घास (पंजाबी कहानी) : कुलवन्त सिंह विर्क
Ghaas (Punjabi Story) : Kulwant Singh Virk
अभी पाकिस्तान बने हुए तीन या चार महीने ही हुए थे। यहां हर चीज उखड़ी-उखड़ी-सी प्रतीत होती थी। थानों और पुलिस चौकियों में सामान के ढेर लगे हुए थे। ट्रंक, पलंग, पलने, मेज, सोफासेट, तस्वीरें सभी अपनी-अपनी जगह से उखड़कर थानों में आ गयी थीं। पलनों और तसवीरों का थाने में क्या काम? किसी समय घरों में इनकी खास जगह बनी हुई होगी। उस समय गृहस्वामियों का यह खयाल होगा कि यदि ये सब उस खास जगह के अलावा किसी और जगह पर रखे जाएं तो बहुत बुरे लगेंगे। पर इस समय ये सब एक ही ढेर में पड़े हुए थे। घरों के बर्तन, आलमारियां रसोई घर और परछतियों में से निकलकर सरकारी दंफ्तरों के सामने पड़ी हुई थीं। इनको कभी किसी ने मांजा नहीं, चमकाया नहीं, गिना भी नहीं था। किसी स्त्री का हाथ लगे भी महीनों बीत गये थे। पाकिस्तान में हर चीज उखड़ी-उखड़ी थी। कई घरों में अपनी नांद से उखड़े हुए जानवर भी थे। सहमी हुई नंजरों से वे अपने आसपास देखते और अनजान जगह पर डरते-डरते पांव रखते थे। इस उथल-पुथल में केवल धरती ही अपनी जगह पर टिकी हुई थी और इस घरती पर अनेकों शरणार्थी मारे-मारे फिरते थे। वाहगा कैंप से इन्हें आगे ठेल दिया जाता था और फिर ये शरणार्थी एक जिले से दूसरे जिले और एक गांव से दूसरे गांव जमीन की खोज में डोलने लगते।
शरणार्थी तो शरणार्थी, पुराने निवासी भी उखड़े हुए थे। बिरादरी वालों की बिरादरियां टूट गयी थीं और यारों के यार छूट गये थे। मजदूरों के मिल मालिक चले गये थे, मिल मालिकों के मंजदूर। इन सबकी जगह नए लोग आ गये थे। कैसे थे ये नए लोग मैले और बौराए हुए। पुराने लोगों में घुल-मिल नहीं सकते थे। 'असलामालेकुम' कहकर बातचीत नहीं करते थे। बुलाओ तो बोलते नहीं थे। इन लोगों ने तो गा/वों की नीवें हिला दी थीं। पुराने निवासियों को अपने गांव पराये-से लगे थे क्योंकि वे गांव जिनमें वे जन्मे-पले थे अब पहले जैसे नहीं रह गये थे। उनकी हवेलियों के पास से गुजरती नहरें-सड़कें भी बेगानी हो गयी थीं। वे यहां वुजू नहीं कर सकते थे। कई दिन तक इन नहरों में पानी लाल रंग का आता रहा था। कई साबुत लाशें और कइयों की टांगे-बांहें बहकर आती रही थीं। फिर इस पानी से वुजू कैसे हो सकता था! वे लोग तो अनजानों को भी इन नहरों में नहाने से मना कर देते थे। असल में हर चीज उलट-पुलट गयी थी और अपनी पुरानी हालत में आने का यत्न कर रही थी। प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी जगह में अड़ने की कोशिश कर रही थी। हर चीज पुनर्स्थापन चाहती थी।
''मुल्क तो तबाह हो गया है।'' एक नौजवान जाट ने अपने इर्द-गिर्द बरदारी देखकर अपने बूढ़े पिता से कहा।
''हो तो सचमुच गया है पर, देख! जब लोग अपनी-अपनी जगह पर टिक जाएंगे, सब ठीक हो जाएगा।''
''यह सब तो बातें हैं, टिक ये बेचारे कहां जाएंगे? ये तो रोटी का टुकड़ा उठाकर भी अपने मु/ह में नहीं डाल सकते।''
''नहीं रे पगले! ऐसे ही लगता है। यह देखो! घास उगती है ना खेतों में; जब हम हल चलाते हैं तो उसके साथ कोई कसर उठा नहीं रखते। पूरी जड़ से उखाड़कर खेत से बाहर फेंक दी जाती है। परन्तु दस दिन बाद फिर कोई-न-कोई जड़ फूट पड़ती है और एक महीने के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी ने खेत की जुताई की ही नहीं।''
असल में इस बूढ़े की बात में कुछ-कुछ सच्चाई दिखाई दे रही थी। जिन लोगों को कुछ जमीन मिल जाती थी वे कुछ टिक-से जाते थे। अस्थायी अलॉट हुए खेत उन्हें धीरज देते थे। अपने नए बाड़ों के पास वे छोटे-छोटे गङ्ढे खोदकर इनमें कंडों की आग जलाए रखते थे। जब भी मन करता हुक्के में भरकर इकट्ठे बैठकर पीते थे। धीरे-धीरे इनकी भैंसों का भय भी चला गया। बाड़ों के अन्दर वे पेड़ों की टहनियों से अपनी गर्दन पर खुजली करतीं और कभी-कभी मस्ती में अपने शरीर को बाड़े की दीवारों के साथ घिसने लगती थीं। जब तहसीलदार या कोई और अफसर इन लोगों के गांव में आता तो उनमें से कुछ अपने-आपको पंच जाहिर करने का प्रयत्न करते थे। गांव के साझे दु:ख-तकलीफ तहसीलदार को बताते और सब लोगों का प्रतिनिधित्व करके अपनी लीडरी की जड़ जमाते थे। साधारण-सी बातों से जैसे और लोगों को पीछे बैठाकर 'सिर्फ एक आदमी बोले,' कहकर अफसर को हुक्का-पानी पूछकर वह उसका ध्यान अपनी ओर खींचते थे। यह बातें बताती थीं कि समय की मार ने भी उन्हें, उनके मूल रूप को बदल नहीं था।
इस तरह उजड़ रहे, बस रहे, पाकिस्तान में मैं भारत सरकार की ओर से लेंजान अफसर नियुक्त हुआ।
मेरा काम जोर-जबरदस्ती से भगाई गयी स्त्रियों और जबरन मुसलमान बनाए गये परिवारों को वापस हिन्दुस्तान पहुंचाना था। हिंदुस्तानी फौंज का एक दस्ता और पाकिस्तान स्पेशल पुलिस के कुछ सिपाही मेरी सहायता के लिए थे।
खोयी हुई अन्य चीजों की तरह लड़कियों को ढूंढ़ने का काम कठिन भी था और आसान थी। कभी-कभी तो कोई लड़की थोड़ी मेहनत से ही मिल जाती थी। और कभी-कभी बहुत ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलती थी। पाकिस्तान पुलिस के सिपाही उनके लौटने मेंवे इस बरामद करना कहते थेथोड़ी-बहुत सहायता कर देते थे परन्तु खुद पता कम ही लगाते थे। फिर भी जब कभी वह साथ चल पड़ते तो काम बहुत आसान हो जाता था।
जिस समय की यह बात है उस समय उस क्षेत्र का थानेदार न केवल मेरे साथ ही गया बल्कि भगायी गयी स्त्री का पता भी उसी ने बताया। उसने यह भी बताया कि वह उसी थाने के एक गांव के नम्बरदार की पुत्रवधू थी। जिस गांव हमें जाना था वह पक्की सड़क से बहुत दूर था। बहुत देर तक हम कच्ची सड़कों और पगडंडियों में भटकते रहे। जब हम गांव पहुँचे तो वहां चौधरी थानेदार के स्वागत के लिए इकट्ठे हो गये। पाकिस्तान में उस समय सरकार का बहुत रोब था। थानेदार ने उस औरत का पता पूछा तो उन चौधरियों ने झट से एक मकान दिखा दिया। यह छोटा-सा मकान बड़ी-सी बाड़ के एक सिरे पर बना हुआ था। थानेदार तथा अन्य लोग बाहर ही रहे। मैं अन्दर चला गया। वह लगभग तीन चारपाइयों का कमरा था। एक तरफ लकड़ी की परछत्ती पर थोड़े-से गिलास-कटोरियां और थालियां रखी हुई थीं। कमरे के एक कोने में कुछ बिस्तर और थोड़-बहुत सामान भी था। वह स्त्री चारपाई पर पड़ी हुई थी। कई दिन से से बुखार था। उसके एक हाथ में पट्टी-बंधी हुई थी। शायद कोई फोड़ा हो गया था। उस समय वह बड़ी शिथिल-सी थी और बहुत ही धीरे-धीरे बोल रही थी। मैं उसके पास चारपाई पर बैठ गया।
''क्या बात है?'' मैंने उसका हालचाल पूछने के लिए सीधा सवाल किया।
''बुखार आता है चौथे-पांचवे दिन।''
''यहां तुम्हारे पास कोई औरत नहीं?''
''नहीं, आसपास तो कोई नहीं।''
पहले जो खोयी हुई लड़कियां और स्त्रियां मैंने देखी थीं उनसे इसका इर्द-गिर्द बिलकुल अलग था। उनके चारों ओर स्त्री-पुरुष होते थे। वे किसी-न-किसी की नंजर में, किसी-न-किसी की रखवाली में रहती थीं। मुझ प्रतीत हुआ जैसे इस मकान में वह अकेली ही रहती है, जैसे लोगों ने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया था। उसके गांव और घर के लोग किस तरह खत्म हुए थे, यह मैं पहले ही सुन चुका था। दुबारा उसके मुंह से सुनने का कोई फायदा नहीं था। मेरी दिलचस्पी उसकी वर्तमान हालत में थी।
''यहां तुम्हें कितना समय हो गया है?''
''जिस दिन से गांव उजड़ा मैं उस दिन से यहीं हूं।''
''यह बर्तन और कपड़े तुम्हें किसने दिए हैं?''
''आप तो बिलकुल पागल करते हैं!''
मैं समझ गया वह अकेली नहीं रहती थी, न यहां पड़ा हुआ सामान उसका अपना था। इस सामान, मकान और उसके शरीर का मालिक केवल दिखाई ही नहीं पड़ रहा था।
यह बात लिखने को तो मैं सहज ही लिख गया। उस समय इस जानकारी से मेरे मन को गहरा धक्का लगा। पुलिस तथा लोगों की सहायता से जो सुन्दर खयाल मेरे मन में दुनिया और दुनिया के लोगों के बारे में सारा दिन आते रहते थे वह सब मुझसे दामन छुड़ा गये। मेरा दिमाग कटु वास्तविकताओं के साथ जुड़ा हुआ था। उस कच्चे मकान में किसी की छीनी हुई बीवी मेरे सामने चारपाई पर निढाल पड़ी हुई थी। मेरी नंजर में इनसान पर इनसान के जुल्म की सबसे घिनौनी तस्वीर थी।
कुचली हुई, मसली हुई वह वहां बीमार पड़ी थी। उसकी जात, बिरादरी, गांव-धर्म का कोई साझीदार वहां नहीं था। उसको कभी किसी न यह नहीं बताया कि वह अपने बिछुड़े हुए सगे-सम्बन्धियों को फिर से मिल सकती है। यदि कोई उसे बताता भी तो वह मानने से इनकार कर देती। आखिर इतने बड़े और मंजबूत पाकिस्तान में से उसको कोई किस तरह निकालकर ले जा सकता था! इस बात पर विचार करना ही व्यर्थ था। उसको उस समय वापस ले जाने का कोई सवाल ही नहीं था। वे लोग अब उसको छुपा नहीं सकते थे, हमने उसे देख लिया था और वे लोग जानते थे कि हमने उसे देख लिया है।
''अच्छा, बहन ! मैं फिर किसी दिन आऊंगा।'' फिर आने से मेरा मतलब उसे वहां से ले जाना था, परन्तु यह बात शायद उसके सपने में भी सम्भव नहीं था।
''तुम अब जा रहे हो? जरा बैठ जाओ। मेरी बात सुनते जाओ।'' मैं पास ही चारपाई पर बैठ गया।
''क्या काम है।
''मेरी तुमसे एक विनती है। अगर तुम पूरी करो। एक काम है तुम से।''
''क्या काम है?''
''तुम मेरे सिख भाई हो, मैं भी कभी सिख थी। अब तो मैं मुसलमान हो गयी हूं। इस समय इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है, मैं बहुत दु:खी हूं। तुम मुझे सहारा दो। मेरी एक छोटी ननद है। निगोड़े ग्यारह चक वाले उसे ले गये हैं। उस दिन हमले में सबसे ज्यादा गिनती उन्हीं की थी और वही उसे ले गये हैं। तुम उसे यहां मेरे पास ला दो। सब तुम्हारा लिहाज करते हैं। पुलिसवाले भी तुम्हारी बात मनाते हैं। मेरी ओर से भी उनकी मिन्नत करना। मैं उसकी बड़ी भाभी हूं। मैंने उसे हाथों में पाला है और उसकी मां के समान हूं। वह मेरे पास आएगी तो मैं अपने हाथ से उसका हाथ किसी को दूंगी। मेरी सांझ बढ़ेगी, मेरे सम्बन्ध बढ़ेंगे। मैं किसी को अपना कह सकूंगी।''
उस बूढ़े जाट की बात मेरे दिमाग में चक्कर काटने लगी। देखो घास होती है ना खेत में, जुताई करते समय तो उसे उखाड़ने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती। सारी जड़ से उखाड़कर खेत से बाहर फेंक देते हैं। परन्तु दस दिन बाद फिर अंकुर निकल आते हैं।
(अनुवाद : कीर्ति केसर)