घूर (पंजाबी कहानी) : गुरमीत कड़ियालवी

Ghoor (Punjabi Story) : Gurmeet Karyalvi

गाँव तो अब बिल्कुल शहर के कांधे पर आ चढ़ा एक बड़ा तालाब और अठारह - बीस खेत ही शहर और गांव के बीच रह गए हैं । गांव है भी ऐन जी . टी . रोड पर। गांव की जमीन शहर से भी महंगी बिक रही है क्योंकि शहर की तंग गलियों से निकल कर अमीर - उमरा बाहर गांव के आसपास महलनुमा कोठियां बनवा रहे थे और दो - चार साल में गांव और शहर में फर्क ही नहीं रहना था। तालाब के किनारे से गुजरते रास्ते से आगे पड़ी जगह पर वेहड़े वालों ( दलित बस्तियां ) के घरों का कूड़ा करकट डालने को घूर हैं । अनगिनत वर्षों से वेहड़े की औरतें घरों का कूड़ा यहीं डालती आ रही हैं । सूखे कंडे ( उपले ) सलीके के साथ चिन कर कंडौर भी लगे थे । वेहड़े की कई औरतें चाहे स्वयं कोई पशु नहीं रखतीं पर जाटों जमीदारों के घरों में काम करते गोबर भर कर ले आती हैं । उस गोबर को पाथ कर अच्छा खासा कंडा जमा कर लेती हैं जो अपने लिए ईंधन के अलावा बेचने भर को भी होता है । इस तरह यह घूर पिछली कई सदियों से जैसे बेहड़े वालों के जीवन का अटूट अंग बने हुए थे । पिछले लम्बे अर्शे से वेहड़े के युवक - युवतियों की आपसी बहुत सारी बातों का भेद इन घूरों के पास है। इश्क मुहब्बत के अनेक चिट्ठी - पत्तर कंडौरों की कंदराओं ने जिगरे वाली औरत की तरह अपने सीने में संभाले हुए हैं ।

वैसे गांव वालों या वेहड़े वालों के लिए यह बात बहुत माने नहीं रखती थी कि गांव की कुछ निचली जातियों के लोग पढ़ - लिख गए थे और उन्हें इन घूरों से दुर्गंध आने लग पड़ी थी । यह बात अलग कि पढ़े - लिखे और अब खबी खान बने इन लोगों का जीवन इन घूरों में हो बीता है । यह पढ़े - लिखे नौकरीपेशा लोग मूर की बदबू से डरते शहर में जाकर रहने लगे हैं । वैसे यह बात भी अजीब है कि कई तो शहर के उस हिस्से में रहते हैं जिनकी हालत गांव के पूर के पास के इस हिस्से से कहीं बदतर है । बल्कि गांव के बेहड़े वाले तो इन लोगों के बारे में कहते हैं कि ये स्वर्ग से निकल कर नरक में जा फंसे हैं । इसके विपरीत शहर जा कर किराए पर रहने लगा गिंदू मजहबी ( दलित सिख ) का मास्टर बना पुत्र कहता है, "गांव में तो जिंदगी घूर जैसी ही थी । हरेक हमें गंद ही समझता था । यहां आकर कम से कम आदमी तो समझे जाने लगे हैं । आस - पड़ोस किसी को पता नहीं कि हम किस जाति कुजाति के हैं । दरवाजे के बाहर अमरीक सिंह रंधावा , एम.ए. , बी . एड . की नेम प्लेट लगा ली है । आस - पड़ोस रंधावा साहब रंधाबा साहब करता है । अच्छी इज्जत बनी हुई है । गांव में क्या था ? गांव वाले तो यही समझते थे कि गिंदू मजहबी का लड़का मरीका है । जो छोटा होता था तब हमारे जानवर चराता होता था । आदमी तो वे हमें समझते ही नहीं थे । दूसरों का कहना अपने कुनबे - कबीले में कौन समझता था । वह भी यही कहता भई , मास्टर किस तरह बन गया । हमारी तरह दिहाड़ियां क्यों नहीं करता । बिरादरी की सोच में भी घूरों की तरह ही गंद भरा पड़ा है।'

बेहड़े का रहने वाला दसवीं पास करने के बाद नौकरी ढूंढता - ढूंढता लीडर बना और दूर दूर रैलियां प्रदर्शन पर जाता किरपू जुलाहे का लड़का गामा अलग ढंग से सोचता है । वह बेहड़े वालों को गुलाम कहता है । उसका कहना है इन बेहड़े वालों को सदियों से गुलाम बना कर रखा गया है । इनको आपस में लड़ा कर राज - भाग से महरूम किया गया । यदि इनको एक कर लिया जाय तो गांव की प्रधानी जेब में रखी है । यदि बेहडे की गलियां , नालियां टूटी हैं तो इसके लिए यह स्वयं दोषी हैं । इनको स्वयं बढ़ कर प्रधानी लेनी चाहिए है। बेहड़े वाले संख्या की दृष्टि से अधिक हैं। प्रधानी लेना कोई इतना मुश्किल काम नहीं है । गांव की प्रधानी एक बार हाथ में लेकर सारे काम स्वयं करने लायक बनें । प्रधान बन कर गलियां नालियां पक्की करें । वाटर वर्क्स का पानी वेहड़े को छोड़कर सारे गांव में पहुंचता है । वेहड़े की ओर महकमे ने पाइप लाइन ही नहीं बिछाई। गामा कहता रहता है कि प्रधानी हाथ में लेकर वेहड़े वाले वाटर वर्क्स का स्वच्छ जल पीने लगेंगे । वेहड़े के बीच से ही होकर गंदे पानी का नाला जाता है । आगे जाकर यह नाला बड़े नाले में जा गिरता था । बरसात का पानी भी इस नाले से होकर बाहर जाता था । अब पिछले काफी समय से गांव के बहुत से जाटों ने खाले ( नहर की शाखा ) को जोत कर अपने खेत में मिला लिया है । इससे बरसात का पानी बड़े नाले में जा नहीं पाता है । बरसात के दिनों में सारा बेहड़ा तालाब बन जाता है । पानी घरों में जा घुसता है । कई घरों के बर्तन भांडे पानी में तैरते रहते हैं । गामा अक्सर झगड़ता है कि वेहड़े वाले हल्ला बोल कर खाला जर्मीदारों से खाली कराएं । कई बार पंचायत को लिखकर दिया है पर नतीजा कुछ नहीं निकला । प्रधान किसी को मुंह खोलकर खाल के लिए नपी जगह छोड़ने के लिए कहता ही नहीं। बरसात के दिनों में बेहड़े वाले शोर मचाते हैं कि बात आई गई हो जाती है । ऐसा हर आए साल होता है । वेहड़े के खड़पंच तो बल्कि यह कहते हैं कि पढ़ - लिख कर गामे का दिमाग खराब हो गया है । वह अपनी लीडरी चमकाने के लिए वेहड़े वालों को जाटों से लड़ाने को फिरता है । प्रधान और उसके पक्षधर गामे पर खासे क्रुद्ध हैं । वह वेहड़े वालों में प्रचार करते हैं कि गामा बाहरी मुल्क का एजेंट है , उसको गांव के लोगों को आपस में लड़ा कर रखने के लिए पैसे मिलते हैं । प्रधान के पक्षधरों का यह प्रचार अच्छी काट करता है । इसीसे दो - चार को छोड़ कर गामे की कोई नहीं सुनता ।

गामा उम्र में यद्यपि छोटा है पर बातें बड़ी - बड़ी करता है । इस कारण चौधरी किस्म के लोग कहते हैं, "जन्मा अभी ठीक से नहीं बातें करता है राज - पाट की ।'

गामा वेहड़े वालों को कहता है अपने घर के सामने सफाई रखो । वेहड़े की औरतें कूड़ा डालते घूर एन रास्ते पर ले आती हैं। आधा रास्ता घूर से घिर जाता है। कई बार तो रास्ता ही बंद हो जाता है । गुजरने वाले के लिए राह ही नहीं बतती। शहर जाने के लिए सारे गांव में यह ही एक रास्ता है। औरतों का लगाया घूरा राहगीरों का चलना दूधर किए होता है । कूड़ा - करकट पानी में तैरने लगती है । बरसात के पानी का रंग बिना दूध के कड़ी चाय जैसा हो जाता है । सड़ांध नाक में चढ़ने लगती है । ऊंचे घरों की सजी - संचरी महिलाओं के लिए नाक पर रूमाल रखकर भी लाना कठिन हो जाता है । कीचड़ के छींटे कई बार नए - नकोर कपड़ों का हुलिया बिगाड़ देते हैं । यद्यपि प्रधान आम तौर पर ग्राम पंचायत के बेहड़े वाले सदस्यों को अपने घर बुलाने के लिए चौकीदार को भेज देता है पर काम - धंधे के लिए कभी - कभार उसको इधर का चक्कर लगाना ही पड़ता है। बेहड़े वाले इस नरक का कोई न कोई हल करने के लिए हाथ जोड़ कर प्रधान को कहते तो हैं पर तगड़े होकर नहीं। बेहड़े से बने सदस्य गरीब सिंह और आशा राम आए साल अपने भाई - बंधुओं को विश्वास दिलाते है कि बंद पड़ा खाल खुलवा देंगे । पानी का निकास होने से बरसात के दिनों में नरक नहीं बजबजाएगा।

कई प्रधानियां गुजर गई हैं , इस नरक से पीछा छुड़ाने की तरकीबे बनती आई हैं । पहले प्रधान लाउड स्पोकर से आवाजें दिलाते रहते थे, "अपने अपने घर रास्ते से पीछे हटा लो भाई .... नहीं तो भाई सरकार कार्रवाई करेगी भाई , प्रधान साहब कहते हैं फिर मुझे उलाहना न देना।"

गुरुद्वारे के भाई जी द्वारा तीन - चार दिन आवाज़ देने से लोग घूर को कुछ पीछे हटा देते हैं पर महीने भर के बीच ही बीच घूर फिर पहले वाली जगह पहुंच जाता । रास्ते पर बजबजाते नरक से कोई यदि सबसे अधिक दुखी है तो वह है गामा । वह जहां वेहड़े वालों को घूर पोछे हटाने के लिए कहता रहता है , वहां रास्ते के साथ साथ दो - दो फुट दीवाल उठाने और बड़े नाले तक खाला निकलवाने के लिए , बी.डी.पी.ओ , डी.डी.पी.ओ. और डी.सी. के दफ्तर अर्जियां भी देता रहता है । वैसे यह बात अलग है कि उसको किसी अर्जी पर आज तक अमल नहीं हुआ ।

सज - संवर , बन ठन कर शहर जाने वाली औरतों और व्यक्तियों की आंखों में रास्ते के साथ लगे यह घूर काफी समय से गड़ता रहा है । पिछले समय से इस जगह की गड़न , सफेदपोश शेर सिंह , जिसको पीठ पीछे गांव वाले ' गोदड़ ' कहते हैं , की आंखों में होने लगी है । सफेदपोश पूरा घाघ जुआरी है । उसकी जमीन एक तरफ से इन घूरों से लगती है तो दूसरी तरफ बड़े तालाब के साथ। वह अंदर - अंदर स्कीमें गढ़ता रहता है , यदि घूरों वाली यह जगह कब्जे में आ जाए तो धीरे धीरे आधा तालाब भी कब्जे में किया जा सकता है । शहर के बिल्कुल पास आ जाने से यह जगह हीरे को खान बन गई । है । सफेदपोश आंखों ही आँखों में घूर वाली जगह फुटों और गजों में मापता था। गज , फुटों को रुपए से गुणा करता , हिसाब - किताब करोड़ों तक ले जाता । सफेदपोश , प्रधान का लंग्डेटिया यार है । शाम होते ही प्रधान की हवेली में जाम टकराने लगते । गांव के विकास की स्कीमें वहीं हो गढ़ी जाती । सफेदपोश की स्कीम प्रधान के दिल को भा गई थी कि वेहड़े वालों के घरों के सामने लगे घूर उठा कर वहां पार्क बनवा दिया जाए । बिल्कुल उस जैसा पार्क जैसा शहर के पॉश इलाके में होता है । पार्क में बच्चों को खेलने के लिए झूले लगवाए जा सकते थे और साथ लगते बड़े तालाब की सफाई करा कर सरोवर बनाया जा सकता था । सैर - सपाटे को यह एक बढ़िया पिकनिक स्पॉट होगा जहां दूर - दूर के लोग आया करेंगे । इससे गांव को आमदनी भी बढ़ती है । यह स्कीम सफेदपोश और प्रधान ने बड़े सोच - विचार के बाद गढ़ी है । बेहड़े वालों के कब्जे से करोड़ों रुपए की जगह इस तरह से खाली कराई जा सकती थी ।

सफेदपोश और प्रधान अच्छी तरह समझते हैं कि गामा बेहड़े वालों को उकसाएगा जिससे घूर वाली जगह उन्हें आसानी से खाली नहीं करनी है । सफेदपोश ने दिमाग लगाया था,"हम पंचायत में प्रस्ताव पास करते हैं कि गांव का दृश्य सुंदर बनाने के लिए , इसको आदर्श गांव बनाने को , रास्ते से लगते घूरों की जगह पर पार्क बनाया जाएगा । पार्क बनाने के लिए चारदीवारी भी बना देंगे ।"दो - चार साल बाद लोग भूल भुला जाएंगे तब जगह अपने कब्जे में कर लेंगे ।

अंदरखाते बात तय हो गई थी कि पंचायत सरकारी रेट पर यह जगह सफेदपोश को दे देगी । फिर सफेदपोश यह जगह फुर्टो के हिसाब से बेचेंगे। हुए लाभ में प्रधान और सफेदपोश का आधा - आधा हिस्सा होगा । घूर वाली जगह पर पार्क बनाने का प्रस्ताव पेश करने के लिए वेहड़े वाले सदस्यों गरीब सिंह और आशाराम को साधने के लिए प्रधान ने गेहूं की दो - दो बोरियां अपने हलवाहों के हाथ दोनों के घर भेज दिए । घर की कड़ी दारू की एक - एक कैनी भी दोनों के पास जा पहुंची । दो दिन लगातार प्रधान के घर दारू प्याला छकते , उनकी बोली बदल गई, "भले मानुसों सारी उमर घूर की गंदगी में रहें, हमें क्या सुख कर दिया। यहां बनेगा पारक ... मार दूर - दूर से लाले ललाइनें सैल - सपाटा करने आइय करनगी। हमारे लिए सुरग। क्या कहने सुरग बन जाएगा।"

सदस्य जगह - जगह प्रचार करने लगे थे ।
"पारक तो बन जाए ... जम जम बनवाएं पर हम घूर कहां लगाएंगे ?"
कुछ लोगों ने सवाल खड़ा किया था ।
"हम बैठे जुम्मेवार , ढाब वाली पंचैती जमीन में से घूर के वास्ते दो - दो मरल्ले पिलाट कटवा कर देंगे तुम्हन का । चाहे घर ही बनवा लेव।"
सदस्यों को प्रधान ने अच्छी तरह पाठ पढ़ाया था । सदस्यों के कहने पर बेहड़े के कई घर शांत हो बैठे थे ।

"वो तो ठीक है - घर के सामने से घूर उठ जाए तो। एक तो जनम भी उहे जात मा परे हैंअ। उप्पर से गंद का ढेर ऐन दरवाजे के सामने लगाए बैठे हैं । यहां जगह अच्छी बन जाए तो हमें ही फाइदा। अपने ही बच्चे - लरिके खेला करनगे।'
वेहड़े के कई लोग कहने लगे थे ।
"ढाब वाली जमीन मा दुइ - दुइ मर्ले मिलेंगे तो नए बिआहे लड़कन का उहाँ दुई हाथ घर बनवा देंगे । उहाँ जाइ कर बहुअन के साथ मौज करें .... कि नहीं ?" कई उतावले ढाब पर बसने को ख्याली महल भी बनाने लगे ।

"सरदार साहब , घूरे वाली जगहा कउन अपने नाव चढ़ी है जो जबरन खाली कराइ लेंइ ... फिर को ठेंगा पकड़ लेंगे।"नंजण नंग ने तो अपना कानूनी नुक्ता बताना वाजिब समझा था ।

वेहड़े के लोगों के सदस्यों के पीछे लग जाने से गामा बड़ा दुखी था । उसने अकेले अकेले के पास जाकर प्रधान की जुंडली की मंशा बताई थी, "पार्क - पूर्क किसी भंडुवे ने नहीं बनाना। घूर की सारी जगह कब्जे में कर लेनी है। तुम देखोगे एक दिन तुम्हें प्लाट प्लूट भी किसी कंजर ने नहीं देना । यूं ही बातों में न आओ।"

केवल गामा ही समझता था कि एक बार जगह हाथ से निकल गई , फिर वापस हाथ में कुछ नहीं आना। बेहड़े वालों में इतना साहस कहां कि कोई उज्जर कर सकें । वह अक्सर बेहड़े वालों से कहता,

"गांव की साझी 82 किल्ले जमीन में से तीसरे हिस्से की अठाईस किल्ले हमारी बनती है । यह बेहड़े वालों को ठेके पर मिलनी चाहिए पर मिलती एक कनाल भी नहीं। किसी को क्या दोष ? हमारा अपना बिकाऊ माल कोई वश नहीं चलने देता । जमीदार कोई बेगैरत - सा मजहबी पटा लेता है आए साल । वह हिस्से में आए अठाईस किल्ले की बोली देकर जमीन आगे जमीदार को दे देता। हम तो बस अपनी कमजोरियों के मारे पड़े हैं । हमसे तो यू.पी. के भैये अच्छे उन्होंने कुछ तो किया।"

बेहड़े के कई लोग,"बातें तो भाई , लड़का सच्ची ही करता" कहते पर आवश्यकता पड़ने पर गामे के साथ चलता कोई नहीं।

गामा बेहड़े वाले सदस्यों की आंखों में सबसे अधिक गड़ता है । उनको गुस्सा है कि गामा मजहबियों का लीडर बनने को फिरता है । सदस्यों को डर है कि यदि बेहड़े वालों ने गामे के पीछे चलना शुरू किया तो उनकी चौधर सदा - सदा के लिए खत्म हो जाएगी और साथ ही साथ बंद हो जाएगी चलती आती दाल - रोटी। सदस्यों का डर जायज है क्योंकि नई पीढ़ी के कई युवा गामे की बात सुनने लगे हैं। वैसे चाहे घर वालों के डर से खुल कर गामे के साथ आने को अभी तैयार नहीं होते हैं । उनका दिया जरा भर भी समर्थन गामे के लिए बहुत बड़ी बात है । सदस्यों के डर में प्रधान और सफेदपोश का डर भी शामिल है । प्रधान ने अपने खास लोगों के माध्यम से गामे से सुलह - सफाई करना भी बुरा नहीं समझा । प्रधान अक्सर कहता रहता , अब तो सरकार भी मिली - जुली बनती । धाँसबाजी और अकेले चलने का जमाना अब जा चुका अब तो मिल - जुलकर चलने का समय है ' प्रधान अच्छी तरह समझता है कि अपनी चौधर बचा कर रखने के लिए गामे का साथ लेना ही पड़ेगा । कहीं गामा दूसरे धड़े के साथ जा मिला तो आते चुनाव में धोबी पाट भी लग सकता है ।

"गुरनाम सिंहा ! पार्क बनाने के लिए और फिर इसका प्रबंधन करने के लिए एक कमेटी बननी है । जो तू चाहे तो तुझे इसका सेक्रेटरी बनवा देता हूं । प्रधान ने तो सहमत नहीं होना तेरे नाम पर , किंतु यह मेरी जिम्मेदारी है मैं मना लूंगा । पार्क से आमदनी भी अच्छी - खासी होगी ... आते चुनाव में सदस्यी तेरी पक्की , खुद ले लेना चाहे किसी को दिला देनी । सोच ले ... जो मन मानता हो तो चलाऊं प्रधान से बात ...।"

प्रधान के दूत ने ठहरे पानी में पत्थर फेंक मारा। गामा जानता था कि सारी कहानी प्रधान ने गड़ी है , वह बस जरा सा हंसा था , "कोई बात नहीं सोच लूंगा ।"

प्रधान का दूत कई दिन गामे का मुंह मन लेता रहा पर गामे ने इस पेशकश पर ध्यान नहीं दिया। गामे को प्रधान की जुंडली के नीयत के बारे में किसी तरह के शक की गुंजाइश नहीं थी । गामे ने अपना प्रचार बल्कि तीखा कर दिया,

"पार्क बनाएं जम जम कर बनाएं , पर नीयत नहीं साफ इनकी। पंचायती जगह खाली पड़ी है ऐन गांव के बीच , वहां गंदगी फैली रहती है । वहां बनाओ पार्क। गिब्बे बिना ठेका दिए पंचायती जमीन पर खेती करे जाता कितने समय से धक्केशाही के साथ। वेहड़े वालों के घूर की जगह ही क्यों इनकी आंखों में गड़ती ।'

गामे की बातें असर करती हैं , पर सिर्फ उन बेहड़े वालों पर जिनके लड़के पढ़ - लिखकर नौकरीपेशा हो गए हैं या वह हूं - ह्यं करते जो हलवाही - चरवाही का काम छोड़ कर शहर में दिहाड़ियां करने लगे हैं । शहर में मिस्त्री के साथ दिहाड़ी करने जाता विंदा कहता,

"अपने घरों से दुर्गंध आती ? भाई साहब शहर के पार्क की हालत जाकर देखो सारे शहर की गंदगी वहां फेंकी जाती । गंद में सुआर लेटते रहते सारे दिन । पास से गुजरा भी नहीं जाता । खाया - पिया बाहर आ जाता । इसके मुकाबले तो अपने घूर पर तो समझो इत्र फुलेल छिड़का है।"
बिदे की बात पर लोग हंसते

"गांव को सुंदर बनाने का इतना ही शौक जागा है तो पहले यह काम गांव के दूसरे तरफ से शुरू करें। गिलों का सारा अगवारा सड़क के किनारे घूर लगाए बैठा । आधी सड़क छेकी पड़ी है । वहां से कौन गुजरना हो पाता है ... वहां नहीं दिखता किसी को ... ?" गामे ने प्रधान के जुंडली की कोई दलील नहीं चलने दी । अपनी सारी चालें उल्टी पड़ती देख जुंडली घबराहट में आ गई। सफेदपोश की आंखों के आगे सरसों फूली रहती। गामा खुश था , इस मुद्दे के कारण बेहड़े के कई लोगों को धीरे - धीरे अपने साथ जोड़ने में कामयाब रहेगा । गामे की सोहबत का असर था कि मास्टर अमरीक सिंह का बाप गिंदू बेहड़े वाले सदस्यों को सीधा कहने लगा, "सदस्यों प्रधान जैसों की प्यालियां चाटना छोड़ दो।"

बेहडे वाले सदस्यों ने प्रधान द्वारा तैयार की गई नई चाल चली । उन्होंने यह प्रचार जोर - शोर से शुरू किया,
"प्रधान की बेहड़े वालों को प्लाट देने की स्कीम है .... यह गामा काम सिरे नहीं चढ़ने देता । प्रधान के विरोधियों की उंगलियों के इशारे पर नाचता है।"

सदस्यों ने यह भी कहना शुरू किया,
"गामा रात - विरात ब्लैक करता है ... बहुत नोट कमा लिए इसने। इसे तो अब गांव वालों की जरूरत भी नहीं । हमारे बीच में फूट डालता है । अपना गांव वालों के बगैर कैसे गुजारा होगा ? आखिर किसी हवी - दबी में काम गांव वालों को ही आना है ।"

सदस्यों का यह प्रचार काट करता है । कई लोग कहते,"हां यार । जलसों जुलूसों में लगा फिरता रहता है । इसका गुजारा कैसे होता है ? हम एक दिन दिहाड़ी न जाएं तो चूल्हे में आग नहीं जलती ... यह कैसे काम चलाता है ? बात सोचने वाली है ..... कोई न कोई कारा तो करता ही होगा !"

सदस्यों ने वेहड़े के कई नाकारा किस्म के लोगों को दारू भी बांटनी शुरू कर दी । जनमत दिनों - दिन गामे के विरुद्ध होना शुरू हो गया । इस दौर दौरे , खींचतान के चलते ही एक दिन पुलिस ने छापा मारा । पुलिस गामे को गांव में से खींच कर थाने ले गई ।

"मेरा कुसूर बताओ .... मेरा कुसूर बताओ।"गामा चिल्लाता रहा।
"दिन दहाड़े पोस्त बेचता .... अभी कुसूर पूंछता ? यह पोस्त का थैला घर में कैसे आ गया तेरे ....? ' दो स्टारों वाले थानेदार ने लोगों को पोस्त का थैला दिखाते हुए कहा ।

गामा शोर मचाता रहा कि उसे नाजायज फसाया जा रहा है पर उसकी बात ..किसी ने सुनी ही नहीं । गामे का बाप खुद प्रधान के पास गया कि वह थानेदार को मिले । गांव के कई लोगों की मौजूदगी में प्रधान थानेदार से मिला । मौके पर जो साथ थे उन्होंने गांव आकर बताया, "प्रधान ने अपनी गारंटी दी कि लड़का यह काम नहीं कर सकता । लड़का पूरी तरह निर्दोष है । प्रधान ने बड़ा जोर लगाया कि लड़के को छोड़ो । पर थानेदार ने पैरों पर पानी ही नहीं पड़ने दिया । वह कहता लड़का पक्का स्मगलर है । उसकी गिरफ्तारी लिख - पढ़ दी है .... ऐसे कैसे छोड़ दें ? प्रधान क्या करता उसकी तो थानेदार ने बेइज्जती कर दी कि तुम समाज विरोधी तत्त्वों की पैरवी करते हो।"

वेहड़े वाले दो - चार गिंदू जैसे लोगों को ही पता था कि प्रधान और थानेदार की खूब छनती है । उनसे इनसाफ की कोई आश तो नहीं थी पर फिर भी बिरादरी के चार मोहतबर लोगों ने इकट्ठे होकर थानेदार से मिलना वाजिब समझा । थानेदार उनके आगे चारो खुर उठा कर पड़ गया, अच्छा , एक तो पंचायती ज़मीन पर लगाओ नाजायज घूर .... ऊपर से करो सीनाजोरी । साथ ही बेंचो अफीम - पोस्त ... तुम सबको तो मैं अकेले - अकेले अंदर करूंगा ... आ गए बड़े पंचायती बन कर। ' और यह ' मोहतवर ' लोग अपना मुंह लेकर वापस आ गए ।

इन मोहतबरों ने रास्ते से गुजरते अजब ही कौतुक देखा। बड़ी क्रेन ने घूरों को तालाब में डाल कर जगह बिल्कुल समतल कर दी थी । लगता ही नहीं था कि कभी यहां घूर रहे होंगे । वेहड़े के कई लोग अभी भी फावड़े से जमीन संवार रहे थे । नंजण नंग दारू वाली कैनी से काम में लगे लोगों को दारू परोस रहा था । गिंदू को देखकर नंजण नंग ने कहा था, "उठवाय दिहा प्रधान सैब ने अगवाड़े से घूरन को ।"

"प्रधाना , घूर तो अब हम उठवाएंगे , जो तुम्हारे दिमागों में लगे हैं।" सारी रात गांव में ललकारे गूंजते रहे । पर यह ललकारे प्रधान के घर की ओर ही सुने गए , वेहड़े वाले तो गहरी नींद में सोए पड़े थे । उनको तो सवेरे पता लगा।
"गिंदू को पुलिस पकड़ कर ले गई है .... कहते हैं गामे ने नाम लिया भई , मैं और गिंदू मिल कर स्मगलिंग करते थे।"

(अनुवाद : राजेन्द्र तिवारी)

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