गोद (हिंदी उपन्यास) : सियारामशरण गुप्त

God (Hindi Novel) : Siyaramsharan Gupt

किसी निकटस्थ की गोद ऐसी भावनात्मक, मन को रोमांचित और अन्तस के तारों को छू लेने और कुरेर देनेवाली गोद होती है, जिसकी तुलना नहीं हो सकती। गोद ममतामयी माँ की हो, स्नेहसिक्त पिता की हो, हर संकट के समय प्रश्रय देने वाले बड़े भाई की हो या स्नेहमयी भाभी की गोद में ममता और सान्तवना की अद्वितीय क्षमता होती है। गोद का यह महत्त्व अद्वितीय है, अतुलनीय है।

व्यक्ति कितना भी भटकाव में हो, अपराध कर बैठा हो, किन्तु पश्चात्ताप की भावना से जब अपने वरिष्ठ निकटस्थ की गोद में सर रख देता है और उसके सर पर स्नेहपूर्ण हाथ ही सहलावट की अनुभूति होती है तो दोनों की आंखों के भावना मिश्रित आँसुओं की धाराएँ पवित्र संगम की धारा की तरह प्रवाहित हो जाती हैं।
सियारामशरण गुप्त जी के इस उपन्यास का कथानक अनेक उतार-चढ़ाव तथा पात्रों के तरह-तरह के कृत्यों के साथ आगे बढ़ता हुआ अंत में कुछ ऐसे मुकाम पर पहुँच जाता है कि वातावरण मन को अंदर तक छू लेने वाला बन जाता है।

यह अत्यन्त रोचक उपन्यास जीवन की उच्च भावनात्मक मन:स्थिति को ऐसे प्रभावी रूप में उद्वेलित कर देता है कि पाठक का मन भी अंदर तक उद्वेलित हो उठे।

श्री

विश्वास

भैया को चौसर खेलने का बहुत शौक है। जम जाते हैं तो सात-सात आठ-आठ घंटे अक्लान्त भाव से खेलते रहते हैं। किसी श्रेष्ठ औपन्यासिक का उपन्यास भी कदाचित् किसी को इतनी देर पकड़कर बैठा नहीं सकता। यह खेल भी जीती-जागती कहानियों का आकार ही जान पड़ता है। सभी बाजियों का कथानक एक, परन्तु आनन्द प्रति वार नया। प्रत्येक बाजी की कहानी ऐसी, जो सुखान्त भी हो सकती है और दु:खान्त भी; प्रत्येक अन्तिम अध्याय के अन्तिम पृष्ठ तक अनुभवी से अनुभवी खिलाड़ी को भी परिणाम का निश्चिन्त पता नहीं लगने पाता। उसमें कहानी का चढ़ाव, चरम-परिणति और उतार आदि सब कुछ देखने को मिल जाता है। चार रंग की गोटें, सब एक दूसरे को धोखा देकर, अनेक आघात-प्रतिघातों के बीच पिटती हुई और बचती हुई एक दूसरे से आगे निकल जाना चाहती हैं। इस द्वन्द्व और अनिश्चितता के बीच में जो आनन्द मिलता है, वह अच्छी से अच्छी कहानी में ही मिल सकना सम्भव है।

भैया को खेलते देख मुझे भी यह खेल खेलने की आकांक्षा हो उठती है। अनाड़ी को पाँसा अच्छा आता है, यहाँ तक तो ठीक है। परन्तु आफत की बात है कि खेलने वाले को मुनीम भी होना चाहिए। पौ बारह पड़े नहीं और गोठ उठाकर यथास्थान रख दो; गिनकर लगाने के लिए यहाँ कोई समय नहीं। यह
झंझट मुझे नहीं आती। इसलिए पाँसा मैं फेंकता जाता हूँ और भैया चाल बताते जाते हैं,-यह गोट यहाँ रक्खो और वहाँ। मेरे जैसे अनाड़ियों का खेलना निरापद भी इसी तरह हो सकता है। जीत हो तो उसका आनन्द अपना और हार हो तो उसकी लज्जा या संकोच का भार दूसरे के ऊपर।
मेरा साहित्यिक जीवन भी इसी तरह का एक खेल है। स्वयं खेलने की अपेक्षा खेल देखना ही मुझे अधिक रुचिकर जान पड़ता है, फिर भी कभी-कभी खेलने के लिए स्वयं बैठ जाता हूँ। खिलाने वाले के विश्वास के बल पर कभी कभी मैं ऐसी जगह चल देता हूँ कि यदि मुझमें समझ होती तो ऐसा करने में मुझे थोड़ा-बड़ा संकोच तो अवश्य होता।

परन्तु मुझे कोई संकोच नहीं है। साहित्यिक-जगत के इस अपरिचित और अज्ञात पथ पर चलते हुए भी मुझे कोई संकोच नहीं है। जहाँ किसी जगह भटक जाने की आशंका होगी, वहीं, खिलाने वाले का पुण्य-संकेत मुझे उचित मार्ग दिखाकर मेरी सारी कठिनाई दूर कर देगा। इस दृढ़ विश्वास के होते हुए भी मैं अपने लक्ष्य पर न पहुँच सकूँ तो चित्त में मुझे कोई ग्लानि न होगी। इसलिए आज के दिन का यह उत्सव मैं बिना किसी संकोच के, सानन्द सम्पन्न कर रहा हूँ।

चिरगाँव फाल्गुन पूर्णिमा 1989

सियारामशरण

श्री राम

गोद (उपन्यास) : अध्याय-1

सबेरे की धूप का सेवन करके शोभाराम नहाने की तैयारी में था। इतने में द्वार पर एकाएक एक गाड़ी आ खड़ी हुई। पार्वती के गाड़ी से उतरने के पहिले ही शोभाराम दौड़कर वहाँ पहुँचा। झट से पैर छूते हुए उसने उन्हें सहारा देकर नीचे उतारा। आनन्द और आश्चर्य से विह्नल होकर बोला-‘‘अरे भौजी, समाचार दिये बिना कैसे आ गईं ? तुम तो काशी और अयोध्या जा रही थीं।-वंसा दिन भर न जानें कहाँ रहता है; ओ भगोला, आकर सब सामान झट-से उतार तो।’’
पार्वती ने कपड़े से मुँह बँधा हुआ। मिट्टी का एक भाण्ज स्वयं उठा लिया। उसके हाथ से उसे लेकर शोभारान ने कहा-‘‘इसमें तो बड़ा माल-टाल मालूम होता है। घबराओ मत, भगोला इसे न छुएगा। तीर्थ का सब प्रसाद तो मेरे हाथ में ही आ गया ! अब इसे कोई नहीं पा सकता। मँझले कहाँ रह गये भौजी ?’’

कुम्भ के अवसर पर भौजी के साथ शोभाराम भी प्रयाग जा रहा था, परन्तु ठीक समय पर एकाएक सरदी लग जाने के कारण वह न जा सका था और पर्व-फल लेने के लिए उत्सुक पार्वती अपने भाई की संरक्षकता में चली गई थी। उन्हीं के संबंध में पूछे जाने पर कुछ संकोच के साथ उसने कहा-‘‘चौराहे तक मुझे अच्छी तरह गाड़ी पर पहुँचा कर वे सीधे गाँव पर चले गये हैं।’’

शोभाराम की सारी प्रसन्नता एक क्षण में ही तिरोहित हो गई। क्षुब्ध होकर उसने कहा-‘‘सीधे गाँव पर चले गये हैं,-यहाँ तक दो डग और चले आते तो क्या हम लोग उन्हें यहीं पकड़कर बाँध रखते ? यहाँ तक भी उनके आने की क्या आवश्यकता थी ? प्रयाग से सीधा टिकट कटाकर तुम्हें गाड़ी में बिठा देते, तब भी तो तुम रास्ते में कहीं खो न जातीं। यदि मैं ऐसा जानता तो चाहे कुछ क्यों न होता, मैं तुम्हें इस तरह किसी दूसरे के साथ कभी जाने देता।’’

मीठी भर्त्सना के साथ पार्वती ने उत्तर दिया-‘‘कैसी बात करते हो लल्ला ! भैया के साथ कहीं जाना क्या किसी दूसरे के साथ जाना है ? वे तो यहाँ पहुँचाने के लिए आ रहे थे। मैंने ही उन्हें घर जाने के लिए कहा, तब कहीं रुके। तीर्थ से लौटकर सीधे घर जाने की विधि है। इसमें किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए।’’

भौजी का अपने भैया के साथ भी जाना शोभाराम को रुचिकर नहीं जान पड़ा था। उनके स्नेह में से, भाई हो या बहन, किसी दूसरे का हिस्सा-बाँट उसे अनधिकार-सा प्रतीत होता था। इसलिए जब उसे यह मालूम हुआ कि उसकी भौजी उसी के अपने घर की अधिष्ठात्री है, उस पर अपने पित्रालय का अधिकार भी नगण्य है, तब उसके जी का समस्त विकार दूर हो गया। हँसकर बोला-‘‘धन्य है भौजी, तुम्हारा तीर्थ- फल; और दो डग इधर चले आने में उसके खुर घिस जाते ! यदि काशी और अयोध्या और हो आतीं तब तो कदाचित् उसका यहाँ तक आना भी न हो सकता।

हाँ, तुम बीच में से ही क्यों लौट आई ?’’
‘‘प्रयाग में आजकल ऐसी भीड़ थी कि फिर और कहीं जाने की हिम्मत किसी को नहीं पड़ी। सबकी यह सलाह हुई कि अब सीधे घर ही चलना चाहिए ।’’

‘‘तुम्हें ज्वर भी तो आ गया था ?’’
‘‘वह कुछ ऐसा नहीं। बस एक रोज रात के समय कुछ अधिक हो गया था।’’
‘‘वह कुछ नहीं था यह तो चेहरे से ही मालूम होता है। भौजी तुम तीर्थ करने गई थीं तीर्थ; कुछ हँसी-खेल न था। ज्वर आये बिना तुम्हारी तपस्या पूरी न हो सकती। परन्तु अब तो तबीयत ठीक है ?’’
पार्वती ने धीमे कण्ठ से उत्तर दिया-‘‘बुरी तो नहीं जान पड़ती। तुम्हें साथ ले चलती तो बहुत अच्छा रहता।’’

शोभाराम साथ न चलने का झूठ-मूठ का उलहना उन्हें देने ही वाला था, परन्तु अब उन्होंने बिना किया वह दोष स्वेच्छा से स्वयं अपने सिर ले लिया और उसने उन्हें इस प्रकार दु:खी देखा तब उसका मन पीड़ित हो उठा।

बोला-‘‘तुम क्या करती भौजी, दादा ने ही मुझे नहीं जाने दिया था। वे मेरी मामूली दरद से ही इतने घबरा गये थे कि रामू, अब न जायें क्या होने वाला है। अब खड़ी क्यों हो, जरा आराम से बैठो। इधर-उधर क्या देख रही हो ? दादा गाँव पर गये हैं। तुम पहले से सम्मन भेज देतीं तो ठीक रहता।’’

इसी बीच में मुहल्ले की स्त्रियाँ और लड़के- बच्चे पास झिमिट आये थे। सब एक साथ खिलखिला कर हँस पड़े । प्रौढ़ा पार्वती के मुँह पर भी कुछ लालिमा दौड़ गई।

गोद (उपन्यास) : अध्याय-2

तीसरे पहर खा-पीकर धूप में बैठी बैठी पार्वती सुपारी कतर रही थी । शोभाराम ने तेजी से आकर कहा - "भौजी, तुम हमें छोड़कर तीर्थ कर आईं । चट-से मेरे लिए दुहरा पान तो लगा दो, नहीं तो मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा है। "

पार्वती ने हँसकर कहा - "ऐसे छोटे अपराध के लिए इतनी बड़ी सजा !"

शोभाराम ने गम्भीर होने की चेष्टा करते हुए कहा - "यह तो कुछ भी नहीं है। जब तक तुम बाहर रहीं, हमने तुमसे अनबोल रक्खा; तुम्हारे हाथ की रसोई नहीं छुई। अब आज एक पान में ही सब झगड़ा निबटता है ।"

पार्वती हँसने का प्रयत्न करते हुए बोली - "बड़ी बात, झगड़ा निबट गया।"

शोभाराम मुँह में पान देते हुए पार्वती के पास बैठ गया । बोला- "अभी क्या हुआ, मुकद्दमे की मिसिल फिर से देखनी पड़ेगी। तब ठीक तौर से मालूम हो सकेगा कि झगड़ा निबट गया या अभी कुछ कसर है । हाँ, तुम पर्व पर लड़का लेने गई थीं, उसका हाल तो तुमने कुछ कहा ही नहीं। भैया कहाँ है, उसे हमें दिखा तो दो भौजी ।

शोभाराम की अवस्था यद्यपि लड़कपन को पार कर चुकी थी, फिर भी, हेमन्त का प्रात:काल जिस तरह जाते-जाते भी अधिक काल तक टिका - सा रहता है, वैसे ही, उसका बचपन उसके भीतर से अभी तक गया नहीं था। वह अभी तक यह नहीं जानता था कि लड़के बच्चे के लिए भी किसी को परेशान होना चाहिए। बल्कि अब तक उसके अनुभव ने उसे यही बताया था कि लड़कों-बच्चों के होने से ही परेशानी बढ़ती है। उन्हें कुछ भी शऊर नहीं होता, चाहे जहाँ जगह गन्दी कर देते हैं; रात-दिन चें-चें में- में करके नाकों में दम किया करते हैं और जब तबीयत हुई झट से बीमार पड़ जाते हैं! इसी से वह भौजी के जप- तप, पूजा-पाठ और ब्रह्म - भोज आदि की हँसी उड़ाता रहता था । परन्तु आज जब उसने अपने परिहास से भौजी की आँखें सजल देखीं, तब उसे मानो चेत हुआ । इस परिहास को पहले की तरह उन्होंने हलक-सी हँसी और लज्जा से टाल नहीं दिया, यह उसकी दृष्टि से छिपा न रह सका। एक क्षण में ही मानो उसने उनके सर्वांग में मिश्रित निराशा - पूर्ण विषाद - लेख को पढ़ लिया। अनजान में उसने उनके हृदय के किस सुकोमल मर्मस्थल पर आघात कर दिया है, एकाएक यह उसकी समझ में न जा सका। अवश्य ही किसी ठग-साधु ने उसने कोई ऐसी बात कह दी है कि जिसने उनकी अस्पष्ट आशा का भी दीपक बुझा दिया है। पार्वती ने कुछ कहा नहीं, सिर नीचा किये जहाँ की तहाँ बैठी रही । शोभाराम आगे खिसककर छोटे बच्चे की तरह उनकी गोद में लेट गया । बोला- " जी छोटा क्यों करती हो भौजी ? मैं तो हूँ तुम्हारा लड़का । मुझे अपनी किसी माँ की याद नहीं है, मैं तो इतना ही जानता हूँ कि भगवान् ने तुम्हें ही मेरी माँ बनाया है। वंसा अपने बाप को भैया कहता है, मैं अपनी माँ को भौजी; बस इतना ही अन्तर है और कुछ नहीं ।"

पार्वती की आँखों में आनन्द के आँसू छलक पड़े। शोभाराम की पलकें भी भींग गईं। भौजी न तो पीछे हटीं, न उन्होंने उसे गोद से ही हटाया। एक लक्ष्य के भीतर ही आह्लाद की उज्वल रेखा के रूप में मानो मातृ-दुग्ध हो उसके सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो उठा ! इतने बड़े देवर को गोद में लिटाने में भी कोई संकोच हो सकता है, उस समय इस बात के विचार के लिए उसके हृदय में स्थान ही न रहा। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो विधाता ने एक इसी क्षण के लिए ही उसके समस्त जीवन की रचना की है! कुछ देर बाद अपने को सँभाल कर उसने कहा- 'लल्ला, तुम प्रसन्न बने रहो, अब मुझे किसी लड़के की आकांक्षा नहीं है।"

शोभाराम उठकर वहीं बैठ गया। आज उसे भी जिस आनन्द की अनुभूति हुई, उसके लिए वह बिल्कुल नया था ।

पार्वती फिर कहने लगी- " बस आगे की लग्न में विवाह हो जाय, कोई झगड़ा झंझट न उठ खड़ा हो, तो फिर मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"

घर में बड़ों के बीच विवाहित होकर स्वयं बड़े हो जाने की कल्पना शोभाराम को कुछ अच्छी नहीं जान पड़ती थी; इसलिए उसे अपने विवाह की चर्चा में लज्जा का अनुभव होता था। उसने बात बदलनी चाही; परन्तु झगड़ा झंझट की नई आशंका से उन्मुख - सा होकर जैसा का तैसा बैठा रहा ।

पार्वती कहती गई - "इसमें उस बेचारी का क्या दोष, वह तो अभी अनजान लड़की है। बड़े-बड़े आदमी तक वैसी भीड़ में हिरा जाते हैं। वह तो बड़ी कुशल हुई। भगवान उन सेवा समिति वालों का भला करें, जिन्होंने भटका हुआ जानकर उसे दो दिन तक अपने डेरे में अच्छी तरह रक्खा और पीछे से उसके स्थान का पता लगाकर उसे वहाँ अच्छी तरह पहुँचा दिया।"

शोभाराम ने मुक्ति की साँस ली। उसकी वाग्दता पत्नी खोकर अच्छी तरह मिल गई, भौजी फिर भी उसके लिए शंकित हो रही हैं कि इस देहात में वहाँ की तरह कहीं वह फिर खो न जाय ! उनके इस भोलेपन पर उसे मन ही मन हँसी आ गई। उसे रोकते हुए उसने बात बदलकर कहा - "भौजी, आज मुझे माँ की यह गोद मिल गई, अब मैं किसी झगड़े-झंझट से नहीं डरता ।

गोद (उपन्यास) : अध्याय-3

पार्वती को लौटे हुए कई दिन हो चुके। शोभाराम को गुस्सा आ रहा था कि गाँव पर ऐसा क्या काम रक्खा है जो दादा अभी तक नहीं आये । इतने समय में वह तो पूरी दुनियाँ का चक्कर लगा आता ।

घर के नौकर वंसा के साथ आँगन के कौंड़े पर बैठा-बैठा वह हाथ सेंक रहा था । वंसा ने कंडी के एक टुकड़े से आग उखेरते हुए कहा - " हम कहते हैं कि दादा नदी के परले पार के गाँव गये हैं, वहाँ वाले भी कहते होंगे कि परले पार के गाँव से आये हैं। दोनों में से सच किसकी बात है ?"

वंसा के इस अचिन्तनीय प्रश्न से चकित होने के पहले ही शोभाराम उठकर बोल उठा - "अरे, दादा आ गये !"

दयाराम ने गम्भीर भाव से घर में प्रवेश किया। शोभाराम ने उल्लास के साथ कहा - "दादा, भौजी आ गई हैं। आपने गाँव पर बहुत दिन लगा दिये। "

दयाराम ने हाँ या हूँ क्या कहा सो तो शोभाराम न समझ सका, परन्तु इतना उसकी समझ में आ गया कि यह बात उन्हें पहले ही मालूम है । उसका उल्लास तुरन्त ही आधा रह गया। ये गाँव वाले भी कैसे हैं कि घर के लोगों से घर की निजू बातें कहने का भी अवसर उसे नहीं देना चाहते !

परन्तु गाँव वालों से भी अधिक गुस्सा आया उसे हुक्के पर। भौजी इतने दिनों बाहर रहकर तीर्थ करके लौटी हैं, पहले उनके पास जाकर उनका कुशल- समाचार लेना तो दूर की बात, दादा मूँज से बुने पीड़े पर बैठकर वंसा को हुक्म दे उठें - " हुक्का भर। इसमें पानी कर लिया?"

भीतर जाकर भौजी को दादा के आ जाने का समाचार देने का भी उसका जी न चाहा । उठकर से धीरे बाहर चला गया।

बाहर उसे सड़क पर जाते हुये मिल गये गंगादीन तिवारी । . वृद्धावस्था, ऊँचा-पूरा सबल शरीर, सिर पर बड़े - बड़े बाल, भरी हुई भूरी दाढ़ी, गले में मोटे दानों की कण्ठी, माथे पर लम्बा-चौड़ा टीका और पीले रंग का घुटनों तक का फैला हुआ ढीला-ढाला कुरता आदि वे. समस्त उपकरण उनकी देह में विद्यमान थे, जिनको लेकर वर्तमान मासिक - पुस्तकों के सुलभ चित्रकार किसी प्राचीन ऋषि का चित्र बात की बात में तैयार कर डालते हैं। शोभाराम को उनकी वेश-भूषा में न जाने ऐसा क्या दिखाई देता था कि उनके जी में चिढ़ पैदा होती थी । इसीलिये वह पहले उन्हें प्रणाम नहीं करता था । परन्तु हमारे तिवारीजी पुरातन काल के ऋषियों की भाँति 'क्रोधस्वी' न थे। मुँह फेर कर चुपचाप जाते हुये अपने यजमान के प्रति दूर से ही - ' आशीर्वाद भैया ! ' कहकर वे अपना कर्त्तव्य दूसरे की सहायता के बिना स्वतः ही पूरा करने लगे। तब से शोभाराम कुछ कुछ नम्र हो गया था। सामने देखकर इच्छा न रहने पर भी उसने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

"जीते रहो भैया ! तुम्हारे दादा अभी तक गाँव से नहीं लौटे ?"

"अभी अभी आये हैं।" - कहकर शोभाराम एक ओर चला गया। उसने मन में सोचा, घण्टे दो घण्टे से पहले दादा का पिण्ड ये क्या छोड़ेंगे?

गङ्गादीन ने घर में प्रवेश करते हुए दयाराम के प्रणाम का प्रत्युत्तर देकर हँसते हुए कहा - " गाँव से अभी-अभी आ रहे हो?" - मानो अपनी त्रिकालदर्शिता के प्रभाव से ही उन्होंने यह बात जानी है।

"हाँ ।"

"तुम तो गाँव पर गये थे, यहाँ एक नया झगड़ा खड़ा हो गया है। " दयाराम ने किसी तरह का औत्सुक्य नहीं प्रकट किया। साधारण भाव से ही पूछा - "कैसा झगड़ा?”

गङ्गादीन ने कहा- " अभी बहू जब प्रयाग गई थीं तब कौंसा भी अपनी लड़की को लेकर गई थी । और भी बहुत लोग गये थे। एक दिन वहाँ लड़की भीड़ में कहीं संग छूट हो गई।"

दयाराम ने कहा - "हाँ, मालूम है।"

गङ्गादीन विस्मय के साथ कह उठे - "मालूम है ! तुम तो बाहर थे, फिर कैसे मालूम हो गया?"

"यों ही सुन लिया।"

"तभी तो । बड़े आदमियों के कान और आँखें भी बड़ी होती हैं ! वे सब ओर का देख और सुन न सकें तो भगवान् उन्हें बड़ा आदमी ही क्यों बनावे? किशोरी के अकेले बाहर रहने की बात को लेकर कुछ दुष्ट झगड़ा खड़ा कर देना चाहते हैं। कहते हैं, अब उस लड़की का क्या ठीक ? आये बड़े ठीक वाले ! एक-एक को ठीक न कर दिया तो कहना तुम । "

"नहीं तिवारी जी, उन लोगों का अभिप्राय बुरा नहीं जान पड़ता । अच्छी हो या बुरी, जिस लड़की की ऐसी बुराई फैल चुकी है, हम भी उसे अपनी बहू कैसे बना सकते हैं? आज ही मैं उन लोगों से यह बात कहला दूँगा । वे अपना दूसरा प्रबन्ध करें। "

तीसरे सप्तक के निषाद से उतरकर पहले सप्तक के षड़ज पर एकदम आ जाने में गङ्गादीन को विशेष कष्ट नहीं करना पड़ा। बिना हिचकिचाहट के उन्होंने कहा- "जरूर कहला देना चाहिए। मैं तो जाकर स्वयं कौंसा से यह बात कह आना चाहता था। फिर सोचा- जल्दी क्या है, पहले भैया से तो बात कर लूँ। मैं हजार आदमियों में तुम्हारी बड़ाई करूँगा। तुमने मेरे मन की बात जान जी ! 'सिय पिय की मन जानन हारी, ' गुसाईं जी ने ऐसे ही अवसर के लिए कहा है। और बहू भी तो साक्षात् लक्ष्मी हैं! वे प्रयाग में ही धीं, जब यह अनाचार हुआ। वे भी यह विवाह कैसे होने देतीं ?"

"नहीं, अभी उनसे मेरी कोई बात नहीं हुई। फिर भी वे यह बात थोड़े कह देंगी कि वे बराबर उस लड़की के साथ थीं।"

"सो तो है ही। मैंने कहा नहीं, बहू साक्षात् लक्ष्मी हैं। शोभू का सम्बन्ध लखपतियों के यहाँ हो सकता है; वे एकदम दयालु न हो जातीं तो क्या यह सगाई हो सकती? मैंने उसी समय कह दिया था, जो सम्बन्ध बराबर वालों में किया जाता है, वही शास्त्र सम्मत है। कुछ हो भैया, मैं तुम्हारी बड़ाई करूँगा। तुमने शास्त्र की आज्ञा के अनुसार ही अपना निर्णय किया है। "

दयाराम की बुद्धिमता की फिर फिर प्रशंसा करके और आवश्यकता पड़ने पर आधी रात के समय भी बुलावा लेने की बात कहकर गङ्गादीन चले गये ।

गोद (उपन्यास) : अध्याय-4

दयाराम का स्वभाव कुछ विचित्र ढंग का है। उनके निकट प्रतयेक तर्क का उत्तर एक मौन है। मितव्ययी ही नहीं वे मितभाषी भी हैं । इसलिए जब उन्होंने शोभाराम की पहली सगाई तोड़कर फिर से दूसरी जगह बात पक्की कर ली, तब इस विषय में पार्वती का समस्त विरोध उस आघात की तरह अपने आप निष्फल हो गया, जिसके सामने प्रतिघात की छाया भी नहीं होती। एक बार बातचीत के सिलसिले में उन्होंने कहा कि उन्हें गाँव पर प्रयाग से लौटे हुए कुछ तीर्थ-यात्री मिले थे । परन्तु सगाई तोड़ देने की बात से इस बात का क्या सम्बन्ध है, यह रहस्य उसकी समझ में न आ सकहा और बार-बार उसके चित्त को यह विचार पीड़ा पहुँचाने लगा कि इतर जनों के दिये हुए निन्द्य अपवाद के कारण वे क्यों अपनी मानी हुई बहू के ऊपर यह अविचार करने जा रहे हैं। अपवाद तो अँगीठी के उस धुएँ के समान हैं, जो इस ओर भी जाकर नहीं बैठने देता और उस ओर भी ।

परन्तु शोभाराम मन-ही-मन इस सम्बन्ध-विच्छेद से प्रसन्न है। फिर भी भौजी की विषाद - खिन्न मूर्ति देखकर उसे दुःख होता है। उसके कुछ समवयस्कों ने अपनी कल्पना को सत्य कारूप देकर किशोरी के खो जाने के सम्बन्ध की उसे कुछ ऐसी बाते सुनाई हैं, जिन्हें वह अपने से छोटों के सामने भी नहीं कह सकता। इसलिए उसके हृदय की खिन्नता और आह्लाद रात-दिन के उस जाड़े के समान एक साथ मिले हुए हैं, जिसमें रात कृष्ण पक्ष की होने पर भी खुले दिन का मान कुछ अधिक होता है। वह भौजी की खिन्नता दूर कर देना चाहता है, परन्तु उसे कोई उपाय नहीं दिखाई देता ।

ऐसे ही ऐसे में में एक दूसरी जगह का नाई शोभाराम का दूसरा सम्बन्ध पक्का करने के लिए आ पहुँचा। पार्वती अपना दोपहर का काम पूरा करके चूनादानी में पानी डालकर चूना ठीक कर रही थी, इतने में वंसा ने आकर कहा - "कक्की, पिरथीपुर का नाई आया है। उसे खिलाने के लिए झट से हलुआ-पूड़ी तैयार कर देने के लिए दादा ने कहा है।"

पार्वती सहसा गरम हो उठी। बोली- " अभी दोपहर के उसार से तो छुट्टी मिली नहीं और इसी समय तू यह हुकूमत करने आ गया ! तबीयत ठीक नहीं, मैं क्या-क्या करूँ?"

वंसा को विश्वास नहीं हुआ कि कक्की की तबीयत ठीक नहीं है। तीर्थ से जब लौटी थीं तब तो अच्छी तरह बोलते भी नहीं बनता था, फिर भी सब काम-काज सकेलती थीं और आज शोभू भैया के सम्बन्ध के लिए बड़े घर का नाई आया है तो इस तरह बिगड़ती हैं। हँसकर बोला - " तो जाकर कह दूँ, उसके लिए बाजार से मिठाई मँगा दी जाय ? सगाई के लिए जो नाई आता है, उसे निमकीन तो कुछ खिलाया नहीं जा सकता। नहीं तो बड़े घर की लड़की है - "ऐसी लड़ने वाली बहू मिलेगी कि कक्की को भी किसी की याद आयगी ।"

पार्वती और भी चिढ़ गई। बोली - "जा, लाना है तो बाजार से ही ले आ। "

वंसा छुटपन से इस घर में काम करता है । इसलिए वह जानता है कि क्रोध की यह ज्वाला ऐसी नहीं है कि इससे डरा जाय, यह तो हाथ सेंककर शरीर गरमा लेने की ही वस्तु है। उसने कहा - " कक्की आज तो गरम हो रही हैं, किन्तु जब सोने के गहनों से लदी बहू देखेंगी तब छाती सिरा जायगी। यहीं गाँव में बारात जाती तो क्या मजा रहता। अब बाहर जाकर हम भी नवाब बन लेंगे ।"

पार्वती एकाएक सुस्त पड़ गई। क्रोध के स्थान पर एक करुण- वेदना उसके मुख मण्डल पर परिव्याप्त हो उठी। देखकर वंसा को दुःख हुआ । अनुतप्त होकर बोला- "नाराज हो गई कक्की? बारात में मैं कुछ नवाबी कर लूँगा तो नवाब थोड़े हो जाऊँगा; रहूँगा तुम्हारा चाकर ही । "

पार्वती ने चुप-चाप एक दीर्घ निःश्वास छोड़ी। वंसा ने सोचा- सचमुच आज इनका जी अच्छा नहीं है। नहीं तो ऐसे अवसर पर उदासी का क्या काम ! दयाराम ने गाँव से लौटकर उसे अपने किसी खेत पर काम के लिए भेज दिया था, इसलिए वह नहीं जानता था कि इस विवाह की बात को लेकर स्वामी- स्त्री में कितना क्या हो चुका है। बोला - " अच्छा, इस बाहर के चूल्हे को सुलगाये मैं देता हूँ, तुम यहीं बैठे-बैठे सब सामान कर लो। तुम्हें ज्यादा तकलीफ न होगी।"

चूल्हा सुलगाते - सुलगाते उसकी कल्पना सजग हो उठी। बोला- 'कक्कह, बारात में स्त्रियों को ले चलने का चलन नहीं है, नहीं तो चलकर तुम देखतीं, वहाँ कैसा रंग बरसता है । "

पार्वती के अभिमान को प्रकट होने के लिए जगह मिल गई। सूखे मुँह से बोली - " भैया, हम लोगों की बात कौन पूछता है । स्त्रियाँ तो केवल बाँदियों की तरह काम करने को हैं । "

अपने किशोर आनन पर आश्चर्य का भाव लाते हुए चूल्हे पर मुँह मोहड़कर वंसा ने कहा - "बाँदी ? किसी की कक्की भी कहीं बाँदियों की तरह हो सकती है। "

पार्वती को हँसते . देखकर वंसा का उत्साह और बढ़ गया। बोला- "सुनते हैं, लड़की वाले बड़े मस्त आदमी हैं। उनके यहाँ हजार बीघे की खेती होती है। पक्की बनी हुई बहुत बड़ी हवेली है। घर पर बड़े- बड़े हाकिम मिलने के लिए आते रहते हैं।" - कहते-कहते उसे अपनी बात स्वयं खटक गई; यह सोचकर कि इससे अपनी हीनता प्रकट हो रही है । झट अपना रुख पलट कर वह फिर कहने लगा- " और हम लोग भी क्या किसी से कम हैं? अपने यहाँ हाकिम लोग नहीं आते, सो आजकल तो अखबार वाले यही लिखते रहते हैं कि इन लोगों से मिलने-जुलने का कोई काम नहीं है। "

विषय- परिवर्तन से पार्वती को प्रसन्नता हुई। चूल्हे पर कड़ाही चढ़ाते हुए उसने प्रश्न किया - " हाकिमों से मिलने-जुलने से तो बड़प्पन आता है, फिर इनसे मिलना-जुलना क्यों न चाहिये?"

वंसा ने अपने ज्ञान गौरव का अनुभव करते हुए कहा - "हर्गिज नहीं मिलना चाहिए। ये लोग गरीबों के गले पर छुरी फेरते हैं न । परन्तु कक्की, इन अखबार वालों की बातें भी सब सच नहीं होतीं। सुनकर मैं फौरन बता सकता हूँ कि कौन बात सच है और कौन झूठ। "

पार्वती ने विस्मय के साथ - " अखबार वाले कोरे कागज पर झूठ लिखते हैं?"

वंसा ने कहा - "सो, क्या हुआ कक्की? जितने बड़े आदमी होते हैं उन सबको झूठ से काम लेना पड़ता है। इन पिरथीपुर वालों को ही लो । अदालत में इनके इतने मामले - मुकद्दमे चलते हैं, अगर कागज पर सच ही सच लिखें तो सिर की पगड़ी कभी की उड़ जाय । अच्छा, एक बात तो बताओ।"

"क्या?"

"आज बाजार में कुछ लोग हमारी हँसी उड़ा रहे थे कि पिरथीपुर वालों का लड़का उनकी लड़की ही है। दादा शोभू भैया को उनकी लड़की बनाकर बारात ले जायँगे और वे वहाँ ससुराल में बहू बनकर रहेंगे। ठीक है यह बात ?"

"मैं क्या जानूँ ।"

"तुम्हें तो मालूम है नहीं और इन गाँव वालों को सब मालूम हो गया! सच मानो कक्की, यहाँ के आदमी आदमी नहीं है, चमार हैं। किसी का भला नहीं देख सकते। गुस्सा तो मुझे बहुत आया, परन्तु मैं तरह देकर चला आया।"

वंसा तरह देकर तो नहीं चला आया था, वहाँ उसने किसी पर हाथ नहीं चला दिया यही बहुत है । इस सम्बन्ध में पार्वती को भी उसका विश्वास न था, परन्तु इस अविश्वास से इस समय उसे कुछ प्रसन्नता नहीं हुई, यह नहीं कहा जा सकता। बोली - "देख, किसी से लड़ना-झगड़ना अच्छा नहीं होता। तू किसी से लड़ेगा तो मैं तेरा मुँह न देखूँगी।"

वंसा ने कहा- " मैं कब किसी से लड़ता हूँ? उस बार जब बुद्धा को खून निकल आया, तब से तुम्हीं बताओ, तुमने कोई बात सुनी ?"

कड़ाही में घी छोड़कर पार्वती उसमें करछुली चलाने लगी। एक ओर हठकर वंसा बोला- 'कक्की, तुमने यह बहुत अच्छा किया जो गाँव की सगाई छोड़ दी। किशोरी तो कुछ साँवली है, परन्तु कहते हैं, पिरथीपुर की लड़की खूब गोरी-चिट्टी है। दादा को मालूम न हो और तुम एक दिन के लिये मुझे छुट्टी दे दो तो मैं उसे देखकर तुरन्त लौट आऊँ । किसी को पता भी न लगेगा कि कहाँ का कौन आया था। "

"क्या लल्ला ने तुझसे कुछ कहा है?"

"अरे शोधू भैया को इन बातों का क्या ज्ञान? वे तो दूल्हा बनकर चुपचाप मण्डप के नीचे बैठ जायेंगे। उनसे अधिक तो मैं समझता उनकी एक बात सुनकर मुझे बड़ी हँसी आई । "

"क्या?"

"वे कहते थे, मेरी माँ मुझे बहुत छोटा छोड़कर मर गई थी। अब मैंने एक माँ गोद ले ली है। लड़का तो गोद लिया जाता है; तुम्हीं कहो, कहीं माँ भी गोद ली जाती है? उन्होंने किसी बुढ़िया को माँ बनाकर गोद लिया तो वह भी चट से मर जायगी और फिर वही झँझट । हाँ, जैसी मिलें तो मैं दो-तीन माएँ बना सकता हूँ।"

"तो फिर तू मुझे खिलाय पिलायगा तो?"

"वाह, मैं क्यों खिलाऊँ-पिलाऊँगा? जिस तरह तुम अभी खिलाती- पिलाती हो उसी तरह अब भी करोगी। हाँ, मैं तुमसे केवल लडूं- झगडूंगा और तुम्हारे भाँड़े-बर्तन तोड़-फोड़कर चिल्लाया करूँगा। माँ के होने में यही तो मजा है !"

पार्वती के मुख पर हँसी के साथ मातृत्व का करुण भावना प्रकट हो उठी। वंसा ने कहा- " शोभू भैया कहते हैं कि वे छुटपन से ही तुमसे भौजी कहते रहे हैं, इसलिए तुम्हें माँ कहते अब उन्हें शरम लगेगी; परन्तु मुझे तो इसमें शरम की कोई बात नहीं दिखाई देती । "

पार्वती सब सामान तैयार करके बोली - " एक दौना उठा ला । चखकर देख ले, मोहन भोग खारी तो नहीं हो गया; और नाई बुलाकर उसे खिला-पिला दे । लल्ला तो उसे परोसेंगे नहीं।"

वंसा खुशी-खुशी दौना लेने दौड़कर चला गया ।

गोद (उपन्यास) : अध्याय-5

किशोरी के गाँव वाले सम्बन्ध के विषय में कौसल्या को उसी समय से आशंका हो गई थी, जिस समय मेला में भूली हुई किशोरी को दूसरे दिन स्वयंसेवक उसके पास पहुँचा गये थे और गाँव के कुछ सहयात्रियों ने वय - प्राप्त लड़की के रात में बाहर रहने पर अपना जघन्य सन्देह निर्लज्जता के साथ प्रकट कर दिया था। परन्तु आज जब उसने एक पड़ौसिन के मुँह से सुना कि शोभाराम की सगाई पक्की करने के लिए दूसरी जगह से नाई आ गया है, तब वह एकदम आपे से बाहर हो गई। दयाराम के पास जाकर उन्हें जी भर कर खरी-खोटी बातें सुना आने के लिए जोर से बड़बड़ाती हुई वह तुरन्त घर के बाहर निकल पड़ी। दौड़कर किशोरी ने झट से उसके हाथ पकड़ लिये । बोली - "कहाँ जाती हो माँ?"

कौसल्या ने अपने हाथ छुड़ाते हुये कहा - "छोड़ दे, जहाँ जाना होगा जाऊँगी; तुझे क्या ?"

लाड़-प्यार में पली एकमात्र लड़की होने के कारण किशोरी की वाणी में अधिकार का बल था। उसने अविचलित दृढ़ता के साथ कहा - "नहीं माँ, तुम्हें वहाँ मैं किसी तरह न जाने दूँगी। चलो, भीतर चलो।"

हल्ला-गुल्ला सुनकर पास के घरों के अनेक स्त्री-पुरुष आकर इकट्ठे हो गये थे। कौसल्या के भीतर जो उग्र नारी मूर्ति एकाएक उठ खड़ी हुई थी, वह भीड़ में से आई हुई 'क्या, कहाँ और क्यों' की चोटें क्षण भर के लिए भी न सह सकी। अपने दुःख कष्ट की बातें सबके सामने कहते-फिरने का अभ्यास उसे न था । इतने में ही उसके अन्तरात्मा ने अनुभव कर लिया कि बिना कुछ सोचे-समझे वह जिस काम के करने के लिए उठ कर चल पड़ी थी, उसे दूसरी स्त्रियाँ कर सकती हैं, परन्तु वह नहीं । एक स्त्री के यह कहने पर कि 'भीतर ले जा किशोरी, कहीं कुआ - बावड़ी में जाकर न गिर पड़े; ऐसे में विचार- बुद्धि मारी जाती हैं ' - वह और भी शिथिल पड़ गई। किशोरी ने भीड़ के प्रश्नों का उत्तर दिये बिना, माँ को भीतर ले जाकर खटाक से किवाड़ बन्द कर लिये ।

माँ एक जगह धम से बैठकर रोने लगी। उन्हें वहीं छोड़कर वह अँधेरे भण्डार-घर में जाकर रसोई की सामग्री ठीक करने लगी।

दो घण्टे बाद रसोई घर से निकलकर किशोरी ने कहा- "माँ, अब उठकर नहा लो, ठाकुर जी के भोग के लिए रसोई तैयार हो गई है। "

कौसल्या के आँसू इस समय तक सूख गये थे। लड़की को घर का सब काम यथा- पूर्व करते देखकर उसकी आँखें फिर भर आई। अपना कठोर आदेश सुनाकर किशोरी फिर रसोईघर में चली गई थी। माँ के उठने की कोई आहट न पाकर थोड़ी देर बाद उसने वहीं से फिर कहा - "माँ उठो, मुझे भूख लग रही है। ठाकुर पूजा होनी है।"

कौसल्या ने उत्तर दिया- "बिन्नी, ठाकुर पूजा आज तू कर ले। मेरा जी ठिकाने नहीं है, मैं फिर नहा लूँगी।"

किशोरी ने अभिमान भरे स्वर में कहा - " अच्छी बात है, जब तुम्हारा जी ठिकाने आ जाय, तब ठाकुर पूजा कर लेना। मुझसे तुम्हारे ठाकुर जी की - "

कहते-कहते कुंठित होकर वह स्वयं रुक गई। भगवान् के सम्बन्ध में कुछ कठोरता प्रदर्शित करके वह माँ को क्रुद्ध कर देना चाहती थी, परन्तु अपने अन्तरात्मा के विरुद्ध कुछ कहने जाकर अनुताप के भार से वह स्वयं ही दब गई। आज प्रातः काल से ही विषय क्रोध के कारण वह भीतर ही भीतर जल रही थी। जननी का व्याकुल रुदन उसे और भी खल रहा था। जिन लोगों ने निर्दयता पूर्वक माँ के कोमल हृदय पर इतना बड़ा आघात न कुछ बात के लिये कर डाला है, उन तक किसी तरह यह बात पहुँचा देने के लिए वह निरन्तर छटपटा रही थी कि तुम्हारी यह क्रूरता हमें अणुमात्र भी विचलित नहीं कर सकी। इसलिए आज वह भी स्वयं यह बात न जानती थी कि ग्रीष्म के उत्तप्त अकाश के किसी कोने में बरसा का मेघ भी अलक्षित भाव से किसी अवसर की प्रतीक्षा में छिपा बैठा है। ठाकुर पूजा के विरुद्ध कुछ कहने जाते ही उसके कपोलों पर से आँसुओं की बूँदें धीरे-धीरे बह चलीं। अपनी अशिष्टता के लिए मन-ही-मन गृह-देवता से क्षमा प्रार्थना करके बार- बार अपना माथा धरती पर टेकने लगी।

परन्तु माँ कुछ न समझ सकी कि लड़की क्या कहने जाकर क्यों रुक गई। थोड़ी देर बाद आँसुओं का चिह्न तक पोंछकर किशोरी धीरे- धीरे जाकर माँ के सामने खड़ी हो गई। नम्र स्वर से बोली - "माँ, गरम पानी ठण्डा हुआ जा रहा है, उठकर नहा लो। इस तरह बैठे-बैठे तबीयत और भी बिगड़ जायगी ॥"

सदैव सतेज वाणी में बोलने वाली लड़की का दीन कण्ठ माँ के हृदय में उस काँटे की तरह चुभ गया, जिसकी नोंक सूक्ष्म होती है। सिर ऊपर उठाते हुए उसने आकुल होकर कहा - " बिन्नी, चिन्ता न कर; जमराज भी मेरा कुछ नहीं कर सकते। परन्तु तनिक तू तो मेरे यहाँ आकर बैठ, मेरा जी न जानें कैसा हो रहा है।"

किशोरी इस समय माँ से दूर दूर रहना चाहती थी । सन्देह ही सन्देह के आधार पर उसके ऊपर जो इतना बड़ा अत्याचार कर डाला गया है, उसकी चर्चा की साया भी उसे अस्पृश्य जान पड़ रही थी। परन्तु वह माँ की बात न टाल सकी। निर्वाक्, निस्पन्द होकर कठोर मूर्ति की भाँति उसके सामने जाकर बैठ गई। वह अपनी माँ के ऊपर शासन - कारिणी तो थी; परन्तु उस एकान्त भक्त की ही भाँति, जो अपने इष्ट देवता से निरन्तर काम लेकर भी उनकी अनुज्ञा के बाहर एक पग भी नहीं चल सकता ।

माँ ने कहा - " बिन्नी, तूने मुझे वहाँ जाने क्यों नहीं दिया? क्या मैं ऐसी लड़की हूँ कि उनसे लड़ने के सिवा दूसरी बात ही न करती? वे चाहे जैसे हों; परन्तु यह नहीं हो सकता कि एक माँ के हृदय के दुःख को जान कर भी उन्हें दया न आती ।"

इस दया भिक्षा की बात से किशोरी का जी फिर जल उठा। यथासाध्य अपने को संयम में रखकर उसने कहा - "नहीं माँ, तुम लड़की नहीं हो । होती तो तुम्हारे विरुद्ध कभी कोई कुछ कर न सकता। परन्तु मैं किसी के सामने जाकर तुम्हें हाथ न पसारने दूँगी।"

इतने में ही अपनी बात समाप्त करके लड़की को उठते देखकर कौसल्या ने प्यार से उसे मानाते हुए कहा- "नहीं बिन्नी, यह लड़कपन ठीक नहीं है। क्या तू अपनी दुखिया माँ के पास दो घड़ी भी भी जमकर नहीं बैठ सकती? अकेले में मेरा जी और ज्यादा घबराता है।"

"अच्छी बात है, तुम्हारा जी न घबरावे, मैं यहीं बैठी रहूँगी"- कहकर किशोरी माँ से कुछ दूर तिरछी ओर मुँह करके फिर बैठ गई । कौसल्या ने कहा – “तू मुझे किसी के सामने जाकर हाथ नहीं पसारने देना चाहती। परन्तु उनके सामने जाकर कुछ कहने में क्या बुराई है, जिन्हें मैंने अपनी छाती का धन सौंपने का संकल्प कर लिया था?"

किशोरी चुपचाप बैठी सुनती रही। माँ समझ न सकी कि लड़की का यह मौन अभिमान मूलक है या सम्मति-सूचक । बोली - "हाँ, तो क्या कहती है बिन्नी ?"

किशोरी एकाएक उठ खड़ी होकर तीक्ष्ण स्वर में कहने लगी-" इस तरह 'बिन्नी - बिन्नी' करने से तुम्हारी घबराहट जनम भर दूर न हो सकेगी माँ। मैंने कह दिया कि तुम यदि किसी के यहाँ कुछ कहने जाओगी तो मैं पत्थर पर सिर पटक कर मर जाऊँगी।"

कौसल्या को दयाराम के पास जाकर कुछ कहने के लिए अपने भीतर से स्वयं कुछ बल नहीं मिल रहा था । कदाचित् इसीलिए वह लड़की से हाँमी भरवाकर अपनी उस कमी को पूरा कर लेना चाहती थी। परन्तु उसके इस विद्रोहाचरण से सहसा भड़ककर वह जोर से बोल उठी- " मर जा अभागी मरजा ! उस दिन भीड़ में वहीं कुचल कर मर जाती तो आज यह दिन क्यों देखना पड़ता?"

झट से माँ की ओर लौटकर उसकी आँखों में अपनी आँखें मिलाते हुए किशोरी ने दर्पोज्वल मुख से कहा- "सच कहती हो माँ? यदि तुम्हें इससे सुख मिले तो यह कुछ बहुत बड़ी बात नहीं।"

माँ की बुद्धि अपने आपे में न थी। उसने चिल्लाकर कहा - " बड़ी मरने वाली आई। ऐसी होती तो दूसरों के मुँह से ऐसी बुरी बतों सुनने के लिए न बैठी रहती । हट, दूर हो; जा मेरे सामने से ! "

किशोरी की चेष्टा निर्विकार होकर शान्त हो गई थी। उसने अकम्पित स्वर में कहा- " अच्छी बात है माँ, ऐसा ही होगा। मैंने रसोई तैयार कर रक्खी है, तुम नहा-धोकर, पूजा करके एक बार मेरे हाथ के खा लो; फिर तुम जो कह रही हो उसे पूरा करने में मैं पीछे न हटूंगी। मैं जानती हूँ, मेरे बाद तुम भी न बचोगी। परन्तु उस समय तुम्हारे जी को किसी तरह का खुटका नहीं रहेगा, यही मुझे सन्तोष है।"

किशोरी का शान्त कथन सुनकर कौसल्या का क्रोध एक क्षण में ही ठण्डा हो गया। घबराकर लड़की को अपनी ओर खींचकर उसने छाती से लगा लिया । अश्रु-रुद्ध अस्फुट वाणी से बोली - "बिन्नी, ऐसी बातें अपनी दुखिया माँ को न सुना। ऐसे में तू भी मेरी बात न बुरा मानेगी तो फिर मुझे ठौर कहाँ मिलेगा। "

माँ को रोते देख किशोरी भी रो पड़ी। बोली - "नहीं माँ, तुम्हारी बात का मुझे बुरा नहीं लगा। माँ के जी का दुःख दूर करने के लिए ऐसी अभागी लड़की कौन होगी जो सब कुछ करने के लिए तैयार न हो जाय? परन्तु जिनका हृदय पत्थर का है, उनके सामने हाथ पसारकर तुम भीख माँगने जाओं, मैं यह नहीं देख सकती।"

माँ ने कहा- "नहीं बिन्नी, इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। लल्ला के साथ मैंने तेरी सगाई ही पक्की नहीं की है, वरन् मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मैंने उनके हाथ में तेरा हाथ भी सौंप दिया है। न जानें कितनी बार मन-ही-मन मैं तुम दोनों को एक साथ घर गिरस्थी चलाकर सुखी होते देख चुकी हूँ। वे लोग कोई अपने दूसरे नहीं हैं । पत्थर के हृदय के हों या और चाहे जैसे, हैं तो अपने ही। एक बार फिर प्राण-पण से चेष्टा कर लेने में बुराई नहीं है। "

किशोरी स्तब्ध होकर सुनती रही। थोड़ी देर बाद धक्का देकर मानो उस स्तब्धता को तोड़ती हुई एकाएक बोल उठी-"माँ, मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, नहाकर पहले ठाकुर पूजा कर लो, फिर जो होना होगा हो जायगा। देखों, धूप जलघरे पर आकर लौट गई है। तुमने मुझे छू लिया, मैं तो पूजा कर नहीं सकती; तुम्हीं को उठना पड़ेगा।"

हिन्दू - माता चिरकाल से अपनी कन्या को गौरी और दुर्गा के रूप में प्रसव करती आई है। इसलिए लड़की के पैर पड़ेने की बात सुनकर कौसल्या व्यतिव्यस्त होकर बोल उठी-"पैर पकड़कर बिन्नी, मुझे नरक की ओर क्यों ठेलती है? मेरी तबीयत देर से खाने में बिगड़ जायगी, इस डर से ही तू बार-बार पूजा कर लेने के लिए कह रही है; परन्तु इस अभागे शरीर का साक्षात् यम भी कुछ नहीं कर सकता और आज ठाकुर जी को भी तो मालूम हो जाय कि अभागी माँ-बेटियों के ऊपर कुछ संकट है। "

"किशोरी ! किशोरी द्वार तो खोल !"

कौसल्या ने कहा- "देख तो बिन्नी, कोई बुला रहा है।"

ऐसे में किसी का आना किशोरी को अच्छा नहीं जान पड़ा था, इसलिए उसने आवाज सुनकर भी अनसुनी कर देनी चाही थी। माँ की बात सुनकर - "दुबे मामा हैं" - कहकर अनिच्छापूर्वक उठकर किवाड़ खोलने के लिए चली गई।

हरिराम को देखकर कौसल्या फिर रो पड़ी। आज उसके हृदय का समस्त रक्त पानी बनकर क्षण-क्षण में आँखों से निकल पड़ता था । उसे आग से उत्तप्त होकर उफनते हुए दूध की तरह यह सोचने का अवकाश न था कि पात्र के बाहर चारों ओर भी आग का ही उत्ताप है, पानी की शीतलता नहीं। वह बोली - "भैया, आज मुझे तुम्हारी ही याद आ रही थी कि ऐसे में क्या तुम भी मेरी खबर न लोगे?"

हरिराम ने हँसते हुए कहा- "बेंन, मैं बाहर गया हुआ था, इसी से इस बीच में न आ सका। मुझे भी किशोरी के सम्बन्ध की उधेड़बुन के मारे रात में नींद नहीं आती थी। परन्तु भगवान सबका सुभीता लगाने वाले हैं। अब चिन्ता की कोई बात नहीं है। जान पड़ता है, अभी तक तुमने खाया पिया नहीं है। उठकर निश्चिन्त होकर अब तुम खाओ- पियो । मैंने सब ठीक-ठाक कर लिया है।"

मेघों से भरे अँधेरे आकाश में बिजली की ज्योति की भाँति आनन्द की एक उज्ज्वल आभा एकाएक कौसल्या के मुख के ऊपर दौड़ गई। उत्सुक होकर उसने पूछा - " तो क्या दयाराम लाला राजी हो गये?"

हरिराम ने मुँह बिगाड़कर कहा - " दयाराम क्या राजी होगा? वह तो ऐसा रुखा आदमी है किसका सब धर्म-कर्म और पूजा-पाठ पैसे को छोड़कर और कुछ नहीं है। उससे बात करने का भी धर्म है? उस दिन उसने मुझे ऐसी बुरी तरह जवाब दे दिया कि मैं तो अब उसकी सूरत भी न देखूँगा। बालू में से तेल निकालने जाना और उससे कुछ आशा करना दोनों बराबर हैं।"

कौसल्या ने शंकित होकर पूछा - "तो क्या पार्वती या लल्ला ने कुछ—”

हरिराम अब जोर से हँस पड़ा। बोला - "बेंन, तुम भी बड़ी भोली हो। अरे, जैसा नदी-नाला, वैसे ही उसके भरके ! पार्वती या शोभू क्या कर सकते हैं, जब दयाराम ही कोई बात नहीं सुनना चाहता?"

कौसल्या की प्रसन्नता एक क्षणा में ही मुरझा कर सूख गई। वह कोई प्रश्न भी न कर सकी। हरिराम ने कहा - " मैंने तुमसे बेहटा के जिस लड़के के सम्बन्ध में कहा था, वह विवाह के लिए तैयार है। मैंने जन्म - पत्र मिला लिया है, मिलाप ऐसा मिला है, मानो भगवान् ने उसी के लिए किशोरी को पैदा किया हो। अवस्था भी उसकी पैंतीस से अधिक नहीं है, छत्तीसवीं साल ही चल रही है। घर कैसा है, इसका कहना ही क्या? तुम्हें डर था कि अब किशोरी का क्या होगा। मैंने उसी समय तुमसे कह न दिया था कि हरिराम के जीते जी तुम इसकी चिन्ता न करो। किशोरी के बप्पा घर का सब भार मेरे ऊपर ही तो छोड़ गये थे। मुझसे जो कुछ हो सकता है, मैं उससे पीछे पैर न दूँगा।"

उद्धार का ऐसा अचिन्तित मार्ग सामने खुला देखकर भी कौसल्या जड़ - मूर्तिवत् जैसी-की-तैसी बैठी रह गई । क्षण भर के लिए उसके हृदय की गति भी रुक सी गई; कदाचित् इस डर से कि खुला पथ देखकर बिना समझे- बुझे वह उस पर कहीं दो डग चल न पड़े। हरिराम जानता था कि ऐसा ही कुछ होगा फिर भी उसे चिढ़ पैदा हुई । क्षुण्ण होकर बोला – “बेंन, तुम्हें तो रोने-धोने से अवकाश ही नहीं हैं; इसलिए तुम नहीं जानती कि गाँव में दस आदमियों के सामने मुझे अपना सिर किस तरह नीचा करना पड़ता है। यदि किसी जगह किशोरी का सम्बन्ध झट- से नहीं हो जाता तो गाँव के कोरी चमार भी अपने हाथ का पानी ग्रहण न करेंगे। मैंने बेहटा वालों को वचन दे दिया है कि सगाई परसों पक्की होगी और उतरते फागुन फागुन में विवाह।"

कौसल्या ने कहा- "भैया, इतनी जल्दी क्यों करते हो? दो दिन पीछे यह सब हो सकता है। दयाराम लाला से - "

हरिराम बीच में ही बिगड़कर बोल उठा - " बस, तुम तो दयाराम- दयाराम की रट लगाये हो। मैं कह चुका हूँ कि तुम्हें मैं पत्थर के ऊपर सिर न पटकने दूँगा। पत्थर पर सिर पटकने से उसका तो कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, टूटती है अपनी खोपड़ी। मैं देता कहे हूँ, अब यह सम्बन्ध किसी तरह टल नहीं सकता। ओ किशोरी, कहाँ गई ? अच्छी बिटिया है, माँ को अब तक खिलाने-पिलाने की सुध ही नहीं है इसे । उठो न, उठो; इस तरह दिन भर उपवास करने से काम न चलेगा।"

हरिराम के आते ही किशोरी चुपचाप भीतर चली गई थी। गाँव के विरोधी दल का सामना हरिराम जिस तरह कर रहा था, वह उससे छिपा न था । इसलिए जब उसने गाँव वालों के सामने अपना सिर नीचा होने के बात माँ से कही, तब उसकी आत्मीयता के आगे श्रद्धा से उसका मस्तक झुक गया। उसके प्रति माँ के अयथोचित बर्ताव से वह अप्रसन्न हो रही थी । दयाराम के क्रूर व्यवहार के कारण वह जो अपना क्षोभ प्रकट कर रहा था, उसमें उसको अपने जी का ही प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा था । यदि संस्कार जनित संकोच बीच में बाधक न होता तो कदाचित् वह माँ के पास आकर यह कहने से किसी प्रकार न रुकती कि माँ, मामा जो कह रहे हैं, वह ठीक है। फिर भी हरिराम से पुकारी जाकर वह भीतर न रह सकी। परन्तु पास आकर उसके कुछ कहने के पहले ही कौसल्या उठकर कह उठी- "बिन्नी गरम पानी ले आ।"

नहाने के लिए माँ के इस तरह बिना और कुछ कहे सुने एकाएक उठ पड़ने में हरिराम का जो अनादर प्रच्छन्न था, किशोरी को वह असह्य जान पड़ने लगा। उसकी समझ में न आया कि क्या कहकर वह माँ के इस व्यवहार को क्ष्म्य और सरस कर दे। परन्तु हरिराम ने कौसल्या के उठने पर अपना हर्ष प्रकट करके जब सन्ध्या समय फिर आने की बात कही तब उसने आराम की साँस ली और उसे ऐसा जान पड़ा कि संसार में केवल एक यही व्यक्ति है जो भाई की तरह उसके समस्त अपराध सह कर भुला दे सकता है।

गोद (उपन्यास) : अध्याय-6

राष्ट्रों के पारस्परिक युद्ध-विग्रह आदि में जो काम अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति- लब्ध राजनीतिज्ञ करते हैं, वही काम साधारण ग्राम वासियों द्वारा उनके निजी क्षेत्रों में प्रतिदिन अनायास ही होता रहता है। अर्थात् यह बात जानने के लिए उन्हें विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता है कि कौन सम्वाद किस आवश्यक परिशोधन परिवर्द्धन के साथ कहाँ किस तरह पहुँचना चाहिए। अतएव शोभाराम तक यह समाचार तार- समाचार की गति से ही पहुँच गया कि लड़की का विवाह सम्बन्ध विच्छेद हो जाने की बात को लेकर आज कौसल्या कुएँ में गिरने जा रही थी, यदि किशोरी अपनी माँ को बीच से ही पकड़ ले जाकर घर के भीतर बन्द न कर देती तो यह अभिनय बहुत दूर तक चलता।

शोभाराम को जहाँ यह सोचकर हँसी आई कि स्त्रियाँ मृत्यु को कितना सहज और सरल समझती हैं, वहाँ इस विचार से क्रोध भी कम नहीं हुआ कि दादा की धर्म भीरुता को उत्तेजित करके अपना काम करा लेने के लिए ही यह कुत्सित षड्यंत्र रचा होगा। अब इस सम्बन्ध में भौजी का मतामत क्या है, यह जानने के लिए उसका जी अधीर हो उठा । परन्तु बड़ों के साथ विवाह विषयक बातचीत करना उसे दूसरों की धर्म-संगत सीमा पर आक्रमण करने के समान जान पड़ता था । इसलिए जिस तरह जिन दिनों बरसा का जल नहीं मिलता, उन दिनों खेतों के पौधे ओस की बूँदों से ही जीवन रस ले लेते हैं, उसी तरह उसने इस विषय में वंसा से बातचीत कर लेनी चाही। नौकर है तो क्या वह भी तो घर का एक अंग है !

उसे एकान्त में पाकर उसने पूछा - " दूसरी जगह का नाई आ जाने की बात सुनकर क्या भौजी बहुत सुस्त पड़ गई थीं?"

वंसा ने कहा- "नहीं, सुस्त क्यों पडेंगी? उसके लिए पूड़ी और मोहनभोग तो उन्होंने बनाया था। परन्तु मोहनभोग पूड़ी के साथ अच्छा नहीं लगता, उसे तो अकेला ही खाना चाहिए।"

शोभाराम इस समय रसना - शास्त्र की गम्भीर बातों पर विचार करने के लिए तैयार न था । उसने अपनी बात जारी रक्खी - " तो तुझे अच्छी तरह याद है, उन्हें इस नाई के आने का बुरा नहीं लगा ?"

वंसा झटपट बोल उठा-" हाँ-हाँ, उन्हें एक बात का बुरा लगा है। कहती थीं— 'हमें बारात में ले जाने के लिए कौन पूछेगा ?'-"

"नहीं वंसा, उन्होंने यह बात न कही होगी । तुझे मालूम नहीं है, भौजी नहीं चाहती कि मेरी पहली सगाई टूटे। उन्होंने और कोई बात कही होगी। "

पार्वती की असहमति की बात सुनकर वंसा का उत्साह ढीला पड़ गया। बोला- “इतने बड़े घर का सम्बन्ध भी कक्की को पसन्द नहीं है !"

"बड़े या छोटे घर की बात नहीं है। वे कहती हैं, जब एक जगह वचन दिया जा चुका है तब उसे तोड़ना ठीक नहीं।"

इस तर्क की निस्सारता समझकर वंसा का उत्साह फिर बढ़ गया। झट से वह बोल उठा - "भला यह भी कोई बात है! कोई रोटी खा रहा हो और उसके सामने मोहनभोग आ जाय तो क्या वह उसके लिए रोटी छोड़ न देगा?"

शोभाराम के पास इस तर्क का उत्तर था, परन्तु उसने विषयान्तर नहीं होने दिया । बोला- "और हाँ, वचन दूसरी जगह भी तो दिया जा चुका है। अब एक न एक वचन तो तोड़ना ही पड़ेगा।"

वंसा ने प्रसन्न होकर छाती पर अपना हाथ रखते हुए कहा – “कक्क़ी को मैं मना लूँगा! सच मानो भैया, वे मेरी बात मानती हैं ।"

शोभाराम ने सूखी हँसी हँसकर कहा - "तू उन्हें क्या मना लेगा, समझ में तो मेरी नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ?"

वंसा सहसा गम्भीर हो गया। बोला- " तो इसमें इतना घबराने की क्या बात है ? तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आ रहा है तो तुम कक्की के पास जाकर उनसे पूछ लो कि मैं क्या करूँ। उनसे अच्छी सलाह और कौन दे सकता है?"

शोभाराम उसकी बात हँसी में न उड़ा सका। वंसा के सरल विश्वास ने उसकी समस्या अनायास ही सुलझा दी। उसे जान पड़ा कि अन्धकार से भरे हुए उसके अन्तःकरण में सहसा किसी ने घी का दीपक जला दिया है, जिसमें आवश्यक प्रकाश के साथ विशुद्धता भी है। उसने तुरन्त ही निश्चय कर लिया कि मैं इस सम्बन्ध में सब संकोच छोड़ भौजी से बात करूँगी। सचमुच भौजी से अच्छी सलाह उसे और कौन दे सकता है?"

गोद (उपन्यास) : अध्याय-7

सोना गङ्गादीन तिवारी की लड़की है। छोटी अवस्था में ही विधाता ने उसके माथे का सौभाग्य- सिन्दूर, स्लेट पर लिखे गये लेख की तरह लिखने के अनन्तर ही मिटा दिया था। तब से वह अधिकतर मायके में ही पिता के गम्भीर स्नेह के साथ रह रही है। इन दिनों कार्यवश ससुराल गई थी, लौटकर उसने किशोरी के विवाह विच्छेद को बात सुनी। सुनकर उसे बहुत बुरा मालूम हुआ । किशोरी के ऊपर उसे बहुत ममता थी। उन दोनों के खेत ही परस्पर मिले हुए न थे, मन भी एक दूसरे के बहुत निकट थे।

उसने कहा- "बप्पा, यह तो बहुत बुरी बात है । यदि शोभू का विवाह दूसरी जगह हो गया तो किशोरी को जनम भर के लिये कलङ्क लग जायगा।"

"सो तो है ही, सो तो है ही" - कहकर उठकर बाहर जाने को उद्यत हुए।

सोना बोली - " तो तुम दयाराम दादा के पास जाकर उन्हें ऐसा करने से रोक दो ।"

गङ्गादीन निरूपाय होकर अपनी जगह पर फिर बैठ गये । बोले- " रोक तो दूँ बेटी, परन्तु आजकल के लड़के अपने बड़ों बूढ़ों की बात सुनते कब हैं।"

सोना ने पूछा - " तुमने उन्हें रोका था बप्पा?"

गङ्गादीन को इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन हो गया। इस शुद्धाचारिणी लड़की के सामने उनका मन स्नेह रस से घुल कर कुछ- का कुछ हो जाता था। इसलिए वे कुछ अन्यथा न कह सके। उन्होंने कहा - "नहीं बेटी, मैंने उन्हें नहीं रोका। और मैं रोकता भी तो वे मानते नहीं। जहाँ दूसरी सगाई हो रही है, वह बहुत बड़ा घर है और घर में है अकेली लड़की लड़की क्या है, लक्ष्मी है। ऐसा सम्बन्ध एक तो मिलता ही बड़े भाग से है; और जब मिल जाता है तब ऐसा कौन है जो उसे अपने आप छोड़ दे।"

सोना का मन दयाराम के प्रति और भी क्षुब्ध हो उठा। परन्तु क्षोभ के साथ सन्तोष की एक उज्ज्वल रेखा भी उसे दूसरी ओर आती दिखाई दी। यह सोचकर उसे प्रसन्नता हुई कि दयाराम किशोरी वाला सम्बन्ध उसकी कुत्सा के कारण नहीं छोड़ रहे हैं, इसमें धन का लोभ ही प्रधान है ।

कुछ देर मौन रहकर उसने कहा- " तो मैं तनिक पार्वती भैजी के पास हो आऊँ।"

गङ्गादीन समझ रहे थे कि उन्हें इसी समय दयाराम के पास जाना पड़ेगा। इसलिए लड़की की इस बात से उन्हें उस अभियुक्त की भाँति आनन्द हुआ, जिसे न्यायालय की बैठक तक ही बैठे रहने का दण्ड सुनाकर छुटकारा दे दिया जाता है। अतिरिक्त आह्लाद के साथ वे बोल उठे -" हाँ-हाँ बेटी, तुम बहू के पास अवश्य हो आओ। इस सम्बन्ध में उन्हीं से कुछ कहना अधिक अच्छा होगा; वे साक्षात् लक्ष्मी हैं!"

गङ्गादीन ने मुँह से तो पार्वती के लिए लक्ष्मी कहा, परन्तु उनका हृदय अपनी लड़की के लिए यह कह रहा था ।

किसी को खिलाने-पिलाने में पार्वती को सदैव बहुत सुख मिलता था, परन्तु आज सगाई के लिए आये हुए नाई को खिला-पिला चुकने के अनन्तर उसे बहुत क्लान्ति का अनुभव हुआ । सोने के घर में जाकर नीचे बिछी हुई चटाई पर वह लेटी ही थी, इतने में आँगन में से सुनाई दिया - "भौजी, क्या कर रही हो?"

भीतर से पार्वती ने उत्तर दिया- "कौन हैं, सोना बाई! आई मैं।"

कमरे से निकलकर पार्वती ने कहा- " बैठो बाई, कब आई? फिर झुकर उसके पैर छुए और अपने दोनों हाथ माथे से लगा लिये। सोना ने हँसकर बैठते हुए कहा - " अच्छा भौजी, तीर्थ करके आई हो । हाँ, मैं आज ही आई हूँ। तुम अच्छी तरह तो रहीं ?"

पार्वती थोड़े में अपना यात्रा- वृत्तान्त सुनाने लगी। मेला की भीड़ का प्रसंग आने पर सोना ने पूछा - " अच्छा भौजी, उस भीड़ में तुम खो जातीं तो दादा तुम्हें घर में न घुसने देते?"

पार्वती ने भी अपने स्वामी से कुछ इसी ढंग का प्रश्न किया था । दयाराम का अनुत्तर इस समय उसे फिर खटक गया। कुछ अस्वाभाविक स्वर में उसके मुँह से निकल पड़ा-" घुसने ही न देते, और क्या?"

सोना अपने उस प्रश्न के ऊपर बहुत भरोसा किये बैठी थी । पार्वती के उत्तर से वह चिढ़ गई। उसने समझा, मैं इन्हें जैसा समझे थी, ये वैसी भोली नहीं हैं; किशोरी के सम्बन्ध की चर्चा में ये किसी पकड़ में नहीं आना चाहतीं। वह बोली - "रहने दो भौजी, मुझे क्या सिखाती हो? मैं समझे थी, किशोरी का सम्बन्ध तोड़ने में तुम्हारी सलाह न होगी । परन्तु अब मालूम हो गया असल में बात क्या है।"

पार्वती का चेहरा पीला पड़ गया। सोना ने फिर कहा - "अच्छा भौजी, सच-सच कहो तुमने दादा को यह सम्बन्ध तोड़ने से रोका था?"

पार्वती ने अपराधी की भाँति सिर झुकाये हुए कहा - "रोका था ।"

"हाँ, मैंने भी सुना है कि तुमने रोका था। गाँव में सब कोई कह रहे हैं, तुम तो लक्ष्मी हो। धन के लोभ में पड़कर तुम किसी दूसरे की हत्या नहीं कर सकतीं।"

इस सम्बन्ध में जब-जब पार्वती अपनी प्रशंसा सुनती थी, तब-तब उसे ऐसा जान पड़ता था कि उसके स्वामी की कुत्सा की जा रही है। बड़े कष्ट के साथ ही वह अपनी जगह जैसी-की-तैसी बैठी रह सकी । सोना ने कहा - " तो तुम दादा को फिर अच्छी तरह रोक दो। भौजी, रुपया-पैसा कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। भगवान् ने तुम्हें भी सब तरह से माना है। एक जगह का बना बनाया सम्बन्ध तोड़कर यह जो दूसरी जगह से अकृत का पैसा लाया जायगा, वह घर के घर का सत्यानाश कर देगा। दादा कसाईपन का यह काम कैसे कर रहे हैं, यह मेरी समझ में नहीं आता। भौजी, तुम्हारी बड़ाई तब है, जब तुम इस काम से उन्हें रोक दो नहीं तो कोई उनके नाम पर -

पार्वती एकाएक उठकर खड़ी हो गई। क्रोध में भरकर बोली - "लो बाई, अब तुम जाओ। तुम्हारे लिए उनका काम कसाईपन का हो या और चाहे जो कुछ, मेरे लिए तो जो वे करते हैं, वही ठीक है। बस, अब इस सम्बन्ध में मैं और कुछ नहीं कहना चाहती।"

सोना अवाक् रह गई। अचानक इस उल्कापात के लिए वह तैयार न थी। पार्वती भी कभी ऐसा कर सकती है, यह उसने स्वप्न में भी न सोचा था। कुछ क्षण स्तब्ध रहकर उसने कहा- "मुझे तो पहले ही सन्देह था कि तुम्हारे मन में क्या है। इस तरह बिगड़ती क्यों हो? लो, मैं न आऊँगी अब तुम्हारे यहाँ ।"

बिना कुछ उत्तर दिये झपाटे के साथ कमरे के भीतर जाकर पार्वती ने धड़ाक से किवाड़ बन्द कर लिये ।

गोद (उपन्यास) : अध्याय-8

दूसरे दिन सबेरे नहा-धोकर पार्वती गृह-देवता की पूजा पर बैठी थी, इतने में शोभाराम ने आकर कहा- "भौजी, आज मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ ।" कहकर वह गृह- मन्दिर के चबूतरे के नीचे बैठ गया। पार्वती ने उसकी ओर मुँह करके पूछा - "क्या लल्ला ?"

शोभाराम चुपचाप नीचा मुँह किये बैठा रहा । एकाएक उसकी समझ में न आया कि वह किस प्रकार आगे की बात कहे। वह जिस वातावरण में बड़ा हुआ था उसमें अपने मुँह से अपने विवाह की चर्चा बड़ों के आगे करने के बराबर दूसरी धृष्टता न समझी जाती थी। अपने हिताहित के इतने बड़े प्रश्न को किसी संकोच के बिना गुरुजनों के हाथ में सौंप देने में उसे भी किसी तरह की हिचकिचाहट न थी। परन्तु इस समय स्थिति ऐसी थी कि स्पष्ट बातचीत के बिना काम भी चलता नहीं दीखता था। कुछ ठहरकर सिर नीचा किये हुए ही उसने कहा- "मैं तुम्हारी आज्ञा लेने आया हूँ ।"

किस सम्बन्ध में कैसी आज्ञा लेने आया है, वह यह बात फिर भी न कह सका। उसकी कठिनाई दूर करने के लिए पार्वती ने पूछा - " क्या सगाई - सम्बन्ध के विषय में कोई बात है?"

शोभाराम ने कहा -“हाँ, इस विषय में तुम मुझे जो आज्ञा दो, मैं वही करने के लिए तैयार हूँ।"

पार्वती को सोना के साथ की गई वह बात याद आ गई, जिसे सुनकर कल वह अस्वाभाविक रूप से बिगड़ उठी थी। उस स्वामि- निन्दा में और इसमें अनतर इतना ही था कि वह सामने के प्रवेश-द्वार से भीतर घुसी थी और यह पीछे से चोर की तरह सेंध काटकर । परन्तु अपने उस व्यवहार के कारण पीछे से उसे बहुत लज्जा प्रतीत हुई थी, इसलिए इस समय अपने को संयत करने का प्रयत्न करके उसने कहा - "तो क्या तुम्हें अपने दादा के ऊपर विश्वास नहीं है। "

यह जानकर शोभाराम को दुःख हुआ कि अपनी बात से उसने भौजी के जी को ठेस पहुँचाई है। लज्जित होकर उसने कहा- "नहीं भौजी, मैं दादा के ऊपर विश्वास न करूँगा तो किस पर करूँगा? परन्तु मैं तुमसे यह इसलिए पूछ रहा हूँ कि भूल तो बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों से हो जाती है। यदि दूसरी जगह सम्बन्ध करना अनुचित हो तो अभी बिगड़ा कुछ नहीं है। तुम कहो तो मैं अभी पिरथीपुर के नाई को धक्का देकर निकाल दूँ।"

पार्वती ने कहा - " राम राम! ऐसा करना भले आदमियों का काम नहीं है लल्ला । "

शोभाराम ने हंसकर कहा - "मैं इतना गँवार नहीं हूँ भौजी कि ऐसा कर ही बैठूं। किसी को टरकाना है तो उसके बीस उपाय निकल आ सकते हैं। उसे न खिसकाया, मैं ही कहीं खिसक गया, क्या तब भी वह यहीं अड़ा रहेगा। परन्तु - "

"परन्तु क्या ?"

“यही कि इससे दादा को दुःख बहुत होगा । और भौजी, तुम यहाँ के आदमियों को नहीं जानतीं। वे लोग यह कहेंगे कि हम लोग पिरथीपुर वालों की बराबरी के नहीं हैं, इसलिए अपने यहाँ सम्बन्ध करना उन्होंने स्वयं ही उचित नहीं समझा। नाई को उन्होंने हाल चाल लेने के लिए भेजा था। तो हाँ, इस सम्बन्ध में तुम मुझे क्या करने के लिए कहती हो?"

"इस सम्बन्ध में मैं क्या कह सकती हूँ? होगा वह जो तुम्हारे दादा कर रहे हैं।"

"नहीं भौजी, तुम जो चाहोगी वही होगा, यह मेरा निश्चय है। हाँ, यहाँ वाली की ऐसी बदनामी फैल गई है-"

पार्वती ने एकाएक कठोर पड़कर कहा - "छि: लल्ला ! जिस बात का प्रमाण न हो उसे किसी लड़की के सम्बन्ध में ध्यान में भी न आने- देना चाहिए।"

एक अकथनीय आनन्द से शोभाराम का सारा शरीर कण्टकित हो गया। किसी की निर्दोषता में भौजी का इतना अटल विश्वास है ! थोड़ी देर तक चुप रहने के अनन्तर इसने कहा- "माफ करो भौजी, मुझसे भूल हुई। मैं एक बार दादा की आज्ञा न भी मानूँ, परन्तु तुम्हारी बात नहीं टाल सकता। तुम तो मुझसे साफ-साफ कह दो, पिरथीपुर की सगाई होगी या नहीं?"

"होगी।"

शोभाराम चकित होकर रह गया। वह भौजी की मनोवृत्ति जानता था और तैयार होकर आया था कि उनकी इच्छा पूरी करने के लिए आज वह दादा की भी परवा न करेगा। पार्वती की आज्ञा से वह समस्या इतनी आसानी से सुलझ गई, फिर भी ऐसे साहसिक कार्य का अवसर हाथ से निकल जाने या और किसी गूढ़ हेतु से उसका हृदय सन्तुष्ट न हो सका। उसे अपने ऊपर क्रोध आया कि निर्लज्ज की तरह अपने पक्ष में इतनी बाते क्यों कह गया। दो शब्दों में तो काम निकलता था, भौजी क्या आज्ञा है? बोला - "दादा को तो तुमने दूसरी जगह सगाई करने के लिए रोका था, फिर अब यह कैसी बात है? मैं जो इतनी बातें कह गया, उन पर तुम कुछ विचार न करो। तुम जो आज्ञा दोगी उसे करते हुए मुझे कुछ भी संकोच न होगा। हाँ, तो फिर से कहो भौजी तुम्हारी क्या आज्ञा है?"

"लल्ला, इस सम्बन्ध में मेरी आज्ञा की कोई आवश्यकता न थी । फिर भी मैं कह तो चुकी हूँ कि तुम्हारे दादा जो कर रहे हैं वही ठीक है। मेरे भरपूर विरोध करने पर भी जब उन्होंने दूसरी जगह बात पक्की कर दी, तब वही होना चाहिए। इससे अधिक और मैं कुछ नहीं जानती । "

"विवाह का मूल्य क्या है, यह मैं नहीं जानता। तुम्हारी आज्ञा है इसीलिए यह विवाह है। तुम जो आज्ञा दो, उसके पालन का बल भगवान् मुझे सदैव दिये रहें; मैं यही चाहता हूँ।" कहकर शोभाराम उठ खड़ा हुआ ।

झट से दूसरी ओर मुँह फेरकर पार्वती पूजा का पञ्चपात्र इधर से उधर रखने लगी। कदाचित् उसकी आँखों में आँसू थे ।

सामने आये हुए अनेक झगड़े-झँझटों को पार करके उसी दिन सन्ध्या समय शोभाराम की सगाई का दूसरा वाचन विधिपूर्वक हो गया।

गोद (उपन्यास) : अध्याय-9

हरिराम ने कौसल्या के पास जाकर कहा - "बेंन, किशोरी का सम्बन्ध पक्का करने के लिए नाई को बेहटा भेज दिया जाय या दयाराम से अब भी आशा है?"

कौसल्या ने धीमे स्वर में कहा - " जैसा जानो, वैस करो भैया । परन्तु — "

वाक्य में 'परन्तु' अपने पूर्वांश के प्रति विद्रोही होकर आता है; उसका विद्रोह चाहे जितना कोमल हो, है तो विद्रोही । इसलिए उसे बीच से ही काटते हुए हरिराम बोल उठा - "इधर तो तुम 'जैसा जानो, वैसा करो' कह रही हो और उधर 'परन्तु' भी लगाती जाती हो । अच्छा, कह डालो, 'परन्तु' क्या? क्या दयाराम अब शोधू को पिरथीपुर, की लड़की भी व्यह देंगे और तुम्हारे यहाँ भी बारात ले आयेंगे?"

कौसल्या की आँखों में आँसू छलक पड़े। उसने कहा - " वे बारात अपने यहाँ नहीं लायेंगे, इसलिए इसी में भला है कि तुम अपनी बहन और भानजी का गला घोंट डालो !"

इस गाँव में हरिराम अपनी ससुराल में रह रहा है; घर उसका कौसल्या के मायके में है। इसी सम्बन्ध से वह उसे बहन कहता है और यथा-सम्भव तदनुरूप व्यवहार भी करता है। कौसल्या के इन आँसुओं ने उसके वचन की कठोरता हरिराम के निकट न कुछ कर दी। उसकी बात हँसी में लेते हुए वह बोला - " भानजी तो परायी धरोहर है। उसे राजी-खुशी अपने घर चले जाने दो, फिर तुम्हारा गला घोंट डालने में कुछ हर्ज न होगा। क्यों है न ठीक ?"

इस आत्मीयता के अनन्तर भी कौसल्या ने कुछ नहीं कहा। उत्तर के लिए कुछ ठहरकर हरिराम फिर बोला - "हाँ बेंन, तुम और क्या कह रही थीं, कुछ कहो तो। क्या इस सम्बन्ध में किशोरी से कुछ पूछने को है? आजकल के लड़के-लड़कियों की बातें कुछ अनोखी हैं, इसीलिए मैंने कहा ।"

कौसल्या के मन में इस बात की छाया भी न थी। उसने शंकित होकर पूछा - " यह कैसी बात है भैया?"

हरिराम को सन्तोष हुआ कि उसकी बात ने कौसल्या का मौन तोड़ दिया । उसने कहा - " तुमने शोभू की बात नहीं सुनी तो क्या ? "

शोभाराम का कोई आक्षेप योग्य व्यवहार सुनने की आशंका ने कौसल्या की जिज्ञासा शान्त कर दी। उसने कहा- "मैंने कुछ नहीं सुना भैया।"

हरिराम बोला - " तुम तो जानती ही हो बेंन, कुछ भी क्यों न हो, पार्वती में फिर भी कुछ दया मया है । वह नहीं चाहती थी कि एक जगह की सगाई तोड़कर दूसरी जगह की जाय। शोभू को तुम कुछ कम न समझो; लोभ में वह अपने दादा से इक्कीस ही निकलेगा । काम बिगड़ता देख वह पार्वती के पास गया और उसके पैरों पर सिर रखकर दूसरी जगह बात पक्की करने के लिए जब उसे राजी कर लिया तब उठा। क्यों है न अनोखी बात?"

कौसल्या रुलाई के स्वर में बोल उठी- "मुझे नहीं सुननी तुम्हारी अनोखी बातें। तुम जो ठीक समझो, करो; मैं कुछ नहीं जानती । "

हरिराम ने कहा- " सो तुम्हें कुछ जानने की जरूरत क्या है? मैं न होऊँ तब बात भी है। तो हाँ, आज मैं बात पक्की करने के लिए नाई भेज रहा हूँ। व्याह भी जल्दी करना पड़ेगा।"

कौसल्या ने कुछ उत्तर न दिया । हरिराम जानता था कि मौन रह जाना सम्मति का ही लक्षण है। इसलिए इस सम्बन्ध में फिर कुछ कहना - सुनना उसे आवश्यक न जान पड़ा।

कुछ देर बाद वह बोल उठा - " अरे किशोरी ! कहाँ गई ? एक लोटा पानी तो ला बिटिया । प्यास लगी है।"

घर की एक कोठरी से उत्तर मिला - "लाती हूँ मामा।"

किशोरी कोठरी के भीतर से यह बातचीत सुन रही थी। हरिराम की बात का उत्तर दे चुकने के अनन्तर उसे एक तरह की लज्जा का अनुभव होने लगा। आजकल के लड़के-लड़कियों के ऊपर अभी-अभी टिप्पणी की जा रही थी और उसके बाद ही वह अपने विवाह की चर्चा छिपकर सुनते हुए पकड़ ली गई । यदि इस समय किसी प्रकार वह हरिराम की बुलाहट सुन न सकती तो कितना अच्छा होता ! परन्तु जब वह सुन ही चुकी तो उसको अनसुनी करने का उपाय ही उसके पास कौन - सा था ?

एक क्षण बाद ही उसने अपनी यह लज्जा प्राण-पण से ठेल कर दूर करने का प्रयत्न किया। उसका मामा पीने के लिए पानी माँग रहा है और वह घर में बैठकर व्यर्थ की बातें सोच रही है। उसके ऊपर जो अन्याय किया जा रहा है उसका जैसा तीव्र अनुभव उसके इस मामा ने किया है, वैसा और किससे बन पड़ा है? जिस संसार में शोभाराम तक अपनी भौजी के पैर पकड़ कर उन्हें उसके विरुद्ध अपने षड्यंत्र में मिला लेता है, उसमें उसके मामा के जैसे व्यक्ति का होना उसे एक ईश्वरीय वैचित्र्य ही जान पड़ने लगा। अभी तक वह शोभाराम के प्रति ही अपने दारुण अभिमान से मन ही मन जल रही थी, अब उसका ध्यान अपनी माँ की ओर भी गया। ऐसे परमात्मीय के प्रति भी वह यथोचित व्यवहार न करके उपेक्षा का-सा भाव दिखा रही है, इससे बढ़कर अनुचित और क्या हो सकता है? फिर भी उसके मामा का ध्यान इस ओर नहीं है, इसके लिए उसका मन कृतज्ञता से भर गया। किसी तरह अपना यह कृतज्ञ भाव यदि उन तक पहुँचा सके तो मानो वह बच जाय ।

लोटा भरकर किशोरी धीरे-धीरे हरिराम के पास पहुँची। माँ को मुँह भारी किये चुपचाप बैठी देख उसके जी को फिर चोट लगी। लोटा हरिराम की ओर बढ़ाकर उसने कहा - "हाथ-पैर धोकर मामा, आज यहीं भोजन कर लो। तुम्हें देर हो गई है।”

हरिराम ने हँसकर कहा- "देर तो कुछ नहीं हुई बेटी, घर जाकर ही खा लूँगा।"

यह सब सुनकर भी माँ को मौन ही देखकर किशोरी मानो विद्रोहपूर्वक जोर देकर उसे भोजन के लिए खींच ले गई। लड़की के इस अयाचित समादर से हरिराम मन ही मन प्रसन्न हुआ। किशोरी के विवाह के सम्बन्ध में वह जो कुछ कर रहा है, उसका मूलय वह जानती है, उसके निकट यह छिपा न रह सका।

  • गोद (उपन्यास) : अध्याय (10- )
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