घुटन (कोंकणी कहानी) : महाबळेश्वर सैल

Ghutan (Konkani Story) : Mahabaleshwar Sail

वैशाली को अपने आप पर आश्चर्य होता था। यह किस तरह का मन लेकर मैं जनमी हूँ? अजीब "जग से निराला" मुझे जरा भी रोना क्यों नहीं आता ? पति का शव देखकर सिर्फ एक बार वह चिल्लाई थी और कुछ क्षण तक चीख-चीखकर रोई थी। उसके बाद सबकुछ शांत और निस्तब्ध ! आखिर मैं क्यों रो पड़ी? यह प्रश्न उसके लिए एक उलझन बनकर रह गया था | क्या सचमुच पति की मृत्यु के दुःख से मैं रो पड़ी या मृत्यु की अवस्था या कठोरता देखकर "यह उसकी समझ में नहीं आया। बाद में मृत्यु के दुःख के बारे में सोचकर उसने रोना चाहा, पर वह रो न सकी। वैसे तो मैं पत्थर दिल नहीं हूँ। फिर मुझे रोना क्यों नहीं आता ? शादी के कुछ दिन पहले मैं हिमालय पर्वत पर गई थी। गिर्यारोहण के समय शिवाली नाम की एक लड़की बर्फीले तूफान में फँसकर ऊपर से गिरकर मर गई। तब मैं कितना रोई थी ? आठ दिन तक मृत्यु की छाया मेरे मन-पटल से हटी नहीं थी ।

वैसे वैशाली का पति उससे बुरी तरह पेश आता था अथवा उससे मार- पीट करता था या दूसरी स्त्री के मोह में फँसा था, ऐसा तो कुछ भी नहीं था। कभी-कभार शराब पीता था। शराब पीने पर जब वह और अधिक निर्बल बन जाता था, तब वैशाली की बाँहों में आकर अपने को थपथपाने को कहता था। शराब की बदबू ज्यादा असहनीय न हो तो वह भी उसे अपनी हथेली से थपथपाती थी, पर उसका शराब पीना या शराब की बदबू उसे कभी भी पसंद नहीं थी। आज उसी शराब के नशे में गाड़ी चलाते समय किसी पुल की पगडंडी से गाड़ी टकरा दी और उसकी मृत्यु हो गई। वह जानती थी कि शराब पीने की लत उसे उसके डरपोक स्वभाव के कारण ही लगी थी, क्योंकि उसमें जीवन की समस्याओं का सामना करने की हिम्मत नहीं थी ।

वह कितना बुद्धिमान इंजीनियर था, पर उसका मन एकदम कमजोर था । एक नामहीन अदृश्य डर उसके मन में बसा था, पर आज उसके न रोने का कारण यह नहीं था। वैसे तो वह अपने पति से प्यार करती थी। उसे उसकी जरूरत थी। फिर भी उसकी जुदाई से, उसकी याद में उसे रोना नहीं आ रहा था। उलटा, वह अपने आप को बंधनमुक्त और हलका महसूस करने लगी। उसने गुस्से से अपने आप से पूछा, यह मुझे क्या हो गया है? लाश के सामने ही उसके बदन पर से सब सौभाग्य अलंकार उतारे गए। लाश को उठा ले जाने के बाद किसी ने उसका हाथ पकड़कर उसे अंदर के कमरे में लाकर बिठाया। शाम का समय था। कुछ समय के बाद शोक व्यक्त करने आए हुए पड़ोसी, रिश्तेदार, जान-पहचानवाले चले गए। उनका रोना-धोना, सोच- विचार, भर्राई आवाज में बोलना, सब रुक गया।

शाम के वक्त मँझले कमरे में सिर्फ एक ही दीया जल रहा था। पूरे घर में कोई बिजली जलाना ही भूल गया था या जान-बूझकर नहीं जलाई थी, पता नहीं । ससुर, देवर अमेय, बुआ अपनी-अपनी जगह पर चुपचाप बैठे थे। बीच-बीच में बुआ ईश्वर का नाम लेकर कराहती थी, मानो दुःख सहा न जा रहा हो। दरवाजे के पास नौकरानी शांति एक पैर पर खड़ी थी।

इस परिवार के दुःख में वह पूर्णतया शामिल है, यह उसका मुरझाया और चिंतित चेहरा बता रहा था। पिछले आठ दिनों से मृत्यु की छाया उनके घर पर छा गई थी। इसमें अधिक दुर्गति शांति की ही हुई थी।

पहले जो औरत वैशाली का हाथ पकड़कर उसे अंदर ले आई थी, उसने वैशाली का पल्लू उसके माथे पर ओढ़ाकर मुख पर सरका दिया था। अब वैशाली ने पल्लू हटाकर अपने कंधे पर फेरा। पूरे घर पर उसने एक नजर डाली | शादीशुदा जिंदगी के पाँच बरस में पहली बार अपने घर में उसने बड़ी शांति, एकांत, हलकापन और बंधन मुक्ति का अनुभव किया। पहले उसके मन को चिंता ने जो जकड़ लिया था, वही मन अब पूर्णतया निर्मल, पारदर्शी, हलका बना था। मन में दुःख की चिंता के बजाय भविष्यकालीन मुक्ति की अंतःप्रेरणा बह रही थी। उसे लगा, वर्षों से लगी बंधन मुक्ति की प्यास आज खत्म हुई। इतने वर्षों से चलता आया जिंदगी का पथ, मुक्ति की ओर ही बढ़ रहा था क्या? मेरी शादी, मेरा सौभाग्य-श्रृंगार, संस्कार, गृहस्थी, ये सब किसलिए? क्या यह सब दिखावा था ? ढोल-नगाड़े बजने की तरह हृदय में बंधन - मुक्ति की ललकार निकलने लगती है। लगता है, जैसे सब संस्कार, बंधन, सब बेड़ियाँ टूटकर गिर गई हों । उसे लगा कि मुक्ति की साँस पूरे शरीर में फैल गई है और वह हवा में उड़ रही है। उसके बदन से सौभाग्य-श्रृंगार उतार दिए, इसकी उसे परवाह नहीं पता नहीं इतने बरसों के बंधन से मुक्ति पाने की चाह कहीं दब गई थी!

अचानक शादी से पहले की घटनाओं की यादें उसके मन में मँडराने लगती हैं। हिमालय की कपिलगिरि पहाड़ी की चोटी पर चढ़ने के बाद टीम सहित अखबार में छपा फोटो, आठ-आठ दिन तक घर के बाहर रहकर ट्रैकिंग पर की गई मौज-मस्ती, टेनिस खेलते समय दर्शकों का हर्ष-उल्लास सबकुछ उसकी आँखों के सामने आ जाता है।

एक बार जब वह जंगल में ट्रैकिंग करने गई थी, तब रास्ता भटक गई थी। झाड़ियों से छिपा हुआ रास्ता, पंछियों का कलरव, आगे एक विकराल, गहरी खाई। पीछे की ओर अभी-अभी उगता हुआ सूरज । वैशाली पर जैसे जंगल की खूबसूरती का असर पागलपन की तरह सवार हो गया हो। तब ऐसी ही बंधन मुक्ति की लहरें उसके मन में उठी थीं । उसे लगा था कि प्रकृति के साथ शाश्वत् एकांत प्राप्त हो जाए, उसी के साथ पूरा जीवन बीत जाए, उसी में समा जाए। उसका मित्र अशोक जो कहा करता था, 'मैं तुमसे प्यार करता हूँ।' उसे ढूँढ़ते हुए वहाँ पहुँचा। उसने अशोक से कहा, “ अशोक, हम दोनों एक साथ इस विकराल, गहरी खाई में कूद जाएँगे। उसके बाद चाहे तो मैं तुमसे शादी करूँगी।”

अशोक पागल की तरह उसकी ओर देखता ही रह गया। फिर वैशाली ने धम्म से जमीन पर बैठकर कहा था, "मुझे इस सुंदर मुक्त एकांत में सदा के लिए पड़े रहने की इच्छा होती है या फिर यहीं पर मृत्यु का स्वागत करके इस अद्भुत सौंदर्य में विलीन हो जाने को मन करता है। अशोक, मुझे उस गहरी खाई से लगाव - सा हो गया है। वह खाई मुँह खोलकर जैसे मुझे बुला रही है।"

"पागल कहीं की! वैशाली, चलो उठो । बाकी लोग बहुत दूर पहुँचे हैं। " अशोक उसे वहाँ से खींचकर ले आया था।

उसके बाद कितने दिनों तक उसे उस खाई का प्रलोभन-सा होता रहा । फिर भी उसे लगता था कि वह उसके मन की कमजोरी नहीं है। उलटे, एक दिलेर, मुक्त सुंदर मृत्यु का आकर्षण ही है।

पर जींस पैंट-शर्ट पहननेवाली, एम. ए. तक शिक्षित लड़की आज विधवा बनी है। कर्मठ हिंदू विधवा । वह मन-ही-मन हँस पड़ी। बीसवीं सदी की दहलीज पर खड़ी मैं एक विधवा !

द्वार के पास शांति वैसे ही खड़ी थी, जैसे किसी की आज्ञा के इंतजार में हो । वैशाली ने कठोर आवाज में कहा, “ऐसे तू चुपचाप खड़ी क्यों है? कुछ तो पका ले, उन्हें परोसना है न ? सुबह से वे भूखे हैं। जरा ज्यादा ही खाना पका दे।"

सच कहें तो वैशाली के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। कुछ अच्छा-सा मीठा- तीखा खाना भरपेट खाने का उसका मन कर रहा था। वैशाली का मूड देखकर शांति को जरा अच्छा लगा। उसने उसके पास आकर उससे धीरे से, धीमी आवाज में पूछा, “बिटिया, सब रिश्तेदार बाहर से ही क्यों चले गए ?"

"आज रात उन्हें यहाँ नहीं रुकना चाहिए।"

"क्यों ?"

"वैसा शास्त्रों में लिखा है। शास्त्र यानी शास्त्र आज अगर वे यहाँ रुकें तो उन पर भूतों का हमला होगा। अब यह घर कुछ दिनों के लिए अशौच माना जाएगा। बारह दिन तक भूत-प्रेत का घर, " वह हँस पड़ी। दीये के लाल प्रकाश में उसके चेहरे की हँसी शांति को चुड़ैल की हँसी जैसी विचित्र लगी । वह स्वस्थ है या नहीं, इसका उसने कुछ समय तक जायजा लिया। फिर उसने रसोईघर में जाकर खाना पकाना शुरू किया। ससुर, बुआ उसकी खन-खन सुन रहे थे। शांति को एक ओर वैशाली के बर्ताव पर आश्चर्य होता था, तो दूसरी ओर उस पर क्रोध भी आ रहा था।

फिर एक बार सबकुछ शांत, स्तब्ध शांति घबराई-सी रसोईघर के बरतन हलके से उठाती थी। घर में ससुर, देवर की उपस्थिति ही महसूस नहीं हो रही थी। एक ही दम में पूरा घर दुःख और अंधकार से भर गया था। इन लोगों ने घर भर की बिजली क्यों बुझा दी है ? उसे लगा कि झटपट बिजली के सब बटन दबाकर, पूरे घर को प्रकाशित कर ले।

फिर से एक बार वह मन की तह तक पहुँची। वह यह पता लगाने का प्रयास करने लगी कि क्यों उसे पति के देहांत का दुःख नहीं होता ? उसे लगा कि उसका बर्ताव तो एकदम स्वाभाविक है। प्रकृति से प्रेरित होकर मैंने प्यार किया और उसी प्रेरणा से मैंने शादी की। प्यार ? मन-ही- -मन वह हँस पड़ी। असल में वह प्यार था ही नहीं वह सिर्फ शारीरिक वासना थी । वासना ही पूरी तरह नैसर्गिक हो सकती है। प्यार, वासना की दिशा में बढ़नेवाला एक भूलभुलैया है। पत्नी का पति प्रेम एक तो वासना है या फिर परंपरागत संस्कार। पाँच बरसों से वासना की मैंने बहुत आवभगत की। धीरे-धीरे मैं वासना की गुलाम बन गई। यह, इन सबसे मिली मुक्ति की खुशी तो नहीं है न? हम दोनों नौकरी करते हैं। शारीरिक वासना के अलावा मुझे पति से और कोई लगाव नहीं था। पति द्वारा सुरक्षा मिलने के लिए प्रेम का नाटक करनेवाली औरतें क्या कम हैं? अच्छा हुआ कि मैं ऐसी नहीं हूँ। नहीं तो सचमुच मुझे पति के देहांत पर दुःख से रोना पड़ता। इसके बावजूद एक कठोर सत्य, एक आह्वान मेरे सामने है - विधवा का मतलब है, एक अशौच, अपशकुन, एक विपत्ति । हँसते-खेलते जीवन के लिए यह कितना बड़ा शाप है? कितनी बड़ी सजा ! मरनेवाला मर गया, पर यह सजा हमें क्यों ? मैं शपथ लेती हूँ कि मैं यह सजा बिल्कुल नहीं भुगतूंगी।

पर मन-ही-मन में जैसे गाली-गलौज देती हुई परंपरागत संस्कारों की आवाज उठी, 'तुम्हारी जैसी विधवा औरत मैंने इससे पहले नहीं देखी। तू तो पनोती और झगड़ालू है। यह वैधव्य, तेरी खुशी बनी हुई है। तू तो पत्थर दिल है।'

अब उसके मन की हँसी चेहरे पर दिखाई दी। मुझे किसने सौभाग्यवती बनाया, किसने विधवा बनाया ? मेरा जन्म तो प्राकृतिक है और मैं उसी के नियमानुसार मरूँगी। मेरा जन्म-मरण, मेरी मुक्ति, मेरा स्वातंत्र्य - यह सब प्राकृतिक सत्य है। मेरी शादी, चहारदीवारों में समाई हुई मेरी गृहस्थी, मेरा वैधव्य, सब झूठ है। बिल्कुल ऊपरी तह के दिखावटी कार्य, जैसे पत्थर के घर को चूना लगाया हो। वैसे तो वल्कलों से लिपटी हुई, कंद-मूल और फल खानेवाली वनमानुषी हूँ मैं। मैं ही वानरमुखी और मैं ही चंद्रमुखी आम्रपाली । यही मेरा सार्वत्रिक स्वतंत्र रूप है कलरव करनेवाले पंछियों की तरह, जंगली जानवरों की तरह। जरूरत है, सिर्फ भूख की भय सिर्फ मृत्यु का प्रकृति के स्वरूप को लात मारने का मतलब है, गुलामी को स्वीकार करना, गुलामी झूठे संस्कारों की।

प्रकृति कभी किसी पर जबरदस्ती नहीं करती, पर संस्कार करता है। तुझे सिर पर पल्लू लेना होगा, पति को परमेश्वर मानना ही पड़ेगा, उसकी मृत्यु का दंड भुगतना ही पड़ेगा, इन संस्कारों की ज्यादती क्यों ? मनुष्य को गुलाम बनानेवाले इन संस्कारों को मानें ही क्यों ? आज का मनुष्य संस्कारित जहरीला साँप है, इसलिए यह अधिक संकुचित वृत्तिवाला और अधिक कुंठित है।

वह सोच रही थी, पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा होने का दुःख निश्चित रूप से क्या होता है ? बिना कुछ काम-धाम किए मुफ्त में खाने को मिलने का अवसर खोने का दुःख या फिर कल दुनिया 'विधवा' कहकर नोच-नोचकर अपमान करेगी इसका दुःख ? फिर अचानक वह समझ गई, पति की मृत्यु पर स्त्रियों को विधवा बनाने में ही सब दुःख छुपा हुआ है। उनको विधवा न बनाने से ही उनका दैन्य दूर किया जा सकता है। उनके सोलह श्रृंगार के साथ उनको फिर से एक बार नसीब आजमाने के लिए स्वतंत्रता देनी चाहिए। उसने झट से अपने बदन पर हाथ फेर लिया। उसके बदन पर एक भी गहना नहीं था। पूरा श्रृंगार उतारा गया था। अपना श्रृंगार उतारा गया, इसलिए उसे अब सचमुच दुःख हुआ और रोने को मन चाहा । यह तो कुछ भी नहीं। इस तरह शृंगार से वंचित होना ही एक तरह से आत्मविश्वास खोकर जीवन की दुर्गति होना है।

अचानक साँप की फुफकार की तरह मन के थाह से संस्काररूपी साँप के फुफकारों की आवाज उठी। 'तू दुष्ट कृतघ्न अपशकुनी ! तू पति से प्रेम ही नहीं करती।'

उसने ईमानदारी से अपने मन से कहा, 'मेरा प्रेम दिशाहीन था । मुझे अपने प्रेम की जाति समझ में नहीं आई, पर वह प्यार, निस्स्वार्थी प्यार नहीं था। उसमें प्रेम से अधिक जरूरत थी। जरूरत और फिर संस्कार मेरी एक सहेली का प्रेम विवाह हुआ। कुछ समय तक प्यार की तड़प में वह पागल सी बनी, पर उसके बाद पता नहीं क्या हुआ, कैसा मतभेद हुआ ? एक-दूसरे को देखते ही उन दोनों की आँखों में खून उतर आता। अब तीन वर्षों से वे एक-दूसरे से अलग होने के लिए कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। '

फिर भी अंतर्मन यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था जैसे कि उसके साथ झगड़ने के लिए तत्पर रहा हो। मनुष्य में मनुष्यता, कृतज्ञता, दया आदि गुण होते ही हैं।

अब वह कुछ ज्यादा ही हँस पड़ी। यहाँ तक कि उस हँसी की आवाज बाहर फूटी। मेरी एक मौसेरी बहन थी। इतनी नाजुक कि खिली हुई सुनी की डाली जैसी इतनी गोरी कि मानो पूनम की चाँदनी से उसका शरीर गढ़ा गया हो। मन से बड़ी कोमल और प्यारी डाली का फूल मुरझा गया तो भी उसकी आँखों में आँसू आ जाते थे। एक दिन उसे पति और ससुरालवालों ने जलाकर मार डाला, क्योंकि दहेज में वह स्कूटर नहीं लाई थी। स्कूटर तो लोहा और टीन की निर्जीव चीज है। स्कूटर के लिए हिरन के शावक जैसी मेरी सुंदर बहन को जलाकर मार डाला। कुछ ही दिन पहले उसके पति को रोबदार कपड़े पहनकर, बालों में सुगंधित तेल डालकर, बड़े ऐंठ से घूमते हुए मैंने देखा। तब से मनुष्य पर से विश्वास, मानवता पर से श्रद्धा, खाने-पीने की मेरी इच्छा ही उठ गई है।

अब उसने मन- -ही-मन निश्चय किया, मैं सब संस्कारों को मिटा दूँगी। सब परंपराओं को तोड़ दूँगी। मैं वैधव्य की चद्दर ओढ़कर जीवन नहीं बिताऊँगी। मेरा जीवन विधवा का अपमानित जीवन नहीं होगा और मैं किसी की मौत का दुःख नहीं मनाऊँगी। अगर वह मेरा पति न होता तो भी उसकी मृत्यु अटल थी।

फिर एकदम उसकी समझ में आया। अपनी पूरी जिम्मेदारी पति पर छोड़कर, उसी पर विश्वास करके उससे एकनिष्ठ रहना, उससे प्यार जताना ही स्त्रियों की दयनीय, दुःखद स्थिति का मूल कारण है। इसी के कारण दहेज बलि और अशुभ वैधव्य का निर्माण होता है। ज्यादा-से-ज्यादा पति यानी कामभोग का साथी, ऐसा हम मान सकते हैं। किसी नालायक ने उसे परमेश्वर कहा और तब से स्त्रियों की त्रासदी शुरू हुई। अब इस प्रथा को एक अलग ही मोड़ मिला है। वैशाली ने अनजाने में शांति को पुकारा, “शांति, खाना तैयार है ?"

बाहर के कमरे में बैठे ससुर ने अपने कमरे में बिस्तर पर पड़ी बुआ ने कान लगाकर सुना। पागलों की तरह यह क्या पूछ रही है ? इसका सिर फिर तो नहीं गया ?

वैशाली ने फिर से शांति को आवाज दी, “शांति, खाना तैयार हुआ तो खाना परोसो और पापा, अमेय को बुला दो। बुआ के लिए खाना, उनके कमरे में जाना।"

फिर से घर आश्चर्य और चिंता में डूब जाता है। चारों तरफ का अँधेरा तूफान की तरह घर में घुस आया और वहीं पर जम गया। शांति खाना परोसकर ससुर और देवर को जगाने गई, लेकिन कोई खाना खाने के लिए उठ ही नहीं रहा था। बुआ ने कमरे में से ही कहा, “थोड़ा सा खा लो। भूखे रहकर मरना है क्या ? फिर हम दो विधवाएँ जिएँ तो क्यों ? हम दोनों मिलकर जान दे देंगी। "

वैशाली को बुआ के बोल बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगे। ममतामयी बुआ ने ऐसा क्यों कहा? जब मैं नई-नई दुल्हन बनकर आई थी, तब वे मेरा कितना लाड़-प्यार करती थीं, नाखूनों से लेकर बालों तक सँवारती थीं। मुझे पूरे श्रृंगार के साथ सौभाग्यवती के रूप में देखकर खुश हो जाती थीं और आज वह बुआ ऐसे अभद्र बोल कैसे बोलने लगी ? पर मैं उसकी तरह केशव पन नहीं करूँगी। विधवाओं का केशवपन करना, उन्हें चिता पर जलाकर मारना, ऐसी बातों का जमाना गुजर गया। क्या रह गया है? अब तो मेरे मन में स्वतंत्रता के भाव उमड़ रहे हैं।

जैसे-तैसे थोड़ा-सा खाना गले के नीचे उतारकर ससुर और देवर चुपचाप सो गए। शांति खाने की थाली लेकर बुआ के कमरे में गई, पर उन्होंने खाना खाने से साफ इनकार कर दिया। बुआ ने कहा, “मेरी ही गोद में पला-फूला हट्टा-कट्टा लड़का चल बसा। अब हमें अनशन करके ही मरना पड़ेगा। "

वैशाली के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। वैशाली ने संकेत करके अपने लिए खाना परोसने को कहा। वह उठकर, मुँह धोने स्नानघर में गई। शांति परोसने लगी। शायद बुआ का ध्यान और कान इसी ओर थे। वैशाली खाना खाने बैठ गई। उसने पतीली उलटकर थाली में और चावल परोस लिये, उसपर और थोड़ी कढ़ी डाल दी। चावल-कढ़ी मिलाने ही लगी थी तो बुआ अचानक सामने आई, "उठ, हट जा थाली के सामने से पति के मरने के बाद पत्नी को बारह दिन तक रात का खाना नहीं खाना चाहिए।"

वैशाली चुपचाप चावल-कढ़ी मिलाती रही। बुआ ने थाली खींचकर, उसमें परोसा हुआ खाना बेसिन में फेंक दिया। थाली वहीं छोड़कर वह अपने कमरे में गई। जाते-जाते धीमी आवाज में बड़बड़ाती रही, “वैधव्य के नियम बड़े कड़े होते हैं। गलती होने पर बड़ा पाप लगता है। इस जन्म में तो ऐसा हुआ, किंतु अगले जन्म में तो भला होना चाहिए।" वैशाली ने पानी से भरा लोटा उठाया और गट-गट आवाज करते हुए एक ही दम में पानी पिया और मँझले कमरे में चादर फैलाकर सो गई। हमेशा की तरह अपने कमरे में जाने को उसका मन नहीं कर रहा था। वहाँ पर सिर्फ शराब की बदबू आ रही है, ऐसा उसे लगा। इस बात के अलावा उसे और किसी बात की याद नहीं आ रही थी। उसके तन-मन में जैसे शराब की बदबू फैली हुई थी।

चादर पर पड़े पड़े वह सोच रही थी, हिमालय पर हाइकिंग करके आई हुई मैं, टेनिस में इनाम जीतनेवाली मैं, क्या इन लोगों के संस्कारों, शाखों और परंपराओं के सामने झुक जाऊँगी ? वह डर गई। फिर उसने सोचा, यह इतना-सा घर। उसमें बुआ और ससुर। इसके अलावा दुनिया बड़ी है, मुक्ति और संतोष से भरी है। मेरी नौकरी, मेरा वाचन, मेरा संगीत, इसमें मैं मगन रह सकती हूँ।

तेरहवीं के दिन माँ और पिता, उसे कुछ दिनों के लिए मैके लेने आए थे। एक अच्छी साड़ी पहनने की सोचकर वह अलमारी के पास गई। अलमारी खोलकर देखा तो अंदर एक भी रंगीन या फूलोंवाली साड़ी नहीं थी। उसने अचानक जोर से कहा, "मेरी साड़ियाँ कहाँ गई ?"

बुआ कहीं आसपास ही थी। उसने सामने आकर कहा, “अब साड़ियों की गठरी बाँधकर ऊपर की कोठी में रख दी है। जब तुम्हें ऐसी साड़ियाँ ही नहीं पहननी हैं तो उन्हें सामने रखना ही क्यों ?"

"तब, अब मैं क्या पहनूँ ?"

“कल पंडित ने धार्मिक विधि करके तुम्हारे लिए देवर के हाथ दो सफेद साड़ियाँ दी हैं। वही पहनना।"

माँ ने भी कहा, "अब रंगीन छींटवाली साड़ियाँ तुम्हें नहीं पहननी चाहिए। लोग क्या कहेंगे?"

कभी सेनाधिकारी रहे पिता का भी शायद यही कहना था, इसलिए वे चुप रहे ।

वैशाली धम्म से जमीन पर बैठ गई और रोने लगी। रोते-रोते कहने लगी, “मैं सफेद साड़ी नहीं पहनूँगी। तुम मुझे मेरी अपनी रंगीन साड़ी दे दो।"

"नहीं, अब तुझे रंगीन साड़ी नहीं मिलेगी।"

“मैं पाँव पड़ती हूँ, मुझे मेरी रंगीन साड़ी दे दो।" वह छोटी बच्ची की तरह रोने लगी।

पिताजी आगे बढ़े। उन्होंने उसका कंधा पकड़कर कहा, “बिटिया, हर एक परिवार की अपनी-अपनी परंपरा होती है। हमारी सेना में जैसे अनुशासन होता है, वैसे ही उनके भी शाख और परंपराएँ होती हैं। तू पाठशाला जाते समय जैसे यूनिफॉर्म पहनती थी न ? वैसे भी सफेद वस्त्र साफ और पवित्र माने जाते हैं। "

"पापा, मुझे ही क्यों इस पवित्रता की रक्षा करनी है ?"

"मेरी बिटिया, यह एक जंग है। कभी-कभी चुपचाप बलिदान करना पड़ता है। शायद इसी में धर्म का, समाज का हित हो।"

"पर मैं कुछ भी नहीं मानूँगी। मैं इसके विरुद्ध विद्रोह करूँगी।"

बाहर नजदीक ही ससुर चुपचाप खड़े थे। बुआ बीच-बीच में कराह रही थी। पिता ने कहा, “ विद्रोह करोगी, मतलब निश्चित तौर पर क्या ? रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहनोगी, बालों में फूल लगाओगी, टीका लगाओगी, इतना ही करोगी न? ऐसा करने पर तुम पर और बंधन लादे जाएँगे। लोगों की बुरी नजरें, कुत्सित बोल के बंधन पड़ेंगे। तुम समाज से और दूर हो जाओगी।"

“पापा, आपने मुझमें ट्रैकिंग, हाइकिंग में रुचि पैदा की। कभी-कभी 'जय जवान' कहकर आप मुझे पुकारते थे। अब आप मुझ पर यह गंदा वैधव्य लाद रहे हैं?"

“मेरे हाथों में कुछ नहीं है, बिटिया ! समाज-पुरुष की शक्ति बड़ी होती है। समाज में एक-दो व्यक्ति नहीं होते। वह हजारों पागल मनुष्यों का एक समूह है। "

अचानक ससुरजी अंदर आए। उन्होंने कहा, “सिर्फ सफेद साड़ी पहनने के लिए ही तो कहा गया है, न ? चिता पर चढ़कर सती होने के लिए तो नहीं कहा। हमारे परिवार की यह परंपरा है। तुझे इस परंपरा का पालन करना ही पड़ेगा। जब पति ही चल बसा तो तुझे अच्छे-अच्छे कपड़ों का मोह क्यों ? सफेद कपड़े तुझे पहनने ही पड़ेंगे।"

माँ ने हाथ पकड़कर उसे उठाया, भीतर ले गई और उसे सफेद वस्त्र पहनाए ।

वैशाली ने मन-ही-मन कहा, उसकी लाश पर भी ऐसा ही कफन था । अब मरने से पहले ही मेरे शरीर पर सफेद कपड़े हैं। जीते-जी मैं जिंदा लाश क्यों बनूँ? मेरे साथ उसकी शादी न होती तो क्या वह नहीं मरता ? हम दोनों अलग-अलग हैं। मरने के बाद भी हमें क्यों बंधन में रखते हैं?

दो दिन के बाद, मैके से वापस लौटते ही उसे पता चला कि उसके कमरे से कैसेट प्लेयर गायब है। उसने देवर से पूछा, “यहाँ का कैसेट प्लेयर कहाँ गया ?"

“बुआ ने निकालकर रखने के लिए कहा था, भाभी ! " बुआ पास ही थी। उसने कहा, “तुम्हारे कमरे से संगीत के स्वर सुनाई देने पर लोग क्या कहेंगे? "

घर में चार दिन रहकर दम घुटने लगा। उकताहट और निराशा ने उसे पूरी तरह घेर लिया। किसी भी तरह इससे मुक्ति पाने के लिए मन तड़पने लगा। एक दिन सुबह-सवेरे वह नौकरी पर जाने के लिए तैयार हुई, घरवालों की आशानुसार सफेद साड़ी में ही।

सफेद वस्त्रों में उसे बुआ ने प्यार भरी नजरों से देखा । ससुरजी ने उसको निहारा। बुआ ने कहा, " तू नौकरी पर चली जा । थोड़ा आराम मिलेगा। जरा मन हलका होगा।"

वैशाली ने मन-ही-मन कहा, 'नौकरी करने जाते देखकर घर के सब लोग खुश हो गए हैं। बेटे की कमाई बंद हो गई। अब इनकी नजर मेरी कमाई पर है। ससुरजी की पेंशन में कैसे गुजारा होगा ?'

वह रिक्शे से ऑफिस में पहुँची। उसको देखकर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। ऑफिस के सब लोग हॉस्पिटल में या घर पर आए थे। वह सीधे मैनेजर अरविंद राव के केबिन में चली गई। राव उसे देखते ही उठकर खड़ा हुआ। उसे बैठने को कहा । वह चुपचाप राव के सामने बैठ गई। उसके सफेद कपड़े और फीका चेहरा देखकर राव को बुरा लगा। उन्हें लगा कि उसका सौंदर्य, उसकी तड़प, उसकी हँसी कहीं खो गई है। यह पहले की पी. आर. ओ. वैशाली नहीं लगती। पहले जब वह ऑफिस में कदम रखती थी तो पूरा वातावरण चैतन्यमय बन जाता था। अब उसके आने पर कुछ देर तक सबकुछ संकोच के कारण शांत हो गया है।

“सर, मैं काम पर जॉइन होने आई हूँ। क्लांइट कंप्लेंट रजिस्टर किसके पास है, जरा देखिए। "

राव ने संकोच भरे शब्दों में हलके से पूछा, "क्या इसके आगे तुम सफेद ही कपड़े पहनोगी ?"

वैशाली ने सिर हिलाकर, 'हाँ' कहा! चेहरे के मेकअप के संबंध में भी पूछे, ऐसा राव को लगा, पर उन्होंने नहीं पूछा। कहा, “पी.आर.ओ. की नौकरी किस तरह की होती है, यह मालूम है न ? हवाई अड्डे पर जाओ, कॉन्फ्रेंस का आयोजन करो, क्लाइंट से अच्छे संबंध रखो - ऐसे होशियारी के काम पी.आर.ओ. को करने पड़ते हैं। इस सब में ऊपरी दिखावे की जरूरत ही ज्यादा होती है। तुम्हारे इस पहनावे में यह कैसे होगा ?"

वैशाली सहम गई। हे ईश्वर, क्या कहना चाहते हैं ये ? डरकर उसने पूछा, "सर, ऐसा हुआ तो है। अब मैं क्या करूँ ?"

"हर एक नौकरी का स्वरूप अलग होता है, उसकी माँग भी अलग होती है। तुम जानती हो, इस नौकरी के इश्तहार में यह स्पष्ट किया गया था कि सुंदर, आकर्षक व्यक्तित्ववाली पी. आर. ओ. चाहिए। अब तुम्हारी यह हालत है। सजने-सँवरने को तो तुम्हें मिलेगा ही नहीं। "

“सर, मैं क्या कर सकती हूँ?" वैशाली फूट-फूटकर रोने लगी।

"अब हम ऐसा करेंगे, तुम एकाउंट्स सेक्शन में सीनियर क्लर्क की हैसियत से काम करो। वेतन उतना ही मिलेगा।"

वैशाली का कलेजा धड़कने लगा, “सर, मुझसे अंकों का जोड़ बाकी करने का यह उकताहट भरा काम नहीं होगा। यह काम मेरे लिए बेकार है। "

“और कुछ चारा नहीं है। सच पूछो तो तुम्हारी भलाई के लिए ही मैं कह रहा हूँ। तुम पर यह एहसान ही है। नहीं तो तुम्हें इस्तीफा देना पड़ेगा।"

वैशाली चुप रही। राव ने इंटरकॉम द्वारा एकाउंट्स विभाग में काम करनेवाले घोरपड़े को वैशाली के बारे में बताया और कुछ सूचनाएँ दीं। इसके बाद वैशाली को उन्होंने कहा, "तुम एकाउंट्स विभाग में चली जाओ । जाकर घोरपड़े से मिलो। वह तुम्हें सबकुछ समझा देगा।"

मानो वैशाली के हाथ-पाँव का त्राण ही चला गया। उसे लगा कि आज तक उभरकर निखरा हुआ अपना तेज-तर्रार व्यक्तित्व, अपनी होशियारी एक ही क्षण में बह निकली है। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो गया। राव ने तो पल भर में सब धागे तोड़ दिए। किसी तरह वह वहाँ से उठी और बाहर की ओर निकल पड़ी। उसे लगा, इससे पहले उसका इतना बड़ा अपमान किसी ने नहीं किया होगा। फिर उसे लगा, असल में वैधव्य ही सबसे बड़ा अपमान है। बाकी सब छोटे-मोटे, लेकिन उसी संदर्भ में किए गए अपमान हैं उसे लगा कि नौकरी पर लात मारकर निकल जाए, पर जाएगी कहाँ ? यहाँ थोड़ा तो अपनत्व है, आशा है। इसे गँवाना नहीं चाहिए। अब मेरे लिए पूरी दुनिया एक जैसी है। किसी तरह पाँव घसीटते हुए वह इमारत के पीछे के एकाउंट्स विभाग में चली गई। कभी इसी इमारत के सामनेवाले ऑफिस में मैं तितली की तरह हँसती-उड़ती थी। मेरे शब्द सुनने के लिए और मेरी मुसकराहट देखने के लिए ऑफिस के लोग उत्सुक रहते थे। वहीं मैं आज पीछेवाली इमारत में जा रही हूँ, जैसे किसी गुफा में मुझे मुँह छिपाना है।

एकाउंट्स विभाग में घोरपड़े ने आदर से उसका स्वागत किया। स्वयं उठकर उसे उसकी मेज के पास बिठाया। मेज पर पहले से ही फाइलें और रजिस्टरों का ढेर पड़ा था। उसी समय वैशाली ने देखा कि वहाँ के कर्मचारी किसी एक युवक को पी. आर. ओ. का पद मिलने पर उसका अभिनंदन कर रहे हैं।

कुछ समय के लिए वैशाली सुन्न हो गई। पति के मरने से वह विधवा हो गई है, इसका उसे पहली बार एहसास हुआ और उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी उमड़ पड़ी।

(अनुवाद : शोभा वेरेंकर)

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