गाँव में बारिश नहीं (तेलुगु कहानी) : चागंटि सोमयाजुलु
Gaanv Mein Barish Nahin (Telugu Story) : Chaganti Somayajulu
सवेरे ही जाना होगा। बस में सीट मिल सकती है या नहीं भी मिल सकती है। बस अगर नहीं तो? पता नहीं क्या होगा?
"पौ फटने वाली है। उधर जाकर देखिए।" मेरी पत्नी ने कहा। मैं बड़े आवेग के साथ उठकर आकाश के सभी कोने देखने लगा। पहले तो अंधेरा-सा दिखाई देने लगा। उसके बाद सवेरा हो गया। यह जानकर भी कि घर की वाच (घड़ी) बीमार पड़ गई, उसे मैंने वैद्य के पास ले जाकर इलाज नहीं कराया। टाइम को मुर्गों की बाँग से या कौओं की काँव-काँव से ही जान लेते हैं। मैंने पूछा, “अभी नौकरानी नहीं आई?" पत्नी ने उत्तर दिया, "असल में वह आज आएगी नहीं। वह जब कभी बीमार पडती है तो नहीं आती। आती भी है तो चार बजे आती है। चाहे जोर से बरसात हो या चाहे सर्दी कँपा रही हो। वह आवाज देती हुई कहती है, 'माँ जी! दरवाजा खोलिए।' जोर से दरवाजे पर दस्तक देती है। अब ठीक चार बज रहे हैं। वह अभी तक नहीं आई। आकाश बड़ा निर्मल है। पूरा आकाश नक्षत्रों से भरा हुआ है।"
जल्दी-जल्दी नहा-धोकर, तैयार होने पर मेरी पत्नी कॉफी बनाकर लाई है। सन्नाटा फैला हुआ था। उस सन्नाटे के बीच कामराजु के खर्राटे पचास गज की परिधि में फैल गए थे। अचानक जोर की छींक सुनाई पड़ी। कोई मच्छर ही खुर्राटे के साथ अंदर घुस गया होगा।
मैं चौंक गया। जब रवाना होने के पहले काफी पीने जा रहा है तो छींक सुनाई पड़ी। काम न आनेवाला 'टैबू'। यह टैबू है बड़ा खतरनाक। वह कितना भी बड़ा क्यों न हो। उसका धीरज छीन लेता है। यह है पीढ़ियों से चले आनेवाली रूढ़ियों की दिक्कत।
मामूली तौर पर होता तो मैं उसे टाल देता, यही मेरी प्रवृत्ति है। मैं तर्कबद्ध रूप से ही जीने की चेष्टा किया करता था। मुझे कोई अंधविश्वास नहीं। मुझमें कोई कट्टरपन नहीं है-यह कहते हुए मैं डींग मारता रहता हूँ। आज मैं द्वंद्व में रह गया। कभी-कभी बुद्धि घास चरने लगती है। वह पगलाए विश्वासों के पीछे चलती है।
उस दिन बस पकड़कर मुझे जल्दी-जल्दी गाँव जाना था। अपने बेटे से मिलना है। समय पर बस को उस गाँव पहुँचना है। उस गाँव से मेरे बेटे को कहीं नहीं जाना है। अगर मेरा बेटा वहाँ नहीं है तो मुझ पर बड़ा संकट टूट पड़ेगा। मैंने उसे पत्र लिखा था। पता नहीं वह समय पर मिला है कि नहीं।
मेरी पत्नी मुझसे भी ज्यादा डरी हुई है। जाने की बात कहकर मैं घर से निकल पड़ा। मैंने उससे दरवाजा बंद कर लेने को कहा। नौकरानी तो नहीं आई। चार भी बजे नहीं। जितनी
जल्दी चला जाए उतना अच्छा है। पहली बस पकड़नी है। बड़ा अंधेरा था। हमारे घर की दीवार के छेद में से आवाज करता हुआ एक चूहा हमारी आँखों के सामने ही सड़क को पार कर नाले में कूद गया। मेरे सामने से काले धब्बोंवाली सफेद बिल्ली ने उसका पीछा किया। चूहा तो उसके पंजे से बच गया, लेकिन मैं फँस गया। मैंने छि:-छि: कहकर उसे भगाना चाहा। दुम को नब्बे डिग्री के कोण पर सीधा करते हुए वह अंगड़ाई भरने लगी। धीरे से चलकर दीवार पर से कूदकर दूसरी तरफ चली गई। असल में वह बिल्ली हमारी ही है। जब मैं खाना खाता हूँ तो सामने बैठ जाती है। खाना खाने के लिए म्याँव-म्याँव की आवाज करती हुई मेरे खाने के हर कौर के साथ सिर ऊपर उठाती और झुकाती हुई वह कौरों की गिनती करती है।
मैंने सोचा कि मैं घर के भीतर जाकर हाथ-मुँह धोकर एक मिनट तक बैठकर फिर रवाना हो जाऊँ। इस कमीनी बिल्ली ने मुझे शनि की तरह पकड़ कर मेरा रास्ता रोक दिया। मुझे लगा कि आगे रखे हुए पैरों को पीछे हटाएँगे तो काम भी पीछे हट जाएगा। आगे बढ़ने में मुझे डर लगा। पीछे हटना अपशकुन जैसा है। मैं जहाँ-का-तहाँ रह गया। सड़क के नल ने फुफकारना शुरू किया। रिजरवायर से पानी छोड़ा गया था। नल के पास जाकर उसे दबाने पर फुचकारों से पानी ने जोर से उछलकर मेरे कपड़ों को भिगो दिया। हाथ-मुँह धोकर मैंने लंबी साँस ली। मैं हमेशा बिना 'शकुन' देखे रवाना हो जाता था। जाने की इच्छा के जगते ही में निकल जाता हूँ। यह मेरी आदत है। घर में 'पंचांग' नहीं रहता। तिथि और सप्ताह के नक्षत्र मुझे याद ही नहीं रहते। पंचाग परखनेवाला ब्राह्मण कई साल पहले ही मर गया। जब वह जिंदा था तब वह कंधों पर चावल के भारी बोरे को ढोते हए लाता और सीतारामाभ्यान्नमः आज तदिया मंगलवार है, अश्वनी नक्षत्र हैं, 'वर्ज' सात बजे चला गया।" कहते हुए सभी की गिनती किया करता था। उससे तो मैंने पिंड छुड़ा लिया, लेकिन आज मैं बड़ी मुसीबत में पड़ गया। छींक सुनाई पड़ी। बिल्ली सामने से चली गई। एक अपशकुन से दूसरा अपशकुन मिट गया। हिसाब ठीक हो गया। धीरज बाँधा।
मैंने पहले ही बता दिया कि यह एक असाधारण यात्रा है जो चान्स पर आधारित है। बस को पहुंचना है, मेरे बेटे का वहाँ रहना है, काम होना है। नहीं तो जो नुकसान होगा वह मामूली नहीं है। क्या होने वाला है-सोचते ही मैं भयभीत हो गया। सड़क पर 'लाइट' नहीं है। अंधेरे में ही बसस्टैंड जाना है। बसस्टैंड में मेरे जाने के रूट की दो बसें हैं-छह बजेवाली और सात बजेवाली, मैं बच गया। बसों में कोई नहीं है।
कॉफी होटल कोलाहल से भरा हुआ था। रिकार्ड चल रहे थे। साढ़े चार बज गए। होटल में जाकर बैठने पर गीत की आवाज बहुत तेज हो गई। पेट में चूहे दौड़ रहे थे। चटनी के साथ इडली खाते हुए मैं गीत में डूब गया। वह गीत है जिसमें औरत भगवान से प्रार्थना कर रही थी। वह ऐसा फ़िल्मी गीत है जिसमें पीड़ा भरी हुई है। शायद मैं भी मुसीबत में होने की वजह से उस गीत को अंदर ही अंदर दुहरा रहा था। अनजाने में ही मेरी आँखें उमड़ आई। अगर कोई देखे तो समझेगा कि मैं रो रहा हूँ। मैंने आँखें पोंछ ली। लगा कि मेरी बुद्धि की शक्ति खतम हो गई। मेरा हृदय गीत के साथ तादात्म्य होकर प्रार्थना करने लगा। यह कहना इससे बेहतर होगा कि वह रोने लगा। प्रार्थना की निस्सहाय दशा रुदन ही है। मैंने दो इडली साँबर के साथ मँगवा ली। भूख से पेट में आग-सी जलने लगी। लेकिन वह भूख नहीं। पेट के अंदर से तड़फड़ानेवाली घबराहट थी।
इतना तो निश्चित है कि बस समय पर जाएगी। क्या मेरा बेटा गाँव में रहेगा? अगर नहीं रहेगा तो मेरी नाव डूब जाएगी। वह रहेगा ही। क्यों नहीं रहेगा? वह नहीं रहेगा तो कहाँ जाएगा? रहेगा ही, जरूर रहेगा। इस तरह मैं कितना भी अपने आपको समझाऊँ, फिर भी शंका मेरा पीछा कर ही रही थी।
कॉफी पीकर बाहर आया और सिगरेट सुलगाने लगा। बस कंडक्टर तब तक नहीं आया था। आकाश में तारे चमक रहे थे। 'सिलियस' नक्षत्र रंग बदलते हुए अच्छी तरह चमक रहा था। 'धनी' नक्षत्र लाल होकर चमक रहा था। यही मेरा जन्म नक्षत्र है। मेरी जन्मपत्री लिखी नहीं गई। लेकिन मुझे जन्म की तिथि और नक्षत्र मालूम हैं। यात्रा से लौट आने के बाद जन्मकुंडली देखनी है कि उस 'विदिषा' में ज्योतिष क्या कहेगा।
मेरा मुँह कडुवा हो गया। मैंने कई सिगरेटें जला दीं। सुपारी खा ली। वह भी कड़वाहट को बढ़ा रही थी। मन में पगलानेवाले विचार उमड़ रहे थे। क्या बस रवाना होगी? पहली बस बिगड़ जाए तो पीछे दूसरी है। क्या उसमें सीट मिलेगी। टायर फट जाएगी तो? क्या दूसरी टायर है? अजीब विचार । एक जाना-पहचाना आदमी सामने से आया। मैं जी उठा। इधर-उधर की बातें कर सकते हैं। थोड़ा 'टेन्शन' भी कम हो जाएगा। उसीने मुझे पहचाना और बातें शुरू की। मैंने उससे गाँव जाने की बात कही।
"अरे बहादुर ! तुम तो आज ही निकल पड़े।" कहकर बात बढ़ाते हुए फिर कहा "तुमको किसी पर विश्वास नहीं है, इसलिए आज जा रहे हो और वह अष्टमी के दिन, 'वर्ज' के समय में।"
इन सभी बातों को देखें तो क्या काम पूरा होगा?" मैंने अपने स्वभाव के अनुसार ही कहा। लेकिन पूरे शरीर से पसीना निकलने लगा। मैं अष्टमी के दिन ही निकल पड़ा, वह भी 'वर्ज' के समय पर। अगर देख भी लेता तो मैं कुछ कर नहीं सकता था। जाने का समय ठीक नहीं है। साथी ने मुझे कॉफी के लिए बुलाया। “मैंने तो पी ली। तुम जाकर पी लो।" कहकर मैंने उसे विदा किया।
मैं बस पर चढ़ गया। बस चलने लगी। मेरी इच्छा के अनुसार उसी बस में यात्रा हो रही है। बस में आधे लोग भी नहीं। बाकी जगह तो खाली पड़ी हुई है। मालूम नहीं कि नतीजा क्या निकलेगा। मेरा बेटा गाँव में रहेगा कि नहीं। मैंने जेब से कागज निकालकर उसके दो टुकड़े किए। और उन टुकड़ों पर रहेगा, नहीं रहेगा। ये दोनों बातें लिखकर उनकी दो गोली बनाकर उनमें से एक को बाहर फेंक दिया। दूसरी गोली को खोलकर देखने से 'नहीं रहेगा' शब्द देखने को मिले। मैंने सोचा-'क्यों नहीं रहेगा।' 'रहेगा ही।' और फिर दो कागज के टुकड़ों पर ये शब्द लिखे। इस बार रहेगा ही शब्द देखने को मिला। इन दोनों में से कौन सा सत्य है? फिर तीसरी बार भी मैंने वही काम किया। ...तीसरी बार निकला 'नहीं रहेगा। घबराहट ने मुझे छोड़ा नहीं।
बस बड़ी तेजी से चल रही है। इस तेजी से मुझमें उत्साह बढ़ने लगा। ग्यारह बजे के पहले ही यह गाँव में उतार देगी तो दो बजे तक फिर बस से वापस लौट सकता हूँ। जाना है, फिर लौटना है। गाँव के बीच में बस रुक गई। खेतों से एक आदमी दौड़ता हुआ आ रहा था। बस रोकने के लिए चिल्ला रहा था। यह बड़ा मोटा था। पता नहीं उसे कौनसा 'अर्जेण्ट' काम है। “आओ जल्दी" कंडक्टर ने जोर से कहा। वह हड़बड़ी में आकर बस में चढ़ गया।
क्या आज वह बस सीधी चलेगी। “एकाक्षी, तुम कहाँ जाओगे?" कंडक्टर ने पूछा। जो बस में चढ़ा है उसकी एक आँख नहीं थी। वह आँख बाहर उभर कर एक सफ़ेद कौड़ीसा था। मैंने अपने आप पर तरस खाया। मैं हताश होने लगा। जो होना है, वही होगा। आधी दूरी तक आ ही गए और आगे आधी दूरी। बस बड़ी तेजी से चल रही है।
दरिया पर बनाए गए नए सिमेंट के पुल पर से बस चलती गई। दरिया का जल नीलवेणी की तरह बह रहा था। दरिया के बगल में धान के खेत थे, दूसरी तरफ आम और झाऊ के बगीचे थे।
उस झाऊ के बगीचे के पीछे से बादल घुमड़ रहे थे। ऊपर से ठंडी हवा जोर से चलने लगी। बस तेजी से चलने लगी। धूप गायब हो गई। बस में अंधेरा फैल गया। हवा बस को धूल से भर रही थी। दूर जोर से बारिश हो रही थी। बादल नीचे उतर रहे थे। बारिश बस का पीछा कर रही थी। मेरी भी यही दशा है। संकट पीछा कर रहा है। मैं आगे की ओर दौड़ रहा हूँ।
जिस गाँव में मुझे जाना है वह पास आ गया। लगता था कि अब कोई परवाह नहीं। बिखरा हुआ मेरा मन जुड़ने लगा। पीछे मुड़कर देखने से बारिश दिखाई दे रही है। दौड़-दौड़ कर वह थम गई। जिस गाँव में मुझे उतरना था उसके आते ही मैं बस से उतरकर दो कदम आगे बढ़ा। उस गाँव का नाई मेरे सामने आया। नमस्कार करते हुए उसने कहा, 'क्या है बाबूजी, उसे देखते ही मेरा बनावटी धीरज पंछी की तरह उड़ गया। आँखों में अंधेरा छा गया।
मेरे कंधे पर हाथ डालकर मेरा लडका बोला, 'क्या पिताजी. आ गए?' मेरी आँखों को वह दिखाई नहीं दे रहा था। बोली से मैंने उसे पहचाना। मैं डर गया कि क्या यह भ्रम तो नहीं है? भ्रम नहीं है। वह मेरा लड़का ही है। गौर से देखने पर वह सामने दिखाई पड़ा।
"बारिश आनेवाली है। हम चलेंगे। भोजन करने के बाद दुपहर की बस में आप जा सकते हैं।" तब मुझे होश आया।
बारिश सामने की खेतों पर जोर से हो रही है। वर्षा की धाराएँ खेतों में स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। गाँव पर बादल गरज रहे हैं। लेकिन उस गाँव में बारिश नहीं है।