गलती (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
Galti (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena
उसने अपनी कलाई से घड़ी उतारी और चुपचाप मेरी कलाई पर बाँध दी।
मैं सहम गया। जब कोई छोटे दिल का आदमी किसी आवेश में आकर कोई बड़ा काम कर बैठता है तो मन में आशंका की एक विचित्र-सी सिहरन होती है। मैंने उसकी ओर सहज आत्मीय ढंग से देखने का प्रयत्न किया। वह मुस्करा रहा था और इस बात की कोशिश कर रहा था कि इस दान के कारण लेश मात्र भी गर्व की भावना उसके चेहरे से प्रकट न हो। मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ। मैं घड़ी की ओर देखने लगा और मुझे उसकी टिक-टिक में उसके दिल की धक-धक भी सुनाई देने लगी। वह औसत मूल्य की अच्छी घड़ी थी, काफी नयी ।
"आप देख क्या रहे हैं? मैंने दे दी तो दे दी। आपकी कलाई में बँधी देख मुझे बहुत खुशी होगी !" और वह निर्विकार भाव से हँसने की कोशिश करने लगा। शायद उसने मेरे मन की बेचैनी भाँप ली थी।
मैंने घड़ी से दृष्टि हटाकर एक बार फिर उसकी ओर देखा ।
"ऐसे क्यों देखते हैं, आपको यकीन नहीं होता।"
"नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है।" मैंने तुरन्त उसकी बात काटी क्योंकि मुझे लगा कि मेरी दृष्टि में कहीं अविश्वास है जिससे वह अपने को छोटा अनुभव कर रहा है। फिर अपने आप ही वह अपनी इस उदारता की सफाई देते हुए बोला, “आप तो जानते ही हैं, मेरे पास दूसरी घड़ी आ गयी है, आटोमैटिक । चचा ने स्विटजरलैंड से भेजी है। दो घड़ियाँ तो मैं कलाई में बाँधकर घूमूँगा नहीं, न मुझे कोई दूकान खोलनी है।" यह कहकर वह फिर हँस पड़ा। यह सिद्ध करने के लिए कि उसके मन में कहीं कोई चिन्ता या संघर्ष नहीं है। यह उसके लिए बहुत मामूली-सी बात है।
लेकिन उसकी इस हँसी से मेरी आशंका और दृढ़ हो गयी। पर मैं कर क्या सकता था। घड़ी लौटाना उसे और छोटा करना था। मैं मन ही मन अपनी गलती के लिए पछताने लगा। बात यह हुई थी कि कुछ ही देर पहले जब वह स्विटजरलैंड से आयी अपनी नयी घड़ी की तारीफ के पुल बाँध रहा था, मेरे मुख से निकल पड़ा, “अब तुम इस घड़ी का क्या करोगे ?” जवाब में उसने अपनी घड़ी उतारकर मेरी कलाई पर बाँध दी थी । मेरे लिए निश्चय ही यह लज्जित होने की बात थी। क्योंकि हो सकता है, मेरे मन के किसी अदृश्य कोने में यह लालसा रही हो कि घड़ी मुझे मिल जाए। कम-से-कम उसने तो मेरे कथन का यही अर्थ लगाया और उसके दान से मैं अपनी ही दृष्टि में याचक सिद्ध हो गया ।
"आप क्या सोच रहे हैं ?" मुझे चुप देखकर वह पूछ बैठा ।
मैं चौंक गया, मुझे लगा जैसे मेरी चोरी पकड़ी गयी है । जिस सहज भाव से देने का अभिनय वह कर पा रहा है, उस सहज भाव से लेने का अभिनय मैं नहीं कर पा रहा हूँ। मैंने उत्तर दिया, "डरो मत, तुम्हें बहुत दानी या उदार मानने की गलती मैं नहीं कर रहा हूँ।” कहकर मैं भी हँस पड़ा।
"इसमें दान की क्या बात है। अपनी इच्छा से दिया है।" उसने हँसकर कहा। लेकिन जाने क्यों उसके इस वाक्य से मैं अपनी ही दृष्टि में फिर याचक सिद्ध हो गया।
“आपको क्या मालूम मैंने आपसे कितना पाया है। हर क्षण आपसे कुछ-न-कुछ पाता ही हूँ। आखिर मैं आज जो कुछ हूँ उसमें आपका ही हाथ है। आपसे क्या कुछ कम मिला है मुझे !” उसने भावावेश में कहा। और मैं उसकी इन बातों का अर्थ सोचने लगा। शायद वह मुझे कृतज्ञ होने का अवसर न देकर अपने को और अधिक ऊँचा सिद्ध करना चाहता है। मुझसे रहा नहीं गया। मैं हँसकर बीला, “यह सौदेबाजी नहीं होगी।"
"सौदेबाजी के अतिरिक्त और इस जीवन में क्या होता है भाई साहब ! मुझ पर किए गए आपके उपकारों की यह कीमत नहीं है, उनकी कोई कीमत हो भी नहीं सकती। इसे तो अपने प्रति मेरी श्रद्धा, मेरा स्नेह, जो आपको उचित जान पड़े मान लीजिए।” उसने पुनः भावावेश में कहा और उठकर जाने के लिए खड़ा हो गया।
और मैं सोचने लगा मैंने उसे क्या दिया है, उसके प्रति क्या उपकार किया है ? उसे मैं अपना आत्मीय मित्र भी नहीं कह सकता। एक काफी परिचित व्यक्ति की परिधि में रख सकता हूँ। अक्सर वह मेरे पास आता है, उठता बैठता है, कला और साहित्य की सुनी-सुनाई बातें करता है, हँसता-बोलता है। पत्र-पत्रिकाएँ और किताबें पढ़ने के लिए माँग कर ले जाता है और कभी-कभी मेरे साथ घूमने घामने भी चला जाता है। मैं इतना बड़ा लेखक भी नहीं हूँ कि मेरे साथ का ही दम वह भर सके। यूँ वह स्वयं एक सांस्कृतिक संस्था में काम करता है और अच्छा वेतन पाता है।
"कैसी बातें करतें हो तुम," बड़े-छोटे की जो जमीन तैयार उसने की थी, उसे बराबर करने की नीयत से मैंने कहा ।
"नहीं, यह सच है, यकीन मानिए, सेवक की तुच्छ भेंट !” उसने पूर्ण विह्वल भाव से कहा । बराबरी की भावना मेरी ओर से व्यक्त किए जाने के कारण शायद और उपकृत अनुभव करके वह आवेश में आ गया था। क्योंकि इतना कहते-कहते वह रुक नहीं सका, चला गया।
भावावेश में आकर जो श्रद्धा या स्नेह दिया जाता है वह कितना क्षणिक होता है इसका अनुभव मेरे जीवन में काफी तीखा रहा है। और मैंने पुनः एक नये अनुभव के लिए अपने को सौंप दिया।
अक्सर वह दूसरे-तीसरे दिन मेरे पास आता था। लेकिन उस दिन शाम को ही आ गया। उसें देखते ही मैंने अनुभव किया कि उसके मन में कोई भयानक संघर्ष है। घड़ी मेरी कलाई में बँधी हुई थी। आते ही उसने दृष्टि चुराकर मेरी कलाई की ओर डाली और अपने आप जल्दी से अपने आने की सफाई देते हुए बोला, "यह देखिए मेरी नयी घड़ी। मैंने कहा, चलें आपको दिखा आएँ। कहीं आप यह न समझें कि मैं झूठ बोल रहा था बिना घड़ी के हूँ।" और अपनी कलाई मेरे आगे कर हँसने लगा। एक सुनहरी बड़ी नयी घड़ी उसकी कलाई में दमक रही थी ।
और फिर वह काफी देर तक बैठा उस घड़ी की विशेषताएँ, मेरी घड़ी की विशेषताएँ, बाजार में घड़ियों का दाम, रूस और स्विटजरलैंड की घड़ियों की तुलना आदि करता रहा। कला और साहित्य पर उसने उस दिन कोई बात नहीं की। ऐसा नहीं था कि उसकी बातों से मैं उसके अन्तर के संघर्ष को भांप नहीं रहा था, पर क्या करता घड़ी उतारकर उसे देने का न कोई बहाना मेरे पास था न औचित्य ही । काफी देर बाद वह चला गया। जाते-जाते उसकी दृष्टि मेरी कलाई पर अटकी । मुझे कुछ नहीं सूझा तो बोल बैठा, “तुम्हारी घड़ी काफी अच्छा टाइम देती है।” कहने के बाद मुझे लगा कि वह 'तुम्हारी' शब्द पर आपत्ति करेगा। कहेगा, 'अपनी' कहिए अपनी । लेकिन यह सब उसने नहीं कहा; बल्कि दरवाजे पर खड़े-खड़े उसकी मजबूती आदि की तारीफ में किस्से सुनाने लगा। कैसे उसके छोटे भाई ने उसे टब में डाल दिया और वह दिन-भर टब में पड़ी चलती रही; कैसे सैकड़ों बार गिरकर भी न टूटी, न बन्द हुई; कैसे जब से खरीदी गयी उसकी एक बार भी सफाई की जरूरत नहीं पड़ी। और मैं पुनः अपनी गलती पर पछताने लगा ।
महीने भर तक वह दूसरे-तीसरे मेरे पास आता रहा और पूछता रहा। उसी तरह सतृष्ण भाव से मेरी कलाई की ओर देखता रहा और पूछता रहा, “ठीक चल रही है न ?” और फिर घुमा-फिराकर घड़ियों की कीमत से लेकर उस घड़ी की अच्छाइयों पर प्रकाश डालता रहा। जितनी देर वह बैठा रहता उसकी निगाह मेरी कलाई की ओर ही रहती। एक दिन बोला, “कुछ मामलों में यह घड़ी मेरी इस नयी घड़ी से बेहतर है। इतनी हल्की है, पता नहीं चलता आप कलाई पर कुछ बाँधे भी हैं या नहीं। वैसे यह नयी वाली भी हल्की है पर उतना आराम इसमें नहीं है। ज्यादा बड़ी होने पर कुछ अटपटी लगती है। लेकिन है आठ सौ की। इसकी शान ही और है।" मुझे लगा जैसे अन्तिम वाक्य उसने इस डर से कहे हैं कि मैं बदल लेने का प्रस्ताव न कर बैठूं। मैं उसकी बेचैनी समझकर भी लाचार था। घड़ी लौटाकर अशोभनीय स्थिति उत्पन्न करना नहीं चाहता था।
एक दिन वह आया तो उसकी कलाई में घड़ी नहीं थी। मुझसे बोला, "पुरानी चीज पुरानी ही होती है। कहावत है नया नौ दिन पुराना सौ दिन । आपको मालूम है अभी महीना भर भी नहीं हुआ, मेरी नयी घड़ी टाइम गलत देने लगी। आप ही बताइए फिर इतनी कीमती घड़ी का फायदा ही क्या। उससे कहीं अच्छी आप वाली घड़ी। मैंने तो उसे कल ही मुंबई पैक कर दिया। महीने भर से कम में क्या ठीक होकर आ पाएगी।"
इतना कहकर उसने मेरी कलाई की ओर देखा। मैं यह अवसर चूकना नहीं चाहता था, तुरन्त बोल पड़ा, "तब तक तुम इसे बाँधो ।" और मैंने जल्दी से वह घड़ी अपनी कलाई से उतारकर उसी तरह उसकी कलाई में बाँध दी जैसे एक महीने पूर्व उसने मुझे बाँधी थी।
एक बहुत बड़ा बोझ मेरे ऊपर से उतर गया, क्योंकि अब मैं घड़ियों प्रवचन सुनने के स्थान पर उससे बातें भी कर सकता था। मैंने देखा वह इस तरह सन्तोष से विभोर हो अपनी कलाई की ओर देख रहा है जैसे बहुत दिनों के बिछुड़े किसी साथी को पाकर कोई देखता है।