गिरगिट के रंग (कहानी) : हिमांशु जोशी
Girgit Ke Rang (Hindi Story) : Himanshu Joshi
आज फिर दीये जले। इनके जलते ही न जाने क्यों रक्त जमने लगता है! साँस रुक-सी आती है। रोम-रोम काँप उठता है। आँखों के आगे अंधकार छा जाता है। फिर कुछ भी नहीं सूझता। कुछ भी नहीं दीखता। भगवान्! या तो ये दीये न जला या यह जीवन-दीप ही एक बार भलीभाँति बुझा दे! इस तरह मर-मर के जीते देख, तेरा हृदय नहीं पसीजता? तुझे दया नहीं आती? ओह! तू भी कितना निर्मम है...।
हृदय की धड़कन बढ़ आई। वृद्ध देह पसीने से भीग गई। सारा शरीर नई आशंका से काँप उठा। आज क्या होगा? क्या नया प्रयोग होगा? सूझ न रहा था।
तभी सामने दृष्टि गई। देखा—उसकी रक्तहीन नन्ही सूखी कलाइयाँ बाँस की सी चौड़ी तीलियों को कसकर थामे हुए हैं। कभी उन्हें तोड़ने का प्रयत्न करती तो कभी अपने दाँतों से काटने की असफल कोशिश। इसी बंधन-मुक्ति के संग्राम में उसका सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। पुराने घाव फिर हरे हो आए। फिर बहने लगे। लेकिन वह जूझती रही—जब तक कि अचेत हो धरती पर न आ गिरी।
उसकी पतली-पतली कलाइयाँ सूखी हुईं। पेट बहुत बढ़ा हुआ। आकृति विकृत। जगह-जगह पट्टियों से बँधा शरीर और साथ ही परिवर्तित उसका रंग। जो अब धुमरैला, पीलाई लिये भूरा न था, बल्कि नीला होता जा रहा था। सजल नेत्रों सें वह उस बंदरिया को देखती रही, जिसकी साँसें तेजी से चल रहीं थीं, जो अभी तक भी बुरी तरह हाँफ रही थी।
अपने जर्जर हाथों से बूढ़ी बंदरिया ने उसे समेट लिया। सीने से लगाती हुई, उसके काँपते शरीर को सहलाती रही। तभी लगा कि वह सुबुक रही है। उसके दुःखते घावों में हाथ फेरती हुई बोली, “पगली है न! इस तरह नासमझी करती क्यों है? जानती नहीं, ये बाँस की खपच्चियाँ नहीं, लोहे की सलाखें हैं। ये भी क्या कभी टूटती हैं...?”
“ले...किन...दादी..।” रुंधे कंठ से वह बोली और सिसकियाँ फिर बढ़ आईं।
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं पगली! पिंजड़े के द्वार अब जल्दी ही खुलने वाले हैं। उन्मुक्त हो जब तू फिर उन्हीं पहाड़ियों, हरी-हरी घाटियों में स्वच्छंदता की साँस ले सकेगी। जल्दी ही अब मुक्ति मिल जाएगी...।” कहते-कहते गला भर आया। एक भी शब्द फिर मुँह से न फूटा। केवल हाथ उन्हीं बालों में फिरते रहे। विस्फारित नेत्रों से उन्हें देखती रही। टप-टप आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें उस पर गिरती गईं। जैसे उस तन की सारी नीलाई धो देना चाहती हों।
नन्ही बंदरिया उसके सीने में सिर छुपाए न जाने क्या-क्या सोचती रही। आँखों के आगे धीरे-धीरे चलचित्र के दृश्यों की भाँति सोए सपनों का संसार तैरने लगा।
—वे ऊँचे-ऊँचे शैल-शिखर, वे नीलम-सी हरी सुहावनी घाटियाँ, वे मेरे चीड़-देवदार के रुपहले वन, वे कलकलाते मीठे झरने आज भी मेरी आँखों के आगे न जाने क्यों नाचते रहते हैं? जैसे रह-रह के बुला रहे हों! कह रहे हों—आओ, तुम उस धरती के नहीं, इस धरती के हो! फिर किधर तुम चले गए? आओ, हर कण-कण यहाँ का तुम्हें याद करता है। फिर, आते क्यों नहीं हो?...
...और वह...ओह! मेरी माँ, मेरी बूढ़ी माँ भी उसी तरह बुलाती रहती होगी। जिसकी धुँधली आँखें आज भी राह पर बिछी रहती होंगी। पगली-सी वह दिन-रात रोती खोजती रहती होगी...। उसकी दयनीय-दीन आकृति, उसके कातर भाव आँखों के आगे घूमने लगे। उसे लगा कि जैसे वह इस समय उसी के सामने हो। हरी-हरी वे ही पहाड़ियाँ हों। वैसे ही चीड़ के वनों के झुटपुटे में कुछ दूरी पर अर्द्धचेतन-सी बेबस निहार रही है। उसमें शक्ति नहीं। दो कदम बढ़ने का साहस नहीं। फिर भी वह मरती-जीती छटपटाती है। बड़ी-बड़ी आँखों से देखती रहती है। फंदेवालों के आघात से वह अधमरी तड़प रही है। कुछ घड़ी का मेहमान जानकर वे उसे बाँस के पिंजड़े में भी रखने को तैयार नहीं। लेकिन, फिर भी वह आना चाहती है। मेरे लिए स्वयं भी बँधना चाहती है?। उन हृदयहीनों को क्या पता कि वह मेरे बिना न जिएगी। और फिर मैं ही क्या उसके बिना बचूँगी।...ठगी-सी सोचती रही—क्या इनकी माँ, इनके बाल-बच्चे न होते होंगे...? क्या इनमें दया, सहानुभूति न होती होगी...? ओह, ये कैसे क्रूर-हृदय, कैसे निर्मम हैं...!
तभी जाने का समय हो आया। तब उसकी छटपटाहट और अधिक बढ़ आई। उस अंधकार सागर में न जाने वह कब तक चीखती-चिल्लाती रही। दूर तक मैं सुनती रही। फिर वह सुनाई न पड़ी। तब क्या वह दूरी से न सुनाई देती होगी, या मेरी माँ, बूढ़ी माँ इस संसार से ही चल बसी होगी! आह...माँ...!
सच ही ‘माँ’ की दर्द भरी चीख उसके मुँह से निकल पड़ी और उस श्मशान से सूने कमरे में गूँज उठी। बूढ़ी बंदरिया आश्चर्य से उसकी ओर देखती हुई बोली, “क्या हुआ री?” “कुछ भी नहीं दादी।” धीरे से आवाज आई और फिर उसने अपना मुँह घुटनों में छुपा लिया।
साँझ थी वह। अंधियारा होने से पहले ही सारा बाँस का कठघरा बंदरों से खचाखच भर गया, कहीं तिल रखने को भी जगह न रही। हमारी स्वच्छंदता-स्वाधीनता अब केवल डेढ़ गज के ही कठघरे में आ घिरी। जहाँ करवट बदलना तो दूर रहा, साँस लेना ही संभव न था। उस काल कोठरी में सभी आपस में टकराते। लड़ते-झगड़ते रहते। उन तीखी नुकीली बाँस की खपच्चियों की रगड़ खाकर सभी के घाव हो गए। लहूलुहान हो आया।
दिनों तक खाने को कुछ भी न मिला, जिससे दुर्बलता और अधिक बढ़ आई। हिलने-डुलने की भी तनिक शक्ति शरीर में न थी। फिर भी हम बढ़ रहे थे। कहीं दूर ले जाए जा रहे थे। लेकिन किधर, कहाँ? सूझता न था।
मौत की ओर हम बढ़ते जा रहे थे कुढ़न से सभी बिलबिलाते। अंधे आवेश में आ कभी बाहर भागने की कोशिश करते तो कभी बाँस की रगड़ से फिर चारों खाने चित लेट जाते। तब केवल अपनी बेबसी के मारे, असफल क्रोध के हारे, टुकुर-टुकुर बाहर की ओर निहारते रह जाते। कहीं-कहीं स्टेशनों पर खड़ी गाड़ियों से दीखता...गंदी नालियों से पानी बह रहा है। कूड़े के ढेरों से सड़ा-गला सामान भर-भरकर बाहर फेंका जा रहा है। लेकिन, हम भूखे...हम प्यासे...।
...गाड़ियाँ कहीं-कहीं रुकती या बदली जातीं तो उस समय कुछ चने और डिब्बे में पानी भर दिया जाता। चने तो पहले ही बिखर जाते। केवल एक-दो दाने ही मुश्किल से मुँह तक पहुँच पाते और पानी का डिब्बा छीना-झपटी में ही उलट जाता। फिर सभी बिखरे पानी में छप-छप हाथ गीला करते और चाटते। वह भी सभी को नसीब न हो पाता। प्यास न बुझती, पेट न भरता। लेकिन फिर भी हम मर-मर के बढ़ रहे थे। कहीं दूर ले जाए जा रहे थे।
बिजली के दीये फिर बुझ गए। कभी वे जलते हैं, कभी स्वयं ही बुझ आते हैं। प्रकाश भी हर बार बदला-बदला-सा लगता है। लेकिन फिर भी नीले रंग का ही अधिक दीखता है। शायद उसी का प्रयोग चल रहा हो।
वैसी ही सिमटी वह बैठी रही। आँखें मूँदे न जाने क्या-क्या सोचती रही। उसे याद आया—कैसे वे एक स्थान से दूसरे स्थान तक बढ़ते चले गए और फिर सैकड़ों मील दूर, अनेक सागरों पार, इस अनोखी दुनिया में आ बसे।
यहाँ आते ही सारा वातावरण एकदम बदल गया। हमारी हर तरह से देखभाल की गई। भोजन भी समय-समय पर भरपेट मिलने लगा। जगह भी साफ-सुथरी मिली। अब बाँस का टूटा पिंजड़ा नहीं, विशाल लोहे की सलाखों का बड़ा कमरा था। यहाँ के इन नए आदमियों को जब पहली बार देखा तो बहुत घबराई। वह निश्छलता इनमें न दिखी, जिसके हम आदी थे। लेकिन उसके प्रति यह आत्मीयता देख प्रभावित हुए बिना न रही। समझने लगी—भगवान् जो करता है, सब भले के लिए ही। आखिर वह सभी पर तो दया रखता है न!
कुछ महीने बीते। एक दिन बहुत से आदमी अनेक किस्म के सामान से लदे, कमरे में आए। बहुत देर तक घेर के खड़े रहे। मैं विस्मित-सी देखती रही। समझ में कुछ भी न आया। तभी मैंने बेचैनी-सी अनुभव की। उसके बाद फिर कुछ भी न सूझा, कुछ भी होश न रहा।
पूरे एक दिन बाद जब चेतना जागी तो अपने को मैंने एक अनोखी हालत में पाया। रंचमात्र भी शक्ति मुझमें न थी, न तनिक हिलने-डुलने का साहस ही। केवल मरी-मरी सी पड़ी रही। शरीर में न जाने कहाँ से कितने घाव हो गए? जिनमें पट्टियाँ लिपटी थीं—जो बुरी तरह दुख रहे थे। उसके बाद फिर वेदना बढ़ती ही गई। मैं फिर अचेत हो गिर पड़ी।
निकट ही बूढ़ी दादी भी पट्टियों से लिपटी देखती रहती है। वह भी अभागिन मेरी ही तरह कहीं से पकड़कर लाई गई होगी। पहले कितनी स्वस्थ थी, लेकिन अब बोलने की ही शक्ति कहाँ! कुछ दिन तक तो मेरी ही तरह रही। लेकिन बाद में पट्टियाँ आधे शरीर से खोल दी गईं। शायद वह प्रयोग सफल न रहा। शायद कुछ दिनों में कभी फिर हो...लेकिन मैं उसी तरह पड़ी हूँ। जब दवाओं का असर होता है तो बावली-सी हो उठती हूँ। सोचती हूँ, ये शीशियाँ, ये काँच की बड़ी-बड़ी बोतलें, ये घड़े, ये औजार, सब तोड़ दूँ। तहस-नहस कर दूँ। लोहे की सलाखें दाँतों से चबा के फेंक दूँ। लेकिन ज्यों ही दवाओं का असर जाता रहता है, मेरी नसें भी शिथिल होती जाती हैं। रक्त की गति में मंदता और श्वास में रुकावट अनुभव होती है। घाव जब दु:खते हैं तो फिर चीखने की भी शक्ति शरीर में नहीं रहती। लगता है कि अब तो मौत आ ही जाएगी। लेकिन वह कहाँ? भाँग भी तो नहीं मिलती!!
हर बार आँखों में वे ही पहाड़, वे ही घाटियाँ, न जाने क्यों नाचती रहती हैं! पुकार-पुकार के जैसे बुला रही हों। हर साल हिम पड़ता होगा, हरियाली आती होगी। फल-फूलों से वन लद जाते होंगे! लेकिन हम किधर, कहाँ, इस अनोखी दुनिया में आ गए? यह सजा क्यों मिली? हमने कौन सा अपराध किया?
एक हम हैं! एक ये हैं। दादी उस दिन बता रही थी कि ये चाँद-सितारों में जाने की सोचते हैं। नई दुनिया आबाद करने की कल्पना करते हैं। लेकिन क्या किसी का संसार वीरान करके कोई अपना संसार बसा पाया? क्या कोई किसी की लाशों पर चढ़कर ऊपर उठ सकता है? किसी का हृदय दुखाकर क्या कोई सहृदय बन सकता है? किसी की आँखें निकालकर अपनी आँखों में लगा क्या कोई देख सकता है? यह सबकुछ भी समझ में नहीं आता। इसी धरती में जिन्हें रहना न आया, वे क्या दूसरी दुनिया बसाएँगे?...ये आविष्कारों को, अपने उत्थान की सोचते हैं। ठीक है, सोचें, करें, हम किसी से कुछ नहीं माँगते। कुछ नहीं चाहते। हमें वायुयान, जलयान, रॉकेट, अणु की आवश्यकता नहीं। हमें केवल हमारा उजाड़-खादड़ बस्ती, अपने सूने वन, अपनी स्वच्छंदता चाहिए। फिर क्यों हमें रहने नहीं देते? क्यों नहीं जीने देते?
—ओह! यह सब क्या हो गया? कैसी अनोखी दुनिया में आ पड़े! एक वे भी तो थे, जो आज भी मंदिरों में हमारी प्रतिमाओं को पूजते हैं और एक ये हैं—जो दिन-रात सताते रहते हैं। कभी चीरते-फाड़ते, तो कभी बर्छियाँ चुभोते हैं। कुछ भी इन्हें दया नहीं आती। तनिक भी हृदय नहीं पसीजता। आँखें तक निकालने, कलेजा तक उतार लेने में ये नहीं हिचकते। ओह, ये क्या है? दादी से कल पूछूँगी कि ये कौन हैं? क्या हैं? वह भी न बता पाईं तो खुद ही उनसे क्यों न पूछ लूँगी कि तुम कौन हो?
सोचते-सोचते मस्तिष्क घूमने लगा। वह वैसी ही अर्द्धचेतन-सी बूढ़ी बंदरिया की गोदी में पड़ी रही।
भोर होते ही वैज्ञानिकों का समूह आ पहुँचा। देर तक उलट-पलटकर देखने के बाद सभी के होंठों में प्रसन्नता की लहर छा गई। वे फूले न समाए, देखते जा रहे थे। एक नए रहस्य का उद्घाटन, एक नए प्रयोग को सफलता मिली आज। आसानी से अब मनुष्य का रंग भी जिस रंग में चाहें, बदला जा सकेगा। युग का एक महानतम आविष्कार सफल रहा। सत्रह सौ बंदरों पर प्रयोग और तीस साल की सतत साधना सिद्ध हुई।
बूढ़ी बंदरिया वैसी ही विक्षिप्त बैठी-की-बैठी रह गई। प्रयोग सफल हो जाने से अब उसकी आवश्यकता ही क्या रही?
अत : जहर का इंजेक्शन दे दिया था। निकट ही वह कल की मरी नन्ही ढुलकी पड़ी थी, जिसका नीला शरीर, नीली पलकें, उससे झाँकती निरीह नीली आँखें खुली थीं। जैसे कह रही हों, पूछ रही हो—तुम कौन हो? क्या हो? सच ही इनसान हो...?
(21 मई, 1958, अजंता)