गरम कोट (कहानी) : राजिन्दर सिंह बेदी

Garam Coat (Hindi Story) : Rajinder Singh Bedi

मैंने देखा है, मेराजुद्दीन टेलर मास्टर की दुकान पर बहुत से उ’म्दा-उ’म्दा सूट आवेज़ाँ होते हैं। उन्हें देखकर अक्सर मेरे दिल में ख़याल पैदा होता है कि मेरा अपना गर्म कोट बिल्कुल फट गया है और इस साल हाथ तंग होने के बावजूद मुझे एक नया गर्म कोट ज़रूर सिलवा लेना चाहिए। टेलर मास्टर की दुकान के सामने से गुज़रने या अपने महकमे की तफ़रीह क्लब में जाने से गुरेज़ करूँ तो मुमकिन है, मुझे गर्म कोट का ख़याल भी न आये, क्योंकि क्लब में जब सन्ता सिंह और यज़दानी के कोटों के नफ़ीस वर्सटेड (Worsted) मेरे समंद-ए-तख़य्युल पे ताज़ियाने लगाते हैं तो मैं अपने कोट की बोसीदगी को शदीद तौर पर महसूस करने लगता हूँ। या’नी वो पहले से कहीं ज़ियादा फट गया है।

बीवी बच्चों को पेट भर रोटी खिलाने के लिए मुझ से मा’मूली क्लर्क को अपनी बहुत सी ज़रूरियात तर्क करना पड़ती हैं और उन्हें जिगर तक पहुँचती हुई सर्दी से बचाने के लिए ख़ुद मोटा झोटा पहनना पड़ता है... ये गर्म कोट मैंने पार साल दिल्ली दरवाज़े से बाहर पुराने कोटों की एक दुकान से मोल लिया था। कोटों के सौदागर ने पुराने कोटों की सैंकड़ों गाँठें किसी मरांजा, मरांजा एंड कंपनी कराची से मँगवाई थीं। मेरे कोट में नक़ली सिल्क के अस्तर से बनी हुई अंदरूनी जेब के नीचे मरांजा, मरांजा एंड को का लेबल लगा हुआ था। मगर कोट मुझे मिला बहुत सस्ता। महंगा रोये एक-बार सस्ता रोये बार-बार... और मेरा कोट हमेशा ही फटा रहता था।

इसी दिसंबर की एक शाम को तफ़रीह क्लब से वापस आते हुए मैं इरादतन अनारकली में से गुज़रा। उस वक़्त मेरी जेब में दस रुपये का नोट था। आटा-दाल, ईंधन, बिजली, बीमा कंपनी के बिल चुका देने पर मेरे पास वही दस का नोट बच रहा था... जेब में दाम हों तो अनारकली में से गुज़रना मा’यूब नहीं। उस वक़्त अपने-आप पर गु़स्सा भी नहीं आता बल्कि अपनी ज़ात कुछ भली मा’लूम होती है। उस वक़्त अनारकली में चारों तरफ़ सूट ही सूट नज़र आ रहे थे और साड़ियाँ। चंद साल से हर नत्थू खैरा सूट पहनने लगा है... मैंने सुना है गुज़िश्ता चंद साल में कई टन सोना हमारे मुल्क से बाहर चला गया है। शायद इसीलिए लोग जिस्मानी ज़ेबाइश का ख़याल भी बहुत ज़ियादा रखते हैं। नए-नए सूट पहनना और ख़ूब शान से रहना हमारे इफ़लास का बदीही सबूत है। वर्ना जो लोग सचमुच अमीर हैं, ऐसी शान-शौकत और ज़ाहिरी तकल्लुफ़ात की चंदाँ परवाह नहीं करते।

कपड़े की दुकान में वर्सटेड के थानों के थान खुले पड़े थे। उन्हें देखते हुए मैंने कहा, क्या मैं इस महीने के बचे हुए दस रुपयों में से कोट का कपड़ा ख़रीद कर बीवी बच्चों को भूखा मारूँ? लेकिन कुछ अरसे के बा’द मेरे दिल में नए कोट के नापाक ख़याल का रद्द-ए-अमल शुरु’ हुआ। मैं अपने पुराने गर्म कोट का बटन पकड़ कर उसे बल देने लगा। चूँकि तेज़-तेज़ चलने से मेरे जिस्म में हरारत आ गयी थी, इसलिए मौसम की सर्दी और इस क़िस्म के ख़ारिजी असरात मेरे कोट ख़रीदने के इरादे को पा-ए-तकमील तक पहुँचाने से क़ासिर रहे। मुझे तो उस वक़्त अपना वो कोट भी सरासर मुकल्लिफ़ नज़र आने लगा।

ऐसा क्यों हुआ? मैंने कहा है जो शख़्स हक़ीक़तन अमीर हों वो ज़ाहिरी शान की चंदाँ फ़िक्र नहीं करते,जो लोग सचमुच अमीर हों उन्हें तो फटा हुआ कोट बल्कि क़मीस भी तकल्लुफ़ में दाख़िल समझनी चाहिए, तो क्या मैं सचमुच अमीर था कि...? मैंने घबरा कर ज़ाती तजज़िया छोड़ दिया और ब-मुश्किल दस का नोट सही सलामत लिये घर पहुँचा।
शम्मी, मेरी बीवी, मेरी मुंतज़िर थी।

आटा गूँधते हुए उसने आग फूँकनी शुरु’ कर दी... कमबख़्त मंगल सिंह ने इस दफ़ा’ लकड़ियाँ गीली भेजी थीं। आग जलने का नाम ही नहीं लेती थी। ज़ियादा फूँकें मारने से गीली लकड़ियों में से और भी ज़ियादा धुआँ उठा। शम्मी की आँखें लाल अंगारा हो गयीं। उनसे पानी बहने लगा।

“कमबख़्त कहीं का... मंगल सिंह।”, मैंने कहा, “इन पुर-नम आँखों के लिए मंगल सिंह तो क्या मैं तमाम दुनिया से जंग करने पर आमादा हो जाऊँ।”

बहुत तग-ओ-दव के बा’द लकड़ियाँ आहिस्ता-आहिस्ता चटख़ने लगीं। आख़िर उन पुर-नम आँखों के पानी ने मेरे गुस्से की आग बुझा दी... शम्मी ने मेरे शाने पर सर रखा और मेरे फटे हुए गर्म कोट में पतली-पतली उंगलियाँ दाख़िल करती हुई बोली, “अब तो ये बिल्कुल काम का नहीं रहा।”
मैंने धीमी सी आवाज़ से कहा, “हाँ।”
“सी दूँ...? यहाँ से...”
“सी दो। अगर कोई एक-आध तार निकाल कर रफ़ू कर दो तो क्या कहने हैं।”

कोट को उलटाते हुए शम्मी बोली, “अस्तर को तो मुई टिड्डियाँ चाट रही हैं... नक़ली रेशम का है न... ये देखिए।”

मैंने शम्मी से अपना कोट छीन लिया और कहा, “मशीन के पास बैठने की बजाए तुम मेरे पास बैठो। शम्मी... देखती नहीं हो, दफ़्तर से आ रहा हूँ... ये काम तुम उस वक़्त कर लेना जब मैं सो जाऊँ।”
शम्मी मुस्कुराने लगी।
वो शम्मी की मुस्कुराहट और मेरा फटा हुआ कोट!

शम्मी ने कोट को ख़ुद ही एक तरफ़ रख दिया। बोली, “मैं ख़ुद भी इस कोट की मरम्मत करते-करते थक गयी हूँ... इसे मरम्मत करने में इस गीले ईंधन को जलाने की तरह जान मारनी पड़ती है... आँखें दुखने लगती हैं... आख़िर आप अपने कोट के लिए कपड़ा क्यों नहीं ख़रीदते?”
मैं कुछ देर सोचता रहा।

यूँ तो मैं अपने कोट के लिए कपड़ा ख़रीदना गुनाह ख़याल करता था, मगर शम्मी की आँखें! इन आँखों को तकलीफ़ से बचाने के लिए मैं मंगल सिंह तो क्या, तमाम दुनिया से जंग करने पर आमादा हो जाऊँ। वर्सटेड के थानों के थान ख़रीद लूँ। नए गर्म कोट के लिए कपड़ा ख़रीदने का ख़याल दिल में पैदा हुआ ही था कि पुष्पामणि भागती हुई कहीं से आ गयी। आते ही बरामदे में नाचने और गाने लगी। उसकी हरकात कथकली मुद्रा से ज़ियादा कैफ़-अंगेज़ थीं।
मुझे देखते हुई पुष्पामणि ने अपना नाच और गाना ख़त्म कर दिया। बोली, “बाबूजी... आप आ गए? आज बड़ी बहन जी (उस्तानी) ने कहा था। मेज़-पोश के लिए दुसुती लाना और गर्म कपड़े पर काट सिखाई जाएगी। गुनिया माप के लिए और गर्म कपड़ा...”

चूँकि उस वक़्त मेरे गर्म कोट ख़रीदने की बात हो रही थी, शम्मी ने ज़ोर से एक चपत उसके मुँह पर लगाई और बोली,
“इस जनमजली को हर वक़्त... हर वक़्त कुछ न कुछ ख़रीदना ही होता है... मुश्किल से इन्हें कोट सिलवाने पर राज़ी कर रही हूँ...”
वो पुष्पामणि का रोना और मेरा नया कोट!
मैंने खिलाफ़-ए-आ’दत ऊँची आवाज़ से कहा, “शम्मी।”

शम्मी काँप गयी। मैंने गुस्से से आँखें लाल करते हुए कहा, “मेरे इस कोट की मरम्मत कर दो... अभी किसी तरह करो... ऐसे जैसे रो पीट कर मंगल सिंह की गीली लकड़ियाँ जला लेती हो... तुम्हारी आँखें! हाँ! याद आया... देखो तो पुष्पामणि कैसे रो रही है। पोपी बेटा! इधर आओ न... इधर आओ मेरी बच्ची। क्या कहा था तुमने? बोलो तो... दुसुती? गुनिया माप के लिए और काट सीखने को गर्म कपड़ा...? बच्चू नन्हा भी तो ट्राइसिकल का राग अलापता और गुब्बारे के लिए मचलता सो गया होगा। उसे ग़ुबारा न ले दोगी तो मेरा कोट सिल जाएगा। है न...? कितना रोया होगा बेचारा... शम्मी! कहाँ है बच्चू?”
“जी सो रहा है...” शम्मी ने सहमे हुए जवाब दिया।
“अगर मेरे गर्म कोट के लिए तुम इन मासूमों से ऐसा सुलूक करोगी, तो मुझे तुम्हारी आँखों की परवाह ही क्या है?” फिर मैंने दिल में कहा, क्या ये सब कुछ मेरे गर्म कोट के लिए हो रहा है। शम्मी सच्ची है या मैं सच्चा हूँ। पहले मैंने कहा... दोनों... मगर जो सच्चा होता है, उसका हाथ हमेशा ऊपर रहता है। मैंने ख़ुद ही दबते हुए कहा,
“तुम ख़ुद भी तो उस दिन काफ़ूरी रंग के मीनाकार काँटे के लिए कह रही थीं...”
“हाँ... जी... कह तो रही थी मगर...”
मगर... मगर उस वक़्त तो मुझे अपने गर्म कोट की जेब में दस रुपये का नोट एक बड़ा ख़ज़ाना मा’लूम हो रहा था!

दूसरे दिन शम्मी ने मेरा कोट कोहनियों पर से रफ़ू कर दिया। एक जगह जहाँ पर से कपड़ा बिल्कुल उड़ गया था, सफ़ाई और एहतियात से काम लेने के बावजूद सिलाई पर बदनुमा सिलवटें पड़ने लगीं। उस वक़्त मेराजुद्दीन टेलर मास्टर की दुकान मेरे ज़हन में घूमने लगी और ये मेरे तख़य्युल की पुख़्ता-कारी थी। मेरे तख़य्युल की पुख़्ता-कारी अक्सर मुझे मुसीबत में डाले रखती है। मैंने दिल में कह, “मेराजुद्दीन की दुकान पर ऐसे सूट भी तो होते हैं जिन पर सिलाई समेत सौ रुपये से भी ज़ियादा लागत आती है... मैं एक मा’मूली क्लर्क हूँ... उसकी दुकान में लटके हुए सूटों का तसव्वुर करना अबस है... अबस।”

मुझे फ़ारिग़ पाकर शम्मी मेरे पास आ बैठी और हम दोनों ख़रीदी जाने वाली चीज़ों की फ़ेहरिस्त बनाने लगे... जब माँ-बाप इकट्ठे होते हैं तो बच्चे भी आ जाते हैं... पुष्पामणि और बच्चू आ गए। आँधी और बारिश की तरह शोर मचाते हुए।

मैंने शम्मी को ख़ुश करने के लिए नहीं, बल्कि यूँ ही काफ़ूरी रंग के मीनाकार काँटे सबसे पहले लिखे। अचानक रसोई की तरफ़ मेरी नज़र उठी। चूल्हे में लकड़ियाँ धड़-धड़ जल रही थीं... और उधर शम्मी की आँखें भी दो चमकते हुए सितारों की तरह रौशन थीं। मा’लूम हुआ कि मंगल सिंह गीली लकड़ियाँ वापस ले गया है।
“वो शहतूत के डंडे जल रहे हैं और खोखा...”, शम्मी ने कहा।
“और उपले?”
“जी हाँ, उपले भी।”

“मंगल सिंह देवता है... शायद मैं भी अनक़रीब गर्म कोट के लिए अच्छा सा वर्सटेड ख़रीद लूँ। ताकि तुम्हारी आँखें यूँ ही चमकती रहें, उन्हें तकलीफ़ न हो... इस माह की तनख़्वाह में तो गुंजाइश नहीं... अगले माह ज़रूर... ज़रूर।”
“जी हाँ, जब सर्दी गुज़र जाएगी।”

पुष्पामणि ने कई चीज़ें लिखाईं। दुसुती, गुनिया माप के लिए गर्म ब्लेज़र सब्ज़-रंग का, एक गज़ मुरब्बा, डी.एम.सी. के गोले, गोटे की मग़ज़ी... और इमरतियाँ और बहुत से गुलाब जामुन... मुई ने सब कुछ ही तो लिखवा दिया। मुझे दाइमी क़ब्ज़ थी। मैं चाहता था कि यूनानी दवाख़ाना से इत्रिफ़ल ज़मानी का एक डिब्बा भी ला रखूँ। दूध के साथ थोड़ा सा पी कर सो जाया करूँगा। मगर मुई पुष्पा ने इसके लिए गुंजाइश ही कहाँ रखी थी और जब पुष्पामणि ने कहा गुलाब जामुन तो उसके मुँह में पानी भर आया। मैंने कहा सबसे ज़रूरी चीज़ तो यही है... शहर से वापस आने पर मैं गुलाब जामुन वहाँ छुपा दूँगा, जहाँ सीढ़ियों में बाहर जमादार अपना दूध का कलसा रख दिया करता है और पुष्पामणि से कहूँगा कि मैं तो लाना ही भूल गया... तुम्हारे लिए गुलाब जामुन... ओ हो! उस वक़्त उसके मुँह में पानी भर आएगा और गुलाब जामुन न पाकर उसकी अ’जीब कैफ़ियत होगी।

फिर मैंने सोचा, बच्चू भी तो सुबह से गुब्बारे और ट्राइसिकल के लिए ज़िद कर रहा था। मैंने एक मर्तबा अपने आपसे सवाल किया इत्रिफ़ल ज़मानी? शम्मी बच्चू को पुचकारते हुए कह रही थी, “बच्चू बेटी को ट्राइसिकल ले दूँगी। अगले महीने... बच्चू बेटी सारा दिन चलाया करेगी ट्राइसिकल... और पोपी मुन्ना नहीं लेगा...

और मैंने शम्मी की आँखों की क़सम खाई कि जब तक ट्राइसिकल के लिए छः सात रुपये जेब में न हों, मैं नीले-गुम्बद के बाज़ार से नहीं गुज़रूँगा, इसलिए कि दाम न होने की सूरत में नीले-गुम्बद के बाज़ार से गुज़रना बहुत मा’यूब है। ख़्वाह-मख़्वाह अपने आप पर गु़स्सा आएगा। अपनी ज़ात से नफ़रत पैदा होगी।

उस वक़्त शम्मी बेलजियमी आईने की बैज़वी टुकड़ी के सामने अपने काफ़ूरी सफ़ेद सूट में खड़ी थी। मैं चुपके से उसके पीछे जा खड़ा हुआ और कहने लगा, “मैं बताऊँ तुम इस वक़्त क्या सोच रही हो?”
“बताओ तो जानूँ...”
“तुम कह रही हो... काफ़ूरी सफ़ेद सूट के साथ वो काफ़ूरी रंग के मीनाकार काँटे पहन कर ज़िलेदार की बीवी के यहाँ जाऊँ तो दंग रह जाए...”
“नहीं तो...” शम्मी ने हंसते हुए कहा। “आप मेरी आँखों के मद्दाह होते तो कभी का गर्म...”

मैंने शम्मी के मुँह पर हाथ रख दिया। मेरी तमाम ख़ुशी बेबसी में बदल गयी। मैंने आहिस्ता से कहा, “बस... इधर देखो... अगले महीने... ज़रूर ख़रीद लूँगा...”
“जी हाँ, जब सर्दी...”
फिर में अपनी उस हसीन दुनिया को जिसकी तख़लीक़ पर महज़ दस रुपये सर्फ़ हुए थे, तसव्वुर में बसाए बाज़ार चला गया।

मेरे सिवा अनारकली से गुज़रने वाले हर ज़ी-इज़्ज़त आदमी ने गर्म सूट पहन रखा था। लाहौर के एक लहीम-ओ-शहीम जैंटलमैन की गर्दन नेकटाई और मुकल्लिफ़ कालर के सबब मेरे छोटे भाई के पालतू बिल्ली कुत्ते, टाइगर की गर्दन की तरह अकड़ी हुई थी। मैंने उन सूटों की तरफ़ देखते हुए कहा,

“लोग सचमुच बहुत मुफ़लिस हो गए हैं... इस महीने न मा’लूम कितना सोना-चाँदी हमारे मुल्क से बाहर चला गया है। काँटों की दुकान पर मैंने कई जोड़ियां काँटे देखे। अपनी तख़य्युल की पुख़्ता-कारी से मैं शम्मी की काफ़ूरी सफ़ेद सूट में मलबूस ज़हनी तस्वीर को काँटे पहना कर पसंद या नापसंद कर लेता... काफ़ूरी सफ़ेद सूट... काफ़ूरी मीनाकार काँटे... कसरत-ए-इक़साम के बाइस मैं एक भी मुंतखिब न कर सका।”

उस वक़्त बाज़ार में मुझे यज़दानी मिल गया। वो तफ़रीह क्लब से, जो दर-अस्ल परेल क्लब थी, पंद्रह रुपये जीत कर आया था। आज उसके चेहरे पर अगर सुर्ख़ी और बशाशत की लहरें दिखाई देती थीं तो कुछ ता’ज्जुब की बात न थी। मैं एक हाथ से अपनी जेब की सिलवटों को छुपाने लगा। निचली बाएँ जेब पर एक रुपये के बराबर कोट से मिलते हुए रंग का पैवंद बहुत ही नामौज़ूँ दिखाई दे रहा था... मैं उसे भी एक हाथ से छुपाता रहा। फिर मैंने दिल में कहा। क्या अजब यज़दानी ने मेरे शाने पर हाथ रखने से पहले मेरी जेब की सिलवटें और वो रुपये के बराबर कोट के रंग का पैवंद देख लिया हो... उसका भी रद्दे-अ’मल शुरु’ हुआ और मैंने दिलेरी से कहा,

“मुझे क्या परवाह है... यज़दानी मुझे कौन सी थैली बख़्श देगा... और इसमें बात ही क्या है। यज़दानी और सन्ता सिंह ने बारहा मुझसे कहा है कि वो रिफ़अत-ए- ज़हनी की ज़ियादा परवाह करते हैं और वर्सटेड की कम।”
मुझसे कोई पूछे, मैं वर्सटेड की ज़ियादा परवाह करता हूँ और रिफ़अत-ए- ज़हनी की कम।

यज़दानी रुख़्सत हुआ और जब तक वो नज़र से ओझल न हो गया,मैं ग़ौर से उसके कोट के नफ़ीस वर्सटेड को पुश्त की जानिब से देखता रहा।

फिर मैंने सोचा कि सबसे पहले मुझे पुष्पामणि के गुलाब जामुन और इमरतियाँ ख़रीदनी चाहिऐं। कहीं वापसी पर सचमुच भूल ही न जाऊँ। घर पहुँच कर उन्हें छुपाने से ख़ूब तमाशा रहेगा। मिठाई की दुकान पर खौलते हुए रोग़न में कचौरियाँ ख़ूब फूल रही थीं। मेरे मुँह में पानी भर आया। इस तरह जैसे गुलाब जामुन के तख़य्युल से पुष्पामणि के मुँह में पानी भर आया था। क़ब्ज़ और इत्रिफ़ल ज़मानी के ख़याल के बावजूद में सफ़ेद पत्थर की मेज़ पर कुहनियाँ टिका कर बहुत रग़बत से कचौरियाँ खाने लगा।

हाथ धोने के बा’द जब पैसों के लिए जेब टटोली, तो उसमें कुछ भी न था। दस का नोट कहीं गिर गया था।

कोट की अंदरूनी जेब में एक बड़ा सुराख़ हो रहा था। नक़ली रेशम को टिड्डियाँ चाट गई थीं। जेब में हाथ डालने पर उस जगह जहाँ मरांजा, मरांजा एंड कंपनी का लेबल लगा हुआ था, मेरा हाथ बाहर निकल आया। नोट वहीं से बाहर गिर गया होगा।
एक लम्हा में मैं यूँ दिखाई देने लगा, जैसे कोई भोली सी भेड़ अपनी ख़ूबसूरत पश्म उतर जाने पर दिखाई देने लगती है।
हलवाई भाँप गया। ख़ुद ही बोला, “कोई बात नहीं बाबू जी... पैसे कल आ जाएँगे।”
मैं कुछ न बोला... कुछ बोल ही न सका।

सिर्फ़ इज़हार-ए-तशक्कुर के लिए मैंने हलवाई की तरफ़ देखा। हलवाई के पास ही गुलाब जामुन चाशनी में डूबे पड़े थे। रोग़न में फूलती हुई कचौरियों के धुएँ में से आतिशीं सुर्ख़ इमरतियाँ जिगर पर-दाग़ लगा रही थीं... और ज़हन में पुष्पामणि की धुँदली सी तस्वीर फिर गयी।

मैं वहाँ से बादामी बाग़ की तरफ़ चल दिया और आध पौन घंटे के क़रीब बादामी बाग़ की रेलवे लाईन के साथ-साथ चलता रहा। इस अरसे में जंक्शन की तरफ़ से एक मालगाड़ी आयी। उसके पाँच मिनट बा’द एक शंट करता हुआ इंजन जिसमें से दहकते हुए सुर्ख़ कोयले लाईन पर गिर रहे थे... मगर उस वक़्त क़रीब ही की साल्ट रीफ़ाइनरी में से बहुत से मज़दूर ओवर टाइम लगा कर वापस लौट रहे थे... मैं लाईन के साथ-साथ दरिया के पुल की तरफ़ चल दिया। चाँदनी-रात में सर्दी के बावजूद कॉलेज के चंद मनचले नौजवान कश्ती चला रहे थे।

“क़ुदरत ने अ’जीब सज़ा दी है मुझे”, मैंने कहा। पुष्पामणि के लिए गोटे की मग़ज़ी, दुसुती, गुलाब जामुन और शम्मी के लिए काफ़ूरी मीनाकार काँटे न ख़रीदने से बढ़कर कोई गुनाह सरज़द हो सकता है। किस बेरहमी और बेदर्दी से मेरी एक हसीन मगर बहुत सस्ती दुनिया बर्बाद कर दी गई है... जी तो चाहता है कि मैं भी क़ुदरत का एक शाहकार तोड़-फोड़ के रख दूँ।
मगर पानी में कश्ती-राँ लड़का कह रहा था, “इस मौसम में तो रावी का पानी घुटने-घुटने से ज़ियादा कहीं नहीं होता।”
“सारा पानी तो ऊपर से अपरबारी दोआब ले लेती है... और यूँ भी आजकल पहाड़ों पर बर्फ़ नहीं पिघलती।” दूसरे ने कहा।
मैं नाचार घर की तरफ़ लौटा और निहायत बे-दिली से ज़ंजीर हिलाई।

मेरी ख़्वाहिश और अंदाज़े के मुताबिक़ पुष्पामणि और बच्चू नन्हा बहुत देर हुई दहलीज़ से उठ कर बिस्तरों में जा सोए थे। शम्मी चूल्हे के पास शहतूत के नीम जान कोयलों को ताप्ती हुई कई मर्तबा ऊँघी और कई मर्तबा चौंकी थी। वो मुझे ख़ाली हाथ देखकर ठिटक गयी। उसके सामने मैंने चोर जेब के अंदर हाथ डाला और लेबल के नीचे से निकाल लिया। शम्मी सब कुछ समझ गयी। वो कुछ न बोली... कुछ बोल ही न सकी।

मैंने कोट खूँटी पर लटका दिया। मेरे पास ही दीवार का सहारा लेकर शम्मी बैठ गयी और हम दोनों सोते हुए बच्चों और खूँटी पर लटकते हुए गर्म कोट को देखने लगे।
अगर शम्मी ने मेरा इंतेज़ार किए बग़ैर वो काफ़ूरी सूट बदल दिया होता, तो शायद मेरी हालत इतनी मुतग़य्यर न होती!
यज़दानी और सन्ता सिंह तफ़रीह क्लब में परेल खेल रहे थे। उन्होंने दो-दो घूँट पी भी रखी थी। मुझसे भी पीने के लिए इसरार करने लगे, मगर मैंने इंकार कर दिया। इसलिए कि मेरी जेब में दाम न थे। सन्ता सिंह ने अपनी तरफ़ से एक-आध घूँट ज़बरदस्ती मुझे भी पिला दिया। शायद इसलिए कि वो जान गए थे कि उसके पास पैसे नहीं हैं। या शायद इसलिए कि वो रिफ़अ’त-ए-ज़हनी की वर्सटेड से ज़ियादा परवाह करते थे।

अगर मैं घर में उस दिन शम्मी को वही काफ़ूरी सफ़ेद सूट पहने हुए देखकर न आता तो शायद परेल में क़िस्मत आज़माई करने को मेरा जी भी न चाहता। मैंने कहा, काश! मेरी भी जेब में एक दो रुपये होते। क्या अजब था कि मैं बहुत से रुपये बना लेता मगर मेरी जेब में तो कुल पौने चार आने थे।

यज़दानी और सन्ता सिंह निहायत उ’म्दा वर्सटेड के सूट पहने नेक आ’लम,( क्लब के सेक्रेटरी) से झगड़ रहे थे। नेक आ’लम कह रहा था कि वो तफ़रीह क्लब को परेल क्लब और ‘बार’ बनते हुए कभी नहीं देख सकता। उस वक़्त मैंने एक मायूस आदमी के मख़सूस अंदाज़ में जेब में हाथ डाला और कहा, “बीवी बच्चों के लिए कुछ ख़रीदना क़ुदरत के नज़दीक गुनाह है। इस हिसाब से परेल खेलने के लिए तो उसे अपनी गिरह से दाम दे देने चाहिऐं। ही ही... ग़ी ग़ी...”

अंदरूनी केसा... बाईं निचली जेब... कोट में पुश्त की तरफ़ मुझे कोई काग़ज़ सरकता हुआ मा’लूम हुआ। उसे सरकाते हुए... मैंने दाईं जेब के सुराख़ के नज़दीक जा निकाला।

वो दस रुपये का नोट था, जो उस दिन अंदरूनी जेब की तह के सुराख़ में से गुज़र कर कोट के अंदर ही अंदर गुम हो गया था!

उस दिन मैंने क़ुदरत से इंतिक़ाम लिया। मैं उसकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ परेल वरेल न खेला। नोट को मुट्ठी में दबाए घर की तरफ़ भागा। अगर उस दिन मेरा इंतेज़ार किए बग़ैर शम्मी ने वो काफ़ूरी सूट बदल दिया होता, तो मैं ख़ुशी से यूँ दीवाना कभी न होता।
हाँ, फिर चलने लगा वही तख़य्युल का दौर। गोया एक हसीन से हसीन दुनिया की तख़लीक़ में दस रुपये से ऊपर एक दमड़ी भी ख़र्च नहीं आती। जब मैं बहुत सी चीज़ों की फ़ेहरिस्त बना रहा था, शम्मी ने मेरे हाथ से काग़ज़ छीन कर पुरज़े-पुरज़े कर दिया और बोली,
“इतने क़िले मत बनाइऐ... फिर नोट को नज़र लग जाएगी।”
शम्मी ठीक कहती है। मैंने सोचते हुए कहा, “न तख़य्युल इतना रंगीन हो, और न महरूमी से इतना दुख पहुँचे।”

फिर मैंने कहा, “एक बात है शम्मी! मुझे डर है कि नोट फिर कहीं मुझसे गुम न हो जाए... तुम्हारी खेमू पड़ोसन बाज़ार जा रही है। उसके साथ जा कर तुम ये सब चीज़ें ख़ुद ही ख़रीद लाओ... काफ़ूरी मीना-कार काँटे... डी.एम.सी. के गोले, मग़ज़ी... और देखो पोपी मुँह के लिए गुलाब जामुन ज़रूर लाना... ज़रूर...”
शम्मी ने खेमू के साथ जाना मंज़ूर कर लिया और उस शाम शम्मी ने कश्मीरे का एक निहायत उ’म्दा सूट पहना।

बच्चों के शोर-ओ-ग़ौग़ा से मेरी तबीअ’त बहुत घबराती है। मगर उस दिन मैं अरसे तक बच्चू नन्हे को उसकी माँ की गैर-हाज़िरी में बहलाता रहा। वो रसोई से ईंधन की कोलकी, ग़ुस्ल-ख़ाने की नीम छत पर... सब जगह उसे ढूँढता फिरा।मैंने उसे पुचकारते हुए कहा,

“वो ट्राइसिकल लेने गई है... नहीं जाने दो। ट्राइसिकल गंदी चीज़ होती है। आख़ थू... ग़ुब्बारा लाएगी, बी-बी , तुम्हारे लिए, बहुत ख़ूबसूरत ग़ुब्बारा...”
बच्चू बेटी ने मेरे सामने थूक दिया। बोली, “ए... ई... गंडी।”
मैंने कहा, “कोई देखे तो... कैसा बेटियों जैसा बेटा है।”
पुष्पामणि को भी मैंने गोद में ले लिया और कहा,पोपी मुन्ना... आज गुलाब जामुन जी भर कर खाएगा न...”
उसके मुँह में पानी भर आया। वो गोदी से उतर पड़ी। बोली, “ऐसा मा’लूम होता है... जैसे एक बड़ा सा गुलाब जामुन खा रही हूँ।”
बच्चू रोता रहा। पुष्पामणि कथकली मुद्रा से ज़ियादा हसीन नाच बरामदे में नाचती रही।

मुझे मेरे तख़य्युल की परवाज़ से कौन रोक सकता था। कहीं मेरे तख़य्युल के क़िले ज़मीन पर न आ रहें। इसी डर से तो मैंने शम्मी को बाज़ार भेजा था। मैं सोच रहा था। शम्मी अब घोड़े हस्पताल के क़रीब पहुँच चुकी होगी... अब कॉलेज रोड की नुक्कड़ पर होगी... अब गंदे इंजन के पास...
और एक निहायत धीमे अंदाज़ से ज़ंजीर हिली।
शम्मी सचमुच आ गयी थी। दरवाज़े पर।
शम्मी अंदर आते हुए बोली, “मैंने दो रुपये खेमू से उधार लेकर भी ख़र्च कर डाले हैं।”
“कोई बात नहीं”, मैंने कहा।
फिर बच्चू, पोपी, मुन्ना और मैं तीनों शम्मी के आगे पीछे घूमने लगे।
मगर शम्मी के हाथ में एक बंडल के सिवा कुछ न था। उसने मेज़ पर बंडल खोला...
वो मेरे कोट के लिए बहुत नफ़ीस वर्सटेड था।
पुष्पामणि ने कहा, “बी-बी मेरे गुलाब जामुन...”
शम्मी ने ज़ोर से एक चपत उसके मुँह पर लगा दी।

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