गंगा मैया (उपन्यास) : भैरव प्रसाद गुप्त

Ganga Maiya (Hindi Novel) : Bhairav Prasad Gupta

एक

उस दिन सुबह गोपीचन्द की विधवा भाभी घर से लापता हो गयी, तो टोले-मोहल्ले के लोगों ने मिलकर यही तय किया कि यह बात अपनों में ही दबा दी जाए; किसी को कानों-कान ख़बर न हो। उन लोगों ने ऐसा किया भी, लेकिन जाने कैसे क्या हुआ कि गोपीचन्द के दरवाज़े पर हलके का दारोग़ा एक पुलिस और चौकीदार के साथ नथुने फुलाये, आँखों में रोष भरे आ धमका। उस वक़्त उन लोगों की हालत कुछ वैसी ही हो गयी, जैसी एक चोर की सेंध पर ही पकड़े जाने पर होती है।

दारोग़ा ने तीखी दृष्टि से इकट्ठे हुए मोहल्ले के लोगों को देखकर, एक ताव खाकर पैंतरा बदला और पुलिस की ओर इशारा करके गरजकर बोला, ‘‘सबके हाथों में हथकडिय़ाँ कस दो!’’ फिर चौकीदार की ओर मुडक़र कहा, ‘‘तुम जरा मुखिया को तो ख़बर कर दो।’’ कहकर वह आग उगलती आँखों से एक बार लोगों की ओर देखकर चारपाई पर धम्म से बैठ गया। उस वक़्त उसकी डंक-सी मूँछे काँप रही थीं।

लोगों को तो जैसे काठ मार गया हो। सब-के-सब सिर झुकाये हुए काठ के पुतलों की तरह जहाँ-के-तहाँ खड़े रहे। किसी के कण्ठ से बोल न फूटा। फूटता भी कैसे? पुलिस ने बारी-बारी से सबके हाथों में हथकडिय़ाँ कसकर, उन्हें दारोग़ा के सामने लाकर जमीन पर बैठा दिया।

गाँव के लोगों की भीड़ वहाँ जमा हो गयी। गोपीचन्द की बूढ़ी माँ जो अब तक मसलहतन चुप्पी साधे हुए थी, दरवाज़े पर ही बैठकर जोर-जोर से चीख़कर रो पड़ी। पता नहीं कहाँ से उसके दिल में अपनी विधवा बहू के लिए अचानक मोह-माया उमड़ पड़ी। गोपीचन्द का बूढ़ा बाप जो बरसों पहले से लगातार गठिया का रोगी होने के कारण चलने-फिरने से कतई मजबूर होकर ओसारे के एक कोने में पड़ा-पड़ा कराहा करता था, बाहर का हो-हल्ला और औरत की रुलाई सुनकर उठ बैठा और खाँसने-खँखारने लगा कि कोई उस अपाहिज के पास भी आकर बता जाए कि आख़िर बात क्या है!

गोपीचन्द गाँव का एक मातबर किसान था। भगवान् ने उसे शरीर भी खूब दिया था। तीस साल का वह हैकल जवान अपने सामने किसी को कुछ न समझता था। यही वजह थी कि इतना कुछ होने पर भी जमा हुई भीड़ में से कोई उसके ख़िलाफ कुछ कहने की हिम्मत न कर रहा था। उसे हथकड़ी पहने, सिर झुकाये, चुपचाप बैठे देखकर लोगों को आश्चर्य हो रहा था क्यों नहीं वही कुछ बोल रहा है? आख़िर इसमें उसका दोष ही क्या हो सकता है? किसी विधवा के लिए रजपूतों के इस गाँव में यह कोई नयी बात तो है नहीं। कितनी ही विधवाओं के नाम उनके होठों पर हैं, जो या तो पतित होकर मुँह काला कर गयीं, या किसी दिन लापता हो गयीं, या किसी कुएँ-तालाब की भेंट चढ़ गयीं। लेकिन जो भी हो, यह घर की बहू थी, इज्जत थी; इस तरह लापता होकर उसने कुल की मान-मर्यादा पर तो बट्टा लगा ही दिया। शायद इसी लज्जा के दुख के कारण वह इस तरह चुप है। होना भी चाहिए, इज्जतदार आदमी जो ठहरा!

साधारण गरीब आदमियों से उलझना पुलिस वाले नापसन्द करते हैं। बहुत हुआ तो इस तरह की वारदातों पर एकाध थप्पड़ लगा दिया, कुछ डाँट-फटकार दिया या गाली-गुफ्ता की एक बौछार छोड़ दी। वे जानते हैं कि उनसे उलझना अपना वक़्त बरबाद करना है, हाथ तो कुछ लगेगा नहीं। फिर गुनाह बेलज्जत का आजाब सिर पर क्यों लें? जान-बूझकर साधारण-से-साधारण बहाने पर भी उलझना तो उन्हें पैसेवाले इज्जतदारों से पसन्द है। दारोग़ा जी ने गोपीचन्द के इस मामले में जो इतनी फुर्ती, परेशानी और कर्तव्यय-परायणता का परिचय दिया, तो उन्हें किसी कुत्ते ने तो काटा नहीं था।

मुखिया के आते ही दारोग़ा आग के भभूके की तरह फट पड़ा। फिर उसने क्या-क्या कहा, कैसी-कैसी आँखें दिखाईं, क्या-क्या पैंतरे बदले और क्या-कुछ कर डालने की धमकियाँ ही नहीं दीं, बल्कि कर दिखाने के फतवे भी दे डाले, इसका कोई हिसाब नहीं। मुखिया होठों में ही मुस्कुराया, फिर गम्भीर होकर उसने वह सब पूरा कर डाला, जो दारोग़ा ने भूल से अधूरा छोड़ दिया था। फिर गोपीचन्द और उसके मोहल्ले के अपराधी लोगों को कुछ खरी-खोटी सुनाकर आप ही उनका वकील भी बन गया और उनकी ओर से माफी माँगने के साथ-साथ कुछ पान-फूल भेंट करने की बात चलाकर कहा, ‘‘दारोग़ा जी, इस गोपीचन्द न तो एक बार जेल की हवा खाकर भी जैसे कुछ नहीं सीखा! यह फिर जेल जायेगा, दारोग़ा जी, आख़िर हम कब तक इसे बचाये रखेंगे? इसे यह भी मालूम नहीं कि एक बार दाग लग जाने के बाद फिर गवाही-शहादत की भी जरूरत नहीं रह जाती!’’ फिर दूसरे लोगों की ओर हाथ उठाकर कहा, ‘‘और इनको मैं कहता हूँ कि इसके साथ-साथ इन्हें भी बड़े घर की सैर का शौक चर्राया है!’’

इसी बीच दारोग़ा अपना नया दाँव फेंकने के लिए अपनी मुद्रा उसके अनुकूल बनाने में काफी सचेष्ट रहा। मुखिया के चुप होते ही वह बरस पड़ा, ‘‘नहीं, साहब, नहीं! यह ऐसी-वैसी कोई वारदात होती तो कोई बात न थी। मगर यह संगीन मामला है! आख़िर मुझे भी तो किसी के सामने जवाबदेह होना पड़ता है!’’ कहकर वह ऐंठ गया।

मुखिया समझ गया। ‘खग जाने खगही के भाखा!’ हाथ बढ़ाकर उसने दारोग़ा का हाथ पकड़ा और उसे लेकर एक ओर हो गया।

दस मिनट के बाद वे लौटे, तो दारोग़ा ने नोट-बुक और पेंसिल जेब से निकालकर कहा, ‘‘गोपीचन्द, तुम अपना बयान तो दो।’’ फिर भीड़ की ओर देखकर पुलिस की ओर इशारा किया।

भीड़ भगा दी गयी। फिर गोपीचन्द के बयान दिये बिना ही दारोग़ा ने आप ही खानापूरियाँ कर लीं, वारदात में लापता विधवा के एक हाथ में रस्सी और दूसरे हाथ में घड़ा थमाकर उसे कुएँ पर भेज दिया गया और उसका पाँव काई-जमीं कुएँ की जगत पर फिसलाकर, कुएँ में गिराकर, उसे मार डाला गया। इधर गोपीचन्द की थैली का मुँह खुला, उधर कानून का मुँह बन्द हो गया। कहानी ख़त्म हो गयी।

गाँव में तरह-तरह की बातें उठीं। फिर ‘बहुत सी खूबियाँ थीं मरने वाले में’ के अनुसार लोगों ने उसके विषय में कोई चर्चा करके उसकी आत्मा को व्यर्थ कष्ट पहुँचाना अनुचित समझकर, अपने मुँह बन्द कर दिये। बात आयी गयी हो गयी। लेकिन...

दो

गोपीचन्द दो भाई थे। बड़े भाई मानिकचन्द और उसकी उम्र में मुश्किल से दो साल का फर्क था। पिता दो बैलों की खेती कराते थे। घर की भैंस थी। मानिकचन्द और गोपीचन्द भैंस का दूध पीते और घण्टों अखाड़े में जमे रहते। पिता ने उन्हें साँड़ों की तरह आजाद और बेफिक्र छोड़ दिया था। खेलने-खाने के यही तो दिन हैं; फिर जिन्दगी का जुआ कन्धे पर पडऩे के बाद किसे फुरसत मिलती है शरीर बनाने की? इसी वक़्त की बनी देह तो जिन्दगी-भर काम आएगी।

उगते हुए जवानों को आजादी, बेफिक्री, दूध और अखाड़े की कसरत जो मिली तो उनकी देह साँचें में ढलने लगी। उनकी जोड़ी जब अखाड़े में छूटती तो लोग तमाशा देखते और बड़ाई करते न थकते। जब अखाड़े से अपने सुडौल, खूबसूरत शरीर में धूल रमाये वे शेरों की तरह मस्त चाल से झूमते हुए घर लौटते, तो अपने राम-लक्ष्मण की जोड़ी देखकर माँ-बाप की छाती फूल उठती, चेहरा खुशी के मारे दमक उठता और उनकी आँखों से जैसे गर्व के दो दीप जल उठते। माँ उनकी बलैया लेती; बाप मन-ही-मन उनके लिए जाने कितनी शुभकामनाएँ करते!

बड़ाई जितनी मधुर है, उसका चस्का लग जाना उतना ही बुरा है। वह आदमी को अन्धा बना देती है! दोनों भाइयों के गढ़े-बने शरीर और उनके बल की बड़ाई गाँव में और आस-पास जो शुरू हुई, तो उन पर जैसे एक नशा-सा छा गया। खेल-खेल में जो कसरत उन्होंने शुरू की थी, वह धीरे-धीरे शौक बन गयी। फिर तो जैसे शरीर बनाने और बल बढ़ाने की जबर्दस्त धुन उनके सिर पर चढ़ गयी। माँ-बाप और गाँव के लोगों का बढ़ावा मिला। मानिक और गोपी की जोड़ी गाँव का नाम जवार में उजागर करेगी! और सचमुच मानिक और गोपी गाँव की शोहरत में चार चाँद लगाने को जी-जान से कटिबद्ध हो गये। बादाम घोटे जाने लगे, बकरे कटने लगे, घी में तर हलुए की सुगन्ध मोहल्ले में सुबह-शाम छायी रहने लगी। पिता अपनी गाढ़ी कमाई उन पर न्योछावर करने लगे। एक और दुधारू भैंस खूँटे पर आ बँधी।

नतीजा यह हुआ कि उम्र से दुगुना और तिगुना उनका शरीर और बल बढऩे लगा और पच्चीस का माथा छूते-छूते तो उनका शरीर और बल खासा हाथी की तरह हो गया। अब जो वे अखाड़े में छूटते, तो उनकी साँसों की फुँफकार की आवाज बीघों तक सुनायी पड़ती, जैसे दो साँड़ हुँकड़ रहे हों। जहाँ उनका पैर पड़ जाता, अखाड़े की जमीन बित्ता-बित्ता-भर धँस जाती और जो कोई अपनी जाँघ या बाजू पर ताल ठोंकता, तो मालूम होता, जैसे कोई बादल का टुकड़ा दूसरे बादल के टुकड़े से टकराकर गरज उठा हो। घण्टों वे दो पहाड़ों की तरह एक-दूसरे से टक्कर लेते और अखाड़े में जमे रहते। अखाड़े की मिट्टी खुद जाती, पसीने के धार बहने लगते, तब कहीं वे बाहर निकलने का नाम लेते। बाहर आकर वे हाथियों की तरह पसर जाते और उनके दो-दो, तीन-तीन शागिर्द हाथों में मिट्टी ले-लेकर उनके शरीर से बहते पसीनों की धारों को मल-मलकर घण्टों में सुखा पाते।

अब हाल यह था कि शरीर बेकाबू हुआ जा रहा था, अपार शक्ति की किरणें उनके रोम-रोम में फूट रही थीं, मोटी रगें सीमा तक स्वस्थ रक्त से फूल-फूलकर अब फटी-अब फटी-सी हो रही थीं और सुर्ख चेहरे से जैसे खून टपका पड़ रहा हो। ऊँचा माथा, रोबीली, खून उगलती-सी आँख, बाँकी मूँछें, सुडौल गरदन, उन्नत, चौड़ी-चकली, मैदान की तरह छाती, मांसल भुजाएँ, पुष्ट रानें, गठीली पिण्डलियाँ लिये, जोम से जरा शरीर को भाँजते, शक्ति और गर्व के नशे में मस्त हाथी की तरह झूमते जब वे चलते, तो लगता, जैसे उनके हर कदम के साथ जलजला चला आ रहा है, उनकी हर जुम्बिश पर दिशाएँ झुकी जा रही हैं, उनकी हर चितवन में ताकत की बिजलियाँ कौंध उठती हैं। माँ-बाप ने जब उन्हें ऐसी उन्नत अवस्था में देखा, तो गर्व और खुशी से फूले न समाये। गाँववालों ने देखा, तो आँखों में खुशी की चमक और होंठों पर सफलता की मुस्कुराहट लाकर कहा, ‘‘हाँ, अब वह वक़्त आ गया, जिसका इन्तजार हमें बरसों से था। अब देखें, कौन माई का लाल हमारे गाँव के इन शेरों के जोड़े के सामने से सिर उठाकर चला जाता है।’’

बाप से राय ली गयी, तो उन्होंने लापरवाही से कहा, ‘‘अरे, अभी तो ये बच्चे हैं!’’

लोगों ने समझाया, ‘‘तुम बाप हो। बाप के लिए तो बेटा बूढ़ा भी हो जाये, तब भी बच्चा ही रहता है। मगर सच तो यह है कि चढ़ती जवानी की उम्र ही कुछ कर गुजरने की होती है। अब वक़्त आ गया है कि इनके बल, जोर और कुश्ती का डंका गाँव की हद में ही बँधा न रहकर पूरे जवार, तहसील और जिले में ही न बजे, बल्कि पूरे सूबे और देश में भी इनका नाम चमक उठे। तुम अगर इस समय किसी तरह की कमजोरी दिखाओगे, तो इनके हौसले पस्त हो जाएँगे। तुम इन्हें खुशी से आज्ञा दो कि ये अपने नाम और कुल के मान पर चार चाँद लगाने के साथ ही गाँव का नाम भी उजागर करें!’’

बाप को अपने बेटों की ताकत का अन्दाजा न हो, ऐसी बात न थी। लेकिन उनके पितृ-हृदय में जहाँ बेटों को यशस्वी देखने की प्रबल कामना और उमंग थी, वहीं ममता और स्नेह की विपुलता के कारण जरा शंका और भय भी था कि कहीं...लोगों की बात सुनकर उनके होठों पर एक विराग की-सी मुस्कराहट फैल गयी, जैसे उन्हें अपने नाम और मान की कतई फिक्र न हो। नाम, मान, यश, वैभव की लालसा किसे नहीं होती! लेकिन यह लालसा दूसरों पर प्रकट कर इन दुर्लभ प्राप्तियों की महानता को कम करके कोई बुद्धिमान अपने को लोभी घोषित करके हास्यास्पद नहीं बनना चाहता। बाप अनुभवी आदमी थे। उन्होंने दिल की उठती उमंगों को दबाकर एक विरक्त की तरह कहा, ‘‘अगर तुम लोग ऐसा ही समझते हो, तो मैं इसमें किसी तरह की बाधा डालना नहीं चाहता। आख़िर उन पर गाँव का भी तो वही अधिकार है, जो मेरा है। गाँव की ही मिट्टी-पानी-हवा से तो उनकी देह बनी है। तुम लोग उन्हीं से कहो। अब तक वे हर तरह से आजाद रहें। आज भी वे जैसा चाहें, करने को आजाद हैं।’’

लोग खुश-खुश दोनों भाइयों के पास पहुँचे और उनके बाप की अनुमति की बात कहकर उन्होंने कहा, ‘‘अब तुम लोग बताओ, तुममें से कौन पहले कुश्ती में उतरना चाहता है?’’

वे दोनों अखाड़े में एक-दूसरे के दुश्मन बनकर उतरते थे, लेकिन अखाड़े के बाहर उनका आपसी व्यवहार इतना प्रेम-भरा था कि बस राम-लक्ष्मण का ही दृष्टान्त दिया जा सकता था। गोपी ने कहा, ‘‘मेरे रहते भैया को कुश्ती में नहीं उतरना पड़ेगा। बाबूजी और भैया की शुभ कामना और आशीर्वाद का बल पाने का हक मुझे ही तो भगवान् की ओर से मिला है!’’

मानिक गोपी से उम्र में बीस था, लेकिन शरीर और ताकत में गोपी मानिक से कहीं बीस था, यह खुद मानिक भी जानता था और गाँव के लोग भी। एक तरह से गोपी के पहले उतरने की बात से लोगों को भी खुशी ही हुई।

अच्छी सायत देखकर ब्राह्मण और नाई के साथ ललकार का पान जवार के नामी-गरामी पहलवानों के पास भेज दिया गया। इधर गोपी की तैयारी और जोर पकड़ गयी।

मानिक और गोपी के बारे में जवार के पहलवान बहुत-कुछ सुन ही न चुके थे, बल्कि उन्हें अपनी आँखों से देख भी चुके थे। उनमें से किसी को भी उनसे भिडऩे की हिम्मत न रह गयी थी। ब्राह्मण और नाई एक-एक कर सभी पहलवानों के यहाँ पहुँचे। लेकिन सब कोई-न-कोई बहाना करके टाल गये। आख़िर वे जवार के सबसे नामी बूढ़े जोखू पहलवान के अखाड़े में पहुँचे। जोखू को जब उनसे मालूम हुआ कि जवार का कोई भी पहलवान पान को हाथ लगाने की हिम्मत न कर सका, तो उसके अचरज का ठिकाना न रहा। ज्यादातर नामी पहलवान जोखू का लोहा मानने वाले या उसके शागिर्द थे। अपनी जवानी के दिनों में उसने एक बार जो अपना सिक्का जमा लिया था, वह आज के दिन तक वैसा ही जमा रहा था। किसी ने उससे भिडऩे की हिम्मत न की थी। उसी की तूती जवार में आज तक बोलती रही। आज अब वे जवानी के दिन न रहे। जोखू बूढ़ा हो चुका था। वह जानता था कि गोपी के मुकाबिले में उठकर वह अपनी उम्र-भर की सारी कमाई कीर्ति हमेशा के लिए खो देगा। लेकिन अब चारा ही क्या था? ब्राह्मण और नाई सब नामी-गरामी पहलवानों के यहाँ से, श्यामकर्ण घोड़े की तरह, गोपी की कीर्ति का फरहरा फहराते हुए चले आये थे। जोखू के यहाँ से भी अगर उसी तरह चले जाएँगे, तो लोग क्या समझेंगे? बूढ़ा शेर इस बेइज्जती की बात सोचकर तमतमा उठा! उसकी मर्दानगी को यह कैसे गवारा होता कि कोई ललकार कर उसके सामने से निकल जाए? जोखू बूढ़ा हो गया है। अब वह शरीर और बल नहीं रह गया। फिर भी पुराने खून का वह मर्द है, सच्चा मर्द! यों ललकार को स्वीकार किये बिना ही कायरों की तरह पहले ही वह कैसे सिर झुका देता? उसने पान उठा लिया और गरजकर, बजरंग बली की जय बोलकर उसे मुँह में डाल लिया।

लोगों ने जब यह सुना, तो अचरज करने के साथ ही वे बूढ़े जोखू की मर्दानगी और हिम्मत की दाद दिये बिना नहीं रह सके। उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा कि जवार के जवान पहलवानों को चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए! गोपी ने जब यह सुना, तो जैसे छोटा हो गया। अपने बाप की उम्र के पहलवान से लडऩा उसे कुछ जँचा नहीं। वह तो अपनी उम्र और जोड़ के किसी प_ से भिडऩा चाहता था। लेकिन अब हो ही क्या सकता था? एक बार बदकर कुछ और किया ही कैसे जा सकता था।

नियत तिथि पर गाँव का अखाड़ा बन्दनवार, अशोक के पत्तों के फाटकों और रंग-बिरंगी कागज की झण्डियों से खूब सजाया गया। वक़्त के बहुत पहले ही से जवार और दूर-दूर के गाँवों के लोगों की भीड़ जमने लगी।

माँ-बाप के आशीर्वाद लेकर फूलों के हारों से लदे हुए दोनों भाई बाजे-गाजे के साथ अपने गाँव के लोगों की भीड़ के आगे-आगे अखाड़े की ओर चल पड़े। भीड़ उमंग में बावली होकर बजरंग बली की जयजयकार से आसमान को गुँजा रही थी। लेकिन गोपी के दिल में वह खुशी, उत्साह और उमंग न थी, जिसकी उसने कभी ऐसा मौका आने पर कल्पना की थी। फिर भी मन की बात दबाकर वह ऊपरी जोश से भीड़ की खुशी में हिस्सा ले रहा था।

अखाड़े पर दो ओर से एक ही वक़्त गोपी और जोखू के दल पहुँचे। दोनों दलों ने जयजयकार की। मारू बाजे जोर-जोर से बजने लगे। वातावरण के कण-कण में वीर रस का संचार हो रहा था। भीड़ की आँखों में खुशी और उत्सुकता चमक रही थी। सब-के-सब अखाड़े के पास ही पिले पड़ रहे थे। गोपी और जोखू के अभिभावक उन्हें चारों ओर से घेरे शाबाशी के साथ ही तरह-तरह के गुर की बातों का जिक्र कर रहे थे। कोई बुज़ुर्ग पीठ ठोंककर उत्साह बढ़ा रहा था, तो कोई हम-उम्र हाथ मिलाकर विजय की कामना कर रहा था और सब छोटे शागिर्द पाँव छूकर सफलता के लिए भगवान् से प्रार्थना कर रहे थे।

गोपी अखाड़े में कूदे, इसके पहले ही मानिक ने उसके कान के पास मुँह ले जाकर चुपके-चुपके कहा, ‘‘बूढ़ा पुराना खुर्राट उस्ताद है। ज्यादा मौका न देना। हाथ मिलाते ही, पलक मारते ही...समझे? वरना कहीं गुँथ गया, तो फिर घण्टों की छुट्टी हो जाएगी! फिर हार भी खाएगा, तो कहने को रह जाएगा कि एक तो बूढ़े से लडऩा ही गोपी-जैसे जवान की ज्यादती थी, दूसरे लड़ा भी तो कहीं घण्टों में रीं-रीं कर...सो, यह कहने का मौका किसी को न मिले। बस, चटपट...’’

दो ओर से कूदकर वे अखाड़े में उतरे। दोनों ओर से जोर-जोर की जयकार हुई। मारू बाजे और जोर से बज उठे। भीड़ की आँखों की उत्सुकता की चमक में पुतलियों की थर्राहट बढ़ गयी।

दोनों ने झुककर अखाड़े की मिट्टी चुटकी से उठाकर माथे में लगाकर अपने गुरु का स्मरण किया। फिर हाथ मिलाने को एक-दूसरे की आँखों से आँखें मिलाये आगे बढ़े। हाथ बढ़े, अँगुलियाँ छुईं कि सहसा जैसे बिजली-सी कौंध गयी। गोपी ने जाने कैसे दाहिना पैर जोखू की कोख में मारा कि बूढ़ा एक चीख के साथ हवा में उछला, हवा ही से जैसे एक आह की आवाज आयी और दूसरे ही क्षण अखाड़े की मेंड़ पर पहाड़ के एक टुकड़े की तरह वह भहराकर गिर पड़ा। भीड़ में सन्नाटा छा गया। मारू बाजा थम गया। उसके दल के लोग आशंका से काँपते हुए उसकी ओर बढ़े। झुककर देखा तो वह ठण्डा पड़ चुका था। अब क्या था, उनकी आँखों में क्रोध के शोले भडक़ उठे। ‘‘यह अन्याय है, यह धोखा है, हाथ मिलाने के पहले ही गोपी ने जोखू उस्ताद को मार डाला। कुश्ती के कायदे को इस कायर ने तोड़ा है...हम इसे जीता न छोड़ेंगे।’’ इत्यादि क्रोध और क्षोभ में चीखती आवाजें भीड़ से उठ पडीं। गोपी ठक खड़ा था। उसकी समझ में खुद न आ रहा था कि अचानक यह क्या हो गया। लेकिन अब समझने-बूझने का मौका ही कहाँ था? जब जोखू के दल ने लाठियाँ उठा लीं तो दूसरा दल चुप कैसे रहता? लाठियाँ पट-पट बजने लगीं। तमाशबीनों में भगदड़ मच गयी। कइयों के सिर से खून की धारें बह चलीं, कई हाथ-पैर में चोट खाकर गिरकर तड़पने लगे। आख़िर जब जोखू के दलवालों ने देखा कि उनका पल्ला कमजोर पड़ रहा है, तो उनमें से कइयों ने खुद बीच-बचाव का शोर उठाया और अपने लोगों को ही रोकने लगे। गोपी के अपने गाँव का मामला था। जोखू के दल वाले पराये गाँव के थे। अगर रोक-थाम की उन्हें न सूझती तो एक आदमी भी बचकर न जा पाता। लाठियाँ धीरे-धीरे थम गयीं। फिर कचहरी में समझ लेने की धमकी देकर वे चले गये।

ऐसी वारदात को लेकर कचहरी दौडऩा स्वयं उनके लिए कोई प्रतिष्ठा की बात न हीं थी। इससे इज्जत घटती ही, बढ़ती नहीं। जोखू पहलवान की इस तरह जो मौत हो गयी थी, इससे जवार में क्या उनकी कम किरकिरी हुई थी, जो वे भरी कचहरी में इस बदनामी का ढोल पीटते। हलके के दारोग़ा ने पहले जरूर इस्तगासा दाखिल करने पर जोर दिया, लेकिन गोपी के दल ने जैसे ही उसकी जेब गरम कर दी, वह भी चुप्पी साध गया।

जो भी हो, इस वारदात का इतना नतीजा जरूर हुआ कि जोखू के गाँव वाले हमेशा के लिए गोपी और उनके खानदान के प्राणलेवा शत्रु बन गये। उनके दिलों में एक घाव बन गया। गोपी के दिल पर जोखू की इस तरह हुई मौत का इतना असर पड़ा कि उसने हमेशा के लिए लँगोट उतार फेंका। मानिक और गाँव के लोगों ने उसे बहुत समझाया, लेकिन वह टस-से-मस न हुआ। वह अब हर तरह से घर-गिरस्ती के कामों में बाप की मदद करने लगा।

तीन

धीरे-धीरे वे बातें पुरानी पड़ गयीं। बाप को अब अपने बेटों की शादी की फिक्र हुई। इसके पहले भी कई जगहों से रिश्ते आये थे, लेकिन उन्होंने ‘‘अभी क्या जल्दी है?’’ कहकर टाल दिया था। अबकी संयोग से एक ऐसा रिश्ता आ गया कि उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। सीता और उर्मिला की तरह दो प्रेममयी, सगी, प्रतिष्ठित कुल की सुशील बहनों की एक ही साथ दोनों भाइयों से सम्बन्ध की बात चली। जैसे बेटे थे, वैसे ही बहुएँ मिलने जा रही थीं। माँ तो वर्षों से बहुओं का मुँह देखने को तड़प रही थी। इस रिश्ते की चर्चा जिसने भी सुनी, उसी ने बाप को राय दी कि, ‘‘बस, अब कुछ सोचने-समझने की बात नहीं है। यह भगवान् की किरिपा है कि ऐसी बहुएँ मिल रही हैं। एक ही साथ जैसे दोनों बेटों के सभी संस्कार हुए, वैसे ही एक ही साथ ब्याह भी जितनी जल्दी हो जाए, अच्छा है।’’

खूब धूम-धाम से ब्याह हो गया। दो-दो सुशील सुन्दर बहुएँ घर में एक साथ क्या उतरीं, घर खमखम भर गया। माँ-बाप की खुशी का ठिकाना न रहा। जब उन्होंने देखा कि सचमुच बहुएँ उससे कहीं बढ़-बढक़र हैं जैसा कि उन्होंने सुना था, तो उनके सन्तोष-सुख के क्या कहने!

गोपी प्यारी पत्नी के साथ ही प्यारी भाभी पाकर निहाल हो गया। उसके लिए घर का संसार इतना मोहक, इतना सुखकर हो उठा कि वह बस घर में ही रमकर रह गया। बाहरी संसार से उसने एक तरह से नाता ही तोड़ लिया। वह एक धुन का आदमी था। पहले सांसारिक बातों, से अपना शरीर बनाने और कसरत की धुन में, कोई दिलचस्पी ही न थी। अब एक छूटा, तो दूसरे से वह इस तरह चिपक गया कि लोग देखते तो ताज्जुब करते। लोकाचार के बन्धनों के कारण उसे अपनी बीवी से मिलने-जुलने की उतनी आजादी न थी, जितनी भाभी से। भाभी से वह खुलकर मिलता और हँसी-मजाक के ठहाकों से घर को गुँजा देता। माँ-बाप का दिल घर के इस सदा हँसते वातावरण को देखकर खुशी से झूम उठता। मानिक को इन बातों में खुलकर हिस्सा लेने की आजादी न थी, फिर भी वह गोपी और भाभी का स्नेहमय व्यवहार देखकर मन-ही-मन हर्ष-विभोर हो उठता। भाई-भाई का प्रेम, बहन-बहन का प्रेम, देवर-भाभी का प्रेम, पुत्र माता-पिता, वधुओं का प्रेम, ऐसा लगता था जैसे चौबीसों घण्टे उस घर में अमृत की वर्षा होती हो-छक-छककर, नहा-नहाकर घर का प्रत्येक प्राणी आनन्द-विभोर है; कोई दुख नहीं, कोई अभाव नहीं, कोई चिन्ता नहीं, कोई शंका नहीं।

क्या अच्छा होता अगर वह फुलवारी हमेशा ऐसी ही गुलजार बनी रहती, इसके पौधे और फूल हमेशा इसी तरह खुशी से झूमते रहते! लेकिन दुनिया की वह कौन गुलजार फुलवारी है, जिसके पौधे और फूलों की खुशी को पतझड़ अपने मनहूस कदमों से नहीं रौंद देता?

मुश्किल से इस खुशी के अभी छ: महीने भी न गुजरे होंगे कि एक काली रात को खुशी की इस दुनिया के एक कोने में आग लग गयी। मानिक सत्यनारायणजी की कथा के लिए कुछ जरूरी सामान लेने कस्बे गया था। लौटने लगा तो काफी रात हो गयी थी। कस्बे से उसके गाँव का रास्ता जोखू के गाँव के सीवाने से होकर था। सामान की गठरी काँधें पर लटकाये वह तेजी से कदम बढ़ाये चला आ रहा था। उस गाँव के सीवाने के एक बाग में वह पहुँचा तो सहसा उसे लगा कि उसके पीछे कुछ लोग आ रहे हैं। मुडक़र उसने देखना चाहा कि तड़ाक से एक भरपूर लाठी उसके सिर पर बज उठी। फिर कई लाठियाँ साथ-साथ उसके ऊपर चारों ओर से बिजली की तेजी से चोट करने लगीं। उसका होश गायब हो गया। वह ज्यादा देर तक अपने को सँभाल न पाकर गिर पड़ा। सिर फट गया था। खून के धार बह रहे थे। इतने में उसे लगा कि किसी ने उसकी गर्दन पर लाठी पट करके रखी है, फिर उसे जोर से दबाया गया है। उसकी साँसें घुटती गयीं; आँखें बाहर निकल आयीं।

हत्यारे लाश को ठिकाने लगाने की बात अभी सोच ही रहे थे कि कुछ लोगों के आने की आहट पाकर भाग चले। वे लोग भी कस्बे से ही आ रहे थे। बाग में ऐन राह पर खून और लाश देखकर वे आशंका से ठिठक गये। गाँव के लोग ऐसी वारदातों में शहरियों की तरह भय खाकर भाग नहीं खड़े होते। ऐसे वक्तों पर भी अपना कर्तव्यं निभाना खूब जानते हैं। उन्होंने झुककर देखा और मानिक को पहचाना, तो उनके दुख की हद न रही। जवार का कोई ऐसा आदमी न था, जो उन दो भाइयों को और उनकी ताकत और बहादुरी को न जानता हो। क्षण-भर में उन्हें जोखू के साथ गोपी की कुश्ती की बातें याद हो आयीं। फिर सब-कुछ उनकी समझ में आप ही आ गया। जोखू के गाँववालों के इस बुजदिलाना व्यवहार से वे क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने एक आदमी को गोपी को ख़बर करने को भेजा। साथ ही उससे यह भी कहने को कहा कि पूरे दल-बल के साथ उसके गाँव वाले अभी आ जाएँ, ताकि इन बुजदिलों से मानिक की हत्या का बदला टटके ही ले लिया जाए।

‘‘बेचारा मानिक! उसकी जवान बहू की जिन्दगी हमेशा के लिए दुखी हो गयी! इन कायरों को इनका जघन्य पाप निगल जाएगा। बदला ही लेना था, तो मर्दों की तरह मैदान में लेते!’’ मानिक की लाश को घेरे हुए विषाद और क्रोध में बड़बड़ाते वे लोग वहीं बैठ गये।

गोपी के घर ख़बर पहुँची। माँ-बहुएँ छाती पीट-पीटकर, पछाड़ें खा-खाकर, चीख-चीखकर रो पड़ीं। गोपी को जैसे साँप सूँघ गया। वह सिर पकडक़र जहाँ का तहाँ बैठ गया। बाप दिल पर जैसे घूँसा खाकर पत्थर के बुत बन गये। इस आकस्मिक वज्रपात से उनका मस्तिष्क ही शून्य हो गया था।

सारे गाँव में इस हादसे की ख़बर बिजली की तरह फैल गयी। चारों ओर एक कुहराम-सा मच गया। सारा-का-सारा गाँव लाठी सँभाले हुए गोपी के दरवाज़े पर दुख और क्षोभ से पागल होकर इकट्ठा हो गया। औरतें उनकी माँ और बहुओं को सँभालने लगीं। बड़े-बूढ़े पिता को समझाने-बुझाने लगे। लेकिन जवानों को कहाँ चैन था? चारों ओर गोपी को घेरकर उसे भाई की हत्या का बदला लेने को ललकारने लगे।

थोड़ी देर तक तो गोपी सुध-बुध खोये उनकी बात सुनता रहा। फिर जैसे उसकी आँखों में लुत्तियाँ छिटकने लगीं। वह तड़पकर उठा और कोने में खड़ी गोजी उठाकर घायल शेर की तरह दौड़ पड़ा। उसके पीछे-पीछे गाँव के लट्ठबाज नौजवान आँखों में बदले की आग लिये बढ़ चले। उधर ख़बर पाकर चौकीदार थाने की ओर दौड़ा।

जोखू के गाँव वालों को इस वारदात की कोई ख़बर न थी। उसके चन्द शागिर्दों का ही यह षड्यन्त्र था। उन्होंने अपना काम किया और चम्पत हो गये। गाँववालों ने जब गाँव की ओर बढ़ता शोर सुना, तो सोचा कि शायद यह कोई डाकुओं का गिरोह गाँव को लूटने आ रहा है। पूरे गाँव में तहलका मच गया। नौजवानों ने लाठी सँभालकर मुकाबिले का निश्चय किया और जिधर से वह शोर बढ़ता आ रहा था, उधर गाँव के बाहर ही वे भिड़ पडऩे को दौड़ पड़े। औरतों और बूढ़ों का कलेजा धक-धककर रहा था। बच्चे बिलबिला उठे थे।

गोपी का दल पास पहुँचा, तो सामने लाठियाँ उठी देखकर उन्होंने समझ लिया कि खुली फौजदारी की तैयारी इन्होंने पहले ही से कर रखी है। समझने-बूझने की स्थिति में कोई दल न था। एक-दूसरे पर वे भूखे शेरों की तरह झपट पड़े। लाठियाँ पटापट बजने लगीं। अँधेरे में सैकड़ों बिजलियाँ कौंधने लगीं। अँधेरे में अन्धों की तरह बस अन्धाधुन्ध लाठियाँ चल रही थीं। किसके दल का कौन घायल होकर गिरता है, किसकी लाठी किस पर और कहाँ गिरती है, यह जानने की सुध-बुध किसी को न थी। एक ओर मानिक की हत्या के बदले की लपटें जल रही थीं, तो दूसरी ओर अपनी जान-माल की रक्षा का सवाल था। कोई दल अपनी हार कैसे मान लेता? देखते-देखते कई लोथें जमीन पर तपडऩे लगीं। खून की बौछारों से जगह-जगह फिसलन हो गयी। लेकिन इसकी ओर ध्यान देने का अवकाश किसे था? वहाँ तो जान देने और लेने की बाजी लगी थी।

मानिक की लाश थाने पर ले जाने का हुक्म देकर दारोग़ा और नायब दस हथियारबन्द कांसटेबलों के साथ चौकीदार को आगे करके घटनास्थल की ओर लपके। लाठियों की पटापट सुनकर उन्होंने टार्च जलाकर सामने का विकट दृश्य देखा, तो रिवाल्वर निकाल लिया और कांसटेबलों को हवाई फायर करने का हुक्म दिया।

फायरों की आवाज़ सुनकर दोनों दलवालों ने समझ लिया कि पुलिस की दौड़ आ गयी। वे अपनी लाठियाँ रोक भी न पाये थे कि पुलिस दनदनाती पहुँच गयी। लोक भागने को ही थे कि चारों ओर से पुलिस की संगीनों से घिर गये। टार्चों की रोशनी से उनकी आँखें चौंधिया रही थीं। देखते-देखते ही उनके हाथों में हथकडिय़ाँ पड़ गयीं।

गोपी के बायें हाथ की तीन उँगलियाँ पिस गयी थीं और गले के पास की दाहिनी पसली में गहरी चोट आयी थी। लेकिन विषाद और क्रोध के झोंके में वह इस तरह ग़ाफिल था कि दूसरे दिन सुबह उसकी आँखें परगने के अस्पताल में खुलीं, तो उसे इसका ज्ञान न था कि वह कहाँ है, उसके हाथ, गले और छाती में पट्टियाँ क्यों बँधी हैं, उसका शरीर क्यों चूर-चूर हो गया है, उसका माथा क्यों जोर-जोर से झनझना रहा है? उसके अगल-बगल और भी उसके गाँव और जोखू के गाँव के जवान उसी की हालत में पड़े हुए थे। सब एक-दूसरे को टक-टक, फटी आँखों से ताक रहे थे। लेकिन जैसे किसी में भी कुछ कहने-सुनने की ताकत ही न थी, जैसे वे सब अपने लिए और एक-दूसरे के लिए समस्या बने हुए हों।

मानिक रहा नहीं, घायल गोपी कानून की गिरफ्त में पड़ा हुआ फैसले का इन्तज़ार कर रहा है। माँ-बाप और बहुओं के सिर पर एक साथ ही जैसे पहाड़ गिर पड़ा। इसके नीचे वे दबे हुए छटपटा रहे हैं, कराह रहे हैं, तड़प रहे हैं।

गाँव में कई घरों में मातम छाया है, कई घरों में दुख की घटा घिरी है। लेकिन गोपी के घर का विषाद जैसे फैलकर पूरे गाँव पर छा गया है। लोग उसके घर भीड़ लगाये रहते हैं। कभी माँ-बाप को समझाते हैं, कभी सान्त्वना देते हैं और कभी अपने को भी सँभालने में असमर्थ होकर उन्हीं के साथ-साथ खुद भी रो पड़ते हैं।

मुकद्दमे की पैरवी का इन्तजाम हो रहा है। सब-के-सब अपनी गाढ़ी कमाई बहा देने को तैयार हैं। गाँवदारी का मामला है; गाँव के नौजवानों की ज़िन्दगी का वास्ता है, और सबसे बढक़र गाँव की आँखों के तारे, माँ-बाप के अकेले सहारे, तड़पती और दुर्भाग्य की मारी बेवा भाभी की ज़िन्दगी की अकेली आशा, गोपी को बचा लेने का सवाल है। बहुओं के बाप और बड़े भाई भी इस विपत्ति की ख़बर पाकर आ गये हैं। उनके भी दुख का ठिकाना नहीं है। वे भी गोपी को बचा लेने के लिए सब-कुछ न्योछावर करने पर तुले हैं।

कोई भी रकम कानून का मुँह बन्द करने में असमर्थ है। पाँच आदमियों का कतल हुआ है, एकाध की बात होती,तो दारोग़ा पचा-खपा देता। वह मजबूर है। हाँ, जिले के बड़े अफसर कुछ जरूर कर सकते हैं, लेकिन उनके यहाँ इन देहातियों की पहुँच नहीं।

घायल अच्छे हो-होकर हवालात में पड़े हैं। मुकद्दमा सेशन सुपुर्द है। फौजदारी के सबसे बड़े वकील को किया गया है। उसकी बहुत कोशिशों पर भी किसी की ज़मानत मंजूर नहीं हुई।

पिता एक बार गोपी से मिल आये हैं। मिलते वक़्त दोनों ने अपने दिल-दिमाग पर पूरा-पूरा काबू रखने की कोशिश की थी। किसी प्रकार की दुर्बलता या तड़पन दिखाकर वह एक-दूसरे का दुख बढ़ाना न चाहते थे। बाप ने बेटे को ढाढस बँधाया। बेटे ने बाप को कोई चिन्ता न करने को कहा। और कोई विशेष बात नहीं हुई। बिछड़ते समय, पता नहीं, दिल के किस दर्द में जोफ में गोपी ने कहा, ‘‘भौजी का ख़याल रखियो!’’

उस एक बात में कितना दर्द, कितनी कलक, कितनी तड़पन थी, बाप ने उसका अनुमान करके ही ऐंठता दिल लिये मुँह फेर लिया था। उधर गोपी ने आँसू पोंछ लिये, इधर जेल के फाटक पर बाप ने अपनी आँखों के आँसुओं को पलकों में ही सँभाल लिया।

आख़िर मुकद्दमे का फैसला हुआ। सज़ा सबको हुई। किसी को बीस साल, तो किसी को चार और किसी को पाँच साल के लिए जेल भेज दिया गया। गोपी को पाँच साल की सजा मिली। उसके घर में धीमा हुआ मातम फिर एक बार जोर पकड़ गया। माँ-बाप के दुख का क्या कहना! बड़ी बहू की हालत तो अबतर थी ही। छोटी बहू के दिल में भी एक शूल चुभ गया।

चार

बाप अब सचमुच बूढ़े हो गये। दोनों बेटे क्या उनसे बिछड़ गये, उनके दोनों हाथ ही टूट गये! दिल के सारे रस को दर्द की आग ने ज़ला दिया। कोई उत्साह, आशा न रह गयी उनके जीवन में। बहुओं का दर्द देखकर वह आठों पहर कुढ़ते रहते। खाना-पीना, काम-धाम कुछ अच्छा न लगता। बहुओं का बड़ा भाई आकर खेती-गिरस्ती का इन्तजाम कर जाता।

माँ का हाल भी बेहाल था। बैठी-बैठी वह आँसू बहाती रहती या अपने लालों को याद कर-करके बिसूरती रहती। छोटी बहू के दिल में जो एक बार शूल चुभा, तो उसका चैन हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। वह बड़ी ही कोमल और भावुक स्वभाव की थी। दुनिया के दुख और चिन्ता का उसे कोई अनुभव न था। सहसा जो आफत का पहाड़ उसके सिर पर आ गिरा, तो वह उससे दब-दबाकर चूर-चूर होकर रह गयी। उसने चारपाई पकड़ ली। खाना-पीना छोड़ दिया, दिन-दिन सूखने लगी। सास-ससुर अपने दुख का आवेग रोककर उसे समझाते, भाई और दूसरी औरतें उसे अपने को सँभालने को कहते, लेकिन जैसे उनके कानों में किसी की बात ही न पड़ती।

एक दिन बाप कोल्हुआड़े से रात को लौट रहे थे, तो उन्हें जोर की सरदी लग गयी। दूसरे दिन बुखार लेकर पड़ गये। वह ऐसा बुखार था कि हफ्तों पड़े रहे। खाँसी का अलग ज़ोर था। जो दवा-दारू मुमकिन था, किया गया। घर की ऐसी तितर-बितर हालत थी कि उनकी सेवा भलीभाँति न हो सकती थी। छोटी बहू ने तो पहले से ही चारपाई पकड़ ली थी। बड़ी बहू को अपने दुख से ही फुरसत न थी। अकेली दुखियारी बूढ़ी क्या-क्या, कैसे-कैसे करती? फल यह हुआ कि बूढ़े कुछ सँभलें, तो उनके दोनों ठेहुओं को गँठिया ने पकड़ लिया। कुछ दिनों तक तो वह लाठी का सहारा लेकर हिलते-डुलते कुछ-कुछ चल-फिर लेते थे। फिर उससे भी मजबूर हो गये। अब ओसारे के एक कोने में चारपाई पर पड़े-पड़े एडिय़ाँ रगड़ रहे हैं।

लोग उस घर की यह बिगड़ी हालत देखते हैं और आह भर कर कहते हैं, ‘‘ओह, क्या था और क्या हो गया!’’

आख़िर बड़ी बहू को ख़याल आया कि घर की इस दिन-पर-दिन गिरती हालत की रोक-थाम न हुई, तो यह कहीं का नहीं रह जाएगा। उसे अपने लिए अब सोचने ही को क्या रह गया था? उसका जीवन तो नष्ट हो ही गया। उसके साथ ही अगर यह खानदान भी नष्ट हो गया, तो उसके जीवन के इस कठोर श्राप का कितना दर्दनाक परिणाम होगा! नहीं, नहीं, वह घर की बड़ी बहू है, उसे अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए। सब अपने-ही-अपने दुख में कातर होकर पड़े रहेंगे, तो काम कैसे चलेगा? और अब उसके जीवन का उद्देश्य सास, ससुर, देवर और बहन की सेवा के सिवा रह ही क्या गया है? उसके दुर्भाग्य के कारण ही तो इस घर की यह हालत हो गयी है। सास, ससुर, देवर, बहन सब-के-सब उसी के कारण तो इस हालत में पहुँचे हैं। फिर क्या अपने दुख में ही डूबकर उनके तईं जो जिम्मेदारी है, उसे वह भुला देगी? नहीं, अब उसका जीवन उन्हीं के लिए तो है। उनकी सेवा वह दिल पर पत्थर रखकर भी करेगी। दुख की चढ़ी नदी एक-न-एक दिन तो उतरेगी ही!

उस दिन से जैसे वह करुणा की देवी बन गयी और दुखी और जलती हुई आत्माओं पर वह सेवा-सुश्रुषा, स्नेह और भक्ति की शीतल छाया बनकर छा गयी। स्नान करके बहुत सबेरे ही वह पूजा करती। फिर सास, ससुर और बहन की सेवाओं में जुट जाती।

ससुर उसकी सूनी माँग, सूनी कलाई और सफेद वस्त्र में लिपटी हुई उसकी कुम्हलायी देह देखकर मन-ही-मन रो पड़ते। उनसे कुछ कहते न बनता। वह उन्हें सहारा देकर चारपाई से उठाती, उनका हाथ-मुँह धुलाती, सामने बैठ उन्हें भोजन कराती। ससुर काठ के पुतले की तरह सब करते और दिल में बस एक तड़प का तूफान लिये जब तक वह उनके सामने रहती मूक होकर उसके करुण मुखड़े की ओर टुकुर-टुकुर ताका करते।

सास को कुछ सन्तोष हुआ कि चलो, यह अच्छा हुआ था कि बड़ी बहू अपने को यों कामों में बझाये रखने लगी। ऐसा करने से वह दुख को भुलाये रहेगी और उसका मन भी बहला रहेगा।

छोटी बहन की तो वह माँ ही बन गयी। पहले वह उसे बहन की तरह प्यार करती थी, लेकिन अब उसे बहन के प्यार के साथ-साथ माँ के स्नेह, ममता, सेवा और त्याग की भी ज़रूरत थी। बड़ी बहू ने उसे वह सब कुछ देना शुरू कर दिया। वह उसे बच्चों की तरह गोद में बिठाकर दवा पिलाती, खिलाती, उसके कपड़े बदलती, उसके बाल सँवारती, चोटी गूँथती। फिर सिन्दूरदान उसके सामने रखकर कहती, ‘ले, अब माँग तो टीक ले।’

यह सुनकर छोटी बहन की वीरान आँखें अपनी बहन की सूनी माँग की ओर उठ जातीं। उसके कलेजे में एक हूक उठती और डबडबाई आँखें एक ओर फेरकर कहती, ‘‘इसे रख दे, बहन।’’

बड़ी बहन उसे गोद में लेकर, क्रन्दन करते मन को काबू में करके कहती, ‘‘ऐसा न कह, मेरी बहन! मेरी माँग लुट गयी, तो क्या हुआ? तेरी माँग का सिन्दूर भगवान् कायम रक्खें! उसे ही देख-देखकर मैं यह दुख का जीवन काट लूँगी! ले, भर तो ले माँग।’’

छोटी बहन बड़ी बहन की गोद में मुँह डालकर फूट-फूटकर रो पड़ती। बड़ी बहन की आँखों से भी टप-टप आँसू की बूँदें चू पड़तीं। लेकिन अगले क्षण ही वह अपने को सँभालकर कहती, ‘‘ऐसा नहीं करते, मेरी लाडली!’’ कहकर वह उसकी आँखों को अपने आँचल से पोंछ देती। फिर कहती, ‘‘ले अब सिन्दूर लगा ले, मेरी अच्छी बहन!’’

छोटी बहन आँखों में उमड़ते हुए आँसुओं का तूफान लिये काँपती उँगलियों से सलाका उठाकर सिन्दूर की डिबिया से सिन्दूर उठाती। बड़ी बहन उस वक़्त न जाने कैसा ऐंठता दर्द दिल में लिये अपनी भरी आँखें दूसरी ओर फेर लेती।

गोपी की भाभी को अपने पति की याद बहुत सताती। हर घड़ी उसकी भरी-भरी आँखों के सामने पति की तरह-तरह की तस्वीरें झलमलाया करतीं। पूजा करने बैठती, तो हमेशा यही विनती करती—‘‘हे भगवान्, मुझे भी उनके चरणों में पहुँचा दो!’’

कभी-कभी उसे अपने देवर की और अपनी हँसी, दिल्लगी और खुशी के ठहाकों की भी याद आती। उस समय उसे लगता कि वह-सब एक सपना था। आह, यह कौन जानता था कि वह हँसी-खुशी की बातें एक दिन इस तरह हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएँगी और उनकी गूँज आत्मा के कण-कण में एक दर्द बनकर रह जाएगी? फिर उसे ख़याल आता कि किस तरह देवर ने भाई की हत्या के कारण शोक से पागल होकर अपने सुख की बलि चढ़ा दी। उस क्षण बरबस ही उसकी आँखें छोटी बहन की ओर उठ जातीं, जिसके दामन से देवर के जीवन का सुख-दुख बँधा हुआ था। वह देख रही थी कि उसकी हर तरह की सेवा-सुश्रुषा के बावजूद दिन-दिन वह फूल की तरह मुरझायी चली जा रही है। वह उसे हर तरह समझाने-बुझाने की कोशिश करती है, लेकिन जैसे वह कुछ समझती ही नहीं। देवर जब लौट के आएगा और उसे इस हालत में देखेगा, तो उसकी क्या दशा होगी?

धीरे-धीरे दुख झेलते-झेलते वह सख्त-जान बन गयी। बहन की सेवा वह और भी जी-जान से करने लगी। उसे लगता कि वह सिर्फ उसकी बहन ही नहीं है, बल्कि उसके प्यारे देवर की अमूल्य अमानत भी है। उस अमानत की रक्षा करना उसका सबसे बढक़र कर्तव्यस है।

लेकिन उसकी इतनी सेवाओं का भी कोई असर उसकी बहन पर पड़ता दिखाई न देता। उसका हृदय कभी-कभी एक भयावनी आशंका से काँप उठता। वह ठाकुर की मूरत के सामने गिड़गिड़ाकर बिनती करती, ‘‘हे भगवान्! अब तो दया कर तू इस अभागे घर पर! और अगर तुझे इतने पर भी सन्तोष नहीं है, तो मुझ अभागिन को ही उठा ले और अपने कोप को शान्त कर ले!’’

लेकिन भगवान् ने तो जैसे अपनी कृपा-दृष्टि उस खानदान से फेर ली थी। छोटी बहन की हालत न सुधरनी थी, न सुधरी। आख़िर उसकी हालत जब दिन-दिन बिगड़ती ही गयी, तो उसका भाई एक दिन उसे अपने घर लिवा ले गया। ख़याल था कि शायद हवा बदलने से, वहाँ माँ-भाभी और अपनी सखी सहेलियों के बीच रहकर मन आन होने से और तबीयत बहलने से वह स्वस्थ हो जाए। वह तो अपनी बड़ी बहन को भी कुछ दिनों के लिए लिवा ले जाना चाहता था, लेकिन इस घर का उसके बिना कैसे काम चलेगा, यही सोचकर उसे न लिवा जा सका। पालकी पर चढऩे के पहले छोटी बहू खूब बिलखकर रोयी और सास और बहन से ऐसे लिपटकर मिली, जैसे उनसे आख़िरी विदाई ले रही हो। ससुर के पैरों को उसने आँसुओं से धो दिया। बूढ़े ससुर हाथों से आँखें ढँककर एक बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़े।

कौन जानता था कि सचमुच वह उसकी आख़िरी विदाई थी? माँ, बाप, भाई, भौजाई ने कुछ भी उठा न रखा। रुपये-पैसे पानी की तरह बहा दिये। लेकिन हुआ वही जो होना था। वह शूल जो एक दिन उस कोमल प्राण में चुभा था, उसने प्राण लेकर ही दम लिया।

यह ख़बर जब सास-ससुर और बहन को मिली, तो उनकी क्या हालत हुई, उसका वर्णन नहीं हो सकता। यह तो कुछ वही हुआ जैसे उनके दिल के नासूर में एक तीर और आ चुभा।

पाँच

जेल में शुरू-शुरू में गोपी के बाप उससे हर महीने एक बार मिलते रहे। फिर जब चलने-फिरने से मजबूर हो गये, तो उसके ससुर और साला बराबर उससे मिलने जाया करते। गोपी हर बार अपने माँ-बाप और भाभी के बारे में पूछता, घर-गिरस्ती के बारे में पूछता। वे कुछ गोल-मोल उसे बता देते। संकोचवश न गोपी अपनी औरत के बारे में कुछ पूछता, न वे बताते। कैद का दुख ही क्या कम होता है, जो वे उससे कोई दिल पर चोट पहुँचाने वाली बात कहकर उसके दुख को और बढ़ाते?

गोपी को जेल में सबकी याद सताती, लेकिन भाभी के दुख की उसे जितनी चिन्ता थी, उतनी और किसी बात की न थी। भाभी के विधवा रूप का चित्र हमेशा उसकी आँखों में घूमा करता। जिस प्यारी भाभी को पाकर, जिसके हृदय के स्नेह-दान से आकण्ठ तृप्त होकर, एक दिन वह निहाल हो उठा था, उसी भाभी को विधवा रूप में वह किन आँखों से देख सकेगा? वह सूनी माँग, वे सूनी कलाइयाँ, वह मुरझाया मुखड़ा...

कारागर के परिश्रम से उसने कभी जी न चुराया। मेहनती देह पर कठोर परिश्रम का भी क्या असर पडऩा था? घर की तरह खाने-पीने को मिलता, बेफिक्री की जिन्दगी होती, तो जेल में भी गोपी जैसा-का-तैसा बना रहता। किन्तु घी-दूध के पाले शरीर का अब सूखी रोटी और कंकड़ मिली दाल से पाला पड़ा था। ऊपर से भाभी की चिन्ता चौबीसों पहर की। गोपी सूखकर काँटा हो गया। फिर भी ढाँचा एक पहलवान का था। सड़ा हुआ तेली भी एक अधेली। किसकी मजाल थी कि आँख दिखा दे! फिर सीधे गोपी से किसी को उलझने का मौका भी कैसे मिलता? वह दिन-रात अपनी ही मुसीबत में उलझा रहता। इतना बड़ा जेल भी जैसे एकाकीपन के घेरे में ही उसके लिए सीमित बना रहा।

मुकद्दमे के दौरान वह जिला अस्पताल में पड़ा रहा था। पसली की चोट ख़तरनाक थी। दर्द जाता ही न था। छोटे अस्पताल में एक्स-रे वगैरा था नहीं। फिर किसी के लिए कोई क्यों जहमत उठाए? जैसे-तैसे दवा होती रही और मुकद्दमा चलता रहा। और फिर उसे हवालात में भेज दिया गया। सज़ा पाकर गोपी जब बनारस ज़िला जेल में भेज दिया गया, तो भी उसकी वही हालत थी। वह तो बल उसमें इतना था कि वह सब झेले जा रहा था।

बनारस जिला जेल के अस्पताल में उसके सौभाग्य से एक अच्छा कम्पाउण्डर मिल गया। वह भी उसी के जवार का था। जेल के अस्पतालों में कोई खास दवा नही रखी जाती। वह तो कम्पाउण्डर की तीमारदारी और गोपी के खून की ताकत थी कि दर्द कम होने लगा। वहीं उसकी भेंट मटरू सिंह से हुई। वह घाघरा के दीयर का नामी पहलवान था। एक ही बिरादरी के और हमपेशा होने के कारण दोनों एक-दूसरे से पहले ही से परिचित थे। गोपी का गाँव का दीयर से करीब पाँच मील ही पर था। मटरू एक झोंपड़ी बनाकर घाघरा के किनारे चटियल मैदानों के बीच अपने बाल-बच्चों के साथ रहता था। जवार में एक किम्वदन्ती मशहूर है कि मटरू की हाथी की तरह बढ़ती ताकत को देखकर ईर्ष्या वश किसी पहलवान ने न जाने पान में उसे क्या खिला दिया कि मटरू की साँस उखड़ गयी। उसे दमा हो गया। उसने बहुत इलाज कराया, लेकिन उसके साँस की बीमारी न गयी। क्या करता, विवश होकर पहलवानी छोड़ दी और ब्याह करके एक साधारण किसान की तरह जीवन बिताने लगा। अब उसके तीन लडक़े भी थे।

एक तरह से वह दीयर का राजा ही माना जाता था। किनारे के मीलों खित्तों पर उसका एकछत्र राज था। घाघरा की धारा के साथ ही उसका भी ‘महल’ उठता और गिरता था। बरसात में ज्यों-ज्यों घाघरा ऊपर उठती जाती, त्यों-त्यों मटरू की झोंपड़ी भी। यहाँ तक कि भादों में जब घाघरा उफनकर समन्दर बन जाती, तो मटरू की झोंपड़ी किनारे के किसी गाँव में पहुँच जाती। और फिर ज्यों-ज्यों सैलाब उतरने लगता, मटरू की झोंपड़ी भी उतरने लगती और कातिक लगते-लगते फिर अपनी पुरानी जगह पर पहुँच जाती। मटरू उसी तरह ‘गंगा मैया’ का आँचल एक क्षण को भी नहीं छोड़ता, जैसे शिशु माँ का।

पहले नदी के हटने पर जो मीलों रेत पड़ती, उस पर झाऊँ और सरकण्डे के जंगल उग आते। बैसाख-जेठ में जब ये जंगल जवानी पर होते, तो ज़मींदार इन्हें कटवाकर बेच देते। लोग लावन और खपरैल छाने के लिए खरीद लेते। फिर बरसात शुरू हो जाती और सब ओर सैलाब उमडऩे लगता।

मटरू जब तक पहलवानी में मस्त रहा, उसे किसी बात की चिन्ता न थी। घाट से ही उसे इतनी आमदनी हो जाती, इतना दूध, दही और खाने-पीने का सामान मिल जाता कि खूब मज़े से दिन कट जाते। कोई ग्वाला उसे दूध दिये बिना नाव पर न चढ़ता। कोई बनिया मटरू का ‘कर’ चुकाये बिना उधर से न गुजरता। मटरू के लिए इतना बहुत था। खाने, दण्ड पेलने और घाट पर ऐंठ-ऐंठकर मँजी देह दिखाने के सिवा कोई काम न था।

लेकिन जब पहलवानी छूट गयी, गिरस्ती बस गयी, तो हराम की रोटी भी छूट गयी। उसने झोंपड़ी के आस-पास का जंगल साफ किया। ससुर से बैल और हल लेकर खेती शुरू कर दी। नदी की छोड़ी हुई कुँआरी धरती जैसे हल के फाल की ही प्रतीक्षा कर रही थी। उसने वह फसल उगली कि लोगों ने दाँतों-तले उँगली दबा ली।

दो-तीन साल के अन्दर ही मटरू की झोंपड़ी बड़ी हो गयी। दुधारू जमुना-पारी भैंस और एक जोड़ा बैल दरवाज़े पर झूमने लगे। मटरू का हौसला बढ़ा। उसने खेतों का विस्तार और भी बढ़ा दिया और अपने एक जवान साले को भी अपने पास ही बुला लिया। खूब डटकर मेहनत की और मेहनत का पसीना सोने का पानी बन फसलों पर लहरा उठा।

ज़मींदारों के कानों में यह ख़बर पहुँची, तो वे कुनमुनाये। उन्हें क्या ख़बर थी कि वह ज़मीन भी इस तरह सोना उगल सकती है। वे तो झाऊँ और सरकण्डों को ही बहुत समझते थे। तिरवाही के किसानों की जीभ से भी छाती-छाती-भर रब्बी की फसल देखकर लार टपकने लगी। लेकिन उनमें मटरू की तरह साहस तो था नहीं कि आगे बढ़ते, जंगल साफ करते और फसल उगाते। वे ज़मींदारों के यहाँ पहुँचे और लम्बी-चौड़ी लगान देकर उन्होंने खेती करने के लिए ज़मीन माँगी। ज़मींदारों को जैसे बेमाँगे ही वरदान मिले। उन्हें और क्या चाहिए था! उन्होंने दनादन दूनी-चौगुनी रकमें सलामी ले-लेकर किसानों के नाम ज़मीन बन्दोबस्त करनी शुरू कर दी।

मटरू को इसकी ख़बर लगी, तो उसका माथा ठनका। वह गाँवों में जा-जाकर किसानों को समझाने लगा कि वे यह कैसी बेवकूफी कर रहे हैं। गंगा मैया की छोड़ी ज़मीन पर ज़मींदारों का क्या हक पहुँचता है कि वे उस पर सलामी और लगान लें? जिसको जोतना-बोना हो, वह खुशी से आये और उसी तरह जंगल साफ करके जोते-बोये। ज़मींदारों से बन्दोबस्त कराने की क्या जरूरत? वे क्यों एक नयी रीति निकाल रहे हैं और ज़मींदारों का मन बिगाड़ रहे हैं...

किसानों को यह कहाँ मालूम था? वे तो मटरू से ही सबसे ज्यादा डरते थे। सोचते थे कि कहीं मटरू ने रोक दिया तो? उन्हें क्या मालूम था कि मटरू उनका स्वागत करने को तैयार है। जब उन्हें मालूम हुआ, तो उन्होंने पछताकर पूछा, ‘‘अब तो सलामी और लगान तीन-तीन साल की पेशगी दे चुके, मटरू भाई! पहले मालूम होता तो...’’

‘‘अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है,’’ मटरू ने समझाया, ‘‘तुम लोग अपनी रकमें वापस माँग लो। साफ कह दो कि हमें ज़मीन नहीं लेनी, यही होगा न कि एक फसल न बो पाओगे। अगले साल तो तुम्हें कोई रोकने वाला न होगा। गंगा मैया की गोद सब किसानों के लिए खुली पड़ी है। वहाँ भला धरती की कोई कमी है कि खामखाह के लिए तुम लोगों ने ले-दे मचा दी? यह याद रखो कि एक बार अगर ज़मींदारों को तुमने चस्का दिया, तो तुम्हीं नहीं तुम्हारे बाल-बच्चे भी हमेशा के लिए उनके शिकंजे में फँस जाएँगे। उनकी लोभ की जीभ सुरसा की तरह बढ़ती जाएगी और एक दिन सबको निगल जाएगी। इसके उलटा अगर हम लोग सन्मत रहें और ज़मींदारों का मुँह न ताककर खुद ही उस धरती पर अपना अधिकार जमा लें, तो ये ज़मींदार हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। गंगा मैया पर कोई उनका आबाई हक नहीं है। उसके पानी की ही तरह उसकी धरती पर हम-सबका बराबर हक है। अपने इस स्वाभाविक हक को ज़मींदारों का समझना खुद अपने गले पर छूरी चलाना है। तुम लोग मेरा कहा मानो और मेरा पूरा-पूरा साथ दो। देखेंगे कि ज़मींदार हमारा क्या बिगाड़ लेते हैं।’’

किसानों ने बहाने बनाकर ज़मींदारों से रुपये वापस माँगे, तो वे मुस्कुराये। ज़मींदार की तहबील में पड़े रुपये की वही हालत होती है, जो सर्प के मुँह में पड़े चूहे की। चूहा लाख चीं-चीं करे, छटपटाये, लेकिन एक बार मुँह में फँसकर निकलना असम्भव। बेचारे किसान चीं-चीं करने के सिवा कर ही क्या सकते थे? ज़मींदारों ने डाँटकर भगा दिया। कोई रसीद-वसीद तो थी नहीं, किसान करते भी तो क्या? हाँ, इसका परिणाम इतना अवश्य हुआ कि दूसरे किसानों ने ज़मीन बन्दोबस्त कराना बन्द कर दिया।

इस तरह आमदनी रुकते और किसानों को ज़मीन लेने से बिचकते देख ज़मींदारों के गुस्से का ठिकाना न रहा। पता लगाने पर जब उन्हें मालूम हुआ कि मटरू इसकी तह में है, तो एक दिन कई ज़मींदारों ने इकट्ठा हो मटरू को बुला भेजा।

मटरू दीयर में अभी तक जंगल के एक शेर की तरह रहा था। ज़मींदारों की यह हिम्मत न थी कि उसे सीधे तौर पर छेड़ें। जवार में यह धाक जमी थी कि मटरू पहलवान के पास सैकड़ों लठैत हैं। जब वह चाहे दिन-दहाड़े लुटवा सकता है। यही बात थी कि सारे जवार में उसका दबदबा था। उधर गुज़रने वाला कोई भी उसे बिना सलाम किये न जाता।

बुलावा सुनकर मटरू अकड़ गया। उसने साफ लफ्जों में कहलवा भेजा कि मटरू किसी ज़मींदार का कोई आसामी नहीं है। जिसे गरज हो, वही उससे आकर मिले।

ऐसे मौकों पर काम लेना ज़मींदारों को खूब आता है। उन्होंने पढ़ा-लिखाकर अपने एक चलते-पुर्जे कारिन्दे को मटरू के पास भेजा।

कारिन्दे ने खूब झुककर ‘‘जय गंगाजी’’ कहकर सलाम किया। फिर दोनों हाथ को उलझाता, बड़ी दयनीयता से मुँह बनाकर बोला, ‘‘पार जा रहा था। सोचा, पहलवानजी को जय गंगाजी कहता चलूँ।’’

सुबह का वक़्त था। माघ का महीना। नदी पर गहरे भाप का धुँआ उठ रहा था। चारों ओर कोहरे की झीनी चादर फैली हुई थी। उसी में सूरज की कमजोर किरणें अटककर रह गयी थीं। सन-सन पछुआ बह रही थी। गेहूँ की छाती-भर उगी फसल निगाहों की सीमा तक चारों ओर फैली हुई थी। कोहरे से जमे मोती उनके पत्तों पर चमक रहे थे। बालों ने दूधा ले लिया था। अब ओस पी-पीकर तुष्ट हो रही थीं।

मटरू गाढ़े की लुंगी और कुरता पहने बैलों की नाँदों के पास खड़ा था। कुरते की बाँहें बाजू पर चढ़ी थीं। दाहिना हाथ कुहनी के ऊपर तक सानी से भींगा था। अभी-अभी उसने नाँदों में खुद्दी मिलायी थी। आँखें तक मुँह डुबोकर बैल भडऱ-भडऱ की आवाज़ करते खा रहे थे। एक के पु_ पर बायाँ हाथ रखकर मटरू ने निगाह उठाकर कारिन्दे की ओर देखकर कहा, ‘‘घाट छूटने में अभी देर है, चिलम पिओगे?’’ कहकर वह कौड़े के पास आ बैठा।

कारिन्दा भी उसकी बगल में पत्तलों की चटाई पर बैठ गया। मटरू ने पास से खोदनी उठाकर आग उकसा दी। फिर दोनों हाथ-पाँव फैलाकर तापने लगे। मटरू ने आवाज दी, ‘‘लखना, जरा तमाकू-चिलम दे जाना।’’

लखना मटरू का बड़ा लडक़ा था। उम्र चार साल, नंग-धड़ंग वह एक हाथ में चिलम और दूसरे में तमाकू लिये झोंपड़े से बाहर निकलकर दौड़ा-दौड़ा आकर काका के हाथ में चिलम-तमाकू थमाकर वहीं बैठ गया और उन्हीं की तरह हाथ-पाँव फैलाकर आग तापने लगा।

मूरत की तरह सुडौल, साँवले सुन्दर बालक की ओर देखकर कारिन्दा बोला, ‘‘क्यों रे, तुझे जाड़ा नहीं लगता?’’

बालक ने एक बार आँखें झपकाकर उसकी ओर देखा, फिर मुस्कराकर सिर झुका लिया।

मटरू ही बोला, ‘‘कुछ पहनता-ओढ़ता नहीं। सोये में भी कुछ ओढ़ाओ, तो फेंक देता है।’’

‘‘तुम्हारा ही तो लडक़ा है, पहलवानजी!’’ कारिन्दे ने लासा लगाया।

‘‘हाँ, पाच साल पहले तक मैंने भी न समझा कि कपड़ा क्या होता है। एक लँगोटा और लुंगी काफी होती थी। गंगा मैया की मिट्टी और पानी का असर ही कुछ ऐसा है कि सरदी-गरमी, रोग-सोग कोई पँजरा नहीं आता। क्या करूँ, साँस की बीमारी से देह उखड़ गयी।’’ कहकर चिलम पर मटरू अंगारे रखने लगा।

‘‘बुरा हो उस दुश्मन का! ...’’

बीच ही में बात रोककर मटरू बोला, ‘‘छोड़ो भाई, इस बात को, तमाकू पियो। भगवान् सबका भला करें!’’

‘‘हाँ भाई,’’ चिलम को मुँह लगाते हुए कारिन्दा बोला, ‘‘आदमी हो तो तुम्हारी तरह, जो दुश्मन का भी भला मनाए।’’ कहकर कारिन्दा चिलम सुलगाने लगा।

‘‘किस गाँव के रहने वाले हो? कायस्थ मालूम होते हो?’’ मटरू ने पूछा।

‘‘हाँ, रहने वाला तो बालूपुर का हूँ, लेकिन काम जिन्दापुर के ज़मींदार के यहाँ करता हूँ।’’ धुएँ का सुरसुरा छोडक़र, मतलब पर आकर कारिन्दे ने साफ-साफ ही कहा, ‘‘सुना था ज़मींदारों ने तुम्हें बुलाया था, तुमने जाने से इनकार कर दिया।’’

मटरू के माथे पर बल आ गये। उसने तीखी दृष्टि से कारिन्दे की ओर देखकर कहा, ‘‘हम किसी के ताबे हैं, जो...’’

‘‘नहीं, भाई, नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था,’’ कारिन्दा बीच में ही बोल उठा, ‘‘कौन नहीं जानता कि तुम राजा आदमी हो। तुमने अपने लायक ही काम किया। लेकिन वहाँ सुनने में यह भी आया था कि सब ज़मींदार, जिनका दीयर में हिस्सा है, मिलकर तुम्हारे नाम एक बहुत बड़ा खित्ता लिख देने की सोच रहे हैं। तुम...’’

‘‘लिखनेवाले वे कौन होते हैं?’’ मटरू ताव में आकर बोला, ‘‘यहाँ तो सिर्फ गंगा मैया की अमलदारी है। उनके सिवा तो मैंने आज तक किसी को जाना नहीं। और सुन लो, तबीयत चाहे तो उनसे कह भी देना कि दीयर में कोई ज़मींदार का बच्चा दिखाई पड़ गया, तो बिना उसकी टाँग तोड़े न छोड़ूँगा!’’

‘‘अरे, भाई, तुम तो बेकार गुस्सा हो रहे हो। मुझे क्या पड़ी है यह सब किसी से कहने की? मुदा, बात चली तो मैंने कह दी। यह भी सुनने में आया था कि पहलवान चाहें तो सलामी और लगान की रकम में भी उनका हिस्सा तय कर दिया जाए...’’

मटरू हँस पड़ा। फिर आँखें चढ़ाकर बोला, ‘‘मटरू पहलवान हराम का नहीं खाता। गंगा मैया के सिवा उसने किसी के सामने कभी हाथ नहीं फैलाया। देखेंगे कि अब किस तरह किसी किसान से सलामी और लगान लेते हैं और यहाँ की ज़मीन पर कब्जा दिलाते हैं! गंगा मैया की सौगन्ध लेकर कहता हूँ, लाला, कि...’’

‘‘भाई, मैं तो गुलाम आदमी ठहरा। भला तुम-जैसे राजा आदमी के सामने कुछ कहने की हिम्मत ही कैसे कर सकता हूँ? ज़मींदारों का जूता सीधा करते ही मेरी उमर बीत गयी। बुरा न मानना, ये ज़मींदार बड़े ज़ालिम शैतान होते हैं। तुम जैसे सीधे-सादे आदमी के लिए उनसे उलझना ठीक नहीं। वे ऊँच-नीच, झूठ-सच, मकर, फरेब कुछ नहीं देखते। अमलों के साथ रोज़ का उनका उठना-बैठना होता है। भला तुम उनसे कैसे पार पाओगे? फिर कागज़-पत्तर पर भी उनका नाम दर्ज है। कानून-कायदे के पैंतरे में ही वे तुम्हें नचा मारेंगे।’’

‘‘कानून-कायदे की बात वे घर बैठे बघारा करें। मुझे कोई परवाह नहीं। मैं तो यही जानता हूँ कि यह धरती गंगा मैया की है। जो चाहे आये, मेहनत करे, कमाए, खाये! ज़मींदारों ने अगर इधर आँखें उठाईं, तो मैं उनकी आँख फोड़ दूँगा! कहाँ रखा था कायदा-कानून उनका अब तक! मैंने मेहनत की, फसल उगायी, तो देखकर दाँत गड़ गये। चले हैं अब ज़मींदारी का हक जताने! आएँ न जरा हल कन्धे पर लेकर! दिल्लगी है यहाँ खेती करना! भोले किसानों को बेवकूफ बनाकर रुपये ऐंठ लिये। बेचारे वे मेहनत करेंगे और मसनद पर बैठे गुलछर्रे उड़ाएँगे तुम्हारे ज़मींदार। यहाँ मैं नहीं चलने दूँगा यह सब! उनसे कह देना कि यहाँ गंगा मैया की अमलदारी है। किसी ने पाँव बढ़ाए, तो देखते हो वह धारा! एक की भी जान न बचेगी। जाओ, अब घटहा खुलेगा। ’’

कारिन्दा अपना-सा मुँह लेकर उठ खड़ा हुआ। मटरू बड़बड़ाये जा रहा था, ‘‘हूँ! चले हैं गंगा मैया की छाती पर मूँग दलने! ...’’

दीयर में मटरू और उसके लठैतों से पार पाना मुमकिन नहीं, यह ज़मींदार भी जानते थे और पुलिस भी। यह बिलकुल वैसा ही था, जैसे जान-बूझकर साँप के बिल में हाथ डालना।

मीलों लम्बे-चौड़े झाऊँ और सरकण्डे के घने जंगलों के बीच कोई सुतबस रास्ता न था। अजनबी कोई वहाँ कहीं पड़ जाए, तो फँसा रह जाए। जाने-बूझे लोग ही जंगल के बीच से होकर घाट तक जाने वाली टेढ़ी-मेढ़ी, बीहड़, दृश्य और अदृश्य पगडण्डी को जानते थे। फिर भी शाम होते ही किसी की हिम्मत उस पर चलने की न होती। लोगों का तो यह भी कहना था कि उन जंगलों में कितने ही डाकुओं के गिरोहों के अड्डे हैं। वहाँ मटरू से लोहा लेने का मतलब जान गँवाने के सिवा कुछ न था। सो, मौके की बात समझकर ज़मींदार कला काछ गये; पुलिस से साठ-गाँठ चलती रही और मौके की तैयारी होती रही।

हमेशा की तरह जेठ चढ़ते-चढ़ते फसल काट-कूट, दाँ-मिसकर मटरू ने अनाज और भूसा ससुराल पहुँचा दिया। बाल-बच्चों को भी भेज दिया। खानाबदोशी के दिन सिर पर आ गये थे। क्या ठिकाना कब गंगा मैया फूलने लगें! रात-भर में परोसों पानी बढ़ता है। हहराती हुई धारा से बचकर झोंपड़ी ऊपर हटाना जितनी जल्दी का काम था, उतना ही जोखिम का भी। वैसी हालत में बाल-बच्चों को साथ रखना ठीक न रहता। छुट्टी देह लेकर मटरू रहता था। ससुर तो उससे भी चले आने को कहते, लेकिन मटरू को जब तक नदी की हवा न छुए, नींद न आती थी। उसकी स्वच्छन्द आत्मा को गंगा मैया की लहर एक क्षण को भी छोडऩा सह्य न था। कुएँ का पानी उसे रुचता न था।

अबकी एक बात और मटरू ने कर डाली। उसने जवार में यह ख़बर भेज दी कि जो चाहे झाऊँ सरकण्डा काटकर ले जाए; ज़मींदारों से खरीदने की कोई जरूरत नहीं। गंगा मैया के धन पर सबका बराबर का अधिकार है।

चारों ओर से किसानों, मजदूरों और गरीबों ने जुटकर हल्ला बोल दिया। जिसे देखो, वही सिर पर झाऊँ या सरकण्डा लिये भागा जा रहा है।

ज़मींदारों ने यह सुना, तो जल-भुनकर रह गये। हज़ारों के घाटे का सवाल ही नहीं था, बल्कि हर साल की मुस्तिकल आमदनी की मद ख़तम होने जा रही थी। उन्होंने पुलिस से राय ली कि क्या करना चाहिए, लेकिन पुलिस ने उन्हें चुपचाप बैठे रहने की राय दी। इस वक़्त कुछ करने का मतलब सिर्फ मटरू से ही भिडऩा न था, बल्कि उन हज़ारों-लाखों किसानों, मजदूरों और गरीबों का मुकाबिला करना था, जिनको इस मामले में फायदा हो रहा था। थाने पर मुश्किल से लगभग एक दर्जन बन्दूकें होंगी। उनमें इतनी ताकत कहाँ कि हजारों-लाखों लाठियों के मुकाबिले उठ सकें। फिर जगह ठहरी बीहड़; एक बार फँसकर निकलना मुश्किल। उनका तो चप्पा-चप्पा छाना हुआ है। हाँ, जिले से गारद बुलायी जा सकती है। लेकिन ऐसा करने से ज़मींदारों को जो घाटा हुआ सो तो हुआ ही, ऊपर से गारद के खर्च भी सिर पर आ पड़ेंगे। उस पर भी क्या ठीक है कि अजनबी गारद ही वहाँ आकर कुछ कर लेगी। जंगल में कहीं किसी का पता लगा लेना क्या खेल है? अभी मटरू को छेडऩा किसी भी हालत में ठीक नहीं। वक़्त आने दो, फिर देखना कि कैसे लाठी भी नहीं टूटती और साँप भी मर जाता है।

क्या करते ज़मींदार? कड़वा घूँट पीकर रह गये।

उधर मटरू घूम-घूमकर जंगल कटवा रहा था। आज किसानों को यह मालूम हो गया था कि मटरू जो कहता है, वही ठीक है। यहाँ किसी की ज़मींदारी-वमींदारी नहीं है। वरना क्या ज़मींदारों की चिरई का कोई पूत भी यहाँ दिखाई न देता? चारों ओर ‘गंगा मैया की जय’ गूँज रही थी। नदी की लहरें खिलखिलाकर हँसे जा रही थीं।

उस साल हजारों किसानों, मजदूरों और गरीबों की झोंपड़ी पर नयी छाजन हो गयी और साल-भर के लिए लावन घर में आ गया। मटरू को लोग दिल से दुआएँ दे रहे थे।

जेठ का दशहरा आते-आते नदी फूलने लगी। फिर अबकी कुछ पहले ही इतने जोर से बारिश शुरू हो गयी कि दिन में दो-दो, तीन-तीन बार मटरू को झोंपड़ी हटानी पडऩे लगी। जोरों से पानी बढ़ा आ रहा था। घण्टे में दस-दस, बीस-बीस हाथ डुबो देना मामूली बात थी।

दिन की तो कोई बात न थी, पर रात को मटरू सो न पाता। नदी का यह हाल, कौन जाने कब झोंपड़ी डूब जाए। मटरू बैठा-बैठा टक-टक चमकते पानी की ओर देखा करता। ऊपर बादल गरजते, बिजली कडक़ती। नीचे धारों की हहर-हहर भयंकर आवाज़ गूँजती। रह-रहकर अरारों के टूटकर गिरने का छपाक-छपाक होता रहता। झींगुरों की कर्णभेदी सीटियाँ और मेढकों की टर्र-टर्र चारों दिशाओं में लगातार ऐसे गूँजती रहती थी, जैसे उनमें प्रतियोगिता छिड़ी हो। चारों ओर छाये घने अन्धकार में कभी इधर, तो कभी उधर भक से कुछ जल उठता। और मटरू बैठा-बैठा गंगा मैया का यह विकराल रूप देखकर सोचता है कि जो माँ स्नेह से भरकर बेटे को छाती का दूध पिलाती है, वही कभी गुस्सा होकर किस तरह बेटे के गाल पर थप्पड़ भी मार देती है।

सावन चढ़ते-चढ़ते मटरू की झोंपड़ी किनारे एक गाँव के पास आ लगी। ये दिन मटरू को बेतरह खलते। उसे ऐसा लगता, जैसे गुस्से में आकर माँ खदेड़ती जा रही हो और धमकी दे रही हो कि ‘अगर पकड़े गये तो छट्ठी का दूध याद करा दूँगी।’ उसे तो क्वार से शुरू होने वाले दिन अच्छे लगते, जब आगे-आगे माँ भागती होती और पीछे-पीछे वह स्नेह और श्रद्धा से हाथ फैलाये उसे पकडऩे को दौड़ता होता कि कब पकड़ लें और उसके आँचल में मुँह छिपाकर, विह्वलता में रोकर उससे पूछे, ‘‘माँ, इतने दिन तुम नाराज क्यों रही?’’ माँ-बेटे का यह भाग-दौड़ का खेल हर साल होता है। कभी माँ दौड़ाती, तो बेटा भागता; कभी माँ भागती तो बेटा दौड़ाता। इस खेल में कितना मजा आता था!

आख़िर नदी जब समुन्दर बन गयी और कहीं भी किनारे मटरू के लिए जगह न बच गयी, तो लाचार हो, माँ का दामन छोडक़र, उसे कगार के लिए गाँव में झोंपड़ी खड़ी करनी पड़ी। वियोग के इन दिनों मटरू आँखों में आँसू भरे कगार पर बैठा घण्टों धारा के रूप में फहराते माँ के आँचल को निहारा करता। तूफानी वेग से धारा बाँसों उछलती-कूदती, प्रलय का शोर करती भागती जाती। बीच-बीच में कहीं-कहीं काले बुँदकों की तरह उभरकर सूँस अदृश्य हो जाते। कहीं भँवर में पडक़र कोई पेड़ का तना इस तरह नाचने लगता, जैसे कोई उँगलियों पर चक्र नचा रहा हो। मटरू के मन में एक बालक की तरह उठता कि वह धारा में कूदकर उसे छीन ले और अपनी उँगलियों पर उसे नचाता धारा में किलोल करे। माँ की शक्ति से बेटे की शक्ति क्या कम है? कभी किसी झोंपड़ी को बहते जाते देखता, तो तड़पकर कहता, ‘‘माँ, यह तूने क्या किया? किसी बेटे का बसेरा उजाड़ते तुझे दर्द न लगा? ऐसा गुस्सा भी क्या, माँ?’’

बस्ती की हवा उसे अच्छी न लगती, जैसे हरदम उसका दम घुटता रहता। जंगली फूल की तरह बस्ती में मुरझाया-मुरझाया सा रहता। सीमाहीन उस मैदान, उस साफ हवा, उस नरम मिट्टी, उस मुक्त धूप और उस स्वच्छन्दता के लिए उसके प्राण तड़पते रहते। कभी तो वह इतना घबराता कि उसके जी में आता कि धारा में कूद पड़े और इतना तैरे कि तन-मन ठण्डा हो जाए और फिर धाराओं की सेज पर ही सो जाए। लेकिन तभी उसे अपनी प्यारी बीवी और नन्हें-मुन्ने बच्चों की याद आ जाती और वह जाने कैसा मन लिये कगार पर से उठ जाता। उस समय उसे ऐसा लगता कि कहीं वहाँ बैठे रहकर सचमुच वह कूद न पड़े।

इन दिनों कभी-कभी बहुत आग्रह पर वह ससुराल जाता, तो एकाध रात से ज्यादा न रह पाता। उसे लगता, जैसे माँ उसे पुकार रही हो। वह लौटकर जब तक घण्टों धारा में न लोट लेता, उसे चैन न मिलता।

उस रात कगार पर बैठे-बैठे उसकी पलकें जब झपकने लगीं, तो उठकर वह झोंपड़ी के दरवाज़े पर पड़ी पत्तलों की चटाई पर लेट गया। बड़ी सुहानी, ठण्डी हवा चल रही थी। धाराएँ जैसे लोरी गा रही थीं और अरार रह-रहकर ताल दे रहे थे। मटरू को बड़ी मीठी नींद आ गयी।

नींद में ही अचानक उसे ऐसा लगा, मानो छाती पर कई मन का बोझ सहसा आ पड़ा हो। उसने कसमसाकर आँखें खोलीं तो छाती पर टार्च की रोशनियों में दो नौजवानों को चढ़ा पाया। हाथों का सहारा ले वह जोर लगाकर उठने को हुआ, तो जंजीरें झनझना उठीं। मालूम हुआ कि हाथ बँधे हुए हैं। घबराकर उसने इधर-उधर देखा, तो चारों ओर भाले से लैस कान्सटेबल दिखाई पड़े। उसकी समझ में सब आ गया। गुस्से और नफरत से काँपता वह दाँत पीसकर रह गया।

जब से वह कगार की बस्ती में आया था, पुलिस उसके पीछे खड़ी थी। आज मौका पाकर उसने उसे दबोच लिया था। रात-ही-रात मटरू को हथकड़ी-बेड़ी चढ़ाकर जिले की हवालात में पहुँचा दिया गया और गाँव वालों पर इतनी सख्ती की गयी कि कोई चूँ तक न कर सका।

रपट-मुकद्दमा, गर-गवाही सब-कुछ पहले ही से तैयार था। मटरू के ससुर ख़बर लेने थाने पर पहुँचे, तो उन्हें मालूम हुआ कि मटरू डाके के अपराध में गिरफ्तार हुआ है। पुलिस ने मटरू की झोंपड़ी में छापा मारकर जो जेवर माल बरामद किये हैं, वह जिन्दापुर के ज़मीदार नथुनी सिंह के हैं, एक-एककर पहचान लिये गये हैं। जल्दी ही कचहरी में मुकद्दमा खड़ा होगा। इस्तग़ासा तैयार हो रहा है।

जिसने यह सुना, आँख फाडक़र रह गया—कोई दुख से, तो कोई आश्चर्य से। लेकिन उस दौरान जवार में पुलिस की सख्ती इतनी बढ़ा दी गयी थी कि किसी की हिम्मत पुलिस या जमींदार के ख़िलाफ एक बात भी ज़बान पर लाने की न थी। शोर यह मचाया गया कि मटरू सरदार के गिरोह के करीब पचास डाकू फरार हैं। पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए सरगर्मी से दौड़ लगा रही है। दूसरे-तीसरे दिन यह भी अफवाह गाँवों में फैल जाती कि आज दो डाकू गिरफ्तार हुए, तो आज तीन। एक अजब हडक़म्प मचा दिया पुलिस ने चारों ओर।

महीनों रच-रचकर सब हरबे-हथियार के साथ जो मुकद्दमा तैयार किया गया था, उसमें बाल की खाल निकालने पर भी कोई नुख्स निकाल लेना मुश्किल था। फिर छोटे से लेकर जिले के बड़े-बड़े अधिकारियों तक की मुट्ठियाँ इतनी गरमा दी गयी थीं कि सब-के-सब कुछ भी खड़ा-का-खड़ा निगल जाने को तैयार थे।

डिप्टी साहब की कचहरी से होकर मुकद्दमा सेशन सुपुर्द हुआ। साले और ससुर से जो भी करते बना, उन्होंने किया। लेकिन नतीजा वही निकला जो पहले ही सील-मुहर में बन्द करके रख दिया गया था।

मटरू को तीन साल की सख़्त सजा हो गयी और तीन दिन के अन्दर ही रात की गाड़ी से बनारस जिला जेल को उसका चालान भेज दिया गया।

छह

भाभी का जीवन एक साधना का जीवन बन गया।

कलेजे में पति की चुभती हुई यादें दबाये वह रात-दिन अपने को किसी-न-किसी काम में बझाये रखती। आँखों से टप-टप खून के आँसू चुआ करते और हाथ काम करते रहते। सास-ससुर चुपचाप सब देखते! एक बात भी उनके मुँह से न निकलती। ऐसी विधवा के लिए कोई कौन-सी सान्त्वना की बात कहे? कोई बच्चा रहता, तो उसका मुँह ही देखकर उसे जीने की, सब्र करने की, बात कही जाती। यहाँ तो वह भी हीला न था, कोई क्या कहता? ऐसी विधवा का जीवन एक ठूँठ की ही तरह होता है, जिस पर कभी हरियाली नहीं आने की, कभी फल-फूल नहीं लगने के, व्यर्थ, बिलकुल व्यर्थ, धरती का व्यर्थ भार! हाँ, ठूँठ का बस एक उपयोग होता है। उसे काटकर लावन में जला दिया जाता है गृहस्थ-जीवन में शायद ऐसी विधवा का उपयोग लावन की ही तरह है, ज़िन्दगी-भर जलते रहना, जलकर गृहस्थी की सेवा करना, जिस सेवा के फल का भोग दूसरे भोगें और खुद वह राख होकर रह जाए।

यही हाल भाभी का था। वह सब काम करती। बूढ़ी सास कोने में बैठी अपने बेटों को बिसूर-बिसूर कर रात दिन रोया करती। अपाहिज ससुर के दिल-दिमाग को अचानक एक-पर-दूसरी पड़ी विपत्तियों के कारण लकवा मार गया था। वह गहरी मानसिक पीड़ा में डूबे रहते—यह क्या हो गया? क्या था और क्या हो गया? उन्हें जब अपना हरा-भरा चमन याद आता, तो चुप-चुप ही कूल्हने लगते वे...आह, आह राम! तूने यह क्या कर दिया! ऐसा कौन-सा पाप मैंने किया था, जो यह दिन दिखाया?

कभी-कभी ऐसा होता कि तीनों प्राणी एक-दूसरे को सान्त्वना देने इकट्ठे हो जाते। और फिर बातों-ही-बातों में जाने क्या हो जाता कि तीनों एक साथ ही संकोच और लेहाज छोडक़र रोने लगते, एक-दूसरे से लिपट जाते। समान व्यथा की तड़प जैसे उन्हें एक कर देती। उस वक़्त पास-पड़ोस के औरत-मर्द इकट्ठे होकर उन्हें समझा-बुझाकर जबर्दसती अलग करते और आँसू पोंछकर चुप कराते। फिर सब-कुछ मसान की तरह शान्त हो जाता। जैसे वहाँ कोई जीवित आदमी ही न रहता हो। व्यथा का वेग अन्दर-अन्दर ही खून सुखाता रहता। लेकिन होंठ न हिलते। लोग वहाँ से जाने लगते, तो उनकी साँसें भी आह बन जातीं। ओह, क्या था और क्या हो गया? बेचारा गोपी छूटकर आ जाता, तो इन्हें कुछ ढाढ़स बँधता।

भाभी को कभी ठीक तरह से नींद न आती। कभी झपकी आ जाती, तो जैसे कोई भयानक सपना देखकर चिहुँक उठती और चुप-चुप रोने लगती। एक-एक याद उभरती और एक-एक हूक उठती। रात का सन्नाटा और अन्धकार जैसे पूरा इतिहास खोल देता। भाभी बेचैन हो-हो करवटें बदलती और एक-एक पन्ना उलटता जाता। आख़िर जब सहा न जाता, तो उठकर रसोई के बरतन-बासन उठा, आँगन में लाकर माँजने-धोने लगती। सास बरतनों का बजना सुनती, तो सोये-सोये ही बोलती, ‘‘अरे बहू, अभी उठ गयी? अभी तो बड़ी रात मालूम देती है। सो रह, अभी सो रह।’’

भाभी गला साफ करके कहती, ‘‘कहाँ रात है अब? सुकवा उग आया है अम्माजी!’’

‘‘अभी मेरी एक भी नींद पूरी नहीं हुई है और तू कहती है कि सुकवा उग गया है? सो रह, बहू, सो रह? कौन खाने पीने वाला है, जो इसी वक़्त बरतन भाँड़ा लेकर बैठ गयी? सो रह, बहू, सो रह।’’

भाभी कोई जवाब न देती। सास कहर-कहरकर करवट बदलती बुदबुदाती, ‘‘हे राम, हे राम!’’ और नींद में गोता लगा जाती।

धीमे-धीमे बिना कोई आवाज़ किये भाभी बरतन माँज-धोकर उठती; धीरे-धीरे चौका लगाती। फिर स्नान करके कपड़े बदलती और ठाकुर घर साफ कर, दीप जला, मूरत के सामने बैठकर, रामायण खोलकर होंठों ही में मिला-मिलाकर पढऩे लगती। उसकी समझ में कुछ न आता। वह पढ़ी-लिखी बिलकुल नहीं थी। बचपन में एक-दो महीने भाई के साथ खेल-खेल में स्कूल गयी थी। उसी दौरान खेल-खेल में उसने अक्षर और मात्राएँ सीख ली थी। फिर माँ ने उसे स्कूल जाने से रोक दिया था। लडक़ी को पढऩे-लिखने की भला क्या जरूरत? फिर सब-कुछ भूल गयी। अब, जब वक़्त काटे न कटता, तो उसने फिर सालों बाद उस अक्षर-ज्ञान को धीरे-धीरे ताजा किया। घर में रामायण के सिवा और कोई किताब न थी। वह उसी पर अभ्यास करने लगी। एक-एक चौपाई में उसके मिनटों बीत जाते। अक्षर-अक्षर मिला कर वह शब्द बनाती। फिर कई बार दुहराकर आगे बढ़ती। फिर दो शब्दों को कई बार दुहराकर आगे बढ़ती। इस तरह एक चरण ख़तम करके वह उसे बीसों बार दुहराती।

इसमें वक़्त काटने के साथ ही, कुछ भी न समझते हुए भी, उसे एक आध्यात्मिक सुख और सान्त्वना मिलती। उसका ख़याल था कि धीरे-धीरे अभ्यास हो जाने पर वक़्त काटने का एक अच्छा साधन लग जाएगा। दुखी प्राणी के लिए वक़्त काटने की समस्या से बढक़र कोई समस्या नहीं होती। और वह तो ऐसी दुखी प्राणी थी, जिसे सारा जीवन ही इसी तरह काटना था। विधवा के जीवन में सुख के एक क्षण की भी कल्पना कैसे की जा सकती है?

सुबह सास-ससुर के उठने के पहले ही वह सारा घर बुहारकर साफ कर लेती? हलवाहा आता, तो उससे भैंस दुहवाती, उसे नाँदों में चलाने के लिए भूसा-घर से भूसा निकालकर देती। फिर ज़रूरी सामान देकर उसे खेत पर भेज देती। पुराना हलवाहा बड़ा ही नमकहलाल था। उसी पर आजकल पूरी खेती का भार छोड़ दिया गया था। घर के आदमी की तरह वही सब-कुछ करता और भाभी को पूरा-पूरा हिसाब देता।

ससुर की नींद खुलती, तो वे बहू को पुकारते। भाभी जल्दी-जल्दी आग तैयार करके हुक्का भरकर उनके हाथ में थमा आती। सास ने कुछ इस तरह देह छोड़ दी थी कि भाभी को ससुर के सभी काम सब लोक-लाज छोडक़र करने पड़ते थे।

चारपाई पर ही वह उनके हाथ-मुँह धुलाती, दूध गरम करके पिलाती। फिर हुक्का ताजा कर, उनके हाथ में दे, दवा की मालिश करने लगती। ससुर कहर-कहर कर हुक्का गुडग़ुड़ाते रहते। कहीं किसी जोड़ पर बहू का हाथ ज़रा जोर से लग जाता, तो चीख़कर कहते, ‘‘अरे बहू, सँभालकर मल! ओह, आह!’’

फिर वह घर के काम में लग जाती। फटकने-पछोडऩे, कूटने-पीसने से लेकर खिलाने-पिलाने तक के सभी काम वह करती। सास बिसूर-बिसूरकर किसी कोने में बैठी रोती रहती या टुकुर-टुकुर बहू को काम करते निहारा करती।

भाभी अब पहले की भाभी नहीं रह गयी—न वह रूप, न रंग, न वह जवानी न वह देह। अब तो वह जैसे पहले की भाभी की एक चलती-फिरती छाया रह गयी थी। दुबली-पतली, सूखी देह, बेआब-पीला चेहरा, उदास, आँसुओं में सदा तैरती-सी आँखें, मुरझाये-सिले-से होंठ, रोएँ-रोएँ से जैसे करुणा टपक रही हो एक ज़िन्दगी की जैसा मुर्दा तस्वीर हो, या जैसे एक मुर्दा ज़िन्दा होकर चल-फिर रहा हो।

हाय, वह क्यों ज़िन्दा है? आह, उसके भी प्राण उन्हीं के साथ क्यों न निकल गये! बहन ने कैसा पुण्य किया था कि उसे भगवान् ने बुला लिया! हाय, वह कैसी महापापिन है कि नरक भोगने को रह गयी? इस नरक से वह कब उबरेगी, इस यातना से आखिर कब छुटकारा मिलेगा?

महीनों बाद व्यथा की बरसाती धारा जब धीरे-धीरे धीमी होकर शान्त हुई और जब भाभी धीरे-धीरे कर सब-कुछ करने-सहने की अभ्यस्त हो गयी, तो उसके जीवन की व्यर्थता और असीम निराशा के, जो प्राणों के चूर-चूर हो जाने से आयी थी, डंक भी कुन्द होने लगे। अब भाभी कभी-कभी कुछ सोचती थी, अब कभी-कभी उसके हृदय में जीवन के उन सुखों के अंकुर फिर उभरते-से अनुभव होते, जिन्हें एक बार वह अपने जीवन के फल-फूल से लदे देख चुकी थी। पति की याद से भी अब कभी-कभी उसके मानस से उन्हीं कोमल भावनाओं का स्फुरण होता, जो उसके सहवास में उसे मिली थीं। अब बार-बार उसके मन के सात पर्दों’’ में दबे स्थान से सवाल उठता, ‘‘क्या जीवन में वे दिन फिर कभी न आएँगे? क्या वह सुख फिर कभी न मिलेगा? वह, वह...’’ और उसके मुँह से एक दबी हुई ठण्डी साँस निकल जाती। प्राणों में जाने कैसी एक ऐंठ और दर्द महसूस होता। वह कुछ व्याकुल-सी हो उठती काश...

ऐसे अवसर पर जाने कैसे उसका ध्यान अपने देवर की ओर चला जाता। वह सोचती कि उसकी हालत भी तो ठीक उसी की जैसी होगी। उसका भी तो सुख का संसार उसी की तरह उजड़ गया। उसके मन में भी तो आज ठीक उसी की तरह के भाव उठते होंगे। वह भी तो उसी की तरह तड़पता होगा कि काश...

और तभी जैसे कोई उससे कह जाता, ‘वह तो मर्द है। जैसे ही वह जेल से लौटेगा, उसका दूसरा ब्याह हो जाएगा और फिर उसकी एक नयी ज़िन्दगी शुरू होगी, जिसमें पहले ही-सा सुख...’

और वह मर्माहत हो उठती। उसके होंठ बिचक-से जाते, जैसे उसमें एक नफरत, एक गुस्से का भाव भर उठता हो और यह प्रश्न उसकी आत्मा की तड़प में लिपटकर उठ पड़ता हो, ‘‘ऐसा क्यों, ऐसा क्यों होता है? यह अन्तर क्यों? क्यों एक को अपनी उजड़ी दुनिया को गले से लिपटाये तिल-तिल जलकर राख हो जाने को विवश होना पड़ता है और दूसरे को अपनी उजड़ी हुई दुनिया फिर से बसाकर सुख-चैन से ज़िन्दगी बिताने का अधिकार मिलता है?’’

और वह तिलमिला उठती? नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए, हरगिज नहीं! उसे भी अधिकार होना चाहिए कि...

यह कैसी बातें उठने लगी हैं मन में? भाभी को जब होश आता, तो उसे स्वयं पर आश्चर्य होता। अभी कल की ही तो बात है कि पति के वियोग में तड़पकर वह मर जाना चाहती थी। लेकिन आज, आज यह क्या हो रहा है कि वह एकदम बदल गयी है, ऐसी-ऐसी बातें सोच रही है, ऐसे-ऐसे विचार मन में उठते हैं, ऐसी-ऐसी इच्छाएँ अन्तर में सिर उठा रही है! और वह अभी कल की ही अपनी मन:स्थिति की बात सोचकर अपने ही सामने आज शर्मिन्दा हो उठती है। कहीं किसी को आज उसके मन में उठने वाले भाव मालूम हो जाएँ, तो? नहीं, नहीं, नहीं! लोग क्या कहेंगे? लोग उसे कितनी पापिनी समझेंगे? लोग उसे क्या-क्या ताने देंगे कि पति को मरे अभी दो-तीन साल भी न हुए और यह कलमुँही ऐसी-ऐसी बातें सोचने लगी! यह विधवा-जीवन की पवित्रता आगे क्या कायम रख सकती है? ओह, ज़माना कितना बिगड़ गया है। देखो न, कल की विधवा आज...

और वह एक विवशता और व्याकु लता से तड़प उठती। वह इस अपने मन को क्या करे? वह कैसे इन अपवित्र भावों को दबा दे। वह ठाकुर-घर में आजकल प्रार्थना करती है, ‘‘भगवान्, मुझे शक्ति दे कि मैं कुल-रीति पर कायम रहूँ! मन में उठती अपवित्र भावनाओं पर काबू पा सकूँ! विधवा-जीवन पर कलंक न लगने दूँ!’’ लेकिन भगवान् से उसे वह शक्ति नहीं मिल रही थी। मन हरिण की तरह जब-तब छलाँगें मारने लगता। वह बरबस पति को याद करती। सोचती कि जब तक उनकी याद बाकी रहेगी, वह न डिगेगी। लेकिन अब उनकी याद भी धुँधली पड़ती जा रही थी। बहुत कोशिश करके भी वह बहुत देर तक उन यादों में न बिता पाती। न जाने कब यादें अपना रूप बदल देतीं! व्यथा उत्पन्न करने वाली यादें उन सुखों की याद दिलाने वाली बन जातीं जो उसे अपने पति से मिले थे। और फिर उन सुखों की याद करके उन्हें फिर से प्राप्त करने की चाह मन में उठ पड़ती। अन्तर एक मीठी सिहरन से भर जाता। और जब उसे इसका ख़याल आता, तो वह अपने को धिक्कारने लगती। इस तरह एक अजीब रहस्यमय द्वन्द्व उसके मन में बस गया। और वह जान-बूझकर यह भी अनुभव करती रही कि कौन पक्ष जीत रहा है, कौन हार रहा है।

अब पहली-सी हालत उसकी न रही। अब घर में काम-काज, सास-ससुर की सेवा में उसकी वह तन्मयता न रही। अब जैसे वह-सब आधे मन से करती, अब कभी-कभी सास किसी काम में देर होने पर उसे डाँटती, तो वह जवाब भी दे देती, ‘‘दो ही हाथ हैं मेरे! क्यों नहीं तुम्हीं कर लेतीं? लौंडी की तरह रात-दिन तो खट रही हूँ! फिर भी यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ! सुनते-सुनते मेरे कान पक गये! ...’’

सास सुनती, तो बड़बड़ाने लगती। अनाप-शनाप जो भी मुँह में आता, कह जाती। भाभी में अभी उससे ज़बान लड़ाने की हिम्मत न थी। फिर भी होंठों में बुदबुदाने से अब वह भी बाज न आती।

धीरे-धीरे दोनों चिड़चिड़ी हो गयीं और झल्ला-झल्लाकर बातें करने लगीं। एक दुखमय शान्ति, जो इतने दिनों घर में छायी रही थी, वह अब ख़तम हो गयी। अब तो टोले-मोहल्लेवालों के कानों तक भी इस घर की बातें पहुँचने लगीं। ये बातें दो कुण्ठित, बीमार जिन्दगियों की थी—चिढ़, गुस्से, विवशता और व्यर्थता से भरी।

एक दिन सुबह भूसा-घर से खाँची में भूसा निकालकर दालान में खड़े हलवाहे को देने भाभी आयी तो खाँची हाथ में लेते हुए हलवाहे ने कहा, ‘‘छोटी मालकिन, कई दिनों से एक बात कहने को जी होता है, बुरा तो न मानेंगी?’’

कपड़े पर पड़े भूसे के तिनकों को साफ करती हुई भाभी बोली, ‘‘क्या बात है? तुझे कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘नहीं, मालकिन,’’ हलवाहे ने आँखों में नंगी करुणा और होंठों पर सच्चा मोह लाकर, बड़ी ही सहानुभूति के स्वर में कहा, ‘‘मालकिन, आपकी देह देखकर मुझे बड़ा दु:ख होता है! अभी आपकी उम्र ही क्या है? इसी उम्र से इस तरह आपकी ज़िन्दगी कैसे कटेगी? इतने ही दिनों में आपकी सोने की देह कैसे माटी हो गयी? मालकिन, आपको इस रूप में देखकर मुझे बड़ा दुख होता है!’’ कहते-कहते ऐसा लगा कि वह रो देगा।

भाभी के चेहरे की उदास छाया और भी काली हो गयी। वह बोली, ‘‘क्या करें, बिलरा, भाग्य के आगे किसका बस चलता है? विधाता ने सेनुर मिटा दिया, करम फोड़ दिया, तो अब इस तरह रो-धोकर ही तो ज़िन्दगी काटनी है। तू दुख काहे को करता है? करम का साथी कौन होता है? विधाता से ही जब मेरा सुख न देखा गया, तो...’’ वह आँखों पर आँचल रखती सिसक पड़ी।

एक ठण्डी साँस लेकर बिलरा बोला, ‘‘यह कैसा रिवाज है मालकिन, आपकी बिरादरी का? इस मामले में तो हमारी ही बिरादरी अच्छी है, जो कोई बेवा इस तरह अपनी ज़िन्दगी ख़राब करने को मजबूर नहीं। मेरी ही देखिये न। भैया भाभी को छोडक़र गुजर गये, तो भौजी का ब्याह मुझसे हो गया। मजे से ज़िन्दगी कट रही है। और आप ऊँची बिरादी में क्या पैदा हुईं कि आपकी ज़िन्दगी ही ख़राब हो गयी...क्या कहूँ मालकिन, मन में उठता तो है कि छोटे मालिक से अगर आपका ब्याह हो जाता...’’

‘‘बिलरा!’’ ऊँची बिरादरी का अहंकार भभक उठा, ‘‘फिर कभी यह बात जबान पर मत लाना! जिस कुल का तू नमक खाता है, उसकी मर्यादा का तू ख़याल न कर, ऐसी बात फिर मुँह से निकाली, तो मैं तेरी ज़बान खींच लूँगी! तुझे क्या मालूम नहीं कि इस कुल की विधवा ज़िन्दा जलकर चिता में भस्म हो जाती है, लेकिन...जा, हट जा तू!’’ कहकर भाभी अपनी चारपाई पर जा गिरी और फफक-फफककर रोने लगी।

सास-ससुर अभी सो रहे थे। काफी देर तक भाभी रोती रही। यह रोना एक अपमानित आत्मा के अहंकार का था। नीच, कमीने आदमी ने जिस तार को छेड़ा था, वह कितनी ही बार आप-ही-आप भी झंकृत हुआ था, भाभी ने उसका स्वाद मन-ही-मन लिया था। लेकिन यह तार इतना गोपनीय, इतना अहंकारों और संस्कारों के बीच छिपाकर सावधानी से रखा गया था कि उसे कभी कोई छू पाएगा, इसकी कल्पना भाभी को न थी। उसी तार पर उस नीच कमीने आदमी ने सीधे उँगली रख दी थी। यह क्या कोई साधारण अपमान की बात थी! भाभी की क्षुब्धता ही रुदन में फूटी थी। इस क्षुब्धता की एक धार जहाँ उस कमीने की गरदन पर थी, वहीं उसकी दूसरी धार स्वयं भाभी की गरदन पर, इसका ज्ञान भाभी को था। वरना वह कमीना क्या थप्पड़ खाये बिना जा पाता? राजपूतनी के खून की बात थी कि कोई ठट्ठा?

भाभी उस दिन से और सावधान हो गयी, ठीक उसी तरह जैसे एक बार चोरी पकड़े जाने पर चोर। अब वह बिलरा के सामने भी न जाती। सास को सुबह ही जगा देती। उसी के हाथ दूध निकालने के लिए घूँचा और नाँद में चलाने के लिए भूसा भी भिजवाती। कोई भी हो, आख़िर मरद ही तो है। किसी मरद के सामने विधवा न जाना चाहे, तो इसकी प्रशंसा कौन न करे?

जो भी हो, उस कमीने आदमी की उस बात ने भाभी की गोपनीय, पाप-मय कल्पनाओं को परवान चढऩे के लिए एक मजबूत आधार दे दिया। जाने-अनजाने भाभी के ख़याल में देवर अब उभर-उभर आता। उनकी सैकड़ों बातों की यादें ऐसा-ऐसा रूप लेकर आतीं कि भाभी को शंका होने लगी कि देवर कहीं सचमुच तो उसे नहीं चाहता था। मासूम, निष्कलंक, निश्छल, पवित्र स्नेह पर वासना की झीनी चादर ओढ़ाते किसको कितनी देर लगती है? फिर भाभी का भूखा मन आजकल तो ऐसी कल्पनाओं में ही मँडराया करता, कभी-कभी तो उस कमीने की बिरादरी से भी ईर्ष्या हो जाती कि काश...तभी फिर न जाने कहाँ से एक कठोर पुरुष आ भाभी पर इतने कोड़े लगा देता कि भाभी खून-खून हो छटपटा उठती।

भाभी की कल्पनाओं की सेज भी काँटों की थी, जिस पर उसकी देह पल-पल छिदती रहती।

सात

बनारस जिला जेल पहुँचते ही मटरू की साँस की बीमारी उखड़ गयी। तीन-चार दिन तक तो किसी ने उसकी परवाह न की, पर जब वह बिल्कुल लस्त पड़ गया, कोई काम करने के काबिल न रहा, तो उसे अस्पताल में पहुँचा दिया गया। उसका बिस्तर ठीक गोपी की बगल में था।

डाक्टर किसी दिन आता, किसी दिन न आता। विशेषकर कम्पाउण्डर ही सब-कुछ करता-धरता। वह बड़ा ही नेक आदमी था, उसकी सेवा सुश्रुषा से ही मरीज आधे अच्छे हो जाते थे। फिर यहाँ खाना भी कुछ अच्छा मिलता था, थोड़ा दूध भी मिल जाता था, मशक्कत से छुटकारा भी मिल जाता था। यही सुविधा प्राप्त करने के लिए बहुत से तन्दुरुस्त कैदी भी अस्पताल में पड़े रहते। इसके लिए डाक्टर की और वार्डर की मुट्ठी थोड़ी गरम कर देनी पड़ती थी। जाहिर है कि ऐसा खुशहाल कैदी ही कर सकते थे।

एक हफ्ते तक मटरू बेहाल पड़ा रहा। वह सूखी खाँसी खाँसता और पीड़ा के मारे ‘आह-आह’ किया करता। बलगम सूख गया था। कम्पाउण्डर बड़ी रात गये तक उसके सीने और पीठ पर दवा की मालिश करता। वह अपनी छुट्टी की परवाह न करता।

कई इंजेक्शन लगने के बाद जब कफ कुछ ढीला हुआ, तो मटरू को कुछ आराम मिला। अब वह घण्टों सोया पड़ा रहता। सोये-सोये ही कभी-कभी वह ‘‘माँ-माँ’’ चीखता, उठकर बैठ जाता और चारों ओर आँखें फाड़-फाडक़र देखने लगता।

एक दिन ऐसे ही मौके पर गोपी ने पूछा, ‘‘माँ, तुम्हें बहुत याद आती है?’’

‘‘हाँ’’, मटरू ने जैसे दूर देखते हुए कहा, ‘‘वह रात-दिन मुझे पुकारा करती है- जब तक मैं उसके पास न पहुँच जाऊँगा, चैन न मिलेगा। जब तक उसका पानी और हवा मुझे न मिलेगी, मैं निरोग न होऊँगा।’’

गोपी ने अचकचाकर कहा, ‘‘माँ से पानी-हवा का क्या मतलब? तुम... ’’

‘‘तुम कहाँ के रहने वाले हो?’’ मटरू ने जरा मुस्कराकर पूछा, ‘‘मटरू सिंह पहलवान का नाम नहीं सुना है? उसकी माँ गंगा मैया है, यह बात कौन नहीं जानता!’’

‘‘मटरू उस्ताद!’’ गोपी आँखें फैलाकर चीख पड़ा, ‘‘पा लागी! मैं गोपी हूँ, भैया, भला मुझे तुम क्या जानते होगे?’’

‘‘जानता हूँ, गोपी, सब जानता हूँ। मैं उस दंगल में भी शामिल था और फिर जो वारदात हो गयी थी, उसके बारे में भी सुना था। क्या बताऊँ, कोई किसी का बल नहीं देख पाता। जब किसी तरह कोई पार नहीं पाता, तो कमीनेपन पर उतर आता है। तुम्हारे भाई की वह हालत हुई, तुम्हें जेल में डाल दिया गया। मेरा भी तो सुना ही होगा। कमीने से और कुछ करते न बना, तो जाने क्या खिला दिया। साँस ही उखड़ गयी। शरीर मिट्टी हो गया। देख रहे हो न?’’

‘‘हाँ, सो तो आँखों के सामने है,’’ दुखपूर्ण स्वर में गोपी ने कहा, ‘‘फिर यहाँ कैसे आना हुआ, भैया?’’

मटरू हँस पड़ा। बोला, ‘‘वही, ज़मींदारों से मेरी वह ज़िन्दगी भी न देखी गयी। डाके में फाँसकर यहाँ भेज दिया।’’ कहकर वह पूरी कहानी सुना गया। अन्त में बोला, ‘‘क्या बताऊँ, सब सह सकता हूँ, लेकिन गंगा मैया का बिछोह नहीं सहा जाता। आँखों के सामने जब तक वह धारा नहीं रहती, मुझे चैन नहीं मिलता, कुछ करने को उत्साह नहीं रहता। वह हवा, वह पानी, वह मिट्टी कहाँ मिलने की? जब से बिछड़ा हूँ, भर-पेट पानी नहीं पिया। रुचता ही नहीं, भैया, क्या करूँ? जाने कैसे कटेंगे तीन साल?’’

‘‘मुझे तो पाँच साल काटना है, भैया! मर्द के लिए कहीं भी वक़्त काटना मुश्किल नहीं, लेकिन दिल में एक पीर लिये कोई कैसे वक़्त काटे! मुझे विधवा भाभी का ख्याल खाये जाता है, और तुम्हें गंगा मैया का। एक-न-एक दुख सबके पीछे लगा रहता है। फिर भी वक़्त तो कटेगा ही, चाहे दुख से कटे, चाहे सुख से- अब तो हम एक जगह के दो आदमी हो गये। दुख-सुख ही कह-सुनकर मज़े से काट लेंगे। सुना था, तुमने शादी कर ली थी?’’

‘‘हाँ, अब तो तीन बाल-गोपाल भी घर आ गये हैं। बड़े मजे से ज़िन्दगी कट रही थी, भैया! हर साल पचास-सौ बीघा जोत-बो लेता था। गंगा मैया इतना दे देती थीं कि खाये ख़तम न हो- लेकिन ज़मींदारों से यह देखा न गया। गंगा मैया की धरती पर भी उन्होंने अनाचार करना शुरू कर दिया। अन्याय देखा न गया, भैया मर्द होकर माँ की छाती पर मूँग दलते देखूँ, यह कैसे होता!’’

‘‘तुमने जो किया, ठीक ही किया, भैया! ये ज़मींदार इतने हरामी होते हैं कि किसान का जरा भी सुख इनसे नहीं देखा जाता। तुम्हें वहाँ से हटाकर अब मनमानी करेंगे। लोभी किसानों ने जो तुम्हारे रहने पर न किया, उनसे वे अब सब करा लेंगे। तुम्हारा कोई साथी वहाँ होगा नहीं, जो रोकथाम करे?’’

‘‘एक साला है तो। मगर उसमें वह हिम्मत नहीं है। फिर भी वह चुपचाप न बैठेगा। थोड़े दिन की मेरी शागिर्दी का असर उस पर कुछ-न-कुछ पड़ा ही होगा। देखना है।’’

‘‘वह तुमने मिलने आएगा न, पूछना।’’

धीरे-धीरे मटरू और गोपी का सम्बन्ध गहरा हो गया। दोनों के समान स्वभाव, समान दुख, समान जीवन ने उन्हें अन्तरंग बना दिया। उनका जीवन अब एक-दूसरे के साथ-सहारे से कुछ मजे में कटने लगा। एक ही बैरक में वे रहते थे। जहाँ तक काम का सम्बन्ध था, उनसे किसी को कोई शिकायत न थी। इसलिए किसी अधिकारी को उन्हें छेडऩे की जरूरत न थी। मटरू की ‘‘गंगा मैया’’ जेल-भर में मशहूर हो गयीं। उन्हें छोटे-बड़े बहुत ही अधिक धार्मिक आदमी समझते और जब मिलते, ‘‘जय गंगा मैया’’ कहकर जुहार करते। एक तरह की ज़िन्दगी उन दीवारों के अन्दर भी पैदा हो गयी। हँसी-दिल्लगी, लडऩा-झगडऩा, ईर्ष्याी-द्वेष, रोना-गाना; वहाँ भी तो वैसा ही चलता है, जैसे बाहर। कब तक कोई वहाँ के समाजी जीवन से कटा-हटा, अलग-अकेले पड़ा रहे? सैकड़ों के साथ सुख-दुख में घुल-मिलकर रहने में भी तो आदमी को एक सन्तोष मिल जाता है।

अब मटरू और गोपी के बीच कभी-कभी जेल के बाहर भी साथ ही रहने-सहने की बात उठ पड़ती। दोनों में इतनी घनिष्ठता हो गयी थी कि जुदाई का ख़याल करके भी वे बेचैन हो उठते। मटरू कहता, ‘‘जेल से छूटकर तुम भी मेरे साथ रहो, तो कैसा? गंगा मैया के पानी, हवा और मिट्टी का चस्का तुम्हें एक बार लग भर जाए, फिर तो मेरे भगाने पर भी तुम न जाओगे। फिर मुझे तुम्हारे-जैसे एक साथी की ज़रूरत भी है। ज़मींदर अब जोर ज़बरदस्ती पर उतर आये हैं। न जाने मुझे वहाँ से हटाने के बाद उन्होंने क्या-क्या किया हो। लौटने पर फिर वे मुझसे भिड़ेंगे। अब उनका मुकाबिला करना है। जवार के किसान इस बीच फूट न गये, तो मेरा साथ देंगे। मैं चाहता हूँ कि गंगा मैया की छाती पर मेंड़ें न खिंचें। मेंड़ें खिंचना असम्भव भी है, क्योंकि गंगा मैया की धारा हर साल सब-कुछ बराबर कर देती है। कोई निशान वहाँ कायम नहीं रह सकता है। मैया केज़मीन छोडऩे पर जो जितनी चाहे, जोते-बोये। ज़मीन की वहाँ कभी कोई कमी न होगी, जोतने वालों की कमी भले ही हो जाए। वहाँ सबका बराबर अधिकार रहे। ज़मींदार उसे हड़पकर वहाँ अपनी जमींदारी कायम करके लगान वसूल करना चाहते हैं, वही मुझे पसन्द नहीं। गंगा मैया भी क्या किसी की जमींदारी में हैं, गोपी?’’

‘‘नहीं भैया, यह तो सरासर उनका अन्याय है। ऐसा करके तो एक दिन वे यह भी कह सकते हैं कि गंगा मैया का पानी भी उनका है, जो पीना-नहाना चाहे, कर चुकाए?’’

‘‘हाँ, सुनने में तो यह भी आया था कि घाट को वे ठेके पर उठाना चाहते हैं। कहते हैं, घाट उनकी ज़मीन पर है। वहाँ से जो पार-उतराई खेवा मिलता है, उसमें भी उनका हक है। मेरे रहते तो वहाँ किसी की हिम्मत ऐसा करने की नहीं हुई। अब मेरे पीछे जाने उन्होंने क्या-क्या किया हो। सो, भैया, वहाँ एक मोर्चा बनाकर इस अन्याय का मुकाबिला करना ही पड़ेगा। अगर तुम मेरे साथ हो, तो मेरा बल दूना हो जाएगा।’’

‘‘सो तो मैं भी चाहता हूँ। लेकिन तुम्हें तो मालूम है कि घर में मैं ही अकेला बच गया हूँ। बाबू को गँठिया ने अपाहिज बना दिया है। बूढ़ी माँ और विधवा भाभी का भार भी मेरे ही सिर पर है। ऐसे में घर कैसे छोड़ा जा सकता है? हाँ, कभी-कभार तुम्हें सौ-पचास लाठी की जरूरत हुई; तो ज़रूर मदद करूँगा। तुम्हारे इत्तला देने भर की देर रहेगी। यों, दो-चार दिन आ-ठहरकर गंगा मैया का जल-सेवन ज़रूर साल में दो-चार बार करूँगा। तुम भी आते जाते रहना। यों, सर-समाचार तो बराबर मिलता ही रहेगा।

मटरू उदास हो जाता। वह सचमुच गोपी पर जान देने लगा था। लेकिन उसके घर की ऐसी परिस्थिति जानकर भी वह कैसे अपनी बात पर जोर देता? वह कहता, ‘‘अच्छा, जैसे भी हो, हमारी दोस्ती कायम रहे, इसकी हमें बराबर कोशिश करनी चाहिये!’’

इधर बहुत दिनों से मटरू या गोपी की मिलाई पर कोई नहीं आया था। दोनों चिन्तित थे। दूर देहात से कामकाजी किसानों का बनारस आना-जाना कोई मामूली बात न थी। ज़िन्दगी में बहुत हुआ तो सालों से इन्तजाम करने के बाद वे एक बार काशी-प्रयाग का तीरथ करने निकल पाते हैं। उनके पास कोई चहबच्चा तो होता नहीं कि जब हुआ निकल पड़े, घूम आये। फिर उन्हें फुरसत भी कब मिलती है? एक दिन भी काम करना छोड़ दें, तो खाएँ क्या? और खाने को हो तो भी बटोरने और खेत खरीदने की लालसा से उन्हें छुटकारा कैसे मिले?

गोपी के ससुर पहले दो-दो, तीन-तीन महीने पर एक बार आ जाते थे। लेकिन जब से एक बेटी विधवा हो गयी थी और दूसरी चल बसी थी, उनकी दिलचस्पी बिल्कुल ख़तम हो गयी थी। खामखाह की दिलचस्पी के न वह कायल थे, न उसे पालने की उनकी हैसियत ही थी। दूसरा कौन आता।

मटरू के ससुर बिलकुल मामूली आदमी थे। ज़िन्दगी में कभी बाहर जाने का उन्हें अवसर ही न मिला था। हाँ, साले से कुछ उम्मीद ज़रूर थी। लेकिन वह भी जाने किस उलझन में फँसा है, जो एक बार भी ख़बर लेने न आया।

अगले महीने में चन्द्रग्रहण पड़ रहा था। मटरू और गोपी को पूरा विश्वास था कि इस अवसर पर ज़रूर कोई-न-कोई मिलने आएगा। ग्रहण में काशी-नहान का बड़ा महत्व है। एक पन्थ, दो काज।

ग्रहण के एक दिन पहले इतवार था। सुबह से ही मिलाई की धूम मची थी। जिन कैदियों की मिलाई होने वाली थी, उनके नाम वार्डर पुकार रहे थे और फाटक के पास सहन में बैठा रहे थे। जिसका नाम पुकारा जाता, उसका चेहरा खिल जाता, जिसका नाम न पुकारा जाता, वह उदास हो जाता। सहन से एक खुशी का शोर-सा उठ रहा था।

मटरू और गोपी आँखों में उदास हसरत लिये बैरक के बाहर खड़े थे। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि आज कोई-न-कोई उनसे मिलने ज़रूर आएगा। लेकिन जब सब पुकारें ख़तम हो गयीं और उनका नाम न आया तो उनकी आँखों में हसरत मूक रुदन करके मिट गयी।

‘‘देखो न,’’ थोड़ी देर बाद गोपी जैसे रोकर बोला, ‘‘आज भी कोई नहीं आया।’’

‘‘हाँ,’’ उसाँस लेता मटरू बोला, ‘‘गंगा मैया की मरजी...’’

तभी उनके वार्डर ने भागते हुए आकर कहा, ‘‘चलो, चलो, गंगा पहलवान, तुम्हारी मिलाई आयी है! जल्दी करो, पन्द्रह मिनट ऐसे ही बीत गये।’’

मटरू ने सुना, तो उसका चेहरा खिल उठा। तभी गोपी ने वार्डर से पूछा, ‘‘मेरी मिलाई नहीं आयी है, वार्डर साहब?’’

‘‘नहीं, भाई नहीं। आता तो बताता नहीं?’’ वार्डर ने कहा, ‘‘गंगा पहलवान की आयी है। हम तो समझते थे कि इनके गंगा मैया के सिवा कोई है ही नहीं, मगर आज मालूम हुआ कि...’’

‘‘मेरे साथ गोपी भी चलेगा!’’ मटरू ने उदास होकर कहा, ‘‘यह भी तो मेरा रिश्तेदार है।’’

‘‘जेलर साहब के हुक्म के बिना यह कैसे हो सकता है? चलो, देर करके वक़्त ख़राब न करो!’’ वार्डर ने मजबूरी जाहिर की।

‘‘अरे वार्डर साहब, इतने दिनों बाद तो कोई मिलने आया है, कौन कोई महीने-महीने आने वाला है हमारा? मेहरबानी कर दो! हमारे लिए तो तुम्हीं जेलर हो!’’ मटरू ने विनती की।

‘‘मुश्किल है, पहलवान! वरना तुम्हारी बात खाली न जाने देता। चलो, जल्दी करो। मिलने वाले इन्तजार कर रहे हैं!’’ वार्डर ने जल्दी मचायी।

‘‘जाओ, भैया, मिल आओ। हमारी ओर का भी सर-समाचार पूछ लेना। क्यों मेरी खातिर...’’

‘‘तुम चुप रहो!’’ मटरू ने झिडक़कर कहा, वार्डर साहब चाहें तो सब कर सकते हैं, मैं तो यही जानूँ!’’ कहकर मटरू वार्डर की ओर बड़ी दयनीय आँखों से देखकर बोला, ‘‘वार्डर साहब, इतने दिन हो गये यहाँ रहते, कभी आप से कुछ न कहा। आज मेरी विनती सुन लो! गंगा मैया तुम्हें बेटा देंगी!’’

वार्डर निपूता था। कैदी उसे बेटा होने की दुआ करके उससे बहुत-कुछ करा लेते थे। यह उसकी बहुत बड़ी कमज़ोरी थी। वह हमेशा यही सोचता, जाने किसकी जीभ से भगवान् बोल पड़े। वह धर्म-संकट में पडक़र बोल पड़ा, ‘‘अच्छा, देखता हूँ। तुम तो चलो, या मेरी शामत बुलाओगे?’’

‘‘नहीं, वार्डर साहब, बात पक्की कहिए! वरना मैं भी न जाऊँगा। अब तक कोई न मिलने आया, तो क्या मैं मर गया? गंगा मैया...’’

‘‘अच्छा, भाई, अच्छा। तुम चलो। मैं अभी मौका देखकर इसे भी पहुँचा देता हूँ। तुम लोग तो एक दिन मेरी नौकरी लेकर ही दम लोगे!’’ कहकर वह आगे बढ़ा।

मटरू ससुर का पैर छू चुका, तो साला उसका पैर छूकर उससे लिपट गया। बैठकर अभी सर-समाचार शुरू ही किया था कि जाने किधर से गोपी भी धीरे से आकर उनके पास बैठ गया। मटरू ने कहा, ‘‘यह हरदिया का गोपी है। वही गोपी-मानिक! सुना है न नाम?’’

‘‘हाँ-हाँ!’’ दोनों बोल पड़े।

‘‘यह भी यहाँ मेरे ही साथ है। इनके घर का कोई सर-समाचार?’’ मटरू ने पहले दोस्त की ही बात पूछी।

‘‘सब ठीक ही होगा। कोई खास बात होती, तो सुनने में आती न?’’ बूढ़े ने कहा, ‘‘अच्छा है, अपने जवार के तुम दो आदमी साथ हो। परदेश में अपने जर-जवार के एक आदमी से बढक़र कुछ नहीं होता।’’

‘‘अच्छा, पूजन,’’ मटरू ने साले की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘तू दीयर का हाल-चाल बता। गंगा मैया की धारा वहीं बह रही है, या कुछ इधर-उधर हटी है?’’

‘‘इस साल तो पाहुन, धारा बहुत दूर हटकर बह रही है; जहाँ हमारी झोंपड़ी थी न, उससे आध कोस और आगे। इतनी बढिय़ा चिकनी मिट्टी अबकी निकली है, पाहुन, कि तुम देखते तो निहाल हो जाते! इस साल फसल बोयी जाती, तो कट्टा पीछे पाँच मन रब्बी होती। मैं तो हाथ मलकर रह गया। ज़मींदारों ने पश्चिम की ओर कुछ जोता-बोया है। उनकी फसल देखकर साँप लोट जाता है।’’

‘‘किसानों ने भी...’’

‘‘नहीं, पाहुन, ज़मींदारों ने चढ़ाने की तो बहुत कोशिश की, लेकिन तुम्हारे डर से कोई तैयार नहीं हुआ। ज़मींदारों की भी फसल को भला मैं बचने दूँगा। देखो तो क्या होता है! सब तिरवाही के किसान खार खाये हुए हैं। तुम्हारे जेल होने का सबको सदमा है। पुलिसवालों ने भी मामूली तंग नहीं किया है। जरा तुम छूट तो आओ, फिर देखेंगे कि कैसे किसी ज़मींदार के बाप की हिम्मत वहाँ पैर रखने की होती है। सब तैयारी हो रही है, पाहुन!’’

‘‘शाबाश!’’ मटरू ने पूजन की पीठ ठोंककर कहा, ‘‘तू तो बड़ा शातिर निकला रे! मैं तो समझता था कि तू बड़ा डरपोक है।’’

‘‘गंगा मैया का पानी पीकर और मिट्टी देह में लगाकर भी क्या कोई डरपोक रह सकता है, पाहुन? तुम आना तो देखना! एक दाना भी ज़मींदारों के घर गया तो, गंगा मैया की धार में डूबकर जान दे दूँगा! हाँ!’’

‘‘अच्छा-अच्छा और सब समाचार कह। बाबूजी को इस सरदी-पाले में काहे को लेता आया?’’ मटरू ने सन्तुष्ट होकर पूछा।

‘‘माई नहीं मानी! गरहन का स्नान इसी हीले हो जाएगा। विश्वनाथजी का दर्शन कर लेंगे। ज़िन्दगी में एक तीरथ तो हो जाए। अब तुम अपनी कहो। देह तो हरक गयी है।’’

‘‘कोई बात नहीं। गंगा मैया की कृपा से सब अच्छा ही कट रहा है। तुम सब ख़याल रखना। ज़मींदारों के पंजे में किसान न फँसें, ऐसी कोशिश करना। फिर तो आकर मैं देख लूँगा। और सब तुम्हारी ओर फसल का क्या हाल-चाल है? ऊख कितनी बोयी है?’’

‘‘एक पानी पड़ गया तो फसल अच्छी हो जाएगी। उगी तो बहुत अच्छी थी, लेकिन जब तक रामजी न सींचे, आदमी के सींचने से क्या होता है? ऊख बोयी है दो बीघा। अच्छी उपज है। किसी बात की चिन्ता नहीं। अभी दीयर का भी कुछ अनाज बखार में पड़ा है।’’

‘‘बाबू सब कैसे हैं?’’ मटरू ने लडक़ों के बारे में पूछा।

‘‘बड़े को स्कूल भेज रहा हूँ। उसे ज़रूर-ज़रूर पढ़ाना है, पाहुन! कम-से-कम एक आदमी का घर में पढ़ा-लिखा होना बहुत ज़रूरी है। पटवारी-ज़मींदार जो कर-कानून की बहुत बघारते हैं, उसका ज्ञान हासिल किये बिना उनका जवाब नहीं दिया जा सकता। अपढ़-गँवार समझकर वे हर कदम पर हमें बेवकूफ बनाकर मूसते हैं। हम अन्धों की तरह हकबक होकर उनका मुँह ताकते रहते हैं। दीयर के बारे में भी उन्होंने कोई कानून निकाला है। कहते हैं कि जिनका हक जंगल पर था, उन्हीं का ज़मीन पर भी है। पाहुन, अपनी जोर-ज़बरदस्ती से ही तो वे जंगल कटवाकर बेचते थे। उनका क्या कोई सचमुच का हक उस पर था! पूछने पर कहते हैं, तुम कानून की बात क्या जानो! बड़े आये हैं, कानून बघारने वाले देखेंगे, कैसे फसल काटकर घर ले जाते हैं! हल की मुठिया तो पकड़ी नहीं, मशक्कत कभी उठायी नहीं, फिर किस हक से उसको फसल मिलनी चाहिए? जिन हलवाहों ने मेहनत की, उन्हीं का तो उस पर हक है! और, पाहुन हमने तय कर लिया है कि यह फसल उन्हीं के घर जाएगी!’’

‘‘ठीक है, ठीक है! अरे हाँ, कुछ खाने-पीने की चीज़ नहीं लाया? सत्तू खाने को बहुत दिन से जी कर रहा था।’’ मटरू ने हँसकर कहा।

‘‘लाया हूँ, पाहुन थोड़ा सत्तू भी है, नया गुड़ और चिउड़ा भी है। बाहर फाटक पर धरा लिया है। कहता था, पहुँच जाएगा। तुम्हें मिल जाएगा न पाहुन?’’ पूजन ने अपना सन्देह दूर करना चाहा। फाटक पर वह जमा नहीं करना चाहता था। कहता था, खुद अपने हाथ से देगा। अधिकारी ने कानून-कायदे की बात की, तो कुछ न समझकर भी जमा कर दिया था।

‘‘हाँ, आधा-तिहा तो मिल ही जाएगा।’’

‘‘और बाकी?’’ पूजन ने आश्चर्य से पूछा।

‘‘बाकी कायदे-कानून की पेट में चला जाएगा!’’ कहकर वह जोर से हँस पड़ा। बूढ़े और पूजन उसका मुँह ताकते रहे। वह फिर बोला, ‘‘अबकी आना, तो गोपी के घर का समाचार लाना न भूलना।’’

‘‘आऊँगा तो ज़रूर लाऊँगा। मगर, पाहुन, आना अब मुश्किल मालूम पड़ता है। फुरसत मिलती कहाँ है? और फिर तुम लोग तो मजे से ही हो।’’ पूजन ने विवशता जाहिर की।

‘‘फिर भी कोशिश करना। सर-समाचार मिलता रहता है, तो और किसी बात की चिन्ता नहीं रहती...’’

मिलाई ख़तम होने की घण्टी बज उठी। हँसते हुए आने वाले चेहरे अब उदास होकर भारी दिल लिये लौटने लगे। कोई सिसक रहा था, कोई आँखें साफ कर रहा था, कोई नाक छिनक रहा था, किसी के मुँह से कोई बोल न फूट रहा था। पलट-पलटकर वे फाटक की ओर अपनी ही ओर मुड़-मुडक़र देखते हुए जाते अपने सम्बन्धियों को हसरत-भरी नज़रों से देख रहे थे।

आठ

दो बरस बीतते-बीतते गोपी के यहाँ मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया। गोपी अभी जेल में है, उसके छूटने के करीब दो साल की देर है, यह जानकर भी वे मेहमान न मानते। वे सत्याग्रहियों की तरह धरना डाल देते। अपाहिज बाप से वे विनती करते कि तिलक ले लें। गोपी के छूटकर आने पर शादी हो जाएगी।

वे दिन माँ की खुशी के होते। उसकी आँखों में चमक और चेहरे पर खुशी की आभा छा जाती। वह दौड़-धूपकर मेहमानों के खातिर-तवाजे का इन्तज़ाम करती। बहू को आदेश देती, यह कर, वह कर। लेकिन भाभी के ये दिन बड़ी अन्यमनस्कता के होते। एक झुँझलाहट के साथ वह काम करती। चेहरा एक गुस्से से तमतमाया रहता। आँखों से चिनगियाँ छूटा करतीं। सास से कभी सीधे मुँह बात न करती। बरतन-भाँड़े को इधर-उधर पटक देती। कभी-कभी दबी जबान से यह भी कहती, ‘‘अभी जल्दी क्या है? उसे छूट तो आने दो।’’ तब सास फटकार देती, ‘‘उसके आने-न-आने से क्या होता है? शादी तो करनी ही है। ठीक हो जाएगी, तो होती रहेगी। बूढ़े की ज़िन्दगी का क्या ठिकाना है! उनके रहते ठीक तो हो जाए।’’

भाभी सुनती तो उसके दिल-दिमाग में एक हैवान-सा उठ खड़ा होता। सारा शरीर जैसे एक विवश क्रोध से फुँक उठता। आते-जाते पैर ज़मीन पर पटकती, मानों सारी दुनिया को चूर-चूर कर देगी। होंठ बिचक जाते, नथुने फूल उठते और जाने पागलों-सी क्या-क्या भुनभुनाती रहती।

सास यह सब देखती, तो भुन्नास होकर कहती, ‘‘तेरे ये सब लच्छन अच्छे नहीं है! मुझे दिमाग दिखाती है! जो भगवान के घर से लेकर आयी थी, वही तो सामने पड़ा है। चाहे रोकर भोग, चाहे हँसकर, इससे निस्तार नहीं! भले से रहेगी, तो दो रोटी मिलती रहेगी। नहीं तो किसी घाट की न रहेगी, सब तेरे मुँह पर थूकेंगे!’’

‘‘थूकेंगे क्या?’’ भाभी जल-भुनकर कह उठती, ‘‘बाप-भाई मर गये हैं क्या? उनके कहने से न गयी, उसी का तो यह नतीजा भुगत रही हूँ! जहाँ जाँगर तोड़ूँगी वहीं दो रोटी मिलेगी! रोएँ वे, जिनके जाँगर टूट गये हों।’’

अपने और अपने मर्द पर फब्ती सुनकर सास जल-भुनकर कोयला होकर चीख पड़ती, ‘‘अच्छा! तो चार दिन से जो तू कुछ करने-धरने लगी है, उसी से तेरा दिमाग इतना चढ़ गया है? तू क्या समझती है मुझे? किसी के हाथ का पानी पीने वाले कोई और होंगे! मुझसे तू बढ़-चढ़ के बातें न कर! मेरे हाथ अभी टूट नहीं गये हैं! तू जो भाई-बाप पर इतरायी रहती है, तो वहाँ जाकर भी देख ले! करमजलियों को कहीं ठिकाना नहीं मिलता! अभी तुझे क्या मालूम है? आटे-दाल का भाव मालूम होगा, तब समझेगी कि कोई क्या कहती थी! मैं इस बूढ़े के रोग से मजबूर हूँ, नहीं तो देखती कि तू कैसे एक बात जबान से निकाल लेती है!’’

इस रगड़े का आख़िरी नतीजा यह होता कि या तो भाभी अपने करम को कोस-कोसकर रोने लगती या सास। बूढ़े सुनते, तो बड़बड़ाने लगते, ‘‘हे भगवान इस शरीर को उठा लो! रोज-रोज की यह कलह नहीं सही जाती।’’

मोहल्लेवालों को इस घर से अब कोई दिलचस्पी न रह गयी थी। रोज-रोज की बात हो गयी थी। कोई कहाँ तक खोज-ख़बर ले? हाँ, औरतों को ज़रूर कुछ दिलचस्पी थी। रोना सुनकर कोई आ जाती, तो भाभी को समझाती-बुझाती, ‘‘अब तुम्हें गम खाकर रहना चाहिए। कौन सास दो बातें बहू को नहीं कहती? सास-ससुर की सेवा ही करके तो तुम्हें ज़िन्दगी काटनी है। इनसे कलह बेसहकर तुम कहाँ जाओगी? भाई-बाप जन्म के ही साथी होते हैं, करम के साथी नहीं। करम फूटने पर अपने भी पराये हो जाते हैं।’’ सास सुनती तो बड़ी निरीह बनकर कहती, ‘‘कोई पूछे तो इससे कि मैंने क्या कहा है? तुम, सब तो जानती ही हो कि भला मैं कुछ बोलती हूँ। एक जवान बेटा उठ गया, दूसरा जेल में पड़ा है, वह हैं तो सालों से चारपाई तोड़ रहे हैं। मुझे क्या किसी बात का होश है? अरे, वह तो पापी प्राण हैं, कि निकलते नहीं। करम में साँसत सहनी लिखी है, तो सुख से कैसे मर जाऊँ?’’ सास कहने को तो सब-कुछ भाभी से कह जाती, लेकिन वह जानती थी कि कहीं वह सचमुच अपने बाप के यहाँ चली गयी, तो मुश्किल हो जाएगी। कौन सँभालेगा घर-द्वार? उसका तो हाथ-पाँव हिलना मुश्किल था। सो, बात को सँवारने की गरज से कहती, ‘‘कौन गल्ला काम है? तीन प्राणी की रसोई बनाना, खाना और खिलाना। यही तो! उस पर भी मुझसे जो बन पड़ता है, कर ही देती हूँ। अब कोई मुझसे पूछे कि इतना भी न होगा, तो क्या होगा? कोई राजा-महाराजा तो हम हैं नहीं कि बैठकर खाएँ और खिलाएँ। ऐसा करने से भला हमा-सुमा का गुज़र होगा?’’

‘‘नहीं, बहू, नहीं, तुझे समझना चाहिए कि सास जो कहती है, तेरे भले ही के लिए कहती है। जाँगर चुराने की आदत तुझे नहीं डालनी चाहिए। बर-बेवा का मान काम से ही होता है, चाम से नहीं।’’ वह औरत कहती, ‘‘भगवान न करे, कहीं ऐसा वक़्त आ पड़े, तो कहीं कूट-पीसकर उमर तो काट लेगी।’’

भाभी के कानों में ये बातें गरम सीसे की तरह सारा तन-मन जलाती चली जातीं। लेकिन वह कुछ न बोलती। गैर के सामने मुँह खोले, ऐसा दुस्साहस उसमें न था। वह चुपचाप बस बुलके चुआती रहती और उसाँसें भरा करती। वह भी कहने को बाप के घर चली जाने की धमकी जरूर दे देती थी, लेकिन सच तो यह था कि वह कहीं भी जाना न चाहती थी। उसके मन में जाने कैसे एक आशा बैठ गयी थी कि देवर के आने पर शायद कुछ हो।

यह सास-भाभी की अपनी-अपनी गरजमन्दी ही थी कि लड़-झगडक़र भी वे फिर मिल-जुल जातीं। झगड़े के दिन कभी सास रूठकर खाना न खाती, तो उसे भाभी मना लेती और भाभी न खाती तो उसे सास मना लेती।

ससुर को अपनी खिदमत चाहिए थी। उन्हें वह मिल जाया करती थी। भाभी अपनी सेवा से उन्हें खुश रखना चाहती थी। बूढ़े उससे खुश भी रहते थे, क्योंकि वैसी सेवा उनकी औरत से सम्भव न थी। वह भाभी का पक्ष भी गाहे-बे-गाहे ले लेते थे। वह गोपी के लिए आने वाले रिश्तों के बारे में भी उससे बातें करते थे और राय माँगते थे। ऐसे अवसर पर वह बड़े ढंग से कह देती, ‘‘रिश्ता तो बुरा नहीं, लेकिन आदमी बराबर का नहीं है। लोग कहेंगे कि पहली शादी अच्छी जगह की और दूसरी बार कहाँ जा गिरे।’’

बूढ़े एक गर्व का अनुभव करके कहते, ‘‘सो तो तू ठीक ही कहती है, बहू। सौ जगह इनकार करने के बाद मैंने वह शादियाँ की थीं। क्या बताऊँ, सब गोटी ही बिगड़ गयी! घर उजड़ गया। एक दग़ा दे गया, दूसरा जेल में पड़ा करम कूट रहा है। मेरी राम-लछमन, सीता-उर्मिला की जोड़ी ही टूट गयी। मैं बेहाथ-पाँव का हो गया।’’ कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आते, ‘‘अब मेरा वह ज़माना न रहा। खेती-गृहस्थी सब बिखर गयी। कौन वैसा मान-प्रतिष्ठा का आदमी मेरे यहाँ रिश्ता लेकर आएगा, कौन उतना तिलक-दहेज देगा?’’

‘‘मन छोटा न करें, बाबूजी, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। देवर आया नहीं कि सँभाल लेगा। सब-कुछ फिर पहले की तरह जम जाएगा। तब तो कितने आकर नाक रगड़ेंगे। आप जरा सब्र से काम लें, बाबूजी! अभी जल्दी भी काहे की है? वह पहले छूटकर तो आए।’’

‘‘हाँ बहू, यही सब सोचकर तो किसी को जबान नहीं देता, लेकिन तेरी सास है कि जान खाये जाती है। कहती है, दुहेजू हुआ, ज्यादा मीन-मेख निकालने से काम न चलेगा। उसे जाने काहे की जल्दी है, जैसे हम इतने गये-गुजरे हो गये हैं कि कोई रिश्ता जोडऩे ही हमारे यहाँ न आएगा। कुछ नहीं तो खानदान का मान तो अभी है। नहीं, मैं किसी ऐसी जगह न पड़ूँगा। उसके कहने से क्या होता है?’’ ससुर अकडक़र बोलते।

उन्हीं दिनों एक दिन शाम को एक अजनबी आदमी ने आकर गाँव की पश्चिमी सीमा के पोखरे के कच्चे चबूतरे पर बैठे हुए लोगों में से एक से पूछा, ‘‘गोपी सिंह का मकान किस ओर पड़ेगा।’’

गरमी की शाम थी। अँधेरा झुक आया था। आस-पास, घने बागों के होने के कारण वहाँ कुछ गहरा अन्धक़ार हो गया था। खलिहान से छूटकर किसान यहाँ आकर, नहा धोकर चबूतरे पर बैठ गये थे और दिन-भर का हाल-चाल सुन-सुना रहे थे। कइयों के तन पर भीगे कपड़े थे और कइयों ने अपने भीगे कपड़े पास ही सूखने को पसार दिये थे। कई तो अभी पोखरे में गोता ही लगा रहे थे। उनके खाँसने-खँखारने और ‘‘राम-राम’’ कहने और सीढिय़ों से पानी के हलकोरों के टकराने की आवाज़ें आ रही थीं। बागों से चिडिय़ों का कलरव उठ रहा था। हवा बन्द थी। लेकिन पोखरे की दाँती पर फिर भी कुछ तरी थी।

सवाल सुनकर सबकी निगाहें उठ गयीं। पोखरे में पड़े हुओं ने गरदनें बढ़ा-बढ़ाकर देखने की कोशिश की। एक ने तो पूछा कौन है, किसका मकान पूछ रहा है?

अजनबी महज़ एक लुंगी पहने है। शरीर मोटा-तगड़ा है। छाती पर काले घने बालों का साया छा रहा है। गले में काली तिलड़ी है। चेहरा बड़ी-बड़ी मूँछ-दाढ़ी से ढँका है। आँखों में ज़रूर कुछ रोब और गरूर है। सिर के बाल जटा की तरह गरदन तक लटके हुए हैं।

जिससे सवाल पूछा गया था, उसने गोपी के मकान का पता बताकर पूछा, ‘‘कहाँ से आना हुआ है?’’

‘‘काशीजी से आ रहा हूँ। वहाँ जेल में था।’’ अजनबी कहकर आगे बढऩे ही वाला था कि एक आदमी जैसे जल्दी में पूछ बैठा, ‘‘अरे भाई, सुना था कि गोपी भी काशीजी के ही जेल में है। वहाँ उससे तुम्हारी भेंट हुई थी क्या?’’

अजनबी ठिठक गया। बोला, ‘‘हम साथ-ही-साथ थे। उसी का समाचार बताने आया हूँ।’’

सुनकर सभी-के-सभी उठकर उसके चारों ओर खड़े हो गये। पोखरे के अन्दर से सभी भीगी देह लिये ही लपक आये। कइयों ने एक साथ ही उत्सुक होकर पूछा, ‘‘कहो, भैया, उसका समाचार? अच्छी तरह से तो है वह?’’

‘‘हाँ, मज़े में है। किसी बात की चिन्ता नहीं।’’ कहता हुआ अजनबी आगे बढ़ा, तो सभी उसके साथ हो लिये। जिनके कपड़े फैले हुए थे, उन्होंने उठा लिये। एक दौडक़र आगे समाचार देने चला गया।

‘‘उसकी छाती में चोट लगी थी, भैया, ठीक हो गयी न?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘और भी गाँव के कई आदमी उसके साथ जेल गये थे। कुछ उनका समाचार?

‘‘वे सब वहाँ नहीं हैं। शायद सेण्ट्रल जेल में होंगे।’’

‘‘तो तुम दोनों साथ ही रहते थे?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘तुम्हें क्यों जेल हुई थी, भैया? कहाँ के रहने वाले हो तुम?’’

‘‘जमींदारों से दीयर की ज़मीन को लेकर झगड़ा हुआ था। तुम लोगों को मालूम नहीं क्या? ढाई-तीन साल पहले की बात है। मटरू पहलवान को तुम नहीं जानते?’’

‘‘अरे, मटरू पहलवान?’’ सभी चकित हो बोल पड़े, ‘‘जय गंगाजी!’’

‘‘जय गंगाजी!’’

‘‘सब मालूम है भैया, सब! उसकी धमक तो कोसों पहुँची थी। तो तुम्हें सज़ा हो गयी थी। कितने साल की?’’

‘‘तीन साल की।’’

‘‘गोपी की सज़ा तो पाँच साल की थी न? कब तक छूटेगा? बेचारे की घर-गिरस्ती बरबाद हो गयी, जोरू भी मर गयी।’’

‘‘क्या?’’ चकित होकर मटरू बोल पड़ा।

‘‘तुम्हें नहीं मालूम? उसकी जोरू तो साल भीतर ही मर गयी थी। गोपी को किसी ने ख़बर नहीं दी क्या?’’

‘‘ख़बर होती तो क्या मुझसे न कहता? यह तो बड़ी बुरी ख़बर सुनायी तुमने।’’

‘‘कोई अपने अख्तियार की बात है, भैया? भाई मरा, जोरू मर गयी। बाप को गँठिया ने ऐसा पकड़ लिया है कि मालूम होता है कि दम के साथ ही छोड़ेगा। जवान बेवा अलग कलप रही है। क्या बताया जाए, भैया? गोटी बिगड़ती है, तो अकल काम नहीं करती। एक ज़माना उनका वह था, एक आज यह है! याद आता है, तो कलेजा कचोटने लगता है...इधर से आओ।’’

दूर से ही रोने-धोने की आवाज़ आने लगी। माँ-भाभी ख़बर पाते ही रोने लगी थीं। पुरानी बातों को बिसूर-बिसूरकर वे रो रही थीं। सुनकर मुहल्ले की जो औरतें इकट्ठी हुई थीं, उन्हें समझाकर चुप करा रही थीं। बाप किसी तरह उठकर दीवार का सहारा लेकर बैठ गये थे। उनका मन भी चुपके-चुपके रो रहा था।

किसी ने एक खटोला लाकर बूढ़े की चारपाई के पास डाल दिया, किसी ने दीया लाकर ताक पर रख दिया।

मटरू ने बूढ़े के पैर पकडक़र पा लागा। बूढ़े ने गद्गद होकर असीस दिये। फिर पूछा, ‘‘मेरा गोपी कैसा है?’’ और फफक-फफककर रो उठे।

कितने ही लोग वहाँ अपने प्यारे गोपी का समाचार सुनने के लिए आ इकट्ठा हो गये। मटरू जैसे गो-हत्या करके बैठा हो, ऐसा चुप भरा-भरा था। लोग भी आपस में कुछ-न-कुछ कहकर ठण्डी साँसें लेने लगे। कुछ बूढ़े को भी समझाने लगे, ‘‘तुम न रोओ, काका! तुम्हारी तबीयत तो ऐसे ही ख़राब है, और ख़राब हो जाएगी। बहुत दिन बीते, थोड़े दिन और बाकी हैं, कट ही जाएँगे। जिन भगवान् ने बुरे दिखाये हैं, वही अच्छे भी दिखाएगा।’’

‘‘पानी-वानी तो पिओगे न, भैया?’’ एक ने पूछा।

‘‘अरे पूछता क्या है? जल्दी गगरा लोटा ला। थका-माँदा है।’’ एक बूढ़े ने कहा, ‘‘हाथ-मुँह धोकर ठण्डा लो, बेटा। आज रात ठहर जाओ। बेचारों को जरा तसल्ली जो जाएगी।’’

मटरू के मुँह से बेाल न फूट रहा था। वह तो कुछ और सोचकर चला था। उसे क्या मालूम था कि वह कितने ही व्यथा के सोये हुए तारों को छेडऩे जा रहा है।

धीरे-धीरे काफी देर में व्यथा का उफनता हुआ दरिया शान्त हुआ। एक-एक कर लोग हट गये, तो बूढ़े ने कहा, ‘‘बेटा, अब मुँह-हाथ धो ले। तेरा आदर-सत्कार करने वाला यहाँ कोई नहीं है। कुछ ख्य़ाल न करना। तेरी बड़ाई हम सुन चुके हैं। तू समाचार देने आ गया तो हम दुखियों को कुछ सन्तोष हो गया। भगवान् तुझे सुखी रखें!’’

हाथ-मुँह धोकर मटरू बैठा, तो अन्दर से माँ ने लाकर गुड़ और दही का शरबत-भरा गिलास उसके सामने रख दिया। मटरू ने उसके भी पैर छुए। बूढ़ी आँचल से बहते हुए आँसुओं को पोंछती वहीं खड़ी हो गयी।

शरबत पीकर मटरू जैसे अपने ही से बोलने लगा, ‘‘कोई चिन्ता की बात नहीं है, माई। गोपी बहुत अच्छी तरह है। हम तो एक ही साथ खाते-पीते, सोते-जागते थे। एक ही बात का उसे दुख रहता है कि घर का कोई समाचार नहीं मिलता।’’

‘‘क्या करें बेटा? जो आने-जानेवाला था, उसे तो तुम देख ही रहे हो। पहले उसके सास-ससुर चले जाते थे। इधर वे भी मोटा गये हैं। क्या मतलब है उन्हें अब हमसे।’’ सिसकती हुई ही बूढ़ी बोली।

‘‘अरे, तो चिट्ठी-पतरी तो भेजनी थी?’’

‘‘हमें क्या मालूम, बेटा? तो चिट्ठी-पतरी वहाँ जाती है?’’

‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं? महीने में एक चिट्ठी तो मिलती ही है।’’

‘‘तो कल ही लिखाकर पठवाऊँगी।’’

‘‘अब रहने दो। मैं भेजवा दूँगा। तुम लोगों को कोई चिन्ता करने की जरूरत नहीं। हाँ, सुना कि उसकी जोरू भी नहीं रही। उसे तो कोई ख़बर भी नहीं।’’

‘‘मैंने ही मना कर दिया था, बेटा! दुख की ख़बर कैसे कहलवाती? वहाँ तो कोई समझाने-बुझानेवाला भी उसे न मिलता।’’

‘‘अरे, जोरू का क्या?’’ बूढ़े बोले, ‘‘वह छूटकर तो आये। यहाँ तो कितने ही रोज़ नाक रगडऩे आते हैं। फिर ऐसी बहू ला दूँगा कि...’’

‘‘नहीं, काका, अबकी तो उसकी शादी मैं करवाऊँगा। तुम बीमार आदमी आराम करो। मैं सब-कुछ कर लूँगा। उसे आने तो दो। तुम्हें क्या मालूम कि उसे मैं अपने छोटे भाई से भी ज्यादा मानता हूँ। और, काका, वह भी मुझे कम नहीं मानता। हाँ, उसकी भाभी तो अच्छी है? उसे वह बहुत याद करता है।’’

दरवाज़े की ओट में खड़ी भाभी सब सुन रही है, यह किसी को मालूम न था।

बूढ़ी बोली, ‘‘उसका अब क्या अच्छा और क्या बुरा, बेटा? करम जब दग़ा दे गया तो क्या रह गया उसकी ज़िन्दगी में? जब तक जीएगी, पड़ी रहेगी। उसके भाई-बाप ने भी इधर कोई ख़बर न ली।’’

‘‘गोपी को उसकी बहुत चिन्ता रहती है। बेचारा रात-दिन भाभी-भाभी की रट लगाये रहता है। इन दोनों में बहुत मोहब्बत थी क्या?’’ मटरू ने पूछा।

‘‘अरे बेटा, बहू ऐसी प्राणी है ही। बिल्कुल गऊ!’’ बूढ़ा बोल पड़ा, ‘‘उसी की सेवा पर तो मेरा दम अड़ा है। उसकी सूनी माँग देखकर मेरा कलेजा फटता है। इसी उम्र में ऐसी विपत्ति आ पड़ी बेचारी पर। फिर भी बेटा, मेरे रहते उसे कोई दुख न होने पाएगा। वह मेरी बड़ी बहू है, एक दिन घर की मालकिन बनेगी। वह देवी है, देवी!’’

बूढ़ी मन-ही-मन सब सुनकर कुढ़ती रही। जब सहा न गया, तो बोली ‘‘खयका तैयार है। अभी खाओगे या...’’

नौ

तिरवाही के किसानों में प्राकृतिक रूप से स्वच्छन्दता और साहसिकता होती है। खुले हुए कोसों फैले मैदान, झाऊँ और सरकण्डे के जंगल और नदी से उनका लडक़पन में ही सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। निडर होकर जंगलों में गाय-भैंस चराने, घास-लकड़ी काटने, नदी में नहाने, नाव चलाने, अखाड़े में लडऩे, भैंस का दूध पीने से ही उनकी ज़िन्दगी शुरू होती है और इन्हीं के बीच बीत भी जाती है। प्रकृति की गोद में खेलने, साफ हवा में साँस लेने, निर्मल जल पीने, दूध-दही की इफरात और कसरत के शौक के कारण सभी हट्टे-कट्टे, मज़बूत और स्वभाव के अक्खड़ होते हैं। असीम जंगलों और मैदानों का फैलाव इनके दिल-दिमाग में भी जैसे स्वच्छन्दता और स्वतन्त्रता का अबाध भाव बचपन में ही भर देता है। फिर जमींदार की बस्ती वहाँ से कहीं दूर होती है। वहाँ से वे इन पर वह ज़ोर-ज़बरदस्ती, जुल्म-ज्य़ादती की चाँड़ नहीं चढ़ा पाते, जो आस-पास के किसानों को गुलाम बना देती है। बल्कि इसके विरुद्घ ज़मींदार वहाँ के असामियों से मन-ही-मन डरते हैं। उनकी ताकत, उनके वातावरण उनके अक्खड़पन और मर-मिटने की साहसिकता के आगे, ज़मींदार जानते हैं कि उनका कोई बस नहीं चल सकता। इसी से भरसक वे उनके साथ समझौते से रहते हैं, कहीं कोई ज्य़ादती भी कर जाते हैं, लगान नहीं देते, या आधा-पौना देते हैं, तो भी नज़रन्दाज कर जाते हैं, उनसे भिडऩे की हिम्मत नहीं करते। पुलिस भी सीधे उनके मुकाबिले में खड़े होने से कतराती है। बहुत हुआ, वह भी जब किसी ज़मींदार ने ज़रूरत से ज्य़ादा उनकी मुट्ठी गरम कर दी तो पुलिस ने लुक-छिपकर धोखे-धड़ी से एकाध को पकडक़र अपने अस्तित्व का बोध करा दिया। इससे अधिक नहीं।

वे जितने स्वच्छन्द, स्वतन्त्र और ताकतवर होते हैं, उतने ही वज्र मूर्ख भी। बात-बात में लाठी उठा लेना, खून-खच्चर कर देना, एक-दूसरे से लड़ जाना, फसल काट लेना, खलिहान में आग लगा देना या किसी को लूट लेना आये दिन की बातें होती हैं। दिमाग लगाकर, सोच-विचारकर वे कोई मामला तय करना जानते ही नहीं! वे समझते हैं कि हर मजऱ् की दवा लाठी है, बल है। जिधर आगे-आगे कोई भागा, सब उसके पीछे लग जाते हैं। जिनके मुँह से पहली बात निकल गयी, सब उसी को ले उड़ते हैं। कोई तर्क, कोई बहस, कोई बातचीत, कोई सर-समझौता वे नहीं जानते। बात पर अडऩा और जान देकर उसे निबाहना वे जानते हैं। उनके यहाँ अगर किसी बात की कद्र है तो वह है बल की, साहस की, मर मिटने के भाव की। उनका नेता वही हो सकता है, जो सबसे ज्य़ादा बली हो, दंगल मारा हो, मोर्चे पर आगे-आगे लाठियाँ चलायी हों, भरी नदी को पार कर गया हो, घडिय़ालों को पछाड़ दिया हो, किसी बड़े ज़मींदार से भिड़ गया हो, उसे थप्पड़ मार दिया हो, या सरेआम गाली देकर उसकी इज्ज़त उतार ली हो।

इनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी खेत और बैल-भैंस हैं। ख्ात पर ये जान देते हैं। किसी भी मूल्य पर खेत लेने के लिए तैयार रहते हैं। इनकी इस कमज़ोरी से ज़मींदार अक्सर फायदा उठाते हैं, उन्हें बेवकूफ बनाते हैं। एक बैल या भैंस खरीदनी हुई तो झुण्ड बनाकर, सत्तू-पिसान बाँधकर निकलेंगे। मोल-भाव होगा उसी अक्खड़पन के साथ। जो दाम वे मुनासिब समझेंगे, उसके अलावा कोई और दाम मुनासिब हो ही कैसे सकता है? वे अड़ जाएँगे, धरना दे देंगे, धमकाएँगे, लाठियाँ चमकाएँगे। बेचनेवाला मान गया, तो ठीक। वरना रात-बिरात वे उसे खूँटे से खोलकर तिड़ी कर देंगे और दीयर के जंगल में उसे कहीं छिपाकर अपनी बहादुरी का बखान सुनेंगे और करेंगे। वहाँ यह काम किसी भी दृष्टि से ख़राब नहीं समझा जाता।

मटरू ने जब उन्हें दीयर के खेतों के बारे में समझाया था, तो चूँकि यह एक पहलवान, बहादुर, निडर और ‘‘गंगा मैया’’ के भक्त की बात थी, वे मौन हो गये थे। फिर मटरू के जेल चले जाने के बाद ज़मींदारों की दूसरी बातें उनकी समझ में कैसी आती? यहाँ तक कि ज़मींदारों ने उन्हें लालच दिया कि वे जहाँ चाहें, खेती करें और कुछ न दें। फिर भी वे नकर गये। सबकी अब एक ही रट थी कि मटरू पहलवान जब लौटकर आएगा, वह जैसा कहेगा वैसा ही होगा। उसके आने के पहले कुछ नहीं।

पूजन ने भी चाहा था कि मटरू का काम जारी रखे। लेकिन मटरू की तरह उसमें हिम्मत और ताकत न थी कि वह अकेले झोंपड़ी खड़ी कर नदी के तीर पर जंगलों के बीच, ज़मींदारों से दुश्मनी बेसहकर रहे और खेती करे। इसलिए उसने कोशिश की दस-बीस किसान और उसके साथ तीर पर रहने, खेती करने के लिए तैयार हो जाएँ। लेकिन मटरू के नाम पर ही तैयार न हुए थे। जैसे एक सियार बोलता है, तो सब सियार उसकी ही धुन में बोलने लगते हैं, उसी तरह मटरू के आने के पहले इस दिशा में वे कोई कदम उठाने के लिए तैयार न थे।

मजबूर होकर, अपना दबदबा कायम रखने के लिए तब ज़मींदारों ने खुद वहीं अपनी खेती का सिलसिला कायम किया था। यह काम कुछ-कुछ बाघ के मुँह में हाथ डालने के ही बराबर था। साधारणत: वे ऐसा कभी न करते। लेकिन अब परिस्थिति ही ऐसी आ पड़ी थी। वे कुछ न करते तो यह अन्देशा था कि दीयर में उनके दब जाने की बात उठ जाती और किरकिरी हो जाती। फिर सारा खेल चौपट हो जाता। सब किये-धरे पर पानी फिर जाता। सो, उन्होंने वहाँ अपनी झोंपड़ी खड़ी करवायी। अपने आदमी और हल भिजवाकर जोतवाया-बोवाया और तनखाह पर कुछ मजबूत आदमियों को रखवाली के लिए वहाँ रखा। फिर भी वे जानते थे कि जब तक तिरवाही के किसानों से उनका व्यवहार ठीक न रहेगा, तब तक कुछ बचना मुश्किल है। उन्होंने पहले भी कोशिश की थी कि कम-से-कम रखवाली का जिम्मा वहाँ का ही कोई आदमी ले ले, लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ था। इस तरह ज़मींदारों को काफी खर्च करना पड़ा। यहाँ तक कि अगर फसल कटकर सही-सलामत घर आ जाए, तो भी उसका दाम खर्च से कम ही हो। फिर भी उन्होंने वैसा ही किया। दबदबा कायम रखना ज़रूरी था। दबदबा न रहा तो ज़मींदारी कैसे रह सकती है?

फसल उगी, बढ़ी और देखते-देखते ही छाती-भर खड़ी हो लहरा उठी। तिरवाही के किसानों ने देखा, तो उनकी छातियों पर साँप लोट गये। उन्हें ऐसा लगा, जैसे किसी ने उनके अपने खेत पर ही कब्जा करके यह फसल बोयी हो, जैसे उनके घर से ही कोई अनाज की बोरियाँ उठाये ले जा रहा हो; और वे विवश होकर बस देखते ही जा रहे हों।

ऐसे मौके का फायदा पूजन ने उठाया। मटरू के साथ सम्बन्ध होने के कारण उसका मान आख़िर कुछ किसानों में हो ही गया था। उसने चुपके-चुपके किसानों में बात छेड़ दी, ‘‘बाहर के आदमी हमारी आँखों के ही सामने हमारी गंगा मैया की धरती से फसल काट ले जाएँ! डूब मरने की जगह है! और याद रखो, अगर एक बार भी फसल कटकर ज़मींदारों के घर पहुँच गयी, तो उनका दिमाग चढ़ जाएगा! मटरू पाहुन के आने में अभी सालों की देर है। तब तक यह सारी धरती उनके कब्जे में ही चली जाएगी। आदमी के खून का चस्का लग जाने पर घडिय़ाल की जो हालत होती है, वही ज़मींदारों की होगी। तुम लोग तब मटरू-मटरू की रट लगाते रहोगे और कुछ न होगा। वैसे मौके पर मटरू ही आकर क्या कर लेंगे? जरा तुम लोग भी तो सोचो। तुम इतना तो कर सकते हो कि फसल ज़मींदारों के घर में न जाने पाए।’’

यह किसानों के मन की बात थी। पूजन की बात उनके मन में उतर गयी। कई जवानों ने पूजन का साथ देने का वाद किया। सब तैयारियाँ हो गयीं। और जब फसल तैयार हुई, तो एक रात कटकर, नावों पर लदकर पार पहुँच गयी। रखवाले दुम दबाकर भाग खड़े हुए। जान देने की बेवकूफी वे ज़मींदारों के लिए क्यों करते?

दूसरे दिन एक शोर उठा। एकाध लाल-पगड़ी भी मुखिया के यहाँ दिखाई दी और फिर सब-कुछ शान्त हो गया। कहीं से कोई सुराग कैसे मिलता? सब किसानों की छाती ठण्डी हुई थी। कह दिया कि काटने वाले, हो-न-हो पार से आये होंगे। नदी किनारे कई जगह डाँठ पड़े हुए मिले हैं। रात-ही-रात लाद-लूदकर चम्पत हो गये। उनको तो ख़बर तक न लगी। लगी होती, तो एकाध लाठी तो बज ही जाती।

जवानों का मन बढ़ गया। झाऊँ और सरकण्डों के जंगलों पर भी उन्होंने रात-बिरात हाथ साफ करना शुरू कर दिया और कहीं-कहीं तो महज दिल की जलन शान्त करने के लिए आग भी लगा दी।

ज़मींदार सुनते और ऐंठकर रह जाते। बेबसी से तो उनका कभी पाला ही न पड़ा था। एक बार पुलिस की मुट्ठी गरम करने का जो आख़िरी नतीजा हुआ था, उन्होंने देख लिया था। अब फिर उसे दुहराकर कोई फायदा कैसे देखते?

अब पूजन का मान वहाँ बढ़ गया। लेकिन पूजन भी इससे ज्यादा कुछ न कर सका। ज़मींदार भी चुप्पी साध गये। उन्होंने सोचा कि छेडऩे से कोई फायदा नहीं होने का। अगर वे शान्त रहे तो सम्भव है कि किसान भी शान्त हो जाएँ और फिर पहले ही जैसे हालत सुधर जाए। उनकी ओर से कोई पहल-कदमी न देखकर किसान भी उदासीन हो मटरू का इन्तज़ार करने लगे। वही आए तो आगे कुछ किया जाए। यों उस साल के बाद वहाँ कोई उल्लेखनीय घटना न घटी।

गोपी के घर मटरू का वह समय बड़ी बेकली से कटा। स्टेशन पर मटरू की गाड़ी तीसरे पहर पहुँची थी। वहाँ से उसका दीयर दस कोस पर था। एक छन भी रास्ते में वह न कहीं रुका, न सुस्ताया। भूत की तरह चलता रहा। गंगा मैया की लहरें उसे उसी तरह अपनी ओर खींच रही थीं जैसे कई सालों से बिछुड़े परदेशी को उसकी प्रियतमा। वह भागम-भाग जल्दी-से-जल्दी गंगा मैया की गोद में पहुँच जाना चाहता था। ओह, कितने दिन हो गये! वह हवा, वह पानी, वह मिट्टी, वह गंगा मैया काश, उसके पंख होते!

रास्ते में ही गोपी का घर पड़ता था। सोचा था कि पाँच छन में सर-समाचार ले देकर, वह फिर भाग खड़ा होगा और घड़ी-दो-घड़ी रात बीतते गंगा मैया का कछार पकड़ लेगा। लेकिन गोपी के घर ऐसी स्थिति से उसका पाला पड़ गया कि उसे रुक जाना पड़ा। उन दुखी प्राणियों को छोडक़र भाग खड़ा होना कोई आसान काम न था। मन छन-छन कचोट रहा था, लेकिन न रुक सकने की बात उसके मुँह से न निकली। उनके आदर-सत्कार को इनकार कर, उनके दुखी दिलों को चोट पहुँचाए ऐसा दिल मटरू के पास कहाँ था?

खा-पीकर गोपी की माँ और बाप के साथ बड़ी रात गये तक बातचीत चलती रही। आख़िर जब वे थक गये, माँ सोने चली गयी और बूढ़े खर्राटे लेने लगे, तो मटरू ने सोने की कोशिश की। मगर नींद कहाँ? दिल-दिमाग उसी दीयर में भटकने लगे। वह नदी, वह जंगल, वह हवा-मिट्टी जैसे सब वहाँ बाँह फैलाये खड़े मटरू को गोद में भर लेने को तड़प रहे हैं और मटरू है कि इतने नजदीक आकर भी सबको भुलाकर यहाँ पड़ा हुआ है। ‘‘आओ, आओ! दौडक़र चले आओ बेटा! कितने दिनों से हम तुमसे बिछुडक़र तड़प रहे हैं! आओ, जल्द आकर हमारे कलेजे से चिपक जाओ! आओ! आओ!’’ और इस ‘‘ओ’’ की पुकार इतनी ऊँची और लम्बी होकर मटरू के कानों से गूँज उठी कि उसका रोम-रोम तड़प उठा। वह व्याकुल होकर उठ बैठा। आँखें फाडक़र चारों ओर से ऐसा देखा कि कहीं यह पुकार पास से ही तो नहीं आयी है, कहीं यह जानकर कि मटरू पास आकर यों पड़ा हुआ है, गंगा मैया खुद ही तो नहीं चली आयीं?

मटरू उठ खड़ा हुआ और ऐसे भाग चला, जैसे उसे डर हो कि फिर कहीं कोई उसे पकडक़र न बैठा ले। चारों ओर घना सन्नाटा और अन्धकार छाया था। कहीं कुछ सूझ न रहा था। फिर भी मटरू के पैरों को यह अच्छी तरह मालूम था कि उसकी गंगा मैया तक पहुँचने की दिशा कौन-सी है। फिर उन फौलादी पैरों के लिए रास्ता बना लेना क्या मुश्किल बात थी?

कटे हुए खेतों से सीधा मटरू बेतहाशा भागा जा रहा था? एक क्षण की देर भी अब उसे सह्य न थी। पैरों में खुरकुची गड़ रही है, कहीं कुछ दिखाई नहीं देता, होश-हवाश ठिकाने नहीं है। फिर भी वह भागा जा रहा है। आँखों के सामने बस गंगा मैया की धारा चमक रही है, मन बस एक ही बात की रट लगाये हुए है-आ गया, माँ, आ गया!

नींद से भरी धरती गरम-गरम साँस ले रही है। अन्धकार की सेज पर हवा सो गयी है। गर्मी से परेशान रात जैसे रह-रहकर जम्हुआई ले रही है। उमस-भरा-सन्नाटा ऊँघ रहा है- और आत्मा में मिलन की तड़प लिये मटरू भागा जा रहा है। पसीने के धार शरीर से बह रहे हैं। भीगी आँखों के सामने अन्धकार में गंगा मैया की लहरें बाँह फैलाये उसे अपने गोद में समा लेने को बढ़ी आ रही हैं। ऊपर से तारे पलकें झपकाते यह देख रहे हैं। लेकिन मटरू गंगा मैया के सिवा कुछ नहीं देख रहा है। उसके कानों में माँ की पुकार गूँज रही है। उसके प्राण जल्द-से-जल्द माँ की गोद तक पहुँच जाने को तड़प रहे हैं। वह भागा जा रहा है, भागा जा रहा है...

यह दीयर की हवा की खुशबू है। यह दीयर की मिट्टी की खुशबू है। यह गंगा मैया के आँचल की खुशबू है। मटरू के प्राण उन्मत्त हो उठे। रोम-रोम उत्फुल्ल हो कण्टकित हो गये। उसके पैरों में बिजली भर गयी। वह आँधी की तरह पुकारता दौड़ा, ‘‘माँ! माँ!’’ लहरों की प्रतिध्वनि हुई, ‘‘बेटा! बेटा!’’

दिशाओं ने प्रतिध्वनि की, ‘‘बेटा! बेटा!’’

धरती पुकार उठी, ‘‘बेटा! बेटा!’’

आकाश और धरती जैसे करोड़ों विह्वल माँओं और बेटों की पुकारों से गूँज उठे, जैसे दसों दिशाएँ पुकारती हुई दौडक़र मटरू के गले से लिपट गयीं। मटरू एक भूखे बच्चे की तरह छछाकर, गंगा मैया की गोद में कूद पड़ा। गंगा मैया ने बेटे को अपनी गोद में ऐसे कस लिया, जैसे अपने तन-मन-प्राण में ही उसे समोकर दम लेगी। यह कल-कल के स्वर नहीं, माँ की पुचकारों और चुम्बनों के शब्द हैं। दिशाएँ झूम रही हैं। हवा गुनगुना रही है। मिट्टी खिलखिला रही है-‘‘आ गया! हमारा बेटा आ गया! हमारा लाडला आ गया!’’

दस

यह कितनी असम्भव बात थी, भाभी जानती थी। फिर भी इस बात को अपने मन में पोसे जा रही थी। आख़िर क्यों?

आदमी के लिए जीने का सहारा उसी तरह आवश्यक है जैसे हवा और पानी। किसी के पास कोई वास्तविक सहारा नहीं होता, तो वह अवास्तविक सहारा ही का सहारा लेता है। वह एक कल्पना, एक स्वप्न का सहारा सामने खड़ा कर लेता है। सभी कल्पनाएँ और स्वप्न किसी ठोस आधार पर ही अवलम्बित हों, ऐसी बात नहीं। बहुत-सी कल्पनाओं और स्वप्नों के आधार भी काल्पनिक और स्वप्निल होते हैं। लेकिन आदमी उन्हीं से जीवन की यथार्थ शक्ति प्राप्त करके जीता रहता है। कौन जाने इस विचित्र संसार में कहीं निराधार कल्पना और स्वप्न भी एक दिन सही हो जाएँ!

यही सही है कि इस तरह के सहारे का सृजन आदमी उसी स्थिति में करता है, जब उसके लिए कोई दूसरा चारा ही नहीं रह जाता। जीने की स्वाभाविक अदम्य चाह आदमी को विवश करती है कि वह ऐसा करे। क्या भाभी की परिस्थिति ऐसी ही नहीं थी? फिर वह ऐसा कर रही थी, तो इसमें अस्वाभाविक क्या है?

जिस दिन उसने मटरू के मुँह से गोपी की वे चन्द बातें सुनी थीं, उसी दिन से जैसे बहुत पहले से उसके हृदय में उगे उस अंकुर को उन बातों ने अमृत से सींचना शुरू कर दिया था। वे बातें उसके जीवन के सूने तारों को हर क्षण झंकृत करती रहती! उसके होंठ सदा एक मन्त्र की तरह बुदबुदाया करते, ‘‘गोपी को उसकी बहुत चिन्ता रहती है। बेचारा रात-दिन भाभी-भाभी की रट लगाये रहता है...इन दोनों में बहुत मोहब्बत थी क्या?’’ और उसके प्राण जैसे एक मधुरतम संगीत के अमृत में नहा उठते। आत्मा जैसे विह्वल हो बोल उठती, ‘‘हाँ, मोहब्बत थी, बहोत...परदेशी, तू उसे चिट्ठी लिखना, तो मेरी तरफ से यह लिख देना कि मुझे भी उसकी चिन्ता लगी रहती है- मेरे प्राण भी रात-दिन उसकी रट लगाये रहते हैं...हाँ, परदेसी, हममें बहुत मोहब्बत थी, बहोत!’’

भाभी को इस मन्त्र के जाप ने बहुत बदल दिया था। वह चिड़चिड़ापन, वह कड़वापन, वह झुँझलाहट, वह क्षुब्धता, वह बेरुखी अब ख़तम हो गयी थी। अब वह अपने को कुछ उत्साहित अनुभव करती, काम में कुछ रस लेती, पूजा-पाठ का कुछ अर्थ समझती, सास-ससुर की सेवा-सुश्रुषा में उसे कुछ फल दिखाई देता। व्यर्थ ज़िन्दगी में एक सार्थकता का आभास होता- कोई है, जो उसकी बहुत-बहुत चिन्ता करता है, उसकी रात-दिन रट लगाये रहता है। कोई है, कोई है...

घर की कलह मिट गयी। सब कुछ सुचारु रूप से चलने लगा। सास को कोई शिकायत नहीं रह गयी। पका-पकाया दोनों जून, मीठी-मीठी, आदर-भाव की बातें, हर आज्ञा पर एक पाँव पर खड़ी बहू, कभी हिलने-डुलने का मौका न देने वाली, बड़ी रात गये तक उबटन की मालिश! करम-फूटी बहू घर की लक्ष्मी न बन जाये तो क्या बने? ससुर तो पहले ही उसके सेवा के गुलाम थे। वे जानते थे कि जिस दिन बहू ने हाथ खींचा, वह कल मरने वाले होंगे, तो आज ही मर जाएँगे। औरत के बस की बात कहाँ रह गयी थी। बल्कि वह तो उनकी लम्बी बीमारी से आज़िज़ आकर कभी-कभी ऐसे सरापने लगती कि जैसे बूढ़ा भार हो गया हो। बहू की बड़ी तीमारदारी ने तो सचमुच उनमें यह उम्मीद पैदा कर दी थी कि वे बच जाएँगे। उनके मुँह से हर क्षण असीस के शब्द झड़ा करते।

कभी-कभी उन असीसों से एक कुलबुलाहट का अनुभव करके भाभी पूछ बैठती, ‘‘बाबूजी, मुझ अभागिन को आप ऐसे असीस क्यों देते हैं?’’

बूढ़े की आँखों में आँसू भर आते। व्याकुल होकर वे बोलते, ‘‘मैं जानता हूँ, बहू, कि यह ऊसर को सींचना है। लेकिन अपने मन को क्या कहूँ? मानता ही नहीं, बहू मैं तो हमेशा यही प्रार्थना करता हूँ कि तू सुखी रहे!’’

एक करुण मुस्कान होंठों पर लाकर भाभी कहती, ‘‘सुख तो उन्ही के साथ चला गया, बाबूजी!’’ और टप-टप आँसू चुआने लगती।

‘‘तू सच कहती है, बहू,’’ बूढ़े आद्र्र कण्ठ से कहते, ‘‘औरत का लोक-परलोक मरद से ही है।’’

उनके ठेहुने पर सिर रखकर बिलखती हुई भाभी कहती, ‘‘मेरा लोक-परलोक दोनों नसा गया, बाबूजी। आप अब मुझे असीस दीजिए कि जितनी जल्दी हो सके, इस संसार से छुटकारा मिल जाए!’’

‘‘नहीं, बहू, नहीं! तू भी इस अपाहिज बूढ़े को छोडक़र चली जाना चाहती है?’’ बूढ़े काँपते स्वर में कहते।

सिर उठाकर आँचल से आँसू पोंछ भाभी कहती, ‘‘देवर की नयी बहू आएगी। वह क्या आपकी सेवा मुझसे कम करेगी?’’

‘‘कौन जाने, बहू कैसी आएगी? तू तो पिछले जनम की मेरी बेटी थी। न जाने कितना गंगा नहाकर इस जनम में तुझे बहू के रूप में पाया!’’ बूढ़े गद्गद होकर कहते, ‘‘दूसरे की बेटी क्या इस तरह किसी की सेवा कर सकती है? यह तो मेरा सौभाग्य है, बेटी, कि तुझ-सी बहू मुझे मिली। नहीं तो कौन जाने अब तक मेरी मिट्टी कहाँ गल-पच गयी होती।’’

‘‘मेरा दुर्भाग्य भी तो यही है बाबूजी, कि सारी उमर विपदा झेलने के लिए जी रही हूँ। परान नहीं निकलते। रोज मनाती हूँ कि कब ये परान निकलें कि साँसत से छुटकारा पाऊँ! आख़िर अब मेरी ज़िन्दगी में क्या बच गया है, जिसके कारण परान अटके रहें!’’ भाभी निढाल होकर कहती।

‘‘अपने भाग से ही कोई नहीं मरता-जीता, रे पगली!’’ बूढ़े उसे सान्त्वना देते ‘‘जाने किसके भाग से तू जी रही है। मेरे मन में तो आता है कि मेरे भाग से ही तू ज़िन्दा है। रामजी ने मुझे ऐसा रोग दिया, तो साथ ही तुझ-सी बहू भी दी, कि रात-दिन सेवा कर सके। बहू, अपने चाहने-न चाहने से क्या होता है? जो रामजी चाहते हैं, वही होता है। कौन जाने रामजी की इसमें क्या मर्जी हो! बहू, मैं तो सोचूँ कि मेरी ही सेवा के लिए तू पैदा हुई।...हाँ री, ऐसा सोचते बख़त तुझे गोपी का मोह नहीं लगता? तुम दोनों में कितनी मोहब्बत थी! मटरू उस दिन कहता कि गोपी को तेरी बहुत चिन्ता रहती है। बहू, वह तुझे बहुत मानता है। जब तक वह जिएगा, तुझे कोई तकलीफ न होने देगा। निसाखातिर रह।’’

‘‘कौन जाने, बाबूजी भाग में क्या लिखा है? देवर का मोह मुझे भी कम नहीं लगता। उसे एक बार देख लेती, फिर मर जाती। जाने उसकी नयी बहू कैसी आये। उसका व्यवहार मेरे साथ कैसा हो। मुझसे तो कुछ सहा न जाएगा, बाबूजी! कहीं देवर का मन मैला हुआ, तो मैं तो कहीं की न रहूँगी।’’ भाभी फिर सिसक उठी।

‘‘यह तू क्या कहती है, बहू?’’ बूढ़े एक मीठी डाँट के साथ कहते, ‘‘तू मेरी बड़ी बहू है! तू घर की मालकिन की तरह रहेगी! मेरे रहते...’’

‘‘आपका बस कहाँ चलने का बाबूजी? निरोग रहते, तो मुझे किसी बात की चिन्ता न रहती। उसने आकर कहीं देवर पर जादू फेंका और वह उसके बस में होकर...नहीं बाबूजी, मेरा तो मर जाना ही अच्छा है! कहीं ताल-पोखर...’’

‘‘बहू!’’ बूढ़े जैसे चौंककर चीख पड़ते, ‘‘ताल-पोखर का नाम कभी फिर मुँह पर न लाना! जानती है, तूने किस खानदान की बहू है! भले ही घर में सड़-गल जाना, लेकिन, बहू, खानदान पर कलंक का टीका न लगाना! किसी को कहने का अगर कभी मौका मिल गया कि फलाँ की बहू ताल-पोखर में डूब मरी, तो मैं अपना सिर फोड़ लूँगा! इस बूढ़े के सिर का ख्य़ाल रखना, बेटी, और चाहे जो करना!’’ आवेश से थककर बूढ़े काँपने लगते।

आँचल से आँसू पोंछते भाभी वहाँ से हट जाती। इस बूढ़े से कोई बात करना व्यर्थ है। यह कुछ नहीं समझता-कुछ नहीं! इसे अपनी तीमारदारी की चिन्ता है। बूढ़ी को घर के काम-काज और अपनी सेवा के लिए उसकी ज़रूरत है। कोई नहीं ख़याल करता कि आख़िर उसे भी तो कुछ चाहिए। लेकिन किसी को ख़याल भी कैसे हो? स्वप्न में भी कोई यह कल्पना कैसे कर सकता है कि एक क्षत्री-कुल की बेवा बहू ...असम्भव, असम्भव! और भाभी में फिर जैसे एक क्षुब्धता भर उठने को होती कि तभी कोई कानों में गुनगुना उठता, ‘‘मुझे तुम्हारी चिन्ता है, भाभी! मैं रात-दिन तुम्हारी रट लगाये रहता हूँ! तुमसे मैं कितनी मोहब्बत करता था! मुझे आ जाने दो भाभी, फिर तो...’’

और भाभी फिर एक हिंडोले पर झूलने लगती। कोई परवाह करे या न करे, वह तो...और यह काम में मगन हो जातीं।

फिर पहले ही का कार्यक्रम चलने लगता था। वही पूजा, वही रामायण-पाठ, वही सब-कुछ। ठाकुर से प्रार्थना करती, ‘‘तेरी बाँह बड़ी लम्बी है, ठाकुर! नामुमकिन को भी मुमकिन करना तेरे लिए कोई मुश्किल नहीं! कुछ ऐसा करना कि...’’

एक दिन बिलरा को भूसे की खाँची थमाने गयी, तो उसके मन में उठा कि बिलरा फिर वही बात कहे। लेकिन बिलरा भय खाकर सिर झुकाये रहा। तब भाभी ने ही टोका, ‘‘क्यों रे, तुझे कोई हत्या लगी है क्या, जो इस तरह चुप बना रहता है!’’

सिर झुकाये ही बिलरा ने कहा, ‘‘सच ही, छोटी मालकिन, क्या मेरे मुँह से उस दिन ऐसी कोई बात निकल गयी थी...’’

‘‘अरे, वह तो मैं भूल गयी। नाहक तू...’’

‘‘छोटी मालकिन, मैं मन की बात न रोक सका, कह डाली। मेरे कहने से तुमको कष्ट हुआ। मुझे माफ कर दो। छोटी मालकिन, हम लोगों के दिल में कोई गाँठ नहीं होती। तुम लोग तो मन में कुछ और रखते हो, मुँह से कुछ और कहते हो। मुझे तो ताज्जुब होता है कि बड़े मालिक और मालकिन आँखों से तुम्हारा यह रूप कैसे देखते हैं! मेरा तो कलेजा फटता है! इसी उम्र से तुम साधुनी बनकर कैसे रह सकती हो? इसलिए मन में उठा कि कहीं छोटे मालिक के साथ तुम्हारा...’’

भाभी का मन गद्गद हो गया। आँखें मुँद सी गयीं। लेकिन दूसरे ही क्षण जैसे किसी ने खींचकर एक थप्पड़ जमा दिया हो। वह बोली, ‘‘ऐसी बात न कहा कर बिलरा।’’ और अन्दर भाग गयी।

बिलरा कुछ क्षण वहीं खड़ा रहा। फिर होंठों पर एक करुण मुस्कान लिये नाँद की ओर चल पड़ा। सोच रहा था कि उस दिन का गरम लोहा आज कुछ ठण्डा पड़ा गया है। आज डाँट नहीं खानी पड़ी। सच, अगर ऐसा हो जाता तो कितना अच्छा होता! बेचारी की ज़िन्दगी सुख से कट जाती। छोटे मालिक ब्याह न कर सकें, तो उसे रख तो सकते ही हैं। कितने ही उनकी बिरादरी के ऐसा करते हैं। सुनने में तो आता है कि इनके परदादा भी एक चमारिन को रखे हुए थे। फिर यह तो उनकी भाभी ही हैं। थोड़े दिन हो-हल्ला होगा, फिर सब आप ही शान्त हो जाएगा। कसाइयों के हाथ पड़ी एक गऊ की जान तो बच जाएगी। कितना पुण्य होगा!

महीने-दो महीने में रात-बिरात मटरू सर-समाचार लेने ज़रूर आ जाता। अब वह मट्ठा भी फूँककर पीता था। दुश्मनों को भूलकर भी अब वह ऐसा कोई मौका देने को तैयार न था कि पहले ही की तरह फिर पकड़ में आ जाए। वह दीयर कभी नहीं छोड़ता। जानता था कि इस प्रकृति के किले में कोई उस पर हमला करने की हिम्मत न करेगा। अब वह पहले की तरह अकेला भी न था। उसकी झोंपड़ी के पास दर्जनों झोंपडिय़ाँ बस गयी थीं। पचासों किसान नौजवान अपनी लाठियों के साथ उनमें रहते थे। कई अखाड़े भी खुल गये थे। सबकी बैल-भैंसें भी वहीं रहती। मटरू जब छूटकर आया था, तो रब्बी की फसल कट चुकी थी। सबका ख़याल था कि दीयर में सिर्फ रब्बी की ही फसल बोयी जा सकती है। फिर तो बरसात शुरू हो जाती है और चारों ओर पानी ही पानी नजर आता है। लेकिन मटरू खाली बैठना न चाहता था, उसने तय किया कि अब ऊख बोयी जाए। सबने ना-ना किया। लेकिन मटरू न माना। उसने कहा कि गंगा मैया की कृपा होगी तो ऊख भी होगी। ऊँची, अच्छी मिट्टी की ज़मीन देखकर उसने ऊख बो दी। उसकी देखा-देखी औरों ने भी हिम्मत की कि एक का जो हाल होगा, सबका होगा। जाएगा तो बीया और कहीं आ गया तो गुड़ रखने की जगह न मिलेगी।

दीयर गुलज़ार हो गया। झोंपडिय़ाँ बस गयीं। चूल्हे जलने लगे। भैंसें रँभाने लगीं। अखाड़े जम गये। बिना किसी विशेष मेहनत के ऊख ऐसी आयी कि देखने वालों को ताज्जुब होता। तर, चिकनी मिट्टी का मुकाबिला बाँगर की मिट्टी क्या करती? वहाँ चार-चार हाथ की भी ऊख हो जाए, तो बहुत, वह भी बड़ी मशक्कत के बाद। और जब यहाँ ऊखों ने सिर उठाया तो ऐसा लगा कि हाथी डूब जाए, बस, अब डर था गंगा मैया का। बरसात सिर पर चढ़ आयी थी। नदी बढऩे लगी थी। सबकी धुकधुकी उसी ओर लगी थी। सब कहते, ‘‘गंगा मैया! किरिपा कर दो, तो ऊख काटे न कटे!’’ सब यही बिनती करते कि गंगा मैया इस साल धार पलट दें।

कुछ ऐसी होनहार कि सच ही नदी की मुख्य धारा अबकी उस पार बन गयी। पानी इधर भी खूब फैला, लेकिन दस-पन्द्रह दिन में ऊखों की जड़ों में और भी मिट्टी छोडक़र चला गया। किसानों की खुशी का ठिकाना न रहा। मटरू की शाबाशी होने लगी। उसने कहा, ‘‘यह सब गंगा मैया की किरिपा है!’’

ज़मींदारों ने सीधे तौर पर छेडऩे की कोशिश न की थी। अब मटरू अकेला न रह गया था। सुनने में बस यही आया कि उन्होंने सदर में दरख़्वास्त दी है कि किसानों ने उनकी ज़मीन पर कब्जा कर लिया है, सरकार पड़ताल कराए और बािगयों को दण्ड दे। वरना बलवा होने का अन्देशा है।

फिर क्या हुआ कुछ पता न चला। सरकार का दरबार बहुत दूर है, जाते-जाते पुकार पहुँचेगी, होते-होते सुनवाई होगी। तब तक क्या दीयर में कोई निशान बाकी रह जाएगा? और फिर कुछ होगा, तो देखा जाएगा। पटवारी के नक्शे में तो बस दीयर लिखा है, कागज-पत्तर में भी दीयर किसी के नाम नहीं है। कोई मेंड़-डाँड़ तो बन नहीं सकती, यहाँ बनायी भी जाए, तो क्या गंगा मैया रहने देंगी? सरकार क्या खाक पड़ताल करेगी!

बरसात में मटरू और उसके साथी काफी होशियारी से रहे। एक तरह से अब उनका एक दल बन गया था। आस-पास के गाँवों के किसान उनके भाई-बन्द थे। हर बात की खोज-ख़बर लेते रहते और मटरू के कान में पहुँचाया करते। अब मटरू पर जान देने वाले सैकड़ों थे। यों भी मटरू को पकड़ ले जाना आसान न था।

मटरू रात में ही अपने दस-पाँच साथियों के साथ गोपी के घर जाता और रात रहते ही चला आता। सब उसका सत्कार बड़ी उमंग से करते। बूढ़े-बूढ़ी पूछते ‘‘गोपी की शादी की कहीं बात चलायी?’’

मटरू कहता, ‘‘अरे, हमें चलाने की क्या जरूरत? दर्जनों यों ही मुँह बाये बैठे हैं। उसे आ तो जाने दो। फिर एक महीने के अन्दर ही शादी लो। वह बहू ला दूँगा कि गाँव देखेगा!’’

मटरू गोपी को बराबर चिट्ठी देता। लेकिन उसने गोपी को उसकी औरत के बारे में कुछ न लिखा था। क्यों खामखाह के लिए दुख का समाचार लिखे? न जाने उसके चले आने के बाद गोपी की कैसे कटती है। कई बार सोचा कि मिल आये। लेकिन फुरसत कहाँ? फिर गंगा मैया को वह कैसे छोड़े, अपने किसान भाइयों को कैसे छोड़े? उसी के दम से तो सब दम है। कहीं उसकी गैरहाज़िरी में ज़मींदार कुछ कर बैठें, तो?

अन्दर खाने जाता, तो भाभी के बनाये खयका की प्रशंसा करके कहता, ‘‘तभी तो गोपी लट्टू है! मंन भी कहूँ, क्या बात है? इतना बढिय़ा खयका जो एक बार खा लेगा, वह क्या गोपी की भौजी को कभी भूल सकता है?’’

सास भी अब कहती, ‘‘ये दोनों बहनें बड़ी गुनवती थीं, बेटा! करम को क्या कहूँ?’’

भाभी सुनती और मन-ही-मन न जाने क्या गुनती। एक बार तो मौका निकालकर उसने अपने को मटरू को दिखा दिया था। मटरू खुद भी उसे देखने को उत्सुक था। वह देखकर जैसे छाती पर एक घूँसा खा गया था। उसने कब सोचा था कि गोपी की भौजी अभी ऐसी जवान है, ऐसा बिजली-सा उसका रूप! तभी से उसका दिल भाभी के प्रति सहानुभूति से भर गया था। कभी-कभी बड़ी मीठी-मीठी बातें वह यही सहानुभूति दरशाने के लिए माँ से भाभी के बारे में कह देता। भाभी निहाल हो उठती।

मटरू को चिन्ता लग गयी। गोपी की भौजी-सी सुन्दर बहू गोपी के लिए कहाँ से खोजकर लाएगा? उसने तो आज तक ऐसी औरत कहीं न देखी। गोपी उस पर जान देता है, तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं। ऐसी औरत पर कौन जान न देगा? इसी तरह इसकी बहन भी तो होगी। फिर दूसरी से उसका मन कैसे भरेगा?

और मटरू के मन में बिलरा की ही तरह बात उठ खड़ी हुई। सदा दीयर में स्वच्छन्द रहने वाले मटरू के मन पर बिरादरी के रीति-रिवाज का उतना संस्कार न चढ़ा था। उसने स्वच्छन्दता से ही जीवन बिताया था। जब जो मन में उठा, वैसे ही किया था। कभी कोई बन्धन न माना था। वह तो बस इतना ही जानता था कि आदमी के पास बल और बहादुरी होनी चाहिए। फिर कौन रोक सकता है उसे कुछ करने से? उसने तो यह भी तय कर लिया था कि अगर गोपी तैयार हो गया, तो वह यह करके ही दम लेगा। बहुत होगा, गोपी को अपना घर छोड़ देना पड़ेगा। तो उसके दीयर में एक झोंपड़ी और बस जाएगी। उसी की तरह वे भी रहे-सहेंगे। चिरई की जान तो बच जाएगी!

ग्यारह

गोपी अपनी सजा काटकर जब छूटा, तो उसे और कैदियों की तरह वह खुशी न हुई, जो कैद से छूटने के वक़्त होती है। आज वह अपने घर की ओर जा रहा है। आख़िर उसे आज अपनी उस विधवा भाभी के सामने जाकर खड़ा होना ही पड़ेगा, उसे उस दशा में, अपनी इन आँखों से देखना ही पड़ेगा, जिसके लिए करीब पाँच वर्षों से भी वह पर्याप्त साहस नहीं बटोर सका है।

गाँव में जब वह घुसा, तो सन्ध्या की धुँधली छाया पृथ्वी पर झुकी आ रही थी। जाड़े के दिन थे। चारों ओर अभी सन्नाटा छा गया था। पोखरे से एकाध आदमियों के ही खाँसने-खँखारने की आवाज़ें आ रही थीं। घाट सूना था। गाँव के ऊपर जमे हुए धुएँ का बादल धीरे-धीरे नीचे सरका आ रहा था।

आगे बढक़र गोपी ने सोचा कि किसी से घर का समाचार पूछे। लेकिन फिर ठिठक गया। पास ही छोटा सा मन्दिर था। सोचा, पुजारी जी के पास ही क्यों न चले। भगवान् के दर्शन भी कर ले, पुजारी जी से समाचार भी पूछ ले। गोपी का दिल लरज रहा था। सालों दूर रहने से उसके मन में यह बात उठ रही थी कि जाने इस बीच क्या-क्या हो गया हो। उसे डर लग रहा था कि कहीं कोई उसे बुरी ख़बर न सुना दे।

मन्दिर उसे वीरान-सा दिखाई दिया। आश्चर्य हुआ कि ऐसा क्यों? यह भगवान् की आरती का समय है। फिर भी सन्नाटा क्यों छाया हुआ है? चबूतरे पर कोई बूढ़ा भिखमंगा अपनी गठरी रखे लिट्टी सेंकने के लिए अहरा सुलगा रहा था। उसने गोपी को खड़े देखा, तो पूछा, ‘‘का है, भैया?’’

‘‘मन्दिर बन्द क्यों है? पुजारीजी नहीं हैं क्या?’’ गोपी ने उसके पास जाकर पूछा।

भिखमंगा जोर से हँस पड़ा। दाँत न होने के कारण ढेर-सा थूक उसके होंठों से बह पड़ा। वह बोला, ‘‘तुम यहाँ के रहनेवाले नहीं हो क्या? अरे, पुजारी को भागे हुए तो आज तीन बरस के करीब हो गये। गाँव की एक बेवा के साथ पकड़ा गया था। उसे लेकर जाने कहाँ मुँह काला कर गया।’’ और वह फिर जोर से अट्टहास कर उठा।

गोपी के काँपते हाथ उसके कानों पर पहुँच गये। उसका दिल जोरों से धडक़ उठा। उससे एक क्षण भी वहाँ न ठहरा गया। असीम व्याकुलता मन में लिए वह सीधे अपने घर की ओर बढ़ा। एक आशंका उसके मन में काँप रही थी कि कहीं...

अपने घरों के सामने कौड़े के पास बैठे जिन-जिन लोगों ने उस दुख और व्याकुलता की मूर्ति को गुज़रते हुए देखा, वे चुपचाप उसके साथ हो लिये। मूक दृष्टि से कभी-कभी गोपी उनकी जुहार का उत्तर दे देता। न किसी से कुछ पूछने की मन:स्थिति उसकी थी, न लोगों की। लग रहा था, जैसे वे सब अपने किसी प्यारे की लाश जलाकर मौन और उदास लौट रहे हों।

घरवालों को तब तक किसी ने दौडक़र गोपी के आने की सूचना दे दी थी। गोपी अभी अपने घर से कुछ दूर ही था कि उसके कानों में अपने घर की दिशा से जोर-जोर से चीख़कर रोने की आवाज़ें आने लगीं। उसका दिल बैठने लगा। रोम-रोम व्याकुलता की तड़प से काँप उठा। पैरों में कँपकँपी छूटने लगी। आँखों के सामने अन्धकार-सा छा गया। दिमाग में चक्कर-सा आने लगा। उसके साथ-साथ चलने वाले लोगों से उसकी यह दशा छिपी न रही। कुछ ने बढक़र उसे सहारा दिया। एक के मुँह से यों ही निकल गया, ‘‘होश-हवास खो बैठा बेचारा! भीम की तरह भाई के मरने का दु:ख ही क्या कम था, जो विधाता ने इसकी औरत को भी छीन लिया!’’

गोपी के कानों में इसकी भनक पड़ी तो आँखें फाड़े वह पूछ बैठा, ‘‘क्या?’’

कइयों ने एक साथ ही कहा, ‘‘अब दु:ख करने से क्या होगा, भैया? उनका-तुम्हारा उतने ही दिन का सम्बन्ध लिखा था। अब जो रह गये हैं, उन्हीं को सँभालो। अब उन्हें तुम्हारा ही तो सहारा रह गया है।’’

गोपी को लगा, जैसे एक बिजली की तरह जलता शूल उसके दिल में कौंधकर उसके तन-मन को जलाता सन्न से निकल गया। वह गश खाकर सहारा देने वालों के हाथों में आ रहा।

उसे घर ले जाकर लोगों ने चारपाई पर लिटा दिया और पानी के छींटे दे उसे होश में लाने लगे। औरतों ने रोते-रोते, बेहाल हुई माँ और भाभी को, और बड़-बूढ़ों ने बिस्तर पर कूल्हते पिता को किसी तरह यह कहकर चुप कराया कि अगर बड़े होकर तुम्हीं इस तरह तड़प-तड़पकर जान दे दोगे, तो गोपी का क्या होगा?

दुख की घटा छायी रही उस घर पर महीनों। व्यथा के आँसू बरसते रहे सबकी आँखों से महीनों।

दुख की जितनी शक्ति है, उसे कहीं अधिक प्रकृति ने आदमी को सहनशक्ति दी है। जिस तरह दुख की कोई निश्चित सीमा नहीं, उसी तरह मनुष्य की सहन-शक्ति भी असीम है। जिस दुख की कल्पना-मात्र से मनुष्य की आत्मा की नींव तक काँप उठती है, वही दुख जब सहसा उसके सिर पर भहराकर आ गिरता है, तो जाने कहाँ से उसमें उसे सहन करने की शक्ति भी आ जाती है। उसे वह हँसकर या रोकर झेल ही लेता है। दुख की काली घटा के नीचे बैठकर वह तड़पता है, रोता है। रो-रोकर ही वह दुख को भुला देता है। वह घटा छँटती है, खुशी का प्रकाश चमकता है और आदमी हँस देता है। वह यह बात भी भूल जाता है कि कभी उस पर दुख की घटा छायी थी, कभी वह रोया और तड़पा भी था। यह बात कुछ असाधारण मनुष्यों पर भले ही लागू न हो, पर साधारण मनुष्यों के लिए सर्वथा सच है।

गोपी, उसके माता-पिता और भाभी साधारण ही मनुष्य थे। व्यथा के उमड़ते-घुमड़ते सागर में सालों दुख के थपेड़े खाकर धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि वे व्यथा और दुख की गरजती लहरें कुछ करुण और कुछ मधुर स्मृतियों की मन्द-मन्द लहरियाँ बन-बन उनके व्यथित हृदयों को अपने कोमल करों से सहला-सहलाकर कुछ आशा, कुछ सुख के झीने-झीने जाल बुनने लगी हैं।

भाभी और देवर, दोनों एक ही तरह के दुर्भाग्य के शिकार थे। उनकी समझ में न आता कि वे कैसे एक-दूसरे को सान्त्वना दें। भाभी ने पूर्ववत् अपने को पूजा और घर के कामों में उलझा दिया था। वह यन्त्र की तरह सब-कुछ करती, जैसे वही-सब करने के लिए इस यन्त्र का निर्माण हुआ हो, जैसे यह यन्त्र एक ही रफ्तार से, इसी तरह चलता रहेगा, काम करता रहेगा, इसके नियम में कभी कोई परिवर्तन न होगा। हाँ, धीरे-धीरे, जैसे-जैसे इसके पुरजे घिसते जाएँगे, इसकी चाल में शिथिलता आती जाएगी, फिर एक दिन इसके पुरजे बिखर जाएँगे, यह एक यन्त्र टूट जाएगा हमेशा के लिए।

भाभी अब कहीं अधिक गम्भीर और चुप और उदास बन गयी थी। मानो अपनी पूजा और कामों के सिवा उसके जीवन में कुछ हो ही नहीं।

गोपी भाभी को देखता और उस निस्सीम उदासीनता, नीरसता और दुख में लिपटी हुई बीमार-सी पुतली को देखकर सोचता कि क्या वह ऐसे ही अपना जीवन बिता देगी? क्या वह सचमुच उसे ऐसे ही जीवन बिताने देगा? दुनिया के बाग में पतझड़ आता है, फिर बसन्त आता है। क्या भाभी के जीवन में एक बार पतझड़ आकर सदा बना रहेगा? क्या फिर उसमें बसन्त न आएगा? क्या फिर एक बार उसमें बसन्त लाया ही नहीं जा सकता? पतझड़ में चुप हुई बुलबुल क्या हमेशा के लिए ही चुप हो जाएगी? क्या उसकी चहक एक बार फिर न सुन सकेगा?

गोपी अपने समाज के रीति-रिवाज से परिचित है। वह जानता है कि उनकी बिरादरी की विधवा लकड़ी का वह कुन्दा है, जिसमें उसके पति की चिता की आग एक बार जो लग जाती है, तो वह जलता रहता है, तब तक जलता रहता है, जब तक जलकर राख नहीं हो जाता। उसे राख हो जाने के पहले किसी को छूने की हिम्मत नहीं होती, बुझाने की तो बात ही दूर। और गोपी सोचता कि क्या उसकी भाभी भी उसी तरह जलकर राख हो जाएगी? वह उस लगी आग को कभी न बुझा सकेगा? गोपी के मन की आँखों के सामने ये प्रश्न हर क्षण चक्कर लगाते रहते हैं। और वह सदा जैसे उन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ निकालने में डूबा-सा रहता है। भाभी के सुख-दुख का स्थान यों भी उसके जीवन में कम नहीं रहा है, पर जब भाभी के जीवन में कभी भी ख़तम न होने वाली वीरानी आ गयी है, तो उसका स्थान उसके हृदय में और गहरा हो गया है। वह एक तरह से अपने विषय में कुछ न सोच, सदा भाभी के विषय में सोचा करता है कि कैसे वह अपनी स्नेहशील भाभी को फिर एक बार पहले ही की तरह चहकती हुई देखे।

दुनिया चाहे जिस परिस्थिति में रहे, बेटी वाले बापों को चैन कहाँ? गोपी के जेल से आने का पता जैसे ही उन्हें चला, फिर उन्होंने दौडऩा-धूपना शुरू कर दिया। गोपी के जेल से लौटने की ही तो पख थी। अब शादी पक्की करने में कोई उज्र नहीं होनी चाहिए। पिता उसे सीधे गोपी से बात करने को कह देते। अपंग आदमी ठहरे। सब-कुछ अब गोपी को ही तो करना-धरना है। वह जैसा मुनासिब समझे, करे।

गोपी उन्हें देखकर जल-भुन जाता है। उसकी समझ में नहीं आता कि भाभी के सामने वह कैसे ब्याह रचा सकता है? वह किन आँखों से उस खुशी के उत्सव को देखेगी, किन कानों से ब्याह के गीत सुनेगी, किस हृदय से वह सब सह सकेगी? नहीं-नहीं गोपी जले पर इस तरह नमक नहीं छिडक़ सकता! ऐसा करने से उसका दिल छलनी हो जाएगा।

उसके जी में आता है कि वह मेहमानों को फटकर बताकर कह दे, ‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती ऐसी बातें मुझसे कहते? कुछ नहीं तो कम-से-कम एक इन्सान होने के नाते ही मेरे दिल की हालत तो समझने की कोशिश करो। शादी की बात करके मेरे हरे ज़ख्मों पर इस तरह नमक तो न छिडक़ो।’’ लेकिन सौजन्यतावश वह शादी न करने की बात कहकर उन्हें टाल देता है। वे उसे उलझाने की कोशिश करते पूछते हैं, ‘‘आख़िर ऐसा तुम क्यों कहते हो?’’

गोपी चुप रहता है। वह कैसे बताए कि ऐसा क्यों कहता है?

‘‘आख़िर इस उम्र से ही तुम इस तरह कैसे रह सकते हो?’’ दूसरा सवाल फेंका जाता है।

गोपी का मन पूछना चाहता है कि भाभी की उम्र भी तो मेरी ही बराबर है, आख़िर वह कैसे रहेगी? लेकिन वह चुप ही रहता है।

तीसरा कम्पा लगाया जाता है, ‘‘एक-न-एक दिन तुम्हें घर बसाना ही पड़ेगा, बेटा!’’

और गोपी कहना चाहता है कि क्या यही बात भाभी से भी कही जा सकती है? लेकिन उसके मुँह से कोई बोल ही नहीं फूटता। अन्दर-ही-अन्दर एक गुस्सा उसमें घुमडऩे लगता है।

‘‘और नहीं तो क्या? कोई बाल-बच्चा होता, तो एक बात होती,’’ चौथी बार लासा लगाया जाता है। लडक़ा चुप है इसके मानी यह कि उस पर असर पड़ रहा है। शायद मान जाए।

भाभी के भी तो कोई बाल-बच्चा नहीं है। क्या उसे इसकी ज़रूरत नहीं? गोपी के दिल में एक मूक प्रश्न उठता है। उसके होंठ फिर भी नहीं हिलते। गुस्सा उभरा आ रहा है। नथुने फडक़ने लगे हैं।

‘‘खानदान का नाम-निशान चलाने के लिए...’’

और गोपी और ज्यादा कुछ सुनने की ताब न लाकर गरजते बादल की तरह कडक़ उठता है, ‘‘तुम्हें मेरे खानदान की चिन्ता करने की कोई ज़रूरत नहीं! तुम चले जाओ!’’

‘‘अजीब आदमी है! हम कैसे बातें कर रहे हैं और यह कैसे बोल रहा है!’’ अपमान का कड़वा घूँट पीकर मेहमान कहते, ‘‘दर दहेज की अगर कोई बात हो, तो...’’

‘‘कुछ नहीं। कुछ नहीं! मैं शादी नहीं करूँगा! नहीं करूँगा! नहीं करूँगा!’’ और वह खुद ही वहाँ से उठकर हट जाता।

पर यह सिलसिला टूटने को न आता। और अब तो वह किसी ऐसे मेहमान के आने की ख़बर सुनता है, तो पागल-सा हो जाता है। उसके हृदय का द्वन्द्व और भी तीव्र हो उठता है। वह जैसे अपने ही से मूक आवाज़ में पूछने लगता है, कैसे, कैसे? कैसे अपनी विधवा भाभी की वीरान आँखों के सामने ब्याह का रास-रंग रचाऊँ? कैसे अपने हृदय की तड़प की पुकार न सुनकर, मैं एक अबोध कन्या को लाकर अपना सुख संसार बसाऊँ? नहीं यह नहीं हो सकता!’’ और वह फूट-फूटकर रो पड़ता।

बारह

दीयर में इस साल खूब हुमककर रब्बी आयी थी। मीलों पकी गेहूँ की फसल से जैसे आसमान लाल हो उठा था। कटिया लगने की ख़बर पाकर दूर-दूर से कितने ही औरत-मर्द बनिहार आकर वहाँ बस गये थे। कम-से-कम पन्द्रह-बीस दिन कटिया चलेगी। मटरू पहलवान खूब बन देता है और किसानों को भी ताकीद कर दी है कि बनिहारों के बन में कोई कमी न करें। सो, बनिहार मोटरी बाँध-बाँधकर अनाज ले जाएँगे।

गंगा मैया के किनारे एक मेला-सा लग गया है। कई दुकानदार भी घाठी-पिसान, साग-सत्तू, बीड़ी-तमाकू की छोटी-छोटी दुकानें लगाकर बैठ गये हैं। अनाज के बदले वे सौदा देते हैं। पैसा यहाँ किसके पास है? बनिहारों को रोज शाम को बन मिलता है, उसी में से खर्चे के लिए वे थोड़ा सा मीस लेते हैं और ज़रूरत की चीजों से दुकानदारों के यहाँ बदल आते हैं। दिन में तो सभी बनिहार सत्तू खाते हैं। लेकिन रात में रोटी-लिट्टी सेंकने के लिए जब सैकड़ों अहरे गंगा मैया के किनारे जल उठते हैं, तो मालूम होता है, जैसे आसमान में धुँए के बादल छा गये हों।

मटरू यह सब देखता है, तो फूला नहीं समाता। लोग-बाग मटरू की इतनी सराहना करते हैं कि वह शरमा जाता है। लोग कहते हैं, ‘‘यह मटरू पहलवान का बसाया इलाका है। दूसरे किसमें इतनी सूझ और हिम्मत थी, जो जंगल को भी गुलज़ार कर देता? पुश्तों से दीयर पड़ा था। कभी कहीं कोई दिखाई न देता था। अब वही धरती है कि मेला लग गया है। सैकड़ों किसानों और बनिहारों की रोजी का सहारा लग गया है। सब उसे असीस दे रहे हैं। पुश्तों से धाँधली करके ज़मींदार जंगल बेचकर हज़ारों हड़पते रहे। मटरू पहलवान के पहले था कोई उनका हाथ पकडऩे वाला? भाई आदमी हो तो मटरू पहलवान की तरह! शेर है, उस पर हज़ारों आदमी क्या यों ही जान दे रहे हैं? दिलों पर ऐसे ही इन्सान राज करते हैं। अब है ज़मींदारों की मजाल कि उसकी तरफ आँख उठा दें।’’

मटरू सुनता है, तो दोनों हाथ नदी की ओर उठाकर कहता है, ‘‘यह सब हमारी गंगा मैया की किरिपा है! उसके भण्डार में किसी चीज की कमी नहीं। लेने वाला चाहिए, भैया, लेनेवाला! माँ का आँचल क्या कभी बेटों के लिए खाली होता है? वह भी जगत् की माता, गंगा मैया का!’’

कृष्ण पक्ष का चाँद जैसे ही आसमान में प्रकट हुआ, मटरू और पूजन ने बनिहारों को हाँक देना शुरू कर दिया। दिन में गरमी और लू के मारे बनिहार परेशान हो जाते हैं, ठण्डी सुबह के दो-तीन घण्टे में जितना काम हो जाता है, उतना दिन के आठ-दस घण्टों में भी नहीं होता। बनिहार नदी के किनारे ठण्डी रेत पर गहरी नींद में कतार लगाकर सोते थे। बड़ी प्यारी उत्तरहिया हवा बह रही थी। चाँद मीठी शीतलता की बारिश कर रहा था। नदी धीमे-धीमे कोई मधुर गीत गुनगुना रही थी। हाँक सुनते ही बनिहार और बनिहारिनें उठ खड़ी हुईं। आलस का नाम नहीं। थकी देहों को नदी की हवा जैसे ही छूती है, उनमें फिर से नयी ताजगी और स्फूर्ति आ जाती है। यहाँ की दो-चार घण्टे की नींद से ही गाँवों की रात-भर की नींद से कहीं ज्यादा आराम और विश्राम आदमी को मिल जाता है।

डाँड़ पर आग सुलग रही है, पास ही तमाकू और खैनी रखी हुई है। जो तमाकू पीता है, वह चिलम भर रहा है। जो खैनी खाता है, वह सुरती फटक रहा है। थोड़ी देर तक बूढ़े-बूढिय़ों की खों-खों से फिज़ा भर जाती है। फिर कटनी शुरू हो जाती है।

खेत की पूरी चौड़ाई में बनिहार और बनिहारिनें कतार लगाकर पाँवों पर बैठी काट रही हैं, बनिहार एक ओर बनिहारिनें दूसरी ओर। एक सिरे पर मटरू जुटा है और दूसरे पर पूजन। पूजन ने बगल की बूढ़ी औरत को कुहनी मारकर हँसते हुए कहा, ‘‘कढ़ाओ एक बढिय़ा गीत।’’

बूढ़ी ने मुस्कराकर अपनी बगलवाली को कुहनी मारी, और फिर पूरी जंजीर झनझना उठी। नवेलियों ने खाँसकर गला साफ किया। एकाध क्षण ‘‘तू कढ़ा, तू कढ़ा’’ रहा। फिर धरती की बेटियों के कण्ठ से धरती का जंगली मधु-सा गीत फूट पड़ा। चेहरे दमक उठे, आँखें चमक उठीं, हाथों में तेजी आ गयी। काम और संगीत की लय बँधी, फिजा झूम उठी, चाँद और सितारे नाचने लगे, गंगा मैया की लहरें उन्मत्त हो-होकर तट से टकराने लगीं-

‘‘ऐ पिया, तू परदेस न जा,

वहाँ तुझे क्या मिलेगा, क्या मिलेगा?

यहाँ खेत पक गये हैं, सोने की बालियाँ झूम रही हैं।

मैं हँसिया लेकर भिनसारे जाऊँगी,

गा-नाचकर फसलों के देवता को रिझाऊँगी,

खुश होकर वह नया अन्न देगा, मैं फाँड़ भरकर लाऊँगी।

कूटूँगी, पीसूँगी, पुआ पकाऊँगी,

ठहर देके पीढ़े पर तुझको बैठाऊँगी!

अपने ही हाथों से रच-रच खिलाऊँगी।

याद है तुझे वह पिछली फसल की बात?

ऐ पिया, तू परदेस न जा।

वहाँ तुझे क्या मिलेगा, क्या मिलेगा?’’

ऊषा की सिन्दूरी आभा धीरे-धीरे खेतों में फैलकर रंगीन झील की तरह मुस्करा उठी। बनिहारों और बनिहारिनों के चेहरे स्वर्ण-मूर्तियों की तरह दमक उठे। नदी का पानी सुनहरी आबेरवाँ के दुपट्टे की तरह लहरा उठा। कहीं दूर से दरियाई पक्षियों की कूकें शान्त, सुहाने वातावरण में गूँजने लगीं। प्रकृति ने एक अँगड़ाई लेकर खुमार-भरी पलकें उठायीं। सूरज की पहली किरण ने उसके अधर चूमे और चर-अचर ने झूमकर जीवन और प्रेम की रागिनी छेड़ दी।

तभी मटरू के कानों में आवाज पड़ी, ‘‘मटरू भैया!’’

अचकचाकर मटरू ने देखा और लपककर गोपी के गले से लिपटकर कहा, ‘‘गोपी, अरे गोपी! तू कब आ गया, भैया?’’

‘‘खूब पूछ रहे हो! चार-पाँच महीने हो गये हमें आये, ख़बर भी न ली?’’ गोपी ने शिकायत की।

‘‘इतनी जल्दी कैसे छूट गये? मैं तो सोचता था, इस महीने में छूटोगे।’’ उसके दोनों बाजुओं को अपने हाथों से दबाता मटरू बोला।

‘‘छ:महीने और रेमिशन के मिल गये। सुना कि उधर तुम बराबर घर आते-जाते रहे। इधर क्यों नहीं आये? मैं तो बराबर तुम्हारा इन्तज़ार करता रहा। मजे में तो रहे?’’ गोपी बोला।

‘‘हाँ, गंगा मैया की सब किरिपा है! तुम अपनी कहो? इधर कामों में बहुत फँसे रहे। यहाँ से हटना बड़ा मुश्किल होता है। सोचा था कि कटनी ख़तम होते ही तुम्हारे पास यहाँ एक रात हो आऊँगा। अच्छा किया कि तुम आ गये। मेरे तो पाँव फँस गये हैं।’’ अपनी झोंपड़ी की ओर गोपी को ले जाते हुए मटरू ने कहा।

‘‘तुम तो कहते थे कि यहाँ तुम्हीं रहते हो, मैं देखता हूँ कि यहाँ तो एक छोटा-मोटा गाँव ही बस गया है।’’ चारों ओर देखता हुआ गोपी बोला।

मटरू हँसा। बोला, ‘‘सब गंगा मैया की किरिपा है। अब तो सैकड़ों किसान हमारे साथ यहाँ बस गये हैं। मटरू अब अकेला नहीं है। उसका परिवार बहुत बड़ा हो गया है!’’ और फिर वह हँस पड़ा।

झोंपड़ी के सामने लखना कन्धे तक दाहिने हाथ में पानी-भूसा लिपटाये खड़ा उन्हें देख रहा था। मटरू ने कहा, ‘‘तेरा चाचा है बे, क्या देख रहा है? चल, पाँव पकड़!’’

लखना पाँव पकडऩे लगा, तो गोपी ने उसे हाथों से उठाकर कहा, ‘‘बडक़ा है न?’’

‘‘हाँ,’’ मटरू ने कहा, ‘‘क्यों बे, भैंस दुह चुका?’’

‘‘हाँ,’’ लडक़े ने सिर झुकाकर कहा।

‘‘तो चल, चाचा के लिए एक लोटा दूध तो ला। और हाँ, लपककर खेत पर जा। पाँती छोडक़र आया हूँ।’’ चटाई पर गोपी को बैठाते हुए मटरू ने कहा।

‘‘अरे, अभी तो मुँह-हाथ भी नहीं धोया। क्या जल्दी है?’’ गोपी ने कहा।

‘‘शेर भी कहीं मुँह धोते हैं? और फिर दूध के लिए क्या मुँह धोना?’’ हँसकर मटरू ने कहा।

जेल घर की सब बातें कहकर गोपी ने कहा, ‘‘प्राण संकट में पड़ गये हैं। तुमसे राय लेने चला आया। अब तुम्हीं उबारो, तो जान बचे। रोज-रोज मेहमान घर खन रहे हैं। समझ में नहीं आता, क्या करूँ। भाभी की दशा नहीं देखी जाती। बड़ा मोह लगता है! उसकी छाती पर खुशी मनाना हमसे तो न होगा!’’

‘‘सच पूछो, तो इसी उधेड़-बुन में मैं भी पड़ा था। वहाँ जाने पर माई और बाबूजी तुम्हारी शादी पक्की करने की बात कहते थे और मैं टाल जाता था। जब से तुम्हारी भाभी को देखा, दुनिया भर की लड़कियाँ नजर से उतर गयीं। सोचा थे, तुम आ जाओ, तो कुछ सोचा जाए। भैया सच कहना, तेरा मन भाभी के साथ शादी करने को है? हमको तो लगता है कि तुम उसे बहुत मानते हो।’’

‘‘मेरे चाहने से ही क्या हो जाएगा?’’ गोपी ने उदास होकर कहा।

‘‘क्यों न होगा? मर्द हो कि कोई ठट्ठा है? सारी दुनियाँ के ख़िलाफ तुम्हारा मटरू अकेले तुम्हें लेकर खड़ा होगा! क्या समझते हो मुझे? मैंने तो यहाँ तक सोचा कि अगर तुम्हारे माँ-बाप घर से निकाल दें, तो यहाँ मेरी झोंपड़ी के पास एक और झोंपड़ी खड़ी हो जाएगी। और देख रहे हो न ये खेत! मिल-जुलकर काम करेंगे। कोई साला हमारा क्या कर लेगा? सच कहूँ, गोपी, तेरी भाभी की सोचकर मेरा भी कलेजा फटता है। तू उसे अपना ले! बड़ा पुण्य होगा, भैया! कसाई के हाथ से एक गऊ और मिस्कार के हाथ से एक चिरई बचाने में जो पुण्य मिलता है, वही तुझे मिलेगा। बहादुर ऐसे मौके पर पीठ नहीं फेरते!’’ गोपी की पीठ ठोंकते हुए मटरू ने कहा।

‘‘लेकिन उसकी भी तो कोई बात मालूम हो। जाने क्या सोच रही हो। वह तैयार होगी, भैया?’’ गोपी ने होंठों में कहा।

‘‘अरे, पाँच महीने तुझे आये हो गये और तुझे यह भी मालूम नहीं हुआ?’’ मटरू ने आश्चर्य प्रकट किया।

‘‘कैसे मालूम हो, भैया? वह तो बिलकुल गूँगी हो गयी है। बस आँसू भरी आँखों से वैसे ही देखा करती है, जैसे छूरी के नीचे कबूतरी। मैं कैसे जानूँ...’’

‘‘अबे, तो एक दिन पूछकर देख।’’

‘‘लेकिन, माई, बाबू...’’

‘‘एक बात तू समझ ले। माई-बाबू के चक्कर में अगर पड़ा, तो यह नहीं होगा! रीति-रिवाज और संस्कार को बूढ़े जान के पीछे रखते हैं। उम्र-भर की कमाई इज्ज़त आबरू को वे प्राणों से वैसे ही चिपकाये रहते हैं, जैसे मरे बच्चे को बन्दरिया। समझा? तू उनके चक्कर में न पड़! जवान आदमी है। अबे, तुझे डर काहे का? फिर मैं जो हूँ तेरी पीठ पर! देखेंगे कि तेरे ख़िलाफ जाकर कौन क्या कर लेता है! हिम्मत चाहिए, बस हिम्मत! हिम्मत के आगे दुनिया झुक जाती है!’’

‘‘अच्छा, तो तुम कब आओगे? तुम जरा माई-बाबूजी को समझाते। वे बड़ी जल्दी मचाये हुए हैं।’’

‘‘बस, चार-पाँच दिन में। खेत कटने-भर की देर है। मैं सब कर लूँगा। बस, तू अपनी भाभी को समझा ले। चल, तुझे खेत दिखाऊँ। उधर से ही गंगा मैया में गोता लगाकर लौटेंगे।’’

तेरह

कितने ही मेहमान आ-आकर जब निराश हो-होकर लौट गये, तो एक दिन, जब भाभी अपनी पूजा में तल्लीन थी, माँ ने गोपी को बुलाया और पिता के सामने ला खड़ा किया। पिता की मुख-मुद्रा अत्यधिक गम्भीर थी। गोपी समझ न सका कि आख़िर क्या बात है।

पिता ने उसे और पास बुलाकर कहा, ‘‘बेटा, मेरी और अपनी माँ की अवस्था देख रहे हो न?’’

गोपी ने जैसे किसी आशंका से भरकर सिर हिला दिया।

‘‘बेटा, अब हमारा कोई ठिकाना नहीं। आज किसी तरह कट गया, तो कल दूसरा दिन समझो। हमारे दिल में क्या-क्या अरमान थे, आज उन्हें याद करके हमारा कलेजा फट जाता है। खैर, भगवान् की जो इच्छा थी, पूरी हुई। लेकिन अब क्या तू चाहता है कि घर-गिरस्ती को इसी उजड़ी अवस्था में छोडक़र हम...’’ कहते-कहते उनका कण्ठ उमड़ती हुई पीड़ा के आवेग से रुद्ध हो गया।

माँ ने सिसकते हुए अपना मुँह आँचल से ढँककर फेर लिया।

गोपी के दुखी हृदय के जख्मों के टाँके जैसे किसी ने निर्दयतापूर्वक पट-पट तोड़ दिये। उसकी आत्मा दर्द के मारे कराह उठी। वह अपने को और सँभालने में असमर्थ होकर वहाँ से हटने लगा, तो पिता ने भरे गले से टूटे स्वर में कहा, ‘‘हमारे रहते ही अगर तू घर बसा लेता, तो कम-से-कम हम शान्ति से...’’

गोपी आगे की बात न सुन सका। वह चौपाल में जाकर बिलख-बिलखकर रो पड़ा। ओह, उसे कोई क्यों नहीं समझ रहा है? किसी को अपनी बेटी के ब्याह की फिक्र है, तो किसी को उसके कुल के नाम-निशान की फिक्र है। माँ-बाप को उजड़ा घर बसाने की फिक्र है। लेकिन उसके चोट खाये दिल की क्यों किसी को फिक्र नहीं है?

यह सोच-सोचकर वह बार-बार झुँझलाया और उसने झुँझला-झुँझलाकर इसे बार-बार सोचा। आख़िर वह एक नतीजे पर पहुँच गया। उसे दृढ़ता के साथ समाज की ओर से, दुनिया की ओर से आँखें मूँदकर उत्तेजना की स्थिति में निश्चय किया कि वह घर बसाएगा, ज़रूर बसाएगा, लेकिन इस तरह बसाएगा, कि एक साथ ही उसके हृदय की चोटों पर भी मरहम लग लाए और उसकी विधवा भाभी के जलते जीवन पर भी शीतल जल के छींटें पड़ जाएँ।

दूसरे दिन शाम को जब माँ बाप के पैताने बैठकर उनके पैर दबा रही थी, गोपी पूजा-घर में जाकर धक-धक करता हृदय लिये भाभी के पीछे खड़ा हो गया। भाभी पूजा में तल्लीन थी। रामायण का पाठ चल रहा था...‘‘एहि तन सती भेंट अब नाहीं...’’ भाभी इसी पंक्ति को बार-बार भरे गले से दुहरा रही थी। आँखों से टप-टप आँसू चू रहे थे।

गोपी का हृदय करुणा से भर गया। उसकी आँखों से भी आँसू की धारा बह चली।

आख़िर आँचल से आँखें सुखाकर, भाभी ने पूजा समाप्त कर ठाकुर के चरणों पर सिर नवाया। फिर चरणामृत पान करके उठी, तो सामने देवर को एक विचित्र अवस्था में खड़ा देखकर पहले तो उसकी आँखें फैल गयीं, फिर दूसरे क्षण पलकें झपकने लगीं। जेल से लौटने के बाद गोपी एक बार भी भाभी से आँखें न मिला सका था, एकान्त में मिलने की बात तो दूर रही। भाभी एक बार गोपी की ओर चकित हिरनी की तरह देखकर बगल से जाने लगी, तो गोपी ने प्राणों का सारा साहस बटोरकर अपने काँपते हुए हाथ से उसकी कलाई पकड़ ली। भाभी के मुँह से जैसे एक चीख़-सी निकल गयी, ‘‘बाबू!’’

गोपी का चेहरा तमतमा उठा। आवेश में जलता हुआ वह काँपते स्वर में बोला, ‘‘भाभी, अब मुझसे यह-सब नहीं देखा जाता!’’

भाभी अपने देवर को खूब जानती थी। उसकी एक ही बात, एक ही हरकत से वह उसके मर्म की सारी बातें जान गयी। उसकी आँखों की वीरानी और विवशता पर खुशी की एक किरण फूटी और अदृश्य हो गयी। वह रुदन भरे स्वर में बोली, ‘‘मेरे भाग्य में यही लिखा था, बाबू;’’ और रुदन के उमड़ते आवेश को रोकने के लिए उसने होंठों को दाँतों से भींच लिया।

‘‘मैं भाग्य-वाग्य की बात तो नहीं जानता, भाभी! मैं तो सिर्फ अपने दुख और तुम्हारे दुख की बात जानता हूँ। क्या हम दोनों मिलकर यह दुखी जीवन साथ-साथ नहीं काट सकते? उजड़े हुए दो दिलों के मिलने पर क्या कोई नयी दुनिया नहीं बस सकती?’’ कहकर गोपी ने भरी आँखों से आग्रहपूर्ण निवेदन लाकर भाभी की ओर देखा।

भाभी ने एक ठण्डी साँस ली, दूसरे क्षण उसका चेहरा एक आशा और निराशा की द्वन्द्व भरी करुण मुस्कान से विचित्र सा हो गया। बोली, ‘‘ऐसा कभी नहीं हुआ...बाबू, ऐसा भी क्या...

‘‘ऐसा कभी नहीं हुआ, इसीलिए आगे भी कभी नहीं होगा, यह बात मैं नहीं मानता। भाभी! मैं तो बस यही जानता हूँ और खूब सोच-समझकर देख भी लिया है कि इसके सिवा हमारे-तुम्हारे लिए कोई दूसरी राह नहीं है! मैं तुम्हारी इस अवस्था के रहते अपने जीवन में एक क्षण को भी चैन से न रह पाऊँगा!’’ गोपी ने सीधे दिल की बात कहकर आँखें नीची कर लीं।

उसके हृदय की तड़पती सच्चाई को भाभी समझ न पायी हो, यह बात नहीं। देवर के हार्दिक स्नेह से यह सदा दबी रही है। उसी का सहारा लेकर वह आज भी एक असम्भव को उसी तरह गले लगाये हुए है, जैसे बिच्छी अपने पेट में बच्चों को पालती है। बिच्छी के प्राण उसके बच्चे ले लेते हैं यही सोचकर वह उनसे अपना गला तो नहीं छुड़ा लेती! भाभी के प्राण भी ऐसे ही निकल जाएँगे, वह जानती है। फिर भी उस असम्भव को अपने मन से एक क्षण को भी वह अलग कहाँ कर पायी है? आज के इस अवसर को उसे मुद्दतों से इन्तज़ार था। उसने बहुत बार यह भी सोचा था कि ऐसे अवसर पर वह क्या कहेगी। लेकिन अब अवसर सचमुच उसके सामने आ गया, तो उसे लगा कि मन की बात उसके होंठों पर आयी नहीं कि देवर के सामने वह छोटी हो जाएगी। इस अवस्था में उसे लगा कि उस बात को बरबस दबाना ही पड़ेगा। उसकी विवशता देवर को भी मालूम है, उसे यह भी मालूम है कि भाभी अपने प्यारे देवर के हार्दिक स्नेह, सच्ची सहानुभूति का भार वहन कर सकने में आज कितनी असमर्थ है; वह यह भी जानता है कि उसके किए ही कुछ हो सकता है। भला भाभी के लिए वैसे देवर का निवेदन ठुकरा देना, अपने और उसके अब तक चले आये स्नेह-सूत्र में बँधे सम्बन्ध को तोड़ देना कैसे सम्भव है? इतना सब जानकर भी भाभी के मुँह से कुछ निकालकर उसे वह छोटा क्यों बनाना चाहता है।

असमंजस में पड़ी-सी भाभी बोली, ‘‘हमारा समाज, हमारी बिरादरी, हमारे माँ-बाप ऐसा कभी नहीं होने देंगे, बाबू!’’

‘‘भाभी, इस सबको तुम मेरे ऊपर छोड़ दो, मैं तो तुमसे यह जानना चाहता हूँ कि जिस राह पर चलना मैंने तय कर लिया है, उस पर तुम भी मेरे साथ-साथ चल सकोगी न!’’ कहकर गोपी ने भाभी की कलाई अपने हाथ में दबाकर उसकी ओर ऐसे आँखों में कलेजा निकालकर देखा, जैसे उसके जवाब पर ही उसका जीवन-मरण निर्भर हो।

भाभी के होंठों में कम्पन हुआ। मन की बात होंठों पर आकर उबलने लगी। लेकिन फिर भी, लाख साहस बटोरने के बाद भी मुँह से कुछ निकल न सका। उसके हृदय का द्वन्द्व मुँह तक आयी बात को जैसे गट-से पी गया। हृदय की तूफानी धडक़न पर काबू पाने के लिए उसने अपना तमतमाया, काँपता मुँह नीचे कर लिया। और गोपी को मानो उत्तर मिल गया। उसके जी में आया कि भाभी को खींचकर अपने कलेजे से लिपटा ले। उसके हाथ में एक हरकत भी हुई, लेकिन दूसरे ही क्षण वह अपने को रोकने के लिए ही भाभी की कलाई छोडक़र, झपटकर बाहर हो गया।

भाभी हृदय का उमड़ता आवेग निकालने को ठाकुर के चरणों में गिरकर विह्वल होकर रो पड़ी—‘‘भगवान्! भगवान्! क्या सच ही...’’

गोपी माँ-बाप के सामने जाकर खड़ा हो गया। बाप ने उसकी ओर देखकर पूछा, ‘‘दाना मीसना अब कितना रह गया, बेटा?’’

‘‘आज ख़तम हो गया, बाबूजी।’’

‘‘अच्छा, तो जा, हाथ-मुँह धो ले। भाभी ने रोटी सेंक ली हो, तो गरम-गरम खा ले। दिन-भर का थका-हारा है।’’ फिर अपनी औरत की ओर देखकर कहा, ‘‘फसल घर आ जाती है, तो किसाऩ की साल-भर की मेहनत सुफल हो जाती है। काम से ज़रा फुरसत पा उस दिन वह आराम की एक साँस लेता है।’’

‘‘बाबूजी।’’

बाप ने मुडक़र फिर गोपी की ओर देखकर कहा, ‘‘क्या कहता है? कोई बात है?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘तो कहो!’’

‘‘बाबूजी, अब मैं घर बसाऊँगा।’’

‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है, बेटा! हम तो तुम्हारी इसी बात का, जब से तुम आये, इन्तज़ार कर रहे थे। कर ही लो। तय करते कितनी देर लगेगी! कितने आ-आकर चले गये। अरे हाँ, मटरू इधर महीनों से नहीं आया। कह गया था, मैं ही गोपी का ब्याह कराऊँगा। भूल गया होगा। दाने मीसने से आजकल किस किसान को कहाँ किसी बात की फिक्र रह जाती है! खैर, अब सब ठीक हो जाएगा, बेटा! तुझे कोई चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं!’’ फिर अपनी औरत की ओर मुडक़र खुशी से पागल हुए-से बोले, ‘‘खेत का धन कट-कुटकर जब घर आ जाता है तो किसान का ध्यान खेत से हटकर घर में आ जाता है! क्यों, गोपी की माँ?’’

माँ खुशी में फूली हुई अपने आँचल से अपने लाडले के मुँह पर जमी धूल-गर्द को पोंछती हुई बोली, ‘‘सो तो है ही गोपी के बाबूजी! घर भरता है तो पेट भरता है, और जब पेट भरता है तो...’’ और वह जोर से खी-खी कर हँस पड़ी, तो बूढ़े भी हो-हो कर उठे।

‘‘लेकिन बाबूजी...’’ सिर झुकाये, हाँथों को उलझाता गोपी बोला।

‘‘तुम फिक़्र न करो, बेटा! सब ठीक हो जाएगा, बेटा! मेरे कुल से सम्बन्ध करने का लोभ किसमें नहीं? अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। तू लायक बनकर रहेगा, तो सब बिगड़ी बन जाएगी। वही देखने को तो अभी तक मैं जिन्दा हूँ। क्यों, गोपी की माँ?’’

‘‘और नहीं तो क्या? मेरा लाल सलामत रहे, तो फिर घर खमखम भर जाएगा। हे भगवान!’’ और बूढ़ी ने दोनों हाथ माथे से लगा लिये।

‘‘मगर, बाबूजी,’’ सूखते गले के नीचे थूक उतारता गोपी बोला, ‘‘मैं...मैं ...मुझे...मुझे...अपना घर बसाने के लिए किसी दूसरी लडक़ी को नहीं लाना है। मैंने तय किया कि भाभी...’’

‘‘क्या?’’ क्रोध में काँपते पिता ऐसे चीख पड़े कि उनकी आँखें निकल आयीं। माँ जैसे सहसा जमकर पत्थर हो गयी। उसका मुँह और आँखें सीमा से अधिक फैल गयीं। पिता ने गरजकर कहा, ‘‘मेरे जीते-जी अगर तूने यह बात फिर मुँह से निकाली, तो...तो...तू सुन ले, वह मेरे घर की देवी हो सकती है, लेकिन बहू...बहू वह मानिक की ही रहेगी। तूने अगर...ओह, मानिक की माँ?’’ उनका क्रोध में उठा हुआ कमर से ऊपर का शरीर काँपता हुआ कटे हुए पेड़ की तरह धम से गिर पड़ा और वे दोनों ठेहुनों पर हाथ रखते ज़ोर से कराह उठे। माँ जलती हुई आँखों से गोपी की ओर देखती गुस्से से काँपती उनके ठेहुनों को सहलाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी।

बूढ़े की कडक़ सुनकर कई आदमी लपक आये। भाभी दरवाज़े पर आकर होंठ चबाने लगी।

गोपी हाथों से सिर पकड़े वहाँ से हट गया।

दुनिया समझती है कि बेटा और विधवा बहू माँ-बाप की आँखों के तारे हैं। बूढ़ा कैसे दूसरों से कहता है, ‘‘मेरे घर की लक्ष्मी है! बेवा हुई तो क्या, वह मेरी जान के पीछे है! उसकी सेवाओं का बदला क्या इस जीवन में मैं चुका सकता हूँ? पिछले जनम की वह मेरी बेटी है, अगले जनम में मैं उसकी बेटी बनकर उसकी सेवा करूँगा, तभी ऋण से उऋण हो पाऊँगा?’’ और माँ? ‘‘इसे मैं अपनी आँखों की पुतरी की तरह रखूँगी! मेरे लिए तो यह मेरा मानिक ही है? बड़ी बहू एक दिन घर की मालकिन बनेगी! उसे तुलसी की तरह सब अपने सिर पर रखेंगे!’’ लेकिन कोई भोले गोपी से तो पूछे कि वे उसके लिए क्या हैं? ओह, उनकी आँखों की लपटों ने क्यों नहीं उसे वहीं जलाकर भसम कर दिया, क्यों नहीं बढक़र भाभी को जला दिया, क्यों नहीं फैलकर सारे घर को जला दिया? सब झंझट ही साफ हो जाता। फिर बूढ़ा-बूढ़ी बैठकर मसान जगाते!

गोपी का सारा तन-मन फुँक रहा था। उसके जी में आता था कि अभी सबको नोच-नाचकर रख दे और भाभी का हाथ पकडक़र घर से निकल जाए। कई बार चौपाल से घर में जाने को उसके पैर बढ़े और पीछे हटे! कई बार उसने दाँत भींच-भींचकर कुछ सोचा, लेकिन इतनी हिम्मत उसमें कहाँ थी कि माँ-बाप की छ़ाती पर पैर रखकर वह चला जाए। उसने कब सोचा था कि आख़िर उसे ऐसा भी करना पड़ेगा? वह तो सोचता था कि माँ-बाप का अकेला लाडला जैसे ही मुँह खोलेगा...।

वह विवश क्रोध में पागल-सा हो बाहर निकल पड़ा। उसे भय लगा कि सचमुच वह कहीं कुछ कर न बैठे!

उसकी अब तक बँधी आशा टूट गयी थी। इतने दिनों अपने हृदय से लडक़र उसने उससे जो समझौता किया था, वह व्यर्थ सिद्घ हो गया। पिता की एक बात ने ही उसके अब तक के खड़े किये गये महल को ठोकर मारकर गिरा दिया। एक नयी राह पर चलकर अपनी मंजिल के करीब वह पहुँचा ही था कि उसकी टाँगें तोड़ दी गयीं। आज वह जितना दुखी था, उससे कहीं अधिक क्षुब्ध था। अपने माँ-बाप पर। चली आयी खोखली रीति, समाज के एक थोथे रिवाज, सड़ी-गली एक रूढि़, कुल की एक झूठी मर्यादा के दम्भी पुजारी माँ-बाप अपने खूनी जबड़ों में एक फूल-सी सुकुमार, गाय-सी निरीह, रोगी-सी दुर्बल, निहत्थी-सी अपनी रक्षा करने में बेबस, कैदी-सी गुलाम, सुबह के आख़िरी तारे-सी अकेली युवती को दबाकर चबा डालना चाहते हैं। ओह! इन्हीं आँखों से कैसे वह निर्दयता का यह क्रूर दृश्य देखता रहेगा?

वह बौराया-सा कटे हुए खेतों-खलिहानों में परेशान दिमाग और क्षुब्ध हृदय लिये बड़ी रात तक घूमता रहा। उसे इस वक़्त सिर्फ एक मटरू ही ऐसा आदमी दिखाई देता था, जिसकी गोद में सिर डालकर वह जरा शान्ति का अनुभव करता। शायद वही अब कुछ करे। भाभी की ओर से तो उसे तसल्ली मिल ही गयी। उसके जी में आया, अभी दौडक़र मटरू के पास पहुँच जाए, लेकिन घर की सोचकर कि जाने आज भाभी पर क्या बीते, वह वापस लौट पड़ा।

वह खेतों से घर की ओर चला। चारों ओर सन्नाटा छाया था, काली रात ने सब कुछ ढँक लिया था।

चोर की तरह वह घर की दालान से खटोला निकालने को घुसा तो माँ की कडक़ती हुई आवाज़ सुनकर चौखट पर ठिठक गया।

माँ चोट खायी बाघिन की तरह गरज रही थी, ‘‘कलमुँही! तुझे शर्म न आयी देवर पर डोरा डालते। मैं तो समझती थी कि सावित्री-सी सती है बहू। क्या-क्या पाखण्ड रचे थे, पूजा-पाठ, ध्यान भक्ति, सेवा-सुश्रुषा! मुझे क्या मालूम था कि इस पाखण्ड की आड़ में तू मेरी नाक काटने की तैयारी कर रही है! चुड़ैल! तुझे लाज न आयी यह सब पाप करते? यही-सब करना था, तो तू क्यों न निकल गयी किसी पापी के साथ? तू काला मुँह करती, मेरा बेटा तो बच जाता तेरे जाल से! कितने ही आये रिश्ता लेकर और लौट गये। हम कहें क्या बात है कि वह किसी के कान ही नहीं देता। हमें क्या मालूम था कि भीतर-ही-भीतर तू बेशर्मी का नाटक रच रही है। कुशल है कि बूढ़ा अपंग हो गया है, नहीं तो तुझे आज बोटी-बोटी काटकर फेंक देता! तू चखती मज़ा अपनी करनी का! जा कहीं डूबकर कुल-बोरिन! ...’’

गोपी और ज़्यादा न सुन सका। उसका दिमाग फटने लगा। उसे लगा कि अगर वह एक क्षण भी वहाँ खड़ा रह गया, तो कुछ ऐसा भीषण काम कर डालेगा, जिसका फल अत्यन्त ही भयंकर होगा। वह लडख़ड़ाया हुआ-सा भागकर घर के पास कुएँ की जगत पर दोनों हाथ से फटता सिर दबाये पड़ गया। उसके हृदय में हाहाकार मचा था।

भाभी ने आज तक ऐसी बातें न सुनी थीं। आज जीवन के गुज़रे हुए दिन उसकी आँखों के सामने वैसे ही नाच उठे, जैसे किसी मरने वाले के सामने। माँ-बाप, भाई-बहन का लाड़, मानिक का प्यार, सास-ससुर, देवर का स्नेह। उधर, विधवा होने के बाद ज़रूर कुछ चिड़चिड़ी होकर वह सास से उलझी थी। लेकिन इस तरह की बात कोई कहे, इसका मौका उसने किसी को कभी न दिया था। आज भी उसकी कोई गलती न थी। फिर सास जो ऐसी बातें बिना कुछ जाने-बूझे, सोचे-समझे उसे सुनाने लगी, तो उसके मन की क्या हालत हुई, वह सहज ही समझा जा सकता है। उसका घायल हृदय हाहाकार कर उठा। इस अचानक बेकारण हमले से वह ऐसी सुन्न हो गयी कि न कुछ कह सकी, न रो सकी, न एक आह ही भर सकी। दिमाग भन्ना रहा था, चेतना पर असह्य पीड़ा का खामोश नशा-सा छा गया, अंग-अंग जैसे निर्जीव हो रहा था। जहाँ होश और बेहोशी एक-दूसरे से मिलते हैं, ऐसी स्थिति में वह बुत बनी बैठी रह गयी। सास बड़बड़ाती रही। लेकिन अब उसे जैसे कुछ सुनायी न दे रहा था। उसके सुन्न दिल-दिमाग की गहराइयों में सास की वह एक ही बात गूँज रही थी, ‘‘जा कहीं डूब मर, कुलबोरिन! जा...’’

कभी पहले भी मर जाने की बात उसके मन में उठी थी, लेकिन एक आशा, एक सहारे ने उसके हाथ थाम लिये थे। वह आशा असम्भव ही थी तो क्या, फिर भी आशा थी, लेकिन आज? आज वह भी टूट गयी। जिस तारे पर नज़र लगाये वह आज तक जीवित थी, वही टूटकर गिर पड़ा। अब, सिर्फ अन्धकार है, अन्धकार है, निविड़, कठोर, भयंकर!

बड़बड़ाते-ही-बड़बड़ाते सास खाट पर पड़ गयी और बड़बड़ाते-ही-बड़बड़ाते थककर सो गयी। उसे खाने-पीने, बूढ़े की दवा-दारू, बेटे की खोज-ख़बर, यहाँ तक कि घर का बाहरी दरवाजा बन्द करने की भी गुस्से के मारे सुधि न रही।

अँधेरी रात पल-पल गाढ़ी होती गयी। घर का सन्नाटा गहरा होता गया। वातावरण भाँय-भाँय करने लगा। निर्जनता को भी जैसे नींद आ गयी। साँसें भी जैसे थम गयी हों।

अन्धकार पूर्ण अतल में डूबी हुई भाभी की चेतना में एक हरकत हुई। नशे में बुत-सी वह उठ खड़ी हुई। कोई शब्द नहीं, कोई ख़याल नहीं। उसके बेहोश पैर उठे। यह घर के बाहर की सीढ़ी है, जिस पर भाभी ने इस घर में आने के बाद कभी पैर न रखा था। लेकिन आज वह नहीं है। आज एक लाश है, जो बाहर जा रही है। और उसे तो इस क्षण यह भी ज्ञान न था कि वह क्या कर रही है। एक बेहोशी की चेतना है, जो उसे लिये जा रही है।

यह कुएँ की जगत की सीढिय़ा हैं। दो कदम और...और...फिर...

‘‘कौन?’’ फैली आँखों से देखता अभी तक जगा पड़ा गोपी पुकार उठा।

बेहोशी को अचानक होश आ गया। काँपती भाभी कुँए की दाँती की ओर दौड़ी कि गोपी ने उसे पकड़ लिया। ‘‘कौन है? भाभी तुम?’’ भाभी बेहोश हो उसकी बाँहों में आ रही। यही होने वाला था, यही होने वाला था! गोपी की बुज़दिली का नतीता यही होने वाला था! अब? समय नहीं! जल्दी! जल्दी! सोचने का समय कहाँ, मूर्ख!

और गोपी भाभी को अपनी बाँहों में उठाये भाग चला। अन्धकार, कोई रास्ता नहीं। लेकिन गोपी भागा जा रहा है। रास्ता देखने-समझने का यह समय नहीं। इस वक़्त तो भाभी को उन चाण्डालों से कहीं दूर ले जाना है, वह बस यही जानता है, यही!

चौदह

पौ फटने के पहले ही गोपी लौटकर कुँए की जगत पर पड़ रहा। अभी वह अपने को स्थिर करने की कोशिश कर ही रहा था कि माँ के चीख़ने की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, ‘‘हाय राम! बड़ी बहू घर में नहीं है!’’ लेकिन वह आँखें मूँदें ऐसे पड़ा रहा, जैसे नींद में बेख़बर हो।

धीरे-धीरे मोहल्ले के औरत-मर्द उसके दरवाज़े पर जमा हो गये। गोपी को जगाया गया। वह एक हत्यारे की तरह चुप बना रहा। लोगों ने बहुत सोच-समझकर भीड़ हटायी और हिदायत की सब चुप रहें, किसी को कानो-कान ख़बर न हो; वरना बदनामी होगी सो तो होगी ही, ऊपर से लेने के देने भी पड़ न जाएँ।

लेकिन इस तरह की वारदातें छिपाये कहीं छिपती हैं? बहुतों को इस तरह की संगीन ख़बरें फैलाने में एक अजीब तरह का मज़ा मिलता है। सो, घड़ी-आध घड़ी बीतते दारोग़ा आ धमका।...

दारोग़ा चला गया। गोपी चौपाल में अकेला बैठा सोच में डूबा था। माँ की रुलाई की आवाज़ सुनकर उसका पारा चढ़ रहा था। उसकी समझ में न आता था कि वह क्यों रो रही है? उसी ने तो उसे डूब मरने के लिए कहा था। अब यह ढोंग क्यों दिखा रही है? उसके जी में आता था कि जाकर उसे खूब आड़े हाथों ले और कहे कि अब तो नाक बच गयी! खुशी मनाओ! अपने कुल की मर्यादा का ढोल पीटो! वहअपने बाप से भी झगडऩा चाहता था। अब तो इज्ज़त बढ़ गयी? कलेजा ठण्डा हुआ? हत्यारों! उस मासूम की हत्या का पाप ताज़िन्दगी तुम्हारे सिर पर रहेगा। तुम अपनी बिरादरी को हार बनाकर गले में पहने रहो, रीति-रिवाज की खूब माला जपो!

लेकिन रात की घटना उसके दिल-दिमाग पर इतनी और इस तरह छायी थी, कि वह उठ न सका। सोचने-विचारने पर उसे लगता था कि वह खुद भी माँ-बाप से किसी प्रकार कम अपराधी नहीं था। उसका भी उसमें उतना ही हाथ था, जितना उनका। अगर हिम्मत करके वह माँ-बाप का मुकाबिला कर सकता, सरेआम भाभी का हाथ पकड़ लेता, तो भाभी के लिए ऐसा करने की नौबत क्यों आती? यही ख़याल उसे बेतरह दबाये हुए था। उसकी जबान बन्द थी।

आज वही बात फिर उसके मन में बार-बार उठ रही थी कि सच ही उसके समाज की विधवा लकड़ी का वह कुन्दा है जिसमें उसके पति की चिता की आग एक बार जो लगा दी जाती है, वह जलती रहती है, तब तक जलती रहती है, जब तक वह जलकर राख न हो जाए, और उसके राख हो जाने के पहले उसे बुझाने का किसी को अधिकार नहीं। क्या राख हो जाने के पहले उसने भाभी को बचा लेने की जो कोशिश की, वह उसकी अनाधिकार चेष्टा थी? क्या उसकी सच्ची सहानुभूतिपूर्ण कोशिशों का यही अन्त होना था? आख़िर इसमें बाकी ही क्या रह गया था। भाभी के राख जाने में कसर ही कितनी थी? यह तो संयोग ही था न, जो बच गयी, वरना, वरना...और वह फूट-फूटकर रो पड़ा। ओह! यह क्या होने वाला था! हे भगवान्! तेरा लाख-लाख शुक्र, जो...

और वे सवाल फिर-फिर उसके दिमाग में उठ पड़ते, ऐसा क्यों हुआ? क्यों, क्यों?

और उसके ही अन्तर की आवाज़ उसके जवाब में गूँजने लगती, ‘‘हाँ, तुम सच्चे थे, तुम्हारा दिल भी सच्चा था, तुमने कोशिश भी की ज़रूर! लेकिन उस कोशिश को सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए जिस साहस की जरूरत थी, वह पूरा-पूरा तुममें न था। इस साहस के अभाव ने ही भाभी को राख हो जाने के लिए मजबूर कर दिया था। साहस विहीन इस तरह की कोशिशों का यही अन्त होता है। ये आग को और भडक़ा देती हैं। ये तत्क्षण जलाकर राख कर देती हैं। मूर्ख! अब भी समझ, अब भी सँभल! यह बच्चों का खेल नहीं, यह भावुकता के व्यर्थ के जोश के बस का रोग नहीं! यह आग में फाँदकर आग बुझाना है, यह जीवन पर खेलकर जीवन को बचाना है, यह युगों-युगों से लाखों विधवाओं का खून पीकर बलिष्ठ हुए रीति-रिवाज के भयंकर राक्षस से अकेले लडक़र उसे पछाडऩा है, यह बीहड़ जंगल से एक नयी राह निकालना है! कोई ठट्ठा नहीं, कोई खेल नहीं!’’

और जीवन में कभी भी हार न मानने वाले गोपी को लगा कि जैसे उसके साहस और बल को यह दूसरी ललकार है, जिसके सामने अगर उसने सिर झुका दिया, तो उसकी भाभी जलकर राख हो जाएगी। पहली ललकार जोखू की थी और आज यह दूसरी है। और गोपी को महसूस हुआ कि आज फिर वही खून उसकी नसों में दौडऩे लगा है, जिसकी ताकत के सामने वह किसी को कुछ न समझता था।

कुएँ में काँटा डाला गया, ताल पोखर को छाना गया। और जब कुछ पता न चला, तो तरह-तरह की अफवाहें हवा में उड़ायी गयीं, तरह-तरह की कहानियाँ रची गयीं। औरतों ने भाभी में कितने ही कुलच्छन निकाल डाले, बूढ़ों ने ज़माने को कोस-कोस मारा। यारों ने चरचा चला-चला खूब मज़े लूटे। लेकिन किसी में इतनी हिम्मत न थी कि गोपी के सामने ज़बान खोलता। फिर अपनी चादर के छेद को छिपाकर दूसरे की चादर के छेद में पैर डालकर कहाँ तक फाड़ते? ढेला गिरने से पानी की सतह पर जो हलचल मचती है, वह कितनी देर ठहरती है?

दिन बीतते गये। दुनिया पूर्ववत् चलती रही। और एक रात जब गाँव में सोता पड़ गया था। गोपी के दरवाज़े पर एक भारी-भरकम गोजी धम से बज उठी।

बूढ़े ने, जिसकी नींद आज-कल पहले की बहू वाली सेवा-सुश्रुषा न पाकर हिरण हो गयी थी; यों ही मुँदी आँखें खोलकर टोका, ‘‘कौन?’’

आगन्तुक धीरे से हँसा। फिर बूढ़े की ओर बढ़ता बोला, ‘‘जाग रहे हो, बाबूजी्?’’

‘‘कौन? मटरू है क्या? अरे बेटा, मेरी नींद तो उसी दिन उड़ गयी, जिस दिन से बहू चली गयी। अब तो लाश ढो रहा हूँ। कौन उसके बराबर हमारी सेवा करेगी? बूढ़ी तो ज़रा देर में झल्लाकर भाग खड़ी होती है। अब तो भगवान् उठा लें, यही मनाता रहता हूँ। आओ बैठो। बहुत दिन पर आये! क्या-क्या हो गया, इसी बीच। सोचा था, अब दिन लौटेंगे, लेकिन करम में तो जाने अभी क्या-क्या भोगना बदा है।’’

दीवार से गोजी टिकाकर, पैंताने बैठकर मटरू बोला, ‘‘सब ठीक हो जाएगा, बाबूजी। आप चिन्ता न करें! इस घर को बसाने के लिए ही तो मैं इतने दिनों रात-दिन एक किये रहा। सोचता था कि जब तक काम न बन जाए, कौन मुँह लेकर आपके यहाँ आऊँ। जबान दी थी, तो उसे पूरा किये बिना चैन कहाँ? मटरू की ज़िन्दगी इसी एक बात से तो पैमाल रहती है। अपने स्वभाव को क्या करूँ? गंगा मैया के पानी, मिट्टी और हवा के सिवा ज़िन्दगी का कोई सुख न जाना। हाँ, एक हक और न्याय के सामने किसी को मैंने कभी कुछ न समझा। कई बार मुँह की खाकर भी ज़मींदारों की ऐंठ नहीं जाती। मुँह का लगा हुआ आसानी से नहीं छूटता, बाबूजी! पुश्तों हराम का दीयर से बटोरा है। अब नहीं मिलता, तो दाँत किटकिटाते हैं। सुना है, कानूनगो को पड़ताल करने का हुक्म आया है। अभी तो चारों ओर पानी-ही-पानी है, वह काहे की पड़ताल करेगा? बात अगले साल पर गयी। तब तक हमें भी तैयारी करने का मौका मिल गया है। जान दे देंगे, बाबूजी, लेकिन ज़मींदारों का वहाँ पाँव न जमने देंगे। सालों यह लड़ाई चलेगी। गंगा मैया की किरिपा से हमारी जीत होगी। हक और न्याय हमारे साथ हैं। झूठ, फरेब, धाँधली, जोर-जुलुम की गाड़ी, बहुत दिनों तक नहीं चलती। अब मटरू अकेला नहीं, दीयर और तिरवाही के हज़ारों किसान उसके साथ हैं। अपनी प्यारी धरती पर जान देने वालों से उनकी धरती छीन लेने की ताकत किसमें है? ...इन्हीं झंझटों में फँसा रहा, बाबूजी, नहीं कभी का सब ठीक हो गया होता। इधर गंगा मैया भी फूल उठी हैं। पाँच दिन पहले ही तो अपनी झोंपड़ी उस पार ले गया हूँ। इस पार तो कुत्तों की तरह ज़मींदार मेरी महक सूँघते रहते हैं। अब तुम कहो, यहाँ का कोई समाचार बहुत दिनों से नहीं मिला? ...’’

‘‘क्या कहें बेटा, घर में एक करने-धरने वाली थी, वह भी...’’

‘‘वह तो सुन चुका हू, बाबूजी...’’

‘‘क्या बताऊँ, मटरू बेटा, ऐसी लायक वह थी कि उसकी याद आती है, तो कलेजा फटने लगता है। अब मैं नहीं जीऊँगा।’’ कहते कहते वह रो पड़े।

‘‘बाबूजी, तुम इस तरह अपना जी हलका न करो। तुम्हारे चरणों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ, बाबूजी, कि मैं गोपी को ऐसी बहू ला दूँगा, जो अकेले ही आपकी बड़ी बहू और छोटी बहू, दोनों की जगह भर देगी। आप चिन्ता न करें?’’

‘‘लेकिन गोपी तैयार हो तो, बेटा! वह तो हमसे बहुत नाराज़ है। बोलता भी नहीं। अब तुमसे क्या छिपाऊँ, वह अपनी भाभी के साथ ही घर बसाना चाहता था। यह भला कैसे हो सकता था? जाने उस दिन पगली बूढ़ी ने बहू को क्या कह डाला कि वह घर से निकल गयी। इधर यह हमसे नाराज़ हो घुलता जा रहा है! हमें क्या मालूम था, बेटा, कि इस तरह उसका दिल लगा था। मालूम होता तो हम काहे को कुछ कहते? माँ-बाप के लिए क्या बेटे से बढक़र बिरादरी है? वह भी दो-चार होते तो एक बात होती। यहाँ तो उसी के सहारे हमारी ज़िन्दगी है। बिरादरी वाले क्या हमें खाना दे देंगे? लेकिन हमें क्या मालूम था? अब कितना पछतावा हो रहा है! अरे, मेरी तो बेटी ही निकल गयी। उसके बराबर कौन मेरी सेवा करेगा? लेकिन अब किया ही क्या जा सकता है, बेटा! तुम उसे समझाओ, अब तो होश सँभाले।’’

‘‘समझाऊँगा, बाबूजी। मेरी बात वह नहीं टाल सकता। मुझे अपने मानिक भैया की तरह वह मानता है। तुम चिन्ता न करो, सब ठीक हो जाएगा। कहाँ पड़ा है वह।’’ उठते हुए मटरू ने कहा।

‘‘अरे बेटा ज़रा देर और बैठ। मुझे यह तो बताया ही नहीं कि कहाँ...’’

मटरू धीरे से हँसकर बोला, ‘‘अपने ही घर की लडक़ी है, बाबूजी! यों समझ लो कि मेरी छोटी साली ही है। पण्डित से जँचवा लिया है। गनना-बनना सब ठीक है। रूप-रंग में बिलकुल गोपी की भाभी ही की तरह है। ज़र्रा-बराबर भी फर्क नहीं। गुण में भी उसी की तरह। सेवा-टहल तो इतना करती है, बाबूजी, कि तुमसे क्या कहूँ? तुम देखना न! तुम तो समझोगे कि बड़ी बहू ही दूसरा रूप धारण करके आ गयी! तुम भी क्या समझोगे कि मैं कैसा पारखी हूँ। जब से गोपी की भाभी को देखा था, गोपी के लायक कोई लडक़ी ही नज़र पर न चढ़ती थी। कम कैसे आती घर में? यह तो संयोग कहो कि बिलकुल वैसी ही लडक़ी घर में ही निकल आयी। वे लोग दुआह से उसकी शादी करने को तैयार ही न होते थे। सच भी है, वैसी रूपवती, गुणवती लडक़ी की शादी कोई दुआह से कैसे करे? वह तो मटरू की बात थी कि मान गये। मटरू की बात कोई नहीं टालता, बाबूजी। लेकिन, हाँ घर की हुई तो क्या? मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया है कि जो भी दर-दहेज वे माँगेंगे, देना पड़ेगा। सो, बाबूजी, किसी बात का लिहाज न करना। जो माँगना है, कह दो...’’

‘‘अरे, हमें उससे क्या मतलब है? तू गोपी से ही यह सब तय कर लेना हमें क्या, बेटा? जिसमें सब खुश, उसमें हम खुश। घर बस जाए, बस यही भगवान् से मिनती है। अच्छा, तो जा, सहन में गोपी होगा उससे बातें कर ले। और, बेटा, जितनी जल्दी हो, सब कर डाल। देर अब नहीं सही जाती! हे भगवान्...’’

‘‘सो तो सब तैयारी ही करके आया हूँ, बाबूजी,’’ कहकर मटरू उठा और गोजी में बँधी गठरी खोलकर बूढ़े के हाथ में थमाता हुआ बोला, ‘‘यह मिठाई, धोती और पाँच सौ रुपये तिलक के हैं...

‘‘हैं-हैं, अरे, इतनी जल्दी कैसे होगा यह सब? पर-पुरोहित, बर-बिरादरी...’’

‘‘सो तुम सब करते रहना, बाबूजी। मेरा तो जानते हो, रात का ही मेहमान हूँ! फिर गंगा मैया ऊफनी हुई हैं। पार-वार का मामला है। कौन बार-बार आने जाने की जोखिम उठाएगा? फिर तुम यह सब ले लोगे तो गोपी पर दबाव डालने की एक जगह भी निकल आएगी। मेरा काम कुछ आसान हो जाएगा। यों, काम तो तुम्हारा ही है। अब गोपी को भी टीका लगा दूँ। जय गंगा जी!’’ और वह उठ पड़ा।

गोपी सहन में खटोले पर पड़ा खर्राटे ले रहा था। मटरू ने पहुँचकर एक जोर की धौल जमायी और उसका हाथ पकड़ उठाकर बैठाता हुआ बोला, ‘‘क्यों बे, मैं तो तेरी शादी के चक्कर में इतनी रात को उफनती हुई नदी पार करके आया हूँ और तू यहाँ खर्राटे ले रहा है? आने दे बहू को, फिर देखूँगा कि कैसे खर्राटे लेता है?’’

सकपकाया हुआ गोपी उठकर खड़ा होता धीरे से बोला, ‘‘चौपाल में चलो, मटरू भैया।’’

‘‘और यहाँ क्या हुआ है, बे? ...ओ, शर्म आती होगी! अबे, तूने तो, कुँआरों को भी मात कर दिया?’’

गोपी उसका हाथ खींचकर अन्दर ले गया। उसके हाथ से गोजी लेकर दीवार से टिकाकर बोला, ‘‘मेरी...’’

‘‘अभी चुप रह, मुझे अपना काम कर लेने दे!’’ कहकर उसने बायीं हथेली पर दाहिने हाथ का अँगूठा रगड़ा और कुछ मन्त्र-सा बड़बड़ाता हुआ गोपी के माथे पर तिलक सा लगाने लगा, तो गोपी बोला, ‘‘इसे तूने कोई खेल समझ रखा है?’’

मटरू सहसा हँसोड़ से गम्भीर हो उठा। बोला ‘‘खेल तू कहता है? बहादुरों के लिए मुश्किल-से-मुश्किल काम भी खेल है और बुज़दिलों के लिए आसान-से-आसान काम भी मुश्किल! तू यह बात किससे कह रहा है, कुछ ख़याल है? मटरू ने अपनी जिन्दगी में किसी काम को कभी भी मुश्किल न समझा। उसने मुश्किलों से हमेशा ही खेला है और खेल-खेल में ही सब कुछ सर कर लिया है। तू इस तरह की बात फिर जबान पर न लाना! दुनिया में मुझे किसी बात से चिढ़ है, तो वह बुज़दिली से है और जिस दिन मैंने समझ लिया कि तू बुज़दिल है, उसी दिन तुझे और तेरी भाभी काटकर गंगा मैया की भेंट चढ़ा दूँगा! समझ लूँगा कि एक भाई था, मर गया, एक बहन थी, न रही!’’ उसका गला भर्रा गया और उसने सिर झुका लिया।

गोपी उसकी गोद में सिर डालकर सिसक पड़ा। मटरू उसकी पीठ सहलाते हुए बोला, ‘‘पागल, मेरे रहते तुझे कौन-सी बात की मुश्किल लगती है? उठ, मेरी बात सुन! वक़्त ज्य़ादा नहीं है। रात-ही-रात मुझे वापस जाना है!’’ और उसने गोपी को उठा उसके गालों को थपथपाते हुए कहा, ‘‘सिसवन घाट के सामने मेरी नाव लगी रहती है। वहाँ तू कहेगा, तो मेरी झोंपड़ी तक पहुँचा दिया जाएगा। मैं अपने आदमियों से कह रखँगा। तुझे कोई दिक्कत न होगी। मैंने बाबूजी को तिलक दे दिया। कल पीली धोती पहनना, बिरादरी में मिठाई बँटवा देना। और शादी की तिथि की ख़बर मेरे आदमियों को दिलवा देना। सब बाकायदे हो। दूल्हा बनकर मेरे यहाँ आना। बारात, बारात भरसक न लाना, लाना तो छोटी। गंगा मैया कोप में हैं। खैर, जैसा मुनासिब समझना, करना। मेरी बहन की शादी है। अपने को बेच देने में भी मुझे कोई उज्र न होगा। गंगा मैया फिर झोली भर देंगी। उसके दरबार में किसी चीज़ की कमी नहीं। समझा? मन में कोई वैसी बात न लाना। यह न भूलना कि तू मटरू का भाई है। ऐसा करना कि मटरू की इज्ज़त बढ़े। मटरू की इज्ज़त बहादुर ही बढ़ा सकता है। अच्छा, तो ख़याल रखना मेरी बातों का! सिसवन घाट! अब चलूँ?’’

‘‘मेरी भाभी कैसी है?’’ प्यार से गद्गद गोपी बोल पड़ा।

मटरू हँसा! बोला, ‘‘अबे अब भी वह तेरी भाभी ही है? दुलहन क्यों नहीं कहता? अच्छी है, बिल्कुल अच्छी है! गंगा मैया की हवा जहाँ तन में लगी कि तीनों ताप मिट जाते हैं। वह तो अब ऐसी हरी हो गयी है, कि देखो तो जिया लहराय उठे। इस बीच कभी मौका मिले, तो आ जाना।’’ कहकर उसने गोपी का माथा चूम लिया और उठ खड़ा हुआ।

गोपी ने उसके पाँव पकड़ लिये। मटरू बोला, ‘‘हाँ, अभी से सीख ले, कि बड़े साले का आदर कैसे किया जाता है!’’

‘‘भैया!’’ गोपी ने शर्माकर सिर झुका लिया। मटरू ने उसे उठाकर अंक में भर लिया।

पन्द्रह

मुँह-अँधेरे ही बिलरा सानी-पानी करके आया तो, बूढ़े ने उसे बुलाकर कहा, ‘‘दौड़ा जाकर पुरोहितजी को बुला ला। कहना, साथ ही चलें, देर न करें।’’

‘‘क्यों मालिक, कोई मेहमान आये हैं का? छोटे मालिक का बियाह...’’

‘‘हाँ, हाँ रे, सब ठीक हो गया तू जल्दी बुला तो ला!’’

बिलरा चला, तो उसके पाँवों में वह फुरती न थी, जो ऐसी खुशी के मौके पर हुआ करती है। छोटी मालकिन जिस दिन लापता हुई थीं, उसे बहुत दुख हुआ था। गोपी के आ जाने के बाद उसे छोटी मालकिन को देखने का मौका न मिला था। गोपी ही भूसा वगैरा निकालता था। उसके जी में कितनी बार आया था कि छोटे मालिक से वह अपने मन की बात कहे। कई बार अकेले में बात उसके मुँह में भी आयी थी, और गोपी ने उसकी कुछ कहने की मंशा समझकर पूछा भी था। लेकिन वह टाल गया था, उसे हिम्मत न पड़ी थी। छोटी मालकिन औरत थी, उससे कह देना आसान था। लेकिन यह बात गोपी के साथ न थी। कहीं गुस्सा होकर एकाध थप्पड़ जमा दिया तो? क्षत्री का गुस्सा क्या होता है, इससे उसका कितनी ही बार पाला पड़ा था। आख़िर जब छोटी मालिकिन के भाग जाने की बात उसे मालूम हुई थी, तो उसके मुँह से यही निकला था, ‘‘च...च् कैसे ज़ालिम हैं ये लोग! आख़िर बेचारी को भगाकर ही दम लिया!’’

उसे उस मासूम छोटी मालिकिन की याद बहुत आती थी। बेचारी जाने कहाँ, कैसे होगी। कौन जाने, कहीं इनार-पोखर ही पकड़ लिया हो। उसकी यह सम्वेदना एक भोले-भाले दिलवाले की थी। आख़िर छोटी मालिकिन से उसका नाता ही क्या था? फिर भी उसके लिए जितना सच्चा दुख उसे हुआ था, शायद ही किसी को हुआ हो।

फिर कितनी जल्दी ये लोग उसे भूल गये! जैसे कोई बात न हुई हो। कितने दिन हुए अभी उसे गये? और यहाँ दन से ब्याह ठन गया! खुशियाँ मनायी जाएँगी। बाजे बजेंगे— कितनी स्वार्थी है यह दुनिया! अपने सुख के आगे दूसरे के दुख की यहाँ किसे परवाह है?

बिलरा जब पुरोहित को साथ लिये लौटा तो दरवाज़े पर हंगामा मचा था। बुलावे पर बिरादरी के लोग इकट्ठे तो हुए थे, लेकिन बिना सब कुछ जाने-समझे वे शामिल होने से नकर रहे थे। कहाँ की लडक़ी है, उसके माँ-बाप का खून कैसा है, हड्डी कैसी है? वह रात को बरैछे का सामान देकर क्यों चला गया? क्यों नहीं रूका? इस तरह कहीं किसी का तिलक चढ़ता है?

गोपी एक ओर चुप खड़ा था। बूढ़े ही दीवार के सहारे बैठे उनसे बातें कर रहे थे। पण्डित जी को उन्होंने देखा, तो बुलाकर पास पड़ी चारपाई पर बैठाकर उन्हीं से कहा, ‘‘पण्डितजी, क्या मैं अन्धा हूँ? अपने खून-खानदान की फिक्र मुझे नहीं है? आज ये मुझे याद दिलाने आये हैं। मौके की बात है। मटरू सिंह न रुक सका। लडक़ी उसकी साली है। कई बार कह चुका, समझा चुका, मिन्नत कर चुका, लेकिन इन लोगों की ऐंठ ही नहीं जाती। अपाहिज होकर पड़ा हूँ, तो ये रोब जमाना चाहते हैं। आज ये भूल गये हम कौन हैं?’’

‘‘बिरादरी के मामलों में सब बराबर हैं! आँख से देखकर तो मक्खी नहीं निगली जाएगी! पण्डितजी, आप ही कहिए, शादी है कि कोई ठट्ठा?’’ एक बोला।

पण्डितजी जानते थे कि किधर का पक्ष लेना इस अवसर पर लाभदायक है। उन्होंने खाँसकर, गम्भीर होकर कहा, ‘‘आपका कहा ठीक है। लेकिन भाई, हर मौके के चलाव का विधान भी भगवान् ने बनाया है। आप लोग तो जानते हैं कि मौके पर अगर वर बीमार पड़ जाय, बारात के साथ न जा सके, तो लोटे के साथ भी लडक़ी का विवाह सम्पन्न करा दिया जाता है। मौके का चलाव तो निकालना ही पड़ता है। किसी कारण मटरू सिंह न रुक सके, तो क्या इसीलिए यह मौका निकल जाने दिया जाएगा? नहीं, ऐसी बात तो रीति के विरुद्घ होगी। मेरी राय तो यही है। पंचों की अब जो मर्जी हो।’’

बिरादरी वालों में कानाफूसी शुरू हुई। एक बूढ़ा बोला, ‘‘पण्डितजी आपने कही जो मौके की बात, वह ठीक है। लेकिन यह मौका तो कुछ वैसा नहीं। यह टाला जा सकता है। लगन तो कहीं फागुन में ही पड़ेगा। चार-पाँच महीने अभी हैं।’’

‘‘कैसे टाला जा सकता है? यह धोती, मिठाई रुपया क्या लौटा दूँ।’’ बूढ़े गरम हो उठे।

‘‘कई बार ऐसा भी हुआ है।’’ एक दूसरा बोल पड़ा।

‘‘और मैंने उसे जो जबान दी है?’’ बूढ़े चमक उठे।

‘‘ऐसी कोई हरिश्चन्द्र की ज़बान नहीं है!’’ एक तीसरे ने ताना दिया।

बूढ़े के लिए अब सहना मुश्किल हो गया। वे काँप उठे और गरजकर बोले, ‘‘यह बात किसने मुँह से निकाली है। ज़रा फिर से तो कहे! असली राजपूत बाप का बेटा हुआ, तो उसकी ज़बान न खींच लूँ, तो कहना? अबे गोपिया! तू खड़ा-खड़ा मेरा अपमान देख रहा? ज़रा बता तो उसे कि तेरे बाप को झूठा कहने का नतीजा क्या होता है!’’

बिरादरी में एक क्षण सन्नाटा छा गया। फिर एक कोलाहल-सा मच गया। ‘‘यह जबान खींचने वाले कौन होते हैं? पद आने पर बात कही ही जाएगी। यह सारी बिरादरी का अपमान है! उठो! उठो! ...चलो! कोई गाली सुनने यहाँ नहीं आया। टाट पर बैठने वाला हर आदमी बराबर होता है...इनकी क्या मजाल है? उठो! चलो!’’...

पण्डितजी ‘‘हाँ-हाँ’’ करते ही रह गये। लेकिन धोती झाड़-झाडक़र, सब-के-सब उठकर बौखलाये हुए, आँखें दिखाते वहाँ से चले ही गये। अब तक भरी-भरी, दरवाज़े पर खड़ी बूढ़ी को भी जैसे अब गुबार निकालने का मौका मिल गया। हाथ चमका-चमकाकर वह बोली, ‘‘जाओ-जाओ! तुम्हारे बिना हमारे बेटा की शादी नहीं रुक जाएगी! पण्डितजी, पूजा की तैयारी कीजिए। इनके आँखें दिखाने से क्या होता है? होगा कोई घूरा-कतवार इनकी परवाह करने वाला! यह मानिक के बाप का घराना है; जो अकेले ही हमेशा सौ पर भारी रहा है! क्या समझ रखा है इन्होंने?’’

‘‘सच कहती हो, जजमानिन, यह तो सरासर इनका अन्याय है। पुरोहित की बात भी इन्होंने न मानी। इससे आपका क्या बिगड़ जाएगा? कुछ खर्च ही बच जाएगा। जिसका कोई नहीं, उसका भगवान् है, किसी के बिना कहीं किसी का काम अटका है!’’ कहकर पण्डितजी ने तैयारी शुरू कर दी।

इस तमाशे से सबसे ज्य़ादा खुशी बिलरा को हुई। इन्हीं कम्बख्त बिरादरी वालों के डर से तो छोटी मालिकिन की वह हालत हुई। इस बिरादरी का डर न होता, तो जितनी बेवाओं की ज़िन्दगी तबाह हुई, सब बच जातीं और ठिकाना पा जातीं! यह खुशी बिल्कुल एक प्रतिद्वन्द्वी की जीत की थी। उसे ऐसा लगा कि यह उसी की जीत हुई!

पण्डितजी को खिला-पिलाकर, विदाकर गोपी पीली धोती पहने हुए चौपाल में बैठा सोच रहा था कि चलो, यह भी अच्छा ही हुआ। बिल्ली के भाग से छींका ही टूट गया। रास्ते का एक बड़ा पहाड़ा आप ही हट गया...।

तभी बिलरा आकर उसके सामने बैठ गया।

गोपी ने उसकी ओर देखकर कहा, ‘‘बहुत खुश हो? क्या बात है?’’

‘‘मालिक, तुम्हारी बिरादरी वालों को भागते देखकर आज मुझे बहुत खुशी हुई!’’ हाथों को मलते हुए बिलरा बोला।

‘‘इसमें खुशी की क्या बात है!’’ गोपी यों ही बोला।

‘‘वाह मालिक! इसमें कोई खुशी की बात ही नहीं है? इन्हीं के डर से तो छोटी मालिकिन निकल गयीं। इनका डर न होता, तो काहे को वह घर छोड़तीं?’’ उदास होकर बिलरा बोला।

‘‘हाँ, यह तू ठीक ही कहता है।’’ कुछ खोया-सा गोपी बोला।

‘‘तुम्हें भी बिरादरीवालों का डर था मालिक?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘लेकिन आज तो उनसे तुमने अपना सब नाता तोड़ लिया। पहले ही ऐसा कर लेते, मालिक, तो छोटी मालिकिन को घर क्यों छोडऩा पड़ता? पहले ऐसा क्यों न किया, मालिक?’’ भरे गले से बिलरा बड़े ही दर्दनाक स्वर में बोला।

गोपी उसके इस सवाल से घबरा गया। उसे क्या मालूम था कि यह नीच, गँवार भी ऐसी समझ की बात कर सकता है! वह बिल्कुल अचकचाया-सा उसका मुँह देखने लगा।

बिलरा ही बोला, ‘‘जाने कहाँ किस हालत में होंगी। उनका बड़ा मोह लगता है, मालिक! ऐसी बाछी की तरह वह थीं कि क्या बताऊँ! उनकी याद आती है, तो आँखों से लोर टपकने लगता है!’’ और वह रो पड़ा।

गद्गद होकर गोपी बोला, ‘‘भगवान् तेरे-जैसा दिल सबको दे, तेरे जैसा मोह सबको दे! तू दुख न कर, भगवान् सब अच्छा ही करते हैं। तू चुप रह।’’

‘‘मालिक।’’ सिसकता हुआ बिलरा बोला, ‘‘जब छोटी मालिकिन को देखता था, मन में उठता था कि तुम्हारे साथ उनकी कैसी अच्छी जोड़ी होती! मालिक, बिरादरीवालों का डर न होता, तो तुम उनके साथ ब्याह कर लेते न?’’

गोपी का दिल हिल गया। वह विह्वल-सा होकर, बिलरा का हाथ पकडक़र उसकी आँखें पोंछते हुए बोला, ‘‘तू बड़ा अच्छा आदमी है, बिलरा! जा, सुबह से तू घर नहीं गया। तेरी औरत खोज रही होगी। माई से खयका माँग ले।’’

सोलह

पड़ताल क्या होनी थी, जो होती। कितनी ही धाँधलियों की तरह यह भी किसानों को डराने-धमकाने की एक ज़मींदाराना और अफसरी चाल ही थी। और फिर गंगा मैया की माया कि इस साल पानी हटा, तो दो धारे बन गये, एक इधर और एक उधर और बीच में धरती निकल आयी, दो घाटियों के बीच में पहाड़ी की तरह। यह साल गहरे संघर्ष का था, मटरू जानता था। उसने इसकी पूरी तैयारी भी की थी। अब जो नदी की दो धाराएँ देखीं, तो उसे लगा कि गंगा मैया ने उसके दोनों ओर अपनी विशाल बाँहें फैलाकर उसे अपनी ऐसी रक्षा के घेरे में ले लिया है, कि दुश्मन लाख सिर मारकर भी उसका बाल बाँका नहीं कर सकते।

रेत पर पहले मटरू की झोंपड़ी खड़ी हुई, और देखते-ही-देखते पिछले साल की तरह पचासों झोंपडिय़ाँ जगमगा उठीं।

ज़मींदारों ने सोचा था कि इस साल कोई किसान वहाँ न जाएगा, लेकिन जब यह ख़बर उनके कानों में पहुँची, तो वे खलबला उठे। थाने, तहसील, जिले की दौड़-धूप शुरू हो गयी। इतने दिन चुप रहकर उन्होंने देख लिया था कि ऐसा चलने से वे पुराने दिन नहीं आने के। अब तो कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा, वरना हमेशा के लिए दीयर हाथ से निकल जाएगा। यही आख़िरी बाजी है, हारे तो हार और जीते तो जीत। जान लगाकर, इस बार इधर या उधर कर लेना चाहिए।

मिट्टी तो चिकनी है, लेकिन धरती अभी बहुत गीली है। कहीं-कहीं तो अभी तक दलदल ही पड़ा है। सूखने में बड़ी देर लगेगी। दोनों ओर बराबर ज़ोर की धाराएँ हैं। न भी सूखे। बावग का वक़्त निकला जा रहा है। देर से भी बावग के लायक धरती होगी, इसकी उम्मीद न थी। मटरू चिन्ता में पड़ा था। सब किसान चिन्ता में पड़े थे कि क्या किया जाए, कहीं यह साल खाली न चला जाए।

पूजन की पहुँच धरती के बारे में मटरू से कहीं गहरी थी। यों ही देखने के लिए उसने किनारे के पास एक छोटा-सा गढ़ा घेरकर थोड़ा धान का बीया डाल दिया था। पाँच-छ: दिन के बाद वहाँ हरियाली नजर आयी, तो उसने मटरू से कहा, ‘‘पाहुन, धान बोया जाए, तो कैसा?’’

मटरू ने हँसकर कहा, ‘‘अबे, क्या धान आजकल बोया जाता है।’’

पूजन ने अपने प्रयोग की बात कह के कहा, ‘‘सुना है बंगाल, मद्रास में धान की कई-कई फ़सलें होती हैं। अबकी हमारी धरती भी धान लायक ही मालूम पड़ती है। पानी की कोई कमी नहीं है। नमी महीनों बनी रहेगी। मैं तो कहूँ, पाहुन, बोया जाए। ठाले बैठे रहने से कुछ भी करना बेहतर है। नहीं कुछ हुआ, तो बीया जाएगा और कहीं हो गया तो एक नई बात मालूम हो जाएगी।’’

मटरू उसी क्षण उठ खड़ा हुआ और पूजन के साथ जाकर गढ़े में उगा धान देखा, उसकी आँखें झपक गयीं। कहा, ‘‘सच रे, तेरी बात तो ठीक मालूम होती है।’’

और किसानों से फिर चट राय-बात हुई। पूजन की बात मान ली गयी। बोने की तैयारियाँ शुरू हो गयीं।

गोपी से आने के लिए मटरू कह आया था, लेकिन तब से वह एक बार भी न आया। नाववालों से बराबर सर-समाचार ले-दे जाता है, लेकिन आता नहीं। फागुन सुदी नवमी को लगन है। बारात में दस-पाँच मेहमानों के सिवा कोई न होगा। बिरादरी ने खान-पान बन्द कर दिया है। किसी बात की चिन्ता नहीं।

एक दिन भाभी ने मटरू से कहा, ‘‘भैया, तुमने उससे आने को कहा था न?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘लेकिन वह तो नहीं आया। तुमसे झूठ तो नहीं कहा था?’’

‘‘झूठ क्यों कहता, री? लेकिन वह आये भी कैसे?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘शादी के पहले कोई दूल्हा ससुराल आता है क्या?’’ कहकर मटरू मुस्कुराया॥

‘‘दुत! जाओ भैया, तुम तो दिल्लगी करते हो और यहाँ मन में रात-दिन एक धुकधुकी लगी रहती है...’’

‘‘कि कैसा होगा दूल्हा? भैंसे की तरह काला कि चाँद की तरह गोरा?’’

‘‘हाँ! पहली बार देखना है न?’’

‘‘तो?’’

‘‘जाने क्या-क्या अभी देखना है भाग में! तुम लोगों का यह सब तमाशा जाने क्यों अच्छा नहीं लगता...’’

‘‘तो यहाँ दरवाज़े पर गंगा मैया हैं। कुएँ में डूब मरी होती तो नरक में पड़ती। यहाँ तो गंगा मैया की गोद में समा जाओगी, तो सीधे बैकुण्ठ में पहुँच जाओगी!’’ कहकर मटरू हँसा।

‘‘तुम लोग मुझे ऐसा करने भी तो दो! तुम्हें क्या मालूम कि जब सोचती हूँ कि वहाँ फिर जाने पर कैसी विकट दशा में पड़ूँगी, तो मन कितना बेकल हो जाता है। इससे तो मर जाना कहीं आसान है।’’

‘‘हूँ! तो फिर वही बात? तेरे इस भैया के रहते भी तेरी चिन्ता नहीं जाती? अरे पगली, अब घर बसाने की सोच, एक नई ज़िन्दगी शुरू करने की सोच। जब दो-दो तुम पर जान न्यौछावर करने को तैयार हैं, तो किसकी हिम्मत है, जो तुझे कुछ भी कह सके? तुझे भी ज़रा हिम्मत से काम लेना चाहिए। बिना हिम्मत के इन रीति-रिवाजों को कैसे तोड़ा जा सकता है?’’

‘‘अजब बन्धन से तुम लोगों ने मुझे बाँध दिया!’’

‘‘हाँ, बन्धन का मोह नहीं होता, तो आदमी काहे को जीता? बचपन में एक कहानी सुनी थी हीरामन सुग्गे की। मेरे-जैसा ही एक देव था। उसका मन हीरामन सुग्गे में बस गया था। जब हीरामन मरा, तो वह देव भी मर गया। उसी तरह लगता है कि जिस दिन तू मरेगी, उसी दिन मैं भी मर जाऊँगा।’’

‘‘भैया!’’ भाभी चीख पड़ी, ‘‘ऐसी बात फिर मुँह पर न लाना!’’

‘‘तो तू भी फिर वैसी बात मुँह पर न लाना समझी?’’ कहते-कहते मटरू की आँखें भर आयीं—‘‘ज़िन्दगी जीने के लिए है, परिस्थितियों से लड़ कर जीने का ही नाम ज़िन्दगी है। मन छोटा करके इस दुनिया में नहीं जिया जा सकता!’’

‘‘मैं भी मर्द होती...’’

‘‘नहीं, औरत होकर भी कर, तब तो तारीफ का ढिंढोरा पीटकर मैं लोगों से कह सकूँगा कि एक बहन है मेरी, जो हिम्मत में मर्दों’’ के भी कान काटती है!’’

‘‘तुम्हारे पास रहकर यहाँ कोई डर-भय नहीं लगता।’’

‘‘गंगा मैया की छाया में आकर सब डर भाग जाता है। यहाँ की मिट्टी और हवा ही कुछ ऐसी है। लखना की माँ भी पहले बहुत डरती थी, लेकिन जब से यहाँ रहने-सहने लगी, सब डर-भय छूमन्तर हो गया। अब देखती हो न कैसे रहती है!’’

‘‘हाँ, तुम भी मेरे साथ वहाँ कुछ दिनों के लिए चलोगे न?’’

‘‘क्यों, गोपिया पर भरोसा नहीं क्या?’’

‘‘है, लेकिन उतना नहीं। तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।’’

‘‘अरे लखना की माँ!’’ मटरू ने पुकारकर कहा, ‘‘सुनती है, यह क्या कहती है! यह तो तेरी सौत बन गयी मालूम होती है!’’

लखना की माँ एक ओर बैठी दही मथकर लोनी निकाल रही थी। हँसकर वहीं से बोली ‘‘ऐसी सौत मिले, तो गले की माला बनाकर पहनूँ। बहन, ले, यह मट्ठा तो दे भाई को, कहीं बिना पिये ही न निकल जाए। आजकल इसे किसी बात की सुध थोड़ी ही रहती है।’’

भाभी के हाथ से मट्ठे का लोटा ले, गट-गट पीकर मटरू बोला, ‘‘अच्छा अब चलूँ, थोड़ी बहुत तैयारी तो करनी ही पड़ेगी। बीस-पच्चीस ही दिन तो रह गये लगन के। पूजन को शहर भेजना है आज।’’ और वह ‘‘ए गंगा मैया तोहके चुनरी चढ़इबो...’’ गुनगुनाता हुआ बाहर निकल गया।

गंगा मैया का आँचल धानी रंग में रँगकर लहरा उठा था। देखकर किसानों की छाती फूल उठती। इतना ज़बरदस्त धान आया था कि टाँगे से कटे। रब्बी न बोने का अफसोस जाता रहा। उससे कहीं ज्य़ादा धान की पैदावार होगी। गंगा मैया की लीला अपरम्पार है। उसके आँचल में क्या-क्या भरा पड़ा है, इसका अन्दाज कौन लगा सकता है? जो जितनी सेवा इस धरती की करे, गंगा मैया उसे उतना ही दे! मेहनत कभी अकारथ हुई है?

पूजन ने शहर से आकर अपनी गठरी बहन के सामने रख दी। वह चौके में बैठी मटरू को खयका खिला रही थी। भाभी एक ओर बैठी सूप में गेहूँ फटक रही थी।

मटरू ने कौर निगलकर औरत से कहा, ‘‘खोलकर देख तो, क्या-क्या है?’’ फिर भाभी की ओर मुँह फेरकर बोला, ‘‘अरी, तू भी आ! नहीं तो तेरी भाभी अकेले ही सब हथिया लेगी!’’

भाभी आकर खड़ी हो गयी, तो लखना की माँ ने गठरी खोली। चाँदी के नये-नये गहनों की चमक से आँखें जगमगा उठीं। लखना की माँ का चेहरा खुशी से उद्दीप्त हो उठा। वह एक-एक को उठा-उठाकर देखने लगी। मन की उमंग दबाती हुई भाभी भी झुक गयी।

कड़ा, गोड़हरा, हँसली, बाजूबन्द, हलका...हर-एक का एक-एक जोड़ा। लखना की माँ ने पूछा, ‘‘ये जोड़े क्यों मँगाये? इतने...’’

‘‘क्यों?’’ बीच में ही मटरू बोल पड़ा, ‘‘हमारे घर दो पहननेवालियाँ हैं न?’’

‘‘भैया!’’ भाभी चीख-सी पड़ी, ‘‘मेरे लिए तुमने काहे को मँगाये?’’

‘‘क्यों, भाई के घर से नंगी ही ससुराल जाएगी क्या? कोई देखेगा, तो क्या कहेगा? पगली, यह तू क्यों नहीं समझती कि मेरे कोई लडक़ी नहीं है, और अब’’ कनखी से अपनी औरत की ओर देखकर बोला, ‘‘होने की कोई उम्मीद भी नहीं। तुझसे ही बेटी की साध भी पूरी करनी है! इसने न जाने कितनी बार गहने के लिए कहा था। आज तेरे ही भाग्य से इसके लिए भी आ गये। पसन्द है न?’’

तभी बाहर से एक किसान ने आकर कहा, ‘‘पहलवान भैया, फूलचन गिरफ्तार हो गया। बाहर ख़बर देने एक आदमी आया है। कहता है...’’

खयका अधखाया ही छोडक़र मटरू उठकर बाहर लपका। बाहर बहुत-से किसान जमा थे। सबके चेहरे पर परेशानियाँ थीं। पूछने पर ख़बर लानेवाले ने कहा, ‘‘फूलचन के बाप ने नाव पर ख़बर भेजी है कि फूलचन आज दोपहर को गाँव में आने पर गिरफ्तार हो गया। अपनी बीमार माँ को देखने वह आज सुबह ही घर गया था। दोपहर को दस पुलिसवाले आकर उसे गिरफ्तार कर ले गये। वे औरों को भी खोज रहे थे। कहते थे, सौ आदमियों पर वारण्ट है दीयर के मामले में। ज़मींदारों ने फौजदारी चलायी है।’’

सुनकर सब सन्नाटे में आ गये। ज़मींदार कुछ करने वाले हैं, यह सबको मालूम था, लेकिन अचानक इस तरह वारण्ट कट जाएगा, यह कौन समझता था। सोचकर मटरू ने कहा, ‘‘सब नावें इस पार मँगा लो। उधर के तीर पर एक भी नाव न रहे और इधर उस पार जाने वाली नावों को भी तैयार रखो। सबसे कह दो, कोई गाँव में न जाए। सब लाठियाँ तैयार रखो। सबसे कह दो होशियार रहें। एक नाव सिसवन घाट के सामने उधर से ख़बर लाने के लिए भेज दो। हाँ, फूलचन के बाल-बच्चे कहाँ हैं?

‘‘यहीं अपनी झोंपड़ी में हैं। सब रो रहे हैं।’’ एक ने बताया।

‘‘चलो, उन्हें सँभालो’’, आगे बढ़ता हुआ मटरू बोला, ‘‘सिसवन घाट कौन जा रहा है? कोई होशियार आदमी जाए। गाँवों में अपने आदमियों को भी तैयार रहने की ताकीद करनी होगी। ये ज़मींदार अब खून-ख़राबी पर उतर आये हैं।’’

सत्रह

दूसरे दिन झटपट एक-एक करके सब झोंपडिय़ाँ उठाकर झाऊँ के जंगल में खड़ी कर दी गयीं। तीरों पर जवानों का पहरा बैठा दिया गया। ख़बर मिलती रही कि पुलिस वाले रोज गाँवों का एक चक्कर लगाया करते हैं, लेकिन दीयर के किसानों को यह मालूम था कि जब तक हम यहाँ हैं, कोई हमारा बाल बाँका नहीं कर सकता। इस किले में आकर कोई दुश्मन अपनी जान बचाकर नहीं जा सकता। सब चौकन्ने हो गये थे। कोई अपने तिरवाही के गाँव में नहीं जाता। ज़रूरत की चीजें इधर से पारकर बिहार के कस्बे से लायी जाती हैं। एक ओर से जीवन की डोर कटकर दूसरी ओर जा जुड़ी है। सब ठीक चल रहा है। कोई गम नहीं। धारायें वैसे ही बह रही हैं। धान वैसे ही लहलहा रहे हैं। हवा वैसे ही चल रही है।

लेकिन इधर मटरू कुछ परेशान-सा है। ज़िन्दगी में कभी भी परेशान न होनेवाला मटरू आज परेशान है। बहन की शादी है। कहीं ऐन मौके पर विघ्न न पड़ जाए। फिर कौन-सा मुँह वह दिखाएगा अपनी हीरामन को! आजकल गंगा मैया की टेर उसकी बहुत बढ़ गयी है। उठते-बैठते, सोते-जागते बराबर, उसके मुँह से यही निकलता रहता है, ‘‘मेरी मैया! यह नाव पार लगा दे। मेरी मैया...’’

बहन-बेटी का भार क्या होता है, आज उसे मालूम हो रहा है। न खाना अच्छा लग रहा है, न पीना। औरत और भाभी पूछती हैं, तो रुआँसा होकर कहता है, ‘‘जी नहीं होता। सोचता हूँ मेरी बहन चली जाएगी, तो मेरी यह झोंपड़ी कितनी उदास हो जाएगी!’’

‘‘तो जाने क्यों देते हो? रोक लो!’’ औरत परिहास करती।

‘‘क्या बताऊँ? ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई’...और गुनगुनाता हुआ वह वहाँ से हट जाता है। बाहर निकलकर वही टेर लगाने लगता है, ‘‘मेरी मैया! यह नाव पार लगा दे! मेरी मैया...’’

मैया ने बेटे की पुकार सुन ली थी। सकुशल वह दिन आ पहुँचा। शाम के धुँधलके झुकते ही सिसवन घाट पर बारात उतरी। नाऊ, पण्डित, वर और पाँच बराती। न बाजा, न गाजा। जैसे पार उतरनेवाले राही हों।

फिर भी, उस दिन रात-भर झाऊँ के जंगलों में हवा शहनाई बजाती रही। गंगा मैया की लहरें किसानिनों के गले से गला मिलाकर मंगल के गीत रात-भर गाती रहीं। किसानों की टिमकी बजी। बिरहों की बहारें लहरायीं। रात-भर मधु की ओस टपकती रही, टप, टप!

जंगल की नन्हीं-नन्हीं चिडिय़ों और नदी के बड़े-बड़े पंछियों ने एक साथ मिलकर जब प्रभाती शुरू की, तो विदाई की तैयारियाँ होने लगीं।

दुलहन लखना की माँ से लिपटकर वैसे ही रोयी, जैसे एक दिन वह अपनी माँ से लिपटकर रोयी थी। लखना और नन्हों को वैसा ही चूमा-चाटा, जैसे एक दिन अपने भतीजों को चूमा-चाटा था। फिर पूजन की भेंट ली। मटरू इन्तजाम में भागा-भागा फिर रहा था। न जाने क्यों उसे बड़ी घबराहट-सी हो रही थी। बहन उसके पाँव पकडक़र रोएगी, तो वह क्या करेगा, उसकी समझ में न आ रहा था।

आख़िर सवारी दरवाजे पर आ लगी, विदा की घड़ी आन पहुँची। बहन भेंट करने के लिए भैया का इन्तज़ार कर रही है। अब भागकर कहाँ जा सकता है?

दिल कड़ा करके वह खड़ा हो गया। दुलहन पाँव पकडक़र रोने लगी। लखना की माँ ने उसे उठाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह पाँव छोडऩे ही पर न आती। मटरू बुत बना खड़ा था। रुदन की किन मंज़िलों से चुप-चुप वह गुजर रहा था, यह कौन बताए?

आख़िर जब वह उसे उठाने के लिए झुका, तो दो पत्थर के आँसू टपक पड़े। उसकी बाँहों में खड़ी, उसके कन्धे पर सिर डालकर दुलहन ने कहा, ‘‘तुम साथ चलोगे न?’’

‘‘यह क्या कहती है, बहन!’’ लखना की माँ ने चिन्तित होकर कहा, ‘‘इस पर वारण्ट है न!’’

मटरू ने उसका मुँह हाथ से बन्द करना चाहा, लेकिन वह कह ही गयी।

दुलहन ने सिर उठाकर जाने किस व्याकुलता पर काबू पाकर कहा, ‘‘नहीं, भैया, तुम्हारे जाने की ज़रूरत नहीं, लेकिन बहन को भूल न जाना! माँ-बाप, भाई-बहन सबको खोकर तुम्हें पाया है, तुम भी भुला दोगे, तो मैं कैसे जीऊँगी?’’

‘‘नहीं-नहीं, मेरी हीरामन! तुझे भुलाकर मैं कैसे रह सकूँगा? तू हिम्मत से काम लेना। मैं...’’ और ज्य़ादा कुछ कह सकने में असमर्थ हो हट गया।

तीर तक उदास मटरू गोपी को समझाता रहा। गोपी ने उसे आश्वासन दिया कि चिन्ता की कोई बात नहीं, वह हर हद तक तैयार है। लेकिन मटरू को सन्तोष कहाँ? उसके कानों में तो वही बात गूँज रही थी, ‘‘तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।’’

नाव चली जा रही है, बाल-बच्चों, किसान-किसानिनों के साथ खड़ा मटरू ताक रहा है, उसकी उदास आँखे जैसे उस पार, दूर एक तूफ़ान को आते देख रही हैं, जो उसकी बहन का स्वागत करने वाला है। ओह, वह साथ क्यों न गया?

घर आकर उदास मटरू चटाई पर पड़ रहा। उदास धूप फैल गयी है। दूध के मटके एक ओर पड़े हैं। उन पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। थकी गृहिणी को जैसे कोई होश ही नहीं। सचमुच घर कितना उदास हो गया है। मटरू का दिल भरा-सा है। खूब रोने को जी चाहता है। एक ही कलक मन को मथ रही है, वह बहन के साथ क्यों न गया?

काफी देर के बाद गृहिणी उठी। इस तरह बैठे रहने से काम कैसे चलेगा? सारा काम-धाम पड़ा है। मर्द के पास आकर बोली, ‘‘जाओ, नहा-धो आओ। इस तरह कब तक पड़े रहोगे?’’

‘‘नहा-धो लूँगा,’’ मटरू ने अनमने ढंग से कहा, ‘‘मुझे उसके साथ जाना चाहिए था। जाने बेचारी पर क्या पड़े?’’

‘‘गोपी क्या मर्द नहीं है?’’ तुनककर औरत बोली, ‘‘तुम तो नाहक सोच फिकिर कर रहे हो! उठो!’’ कहकर उसकी देह पर की चादर खींचने लगी।

‘‘मर्द है तो क्या हुआ? आखिर माँ-बाप का लेहाज तो आदमी को करना ही पड़ता है। मुझे डर लगता है, कहीं उसने कमज़ोरी दिखाई तो मेरी हीरामन का क्या होगा? मुझे जाना चाहिए था, लख़ना की माँ!’’

‘‘कुछ होगा तो ख़बर मिलेगी न! इस वक़्त तो तुम उठो। देखो, कितनी बेर हुई। घर का सारा काम अभी उसी तरह पड़ा है!’’ कहकर अन्दर से धोती-दातून ला उसके हाथों में थमाती बोली, ‘‘जाओ, जल्दी नहा-धो आओ! मन हल्का हो जाएगा।’’

किसी तरह कसमसाकर मटरू उठा और तीर की ओर चल पड़ा।

आज गंगा-स्नान में वह आनन्द न आया। ज़िन्दगी में इस तरह का यह पहला अनुभव था। उसे लग रहा था कि आज गंगा मैया भी उदास है। उसकी धारा में वह जोर नहीं, उसकी लहरों में वह थिरकन नहीं, उसमें तैरती मछलियों में वह चपलता नहीं। कहीं कोई तार ढीला हो गया है। साज बेसाज़ हो गया।

‘तुम्हारे पास रहकर यहाँ कोई डर भय नहीं लगता...जब सोचती हूँ कि वहाँ फिर जाने पर कैसी आफत और विकट दशा में पड़ूँगी, तो मन कितना बेकल हो जाता है...तुम भी मेरे साथ वहाँ कुछ दिनों के लिए चलोगे न? ...तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं...’ मटरू के मन में ये बातें गूँज-गूँज जाती हैं और उसे लगता है कि उसने जान-बूझकर ही अपनी हीरामन को उस विकट परिस्थितियों में अकेली झोंक दिया है। और वह मन-ही-मन तड़प उठता है। क्यों, क्यों वह नहीं साथ गया? क्यों उसे अकेली छोड़ दिया? क्यों उसके साथ विश्वासघात किया?

वारण्ट! यहाँ का उसका कर्तव्यर! कहीं उसे कुछ हो गया होता, तो यहाँ उसके साथियों की क्या हालत होती? ...साथी उसके अब पहले की तरह बेवकूफ नहीं हैं। उन्हें अपने पाँवों पर खड़ा होना सीखना चाहिए। मटरू आखिर हमेशा उनके साथ कैसे बना रहेगा? मटरू के जीवन में पहले एक ही कर्तव्यर था, लेकिन अब तो दो हो गये हैं। उसे अपने दोनों कर्तव्योंा को निभाना है। दोनों मोर्चों पर बराबर के दुश्मन हैं। एक के ज़ालिम पन्जों में पडक़र कितने ही किसान तड़प रहे हैं और दूसरे के खूनी जबड़े में एक बहन कराह रही है। एक नहीं अनेक! उनके लिए भी रास्ता निकालना है।

घाट पर बैठा, खोया-खोया मटरू जाने ऐसी ही क्या-क्या ऊल-जलूल बातें सोचे जा रहा था कि पूजन ने आकर कहा, ‘‘बहना तुम्हें बुला रही है। चलो, जल्दी करो। कब के यहाँ यों बैठे हो?’’ कहकर मटरू के सामने पड़ी भीगी धोती उसने उठा ली।

चलते-चलते मटरू ने कहा, ‘‘पूजन, एक बात पूछूँ?’’

‘‘कहो?’’

‘‘अगर मैं न रहा, पूजन तो तुम लोग सब सँभाल लोगे न?’’

‘‘लेकिन तुम रहोगे कैसे नहीं? गंगा मैया तुमसे छोड़ी जा सकती हैं?’’

‘‘नहीं, छोड़ी कैसे जा सकती हैं? लेकिन मान लो मैं न रहूँ?’’

‘‘वाह! यह कैसे मान लें?’’

‘‘अरे, उस दफे नहीं हुआ था। मैं क्या गंगा मैया को छोड़ सकता था? लेकिन संयोग कि पुलिसवालों की पकड़ में आ गया। उसी तरह ़़ ़ ़

‘‘अब यह कैसे हो सकता है, पाहुन? तब तुम अकेले थे। अब सैकड़ों जवान तुम पर जान देने को तैयार हैं। भले ही हमारी जान चली जाए, लेकिन तुम्हारा बाल बाँका न होने देंगे! पाहुन, तुम धरती की जान हो!’’

‘‘सो तो है लेकिन संयोग...’’

‘‘नहीं-नहीं, पाहुन, ऐसा संयोग आ ही नहीं सकता...’’

‘‘ओफ, तुमसे तो बात करना ही मुश्किल है, पूजन! अच्छा मान ले, मैं मर ही गया।’’

‘‘पाहुन!’’ पूजन चीख पड़ा, ‘‘ऐसी बात मुँह से क्यों निकालते हो?’’

‘‘पूजन!’’ गम्भीर, विह्वलता के स्वर में मटरू बोला, ‘‘गंगा मैया का उनकी धरती का, इन खेतों का, इस हवा और पानी का, इस जंगल और इन किसानों का और अपने साथियों का मोह मुझे अपने बाल-बच्चों की तरह, बल्कि उनसे भी कहीं ज्य़ादा है। आज ख़याल आ गया कि कहीं मैं न रहा, तो अन्यायी ज़मींदारों के पाँव इस धरती पर फिर तो नहीं जम जाएँगे?’’

‘‘नहीं पाहुन, नहीं! अगर यही बात है, तो सुन लो कि तुम्हारे साथी अपने खून की आख़िरी बूँद तक से इसकी रक्षा करेंगे! जिस तरह गुज़रा ज़माना फिर वापस नहीं आता, उसी तरह ज़मींदारों के उखड़े पैर यहाँ फिर नहीं जम पाएँगे! हमारा ज़ोर दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। हमारे साथी बढ़ते जा रहे है। ज़माना आगे बढ़ रहा है! नहीं, पाहुन, वैसा कभी न होगा! यहाँ का हर किसान आज मटरू बनने की तमन्ना रखता है! तुम इसकी चिन्ता न करो, पाहुन!’’

‘‘शाबाश!’’ मटरू ने पीठ ठोंककर कहा, ‘‘आज मैं खुश हूँ, बहुत खुश, पूजन! ऐसा ही होना चाहिए, ऐसा ही!’’

और सचमुच उदासी छँट गयी। चेहरा पहले ही की तरह दमक उठा। आँखें चमक उठीं।

लेकिन जैसे ही झोंपड़ी में घुसा, वह पहले की ही तरह फिर उदास हो गया।

औरत ने चौके में पीढ़ी डाली। लोटा भरकर पानी रखा। फिर बोली, ‘‘आओ, रोटी खा लो।’’

बैठकर मटरू ने पहला कौर तोड़ते हुए कहा, ‘‘जी नहीं कर रहा।’’

‘‘जी कैसे करे? तेरी हीरामन तो चली गयी!’’

‘‘ऊँहूँ, उसके जाने की चिन्ता नहीं।’’

‘‘फिर?’’

‘‘जाने उस पर क्या बीते? अब तो पहुँच गयी होगी।’’

‘‘बीतेगी क्या? ‘हम-तुम राजी तो क्या करेगा काजी?’ गोपी तैयार है, तो उसका कौन क्या बिगाड़ लेगा?’’

‘‘सो तो है रे, लेकिन यह हत्यारा समाज बड़ा ज़ालिम है। कितने ही गोपियों को इसने ज़िन्दा चबा डाला है। और गोपी कुछ कमज़ोर है भी। वैसा न होता, यह कहानी इतनी लम्बी क्यों होती? वह तो संयोग कहो, कि गोपी कुँए पर जगा पड़ा था, नहीं तो कहानी खत्म होने में देर ही क्या थी? सोचता हूँ कि जिस वक़्त गोपी की माँ उसकी भाभी को जली-कटी सुना रही थी, अगर उसी वक़्त हिम्मत करके, आगे बढक़र गोपी अपनी भाभी का हाथ थाम लेता, तो कौन उसका क्या कर लेता? लेकिन वह वैसा न कर सका। औरत का मर्द पर से एक बार विश्वास हट जाता है, तो फिर मुश्किल से जमता है। कहती थी न वह, ‘‘तुम पर जितना विश्वास होता है, उतना उस पर नहीं।’’

‘‘तो तुम्हारे ही विश्वास पर उसकी ज़िन्दगी पार लगेगी? आख़िर...।’’

‘‘अरे, सो तो है री, कौन किसकी ज़िन्दगी पार लगा देता है? वक़्त की बात होती है। उसे इस वक़्त मेरे सहारे की ज़रूरत थी। दो-चार दिन में आँधी गुजर जाती, तो सब आप ही ठीक हो जाता...’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा। रोटी खाओ!’’ छिपली में गरम दूध डालती हुई औरत ने बात ख़त्म कर दी, ‘‘जो हुआ हमसे, किया न? कौन इतना गैर के लिए करता है?’’

‘‘तू औरत है न, लखना की माँ,’’ दर्द-भरे स्वर में मटरू बोला, ‘‘मेरे और मेरे बच्चों के सिवा तेरा कोई अपना नहीं, मैं किसी को अपना बना लूँ तो ऊपर से तू भी उसे अपना कह देगी। मेरी मंशा ही तो तेरी मंशा है। तेरा दिल इतना बड़ा, इतना आज़ाद कहाँ कि मेरी मंशा के ख़िलाफ भी तू अपनी मंशा से किसी गैर को अपना बना ले। गोपी की भाभी जब तक यहाँ रही, तू उसे अपनाये रही, क्योंकि यही मेरी इच्छा थी। लेकिन मन तेरा अन्दर से उसे अपना न बना सका। लखना की माँ, मान ले कि कहीं तू आफत में फँस जाए और तेरी मदद को मैं न जाऊँ तो?’’

‘‘चुप भी रहो! खा लो, फिर फेटना न बैठकर!’’

जी न होते भी मटरू ने भर पेट खाया। औरत का इसमें कोई दोष नहीं। वह जानता है, जैसी वह बनी है, वैसा ही व्यवहार तो करेगी। न खाकर उसका मन मैला क्यों करे?

चटाई बाहर धूप में बिछाकर, हुक्का ताजा कर औरत ने रख दिया। मटरू गुडग़ुड़ाता रहा और सोचता रहा। सोचते-सोचते ऊँघनेलगा। रात-भर का ज़ागा था। हुक्का एक ओर टिकाकर फैल गया और थोड़ी देर में ही नींद में डूब गया। औरत ने चादर लाकर ओढ़ा दी।

शाम ढल गयी।

कहीं कोई आफत का मारा अकेला तोता बड़े दर्दनाक स्वर में टें-टें चीखता हुआ मटरू के सिर पर से उड़ा, तो मटरू की नींद खुल गयी। जाने किस सपने में चौंककर वह पुकार उठा, ‘‘पूजन! पूजन!’’

दौड़ते हुए आकर पूजन ने कहा, ‘‘तूफान आ रहा है, पाहुन। उत्तर का आसमान काला हो गया!’’

तोते की टें-टें आवाज़ अब भी आसमान में गूँज रही थी। मटरू चादर फेंककर खड़ा हो गया। फिर इधर-उधर आँखें फैलाकर देखता बोला, ‘‘पूजन, मेरी हीरामन तूफान में फँस गयी है, सुन रहा है न उसका चीत्कार!’’ और सिसवन घाट की ओर पैर बढ़ा दिये।

दरवाज़े पर खड़ी औरत चिल्लायी, ‘‘कहाँ जा रहे हो?’’

पूजन बोला, ‘‘इस तूफान में कहाँ जा रहे हो?’’

मुडक़र मटरू ने कहा, ‘‘अभी लौट आऊँगा।’’

तूफान आ गया, गंगा मैया की लहरें, चीख़ उठीं; हवा सूँ-सूँ कर उठी। जंगल सिर धुनने लगा। धरती हिलने लगी। झोंपडिय़ाँ अब गिरीं, अब गिरीं।

घाट पर नाववाले से मटरू ने कहा, ‘‘खोलो, जल्दी करो!’’

‘‘इस तूफान में, पहलवान भैया? यह क्या कह रहे हो?’’ नाववाला आँख-मुँह फाडक़र बोला।

‘‘कोई हर्ज नहीं! अपनी मैया की ही तो लहरें हैं! उठाओ लग्गी! मुझे जल्दी है! लाओ, मुझे दो! तुम चुपचाप बैठे रहो!’’ और मटरू ने नाव खोल दी। देखते-देखते चिंग्घाड़ती लहरों में नाव अदृश्य हो गयी।

गोपी के दरवाज़े पर मटरू की गोजी धम से जब बोली, तूफान गुजर चुका था। बाद का सन्नाटा घर पर छाया था। हमेशा की तरह बूढ़े ने आवाज न दी। मटरू खुद ही आगे बढक़र बोला, ‘‘पाँय लागों, बाबूजी!’’

बाबूजी चुप!

‘‘नाराज़ हो क्या, बाबूजी? नयी बहू पसन्द नहीं आयी क्या? वह क्या बिल्कुल तुम्हारी बड़ी बहू की तरह नहीं है? मैंने कहा था न...’’

‘‘हट जाव मेरे सामने से!’’ बूढ़ी हड्डी चटख उठी।

‘‘हट कैसे जाएँ? रिश्तेदारी की है कोई दिल्लगी है?’’

‘‘मेरी नाम-हँसाई करके जले पर नमक छिडक़ने आया है? ढोल तो पिट गया गाँव-भर में! क्या बाकी रह गया? मुझे पहले ही क्यों न मार डाला, चाण्डालों!’’

‘‘ऐसा क्यों कहते हो, बाबूजी! तुम मेरी उमर भी लेकर जीओ! उस दिन तुम्हीं ने तो कहा था, ‘‘उसकी याद आती है तो कलेजा फटने लगता है। माँ-बाप के लिए क्या बेटे से बढक़र बिरादरी है! बिरादरीवाले क्या हमें खाना देंगे...लेकिन हमें क्या मालूम था...’’ अब तो हो गया मालूम! अब तो कलेजा नहीं फटना चाहिए। लेकिन यहाँ तो...’’

‘‘चुप रह! मैं क्या समझता था, कि तुम-सब ऐसे पागल...’’

मटरू हँसा। बोला, ‘‘पागल तुम और तुम्हारा समाज है, बाबूजी! लेकिन जो उनका अन्धेरखाता और पागलपन ख़त्म करके एक गऊ की जान बचाने के लिए आगे बढ़ता है, उसे ही वे पागल कहते हैं।’’

‘‘यह-सब जा-कर तू उसी से कह! मेरे सामने से हट जा।’’

‘‘कहाँ है वह!’’

‘‘चौपाल में।’’

‘‘चौपाल में? घर में नहीं?’’

‘‘मेरे जीते-जी वह घर में पाँव नहीं रख सकता!’’

‘‘तो उनका एक घर और भी है। चौपाल में क्यों रहेंगे? मैं अभी...’’

‘‘बाप-बेटे के झगड़े में तू क्यों पड़ा है? तू जाता क्यों नहीं?’’

‘‘यह बाप-बेटे का झगड़ा नहीं है। यह पूरे समाज और उसकी लाखों विधवाओं का झगड़ा है। इसके साथ मेरी बहन की ज़िन्दगी का वास्ता है।’’

‘‘वह मेरा बेटा है...’’

‘‘नहीं, जिस बेटे को तुमने घर से निकाल दिया...’’

‘‘अरे, यह क्या शोर मचा रखा है?’’ बूढ़ी चीखती हुई आ गयी।

‘‘छाती पर मूँग दलने मटरू आया है!’’ बूढ़े ने करवट लेकर कहा।

‘‘गाँव-घर में तो थू-थू करा दिया! अब क्या बाकी है?’’ बूढ़ी ने हाथ चमकाकर कहा।

‘‘उन्हें लिवाने आया हूँ!’’ मटरू ने कहा।

‘‘तू कौन होता है उन्हें लिवा जाने वाला? उसके माँ-बाप क्या मर गये हैं?’’ बूढ़ी ने उसके मुँह पर थप्पड़ उलाते हुए कहा।

‘‘आज मालूम हुआ कि मर गये! नहीं तो वे घर से निकालकर चौपाल में नहीं डाले जाते।’’

‘‘यह तुझसे किसने कहा?’’ बूढ़ी ने शान्त होकर कहा।

‘‘बाबूजी...’’

‘‘इनकी मति को तुम क्या लिये फिरते हो? इधर आओ।’’ कहकर बूढ़ी उसका हाथ पकडक़र घर के अन्दर ले जाकर फुसफुसाकर बोली, ‘‘देखकर मक्खी नहीं निगली जाती! क्या करते, टोले मुहल्लेवाले, गाँव-गोंयड़े के सब-के-सब कीचड़ उछालने लगे, तो बुढ़ऊ ने उन्हें चौपाल में कर दिया। मैंने बहुत सहा। जब सहा न गया, तो मैं भी उघटा-पुरान लेकर बैठ गयी। इसी गाँव में मेरे बाल सफेद हुए हैं। किसी का कु छ छिपा नहीं है मुझसे। जब झाडऩे लगी, तो सब दुम-दबाकर भाग गये। तुम्हीं कहो, किसी चमार-डोमिन से मेरी बहू ही ख़राब है? डंके की चोट पर उससे ब्याह किया है! शोहदों-घठियों की तरह चोरी-लुक्के तो अपना मुँह काला नहीं किया? माना कि उसने बुरा किया, लेकिन पागल बनकर कर ही डाला, तो क्या उसका सिर उतार लिया जाए? बेटा ही तो है। लाख बुरा उसका माफ किया, तो एक और सही। अपने सड़े हाथ कोई काटकर तो नहीं फेंक देता। भगवान् ने जो माला गले में डाल दी, उसे उतारकर कैसे फेंक दूँ? मैं उन्हें खुद घर में ले आयी हूँ। उनका घर है। कौन उन्हें निकाल सकता है? हम बूढ़ों का क्या ठिकाना? आज हैं, कल नहीं। उन्हें तो भोगने को सारी ज़िन्दगी पड़ी है। जैसे चाहे रहें! ...तू खाएगा न? रसियाव-पूरी बनायी है रे!’’

मटरू ने झुककर बूढ़ी के पैर छू लिये और गद्गद होकर कहा, ‘‘माई तू कितनी अच्छी है! यह बाबूजी तो...’’

‘‘ताजा गुस्सा है! सब ठीक हो जाएगा। बाप बेटे पर कब तक नाराज़ रह सकता है? खाएगा? हाथ-पैर धो न!’’

‘‘वे कहाँ हैं? मटरू ने बूढ़ी के कान में कहा।

बूढ़ी ने मुस्कुराते हुए उसके कान में कुछ कहा। मटरू भी मुस्करा पड़ा।

‘‘चल चौके में’’ आगे बढ़ती हुई बोली, ‘‘खा ले।’’

‘‘अब कैसे खाऊँ? वह मेरी छोटी बहन है न। उसका धन...मैं अब चलूँगा गंगा मैया पुकार रही हैं। सब परेशान होंगे।’’

तभी बगल की कोठरी का दरवाज़ा खुला और खुशी की दो मूरतों ने निकलकर मटरू के दोनों पैर पकड़ लिये।

गद्गद होकर मटरू ने कहा, ‘‘गंगा मैया तेरा सुहाग अमर रखें, मेरी हीरामन!’’

खड़ी होकर, घूँघट में सिर झुकाये हीरामन बोली, ‘‘जैसे होंठों से लाज टपके, गंगा मैया को मैंने चुनरी भाखी थी, भैया। भाभी से कह देना, चढ़ा देगी।’’

समाप्त

1952

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