गाड़ी पर नाव (मैथिली कहानी) : गोविंद झा

Gaadi Par Naav (Maithili Story) : Govind Jha

कभी नाव पर गाड़ी कभी गाड़ी पर नाव। कहावत तो बहुत दिनों से सुनता था लेकिन दोनों मे से कोई भी देखा कभी नहीं। संयोगवश पहली बार देखा एक भारी भरकम नाव एक जर्जर बैलगाड़ी पर लदी हुई। ठीक वैसा ही एक जोड़ा बैल कच्ची सड़क पर जी जान लगाकर गाड़ी खीचता हुआ और वैसा ही हलवाहा बैलों की मांसहीन पीठ पर सटासट छड़ी पटकता हुआ।

बैलों की दशा पर मुझे दया आ गई। हलवाहे से कहा? "अरे ओ? इस मूक जानवर को ऐसे क्यों मार रहे हो। सड़क के किनारे किनारे पानी जमा है। नाव को उसी में तैरा दो और रस्सी से खीचकर ले जाओ।"

"देखते नहीं नाव कैसा टूटा फूटा है। सरकारी रिलीफ का है। काम तो कुछ हुआ नहीं और बेकार में इधर से उधर पहुँचाते रहो।"
मैं भौंचक्का सा उसका उसका समर्थन करता हुआ बोला? "हाँ, वो तो ठीक है क्या होगा ऐसी नाव का। लेकिन इस बूढ़े बैल को ऐसे मत मारो। दया नहीं आती तुमको?"

"दया तो हमको भी वैसी ही आती है जैसे आपको लेकिन पेट को दया आये तब तो?" सचमुच बहुत बूढ़े हो गये हैं दोनों। मन तो होता है 'रिटेर' कर दें. दोनो को 'पिनसिल' दे दें और कहें मजे करो? उसने थोड़ा दम लिया और फिर से कहने लगा? "हम तो सचमुच इनको आज न कल 'पिनसिल' दे देंगे लेकिन हम भी तो बूढ़े हुए हमको कौन देगा पिनसिल?" बेइमनमा बी डी ओ कहता है? तुमको नहीं मिलेगा पिनसिल तुमको बेटा है। बाह रे बेटा? जिसको खुद औरत का बदन झाँपने के लिए एक बित्ता कपड़ा नहीं जुड़ाता है वो कैसे उठायेगा हमारे पेट का बोझ। आप ही बताइये।"

बेटे के लिये उसका यह उपहास मुझे अच्छा नहीं लगा। मैने समझाया बेटे के लिये ऐसे मत कहो कुछ मुसीबत आने पर बेटा ही तो काम आयेगा।

मेरा यह उपदेश शायद उसको अच्छा लगा। इतने से ही मुझे लगा कि आदमी समझदार है। वह जैसी रोचक और तर्कपूर्ण बातें कर रहा था वैसा पढ़े लिखे लोग भी कम ही करते हैं। काफी रास्ता मैने उसकी ऐसी ही बातों में तय कर लिया।

अरे रे, ये मैं कैसी बातों में फँस गया। सुनाना था कुछ और सुनाने लगा कुछ। जो न करें गिरिधर काका? जहाँ कुछ याद करने लगूँ कि वही टपक पड़ते हैं। खैर तो लीजिये सुनिये उनकी ही कहानी।
मध्यमा में पढ़ता था। एक दिन गुरूजी के सामने गिरिधर काका की चर्चा चली। गुरूजी ने कहा? "वो तो बिना पढ़े ही महापंडित हैं।"
"बिना पढ़े ही ?"
"हाँ, बिना पढ़े ही।उन्होंने पाणिनीय व्याकरण के कोने-कोने से विकट शंकाओं को जमा कर रखा है और उसी से न जाने कैसे कैसे महापंडितों को पछाड़ देते हैं। विद्यार्थी तो उनको देखते ही कन्नी काट जाते हैं।"

सुनते ही मै सर खुजाने लगा। अभिमान जाग उठा। निश्चय किया कि इस पंडित पछाड़ पंडित की थाह लेनी चाहिये। चट से उपस्थित हुआ काका के समक्ष। क्षण भर औपचारिकता का निर्वाह कर उन्होनें चढ़ा दिया मुझे अपने सवालों की सूली पर। उनके विकट शंका का समाधान तो मैं नही कर सका परंतु जितना ही कहा उतने से ही वे हमारे प्रति स्नेहाद्र हो गये। मुझे भी उनका सान्निध्य अच्छा लगने लगा। थे तो वे मुझसे दस बारह साल बड़े लेकिन उनमें एक अदभुत कौशल था कि वे किसी से भी गप करते हुए अपनी उम्र भूलकर उसी की उम्र के हो जाते।इसी से मेरा जो मन होता बेधड़क उनसे पूछ डालता। एक दिन ऐसे ही पूछ बैठा? "काका आपने इतना ज्ञान अर्जित कर रखा है कि आप तो आसानी से आचार्य पास कर कहीं अच्छी नौकरी कर सकते हैं।?

उन्होंने थोड़े उत्तेजित स्वर में उत्तर दिया "अरे मेरे क्या पेट में आग लगी है जो मैं घर द्वार सर समाज छोड़ कर नौकरी के लिये भीख माँगता फिरूँ ?”

मैं कुछ नहीं कह सका अर्थात कुछ कहना नहीं चाहता था। मेरी नज़र एक बार फिर से उनके कंधे पर रखे फटे हुए गमछे, कमर से घुटने तक शरीर को ढकने में असमर्थ पुरानी धोती, पारदर्शी छत वाले टाट के घर और जीर्ण दरवाज़े पर पड़ी। क्या काका इसी घर द्वार की रक्षा के लिये तब तक डटे रहेंगे जब तक उनका पेट न जलने लगे?"

उनके इस जीवन दर्शन और जीवन शैली के महान प्रशंसक और घोर निंदक दोनो मौज़ूद थे। किसी के मुँह से सुना कि ऐसा विद्वान और ऐसा अभागा आदमी गिरिधर बाबू को छोड़कर दुनिया में कौन होगा। देखिये न कैसे विलक्षण और संस्कारी बेटे हैं दोनो, लुकड़ी की रोशनी में पसीने से तर बतर पढ़ने में मगन हैं। बाहर पढेंगे कैसे लुकड़ी जो बुझ जायेगी। कौन इस अभागे से पूछेगा कि एक लालटेन क्यों नहीं ले देते ?

इसके ठीक विपरीत काका ने कहा था देखो इसे कहते हैं विद्यार्थी। देह से टप-टप पसीना चू रहा है और सरस्वती को अर्घ्य चढ़ता जा रहा है। देख लेना लुकड़ी की रोशनी में पढ़ने वाले आगे बढते हैं या बिजली के पंखे के नीचे पढ़ने वाले। अरे पता है तुमको हमारे पितामह तो पतला जला जला कर भी पढ़े हैं और पितामही तो पतला जला कर ही साँझ देती थीं।

मुझे यह समझ नहीं आया कि काका इस भीषण दरिद्रता का वर्णन किस प्रयोजन से कर रहे हैं। क्या दरिद्रता ही उनका आदर्श था और उसी से वे अपने को गौरवशाली समझते थे। इस प्रश्न का उत्तर काका को छोड़कर और कौन दे सकता है। मन तो हुआ कि पूछ लूँ दोनो सुपुत्रों से ही कि जैसे आपके पिता आपको देखकर गौरवान्वित हो रहे हैं वैसे तुम भी पिता की संयमशीलता पर गौरवान्वित हो कि नहीं। लेकिन अफ़सोस, कि इस सवाल का उत्तर देने की परिपक्वता तब तक इन दोनों बिचारों में नहीं थी। इसलिये हमारा यह प्रश्न भी अनुत्तरित रह गया।

काका का न पेट जला न उन्होंने गाँव छोड़ा। कदाचित उनका पेट लोहे का था इसलिये नहीं जला। लेकिन मेरा पेट तो निश्चय ही लोहे का नहीं था इसलिये जलने लगा और मुझे गाँव छोड़ना पड़ा। जब तक गाँव में था थोड़ी देर ही सही उनके पास अवश्य बैठता। उनके पास जा बैठता तो लगता जैसे किसी दूसरे लोक या दूसरे युग में पहुँच गया हाँ मुझे यह युग यात्रा बड़ी अच्छी लगती थी। जग उठती थी वैसी ही संवेदनाएँ और स्फुरण जैसा शायद किसी पुरातत्वविद को पहली बार हड़प्पा के खंडहरों को देखने पर हुआ होगा। नौकरीवाला होने पर भी कभी-कभी गाँव आता था तो काका के खंडहर में एक बार अवश्य घूम आता था।

एक बार गाँव आया तो एक युवक ने पैर छूकर प्रणाम किये और आगे आकर खड़ा हो गया। आँखें उठाकर देखा तो देखता हूँ कि छोटे परदे पर दिखाये जाने वाले विमल सूटिंग का मुस्कुराता हुआ मॉडल यहाँ कहाँ?

मॉडल खुद बोल उठा? "मुझे नहीं पहचाना होगा आपने, आपको याद होगा छः सात साल पहले मुझे लुकड़ी जलाकर पढ़ते देखा होगा। बाबूजी आपकी बहुत प्रशंसा करते रहते हैं। उन्होंने कहा है कि..."
"समझ गया? भेंट करने के लिये कहा है यही न?" मॉडल को विदा कर पीठ पर ही पहुँचा काका के घर। स्वागत में पिता पुत्र दोनो एक साथ खड़े थे। वाह क्या अदभुत कन्ट्रॉस्ट था! एक सूखी लकड़ी और दूसरा उसी लकड़ी की अनुपम मूर्ति।

लड़का गया लड़कों की बैठक में? मैं बैठा काका के पास। बड़ी देर तक बातें हुईं। सब सुनी सुनाई बातें, गाये हुए गीत। नयी थी तो सिर्फ एक छोटी सी घटना और मेरी भावुकता। बीच में काका ने कहा? "तुम त सहर में रहता है चाह त अवस्स्स पीता होगा। मँगा देते हैं एक कप।"
"कहाँ से मँगाइयेगा।"
"काहे ? अपने अंजना से। विलच्छन चाह बनाती है। जे पीता है ओही परसंसा करता है।"
"आप तो चाय नहीं पीते हैं, तब किसके लिये बनता है ?"
"दूनू बेटा के लिये और उसके संगी के लिये। इ कएसे हो सकता है कि हम नहीं पियेंगें त हमारा बेटा सब भी नहीं पियेगा?" अगर हमारा बेटा सब भी हमारे तरह हो जाएगा त अभी के टैम में काम कैसे चलेगा। जब हम चाह नहीं पीते थे त लोक कहता था कि किरपन है। अब देखिये कएसे बहता है चाह का धार। अरे महादेव को आक धतूरा चढ़ता है त कारतिक गनपति को भी ओही चढ़ेगा? किसको नहीं मालूम है कि गनेस को लडडू चाहबे करिये।"

काका ने जितना कहा उससे अधिक कह रहा था उनके कांधे पर का गमछा और बेटे का सूट। याद आ गई एक लकड़ी के मूर्ति बनाने वाले की। उससे पूछा था मैनें कैसे बनाते हो इतनी सुंदर मूतिऋेःपक्त उसने कहा था : मूर्ति तो लकड़ी में छुपी होती है साहब बस उसका ध्यान करते हुए हम तो उसका फालतू हिस्सा हटा देते हैं बन जाती है मूर्ति खुद ब खुद। वैसी ही लकड़ी हैं हमारे काका जिनके अंतःकरण या अवचेतन में विमल सूटिंग का वो मॉडल समाहित था।
 
काफी देर के बाद काकी ने दरवाज़ा खटखटा दिया। काका ने कहा "चाह इहाँ नही आता है। अंदर जाकर चाह पी लो। चाह में जूठ सूठ हो जाता है। छौंड़ा सब जे करे हम कएसे छोड़े अपना अचार-बिचार। आज कल कुछ कहने का जमाना नहीं है। अपने बचल रहें ओही बहुत है आ कि नहीं?"

काका के आज्ञानुसार लड़कों की बैठक से चाय पीकर आ रहा था। पर रास्ते भर सोचता आया। काका की ये उदारता सहज है या विवशतामूलक?" ठीक-ठीक उत्तर तो कोई मनोवैज्ञानिक ही दे सकता था। लेकिन फिर भी मैनें यही निष्कर्ष निकाला कि काका कोई काम विवशता में नहीं करते। प्रमाण है उनके कंधे पर का फटा हुआ गमछा। काका की धोती की खूँट में कम से कम एक सौ गमछा खरीदने के पैसे तो हमेशा रहते ही हैं।
तब कैसे कहा जा सकता है कि फटा हुआ गमछा इनकी विवशता का प्रमाण है।

गाँव में अजीब अजीब लोग मिल जायेंगे। एक महानुभाव कह रहे थे? "इ कंजूस पंडितजी बेटे पर आखिर इतना खर्च करते क्यों हैं? एक लगाओ दुगना पाओ। इससे बढ़िया इनभेस्टमेन्ट क्या हो सकता ?"
मैने सुन लिया और हूँ कह दिया। लेकिन मन ही मन कहा गणेश का चूहा भले हाथी हो जाए या कार्तिक का मयूर हवाई जहाज़ हो जाए उससे हमारे भोला दानी को क्या? वे तो मन ही मन प्रसन्न ही होंगे बस इतना ही न।

साल पर साल बीतता गया और गाँव से मेरा संपर्क टूटता गया। लेकिन इस काल प्रवाह में न तो मेरी काका के प्रति श्रद्धा में कमी आई और न ही उनका स्नेह मुझसे कभी कम हुआ। उनसे अन्तिम मुलाकात यही कोई सात महीने पहले हुई थी। किसी खास काम से गाँव आना पड़ा था। काका को गाँव वाले कॉर्डलेस से मेरे आने की सूचना मिल चुकी थी। संदेशा पर संदेशा आने लगा? काका ने बुलाया है। मैं विदा ही हुआ था कि रास्ते में ही मेरे दो दोस्त मिल गये। एक मित्र ने पूछा, "कहाँ चले? दूसरे मित्र ने मेरा बिना इंतज़ार किये उसका उत्तार भी दे डाला? "और कहाँ बेटे वाले का दर्शन करने।"

शायद इसी की प्रतिक्रिया में मेरे कदम फिर काका के घर की ओर मुड़ चले और कदमों की चाल तेज़ हो गई। भर रास्ते सोचता रहा कैसे जाहिल हैं इस गाँव के लोग। एक बेटा डॉक्टर है दूसरा प्रोफेसर अगर फिर काका अपने बेटों की बड़ाई करते हैं तो उचित ही करते हैं। गाँव के लोगों की छाती क्यों जलती है।
काका के यहाँ पहुँचा तो उनका घर आँगन देखकर लोगों की छाती जलना कुछ स्वाभाविक लगा। आधुनिक ढंग के बिस्कुटी रंग का भव्य मकान और उसके आगे सुंदर हरा भरा बागीचा देखकर याद आ गया एक गीत जो मेरी माँ गाया करती थी "अही ठाम रहे मोरी टुटली मड़ैया हे रामा" अर्थात हे भगवान यहीं तो थी मेरी टूटी सी झोपड़ी आज ये क्या हो गया है?
 
फाटक पर पहुँचा तो एक नेपाली छोकरे ने आकर मुझे सीधे काका के पास हाज़िर किया। काका दूर से ही मुझे देखकर आओ आओ करते हुए एक हाथ ज़मीन पर रोप कर उठने का प्रयास करने लगे? "अब त बिना सहारा के उठियो नहीं होता है।" यह कह कर मेरा हाथ पकड़ कर पास में बिठा लिया और अति संक्षिप्त औपचारिकता के बाद बिना किसी भूमिका के पूछ बैठे? "तुम हमारा एक ठो काज कर देगा।"
मैनें पूछा? "कोन काम?"
"सो हम वएसे नहीं कहेंग। पहिले सत्त करो तखन कहेंगे।"
उनके "सत्त करो" शब्द पर मुझे हँसी आ गई और याद आ गयी माँ के मुख से सुनी हुई कई कहानियाँ उस कथन के वागभंगी में मैनें सत्त किया, "एक सत्त दू सत्त तीन सत्त जो आपका कहा न करें तो अस्सी कोसी नरक में जाऊँ अब तो कहेंगे?"

"कितने मास से इस कोठली में रहि रहि कर मोन उचटि गया है। तेरा काज इतना ही है जे बाँह पकड़ के हमको ठरा कर दो अओर थोड़की दूर घुमा लाओ।" यह कहते हुए काका ने अपनी बाहें वैसे ही उठा लीं जैसे माँ की गोद में चढ़ने के लिये कोई एक साल का बच्चा करता हो। जब तक मैं कुछ और सोचूँ तब तक काका फिर बोले? "बस तुम खाली हमको डेंग धर के ठरा कर दो उसके बाद त हम अपने डेग बढ़ाते चलेंगे।"

फिर भी मैने सीढ़ियों से उतरने तक उनकी बाहें जकड़ी रखी। उसके बाद तो वे खुद ही कदम दर कदम चलने लगे।
जब मैं ऊँची जगह उनकी बाहें पकड़ता तो कहते? "छोड़ो पकड़ने का जरूरत नहीं है। तुम खाली अपना कन्हा पर हाथ रखने दो। एक तरफ लाठी दोसर तरफ तेरा देह समझो कि हम गाड़िये पर हैं।"

सुनते ही सहसा मुझे याद हो आया गाड़ी पर नाव वाला वो समाँ, वास्तव में काका वे नाव हैं जिस पर चढ़-चढ़ कर दोनों बेटों ने दरिद्रता की नदी पार की थी और आज वह नाव जर्जर होकर किसी माँगी हुई गाड़ी पर लदी हुई है।

"बूझा कि नहीं आज से तुम हमारा तेसर बेटा हो गया।" मन होता है अपना एक तेहाई राज तुमको दे दें। सब अपना अरजा हुआ है। जिसको चाहें दे सकते हैं।" यह कहकर काका खिलखिला कर हँसते हुए अपनी ही बात को उड़ा गए। फिर कहा?" इसलिये अब हमको रोज घुमाया करो।" फिर से एक छोटी खिलखिलाहट।

मै अवाक हुआ क्षण भर इस अनुसंधान में लगा रहा कि इस खिलखिलाहट के पीछे किसी दुखती रग की वेदना है कि नहीं। कोई अता पता न चला। जब तक घूमते रहे काका कुछ न कुछ बोलते रहे। बहुत सी बातें की। अपनी तपस्या की बातें, अपने सुख सुविधा की बातें, बेटे की बातें, सारी प्रशंसा, गौरव और उल्लास से भरी हुई।कहीं कोई अभाव अभियोग नहीं अनुताप आक्रोश नहीं। सारी बातें सुनी सुनाई।

इसी तरह काका को घुमाने ले जाना और उनकी बातें सुनना मेरी दिनचर्या बन गई। कभी कभी किसी चौराहे या किसी के दलान इसी प्रकार बूढ़े लोगों का मजमा लग जाता और और ब्रह्म-सूत्र से लेकर काम-सूत्र तक खुल्लम खुल्ला गप छिड़ जाती। ऐसी कहानियाँ तो यहाँ अप्रासंगिक होंगी लेकिन फिर भी ऐसे एक मजमे में सुनी हुई एक घटना सुनाता हूँ।

सत्यनारायण की पूजा में किसी के घर गाँव भर के लोग जुटे हुये थे। गप के सिलसिले में किसी बूढ़े ने अपने बेटे के प्रति आक्रोश व्यक्त किया? हमको तो लगता है बेटा बेकार में जनमाया। बउआ कुछ कमाकर देगा सौख लगा रह गिया।" संयोगवश उनका कमाउ बेटा निमंत्रण पूरा करने के लिये उसी समय वहाँ आ पहुँचा। यह बात सुनकर चट से पूछ बैठा? "कहिये तऽ सच सच इ जो नया धोती पहने हुए हैं सो कोन दिया है। पिता ने थर थर काँपते हुये उसी समय धोती खोलकर बेटे के माथे पर पटक दिया और वहाँ से नंगे ही विदा हो गये।

काका यह घटना सुनकर हँसने के बजाए थोड़ा गंभीर होकर बोले? "वएसे हमारा बेटा सब तो अएसा नहीं है मुदा हम तो एही कहेंगे कि बेटा को आम का गाछ नहीं समझकर उसको फूल का गाछ समझना चाहिये।"

छुट्टी समाप्त हो चली थी। लगातार नौ दिन काका को घुमाने ले जाता रहा और उनका प्रवचन सुनता रहा। लेकिन एक शंका मन में रह ही गई। इस तरह धन जन परिपूर्ण काका का ऐसा कोई नहीं है जो उन्हें थोड़ी देर भी घुमा फिरा सके। यह शंका संकोचवश नौ दिनों तक दबाकर रखी थी मैंने। अन्त में साहस कर आज पूछ ही बैठा। काका खिलखिला उठे हाथ पकड़ कर बोले? "तुम खुद नहीं समझता है। डॉक्टर साहब को पेसेंट घेरे रहता है परफेसर साहब के चेला-चटिया से छुट्टी नहीं मिलता है आ धिया पुता को किरकेट और टयूटर से फुरसत नहीं होता है। तब तुमही बताओ..."
इतने से भी समाधान नहीं हुआ। मैने फिर से पूछा? "एक बहादुर भी तो है। उसको क्यों नहीं संग ले लेते?"
काका का उत्तर था? "ओ तो उस समय डाक्टर साहेब के कुकुर को टहलाता है। बड़ी सुंदर कुकुर है। डाक्टर साहेब को तो बेटा से बढ़ि कर है।"
मैने मन ही मन कहा? "हुँह? बाप से भी ज्यादा?"

दसवें दिन उनकी गाड़ी गाँव से विदा हो गई और वह जर्जर नाव वहीं अचल पड़ी रही। क्या पता कोई दूसरी गाड़ी मिलेगी भी कि नहीं।

(रूपांतरकार : विजय ठाकुर)

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