गिरजे का कंगूरा : आनंद प्रकाश जैन
Girje Ka Kangura : Anand Prakash Jain
हस्तिनापुर पांडवों की प्रसिद्ध नगरी थी। उसका बहुत कुछ इतिहास हस्तिनापुर से संबद्ध है। आजकल वहाँ पर जैनियों के दो मंदिर हैं- एक दिगंबरियों का और दूसरा श्वेतांबरियों का । यहाँ के दिगंबर मंदिर और महाराष्ट्र जनपद में सरधने के सबसे ऊँचे कँगूरे वाले गिरजाघर में कुछ आपसी संबंध भी है। यह संबंध कैसे बना- यह कहानी उसी की है।
समरो की बेगम विधवा थी, हजरत ईसा में विश्वास रखती थी और सरधने के इलो की एकमात्र कठोर शासिका थी। दीवान संगमलाल जैन युवा थे, मसें उभरी हुई थीं, खूबसूरत भी थे और साथ ही बेहद धर्मभीरू !
दसलाक्षणी पर्व समाप्त हो चुका था । चतुर्दशी निराहार व्रत से निवृत्त हो दीवान संगमलाल पड़वा के दिन बेगम से उत्सव की स्वीकृति लेने महल में पहुँचे थे। सब जरूरी कामों में निश्चय दीवान का होता था और अंतिम स्वीकृति बेगम की होती थी । बालाखाने में दीवान को बैठा लौंडी ने बेगम के हुजूर में आदाब बजाई - " दीवान संगमलाल तशरीफ रखे हुए हैं।"
"आते हैं।"
बहुत देर हो गई। दीवान के आने पर बेगम कभी इतनी देर नहीं लगाती थी। अचानक सिर उठाकर दीवान ने देखा-परी की तरह सजी हुई सरधने की निरंकुश शासिका की गंभीर पदचाप बाजाखाने की खिड़की के सामने जाकर रुक गई। एक नन्हीं किरण ने तड़पकर बेगम के होंठों को चूम लिया। ठंडी और हल्की धूप ने वक्षस्थल के उभार पर पसरकर उसके नीचे के साये को गहरा दिया था। दीवान ने नजरें नीची कर लीं।
"दीवान!" बेगम ने सूरज की ओर दृष्टि गड़ाए हुए पुकारा।
"श्रीमती जी!" दीवान ने उत्तर दिया।
"तुम्हें मैं इस वक्त कैसी लगती हूँ?" बेगम ने अप्रत्याशित प्रश्न किया ।
"खूबसूरत!" दीवान ने उत्तर दिया।
"बहुत खूबसूरत?" बेगम खिल उठी।
"बहुत ही खूबसूरत!" दीवान ने आँखें बंद कर लीं।
"कितनी?" बेगम ने विभोर होकर पूछा।
"मेरी माँ भी अगर शाही लिबास में होती तो ऐसी ही लगती।"
"दीवान!" बेगम गुस्से से चिल्लाई ।
स्थिति बिगड़ चुकी थी। दीवान संगमलाल इसकी चपेट में आ चुके थे। उन्होंने घबराकर सिर झुका लिया।
“किसलिए आए थे?" बेगम ने कठोर होकर पूछा ।
"जैनियों के उत्सव के लिए आपकी मंजूरी के लिए।" संक्षिप्त उत्तर देते हुए दीवान ने कागज खोलकर बेगम के सामने रख दिया।
बेगम ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए और बोली, “जाओ!"
दीवान सिर झुकाए बालाखाने से उलटे पैरों बाहर निकल गए। उस दिन उत्सव हुआ, किंतु आश्चर्यचकित होकर लोग यह देखते रह गए कि श्रीजी की गद्दी के लिए दीवान संगमलाल की नीलामी बोली नहीं बोली गई। कुछ सोचते-सोचते दीवान ने पूरा दिन दीवानखाने में व्यतीत कर दिया। अपने निश्चय की पक्की थी बेगम, दीवान उसकी आदतों से अच्छी तरह वाकिफ थे। बेगम के क्रोध का शिकार उनका बेटा स्वयं हो चुका था । उसे उसने चरित्रहीनता के आरोप में सूली पर चढ़वा दिया था । बालाखाने की घटना भी रंग लाएगी। आज की शाम खैरियत से गुजर जाना मुश्किल बात थी। जब कभी बेगम क्रोधित होती तो उसकी निगाह सबसे पहले अपराधी के गर्वोन्नत मस्तक की ओर रहती थी और बाद में उस गरदन को उड़ा देने का आदेश हो जाता था ।
अंधकार हो जाने पर कुछ निश्चय कर दीवान संगमलाल पगड़ी सिरपर रख, रेशमी अँगरखा पहन और तलवार कमर में लटकाकर बेगम के महल की ओर चले। चलते जाते और सोचते जाते थे - एक काली घटा उनके ऊपर घिर आई थी, न जाने कब गाज गिर जाए और सबकुछ समाप्त हो जाए! बेगम के कोप से बचना असंभव था। किंतु एक बार बेगम जो निश्चय कर लेती तो उसे कुछ इधर से उधर होते दीवान ने कभी नहीं देखा था।
ड्यौढ़ी पर पहुँचे तो लौंडी आदाब बजा लाई। दीवान आँखें नीची किए अंदर चले आए। हाथ जोड़कर ताजीम से खड़े खवास से कहलवाया, "दीवान साहब कदमबोसी चाहते हैं।"
आरामगाह में पड़ी बेगम ने अपनी खास लौंडी से पुछवाया, "क्या काम है?"
यह तो बिल्कुल नई बात थी। पहली बार हो रही थी ऐसी बात आज तक हर एक खास और आम बात किसी बिचौलिए के जरिए बेगम ने नहीं कहलवाई थी । यह उपेक्षा मिश्रित मान है या क्रोध ? बेगम अपराधी की सूरत भी नहीं देखना चाहती। दोनों ही बातें भी हो सकती हैं। दीवान ने सोचा और फिर कहलवाया, "हुजूर को अभी फुरसत न हो तो नाचीज फिर कभी हाजिर हो जाए? "
वह उत्तर से मिलता-जुलता प्रश्न था। दीवान ने कभी बेगम के सामने अपने को नाचीज नहीं कहा था। समरू की बेगम का दीवान और नाचीज ! बेगम के दिल पर यह बात सीधे जाकर तीर की तरह लगी। हुक्म हुआ कि उन्हें सीधे आरामगाह में भेजा जाए।
"हे भगवान्,” दीवान ने सोचा, "क्या सब अनहोनी आज ही घटेगी? बेगम अपनी आरामगाह में मुझसे बात करेगी!" वह आश्चर्य से खवास के पीछे-पीछे एक सुंदर से कमरे में पहुँचे। अपनी तीन साल के दीवान के पद ग्रहण के बाद उन्होंने पहली बार इस कमरे में प्रवेश किया था। वह कभी यहाँ नहीं आए थे।
उन्हें मोढ़े पर बैठने का इशारा किया और मसहरी के अंदर, अपनी बाँहें ऊपर किए सीधी लेटी हुई बेगम ने पूछा, "अब क्यों आए हो?"
बेगम के यौवन- प्रदर्शन से घबराकर दीवान की नजरें फिर झुक गई। वह बोले, “डर था कि आपके दर्शन किए बिना यों ही चला गया तो कहीं रात को सूली पर न चढ़ा दिया जाऊँ।"
यह सुना तो बेगम ज्यादा देर गंभीर न रह सकी। उनकी ओर करवट लेते हुए मुसकराकर उसने पूछा, "क्यों, तुम्हारे लिए सूली पर चढ़ने से पहले मेरे दर्शन करना क्या जरूरी था?"
"जी हाँ, बहुत जरूरी था । "
दीवान के इस उत्तर को पाकर बेगम ने छत की ओर देखा और हँसते हुए पूछा, "क्यों?"
"सुना है कि मरने से पहले, बिना मालिक के दर्शन किए नौकर को स्वर्ग नसीब नहीं होता।"
मालिक और नौकर ! आशा के प्रतिकूल दीवान के उत्तर से बेगम बेशक खुश तो नहीं ही हुई, लेकिन इस बात से बेगम को दीवान की अब तक की उसके प्रति की गई वफादारी अवश्य ध्यान आ गई। उसका क्रोध तिरोहित हो गया। उसने पूछा, "क्या चाहते हो?"
दीवान ऐसे ही सवाल की प्रतीक्षा कर रहे थे। बोले, "मैं जानता हूँ, आपके गुस्से से बचना मुश्किल है। इससे पहले कि मैं सूली पर चहूँ, मैं चाहता हूँ कि गृह कलह में अपनी जान बच जाने के एवज में जो मनौती मैंने माँगी थी, वह पहले पूरी हो जाए, ताकि मरने के बाद उसका बोझ कंधों पर न रखा रह जाए।
राजगृह में काफी झगड़ा और खून खराबी होने के बाद ही बेगम का सिक्का चला था। एक बार उसके और दीवान के जानलेवा फंदे में फँस जाने पर दीवान ने यह मनौती मानी थी कि अगर वह बेगम को इस फंदे से बचा सके तो अपनी जन्मभूमि शाहपुर में एक विशाल जैन मंदिर बनवा देंगे। यह तो पता नहीं कि उनके बचने में इस मनौती का कहाँ तक भाग रहा, किंतु इसके बाद तीन साल तक एक व्यवस्था में फँसे रहने के कारण दीवान को उसका खयाल तक न रहा। समरू की बेगम को मालूम था कि यह मनौती दीवान ने अपने लिए नहीं, बल्कि स्वयं बेगम के लिए माँगी थी।
आज मौत को अपने सिर पर मँडराता देख दीवान ने उसकी चर्चा न करके वह अपनी जान बचने के एवज की बात की थी। उससे दीवान के प्रति बेगम का मोह द्विगुणित हो गया। उसके ऊपर से दीवान की उसके प्रति उपेक्षा से उसके नेत्र आर्द्र हो आए और उसने पीठ फेरकर कहा, "आप जाइए, छुट्टी का परवाना पहुँच जाएगा।" वह थोड़ा रुकी और फिर बोली, "सूली से पहले ही।"
अनुभवी दीवान बेगम के उन आँसुओं को अपनी आँखों से नहीं देख सके। लेकिन उसकी आँखों की नमी देखकर उनके मनःप्रदेश में एक ठंडी-सी सिहरन दौड़ गई। घर पर उनकी सुंदर-सी पत्नी है, बच्चा है, किंतु क्या किसी के प्यार की तुलना बेगम के मोह से की जा सकती है?
उसी रात एक तेज घोड़ी पर सवार होकर दीवान संगमलाल शाहपुर की ओर दौड़ पड़े। अगले दिन सुबह मंदिर की नींव रख दी गई। हजारों मजदूरों ने खून-पसीना एक कर बेगम की जान बचाने के लिए भगवान् को धन्यवाद भेंट किया। सात दिन तक ताबड़तोड़ मेहनत की गई। आठवें दिन वेदी की प्रतिष्ठा कराके दीवान संगमलाल ने पूजा की और साष्टांग दंडवत् कर निरंकार निर्लेप पारसनाथ की मूर्ति के सामने गिर पड़े। सकल जनों को सुनाते हुए उन्होंने कहा, "हे भगवन्, यदि बेगम के क्रोध से मेरी रक्षा हो तो हस्तिनापुर के उजड़े हुए वनखंड में एक मंदिर और बनवाऊँगा, वहाँ हर वर्ष हजारों धर्म के दीवाने जाकर धर्मलाभ करेंगे।" निर्विकार भगवान् ज्यों के त्यों ही बने रहें और अपने मन की भावना से आप ही संतोष प्राप्त कर दीवान संगमलाल रोते हुए घरवालों से बिदा ले सरधने की ओर चल दिए। किंतु बेगम का गुप्तचर उनसे पहले सरधने रवाना हो चुका था ।
अगले रोज बेगम के हुजूर में हाजिर होते ही सबसे पहले बेगम ने पूछा, "तुमने नए जैन मंदिर में कुछ मनौती मानी है?"
दीवान ने नतमस्तक होकर कहा, "जी हाँ!"
"तुम समझते हो, दीवान, " बेगम ने चहलकदमी करते हुए पूछा, "यह मनौती माँगकर तुमने कितनी बड़ी तोहमत हम पर लगाई है? जिसे तुम दुनिया की सबसे बड़ी ताकत मानते हो, उसे तुमने हमारे खिलाफ भड़काने की कोशिश की है। हमने तुम पर ऐसा कोई जोर नहीं डाला, न ही तुम्हें मजबूर किया। औरत ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी बैठ जाए, तो भी वह चाहेगी कि कोई छाती ऐसी भी हो, जो उसे जीत ले। हमने तुम्हें उसका एक मौका दिया था। मगर अफसोस, दीवान! तुम हमारी जात की नब्ज को पहचानने में कासिर रहे। "
दीवान ने उसी मुद्रा में बिना किसी भाव को मुख पर लाए उत्तर दिया, "मुझे अपनी गलती का आभास है । "
अचानक घूमकर कठोर दृष्टि से देखते हुए बेगम ने कहा, "तब क्यों तुमने हमें उस बगावत में हलाक नहीं होने दिया? क्यों तुमने हमारी जान के एवज खुदा को उसका बड़ा घर बनवा देने का लोभ दिया? क्या तुम अपनी गलती को ठीक करने के लिए तैयार हो ?"
"मुझे अफसोस है, बेगम, " दीवान ने असहमति को दूसरी तरह बयान करते हुए कहा, "मेरा मजहब इसकी इजाजत नहीं देता।"
"और तुम एक गैरमजहबी जान पर मनौती मान सकते हो, और उसके ऊपर इतना बड़ा मंदिर बनवा सकते हो! मोहब्बत के लिए मजहब में अजीब फतवे हैं! ईसामसीह की कसम, तुम्हारी जगह अगर और कोई होता तो उसके मजहब का नामोनिशान हमारे इलाके में नजर न आता। हमारी जान के अमान पर जैन मंदिर नहीं, गिरजाघर बनता। दुनिया में रहकर दुनिया की मोहब्बत पर ईमान लाने और उसकी कद्र करने की इजाजत जिसका मजहब नहीं देता, वह समरू की बेगम का दीवान नहीं रह सकता। हमें तुम पर और तुम्हारे मजहब पर रहम आता है। ऐसे आदमी सूली देकर भी दुनिया बैरागियों से पाक नहीं होगी। जाओ, चौबीस घंटे के अंदर अपनी जान की सलामती लेकर हमारी रियासत की हद से बाहर निकल जाओ।"
दीवान बिना पीठ फेरे ही झुकते हुए बाहर निकल गए। अगले चौबीस घंटों में उन्होंने रियासत छोड़ दी। उनकी जान बच गई थी। समरू की बेगम के कोप से वे सही-सलामत रहे थे, किंतु किस बेगैरती और बेइज्जती के साथ!
बुझे मन से पंडितों, संगसाजों और राजों व बिरादरी के दूर-दूर के मुखियाओं को साथ लेकर दीवान संगमलाल अपनी मन्नत पूरी करने के लिए हस्तिनापुर की ओर कूच कर गए। पंडितों ने शास्त्रों का अवलोकन किया। उन्होंने हस्तिनापुर की जमीन को देखकर मंदिर का एक स्थान निश्चित किया । लेकिन वहाँ हस्तिनापुर के आसपास के गाँवों के आदि-निवासी गूजरों का वृक्ष देवता पीपल खड़ा था । वह पीपल का पेड़ वहाँ से हटाकर ही मंदिर की नींव वहाँ पड़ सकती थी । उन्हें प्रलोभन देने की बहुत कोशिश की गई, लेकिन इस प्रश्न को लेकर एक तुमुल विरोध ग्रामीण जनता की ओर से उठ खड़ा हुआ। संगमलाल को धमकी दी गई कि अगर पेड़ कट गया तो उनकी जान की खैर नहीं। पंडितों से फिर विचार-विमर्श हुआ। शास्त्रों के अनुसार और कोई स्थान मंदिर बनाने के लिए इतना उपयुक्त दिखाई नहीं दिया ।
शनैः-शनै: जैन समुदाय के लोग वहाँ एकत्रीत होने लगे। रात के अँधेरे में एक तेज आरे से उस पेड़ को काटने के लिए पहलवानों को लगा दिया गया। पंद्रह मिनट में वृक्ष कटकर धरती पर गिर पड़ा। हजारों की संख्या में जनसमूह, गूजरों के गोल-के-गोल अपने देवता की रक्षा करने के लिए हस्तिनापुर की ओर निकल पड़े। जैसे ही पेड़ कटा, वैसे ही उस जगह पर नींव की ईंट रखकर दीवान संगमलाल बहली पर सवार हो, तेज बैल जुतवाकर, वायुवेग से बहसूमे की ओर प्रस्थान कर गए। गूजरों को पंछी के उड़ जाने का पता चला, तो सैकड़ों घोड़े बहली के पीछे-पीछे अपराधी को पकड़ने के लिए दौड़ पड़े।
आधे रास्ते में ही घोड़ों ने बहली को पकड़ लिया। छतरी पर सैकड़ों लाठियाँ पड़ीं और उसकी झिर्री- झिर्री उड़ गई। इससे पहले कि दीवान अपने किए के नतीजे को भुगतते, पीछे से मार-काट शुरू हो गई। सिर उठाकर दीवान ने उधर देखा तो पाया, वे समरू की बेगम के सिपाही थे। थोड़ी देर में खेत साफ हो गया, लेकिन डर अभी बाकी था। सिपाही बहली को अपनी रक्षा में लेकर जल्दी से बहसूमे के राजा के महल की ओर बढ़ चले । यथास्थान शरण मिल गई थी। अगले दिन प्रातः सिपाहियों के नायक से दीवान ने पूछा, "तुम्हें किसने भेजा था?"
"बेगम साहिबा ने।" नायक ने उत्तर दिया।
"कहाँ हैं बेगम साहिबा ? "
"शाहपुर का जैन मंदिर लूटने के लिए कल रात ही वे रवाना हो चुकी हैं।"
दीवान ने यह सुना तो स्तंभित रह गए। उन्हें बेगम का यह मिजाज समझ में नहीं आया। उन्होंने पूछा, "तुम्हारे साथ खुद तशरीफ लाई थीं?"
“आपके महसूमे पहुँच जाने पर ही उन्होंने यहाँ से पलायन किया था।" नायक ने बताया ।
दीवान ने तुरंत एक घोड़ा लिया और शाहपुर की ओर दौड़ पड़े। हाँफते -हाँफते शाम को वे शाहपुर पहुँच गए। वहाँ जाकर मालूम हुआ कि मंदिर तो पहले ही लुट चुका था; बेगम ने लूट के माल के सात ऊँट भरे थे। लाखों-करोड़ों के हीरे-जवाहरात लादकर बेगम तीसरे पहर ही सरधने कूच कर गई थी । उजड़े हुए मंदिर को दीवान ने एक बार खड़े होकर निहारा। उन्होंने तुरंत घोड़े की रास मोड़ी और सरधने की राह पर उसे सरपट दौड़ा दिया।
घोड़ा फेन उगलने लगा था। दीवान करीब-करीब बेहोशी की हालत तक पहुँच गए थे। सरधने के करीब पहुँची बेगम ने ऊँट पर बैठे-बैठे दीवान को घोड़े की पीठ से गिरते देखा । ऊँटों को रुकवा दिया गया। दीवान की सेवा-शुश्रूषा शुरू हो गई। अपनी रानों पर दीवान का सिर रखे बेगम उनके मुँह में जल टपकाती रही।
आँखें खुलीं तो दीवान की नजर बेगम पर पड़ी। वे जल्दी से उठ गए और उससे पूछा, “आपने उन लोगों से मुझे क्यों बचाया?"
बेगम ने गंभीर होकर जवाब दिया, "अहसान का बदला चुकाना था।"
"आपने यह भी नहीं सोचा कि मंदिर लूटकर आपने हजारों लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाई है?"
बेगम उठकर खड़ी हो गई। बोली, "काश कि हस्तिनापुर में वह पीपल का पेड़ कटवाते हुए भी तुम यही सोचते!"
दीवान निरुत्तर हो गए। वे बोले, "लेकिन यह मंदिर आपकी जान के एवज में बनाया गया था ।"
"हूँ, " बेगम बोली, “फिर तो मेरी जान की एवज में तुम्हें मंदिर नहीं, बल्कि गिरजाघर बनवाना चाहिए था । " क्या कहते?
दीवान चुप हो गए। बेगम के अंदर जो यह धार्मिक पक्षपात की भावना उत्पन्न हुई थी, उसका कारण दीवान ही तो थे । वह निराश होकर उन्होंने अंतिम बात कही, "किंतु मंदिर में मेरी जान बचने की मनौती भी तो शामिल थी।"
"उसके लिए तुम्हें एक ऊँट वापस किया जाता है। हम बुतशिकन नहीं हैं, चलो।" और बेगम का काफिला एक ऊँट वहीं छोड़कर आगे बढ़ चला। दीवान वहाँ खड़े उस काफिले को पीछे से तब तक देखते रहे, जब तक वह उनकी आँखों से पूरी तरह ओझल होकर एक धब्बे के रूप में परिवर्तित नहीं हो गया।
उसके बाद गिरजाघर बना और तब तक बनता रहा, जब तक कि मंदिर की लूट की एक-एक पाई उसमें खर्च नहीं हो गई। उसके तैयार हो जाने पर बेगम ने हुक्म दिया कि गिरजे का कंगूरा राजधानी के तमाम धार्मिक भवनों से ऊँचा रहे । बिना और कुछ कष्ट के एक जैन मंदिर की जरा-सी ऊँचाई को गिरजे के कंगूरे के मुकाबले कम करने के लिए, उसके एक कलश को उखाड़कर अलग कर दिया गया।
गिरजाघर के इस कंगूरे में छिपा था - प्रेम से प्रवंचित एक नारी का सिर ऊँचा करके चलने का अभिमान!