गायिका (कहानी) : एस. के. पोट्टेक्काट
Gayika (Malayalam Story in Hindi) : S. K. Pottekkatt
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(पोर्टर रामुडु ने उसे बताया था कि गुलाब के फूल दूध में पीसकर पिलाने से बच्चों को ऐसा रंग मिलता है।)
रामुडु की याद आते ही उसकी छोटी-छोटी मूंछों की भी याद आ गयी थी। वह रामुडु को पसंद करती थी। एक बार रामुडु ने हरे रंग की एक छोटी-सी पर्स उसे दी थी। उसे वह हमेशा अपनी कमर में बांधकर रखती है । लंगड़े सुब्बण्णन ने इस पर्स के बारे में बताया था कि रामुडु ने उसे एक सेठ के बेटे के पास से चुराया था। उसने जब रामुडु को यह बात बतायी थी तो वह एकदम आग-बबूला हो गया था। उसने यह कहते हुए, लंगड़े सुब्बण्णन को खदेड़ लिया था, "हरामजादे ! तेरा दूसरा पैर भी मैं तोड़ दूंगा !" दोनों पैरों के टूट जाने पर सुब्बण्णन कैसे चलता, इसकी कल्पना से ही सीता को हंसी आ गयी थी।..
काने अब्दुल्ला को एक चश्मा मिल गया था । शान्तप्पन को इससे परेशानी हो गयी थी। उसे मालूम हुआ था कि अब्दुल्ला ने वह चश्मा किसी सिपाही से झटका था। वह सोते वक्त भी चश्मा पहने रहता था। शान्तप्पन को उससे बड़ी ईर्ष्या होती । शान्तप्पन को याद आया कि उसने अब्दुल्ला को कुछ दिन पहले बीस पैसे उधार दिये थे। उसने सोचा था, 'शाम होते ही मैं उससे पैसा मांगूंगा । अब्दुल्ला नहीं देगा, तो मैं उससे वह चश्मा ले लूंगा।'
सीता और शान्तप्पन प्लेटफार्म पर जाकर, एक जगह छिपकर खड़े हो गये । गाड़ी छूटने पर ही वे उस पर चढ़ सकते थे। नहीं तो टिकट जाँच करने वाला उन्हें पकड़कर नीचे धकेल देता । टिकट जाँच करनेवाले यमदूत की तरह होते हैं।
घंटी बजी । गार्ड ने सीटी बजायी । च्छटे-च्छटे की आवाज के साथ गाड़ी हौले-हौले आगे बढ़ी।
'पीलो-पीलो-मोरे राजा-राजा-पीलो-पीलो।' गाड़ी के खामोश डिब्बे में यह हिन्दी गीत गूंज उठा। मधुर स्वर कानों में पड़े, तो सोनेवाले यात्रियों की नींद खुल गयी।
'पीलो-पीलो-मोरे राजा..'
सीता ने सुरीली आवाज में पंक्ति दुहरायी, तो यात्री उसकी ओर आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे।
एक काला तमिल सिपाही फुर्ती से उठ खड़ा हुआ और उसने एक मुस्कान बिखेरते हुए फर्माया "वन्स मोर !"
दोनों ने गीत पुनः गाया। सीता के गले से बड़ी मुश्किल से आवाज़ निकलती थी। अभी आधा गीत भी पूरा न हआ था कि उसकी आवाज़ भरी गयी। जिस बीमारी ने उसको अन्दर-ही-अन्दर खाना शुरू किया था, अब उसने उसे परास्त कर दिया था। वह एकदम अशक्त हो गयी थी। वह ठीक तरह से खड़ी भी न हो सकती थी।
वह फर्श पर बैठ गयी। शान्तप्पन ने यात्रियों से पैसे मांगकर, उसके नजदीक आकर हौले से पूछा, “तुझे क्या हुआ, सीता ?"
वह चुप रही। शान्तप्पन ने उसका हाथ छूकर देखा, तो हाथ बुखार से जल रहा था।
वे अगले स्टेशन पर ही उतर गये और विपरीत दिशा से आनेवाली मेल गाड़ी में वापस आ गये ।
दूसरे दिन तड़के भी हमेशा की तरह मेलगाड़ी आयी। मगर शान्तप्पन और सीता स्टेशन नहीं गये। ज़मीन पर एक चिथड़े पर सिकुड़कर छोटी बहिन लेटी थी और भाई चिन्तामग्न उसके पास बैठा था।
एक कोने में तीन पत्थरों को जोड़कर सीता ने एक चूल्हा बनाया था। चूल्हे पर एक अल्युमुनियम के छोटे-से बर्तन में चावल उबल रहा था।
'सीता, क्या तुम थोडा मांड पीओगी?" भाई ने पूछा।
सीता ने सिर जरा हिला दिया। तब भाई ने एक पुराने सिगरेट के टिन में थोड़ा मांड ढाला और बहन को उठाकर उसके ओठों से लगा दिया। सीता ने एक-दो बूंट पीये। फिर "बस" कहकर, सिर हिलाकर कथरी पर लेट गयी।
उसके बाद शान्तप्पन सुई में तागा पिरो कर फटी शर्ट उतारकर सीने लगा। बीच-बीच में वह सिर उठाकर बहिन की तरफ देख लेता।
थोड़ी देर बाद सीता उठी और कमर के पास से हरे रंग की पर्स निकालकर उसमें से एक बाली निकालकर दाहिने कान में पहन ली। फिर वह टूटाफूटा दर्पण लेकर अपना चेहरा देखने और मुस्कराने लगी।
शान्तप्पन यह देखकर चकित रह गया। उसने उसके नजदीक जाकर पूछा, "सीता, यह तुम्हें कहां से मिला ?" पूछते हुए उसने नयी बाली को छूकर देखा । वह सोने का मुलम्मा चढ़ाई हुई एक सुन्दर बाली थी।
"यह मुझे दो महीने पहले गाड़ी में मिली थी।" सीता ने दर्पण से निगाहें हटाये बिना ही कहा।
"तुमने मुझे पहले क्यों नहीं दिखाया था ?"
सीता एक अपराधिनी की तरह थोड़ी देर खामोश रही। फिर उसने पूछा, "क्या यह मुझे फबता है ?" पूछते हुए उसने भाई के चेहरे की ओर नजर फेंकी और फिर वह शरमाकर मुस्करा उठी ।
"खूब फबती है। तुम तो एक फिल्म स्टार की तरह लगती हो।"
"सच कहते हो ?" कहते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान थिरक गयी। फिर उसने बाली उतारी, तो उसके पीले चेहरे की मुस्कान तिरोहित हो गयी। उसने बाली शान्तप्पन की तरफ बढ़ाते हुए बताया-"भैया, इसे कहीं बेंच दो। अब मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं है।"
शान्तप्पन का दिल तड़प उठा। उसने बाली बहिन के कान में फिर पहनाकर कहा, “सीता, तुम अच्छी हो जाओ, तो मैं दूसरे कान के लिए भी इसी सरह की एक बाली खरीद दूंगा।"
सीता की आँखें फैल गयीं। और उनमें आंसू भर आये। ।
उसकी तबीयत लगातार बिगड़ती गयी। बिना किसी दवा के वह कैसे संभल सकती थी ? आखिर आठवें दिन उसने अपने भाई से हमेशा के लिए विदा ले ली।
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हमेशा की तरह उस दिन भी मेलगाड़ी आ पहुंची। पेट की आग ने शांतपन को गाड़ी में चढ़ने को मजबूर किया। गाड़ी हौले-हौले आगे बढ़ी।
"पीलो-पीलो-मोरे राजा"-उसने गाना शुरू किया। पहली पंक्ति गाने के बाद उसने हमेशा की तरह पीछे मुड़कर देखा। लेकिन आज उसे दोहराने वाली सीता नहीं थी। उसके कानों में गाडी के पहियों और पटरी के घर्षण की आवाज जैसे एक दर्दनाक चीख की तरह गूंज उठी। फिर उसे जिन्दगी में पहली बार अकेलेपन का ऐसा गहरा अहसास हुआ कि उसकी आँखों के सामने धुंधलका छा गया और एक कान में बाली पहने कथरी पर लेटी वाली बहिन का पीला चेहरा उसकी आँसू भरी ताजा हो आंखों के सामने घूम गया। गीत उसके गले में अटककर रह गया और सिसकी फूट पड़ी। वह अपना चेहरा हाथों से ढंक कर फूट फूटकर रोता वहीं फर्श पर बैठ गया।