घाना लोहार का : रोज केरकेट्टा
Ghana Lohar Ka : Rose Kerketta
गाँवों में बातें हवा से भी तेज चलती हैं। भरी दोपहरी में सड़क पर डकैती हुई और इस पर चर्चा न हो, यह संभव ही नहीं था। लोग बोल रहे थे, 'चालीस-पचास के लगभग यात्री थे, पर वे दस-बारह डकैतों का सामना नहीं कर सके। ऐसे डरपोक, नामर्द थे वे लोग। चालीस-पचास ही आगे चलकर चालीस मर्द से चालीस मरदान हो गए। आज तक यह स्थान सबको भयभीत करता है। इस घटना के बाद बलागीर के राजा ने अपनी बेटी को केसेलपुर ब्याहने से इनकार कर दिया। यह संदेश लेकर करबजदार केसेलपुर जा रहा था। पर वहाँ पहुँचा ही नहीं। वह जानता था, 'इस तरह का संदेश लेकर जाना मतलब फिर वापस नहीं आना।' सो उसने रास्ता बदल दिया। वह सोमारू सिंघ से मिला। सोमारू अपनी माँ से मिलने कचहरी आया था। आज उसकी पेशी थी। उसी की जुबानी यह कहानी सुनी।
सोमारू सिंघ की माँ 'बाहरिया' थी। सोमारू के बड़े भाई चंदरू सिंघ की माँ 'भितरिया' थी। सोमारू की नानी और बाद में सोमारू की माँ ने चंदरू को पाला-पोसा और बड़ा किया। जब चंदरू पैदा हुआ, तब सोमारू की नानी ही धांगरिन थी। बड़े कुशल थे उसके हाथ। चंदरू ठीकठाक पैदा हुआ था। खूब धूमधाम से उसकी छठी हुई। जमींदार जगत सिंघ ने मारकुस से रुपए का जुगाड़ किया। कुरसी-टेबल से लेकर मोहनभोग चावल तक। खस्सी, मुरगा से लेकर दरबान और हाथी तक। यह लेन-देन कचहरी में निबंधित हुआ। भोज से जमींदार का नाम चारों ओर फैल गया। बड़े सरकारी अफसर भी इस छठी में आए। कच्चा, पक्का सब बना। लोगों ने पेट सहला-सहलाकर खाया। बहुत दिनों तक लोग इस दावत को याद करते रहे। इस दावत की चर्चा करते हुए वे अनायास अपनी उँगलियाँ चाटने लगते थे।
छठी का कार्यक्रम समाप्त हुआ। मारकुस ने अपनी कुरसी-टेबल, दरबान और घंटी सब उठा लिये। बाकी मोहनभोग और अन्य खर्च के भुगतान के रूप में जगत सिंघ ने मझियस को लिख दिया।
चंदरू के पिता जगत सिंघ का एक बेटे की छठी में ही भट्ठा बैठ गया। घर की चमक चली गई। अच्छा खाना-पीना सपना हो गया। बिना काम के जगत सिंघ गाँव में इधर-उधर मटरगश्ती करता। चिंता के कारण चंदरू की माँ दुर्गावती ने बिछावन पकड़ लिया। दुर्गावती बीमार पड़ी तो चंदरू की देखभाल धाय माँ करने लगी। उसने अपना पूरा स्नेह चंदरू पर उड़ेल दिया। जब भी मौका मिलता, जगत सिंघ धाय माँ के प्रति आभार प्रकट करता। कभी-कभी धय माँ के घर पहुँच जाता। चटाई की प्रतीक्षा किए बिना दालान पर बैठ जाता। इतना नम्र हो गया था वह।
रोपनी, धाय माँ की बेटी, जगत सिंघ के लिए चटाई बिछा देतीं। वह बोलता, “धूप में चलकर आया हूँ, पहले पखार पानी तो पिला दो।" रोपनी आश्चर्य से पूछती, 'हमारा पानी आप पीएँगे?' जगता कहता, 'पीने के लिए ही माँग रहा हूँ, पैर धोने के लिए नहीं।' रोपनी अविश्वास से देखती। वह पीने का पानी गिलास में भरकर दूर रख देती। जगत सिंघ गिलास उठाकर पानी पी लेता। एक-दो बार रोपनी ने कहा भी, 'हम आपके पनपिया जात के नहीं हैं। लोग जानेंगे तो हमें मारेंगे। जगत बोलता, 'तुम नहीं बतलाओ तो कौन जानेगा?'
रोपनी कपास की जड़ की तरह माता-पिता की एकमात्र संतान थी। पिता दिनभर लकड़ी, फल-फूल और काम के लिए घूमता रहता। माँ जगत के घर सुबह जाती तो सूरज ढलने पर ही वापस आती। रोपनी घर का सारा काम करती। काम ही क्या था—दो छोटे कमरे और दालान। मिट्टी के दो-चार बरतन, जिन्हें साफ करने में जरा भी समय नहीं लगता। चावल-साग सब उबालकर रख देती। फिर निकल जाती घर से दूर बरगद और जामुन, आम और बड़हर की खोज में। मधुर फलों के सेवन के कारण रोपनी के चेहरे पर स्निग्धता छाई रहती। वन में काली हिरनी सी छलाँग लगाती फिरती या कोयल की तरह कूकती रहती। काम के समय सहेलियों के साथ खेतों में काम करती। जगत सिंघ से वह खुल गई थी। वह उससे डरती नहीं थी, बल्कि अपनापन महसूस करती थी। मुसकराकर बतियाना उसकी आदत थी। ये उसके सुख के दिन थे।
कुवार का महीना आया। टाँड में मड़वा, उरद सब तैयार थे। चौरा में धान गदराया हुआ था। एक दिन जगत अपनी जमीन की ओर निकल गया, जो अब मारकुस की थी। उसमें मारकुस ने उरद बोए थे। मारकुस की भौजाई के साथ रोपनी सहित पाँच लड़कियाँ उरद उखाड़ रही थीं। मारकुस और जगत सिंघ भाई-भाई का रिश्ता मानते थे। इसलिए मारकुस की भौजाई को जगत भी भौजाई मानता था। जगत सिंघ को देखकर भौजाई बोली, 'सबेरे-सबेरे कैसे इधर भटक गए देवरजी?' जगत सिंघ बोला, 'आदत बन गई थी भौजी, अपनी जमीन में फसल देखने की, सो चला आया।' भौजी बोली, 'देख लो, देख लो, हमने भी खाली नहीं छोड़ी है, आपकी या भाई की खेती, एक ही बात है।' तब जगत ने कहा, 'आता ही रहूँगा भौजी।' फिर एक गीत गाया,
'माया से बोलाबे होले, तोर दुरा आबो जाबो, माया से बोलाबे होले।'
गीत उसने भौजी को देखकर गाया था। परंतु लक्ष्य कहीं और था।
धान कटाई का लंबा काम चला। इस दौरान जगत और रोपनी की निकटता और बढ़ गई। फिर एक दिन रोपनी माघ मेला देखकर घर आने के बदले सीधे जगत सिंघ के घर चली गई। धनी होने की इच्छा सबकी होती है। गरीबी की झेंप मिटाने के लिए भले हम कह लें कि संतोष धन सब धन से बड़ा है, इसके सामने सब धन धूरि समान है। पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। धन कभी धूल हो ही नहीं सकता। रोपनी को ऊँची जाति के पुरुष का प्यार, घर और धन-दौलत मिला। वह पहुँची तो जगत सिंघ की बीमार पत्नी विरोध न कर सकी। उनकी जाति में ऐसा होना नई बात भी नहीं थी। जगत सिंघ ने भी जाति के रिवाज को नहीं तोड़ा। रोपनी को घर के अंदर नहीं ले गया। दालान के बगल में बने कमरे में जगह दी, जिसके दरवाजे अंदर बागान की तरफ खुलते थे। 17-18 वर्ष की जवान युवती रोपनी मन को भाती थी। उसने गोबर फेंकना, झाड़न्न लगाना, मवेशी देखने से लेकर कपड़े धोने तक का काम सँभाल लिया। बस पीने का पानी नहीं भरती थी और रसोई नहीं बनाती थी। वह थी तो बाहरिया। पर क्या हुआ, जगत सिंघ तो अपना पूरा प्यार उस पर लुटाता था। रोपनी ने सोमारू को जन्म दिया। जगत सिंघ ने रोपनी के संस्कार नहीं बदले। इसलिए सोमारू नाम रखने में कोई हर्ज नहीं समझा गया। इसके बाद रोपनी जगत सिंघ के प्रति पूर्ण समर्पित हो गई।
अठारह वर्ष बाद। चंदरू की बहू घर आई। थी तो गरीब घर की, पर बड़ी भड़क मिजाज थी। आते ही उसने रोपनी को 'छोटी जात' कहना आरंभ किया। सोमारू और रोपनी का घर के अंदर प्रवेश वर्जित हो गया। उनकी भोजन की थाली दालान में रख दी जाने लगी। चंदरू की बहू ने अपने ससुर को पट्टी पढ़ाना आरंभ किया 'कि छोटी जातवाले हम बड़ी जातवालों के सामने बैठना-उठना नहीं जानते', 'बिहउवा का अलग ही मान रहता है। रखैल की कोई कीमत नहीं होती।' 'आप जो भी करें, पर अपनी जात में आदर पाने के लिए अंदर सोएँ।' 'मैं बिहउता की बहू हूँ, इसलिए घर पर मेरा अधिकार है।' यह सब सुनते-सुनते एक दिन जगत सिंघ सचमुच अंदर सोने चले गए। रोपनी बेटे के साथ सिर्फ बाहरिया बनकर रह गई। यह चंदरू की बहू रुकमइन की पहली जीत थी।
रुकमइन के ससुर घर के अंदर सोने लगे तो घर के हो गए। तब रुकमइन ने पैंतरा बदला। अड़ोस-पड़ोस में उठते-बैठते वह प्रचार करने लगी कि बिहउता के बेटे को ही जायदाद मिलनी चाहिए। बाहरिया के बेटे को संपत्ति किस कानून के मार्फत मिलेगी? बाहरिया तो धांगरीन होती है। वह तो बेसवा होती है। मंत्र पढ़ कर, हवन कर उसका ब्याह नहीं होता। वह तो विवाह ही नहीं कहा जाता। इसलिए उससे पैदा हुआ भी धांगर होता है। हार-फार करेगा तो दो कंवर भात पाएगा। नहीं तो अपना रास्ता देखे। तीली घर के अंदर जली पर बाहर की हवा ने उसे धक्का दिया।
इस आग में सोमारू जलने लगा। कहीं भी जाता, कोई ताना मार देता, 'अरे बाबू, तुममें भी बाप का खून है-हिस्सा माँगो। मैदान मत छोड़ना।' कोई कहता- 'बाहरिया को वैसा ही रहना चाहिए। अरे पत्तल तभी तक ठीक है, जब तक कोई उस पर न खाया हो। खाने के बाद तो पत्तल को फेंकना ही है। जगत सिंघ सीधा आदमी है कि अभी तक इन्हें घर पर रखे हुए है।'
जब लोगों को अहसास होने लगा कि सोमारू को संपत्ति नहीं मिलेगी तो वे उसे 'छोटी जातवाली के पेट का' कहकर बुलाने लगे। इन सिंघों की नजर में उराँव, मुंडा, खिड़या, लोहरा सब छोटी जात थे। उनकी औरतों को उठा लेना अब भी इनका हक बनता है। सोमारू हट्ठाकट्ठा था। घर का हार-फार से लेकर बाहर का बाजार-हाट तक वह सँभालता था। इस नए संबोधन से वह मर्माहत हुआ। वह किसी की ओर आँख उठाकर देखने से बचने लगा। बातें करने से कतराने लगा।
सोमारू अपनी माँ के कमरे में सोता। वह उससे जिद्द करने लगा, 'चलो कहीं और चलें। मैं तुम्हें कमाकर खिलाऊँगा। चैन से जी तो लेंगे।' रोपनी कोई उत्तर नहीं देती। उसके सामने विकट प्रश्न था-सामने खाई, पीछे अनिश्चितता का कुआँ । रोपनी ने सह लिया, जब उसे अंदर जाने से मना किया गया। उसने यह भी सह लिया, जब जगत सिंघ अंदर सोने चला गया। रोपनी ने यह भी सह लिया, जब उन दोनों के लिए खाने की थाली दालान में रख दी जाने लगी। लेकिन बेटे के मर्माहत होने को वह सह न सकी।
कई दिनों तक अंदर-ही-अंदर कलपने के बाद उसने तय किया कि पंचायत बुलानी चाहिए। उसे बातचीत से लगता था कि कुछ लोग उससे सहानुभूति रखते हैं। कुछ लोगों ने उसे आश्वस्त भी किया था कि वह पंचायत बैठाए। बैठकी में वे मारपीट नहीं होने देंगे। इसी बिना पर रोपनी ने पंचायत बैठाई।
जगत सिंघ के दालान में ही पंचायत बैठी। पहले सोमारू से पूछा गया। सोमारू ने कहा, 'मेरी माँ रोपनी जवान थी, तब से इस घर में रह रही है। मैं यहीं पैदा हुआ हूँ। मैं जगत सिंघ का बेटा हूँ। जगत सिंघ मेरा बाप है। भले ही मेरी माँ आदिवासी है। मैं ऊँची जाति का हूँ। जगत सिंघ का बेटा हूँ।' लोगों ने ऊँची जातवाली बात सुनी तो देर तक हँसते रहे। ताली बजा-बजाकर हँसते रहे। इससे सोमारू थोड़ा लड़खड़ाया। माँ की ओर देखा, रोपनी की आँखें पनिया गई थीं। फिर भी वह बोला, 'मैं खेत में कमाता हूँ तो पूरे परिवार को भोजन नसीब होता है। इसलिए बँटवारा हो और मुझे बराबर का हिस्सा मिले।'
ऊँची जातिवाले कैसे सह सकते थे कि सोमारू को बराबर का हिस्सा मिले! वह बिहउता का बेटा है ही नहीं। मुखिया ने कहा, 'खोरपोश दे दो, एक-दो कियारी'। बात पूरी भी नहीं हुई थी कि रुकमइन बोली, 'दो कियारी? यहाँ दो कियारी तो खेत ही है। रखैल का बेटा दो कियारी पाएगा और बिहउता के बेटे को ठेंगा दिला देंगे आप लोग? इन्हीं के कारण तो ससुर की जमीन आज मारकुस के पास है।' बात सरासर झूठी थी पर गाल ही बल है। जब औरत का गाल बजे तो चुप रहना ही बेहतर है। लोहार का घाना चले तो चुप रहना बेहतर है।
आज लोगों ने देखा कि रुकमइन गरीब घर की बेटी है, पर समझ-बूझ में उनसे आगे है। बस वही बोल रही थी। पंचायत में आने से पहले ही उसने ससुर और पति से कहा था कि वे दोनों चुप रहें। जो भी बोलना होगा, वह स्वयं बोलेगी।
सोमारू बोला, 'तो मुझे ठेंगा दिखाओगी? मैं...मैं कमाता हूँ, तुम सब खाते हो बस, और कुछ नहीं। तुम्हारा आदमी लमट-लमट घूमता है। थाली भर दूंसता है, उसे सबकुछ मिलेगा...?' इतना बोलते-बोलते सोमारू उत्तेजना से भर गया। काँपने लगा। वह पिता की ओर मुड़कर बोला, 'यही करना था, तो तुमने मुझे जनमाया क्यों?' रुकमइन ससुर पर आक्षेप सुन पागल हो गई। उसके होंठ काँपने लगे। मुँह में फेन आ गया। वह बोली, 'मेरे ससुर पर दोष लगाता है?' और गालियों की बौछार करने लगी। किसी तरह कुछ युवकों ने उसे बैठाया, नहीं तो वह सोमारू पर टूट पड़ती। कुछ लोगों ने बात लपक ली। कहने लगे, 'नीच जात की औलाद, ऐसा ही तो करेगा! शऊर होता तो यह छिनार इधर आती ही क्यों? शादी-ब्याह कर अपनी जात के बीच रहती। मारो साली को...।'
माँ पर बात जाती देख सोमारू खड़ा हो गया। संयत होकर बोला, 'मेरी माँ पर मत जाइए। बोलना है तो मेरे बाप को बोलो। मेरी माँ को वह ले आया, तभी आई। वह अपने से नहीं आई थी। उसकी तो घर में औरत थी। क्यों मेरी माँ के पीछे पड़ा?' इतना बोलना था कि 'बड़ा बाप वाला आया है...' कहते हुए चारों ओर से गाली-गलौज शुरू हो गई। सोमारू चुप हो गया। रोपनी चुपचाप बैठी हुई मिटिर-मिटिर ताकती रही। उसके अंदर दुःख और विवशता के बादल घुमड़ रहे थे। बरसने में अभी देर थी।
जब माहौल कुछ शांत हुआ तो पंचायत ने फैसला सुनाया, 'बारी-बागान और एक कियारी जिंदा रहने तक रोपनी को खोरपोश मिलेगा। रोपनी के मरने के बाद जमीन चंदरू को वापस हो जाएगी। सोमारू जवान है। हाथ-पैर सही सलामत है। वह कहीं जाकर मेहनत-मजदूरी कर जी लेगा।'
अब तक रोपनी चुपचाप बैठकर सुन रही थी। उसने फैसला सुना। फैसला! मानो उसके दिल पर पत्थर मारा गया था। उसके बेटे को देश निकाला की सजा सुनाई गई थी फैसले में। पर उसे फैसला मानना था; क्योंकि उसी ने पंचायत बुलाई थी। पर बेटे को दंड...। उसे सहन नहीं हुआ। वह उठी और बोली, 'मेरा बेटा मेरे साथ रहेगा। मेरे हिस्से का मालिक वही होगा। वह कहीं नहीं जाएगा।'
पंचों ने रोपनी की बात सुनी। मुखिया बोला, 'तो तुम पंचायत का फैसला नहीं मानोगी? तब तो तुम्हें भी जगत सिंघ का घर छोड़ना पड़ेगा।' सुनकर एक पल के लिए रोपनी कमजोर पड़ी। उसने जगत सिंघ पर आँखें गड़ा दीं। फिर बेटे के सिर पर हाथ रखकर बोली, 'मैं बेटे की कसम खाकर कहती हूँ मालिक कि मैंने दिल से आपको अपना माना है।' लेकिन पंचायत के लोग बोल उठे, 'पंचायत फैसला सुना चुकी है।'
पंचों की बात सुनते ही रोपनी बिफर पड़ी, बोली, 'तुम? तुम मुझे इस घर से निकालोगे?' फिर जगत सिंघ की ओर मुड़कर बोली, 'तुम? तुम जगत सिंघ मुझे इस घर से निकाल रहे हो? मैं इस घर से कहीं नहीं जाऊँगी। दालानवाले कमरे पर मेरा कब्जा रहेगा।' गरीब और नीची जातवाली इतना अभड़कर बोले, इसे यह समाज क्यों सहेगा? लोग सोमारू और रोपनी पर टूट पड़े। उनके मुँह से कौन सी गाली नहीं निकली, यह बताना मुश्किल है। सोमारू और रोपनी को वे तब तक मारते रहे, जब तक दोनों बेहोश नहीं हो गए। फिर उन्हें वहीं छोड़कर वापस चले गए।
शाम हो चुकी थी। होश आने पर सोमारू और रोपनी आकर अपने कमरे में पड़े रहे। दोनों को पिछली सारी बातें याद आई। बस वे पड़े रहे। उन्हें पूछनेवाला कोई न था।
दूसरे दिन रोपनी सोमारू को लेकर अपने टोले मे गई। वहाँ आराम मिला, दवा-दारू भी हुआ। एक दिन जगत सिंघ दिसा-मैदान के लिए जा रहा था। रोपनी ने उसे देखा और रास्ता रोक लिया, बोली, 'तुमने मुझसे अच्छा सलूक किया है! मैं तुम्हें सात बोंगरी करके छोडूंगी।' फिर वह तेजी से हट गई। जगत सिंघ अकेला था। वह चुप लगा गया। कुछ दिन बीत गए। लग रहा था आँधी थम गई है। उस दिन रात का समय था। जगत सिंघ और चंदरू सिंघ रसोई के सामने बियारी के लिए बैठे थे। उनके सामने थाली रखी थी। रुकमइन खाना परोस रही थी। अचानक रोपनी प्रकट हुई। उसके हाथ में बलुवा चमक रहा था। उसने कहा, 'जगत सिंघ, मैंने कसम खाई है बेटे की। सात बोंगरी...।' कहते-कहते उसने हाथ चला दिया। जगत सिंघ का सिर थाली में गिर गया। फुरती से उसने दूसरा वार चंदरू पर किया। उसका बायाँ हाथ कंधे से कटकर अलग हो गया। खून का फव्वारा छूटा। थोड़ी देर तड़पकर चंदरू मर गया। चंदरू को मरते देखने के लिए कोई नहीं था। रुकमइन चिल्लाकर रसोई में भागी और दरवाजा बंद कर लिया। रोपनी दरवाजे के पास गई। दरवाजे पर उसने बलुवा चलाया और सीधे थाना पहुँच गई। खून सने बलुवा के साथ रोपनी ने थानेदार के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लिया।