गोद (हिंदी उपन्यास) : सियारामशरण गुप्त
God (Hindi Novel) : Siyaramsharan Gupt
गोद (उपन्यास) : अध्याय-10
पार्वती के यहाँ जाने के अनन्तर सोना का जी बहुत दुःखी हो गया। बहुत इच्छा रहने पर भी वह किशोरी के यहाँ तत्काल न जा सकी। माँ- बेटी इन दिनों कैसी दुःखित होंगी, इसकी कल्पना उसे निरन्तर पीड़ा पहुँचाने लगी।
ऐसे ही में किशोरी की दूसरी जगह सगाई हो जाने का सब समाचार एकाएक सुनकर वह वैसे ही रह गई। उसी समय वह किशोरी से मिलने के लिए चल पड़ी।
सोना ने पूछा - " काकी कहाँ है किशोरी ?"
"सो रही हैं।"
सोना को आश्चर्य हुआ । कौसल्या गरमियों की दोपहरी में भी कदाचित् ही कभी सोती थीं। इसलिए इस शीतकाल में यह दिवा-निद्रा अवश्य ही अस्वास्थ्य-मूलक है। वह बोली - " क्या उनकी तबीयत कुछ खराब है?"
किशोरी ने कहा - " सो रही हैं, इसलिए इस समय तो कुछ अच्छी ही समझनी चाहिए। नहीं तो जागती होतीं तो इस समय अकेले में गुमसुम बैठी होतीं। इस तरह बैठे रहने से तो उनका बीच-बीच में खुलकर रो पड़ना ही अच्छा था।"
सोना चुप रह गई । कुछ देर बाद बोली - "बेहटा की बात पक्की हो गई और मुझे कुछ मालूम ही न हुआ?"
किशोरी ने कहा- "जीजी, तुम्हें कैसे मालूम होगा? परसों की तो तुम आई हो, फिर भी घड़ी भर का तुम्हें समय नहीं मिला कि यहाँ आतीं। तुम गाँव में ही तो रहती हो; तुमने भी सुन लिया होगा कि अब भले घर की बहू-बेटियों से बात करने योग्य मैं नहीं हूँ।"
कहते-कहते किशोरी ने अभिमान से अपना मुँह फेर लिया। सोना ने तुरन्त दोनों हाथ बढ़ाकर उसे अपने अँकवार में भर लिया। एक हाथ से उसका सिर ऊपर उठाकर उसकी आँखों में अपनी आँखें मिलाते हुए उसने कहा- "बेंन, क्या तू मुझे ऐसी नीच समझती है, जो मुँह से ऐसी बात निकाल रही है?"
सोना के अंक में माथा टेककर किशोरी चुपचाप आँसू गिराने लगी। इतने दिन बाद आज उसे रोने का अवकाश मिला है। इसे वह कैसे हाथ से निकल जाने दे? ऐसा नहीं है कि इस बीच में उसे अपनी माँ के सामने दो-एक बार आँसू बहाने न पड़े हों । परन्तु वैसे में बहाने की अपेक्षा रोकने ही उसे अधिक पड़े हैं। उसके जो आँसू हृदय के गभीर तल में थे, लज्जा के क्रूर पत्थर ने उन्हें वहीं बन्द कर रक्खा था। आज इस समय उसके सामने कोई बाधा बन्धन न था । आज उसे इस बात का भय न था कि हृदय का कोई प्रच्छन्न रहस्य भी इन आँसुओं के साथ निकलकर किसी दूसरे के सामने प्रकट हो पड़ा है। उसने अपने आँसुओं के रोकने का कोई प्रयत्न न किया। उसके साथ-साथ सोना का हृदय भी उमड़ पड़ा। आँसू गिराती हुई चुपचाप वह उसके माथे पर अपना एक हाथ फेरने लगी। मानो चुपचाप इस तरह हाथ फेरने के अतिरिक्त कहने को उसके पास और कुछ भी नहीं है।
परन्तु हमारे पास कहने के लिए कुछ न हो, तब भी हमें कुछ-न- कुछ कहना ही पड़ता है। इसलिए आँसुओं के ज्वार में ईश्वरीय विधान के अनुसार जब भाटा आया, तब सोना ने कहा- “दुबे भैया ने यह सम्बन्ध इतना जल्द क्यों कर दिया बेंन?"
किशोरी ने कहा- "न करते जीजी, तो क्या करते ? गाँव वाले जैसी बुरी-बुरी बातें फैला रहे हैं, उससे बचने का उपाय उनके पास और क्या था?"
सोना बोली - "परन्तु सुनते हैं, उनके चरित्र में - "
किशोरी असहिष्णु होकर बोल उठी-" सुनने की बात कुछ न कहो जीजी । सुने हुए का विश्वास करतीं तो तुम आज मेरी छाया भी न छू सकतीं। और, जिनमें तुम गुण देखती हो, उनके भीतर भी तो न जानें कैसी चालें छिपी रहती हैं। मैं तो इतना जानती हूँ, माँ जिनके हाथ में सौंप देंगी उनके गुण-दोष का विचार करने वाली मैं नहीं हूँ। एक ओर तो तुम किसी के ऊपर इसलिए बुरी तरह असन्तुष्ट हो कि झूठे अपवाद के कारण उन्होंने हमें ठुकरा दिया है, और दूसरी ओर जिन्होंने नीच कुत्सा के सामने अपना सिर नहीं झुकने दिया, उनमें भी दोष देखती हो ! नहीं जीजी, मैं उनमें किसी तरह की अश्रद्धा नहीं रख सकती, इस सम्बन्ध में बस तुम कुछ न कहो।"
सोना स्तब्ध रह गई। शोभाराम आदि के प्रति किशोरी का यह कैसा अभिमान है ! किसी की भर्त्सना इस प्रकार भी की जा सकती है, सोना ने आज पहली बार इसका अनुभव किया। हाय, ऐसे रत्न को भी लोग पैरों से ठुकरा दे सकते हैं! अपने बिना जानें एक गहरी साँस लेकर वह जहाँ की तहाँ बैठी रही।
थोड़ी देर बाद उसने कहा- जान पड़ता है, काकी के जी को चैन नहीं है। कहीं उनकी तबियत खराब न हो जाय।"
"यही डर मुझे भी है। पहले तो वे बीच-बीच में कभी रो पड़तीं थी, और अपने भीतर का क्रोध किसी न किसी मिस प्रकट करके दूसरों से बोलती - चालती भी थीं । परन्तु जिस दिन से दुबे मामा ने वहाँ की बात पक्की कर दी है, उस दिन से मानो उनमें कुछ रह ही नहीं गया। अकेले में चुपचाप बैठी रहती हैं, कभी कोई पास बैठने के लिए आता है तो वहाँ से उठ जाती हैं। जो काँटा उन्हें चुभ गया था, बाहर से देखने से तो वह निकल गया जान पड़ता है; परन्तु उसकी नोंक टूटकर भीतर ही रह गई है। न जाने भगवान् क्या करने वाले हैं। जीजी, ऐसे में कभी- कभी खबर लेते रहना; तुम भी कहीं भूल न जाना।"
किशोरी को जिस बात की आशंका था, हुआ भी वही ।
रात को खाट पर पड़ी हुई माँ के पास जाकर किशोरी ने कहा- "उठो माँ, व्यालू कर लो। "
विकल कण्ठ से कौसल्या ने उत्तर दिया- " प्यास लगी है बिन्नी, चल कुछ खा लूँ।"
माँ के स्वर से शंकित होकर उसके माथे पर हाथ रखते हुए किशोरी बोल उठी-" ऐं तुम्हें तो बड़े जोर का बुखार है माँ! ऐसे में कुछ खाने में हर्ज तो न होगा?"
"हर्ज? तो जाने दे। पानी पी लूँ ।"
पानी पीने के लिए वह उठकर खाट से नीचे उतरने लगी। किशोरी ने हाथ से रोकते हुए कहा - " नीचे मत उतरो माँ। ऐसे में खाट पर पानी पी लेने में कुछ बुराई नहीं है।"
किशोरी की वह रात बड़ी कठिनता से कटी। सबेरे-सबेरे पहले पड़ोस के एक वैद्य को बुला लाई। दूर से ही उसे देखकर कौसल्या सहसा प्रसन्नतापूर्वक बोल उठी-" आओ लल्ला, मैं जानती थी, तुम आओगे।"
शंकित होकर किशोरी ने वैद्य की ओर देखा; उन्होंने भी उसकी ओर देखकर उसे शान्त रहने का संकेत किया। परन्तु वैद्य के उस संकेत से ही वह समझ गई कि स्थिति चिन्ताजनक है। माँ के पास आगे बढ़कर उसने जोर से कहा- "माँ, ये वैद्य काका हैं, तुम्हें देखने आये हैं ।"
इस समय तक कदाचित् कौसल्या को अपने भ्रम का पता स्वयं ही लग गया था। कुछ सुकंचित होकर एक हाथ से अपने माथे का वस्त्र उसने सँभाल लिया ।
नाड़ी देखकर और सब हाल सुनकर वैद्य ने कहा- "मैं एक दवा का नाम लिखे देता हूँ। हरू को भेजकर दयाराम के यहाँ से मँगा लेना। मेरे यहाँ यह रस नहीं है। रस के बिना काम न चलेगा।"
कौसल्या ने कहा-"उनके यहाँ की चीज मैं न खाऊँगी।"
वैद्य ने विस्मित होकर कहा - "क्यों? लड़की वाला सम्बन्ध तो अब उनके यहाँ है नहीं।"
कौसल्या ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ सोचकर वैद्य ने फिर कहा - " दाम लेकर तो वे किसी को दवा देते नहीं हैं। अच्छा, मैं दूसरी दवा दूँगा । वह भी ठीक रहेगी।"
हवा का बचाव रखने और उबाला हुआ पानी देते रहने की व्यवस्था करके वैद्य चले गये।
दवा का सेवन तो प्रारम्भ हो गया, परन्तु रोग क्रमशः बढ़ने लगा । सोना, किशोरी और हरिराम रात दिन अच्छी तरह लगकर उसकी परिचर्या करने लगे ।
एक दिन सोना ने हरिराम से कहा- “दुबे भैया, संकट मोचन महावीर की बड़ी महिमा है। तुम सबेरे वहाँ कोई पाठ कर आया करो और साँझ को हम दोनों दिया धर आया करेंगी।"
यह व्यवस्था भी हो गई।
गोद (उपन्यास) : अध्याय-11
विवाह अभी दूर है, परन्तु उसका पेशखीमा बहुत पहले से घर में आ गया है। काम-काज की इस भीड़ में किसी को अवकाश नहीं है। है तो केवल उसी को, जिसके लिए यह सब हो रहा है। शोभाराम अपना अधिकांश समय खेती के उस बीच की तरह एकान्त में ही बिता रहा है, जिसको लेकर किसान खेत की मिट्टी और अनुकूल ऋतु के जलवायु को क्षण भर के लिए भी विराम नहीं देता ।
सन्ध्या समय शोभाराम को दिन भर का अपना जीवन बहुत क्लान्तिक प्रतीत हुआ। उसे जान पड़ा कि जिस मेशीन के बिना इंजन- घर की कोई सार्थकता नहीं, मानो वह तो बन्द पड़ी हो और इंजन धड़- धड़ शब्द करके कान के परदे कोंच रहा है। आज कई दिन बाद हवाखोरी करने के लिए जाये बिना वह रह न सका ।
गाँव के बाहर हरे-हरे खेतों में अनेक छोटी-छोटी लहरावलियाँ उठाकर वसन्ती वायु क्रीड़ा कर रही थी । चलते-चलते हठात् उसके एक छोटे से झोंके ने शोभाराम के अन्तस्तल में छिपी हुई न जाने कौन- से आनन्द की कली खिला दी कि उसकी सारी देह एकाएक कण्टकित हो उठी। एक इसी दिन की नहीं, न जानें कब-कब और कहाँ-कहाँ की अरुचि और ग्लानि मानो एक क्षण में ही बह गई !
इसी उल्लास में वह लौटा चला आ रहा था। कुछ दूर से संकट- मोचन के मन्दिर के सामने, उसने सन्ध्या की धूमिल छाया में दो स्त्रियों को बात करते देखा। कुछ और पास आने पर अपनी गति धीमी करके उसने पहचाना कि सोना और किशोरी हैं। बहुत छोटे में जब किशोरी काठ की पट्टी और मिट्टी का बोरका हाथ में लेकर कन्या पाठशाला में पढ़ने जाया करती थी, शोभाराम तब से उसे देखता आया है। उस समय उसमें कुछ अपूर्व देखने योग्य उसकी आँखें न थीं। इसके बाद जब दोनों की सगाई हो गई, तब भी कभी-कभी वह उसे दिखाई पड़ जाती थी । परन्तु उस समय भी उसमें उसे कोई नवीनता नहीं दीख पड़ती थी । इधर
..............
..............