लाठी, सिर पर पगड़ी, कमर में कोपीन। उसका गहरा श्याम रंग चमक-चमक जाता है, किशोर की आँखों में भी किशोरी का हृदय झाँक रहा है।
किशोर तथा किशोरी ने मुझे देखा, देखते ही दोनों ने हाथ छुड़ाया और अलग होकर दूर-दूर चलने लगे। धीरे-धीरे दोनों मेरे निकट आ गए। मुझे देखकर लड़की हँस पड़ी; और दिन में लकड़ी बीनकर लड़की को देता था तो वह ले लेती थी, किंतु आज उसने मेरी दी हुई लकड़ियाँ टोकरी में नहीं डालीं। मैं उस लड़के को जानता हूँ, फिर भी वह मुझसे कहे-सुने बिना चला गया। मैं कुछ देर तक वहाँ खड़ा रहा।
मैंने गाँव के मुखिया लोगों से बात की। सबने यही कहा कि बच्चों को पढ़ने-लिखने के लिए समय ही नहीं मिलता। उन बालकों के लिए भगवान् ने जीविका का साधन जुटा रखा है, फिर पढ़कर नौकरी करने की उन्हें क्या जरूरत? मैंने उन्हें समझाया कि पढ़ने का उद्देश्य केवल जीविकोपार्जन नहीं है, ज्ञानार्जन...आदि भी है। जिस समय मैं ग्रामीणों को समझा रहा था, मेरी अंतरात्मा ने मुझे स्मरण कराया—मैंने स्वयं रोजी पाने के लिए पढ़ा है, सारा संसार कमा–खाने के लिए पढ़ता है। इस गाँव में पाठशाला खोलने का विचार भी मेरी जीविका से जुड़ा हुआ है।
ग्रामीणों ने पूछा कि मैं बालकों को क्या पढ़ाऊँगा? मैंने उत्तर दिया-"अंग्रेजी, तेलुगु, गणित, इतिहास इत्यादि।" गाँव के मुखिया लोगों ने मुझे बताया कि गाँव की एक लड़की पढ़ने के लिए शहर गई थी। कोई उसे ले गया था, माँ-बाप नहीं थे, इसीलिए वह जा सकी। उसने शहर में जाकर खूब पढ़ा-लिखा, किंतु इस पढ़ाई से उसे क्या मिला? बन–ठनकर घूमती है, ईश्वर के प्रति उसे विश्वास नहीं रहा, ग्रामवासियों को देखकर घृणा करती है। और अनोखी बात यह कि उसने विवाह नहीं किया। विवाह न करने में उसका अपना दोष नहीं है, कहीं से बात ही नहीं चली। भगवान् को भुला देनेवाली शिक्षा व्यर्थ है, ऐसी शिक्षा का क्या महत्त्व, जो शरीर को सजाने में ही जीवन बिताने की प्रेरणा दे और विवाह से दूर रखे!
जब मैंने इस पर भी अपना आग्रह बनाए रखा तो उन लोगों ने पूछा, "क्या तुम रात के समय रामायण, महाभारत और भागवत पढ़ा सकते हो?"
अंग्रेजी पढ़े-लिखे व्यक्ति से यह प्रश्न किया गया था। मैं मौन रहा। बहुत परिश्रम से मैं तेलुगु में साढ़े तैंतीस अंक प्राप्त कर सका था। क्या तो महाभारत पढ़ाता और क्या रामायण? उन लोगों से बिदा माँगकर लौट पड़ा।
साँझ का समय, गोदावरी के किनारे-किनारे आ रहा था। गाँव लौटनेवाले नर-नारी मेरे सामने से गुजरे, अभ्यास के कारण मैंने धरती पर गिरी सूखी लकड़ियों की ओर देखा। लकड़ी के टुकड़े मुझे देखकर हँस रहे थे। उस लड़की को देखने की उत्कट अभिलाषा थी मेरे मन में, इसीलिए नदी के तट पर जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी, मैंने नजर दौड़ाई, मुझे दिखाई दिया, वह लड़की एक डाल पर बैठी सूखी लकड़ी तोड़ रही है और जमीन पर फेंक रही है, फिर मैंने युवक को ढूँढ़ा। वह कुछ दूर अपने चौपायों को हाँककर घर के रास्ते पर लगा रहा है। मैं खड़ा हो गया। वह युवक उस पेड़ के नीचे आया, जिसकी डाल पर लड़की बैठी थी। उसने वे लकड़ियाँ टोकरे में भरीं, लड़की पेड़ से नीचे उतरने लगी। युवा उसकी ओर देखने लगा-पीछे की ओर कसकर बँधा आँचल, गाँठवाला बड़ा जूड़ा, पाँवों में कड़े, अधरों पर हँसी, आँखों में चमक।
आपने डाल पर फुदकनेवाला पक्षी देखा है? पेड़ से सटकर छिपे-छिपे बढ़नेवाली बेल देखी है? वह किशोरी एक छोटी सी डाल से नीचे कूदी। युवक हँसा, उसने टोकरा उठाकर किशोरी के सिर पर रख दिया।
दोनों गीत गाते चल दिए। उन पर पेड़ों से झर-झरकर फूल गिर रहे थे। किशोर ने टेसू के दो फूल तोड़े, उनसे किशोरी के कान सुसज्जित हो उठे। पक्षी संगीत छेड़े हुए थे। सूर्य की अरुण-अरुण किरणों ने सारी धरती को रंग दिया था, किंतु उन दोनों पर अरुण किरणों की आभा बहुत गहरी थी। गोदावरी ने वायु से मिस उन्हें आशीर्वाद भेजा। जब वे ऊपर आ गए तो उन्होंने मुझे देखा।
मैंने कहा, "मैं जा रहा हूँ।"
"अच्छा भैया, फिर कब आओगे?" किशोरी इतना कहकर हँस पड़ी थी।
"जा रहा हूँ।" मैंने युवक से कहा।
"अच्छा बाबूजी!" युवक ने उत्तर दिया, वे मुझे वहीं छोड़ आगे निकल गए। मैंने गोदावरी पर दृष्टि डाली। मुझे आभास हुआ, जैसे गोदावरी मेरी ओर ताक रही थी।