गणेशजी की दुर्लभ प्रतिमा (विज्ञान कथा) : जयन्त विष्णु नार्लीकर
Ganeshji Ki Durlabh Pratima (Story in Hindi) : Jayant Vishnu Narlikar
ओवल के बाहर जैसे ही मैं बस से उतरा, मुझे पूर्वाभास हुआ कि मैं कुछ अनोखा
देखने जा रहा हूँ। बीती घटनाओं के मद्देनजर आज मुझे ऐसे पूर्वाभास का कोई
कारण नजर नहीं आता। लेकिन फिर परिभाषा के आधार पर क्या पूर्वाभास बिना किसी
कारण के नहीं होते हैं ? अभी तक मुझे जो अनोखी चीज दिखाई दे रही है वह यह है
कि मुझे स्टेडियम में जाकर टेस्ट मैच देखने की फुरसत मिल गई और इसका कारण
बताया जा सकता था। गेट पर कंप्लीमेंटरी पास दिखाते वक्त अनायास ही मेरी
उँगलियाँ उसके साथ लगी चिट से खेलने लगीं-
14 अगस्त, 2005
प्रिय जॉन,
मेरी तुमसे हाथ जोड़कर विनती है कि इस टेस्ट में मेरा खेल देखने के लिए जरूर
पधारो, जो कि मेरा अंतिम मैच होने जा रहा है। आशा है, तुम जरूर आओगे!
अभिवादन,
तुम्हारा विश्वासपात्र
प्रमोद रंगनेकर
प्रमोद और मैं कैंब्रिज की क्रिकेट टीम की जान हुआ करते थे, जिसने सन् 1989
में विश्वविद्यालय मैच जीता था। बाद में प्रमोद पेशेवर क्रिकेट खिलाड़ी बन
गया और वेस्टइंडीज, ऑस्ट्रेलिया एवं एम.सी.सी. के खिलाफ उसने अपने बेहतरीन
खेल के झंडे गाड़ दिए। वहीं मैं एक इंडोलॉजिस्ट (भारतविद्) बन गया। मेरा
कार्य कुछ ऐसा था कि क्रिकेट से मेरा नाता ही टूट गया।
और अब संग्रहालय के क्यूरेटर के रूप में तो मुझे दम भरने की फुरसत भी नहीं
मिलती। सचमुच 15 साल के लंबे अंतराल के बाद क्रिकेट मैदान पर जाना मेरे लिए
किसी सदमे से कम नहीं था।
आज खेल का दूसरा दिन था और मैंने यही दिन चुना था, क्योंकि आज भारत को
फील्डिंग करनी थी और मैं प्रमोद को खेलते देख सकूँगा। कल, पहले दिन के खेल
में चमकदार धूप में खेलते वक्त भारत से विशाल स्कोर की उम्मीद थी। लेकिन
भारतीय बल्लेबाज उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे और कुल 308 रन बनाकर सारी टीम आउट
हो गई, जो इंग्लैंड जैसी मजबूत टीम के लिए मामूली चुनौती थी।
दूसरे दिन का खेल बड़ी शांति से शुरू हुआ। कोई संकेत नहीं थे कि क्या होगा।
पहले एक घंटे में इंग्लैंड के ओपनर बल्लेबाजों विलिस और जॉन्स ने बिना आउट
हुए 40 रन बना लिये। ड्रिंक्स के बाद भारतीय कप्तान भंडारी ने रंगनेकर को
गेंद फेंकने के लिए बुलाया और तभी से अनोखी घटनाओं का सिलसिला चालू हो गया।
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ प्रमोद का स्वागत किया गया; पर उस गड़गड़ाहट में
भी सहानुभूति के भाव छुपे थे। उसके तमाम प्रशंसक जानते थे कि वह अपना आखिरी
टेस्ट मैच खेल रहा था। सचमुच इस पूरी श्रृंखला के दौरान उसके खेल में वह बात
नहीं रह गई थी। उसकी गेंदबाजी की धार और जादू गायब हो चुके थे, जिसका अंग्रेज
बल्लेबाजों को भी अहसास था। जनता में और मीडिया में माँग उठ रही थी कि प्रमोद
को टीम से बाहर कर दिया जाए। लेकिन फिर भी चयनकर्ताओं ने अनुभव के तौर पर उसे
एक आखिरी मौका और दिया। अब सवाल था कि क्या प्रमोद उनकी उम्मीदों पर खरा
उतरेगा?
अनोखी चीज का पहला संकेत मिला, जब प्रमोद गेंद फेंकने की तैयारी कर रहा था।
"राइट आर्म, ओवर द विकेट?" अंपायर कोट्स ने पूछा, जो प्रमोद की गेंदबाजी करने
के ढंग से परिचित था।
"नहीं।" प्रमोद के जवाब ने अंपायर को हैरानी में डाल दिया।
"लेफ्ट आर्म ओवर द विकेट।"
प्रमोद ने कभी भी बाएँ हाथ से गेंदबाजी नहीं की थी। कप्तान भंडारी भी हैरान
था और प्रमोद को समझाने की कोशिश करता रहा, लेकिन प्रमोद अपनी जिद पर अड़ा
रहा।
"ठीक है, मैं इस बुढ़ऊ को केवल एक ओवर तक यह बेवकूफी करने दूंगा।" भंडारी
बड़बड़ाया।
अब तक रेडियो और टी.वी. पर कमेंटेटर भी प्रमोद का इरादा जान चुके थे और उस पर
टीका-टिप्पणी करने लगे थे। एक दाएँ हाथ का गेंदबाज अचानक ही बाएँ हाथ से
गेंदबाजी कैसे कर सकता है और वह भी ऐसे टेस्ट मैच में, जिसमें उसकी टीम को एक
विकेट की सख्त जरूरत है ? यह तो एकदम बेमिसाल है। मगर उसके बाद जो कुछ हुआ,
वह भी एकदम बेमिसाल था।
अपनी पहली ही सटीक गेंद पर प्रमोद ने ओपनर विलिस की लैग स्टंप उड़ा दी। विलिस
की समझ में कुछ नहीं आया। पैवेलियन वापस जाते हुए उसने नए बल्लेबाज को
चेताया, "सावधान रहो, इस जोकर ने मुझे मजाक-मजाक में उड़ा दिया।"
लेकिन इस चेतावनी का कुछ फायदा नहीं हुआ। बाएँ हाथ से प्रमोद की गेंदबाजी कहर
बरपा रही थी। तीन नंबर का बल्लेबाज और उसके बाद आनेवाले तमाम बल्लेबाज प्रमोद
की गेंदबाजी के आगे टिक नहीं सके। जहाँ 40 रन पर एक विकेट भी नहीं गिरा था
वहीं केवल 78 रन पर इंग्लैंड की पूरी टीम का बोरिया- बिस्तर बँध गया।
भोजन अवकाश में सैंडविच चबाते हुए मैं इस असाधारण बदलाव के बारे में सोच रहा
था, जो खेल में इतने थोड़े से समय में ही आ गया। यह ऐसा बदलाव है जो क्रिकेट
को अन्य खेलों से अलग करता है। 203 रन से पिछड़ने के बाद इंग्लैंड को फॉलोऑन
खेलना पड़ा। क्या इंग्लैंड अपनी दूसरी इनिंग में इस झटके से उबर पाएगा? मेरी
बगल में बैठे बुजुर्ग सज्जन भी कयास लगा रहे थे कि क्या रंगनेकर जिमलेकर के
एक ही टेस्ट मैच में 19 विकेट के रिकॉर्ड को तोड़ सकेगा? उसके बाद उन्होंने
उस मैच की एक-एक घटना विस्तार से बताई, जिसे उन्होंने पचास साल पहले अपनी
जवानी के दिनों में देखा था।
और सचमुच अगली इनिंग में ऐसा ही हुआ। इंग्लैंड की पूरी टीम केवल 45 रनों पर
ढह गई।
भारत के खिलाफ यह उनका सबसे कम स्कोर था और प्रमोद के खाते में पूरे 20 विकेट
आ गए।
इस अनोखे मैच के खत्म होने के बाद एक और अनोखी घटना हुई। जैसे ही आखिरी विकेट
गिरी, प्रमोद पैवेलियन की ओर भागा। इससे पहले कि उत्साहित भारतीय दर्शक,
उत्तेजित खबरनवीस और टी.वी. कैमरामैन उसके निकट भी पहुँच पाते, वह बाहर खड़ी
कार में बैठा और वहाँ से खिसक लिया।
प्रमोद कहाँ चला गया, किसी को नहीं पता। भारतीय टीम का मैनेजर, पुलिस और
अखबारवाले पागलों की तरह उसकी तलाश करने लगे; पर उसका कुछ पता नहीं चल सका।
अगले दिन किसी अज्ञात आदमी ने 'फ्लीट स्ट्रीट' अखबार के दफ्तर में फोन किया
और भारतीय लहजे में गुमशुदा खिलाड़ी के बारे में सूचना दी- "मैं सुरक्षित
हूँ, मेरी चिंता मत करो। मैं 24 घंटे के भीतर लौट आऊँगा।"
क्या यह संदेश असली था या कोई मजाक कर रहा था? पहचान के तौर पर फोन करनेवाले
ने पुलिस को क्रॉयडॉन में एक जगह का पता बताया, जहाँ रंगनेकर की शर्ट पाई
जाने वाली थी। पुलिस ने वह जगह ढूँढ़कर शर्ट बरामद भी कर ली। वह सचमुच
रंगनेकर की ही शर्ट थी।
इसी बीच अखबारों में प्रमोद रंगनेकर की लाजवाब गेंदबाजी के कसीदे पढ़े जा रहे
थे–'भारतीय काला जादू ?' 'बेहतरीन गेंदबाजी या पूरब का सम्मोहन?' और 'रंगनेकर
आउट लेकर्स जिमलेकर'-जैसी सुर्खियाँ अखबारों में छाई हुई थीं। यहाँ तक कि
'टाइम्स' ने भी रंगनेकर के जादुई करिश्मे पर अपने संपादकीय में प्रशंसा के
पुल बाँध दिए। साथ ही अखबार ने यह भी माना कि खेल के दौरान और खेल के बाद की
घटनाओं से वह हैरान-परेशान है।
विज्डन ने तुरंत ही अपने क्रिकेट इतिहास में एक और कीर्तिमान जोड़ दिया।
अगले दिन प्रमोद बो स्ट्रीट पुलिस थाने में मिल गया, लेकिन गहमागहमी का जो
ज्वार आया था वह अब पूरी तरह उतर चुका था। उसे टेस्ट मैच में घटी एक भी घटना
याद नहीं थी या उसके बाद जो कुछ हुआ वह भी उसे याद नहीं था। जबकि उसका दिमाग
पूरी तरह ठीक था। लेकिन फिर भी वह इस बात को मजाक मान रहा था कि उसने टेस्ट
मैच में इतनी जोरदार भूमिका निभाई थी।
"मैं अगर बाएँ हाथ से गेंदबाजी करूँ तो एक बच्चे को भी आउट नहीं कर सकता।"
उसने शांत भाव से कहा। उसकी बातों में सच्चाई झलक रही थी। 13 दिसंबर, 2005 की
तारीख मैं कभी भी नहीं भूलूँगा। अपना नाश्ता-पानी खत्म कर मैं जरूरी काम से
बाहर निकलने ही वाला था कि फोन की घंटी घनघना उठी।
"जॉन, ये तुम्हारे लिए है। फोन करनेवाला अपनी पहचान नहीं बता रहा, पर कहता है
कि बहुत अहम बात है।" ऐन ने कहा। मैंने मन-ही-मन गाली दी- अब मैं अपने काम पर
निश्चित ही देर से पहुँचूँगा।
"हाँ, जॉन आर्मस्ट्रांग बोल रहा हूँ।" यथासंभव विनम्र होते हुए मैंने कहा।
'सुप्रभात जॉन! तुम्हें मेरी आवाज सुनकर हैरानी होगी। मैं अजीत सिंह बोल रहा
हूँ, अजीत सिंह!
अजीत सिंह ! इतने साल बाद! अब चिढ़ने की बजाय मुझे आश्चर्य हो रहा था और मैं
सुनता गया-"क्या मैं आज रात तुमसे मिल सकता हूँ? बहुत जरूरी काम है, करीब
साढ़े आठ बजे?" लगता था कि वह अपना कार्यक्रम मुझ पर थोप रहा था।
मैंने सख्त लहजे में कहा, "रात के खाने पर आओ। ऐन अपनी पकाई करी से मुझे मार
डालना चाहती है। आओ, दोनों मिलकर शिकार बनें।"
'पक्का, धन्यवाद!" अजीत ने कहा। वह फोन रखने ही वाला था कि अचानक उसे कुछ याद
आया। उसने कहा, "और जॉन, मुझे उम्मीद है कि अगर मैं छुरी और काँटे के बजाय
अपने हाथों से खाऊँ तो ऐन और तुम बुरा नहीं मानोगे।"
छुरी और काँटे का जिक्र क्यों? इससे पहले कि मैं पूछ पाता कि क्या वह वास्तव
में गंभीर है, अजीत ने फोन रख दिया।
करी बनाकर ऐन बहुत खुश थी। उसने कुछ भारतीय मिठाइयों का भी स्वाद लेना चाहा।
उसे अपनी पाकशाला में छोड़कर मैं जल्दी से ट्रेन पकड़ने दौड़ा। दिन भर मेरा
ध्यान अजीत पर ही लगा रहा और उससे होनेवाली मुलाकात के बारे सोचता रहा। वह
मुझे क्या बताना चाह रहा था?
कैंब्रिज में स्नातक स्तर पर प्रमोद और अजीत मेरे साथ थे। कॉलेज की एक सीढ़ी
के आस-पास हमारे कमरे थे। मुझे और प्रमोद को क्रिकेट में अच्छी-खासी दिलचस्पी
थी और अपनी पहली गरमी के बीतते-बीतते हम दोनों को विश्वविद्यालय टीम में चुन
लिया गया। अजीत के साथ मेरे संबंध कुछ अलग ही किस्म के थे। हम दोनों भारतीय
दर्शन पर अकसर लंबी-लंबी चर्चाएँ करते थे। सुबह के समय तो अकसर हम दोनों की
बातचीत घंटों तक चला करती थी। इन चर्चाओं की बदौलत ही मैं भारतविद् के रूप
में अपनी आजीविका बना सका। लेकिन अजीत भौतिकीविद् था। गणित में तीसरे साल की
परीक्षा में 'मैथ्यू पुरस्कार' जीतने के बाद उसने भौतिकी विषय चुना। यहाँ पर
भी उसने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। तीन साल बाद मैंने कैंब्रिज छोड़ दिया
था, लेकिन वह कैवेंडिश में अनुसंधान कार्य और बाल करने लगा। कभी-कभार हम
मिलते थे और हमारे बीच पत्र-व्यवहार भी होता था। मुझे याद है कि उसे 'स्मिथ
पुरस्कार' मिलने पर मैंने उसको पत्र लिखा था। पर बाद में हमारा संपर्क
धीरे-धीरे कम होने लगा। मुझे पुरातत्त्व अन्वेषणों के लिए भारतीय उपमहाद्वीप
की कई बार यात्रा करनी पड़ी और आखिरकार, लंदन में संग्रहालय क्यूरेटर की
नौकरी मिल गई, जहाँ मैं आज भी हूँ।
अजीत हमेशा से ही एकांतप्रिय व्यक्ति था। मुझे शक होता है कि मेरे अलावा उसका
कोई और मित्र भी था। पाँच साल पहले जब हम आखिरी बार मिले थे, तब अजीत कॉलेज
फैलोशिप छोड़कर इंग्लैंड में ही एक अनुसंधान संस्थान में काम करने लगा था।
हालाँकि उसने कभी बताया नहीं, लेकिन मुझे यकीन है कि उसका काम कुछ अलग ही
किस्म का था।
तो क्या आज रात वह मुझे अपने काम के बारे में बताने जा रहा था? ठीक साढ़े आठ
बजे दरवाजे की घंटी बज उठी। अजीत को पहचानने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई।
वह पहले से कहीं अधिक दुबला-पतला हो गया था भी कुछ सफेद होने लगे थे। इन सबके
अलावा उसमें एक और मामूली सा परिवर्तन आया था, जिसे मैं भाँप सकता था-आज की
तमाम घटनाओं के बाद मैं इसका सबूत भी दे सकता था। लेकिन ईमानदारी की बात यह
है कि हमारी मुलाकात के वक्त मैं सही-सही नहीं बता सकता था कि उसमें क्या
परिवर्तन आया था।
उसके बातचीत करने के अंदाज से मुझे सुकून मिला। जहाँ तक मेरे प्रति उसके
नजरिए का संबंध था, वह जरा भी नहीं बदला था।
भारतीय परंपरा के अनुसार थालियों में भोजन परोसा गया। यह भी ऐन की कलात्मक
मेहमाननवाजी का एक प्रयास था। भोजन के दौरान अजीत थोड़ी-बहुत बातचीत को
छोड़कर पूरे समय खामोश रहा। लेकिन इससे मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि खाने
की टेबल पर बैठकर अजीत बातों पर कम, खाने पर ज्यादा ध्यान देनेवाला व्यक्ति
था। लेकिन उसका खाने का तरीका देखकर मुझे कुछ आश्चर्य जरूर हुआ।
उसके सनकपूर्ण सुझावों पर हम सभी ने छुरी और काँटे छोड़कर हाथ से खाना शुरू
किया; लेकिन हाथों से खाते हुए अजीत को देखकर उतना ही अजीब लग रहा था जितना
किसी पश्चिमी व्यक्ति को हाथों से भारतीय खाना खाते देखकर लगता है। मैंने और
ऐन ने इस पर उसे टोका। लेकिन अजीत के पास उसका भी जवाब था-"पतनोन्मुख पश्चिम
में इतने साल रहने के बाद हाथ से खाने की मेरी आदत छूट गई है।" उसकी इस सफाई
से ऐन तो संतुष्ट लग रही थी, पर मेरे मन में अब भी शक था।
अजीत के अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में मेरा शक भोजन के उपरांत तब और पक्का
हो गया जब मेरा सात वर्षीय बेटा केन एक पुस्तक ले आया।
"अंकल, आपने मेरे पिछले जन्मदिन पर यह पुस्तक भेजी थी, परंतु आप इस पर दस्तखत
करना भूल गए थे। क्या आप अब इस पर दस्तखत कर देंगे?"
हकीकत भी यही थी। पहले साल अजीत की प्रयोगशाला से केन के लिए एक पुस्तक आई
थी। उस पर लिखा था-'केन को उसके सातवें जन्मदिन पर'। मैं जानता हूँ कि यह
अजीत की ही लिखावट थी। अपने खास अंदाज में अजीत ने केन का जन्मदिन याद रखा,
लेकिन अपना नाम लिखना भूल गया।
अजीत ने पुस्तक अपने हाथों में ली और सरसरी तौर पर उसे देखा। फिर सिर हिलाते
हुए पुस्तक केन को लौटा दी।
'मुझे दुःख है, केन! आज मेरी आँखें मुझे परेशान कर रही हैं, इसलिए मैं अभी
दस्तखत नहीं कर सकता।"
'छोड़ो भी! अपना नाम लिखने के लिए तुम्हें अपनी आँखों पर जोर डालने की जरूरत
है!" केन की तरफ से मैंने विरोध जताया।
"लेकिन मेरे डॉक्टर ने मुझे इस दशा में कुछ भी पढ़ने या लिखने के लिए साफ तौर
पर मना किया है। समझौते के तौर पर केन, जब मैं अच्छा हो जाऊँगा तो दोनों
पुस्तकों पर दस्तखत कर दूंगा।"
अजीत की आवाज में दृढ़ता थी, इसलिए मैंने और केन ने ज्यादा दबाव नहीं डाला।
एक और उपहार की पेशकश से केन संतुष्ट था। पुस्तकों में उसकी अच्छी-खासी
दिलचस्पी थी। लेकिन मुझे अजीत की प्रतिक्रिया उसके स्वभाव के विपरीत लगी।
'अजीत, अब शायद तुम मुझे बता सकते हो कि तुम आज रात यहाँ क्यों आए?'' अपने
अध्ययन-कक्ष में उसे आरामकुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए मैंने पूछा। मैं
अपने भीतर उमड़ रही जिज्ञासा को दबाने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसे एक
गिलास पोर्ट वाइन पीने को दी। अब हम बिलकुल अकेले थे और मुझे उससे कुछ
महत्त्वपूर्ण बात सुनने की उम्मीद थी।
"जरा सब्र करो!" अजीत के चेहरे पर आराम भरी मुसकराहट थी। उसने अपने ब्रीफकेस
में से धीरे से एक पैकेट निकाला और उसे सावधानीपूर्वक खोला। पैकेट में से
नृत्य मुद्रा में गणेशजी की एक सुंदर प्रतिमा निकली। हिंदुओं के देवता गणेशजी
का सिर हाथी का और शेष शरीर मनुष्य का है। बुद्ध की मूर्तियों की तरह गणेशजी
की ज्यादातर मूर्तियाँ भी पालथी मारकर बैठी मुद्रा में मिलती हैं; लेकिन यह
मूर्ति नृत्य मुद्रा में थी, जो सामान्य रूप से नहीं मिलती है। मैं तुरंत ही
पहचान गया, क्योंकि एक ऐसी ही मूर्ति संग्रहालय के ब्रिटिशकालीन भारत वर्ग
में मौजूद थी। यह मूर्ति मराठा शासकों की थी, जिनका ब्रिटिश शासन स्थापित
होने से पूर्व भारत के अधिकांश भागों पर नियंत्रण था। गणेशजी पेशवा शासकों के
महत्त्वपूर्ण देवता थे और मेरे संग्रहालय में रखी उनकी मूर्ति मराठों के किले
शनिवारवाड़ा से लाई गई थी, जिस पर सन् 1818 में पुणे में एल्फिंस्टन की सेना
ने कब्जा कर लिया था। मूर्ति के संग्रहालय तक पहुँचने की लंबी कहानी है।
मूर्ति देखकर मेरी पहली प्रतिक्रिया यह थी-मैंने अजीत से पूछा कि उसे मूर्ति
की प्रतिकृति कहाँ से मिली?
ध्यान से देखो! क्या यह सचमुच में एक प्रतिकृति है?" अजीत के चेहरे पर
भड़कानेवाली मुसकान तैर रही थी। मैंने मूर्ति को अपने हाथों में लेकर अच्छी
तरह उलट-पलटकर देखा। सचमुच यह मूर्ति उसी कारीगर द्वारा बनाई गई थी जिसने
मेरे संग्रहालय में रखी मूर्ति बनाई थी। तभी अचानक मुझे एक बड़ा फर्क नजर
आया। पहली नजर में मैं इस अंतर को क्यों नहीं देख पाया?" गणेशजी के हस्तीमुख
में सूँड दाईं ओर मुड़ी हुई थी, जबकि ज्यादातर मूर्तियों में सूँड बाईं ओर
मुड़ी होती है।
इस खास पहलू से मेरे हाथ में रखी मूर्ति न केवल संग्रहालय में रखी मूर्ति से
भिन्न हो गई थी बल्कि अपनी दुर्लभता के कारण कहीं अधिक मूल्यवान् भी हो गई
थी। मैंने यह बात अजीत को बताई।
"सचमुच, मैं दोनों मूर्तियों को तुलना के लिए अगल-बगल रखकर देखना चाहता हूँ।"
अजीत की आवाज में आश्चर्य से ज्यादा आनंद का पुट था।"क्योंकि तुम्हें यह
मूर्ति इतनी बेशकीमती लगी, तो क्या मैं इसे तुम्हारे संग्रहालय को भेंट कर
सकता हूँ?"
इस उदार मन से दिए गए तोहफे के लिए मैंने उसका धन्यवाद किया और वादा किया कि
उसे संग्रहालय के ट्रस्टियों की ओर से एक औपचारिक प्रशस्ति- पत्र भी
दिलवाऊँगा; लेकिन मैं अपनी जिज्ञासा दबा नहीं सका और पूछ बैठा, "इस मूर्ति की
क्या कहानी है ? तुम्हें यह कहाँ से मिली?"
"यह सब कभी फुरसत में बताऊँगा। फिलहाल तो तुम्हें हैरान होते देखकर मैं खुश
हूँ। जॉन, क्या मैं तुमसे एक सवाल पूछ सकता हूँ ? तुम मुझे अच्छी तरह जानते
हो। तुम्हारे विचार से मेरे शरीर पर पहचान चिह्न क्या है ?" मैं इस तरह अचानक
विषय-परिवर्तन होने से अचकचा गया। अलबत्ता जवाब मुझे मालूम था।
"तुम्हारे बाएँ हाथ का अंगूठा दाएँ हाथ के अंगूठे से करीब आधा इंच छोटा है।"
'क्या तुम इसकी कसम खा सकते हो?"
'सचमुच!"
अजीत ने अपने दोनों हाथ मेरे सामने फैला दिए। सचमुच उसका एक अंगूठा दूसरे से
छोटा था। पर बाएँ नहीं बल्कि दाएँ हाथ का अंगूठा छोटा था।
मैं कितनी देर असमंजस की स्थिति में रहा, पता नहीं; क्योंकि जब मुझे होश आया
तो मैंने पाया कि हाथ में ब्रांडी का गिलास लिये अजीत बेचैनी से मुझे घूरे जा
रहा था।
"तुम ठीक तो हो?" उसने पूछा।
'तुम कौन शैतान हो?" मैंने आपे से बाहर होते हुए पूछा। पहले अपनी कमजोरी
प्रकट करने की चिढ़ मेरे मन में थी और मैं उससे उबरना चाहता था।
"मैं अजीत ही हूँ और कोई नहीं। सिर्फ मैं थोड़ा सा बदल गया हूँ।" फिर अजीत ने
मेरा दायाँ हाथ उठाया और अपनी छाती पर रख दिया। उसका दिल भी दाईं ओर धड़क रहा
था।
एक अजीबो-गरीब, पर आपस में जुड़ी हुई तसवीर मेरे मन में बनने लगी। मैंने अजीत
को आईने के सामने खड़ा कर दिया और फिर मुझे उस सवाल का जवाब मिल गया, जिसने
मुझे अजीत के आने के बाद शाम से ही परेशान कर रखा था। बहुत मामूली रूप से ही
सही, पर वह कुछ अलग लग रहा था। अब आईने के भीतर से झाँकती उसकी छाया मुझे उस
जीते-जागते शक से कहीं ज्यादा जानी-पहचानी लग रही थी, जिसे मैंने कंधे से
पकड़ रखा था। तो क्या अजीत ने किसी तरह अपने आपको शीशे में दिखनेवाली छाया
में बदल डाला था? ठीक उसी वक्त मुझे खब्बू प्रमोद की कहर बरपानेवाली गेंदबाजी
याद आ गई। क्या वह असली प्रमोद था या उसकी छाया थी? शर्तिया वह कोई भ्रम या
छलावा नहीं था, क्योंकि उसके खेल को केवल मैंने ही अकेले नहीं देखा था बल्कि
हजारों लोगों के साथ-साथ टी.वी. कैमरों ने भी उसके खेल को कैद किया था। तो
क्या गणेशजी की मूर्ति भी असली मूर्ति की छाया थी? मैंने मेज पर रखी मूर्ति
को दोबारा और अच्छी तरह से देखा। यह भी उतनी ही ठोस और असली थी जितना कि मेरे
सामने खड़ा दाँत निकालकर हँसता हुआ अजीत।
"तुम्हें इस तरह परेशान करने पर मुझे अफसोस है। लेकिन मैंने जो शानदार खोज की
है, उसका यकीन दिलाने का कोई और तरीका नहीं था। किताबों में दिए गए
सिद्धांतों के साथ ही मैं अपनी कथा शुरू करूँगा। शुरू-शुरू में..'
'अपनी कथा चलाने से पहले भगवान् के लिए मुझे एक बात बताओ। क्या मेरा यह खयाल
ठीक है कि प्रमोद की रहस्यमय गेंदबाजी के पीछे तुम्हारा ही हाथ था?"
'सचमुच!" अजीत ने कहा।
उसके बाद उसने मुझे जो कहानी सुनाई, वह मैं यथासंभव उसी के शब्दों में बयान
करता हूँ-
"तुम्हें याद होगा कि करीब पाँच साल पहले कैंब्रिज में पढ़ाई पूरी करने के
बाद मैं एक सरकारी प्रयोगशाला में आधिकारिक रूप से अनुसंधान कार्य करने लगा
था। मुझे मौलिक भौतिकी और इलेक्ट्रॉनिक्स में महारत हासिल होने के साथ-साथ
काम करने का ताजा जोश भी था। पर जल्द ही मेरा जोश ठंडा पड़ने लगा, क्योंकि
मुझे पता लगा कि प्रयोगशाला में अनुसंधान कार्य न होकर कागजी काम, चापलूसी और
तिकड़मबाजी पर ज्यादा जोर रहता था।
मोहभंग होने के साथ-साथ मैं अपने सहकर्मियों से कटने लगा था, जो कि केवल
गप्पबाजी में ज्यादा दिलचस्पी लेते थे। मुझे जो काम दिया जाता, मैं उसे तुरंत
ही निपटा दिया करता, क्योंकि इस तरह का काम काफी कम होता था, इसलिए मुझे अपनी
सोच और अपने अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए ढेर सारा अतिरिक्त समय मिलने लगा
था। मेरे अंतर्मुखी स्वभाव को जानकर सहकर्मियों और वरिष्ठ अधिकारियों ने भी
मुझे अकेला छोड़ दिया।
'लंबे समय से एक अजीबो-गरीब विचार ने मेरे मन में उथल-पुथल मचा रखी थी।
कैंब्रिज में आइंस्टीन के सापेक्षतावाद के सिद्धांत का अध्ययन करने के
पश्चात् यह विचार मेरे मन में बैठ गया था।
'चूँकि तुम इस सिद्धांत से अपरिचित हो, इसलिए तुम्हें पहले इसके कुछ खास
पहलुओं के बारे में बता दूँ, जो मेरे काम के थे।
"आइंस्टीन ने इस विचार का प्रतिपादन किया था कि गुरुत्वाकर्षण के कारण
अंतरिक्ष और समय की ज्यामिति या आयामों में परिवर्तन आ जाता है। हम सभी
यूक्लिड की ज्यामिति से परिचित हैं, जो हमारे दैनिक जीवन की जरूरतों को बखूबी
पूरा करती है। लेकिन करीब डेढ़ सदी पहले गणितज्ञों ने सोचना शुरू कर दिया था
कि तार्किक तौर पर केवल यूक्लिड की ज्यामिति ही स्थिर नहीं है। यूक्लिड के
सिद्धांतों से अलग नियमों पर आधारित गैर-यूक्लिड ज्यामितियों की कल्पना भी की
जा सकती थी। लेकिन आइंस्टीन ही वह पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने सन् 1915 में
उन अमूर्त, निराकार विचारों को भौतिक सिद्धांत में ढाला। उनका तर्क था कि
भारी गुरुत्वाकर्षणवाले पिंडों के इर्द-गिर्द गैर-यूक्लिड ज्यामितियाँ होती
हैं और उन्होंने इनका वर्णन करने के लिए समीकरण भी दिए। उनके द्वारा की गई
कुछ भविष्यवाणियों को पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में जाँचा-परखा भी गया था,
जिसमें वे सही साबित हुई थीं।
उदाहरण के लिए, प्रकाश की किरणों को ही लें, जिनके बारे में माना जाता है कि
ये सीधी रेखा में ही चलेंगी। अब अलग-अलग ज्यामितियों में सीधी रेखा की
परिभाषा और कसौटी अलग होगी। सूर्य के निकट इसके शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण के
कारण ज्यामिति इस हद तक परिवर्तित हो जाएगी कि सौर-भुजा के पास से गुजरनेवाली
प्रकाश-किरण का पथ उस स्थिति से भिन्न होगा जब वह सूर्य की अनुपस्थिति में
गुजरती है। ये परिवर्तन हालाँकि बहुत सूक्ष्म थे, लेकिन उनका मापन किया गया
और इस तरह सापेक्षतावाद के समान सिद्धांत की भविष्यवाणियों की पुष्टि हुई।
"सापेक्षतावाद के शब्दों में हम कहते हैं कि अंतरिक्ष काल की ज्यामिति वक्रीय
होती है, जबकि गुरुत्व बल की उपस्थिति में यह सरल होती है। किसी गोले की सतह
पर चलनेवाला द्विआयामी जीव सतह की वक्रता के प्रति सचेत होता है। ऐसी ही किसी
वक्रता की बेहद ऊँचे आयामों में कल्पना करें ऐसी कल्पना मानसिक स्तर पर कठिन
है, लेकिन गणित के लिए आसान है। "अब मैं तसवीर में एक और धारणा को ले आऊँगा।
यह है मोड़ या ट्विस्ट की अवधारणा। क्या आपने मॉनियस स्ट्रिप के बारे में
सुना है ? अगर आप कमर में पेटी बाँधते हैं तो इसे एक मोड़ देकर आप मॉनियस
स्ट्रिप बना सकते हैं। इसकी कई खूबियाँ होती हैं, जैसे-मूल पेटी, जिसकी दो
सतहें थीं, के विपरीत इसकी केवल एक सतह ही होती है। अगर आप किसी साधारण पेटी
या पट्टी को लंबाई के साथ-साथ बीच से काटें तो दो अलग-अलग पट्टियाँ मिलेंगी।
अब मॉनियस पट्टी को इसी तरह काटने की कोशिश करें। आपको केवल आश्चर्य ही
मिलेगा। अब कल्पना करें कि हमारा चपटा जीव इस मॉनियस स्ट्रिप की एक ही सतह पर
रेंग रहा है। कल्पना करें कि उसका केवल एक ही हाथ–बायाँ हाथ है। लेकिन अगर वह
पट्टी का पूरा चक्कर लगा ले तो वह पाएगा कि उसका एक हाथ, जो बायाँ है वह अब
दायाँ हाथ हो गया है! अगर आपको यकीन न हो तो इसे कागज की पट्टी पर आजमाकर
देखें, हमारे जैसे त्रिआयामी अंतरिक्ष की लाभकारी स्थिति से देख रहे प्रेक्षक
के लिए जीव एक अक्ष के चारों ओर आधे घूर्णन से गुजर चुका होता, जो उसके शरीर
में सिर से पैर तक होता। हालाँकि जीव को इसका पता नहीं चलता। उसके लिए तो
उसके सीमित द्विआयामी परिप्रेक्ष्य में यह घटना परावर्तन की तरह ही लगेगी।
'अब इसी घुमाव की चार आयामी अंतरिक्ष काल में कल्पना करें। जीव की भाँति हमें
भी इस परिवर्तन का पता नहीं चलेगा, हालाँकि इसके प्रभाव समान ही होंगे। इस
परिवर्तन से गुजरकर हम आईने में दिखनेवाली अपनी छाया की तरह लगते हैं, जबकि
सच्चाई यह है कि हम ऊँचे आयामों में घूम रहे होते हैं और अपने दूसरे पक्ष' को
दिखा रहे होते हैं।
'क्या हम ऐसे घुमाव अंतरिक्ष काल में पैदा कर सकते हैं ? इस बिंदु पर मैंने
आइंस्टीन के सिद्धांत से अलग हटकर अपनी खुद की सोच विकसित की। मुझे आशा थी कि
परमाणु के भीतर मौजूद मौलिक कणों में पाया जानेवाला घूर्णन का गुण अंतरिक्ष
में घुमाव पैदा कर सकता है। इसका गणितीय सूत्र तो मैंने कैंब्रिज में ही पूरी
तरह विकसित कर लिया था, लेकिन इस पर परीक्षण करना मेरी वर्तमान प्रयोगशाला
में ही संभव हो पाया।
"पर्याप्त मात्रा में घुमाव उत्पन्न करने के लिए मुझे मौलिक कणों का एक पुंज
बनाना था, जो बेतरतीब ढंग से नहीं बल्कि सुनियोजित, समन्वित तरीके से चक्कर
काट रहे हैं। यह कहना तो आसान लगता है, पर करना उतना ही कठिन है। अब मैं
तुम्हें वैज्ञानिक शब्दावली से और अधिक दूर नहीं ले जाऊँगा। केवल इतना ही
कहना काफी है कि अपने अनुभव में मुझे पहली बार करीब छह महीने पहले सफलता
मिली।
"मेरी प्रयोगशाला में जो माहौल है, उसके कारण ही मैं अपना उपकरण बिना किसी
टोका-टाकी के बना सका। पहले मैंने एक छोटा सा केबिन बनाया और उस पर 'सबसे
गोपनीय', 'खतरनाक' और 'प्रवेश निषेध' जैसे संकेत लगा दिए। और जब तक मैं अपनी
आर्थिक सीमाओं के भीतर कार्य कर रहा था तब तक किसी ने मुझसे पूछने की जरूरत
नहीं समझी कि मैं क्या कर रहा था। इस तरह की नौकरशाहीवाली प्रणाली में अगर आप
चालाक हैं तो कोई भी तिकड़म लगाना संभव है, अन्यथा कोई भी रचनात्मक कार्य
करने के लिए पहले आपको एक प्रस्ताव जमा कराना पड़ेगा। एक समिति आपके प्रस्ताव
का मूल्यांकन करेगी और सबसे ज्यादा संभावना यह होती है कि आपके प्रस्ताव को
रद्द कर देगी; क्योंकि इस समिति में अधिकतर विशेषज्ञ सठिया चुके होते हैं और
उनका सक्रिय अनुसंधान से कुछ लेना-देना नहीं होता है।
"मेरा पहला अनुभव मेरी कलाई घड़ी के साथ था। मैं आईने में दिखनेवाली इसकी
छाया के अलावा यह देखना चाहता था कि परिवर्तन के बाद भी घड़ी काम करती है कि
नहीं। और सचमुच घड़ी ने काम करना जारी रखा। यह महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि आगे
मैं जीवित प्राणियों पर परीक्षण करने जा रहा था। मैंने कीड़े-मकोड़े,
तितलियों, गिनिपिग आदि पर परीक्षण किए। मैंने पाया कि जीवित प्राणी भी इन
परीक्षणों के बाद न केवल जीवित रहते हैं बल्कि अच्छी तरह काम भी करते हैं। तब
मैंने इन परीक्षणों को आदमी पर आजमाने का फैसला किया। "ऐसे किसी परीक्षण के
सभी संभावित परिणामों को ध्यान में रखते हुए मैंने सभी जानकारियों को
विस्तारपूर्वक लिखा और ठीक तरह से सुरक्षित स्थान पर रख दिया; क्योंकि मैं यह
परीक्षण स्वयं अपने ऊपर करने जा रहा था। इसलिए मैंने परावर्तन मशीन में घुसने
से पहले वीडियो कैमरा और टेपरिकॉर्डर चालू कर दिया, ताकि परीक्षण के नतीजों
के दृश्यों एवं आवाजों को दर्ज किया जा सके।
"मशीन द्वारा उत्पन्न पुंज से गुजरने के दौरान मेरा अनुभव आश्चर्यजनक रूप से
सामान्य रहा। मुझे अपने मोड़े या विकृत किए जाने का जरा भी अहसास नहीं हुआ।
पुंज में घूमते वक्त मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। मैंने जो महसूस किया उसे
बोलता रहा, जो टेपरिकॉर्डर में दर्ज होता रहा।
"मशीन से बाहर निकलकर मैंने पाया कि मैं सचमुच बदल चुका हूँ; सिर्फ इतना ही
नहीं, मेरे कपड़े, कलाई घड़ी, पेन और मेरे पास रखी हर चीज बदल चुकी थी। यहाँ
तक कि मेरा दिमाग भी घूम चुका था और दाईं-बाईं दिशा में होनेवाले सभी कार्य
मेरे लिए भ्रम पैदा कर रहे थे। मुझे यहाँ तक सोचना पड़ रहा था कि बोतल को
खोलने के लिए ढक्कन को किस दिशा में घुमाऊँ, क्योंकि मेरी नई सहज वृत्ति मुझे
उलटी दिशा में प्रेरित कर रही थी, लेकिन शारीरिक तौर पर मैं पूरी तरह
चुस्त-दुरुस्त था और महसूस कर रहा था कि मेरा बायाँ हाथ दाएँ हाथ के मुकाबले
ज्यादा ताकतवर और कार्यक्षम हो गया है।
"तब फिर अपने अनुभव को पूरा करने के लिए मैं दोबारा पुंज में से गुजरा।
उम्मीद के अनुसार बाहर निकलने पर मैं वापस अपनी पुरानी अवस्था में लौट आया
था। लेकिन इसके साथ एक चीज और थी, जिसका मैंने पहले ही अनुमान लगा लिया था।
मेरे मस्तिष्क में मेरी परिवर्तित अवस्था की कोई याददाश्त नहीं बची थी।
'यह तो परिवर्तन के दौरान विभिन्न उपकरणों द्वारा दर्ज तसवीरें और आवाजें थीं
जिनसे मैं स्वयं को यकीन दिला पाया कि वास्तव में ऐसा हुआ था। अपनी परावर्तित
अवस्था में मैंने अपने लिखे हुए ब्योरों को देखा था; पर मैं उन्हें तब तक
नहीं पढ़ पाया जब तक कि उन्हें आईने के सामने नहीं रखा।
"लेकिन मेरे इस परीक्षण में केवल एक कमी थी जो मुझे खल रही थी। अपनी
पूर्वावस्था में लौटने पर याद नहीं रहता था कि परावर्तित अवस्था में क्या-
क्या घटित हुआ था। अभी तक मैं इस कमी को दूर नहीं कर पाया हूँ। अब कल सुबह जब
मैं अपनी पूर्व अवस्था में वापस लौटूंगा तो मुझे तुम्हारे साथ आज रात की इस
मुलाकात का कुछ भी याद नहीं रहेगा।"
अजीत की इस अजीब कहानी को सुनते वक्त मुझे यही लग रहा था कि यह सबकुछ सच नहीं
है बल्कि लेविस केरोल, एच.जी. वेल्स और अलिफ-लैला की कहानियों की खिचड़ी
पकाकर पेश की जा रही है। लेकिन यह भी सच था कि एक जीता-जागता सबूत मेरे सामने
बैठा पोर्ट वाइन की चुस्कियाँ ले रहा था। अपनी तमाम शंकाओं को दूर करने के
लिए मैंने अजीत से वह सवाल पूछा जो मुझे काफी देर से कुरेद रहा था-"तो क्या
गणेशजी की यह मूर्ति भी छाया है ?" "तुम स्वयं इस बात का पता क्यों नहीं लगा
लेते? तुम संग्रहालय के ठीक ऊपर रहते हो।" अजीत का सुझाव एकदम व्यावहारिक था।
चाबियों का गुच्छा उठाकर हम दोनों नीचे ब्रिटिशकालीन संग्रहालय के भारत वर्ग
में गए। उस कपाट तक पहुँचते-पहुँचते, जहाँ गणेशजी की मूर्ति ताले में बंद
होनी चाहिए थी, मुझे एहसास होने लगा कि हमें क्या दिखेगा! कपाट एकदम खाली था।
"तो आखिरकार मैं उतना उदार दानदाता नहीं था!" अजीत के 'उपहार' खाली कपाट में
रखकर वापस लौटा तो अजीत ने व्यंग्य किया। उसने किसी तरह असली मूर्ति को वहाँ
से गायब कर दिया और उसे अपने नाटकीय परीक्षण से गुजार डाला।
"अब प्रमोद के शानदार खेल के बारे में कुछ बताओ।" मैंने कहा। अभी तक जो कुछ
मैंने जाना था, उससे इस रहस्य पर भी कुछ रोशनी पड़ती थी। "टेस्ट मैच के एक
दिन पहले शाम को प्रमोद मेरे पास आया था। वह बहुत उदास और निराश था। मैं
जानता था कि टेस्ट मैच गेंदबाज के रूप में उसकी जवानी ढल चुकी थी और अंतिम
टेस्ट मैच में उसे लिया जाना केवल काबलीयत के कारण नहीं था। तब उसने कुछ ऐसी
बात कही जिससे मुझे अनोखा विचार सूझा कि मेरी गेंदबाजी में जरा भी धार बाकी
नहीं बची है, उसका केवल यही रोना था। 'अगर मैं उसे आईने में दिखनेवाली उसकी
छाया में बदल डालूँ तो?' मैंने सोचा। इस तरह वह खब्बू गेंदबाज की तरह बाएँ
हाथ से गेंदबाजी करेगा; मगर वह किसी साधारण खब्बू गेंदबाज की तरह गेंद नहीं
फेंकेगा। उसकी सारी गतिविधियाँ आईने में दिखनेवाले अपने दाएँ हाथवाले गेंदबाज
की छाया की तरह होंगी। किसी भी हालत में कोई भी बल्लेबाज उसकी गेंदों को समझ
नहीं पाएगा। "मैंने कॉफी में नशीली दवा मिलाकर उसे पिला दी और जब वह बेहोश हो
गया तो मैंने उस पर अपना परीक्षण कर डाला। कड़ी सुरक्षा के बावजूद उसे
प्रयोगशाला के अंदर ले जाना आसान था। सुरक्षा व्यवस्था में ढेर सारे सुराखों
का मुझे काफी पहले ही पता लग चुका था। परीक्षण पूरा करने के पश्चात् मैं उसे
होटल में उसके बिस्तर पर लिटाकर आ गया।
"अगली सुबह मुझे फोन पर उसकी हड़बड़ाई-सी आवाज सुनाई दी। उसको जैसे दौरा पड़
रहा हो—वह कमजोरी महसूस कर रहा था, पढ़ नहीं पा रहा था, अक्षर उसे उलटे लग
रहे थे। वह जानना चाह रहा था कि पिछली रात उसने ऐसा कुछ खा-पी तो नहीं लिया
था जिससे ये सब गड़बड़ियाँ शुरू हुईं। किसी डॉक्टर को दिखाने में भी वह डर
रहा था कि कहीं मैच के लिए अयोग्य न ठहरा दिया जाए।
"मैं दौड़ा-दौड़ा उसके कमरे में गया और उसे आश्वस्त किया। उसका दायाँ हाथ
कमजोर पड़ गया था और वह गेंदबाजी नहीं कर सकता था; लेकिन बाएँ हाथ का क्या
हाल था? आश्चर्यजनक रूप से उसके बाएँ हाथ में ज्यादा जान आ गई थी। मैंने उसे
बाएँ हाथ से गेंद फेंकने की सलाह दी। पहले तो उसे मेरा सुझाव बेतुका लगा ही,
परंतु जितना उसने अपने बाएँ हाथ को झुलाया उतना उसे मेरे सुझाव और अपने बाएँ
हाथ की ताकत पर यकीन होता गया। फिर मैंने उसे नेट प्रैक्टिस की सलाह दी,
चूँकि टीम के बाकी सदस्य अभी तक सो रहे थे। मैंने उसके साथ अभ्यास में जाने
की पेशकश की। एक तरह से यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि इस तरह उसके इस नए पराक्रम
पर सही मौका आने तक परदा पड़ा रहता। उसके बाद की घटनाएँ तो तुम्हें पता ही
हैं।" अजीत ने अपनी कथा समाप्त की।
"तो वह तुम्हीं थे जो मैच के बाद प्रमोद को तुरंत अपने साथ ले गए थे?" मैंने
पूछा।
"हाँ, और वह भी मैं ही था जिसने टेलीफोन कर समाचार-पत्र के कार्यालय को सूचना
दी थी। मैंने उसे कुछ दिनों तक अपने घर पर रखा। जब वह कुछ ठीक हुआ तो मैंने
उसे वापस सामान्य स्थिति में तब्दील कर दिया और बो स्ट्रीट पर छोड़ आया।
अलबत्ता, वह अपने खब्बूपन की सारी बातों को भूल चुका था और मैंने भी उसे कुछ
बताना ठीक नहीं समझा।"
कोई अच्छा वैज्ञानिक सिद्धांत कई परिघटनाओं का कारण बता सकता है। इसलिए अजीत
की इस उल्लेखनीय खोज से मेरे कई प्रश्नों के उत्तर मिल गए। अब मैं देख सकता
था कि वह छुरी-काँटे से खाना क्यों नहीं खाना चाहता था। ऐन और मैं उसके अनोखे
व्यवहार को भाँप लेते। और सचमुच में ऐसा हुआ था। हमने हाथ से खाने में उसे
कठिनाई होते देखकर पूछा भी था; पर उसने इसका एकदम सटीक कारण बताया। लेकिन केन
ने उससे पुस्तक पर दस्तखत करने के लिए कहकर उसे सचमुच परेशानी में डाल दिया।
अगर आपका दिमाग सभी अक्षरों को उलटी दिशा में लिखने के लिए जोर डाले तो अपना
नाम लिखना भी कठिन हो जाता है।
अजीत, तुम्हें अपनी खोजों को तुरंत प्रकाशित करा लेना चाहिए। तुम्हें तो
निश्चित ही नोबेल पुरस्कार मिलेगा।'' मैंने किसी अनाड़ी की तरह उसे सलाह दी।
'नहीं, अभी नहीं, जॉन!" अजीत ने कहा, "तुम जानते हो कि मैं एक परिपूर्णतावादी
आदमी हूँ और मेरे कार्य में स्मृति-लोप मुझे बहुत गंभीर त्रुटि लगती है। जब
तक कि मैं इस त्रुटि को दूर न कर लूँ, मैं अपनी खोज का संसार के सामने खुलासा
करने को तैयार नहीं हूँ।'
'मगर अजीत, मेरी व्यावहारिक सलाह तो यही है कि तुम प्रकृति के अज्ञात नियमों
के साथ खिलवाड़ कर रहे हो। तुमने अभी तक कामयाबी हासिल की है, इसका मतलब यह
तो नहीं कि तुम दोबारा कामयाब हो जाओगे। क्या यह समझदारी नहीं होगी कि तुमने
अभी तक जो कुछ किया है, उसे साफ लिखकर किसी सुरक्षित जगह में रख दो।"
"मैंने बिलकुल ऐसा ही किया है। मेरे लिखे ब्योरे को पढ़कर कोई भी वैज्ञानिक
रूप से सक्षम समूह मेरे परीक्षण को दोहरा सकता है। भावी सफलता के बारे में
जहाँ तक तुम्हारी बात का संबंध है, मैं इससे इनकार नहीं करता हूँ। लेकिन
फिलहाल मैं अपने परीक्षण में सुधार कर रहा हूँ और मुझे उम्मीद है कि इससे
परीक्षण की यह कमी भी जल्द ही दूर हो जाएगी। हालाँकि मुझे अपनी अब तक की
प्रगति को जाहिर नहीं करना चाहिए था, पर अपने सच्चे दोस्त को छकाने की शरारत
भरी इच्छा के कारण ही मैंने ऐसा किया।"
मैंने उससे बहस करने की कोशिश की; पर जैसी कि मुझे आशंका थी, अजीत एक बार जो
ठान ले, उससे उसे डिगाना कठिन है।
कुछ महीनों बाद ही मुझे अजीत की प्रयोगशाला से फोन आया। मुझे तुरंत निदेशक से
मिलने के लिए तलब किया गया था।
मन में तमाम तरह की आशंकाएँ लिये मैंने दरवाजा खटखटाया। निदेशक के कार्यालय
में निदेशक के अलावा सफेद कोट पहने डॉक्टर, एक साधारण आदमी और अजीत भी था।
मैंने राहत की साँस ली। मुझे डर था कि कहीं अजीत को जिंदा न देख सकूँ।
लेकिन वह राहत तात्कालिक ही थी। अजीत मुझे पहचान नहीं सका। सचमुच डॉक्टर के
कहे अनुसार अजीत अपनी याददाश्त पूरी तरह खो बैठा था और उसके ठीक होने के कोई
आसार नहीं थे। प्रयोगशाला में अजीत के कार्यालय से मेरा नाम और फोन नंबर मिला
था, इसलिए वे मुझसे संपर्क कर सके।
क्या उसने कोई लिखित रिकॉर्ड रखा है कि वह क्या करता रहा था?" मैंने
सावधानीपूर्वक पूछा। अब मुझे झुंझलाहट हो रही थी कि मैं अजीत से उस सुरक्षित
जगह का पता पूछना कैसे भूल गया, जहाँ उसने अपना रिकॉर्ड रखा था।"
अगर उसने रखा हो तो भी दुर्भाग्यवश हमारे पास पता लगाने का कोई माध्यम नहीं
है।" निदेशक ने गहरी साँस लेकर कहा, "आपको पता है कि वह जो कुछ परीक्षण कर
रहा था, आज अचानक ही उड़ गया और उसके कमरे में सबकुछ चकनाचूर हो गया।"
"सौभाग्य से वह बच गया।" डॉक्टर ने बात पूरी की। उसके शब्दों का चयन बेहद
अजीब था। अजीत जैसे प्रतिभावान् वैज्ञानिक के लिए याददाश्त का चले जाना मौत
से भी बदतर था।
"उसके घर का क्या हाल है?" मैंने पूछा। मुझे उम्मीद थी कि वहाँ जरूर कुछ हो
सकता है।
"किसी आम कुँवारे आदमी के घर की तरह एकदम अस्त-व्यस्त।" मामूली से दिखनेवाले
आदमी ने बताया, "हमने उसके घर की बड़ी बारीकी से तलाशी ली, पर वहाँ कुछ भी
नहीं मिला। असल में हमने आपको यहाँ इसलिए बुलाया है कि शायद आप इस मामले पर
कोई प्रकाश डाल सकें।"
"मुझे खेद है कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। अजीत हालाँकि मेरा अच्छा
मित्र था, लेकिन उसने कभी भी अपनी गोपनीय वैज्ञानिक बातों को बाँटने के लिए
मुझे पर्याप्त पढ़ा-लिखा नहीं समझा।"
उसके बाद मैं घर आ गया। मुझे हैरानी होती है कि क्या सच्चाई झूठ से ज्यादा
यकीन दिलानेवाली होगी। मैंने झूठ के पक्ष में फैसला लिया। आखिरकार मेरा
वैज्ञानिक वर्णन यकीन किए जाने के लिए कल्पना से भी अधिक अद्भुत लगता।
आज भी यह मुझे कल्पना से भी अधिक अद्भुत लगता है ! आप चाहें तो मेरे
संग्रहालय में आकर इसका ठोस सबूत स्वयं देख सकते हैं- गणेशजी की वह दुर्लभ
मूर्ति।