गाँव की पाठशाला (कहानी) : वेलूरि शिवराम शास्त्री

Gaon Ki Pathshala (Telugu Story in Hindi) : Veluri Shivarama Sastry

(आन्ध्र प्रदेश की चटसालों में सब से पहले पहुँचने वाले छात्र के हाथ में गुरु उंगली से 'श्री' लिखता है। दूसरे के हाथ में 'तारा' लिखा जाता है और देर से आने वाले छात्रों के हाथ पर छड़ी पड़ती है। 'श्री' पाने वाला छात्र छड़ी मारता है। देर से आने वाले छात्र को क्रमश: अधिक छड़ियाँ लगती हैं।)

(प्रभात)

प्रातः दही मथते समय ज्यों ही नृत्य, गीत और वाद्य का संयोग हुआ, तिरुमलाचारी 'श्री' प्राप्त करने के लिए पाठशाला की ओर वेग से दौड़ पड़ा। रेड्डी साहब के चबूतरे पर पाठशाला लगती है।

बालक तिरुमलाचारी ने चबूतरे पर चढ़कर देखा तो इधर-उधर कुछ दिखाई नहीं दिया। तब तक उजाला नहीं हुआ था। उसने दीवर भी टटोल डाली, कोई लड़का उस समय तक नहीं आया था। उसे यह जानकर बहुत संतोष हुआ कि आज की 'श्री' उसे ही मिलेगी। उसने रेड्डी साहब के बेटे को बुलाया, किंतु उत्तर नहीं मिला। वह बैठ गया। शाबाशी पाने का नशा और चढ़ गया। थोड़ी सी देर में निद्रा देवी ने उसे अपनी गोद में ले लिया।

गाँव के कोने में एक घर है। इस घर का बालक जानार्दन चौंककर उठा। उसने देखा, दनिया को छोडते समय अंधकार इधर-उधर घूम-घूमकर देख रहा है। जनार्दन 'श्री' पाने के लिए उतावला हो गया। उसने जल्दी-जल्दी बस्ता उठाया, दवात में पानी डाला और पाठशाला की ओर भाग खड़ा हुआ। उसने पाठशाला में देखा, उसकी 'श्री' लूटकर कोई पहले से ही वहाँ लेटा हुआ है।

जनार्दन ईर्ष्या से जलने लगा। तिरुमलाचारी को मारने के लिए जनार्दन का पाँव गज भर ऊपर उठा, किंतु वह मार न सका। लात ऊपर ही रुक गई। उसने मन-ही-मन धर्मयुद्ध करने का निश्चय किया। चुपचाप बैठकर वह दतौन करने लगा।

दतौन करते समय मन में कई प्रकार के विचार उठते हैं। जनार्दन भी एक के बाद एक उठनेवाले विचारों में डूब गया। वह सोचने लगा कि तिरुमलाचारी को मिलनेवाली 'श्री' कैसे लूटी जा सकती है।

जनार्दन की आयु थोड़ी ही थी, किंतु गुणों के कारण वह प्रशंसा का पात्र था। इसीलिए तो उसने सरकार की पाशविक शक्ति से काम न लेकर वकीलों की तर्कशक्ति से काम लेने का निश्चय किया।

तभी रंगम्मा हाँफती-काँपती पाठशाला पहँची। उसने देखा-दो भूत वहाँ पहले ही उपस्थित हो चुके हैं। नानी के सिखाए हुए दो-चार मंत्र पढ़कर वह बैठ गई। जनार्दन ने मुँह धोकर रंगम्मा से कहा, "रंगी, कल तुमने चुड़वा नहीं दिया था। आज छड़ी से हथेली की चमड़ी उधेड़ दूंगा। आज की 'श्री' मुझे मिलेगी। वह जो सो रहा है, उसे 'तारा' मिलेगा और तुम्हें मिलेगी छड़ी।"

जनार्दन की बात सुनते ही रंगम्मा का कलेजा काँप गया। रोनी सूरत बनाकर उसने कहा, "मैं अब पाठशाला आऊँगी ही नहीं।" वह उठकर घर की ओर चल दी।

जनार्दन ने समझौते के स्वर में कहा, "अच्छा, तुमको नहीं पीटूँगा; किंतु तुम्हें गुरुजी से कहना पड़ेगा कि जनार्दन सब से पहले पाठशाला पहुंचा है।"

रंगम्मा तेजी से घूमी। बोली, "तो क्या आज तुम्हें 'श्री' नहीं मिल रही है?"

जनार्दन ने रंगम्मा को अपनी मित्र मंडली में सम्मिलित करते हुए कहा, "यदि तुमने मेरा साथ दिया तो, आज ही नहीं, सदा के लिए छड़ी तो जोर से उठाऊँगा, किंतु हथेली को धीरे से छुआकर छड़ी हटा लूँगा-समझी?"

"अच्छा, तब तो मैं तुम्हारे पहले आने की ही बात कहूँगी।"

एक-एक करके बालक आने लगे। रंगम्मा प्रत्येक विद्यार्थी से कहने लगी-"जनार्दन के हाथ में 'श्री', तिरुमलाचारी की हथेली में 'तारा' और मेरी हथेली पर एक छड़ी।"

सभी छात्र कलियुग को कोसते हुए जात-पाँत की उपेक्षा करके सिलसिले से बैठने लगे। जनार्दन पट्टी पर लिखने लगा-जनार्दन–श्री, तिरुमलाचारी–तारा, रंगम्मा-एक छड़ी, उलक्कि-दो छड़ी।

(सूर्योदय)

सूरज निकल आया। पंडित रावुलपाटि राजय्या तालाब पर एक फुट लंबी दतौन करने लगे। दतौन करने के पश्चात् बालिश्त भर ऊँचे लोटे से पानी लेकर अपने मुख-मंडल का अभिषेक करने लगे। सूर्य नमस्कार समाप्त करके हाथी की चाल से चटसाल की ओर चले।

इधर चटसाल में तिरुमलाचारी ने जनार्दन के हाथ से पट्टी छीनकर सारे नाम मिटा दिए। इस आचरण से उत्तेजित होकर जनार्दन ने हाथों के साथ-साथ दाँतों का प्रयोग भी किया, तो तिरुमलाचारी हस्त-दंत के साथ तख्ती–कलम से भी प्रहार कर बैठा। रंगम्मा जनार्दन को बढ़ावा दे रही थी। शेष विद्यार्थी दो दलों में विभक्त होकर अपने-अपने नेता का जय-नाद करने लगे। चटसाल ने साप्ताहिक हाट का रूप धारण कर लिया।

गुरुजी चटसाल में आकर खजूर की चटाई पर बैठ गए। उन्होंने अपनी लाल-लाल आँखें एक बार चारों ओर घुमाई, तो हाट मसान में बदल गई। गुरुजी की आँखें चटसाल के बालकों के लिए ही नहीं, गाँव के बड़ेबड़े लोगों के लिए भी धूमकेतु के समान थीं।

'ला ऐंड ऑर्डर' के स्थापित होते ही विद्यार्थियों के नेता एल्लमंद ने प्रार्थना प्रारंभ की-

सरस्वती, नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणी,
विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा।

सभी विद्यार्थियों ने यह श्लोक दुहराया।

उस समय तक राजभक्ति अथवा राष्ट्रभक्ति से संबंधित गीतों का प्रचलन नहीं हुआ था। गुरुभक्ति से संबंधित स्तोत्र भी प्रचलित थे, किंतु उनका उल्लेख किसी पुस्तक में न होकर गुरुजी की छड़ी में रहता था।

पंडितजी ने अपने दुपट्टे की गाँठ खोली, उससे ताड़पत्रों की एक थैली बाहर निकाली, इस थैली से ऐनक लेकर उन्होंने आँखों पर जमाई।

पाठशाला में जब कोलाहल शांत हो गया तो पड़ोस में रहनेवाले पोन्नाड नागैया को पता चला कि गुरुजी ने अपना कार्य प्रारंभ कर दिया है। वह भी अपना बस्ता लेकर पहुँच गया।

पाठशाला में पहुँचते ही गुरुजी सबसे पहले 'रामकोटि' लिखते हैं, जिस तरह महर्षि व्यास को लिखने में गणेशजी से सहायता मिलती थी, उसी तरह गुरुजी लेखन कार्य में नागैया से सहायता लेते थे।

बंड सुब्बैया रामकोटि का बस्ता लाता था। आज वह अनुपस्थित था, अतः यह कार्य जनार्दन ने संपन्न किया।

नागैया ने रामकोटि के कागज निकाले और वह लिखने में व्यस्त हो गया।

जनार्दन खजूर की छड़ी लाया तो तिरुमलाचारी ने छड़ी छीन ली। जनार्दन चिल्ला उठा।

जनार्दन के चिल्लाने से 'रामकोटि' पर अनायास ही हनुमानजी की पूँछ की भाँति एक लंबी लकीर खिंच गई। गुरुजी का मुँह मारे क्रोध के लाल हो गया। छात्रों ने गुरुजी का मुंह देखा तो भविष्य की कल्पना से स्तब्ध रह गए।

गुरुजी अपनी मूंछों में उलझी हुई ऐनक अच्छी तरह निकाल भी नहीं पाए थे कि जनार्दन अपनी जगह से चिल्लाया-"गुरुजी, आज 'श्री' मुझे मिलनी चाहिए। तिरुमलाचारी व्यर्थ ही मेरे हाथ से छड़ी छीन रहा है।"

रंगम्मा तुरंत अपनी जगह से उठ खड़ी हुई। उसने जनार्दन का समर्थन किया। पंडितजी ने चश्मा नीचे रखकर रंगम्मा को अपनी ओर बुलाया। वे गरजकर बोले, "तुमसे किसने पूछा था? इधर आओ।"

रंगम्मा का कलेजा धक-धक करने लगा। वह जहाँ खड़ी थी, वहीं खड़ी रही। इंच भर भी न हिली। पंडितजी फिर गरज पड़े-"तुम्हीं को बुला रहा हूँ। तुम आती क्यों नहीं?" रंगम्मा जोर से रोने लगी और धम से अपनी जगह बैठ गई।

कुछ बालिकाओं ने सहारा देकर रंगम्मा को पंडितजी के सामने ला खड़ा किया। पंडितजी का क्रोध से लाल चेहरा देखकर रंगम्मा स्तब्ध रह गई। उसने अन्य बालिकाओं के बंधन से छूटने का प्रयत्न किया तो वे बालिकाएँ नागैया पर गिर गई और 'रामकोटि' पर स्याही फैल गई। नागैया ने लड़कियों को ऐसी-ऐसी गालियाँ दी, जो उसके मुँह से पहले कभी सुनाई नहीं दी थीं। रामकोटि की अपवित्रता के भय से नागैया उसे उठाए तालाब की ओर दौड़ा।

पंडितजी ने छड़ी चलाई। मार लगने से पहले ही रंगम्मा चीखती हुई पीठ के बल गिर पड़ी। दूसरी लड़कियाँ उसे खींचकर गुरुजी के सम्मुख ले जाने का प्रयत्न करने लगीं तो रंगम्मा पुकारी—"जनार्दन ने कहा था।"

जनार्दन तब दूर खड़ा रंगम्मा को घूर रहा था।

"क्यों रे जनार्दन, तूने कहा था!" पंडितजी ने तमककर पूछा।

"झूठ है गुरुजी, बिल्कुल झूठ है।"

"तब 'श्री' किसे मिलेगी?''

"मैं सब से पहले आया। जिस समय मैं मुँह धो रहा था, तिरुमलाचारी पाठशाला में आकर सो गया।"

"पाठशाला में आते ही मैंने क्या किया, यह तो बताओ।" तिरुमलाचारी पूछ बैठा। जनार्दन अपनी बुद्धि को तेज करने लगा। तिरुमलाचारी के प्रश्न से सभी छात्र प्रसन्न थे।

'श्री' तुम्हें मिलेगी। पंडितजी ने इतना कहकर सबको कलेवा करने की छुट्टी दे दी। और स्वयं 'रामकोटि' लिखने बैठे। पंडितजी ने गली में दो-तीन बार झाँककर देखा, नागैया का कहीं पता—ठिकाना नहीं था।

(मध्याह्न)

बालक-बालिकाएँ दल बाँधकर पाठशाला की ओर चले। कोई-कोई अकेला भी आ रहा था। आज की 'श्री' और 'तारे' का रहस्य जानने के लिए सभी उत्सुक थे।

बालक-बालिकाओं के हाथों में कम सामान नहीं था। बाएँ हाथ में तख्ती के साथ 'बाल-शिक्षक' नाम पुस्तक। दाएँ हाथ में दाल-सेव, चुड़वा तथा अन्य खाद्य सामग्री। इस सामग्री में कुछ पाने की आशा बाँधे साथ-साथ चलनेवाले चार-पाँच कुत्ते और दस-पंद्रह कौए।

भिखारिन नागम्मा भीख माँगकर लाठी टेकती घर लौट रही थी। वह अस्सी की रही होगी। कुछ समय पूर्व ही नागम्मा ने अपना सिर मुंडवा लिया था, इसीलिए बालक नारियल कह-कहकर मजाक करते थे। विद्या तथा विनय प्राप्त करने के लिए जो बालक-बालिकाएँ पाठशाला जा रहे थे, उन्हें देखकर नागम्मा ने अपना सिर ढक लिया। वह तेजी से आगे बढ़ने लगी।

नागुलु और पानकालु ने भिखारिन को टोका-"हमें नारियल का टुकड़ा न दोगी?"

नागम्मा ने गालियों की बौछार शुरू की। ये गालियाँ किसी शब्दकोष में नहीं पाई जा सकतीं। बच्चे चिल्लाकर अपने काव्य-प्रेम का परिचय देने लगे।

नागम्मा, नागम्मा, नागम्मा,
नागम्मा, नागम का सिर-नारियल का फल!

नागम्मा भी चुप नहीं रही। उसने टोला, पत्थर जो हाथ आया, लड़कों पर फेंकना शुरू किया। लड़के पाठशाला की ओर भाग खड़े हुए। पंडितजी ने रामकोटि लिखना बंद करके पूछा, "बंड सुब्बैया कहाँ है?"

बंड सुब्बैया अनुपस्थित था। अत: उसका काम पानकालु को सौंपा गया। पानकालु का गुरु-भक्ति का अवसर मिला तो वह मारे खुशी के फूला न समाया। गुरुजी के लिए तमाखू लाने के लिए दौड़ा।

बालक एक-एक करके गुरुजी के सामने खड़े होने लगे। पंडितजी ने लड़कों को गृह-कार्य देखा। जब गृह-कार्य देख चुके तो जनार्दन और तिरुमलाचारी को अपने पास बुलाकर प्रश्न किया—“सच-सच बताओ, आज की 'श्री' किसे मिलनी चाहिए?"

डरते-डरते जनार्दन ने कहा, "मुझे।"

तिरुमलाचारी ने कहा, "मुझे।"

"अबे, तुझे 'श्री' किस तरह मिल सकती है? तुझे सोता देख तेरी 'श्री' तो जनार्दन हड़प कर गया।"

पंडितजी ने इतना कहकर जनार्दन की हथेली में कभी न मिटनेवाली 'श्री' अंकित कर दी। तिरुमलाचारी से पूछा, 'क्यों बे! तुझे भी 'श्री' चाहिए?' तिरुमलाचारी ने गरदन हिलाकर अस्वीकार किया तो रंगम्मा के हाथ ने भी 'श्री' का आधा आनंद उठाया। अन्य लड़कों को छड़ी मारने का अधिकार तिरुमलाचारी को मिला।

पानकालु को मार से छुटकारा मिला। वह तमाखू लाकर पंडितजी का चुट्टा (चुरुट) बनाने लगा। जब चुट्टा बन चुका तो उसने वह पंडितजी के कर-कमलों में सौंप दिया। पंडितजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पूछा,

"तमाखु कहाँ से लाया?" पानकालु ने अपने हस्त-कौशल का परिचय देने के लिए कहा-

"हमारी दुकान से चुराकर लाया हूँ गुरुजी!''

"माल कहाँ का है?"

"किष्टैया के बगीचे का।"

"अच्छा, लेकिन बंड सुब्बैया तो कुम्हड़ेवाले खेत की तमाखू लाता है। थोड़ी तुमने अपने लिए तो तमाखू नहीं चबा ली है?"

"नहीं गुरुजी!" पानकालु उठ खड़ा हुआ और अपने कपड़े झाड़ने लगा। पंडितजी ने चुट्टा अपने मुँह में पकड़ा। रेड्डीजी का लड़का घर से आग ले आया।

पानकालु पीतल का लोटा ले आया तो पंडितजी भोजन करने चले गए।

(सायंकाल)

पाठशाला के सबसे छोटे लड़के बापुल ने अंदर झाँककर हाथ से इशारा किया। इस इशारे का मतलब सभी विद्यार्थी तत्काल समझ गए। इशारे का मतलब था-पंडितजी पाठशाला में आ रहे हैं। पाठशाला में शांति छा गई।

गुरुजी लोटे के पानी से कुल्ला करके अंदर आए। पानकाल ने चटाई साफ करके बिछा दी और सिरहाने की ओर चटाई के नीचे घास जमा करके तकिया लगा दिया। पंडितजी ने चटाई पर जैसे ही अपना दुपट्टा बिछाया, सब लड़के घरों को चले गए और पंडितजी शीघ्र ही खर्राटे भरने लगे।

गाढ़-निद्रा में पंडितजी के पेट से ऐसी ध्वनि निकल रही थी, जैसे कोई चरखा चल रहा हो। कुछ लोगों ने इस ध्वनि से अनुमान लगाया कि रेड्डीजी के घर धुनिया आया है, चलो अपनी रुई भी पिनवा लें, किंत रेड्डीजी के यहाँ रुई ले गए तो बहुत निराशा हुई।

थोड़ी देर बाद पंडितजी ने करवट बदली। इस बार एक विचित्र प्रकार की ध्वनि होने लगी।

रेड्डीजी के घर में दूध के बरतन पर डाका डालने के लिए जो बिलाव आया था, वह पंडितजी पर हमला कर बैठा। पंडितजी की नाक से निकलनेवाली विचित्र प्रकार की ध्वनि से अनुमान लगाया था कि उसका कोई प्रतिद्वंदवी आ गया है। संयोग से रेड्डीजी के घर पहरा देनेवाला विश्वासी कुत्ता घटना स्थल पर पहुँच गया। कुत्ते को देखकर बिलाव ने छलाँग लगाई और दीवार पर जा बैठा। इधर कुत्ता पंडितजी के स्वर में स्वर मिलाकर जोर-जोर से भोंकने लगा।

एक-एक करके विद्यार्थी पाठशाला में आने लगे। उन्होंने कुत्ता भगा दिया। जागते ही पंडितजी ने पूछा, "सब लड़के आ गए?"

पाठशाला का सरदार एल्लमंदा उठा। बोला, "बंड सुब्बैया, नत्ति नागुलु, उलक्कि पातालंगाडु, पर्वतालु, जनार्दनजी, रंगम्माजी, चुकम्मा सुब्बि, ये सब अनुपस्थित हैं।"

पंडितजी ने इन बच्चों को पकड़ लाने का आदेश दिया। अबद्धालु, सत्यम, गन्नैया आदि योद्धाओं को लेकर एल्लमंदा हमला करने चला।

इन लड़कों से जनार्दन के पिता ने कहा, "जनार्दन ही नहीं, मैं भी पाठशाला चलता हूँ। मुझे तुम्हारे गुरुजी की खबर लेनी है।"

बाल योद्धाओं को यह घोषणा बहुत अच्छी लगी, किंतु अबद्धालु बोला, "ये बड़े लोग इसी तरह कहते हैं। पंडितजी के पास क्या कोई जाता है?"

वहाँ से लोग बंड सुब्बैया की खोज लगाते उसकी दुकान पर पहुँचे। दुकान पर बंड सुब्बैया के पिता गुरिबि सेट्टी बैठे थे। बालकों ने अपनी तथा बंड सुब्बैया की प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए पूछा, "सुब्बि सेठ कहाँ हैं, जी?"

"अरे, मैं तो सोच रहा था—गुरुजी ने दंड देने के लिए उसे पाठशाला में ही रोक लिया है। वह तो घर आया ही नहीं। अब तक उसने भोजन भी नहीं किया। तुम लोग उसका पता तो लगाओ जरा।"

सब लड़कों को इस कथन से आश्चर्य हुआ। सबने विचार-विमर्श के बाद निश्चय किया कि हो-नहो, सुब्बैया रेड्डीजी के बगीचे में मिलेगा। वे इस बगीचे में पहुँचे। बगीचे में माली नहीं था। कैरियाँ कुछ बड़ी हो रही थीं। सब लड़के आम के पेड़ पर चढ़ बैठे।

एल्लमंदा बोला, "देखो, बंड सुब्बैया वहाँ है?" एक साथ कई लड़कों के मुँह से निकला-"कहाँ?"

एल्लमंदा ने उत्तर दिया-"कुम्हड़े के खेत में देखो।"

सब लड़के बंदरों की तरह पेड़ से नीचे उतर आए। झुक झुककर, बैठ–बैठकर कुछ दूर चले! नाम तो कुम्हड़े का खेत है, लेकिन उगाई जाती है तमाखू। गुरुभक्त बंड सुब्बैया चुन-चुनकर तमाखू के पत्ते तोड़ रहा था। एक साथ पाँच-छह लड़कों का बोझ ऊपर पड़ा तो वह घबरा गया। उसने सोचा, माली ने हमला किया है। बंड सुब्बैया ने दूसरे क्षण ही ऐसा झटका दिया कि सब लड़के जमीन पर चारों खाने चित्त! लड़कों ने उसे धमकी दी—"हम लोग पंडितजी से कहेंगे।"

पंडितजी का नाम सुनते ही वह लड़कों के अधीन हो गया।

बंड सुब्बैया ने तमाखू के पत्ते ताड़ के पत्ते में बाँध लिये और वह भी उस दल में सम्मिलित हो गया। इन लोगों ने उलक्कि आदि अनुपस्थित रहनेवाले विद्यार्थियों को अपने साथ लिया और फिर सब-के-सब पाठशाला पहुंचे।

इन बच्चों के पहुँचते ही पंडितजी ने पढ़ाना बंद किया। बंड सुब्बैया से तमाखू लेकर अनुपस्थित रहनेवाले लड़कों को यथोचित दंड दिया।

सारे बालक महारानी के लिए उठ खड़े हुए। पहाड़े बोलने लगे। उसी समय गाँव के कई प्रतिष्ठित लोग चिट्ठी तथा दस्तावेज लिखाने के लिए आ पहुँचे। जब पंडितजी इन लोगों का काम कर चुके तो खड़े होकर बोले-

दीपं ज्योतिः परब्रह्म दीपं ज्योतिः परायणम्
दीपं हारतु मे पापं संध्यादीप, नमोस्तु ते।

सभी छात्रों ने यह श्लोक दुहराया। रेड्डी साहब के यहाँ बहीखाता लिखने का समय हो चुका था। सब बच्चे घर को चल दिए। कुछ लड़के बार-बार मुड़-मुड़कर देख रहे थे कि जनार्दन को लिये उसके पिता अब तक आए या नहीं।

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