गलत सोहबत (कहानी) : रशीद जहाँ

Galat Sohbat (Story in Hindi) : Rashid Jahan

"अब्बाजान सईद भाई जा रहे हैं।"

“हूँ!” चीफ जस्टिस सर उताउल्लाह ने ब्लाटिंग को जल्दी से छिपाते हुए कहा । "तो आपने फिर उनको निकाल ही दिया?" ज़किया की आँखों में नफ़रत और बगावत की चमक थी।

“तुमको इन बातों से क्या मतलब। जाओ, तुम अपना काम करो।” जज साहब ने झल्लाकर कहा।

“तो आप मुझको भी जाने दीजिए।"

कहना तो चाहते थे कि जाओ, तुम भी दफ़ा हो लेकिन बेटी जात थी। उसकी आँखों की तरफ देखा और खून का घूँट पीकर सिर्फ़ इतना ही कहा, “जाओ यहाँ से, ज़किया, मुझे काम करने दो।"

जज साहब ने अपनी कोहनियाँ मेज़ पर टिका दीं। नज़रें, फ़ाइल पर थीं, लेकिन दिमाग कहीं और था। आज उनको सईद पर ज़्यादा गुस्सा आ रहा था। खुद नालायक हो तो हो, ज़किया को भी नास कर रहा था। ज़किया की हिम्मत तो देखो, मुझसे लड़ने आई । अट्ठाइस साल की उम्र हो गई और बेकार ही घूमते हैं। इस उम्र में मैंने क्या-क्या न किया था। मुफ्त का आराम मिले तो आँखों पर चर्बी छा जाती है। जब अब्बा मेरे थे तो छोटे-छोटे बच्चे छोड़कर मरे थे। अम्मा बेचारी ने सिलाइयाँ कीं। चक्की पीसी। मैंने तेरह साल की उम्र से बच्चों को पढ़ाना शुरू किया था। उफ़, उस गुरबत और मुसीबत का ख़्याल करके कितनी तकलीफ होती है और आज यह साहबजादे आँख से आँख मिलाकर कहते हैं अपने किया ही क्या है? आपके अमीर हो जाने से किसका फ़ायदा हुआ?

गड्ढे में से निकालकर मैंने इन सबको आसमान पर पहुँचा दिया, जो आज्ञ यह इस क़ाबिल हुए कि कार्ल मार्क्स बगल में दबाए घूमते फिरते हैं ।

हमारा घर था एक काली अँधेरी कोठरी और छोटा-सा आँगन। बरसात भर हम सबके सब उसको लीप-पोतकर खड़ा रखते थे। एक खटिया पर तीन-तीन सोते थे। आज निवाड़ के पलंग पर ऐंठकर सईद साहब सोचते हैं कि वह दुनिया की हालत बदल देंगे और फिर खूबी यह कि फर्माते हैं कि अगर आपकी औलाद को बड़ी-बड़ी नौकरियाँ मिल गईं तो फ़ायदा किसको हुआ। जो पुराने ज़माने में आपके साथ थे उनका तो उल्टा नुक़सान हुआ। उनके दुश्मनों में एक का और इज़ाफ़ा हो गया। आपको उन ग़रीबों से क्या हमदर्दी है जो आज तक उसी हालत में पड़े हैं, आप हर उस कानून की हिफाजत करते हैं जिससे आपके पुराने तबके की हालत बदलने न पाए।

मैंने अपनी हालत बदली थी। मैंने मना किया था औरों को कि तुम न बदलो । मेरे दिमाग था, हिम्मत थी, आगे बढ़ गया। वह जाहिल और सुस्त वह क्या अपनी हालत बदलेंगे।

कहता है आपकी सारी मेहनत जो अपने चीफ जस्टिस बनने में खर्च की है। बेकार गई है, बिल्कुल बेकार। उसने बेकार का शब्द इस्तेमाल नहीं किया था बल्कि कहा था आपने गद्दारी की है। गद्दार वह है या मैं हूँ। वह मेरी सारी मेहनत को मिटा देना चाहता है। खुद एक नमकहराम गद्दार की हैसियत से मेरे घर में रहता है। मैंने खुद मेहनत करके यह सोसायटी बनाई है। वह कौन है ? ....

“इब्राहिम-इब्राहिम जाओ भाई। एक इक्का तो ले जाओ।" घर के दूसरी तरफ से आवाज़ आई ।

उस आवाज को सुनकर जज साहब का गुस्सा और बढ़ गया। अब इक्के में बैठकर यहाँ से तशरीफ ले जाएँगे। मुझको ज़लील करने के लिए। जानते हैं कि शाम को अक्सर इज़्ज़तदार लोग यहाँ आते हैं तो उनको दिखाने को। मैंने कई बार कहा कि जाओ यहाँ से, अगर ऐसा काम करना हो तो किसी दूसरे शहर में दफ़ा हो। तो वह भी नहीं मानते। फर्माते हैं कि मैं तो जहाँ मुझको हुक्म मिलेगा वही काम करूँगा । हुक्म मिलेगा उन्हें है कौन उन्हें हुक्म देने वाला? बाप का हुक्म यह न मानें। माँ तो खैर सौतेली ठहरी। दादी का कहना यह न सुनें हुक्म मानेंगे किसका? पार्टी का? पार्टी क्या बला है? क़ैद याफ्ता बदमाशों की एक जमात जो किसी को बढ़ते-पनपते नहीं देख सकते। दूसरे की दौलत छीनकर बाँटेंगे कभी दौलत जमा की हो तो जानें दौलत किन मुसीबतों से जमा होती है।

ठण्डी साँस लेकर, कौन-सी नौकरी थी जो मैं इसको नहीं दिलवा सकता था। आखिर बड़े तीन लड़के लग ही गए। बड़ा खुदा के फ़ज़ल से अब कलेक्टर हो जाएगा। दूसरा रेलवे में है। तीसरा पुलिस में है। यह हजरत नौकरी नहीं करते। जब समझाया, भई, इस तरह की हरकतें छोड़ो, कुछ काम हाथ में लो तो जवाब सुन लो जिस जीने पर से आप अकेले चढ़कर इतने ऊँचे पहुँचे हैं, वहाँ मैं सबको सारे जहान को लेकर पहुँचूँगा। अब सारे के सारे कैसे एक से हो सकते हैं साहबज़ादे बेग़ैरत ऐसे हैं, कानपुर गए थे। छः महीने न रह सके कि टाइफाइड हो गया। जो दोस्त हैं, जिन्हें वह कामरेड कहते हैं, दो दिन ख़िदमत न कर सके। जाकर अस्पताल में पटक आए। ज़रा बुरा न माना और लगे उल्टे उन्हीं की तारीफ़ करने कि कोई डॉक्टर या नर्स तो वह लोग हैं नहीं। पैसा उनके पास नहीं। अगर अस्पताल न ले जाते तो मैं मर जाता। दादी के चहीते हैं। उन्होंने रो-रोकर सारा घर सर पर उठा लिया और फिर कहीं जाकर ज़िन्दा हुए तो अब फिर से वही जुनून...।

"अरे इब्राहिम, भई, तुम अभी गए या नहीं?"

अच्छा अभी गए नहीं हैं? मुसीबत की ज़िन्दगी को जान-बूझकर अपना लेना यह कहाँ की अक्ल है। सारे जहाँ का दर्द अपने दिल में समा लेना यह कौन-सी दानिशमंदी है। भई, तुम अपनी फ़िक्र करो । रुपए कमाओ, आराम से रहो। ना.... उनसे यह नहीं हो सकता। अगर चैन से नहीं बैठ सकते तो हर वक्त दूसरों को परेशान भी न करो। यह नासमझ तो मेरे सामने हर वक़्त आईना लिए खड़ा रहता है। सारी दुनिया मेरी तारीफ़ करती है। मेरा नाम मिसाल के तौर पर शान से लेती है, और मेरी ज़िन्दगी को नकारा, बेकार और फ़िज़ूल समझते हैं तो मेरे साहबजादे! उनको क्या मालूम मुसीबत किसको कहते हैं? जेल क्या हो आए कि मानो हज़ कर आए।

मैंने तेरह साल की उम्र से काम करना शुरू किया था। खुद पढ़ा था। छोटे भाइयों को पढ़ाया था। बड़ी मुश्किल से इंट्रेंस करके तीस रुपए की नौकरी की थी। जब उस कोठरिया को छोड़कर हम दालान वाले घर में गए थे तो अम्मा ने मुझको बरबस चिपटा लिया था। मैंने उनसे वायदा किया था कि अम्मा तुमको महल में बिठाकर दो मामाएँ ख़िदमत के लिए नौकर रख दूँगा। साहबज़ादे फर्मा हैं, इन दो औरतों के दिल से पूछिए जो आपके यहाँ गुलामी करती हैं।

"वाजिद, वाजिद, अरे भाई इब्राहिम से कहा था, अभी तक इक्का नहीं आया।"

"इब्राहिम तो इधर है नहीं।"

" तो भई तुम ही जाकर ला दो।"

“मुझको लेडी साहब का हुक्म है कि इस वक्त कहीं न जाया करूँ।”

"खुद नहीं जा सकते तो क्या इब्राहिम को भी नहीं ढूँढ सकते?" ज़किया ने वाजिद को डाँटा । “सईद भाई मैं आपकी जगह होती तो कभी इतने दिन यहाँ न रहती। नौकर तक आपकी इज़्ज़त नहीं करते। सचमुच आप बहुत बेगैरत हैं। अभी हामिद भाई कहते तो..."

सईद हँसा, "मेरी और हामिद भाई की बराबरी है? वह इनाम इकराम देते रहते हैं। वह कलेक्टर हैं।"

“तुमको कलेक्टर होने से किसने मना किया था?” सर अताउल्लाह बेग ने अपने ख्यालों का सिलसिला जारी रखा। “इसी दिन के लिए मुसीबत उठाई थी कि मेरे बच्चे खुशहाल रहें, दुनिया में इनकी इज़्ज़त हो । एक कलेक्टर है, दूसरा कप्तान पुलिस है तो कितना मेरा दिल खुश होता है। इसको भी यह नाहंजार कहता है कि मैं नाम के लिए मरता हूँ चन्दे भी इसीलिए देता हूँ । अम्मा के लिए नौकरानियाँ भी इसीलिए रखता हूँ। मुझसे इन्सानी हमदर्दी नहीं कल मैं गुस्से में फ़ैयाज़ी को एक थप्पड़ मार बैठा तो मेरी जान के पीछे पड़ गया। अब नौकरों पर भी हमारा हक नहीं? नौकर न हुए हमारे आक़ा हो गए? अब नौकरों को भी न पीटें तो हमारा काम कैसे चले।

हमने क्या-क्या मुसीबत न उठाई। अफसरों के क्या-क्या नखरे न सहे हैं क्या-क्या खिदमतें उनको खुश करने को नहीं कीं। बहुत-सी बातें तो ऐसी की जाती हैं कि इन्सान खुद अपने से एतराफ ( स्वीकार) नहीं कर सकता और जो ऐसी बातें न करो तो पड़े रहो गड्ढे में। अगर मैंने बेईमानियाँ की हैं और हर किस्म की जलील हरकतें की हैं तो किसके लिए। इसीलिए न कि आगे चलकर मैं और बच्चे आराम से रहें तो आँख में आँख डालकर कहता है...।"

एक मोटर दफ्तर की खिड़की के नीचे आकर ठहर गई और सर अलीबेग के बड़े लड़के उतर पड़े। "अरे भई सईद, यह असबाब किसका है?"

"मेरा है।"

"क्यों भई सईद, कहीं जा रहे हो?"

"जी हाँ।"

"कहाँ ?”

“पार्टी दफ्तर ।”

" अरे मियाँ तुम भी किस बवाल में पड़े हो । छोड़ो यह क़िस्सा फिर कहीं जेल-वेल न चले जाना।"

सईद हँसा, “मुझे जेल जाने का शौक नहीं। बाहर रहकर काम करना चाहता हूँ। यह तो आप अफसरों की मेहरबानी है, जब चाहें भेज दें।"

जज साब बाहर की बातें सुनकर दिल ही दिल में कहने लगे, जी हाँ, बजा है। जिद और हिमाकत की कोई हद है। हज़ारों को हर साल जेल भेज दिया हूँ। मेरी एक क़लम की जुंबिश से लोग फाँसी के तख़्ते पर लटक जाते हैं मेरी तौहीन की हद है या नहीं कि मेरा ही लड़का जेल जाए। मेरा दिल तो अब इसकी सूरत देखने को नहीं चाहता। शुक्र है आज जा रहा है।

लेकिन मुझे चैन कब मिलेगा? उधर अम्मा हर वक़्त रोएगी कि वापस बुला लो। उधर बीबी साहिबा लड़ेगी कि वह ज़किया को भड़काता है। घर में नहीं घुस सकता, अब चाहे कुछ हो मैं इस दिन के कीड़े को हरगिज घर में घुसने नहीं दूँगा । अब तो अम्मा चाहे कुछ कहें और ज़किया चाहे कितने नखरे बघारें, सईद मिया अब यहाँ न आने पाएँगे। अगर बुला लो तो कोई शर्मिन्दा होकर थोड़े ही आएगा। जो काम करता है वही करता रहेगा। मेरे रुपए को मुल्क का रुपया कहता है| बेदर्दी से खर्च करता है फिर हर वक़्त अदालत करता है। मेरे हर काम को तराजू के पलड़े में तौलता है। ... यह क्या जाने तौलना। इसका तजुर्बा हमको है । दुकान पर छटाँक छटाँक भर आटे के लिए बनिए से लड़ना पड़ता था। हर ख्वाहिश को आगे के लिए छोड़ देना पड़ता था।

फिर बीवी मिली। उफ कितनी बुरी। एक दिन मेरी तबीयत उससे न लगी। सईद बिल्कुल अपनी माँ का नमूना है। जितनी मुझको तरक्की की थी वह उतनी ही लापरवाह थी । लोग कहते थे वह खुशकिस्मत है। उसके आते ही मेरी वकालत चलने लगी थी। लेकिन उसको परवाह ही न थी । रुपए से मोहब्बत ही न थी। मरने के बाद कितनी मुश्किलों से सुगरा से शादी हुई है। जो कहीं आज वह जिन्दा होती तो यह पोज़ीशन क्या उस पर जँचती? या लेडी सा उस पर सजता? तोबा करो, तोबा ।

टेलीफोन की घण्टी बजने लगी। जज साहब ने माथा सिकोड़कर रिसीवर हाथ में लिया और कहा, “हैलो! कौन है !”

“आरिफ कौन आरिफ... ।”

“...”

"हाँ आप आए तो थे उस दिन... ।”

“...”

आप अब सब-इंस्पेक्टर है न?"

“...”

“हाँ, मुझको याद आ गया।"

“...”

“आपने ज़िक्र तो किया था अपने लड़के की शादी का ।"

“...”

"लेकिन भई, मुझको माफ कर दो। मैं नहीं आ सकता।”

“...”

“पाँच मिनट को भी नहीं। यहाँ मेरे यहाँ आज डिनर है। मैं नहीं आ सकता।"

“हाँ, हाँ, मुझे खुशी है। मेरी तरफ से मुबारकबाद कुबूल करो।"

“...”

"नहीं, मैंने वायदा तो नहीं किया था। यह कहा था कि फुर्सत हुई तो जाऊँगा।"

“...”

“हाँ, हामिद आए हुए तो हैं, लेकिन उनका भी डिनर पर होना ज़रूरी है। अच्छा, खुदा हाफ़िज ।”

आँख ऊँची की तो बड़ा लड़का हामिद सामने खड़ा था। हँसकर पूछने लगा, "यह कौन जाते- शरीफ थे?"

"एक मौलवी सैयद हसन किसी जमाने में हमारे पड़ोस में रहते थे। उन्होंने बचपन में मुझे कुरानशरीफ़ पढ़ाया था उनके छोटे साहबज़ादे हैं। कांस्टेबिल से बढ़कर अब सब-इंस्पेक्टर हुए हैं। लड़के की शादी है। तीन-चार बार आकर दि कर चुके हैं और अब टेलीफ़ोन..."

" न मालूम यह लोग इतने कूढ़मगज क्यों होते हैं। खुद ही क्यों नहीं समझ जाते जो फिजूल दूसरे को झूठ बोलने पर मजबूर करते हैं। भला सोचिए चीफ जस्टिस साहब चले जा रहे हैं एक कांस्टेबिल के लड़के की शादी में । कोई तुक भी तो हो।”

जब साहब ने अपने होनहार बेटे की तरफ देखा जो खुदा के फ़ज़ल से अपने जिले का कलेक्टर था । लाखों पर हुकूमत करता था और अब चार रोज की छुट्टी लेकर बाप से मिलने आया था। उसकी आँखों से बाप के लिए मोहब्बत और हमदर्दी टपक रही थी। उसने बाप को झूठा, गद्दार या बेकार और फ़िज़ूल ज़ाहिर न किया था।

इक्के की खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी और साथ ही ब्लाटिंग पर नजर पड़ी जहाँ पेंसिल के निशानों के बीच जज साहब यह लिख गए थे, "वह नाहंजार कहता है कि मेरी ज़िन्दगी बेकार है। बेकार ही नहीं शुरू से आखिर तक सिफर है।"

फिर हामिद की तरफ नजर उठाई और बोले, "सईद साहब तशरीफ ले जा रहे हैं, जैसे कि मुझे पर कोई एहसान फर्मा रहे हों बेकार, फिजूल किसी काम का नहीं रहा।"

हामिद ने बुजुर्गाना अन्दाज़ से अफसोस जाहिर करते हुए कहा, “गलत सोहबत...।"

जज साहब ने सर हिलाकर अपने लायक बेटे की हमदर्दी कुबूल की।

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