फिक्सड डिपोजिट : रोज केरकेट्टा

Fixed Deposit : Rose Kerketta

मैं और किटी उस दिन दोपहर से पहले अचानक मनोहर दा के सामने खड़े हो गए, दोनों हकमक जवान बड़े मूड में थे। घर से पैदल चलकर पहुँचे थे। सात कोस जंगल का रास्ता, लेकिन पूरी राह हँसते-गप्प करते रहे थे। हम दोनों वर्ष भर अलग रहे थे। मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी। किटी ने इंटर की दी थी। घर से कोस भर की दूरी पर मधुवन का रखत जंगल। मई का महीना।

सखुए के फूलों से लदे पेड़। साथ ही देमता पोटोम। धवई के फूलों पर मधुमक्खी मँडराते हुए। पगडंडी के बाईं ओर महुए के वृक्ष डोरी फलों से लदे हुए। हवा में बासंती गंध। उस गंध पर सवार थे दोनों भाई। मस्ती में रास्ता नाप रहे थे।

चोगोटोली के पास पालामाड़ा नदी में घुटने भर पानी। बच्चों की गरमी छुट्टी हो गई थी। इसलिए नदी में जगह-जगह नदी के पानी को बाँधकर बच्चे छोटी मछलियाँ पकड़ रहे थे। चोगोटोली, मैनाबेड़ा, सिकरियाटांड़, नदीटोली लगभग सारे गाँवों के बच्चे मछली कम पकड़ रहे थे, अठखेलियाँ ज्यादा कर रहे थे।

किटी ने नदीटोली के बच्चों के निकट जाकर उनसे पूछा, ‘‘कितनी मछलियाँ तुम लोगों ने पकड़ी हैं, दिखाओ?’’ कहते हुए उनके ढोंटी को झाँका, उसमें तीन गेतु मछली थीं। ढोंटी को हिलाकर कहा, ‘‘बस।’’

इतना सुनते ही बच्चे खिलखिलाकर हँसे। जो बालू में खड़े थे वे भी, और जो पानी में खड़े थे, वे भी अपनी-अपनी जगह लोट-पोट होने लगे। किटी ने अंजुली भर-भरकर तीन-चार बार पानी बच्चों पर उलीचे और दौड़कर भागने लगा। कुछ दूर तक बच्चों ने भी दौड़कर बालू छीटने की कोशिश की, पर हम दोनों दौड़कर नदी से बाहर आ गए। बच्चे वापस लौट गए।

आगे का रास्ता ऊबड़-खाबड़ था, किंतु वृक्षों के नए पत्तों से वन हरा-भरा हो गया था। पलाश के लाल फूल सूख रहे थे। पर गलफूली, कोरोया और बंदरलौरी (अमलताश) के फूल खिले हुए थे। आम के कच्चे और गदराए फलों के लिए पेड़ों के नीचे एक-दो लड़के गुलेल से निशाना साध रहे थे। पाकरडांड़, कोबांग होते हुए हम दोनों कंसजोर झरिया के पास पहुँच गए। नदी किनारे की चट्टान पर बैठकर जंगल का आनंद लेने लगे। जंगल में सन्नाटा था। सिर्फ बैल और बकरियों के चलने से सूखी पत्तियों की चर्र-मर्र की आवाज उठ रही थी।

सूरज सिर के ऊपर आ गया था। लोग हल जोतकर अपने-अपने घर वापस हो चुके थे। किटी और मैं दोनों झरिया के ठंडे पानी से हाथ-मुँह धोकर मनोहर दा के घर बैठे थे। धूप तेज होने लगी थी। देखा, मनोहर दा हल जोतने के बाद नहा-धोकर बैठे थे। वे खाना खाने के लिए बैठे थे। जब तक खाना परोसा जाता, वे पके केंद का स्वाद ले रहे थे। हमारे आँगन में पैर पड़ते देख उनकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं। भौचक हमें देखने लगे। उन्हें देखते देख किटी ने कहा, ‘‘मनोहर दादा हमें पहचान रहे हैं।’’

‘‘आओ, आओ दुष्टों, बुलाता था, तब नहीं आते थे। आज स्वयं आ रहे हो। क्या बात है?’’ वे उठ खड़े हुए। नजदीक आकर हमारी पीठ थपथपाई और प्यार जताया। हमें पकड़कर दालान तक ले आए और बिछी चटाई पर बैठा दिया। फिर पत्नी को आवाज देकर कहा, ‘‘आओ, निकलो और देखो, तुम्हारे दोनों दुष्ट देवर आज आ गए हैं। पता नहीं कहाँ का राजा मरा है?’’

उनके ‘दुष्ट’ संबोधन ने हमारी पुरानी याद ताजा कर दी। तब हम आठ और ग्यारह वर्ष के थे। उस वक्त मनोहर दा गाँव के स्कूल से मिडिल पास कर आगे हाईस्कूल की पढ़ाई करने आए थे। वे पढ़ने में कमजोर थे। किसी तरह ग्यारहवीं में पहुँचे, किंतु मैट्रिक में फेल हो गए थे। उनके सहपाठी संतोष, ईरूस, वाल्टर, रतन तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे। कमलाकांत मिश्र, जयकिशन और रामसहाय प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे। पिताजी ने उत्तीर्ण होनेवालों को बधाई दी थी, पर मनोहर दा को डाँटते हुए बोले थे, ‘‘तुम, तुम क्या करोगे? बोका बने रहो। सब तुम्हारे दोस्त कॉलेज जाएँगे, तुम गोरू चराते रहना।’’

डाँट से अप्रभावित रहते हुए मनोहर दा ने बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया था—‘‘नौकरी मैं थोड़े ही करूँगा। मैं अपने खेत-टांड़ में कमाऊँगा और अहडंड (उन्मुक्त) रहूँगा। हाँ सर! मैं नौकरी नहीं कर सकता।’’

उत्तर सुनकर पिताजी खीज उठे थे। वे बोले थे, ‘‘बुड़बक तो हो ही, दुष्ट भी कम नहीं हो।’’

मनोहर दा ने वही ‘दुष्ट’ हम दोनों पर उछाल दिया था। वे गाँव आए और खेती-बारी में रम गए। दिसंबर में खीरामंजी धान का अरवा चावल लेकर हमारे घर आते और कहते, ‘‘लो दुष्टों, तुम्हारे लिए ला दिया हूँ, रोटी पकाकर पर्व में खाना।’’ पिछले दस वर्षों से दिसंबर में चावल लेकर आना, उनके रूटीन में शामिल हो गया था। बाकी समय में भी कभी आते तो माँ-पिता से मिलने अवश्य आते। उन्होंने पिताजी की डाँट का जरा भी बुरा नहीं माना था। उल्टे कभी-कभी उड़द की दाल, जंगल के पके फल और साग-सब्जी भी ला देते। पिताजी से सिर्फ हाथ मिलाते। बाकी समय माँ से और हम दोनों से बातें करते। हम हाईस्कूल में पढ़ने लगे थे, पर वे हमें ‘दुष्टों’ से ही संबोधित करते। उनके इस प्यार में अपनापन था, लेकिन शायद पिताजी को दिखाना भी था कि वे सुखी हैं और सफल किसान हैं।

छात्रवास छोड़ने के पाँच वर्ष बाद उन्होंने शादी की। जनवरी में उनकी शादी हुई। हमारा स्कूल खुल चुका था, इसलिए माँ ने हमें नहीं जाने दिया। लेकिन मनोहर दा ने हमारे न पहुँचने का जरा भी बुरा नहीं माना था। उल्टे ‘सीधा’ पहुँचाने आए थे। माँ के लिए साड़ी, पिताजी के लिए धोती तथा हमारे लिए एक मुरगा लेकर आए थे। मुझे मुरगा पकड़ाते हुए कहा था, ‘‘लो दुष्टों, तुम्हारे लिए यही बचा है।’’

उस वक्त मनोहर दा ने माँ से बहुत मनुहार की थी। उनका गाँव भी घने जंगलों के बीच था। अपने गाँव जब भी जाते, अन्य बच्चों के साथ लासा लगाकर छोटी-छोटी चिड़ियों को फँसाते। हम दोनों को तैरना कभी नहीं आया। पिताजी ने बाँध में ले जाकर तैरना सिखाने की बहुत कोशिश की, पर हम दोनों नहीं सीख सके। हमारे गाँव में बहुत से बाँध थे। काम खत्म होने के बाद लोग बाँधों में नहाने जाते तो हम भी साथ में चले जाते थे। वहाँ बड़े लड़कों की पीठ पर बैठ जाते थे।

वे हमें लेकर गहरे पानी में चले जाते थे। हाथ-पैर चलाते, डुबडुब-डुबडुब की आवाज होती, मुँह में पानी भरने पर जोर से पिचकारी मारते थे, पर दोनों का डर पानी से दूर नहीं हुआ। बीच बाँध से कमल फूल लेकर वापस आते थे, यही हमारे लिए काफी था।

माँ को गाँव जाने की इच्छा होती थी। हम अपने गाँव जाते थे पर मनोहर दा के इतनी बार बुलाने के बावजूद कभी नहीं गए।

इस बार माँ ने पिताजी को मना लिया। उसने कहा था, "लड़का बहुत मानता है। शादी में धोती-साड़ी दिया। तुम्हारे पढ़ाए हुए लड़कों में से कौन अभी याद करता है? छुट्टियों में शहर से आते तो हैं वो, पर कोई तुम्हें झाँकने आता है?"

बात सच्ची थी, सो पिताजी को लग गई। उन्होंने कहा, "मैं मना नहीं करता जाने से, लेकिन दोनों लड़कों का अभी का समय है। गाँव में जाकर लमट-लमट घूमेंगे और पढ़ाई-लिखाई से दूर हो जाएँगे।"

"मनोहर अच्छा ही लड़का है। लेकिन उसके और चार भाई भी हैं। सब खेती पर ही निर्भर रहेंगे तो कैसे काम चलेगा? नौकरी के लिए ही कोई नहीं पढ़ता है, अकिल पाने के लिए भी पढ़ता है। अरे पढ़ता तो गाँव में परचारी-मास्टरी भी करता। लोगों को रास्ता दिखाता। दशहरे की छुट्टी में चली जाना दोनों बेटों को लेकर, नदी का पानी भी उतरा रहेगा।"

मनोहर दा के गाँव के बगल से कंसजोर नदी बहती है। बिल्कुल बगल से नदी गुजरती है। उसके दोनों ओर घने जंगल थे। जंगल की उम्दा लकड़ियों की खूब तस्करी होने लगी थी। गाँव के लोग केउन्दडीह डीपाटोली कहा करते थे। पिताजी की अनुमति के बाद हम दोनों छुट्टी की आस में पड़े रहे। जब छुट्टियाँ हुई तो माँ ने अचानक हम दोनों को तो भेज दिया, लेकिन अपना जाना स्थगित कर दिया।

दशहरा आ पहुँचा था। हम दोनों अपने कपड़े लेकर मनोहर दा के साथ केउन्दडीह पहुँच गए। हमारा आकर्षण कंसजोर नदी थी। नदी के दोनों ओर विस्तृत धान के खेत। धान की बालियाँ पुष्ट होकर सुनहरा रंग ग्रहण कर रही थीं। खेतों की मेड़ें काट दी गई थीं, ताकि पानी बह जाए और पके धान को काटने में दिक्कत न हो। टांड़ में सुरगुजा के फूल पीले चादर की तरह फैले थे। इन फूलों के बीच रात को चांची पक्षी सोते थे।

चांची पक्षी और खेतों का कटा मेड़ हमारे आकर्षण के केंद्र थे। कटे मेड़ों पर रात-रात को कुमनी रोप देते थे, जिसमें मछलियाँ फँस जाती थीं। सबेरे उन्हें उठा लिया जाता था। मछलियों का खेतों के पानी के साथ नीचे उतरने का समय था। उस वर्ष नदी की मछलियाँ ऊपर खूब चढ़ी थीं, इसलिए एक-एक कुमनी में आधा किलो तक मछलियाँ फँस रही थीं।

रात को हम दोनों बड़े लड़कों के साथ हो जाते थे। गोड़ा-पुआल जलाकर उनके साथ सुरगुजा के खेतों में चांची पक्षी पकड़ने के लिए 'झुंझुर' खेलते थे हम दोनों अति उत्साह के कारण सुरगुजा के टांड़ में दौड़ लगाते और फसल रौंद डालते थे। लेकिन तीसरे दिन मनोहर दा के पास हमारी शिकायत आ ही गई। जटंगी और उड़द उखाड़ने के समय नुकसान करना बेजा था। मनोहर दा ने हम दोनों को झुंझुर खेलने जाने से रोक दिया।

सुबह हम दोनों जल्दी उठ जाते थे। सबेरे बड़ी टोकरी लेकर दोहर में उतर जाते थे और सबके कुमनी की मछलियाँ झाड़ लेते थे। पहला दिन लोगों के कुतूहल का था कि हम कौन-कौन सी शैतानी करते हैं! दूसरे दिन भी किसी ने मना नहीं किया। तीसरे दिन दोपहर को आराम करते समय लोगों ने मनोहर दा के कानों में यह बात डाल दी कि हम सबके कुमनी की मछलियाँ चुरा लेते हैं।

उस दिन तो दादा ने सुनकर भी अनसुना कर दिया, उन्हें कह दिया कि शहर में ये सब चीजें देखने-करने को कहाँ मिलती हैं! जाने दो तीन-चार दिनों में खुद ही ऊब जाएँगे। लेकिन दादा के चुप्पी साध लेने से हमारे हौसले बढ़े थे। रामधन काका ने चौथे दिन दादा से शिकायत ही नहीं, झगड़ा भी किया। उसने कहा था, "बच्चे हैं तो तुम्हारे सिथा (तुम जानो)। बाकी लोग नुकसान सहते हैं तो सहते रहें। मैं नहीं सहनेवाला, फिर कुछ इन्होंने किया तो घाना (हथौड़ा) चला दूंगा।"

गाँव के लोग नाराज हो रहे थे। मनोहर दा को भी थोड़ा रंज हुआ। दो दिन बाद हाट लगाकर हमें वापस भेज दिया। वे बोले थे, “जाओ दुष्टों, अब मत आना, समझदार हो जाओगे, तभी आना।" उस दिन सचमुच हम दोनों बड़े होकर उनके समक्ष उपस्थित हुए थे; क्योंकि मैंने मैट्रिक और किटी ने इंटर की परीक्षा दी थी।

हमारे पास समय था और पिताजी को जरूरत थी। हमारे खपरैल घर का धरण और कांड खोखसा (खोखला) गए थे। गरमी में बदल देना था। यही लाने पिताजी ने हमें भेजा था।

दोपहर आराम किया। शाम को मनोहर दा ने कहा, "लकड़ी तो है, पहुँचानेवालों को ढूँढ़ते हैं, चलो गाँव में। जंगल घुमा दूँगा।" शाम को तीन टोला के लोगों से परिचित हुए। मनोहर दा ने चौबीस लोगों को तैयार किया। चाँदनी रात में उन्होंने बहुत सारे पेड़ों को नाम सहित छूछूकर बताया, "ये ओरतोनोः (आसन), ये मुकचुंद, ये करम, गंभार, काहू, अर्जुन आदि।" पर रात के समय पेड़ों को पहचानना आसान नहीं था, तो हमने रुचि भी नहीं दिखाई।

रात को भोजनोपरांत सारे लोग सिका और बल्ली लेकर आ गए। उन्होंने धरण को आठ आदमी मिलकर ढोया। छह-छह मिलकर दो कांड उठा लिया। चार आदमी पारी बदलने के लिए थे। वे आधी रात को लगभग दौड़ते हुए चले। उनके साथ हम भी चले और मुरगे की दूसरी बाँग के साथ अपने घर पहुँच गए। हमारी छत मरम्मत हो गई। इसी के साथ मनोहर दा से हमारे संबंध भी टूट गए। हम आगे की पढ़ाई के लिए शहर आ गए थे।

1960 ई. के आस-पास से लगातार अखबारों में समाचार छप रहा था कि कंसजोर, सोनाजोर, अंबाझारिया, कुलाडूबा, रेखती, परास, छिंदा आदि जलाशयों को बाँधा जाएगा। नहर निकालकर सिंचाई होगी। 1952 ई. के बाद से लगातार सुखाड़ झेल रहे थे लोग। किसानों को राहत सामग्री में आटा मिल रहा था। प्रखंड स्तर पर आटे की रोटी सेंकना सिखाया जा रहा था। ये समाचार हम पढ़ भी लेते थे, लेकिन अखबार के दूसरे पृष्ठों की तकनीकी सूचनाओं को हम अछूता छोड़ देते। कभी-कभी सरसरी तौर पर देख लेते कि किस गाँव की कितनी जमीन का अर्जन भू-अर्जन पदाधिकारी कर रहे हैं। प्लॉट नंबर, खसरा, रकबा, चौहद्दी आदि पर ध्यान गड़ाने की कभी हम सोचा भी नहीं करते थे। जमीन के बारे में इतना ही ज्ञान था कि वह खेत उसका है, यह टांड़ उसका है और हमारी जमीन वह है। यह सब बिना जाने ही हम ग्रेजुएट हो गए और छोटे-छोटे शहरों में बाबू बन गए।

मनोहर दा और उनका गाँव, उनके बच्चे, लोग, उनके खेत, जंगल हमारे लिए बेमानी हो गए। हम उन्हें भूल गए। माँ-पिताजी प्रसन्न थे कि उनके दोनों बेटों को नौकरी मिल गई। वे दोनों अपने पैरों पर खड़े हो गए थे। आनंद-ही-आनंद था उनके जिम्मे। मनोहर दा के यहाँ से अभी भी दो किलो अरवा चावल आता था, लेकिन माँ-पिताजी के लिए यह महत्त्वपूर्ण बात नहीं रह गई थी।

किटी की शादी तय हो गई थी। हमने औपचारिक न्योता भिजवा दिया केउन्दडीह। नेवता देने के बहाने मनोहर दा के यहाँ जाने की जरूरत भी नहीं समझी। हम शहरी बन गए थे। हमारी आत्मा सिकुड़ गई थी। गाँव के लोगों से हमारी कोई जरूरत जुड़ी नहीं थी।

कंसजोर जलाशय बहुद्देशीय था। वहाँ मध्यम श्रेणी का बाँध बाँधा जा रहा था। अखबारों में बड़े-बड़े नोटिस निकाले गए। पर कोई अखबार केउन्दडीह जराकेल, लावाबाइर, कोबांग तक नहीं पहुँचता। एकमात्र मास्टर साहब के यहाँ रेडियो था पर उसे सुनने के लिए समय नहीं था। मास्टर साहब स्कूल के समय जो थोड़ा-बहुत सुनते थे, उसे बता दिया करते थे।

अचानक एक दिन सर्वे के लिए लोग आए और दिनभर नाप-जोखकर खूटा गाड़कर चले गए। टोपी पहने इंजीनियरों, ओवरसियरों और चेनमैनों का दल इधर-उधर नापता रहा। उन्होंने मनोहर दा के आँगन को, हराधन लोहरा के बारी को और नीचे से पूरे गाँव को खंभों के घेरों के अंदर कर दिया था। शाम को जाते-जाते उन्होंने घोषणा कर दी थी, "एक वर्ष के अंदर गाँव खाली कर देना।" भीड़ में किसी को हिम्मत नहीं हुई पूछने की, कि खाली करके वे कहाँ जाएँगे?

हर गाँव के हाईस्कूलों में पढ़नेवाले लड़के, तोबियस मास्टर, बेलस और पंक्रास नेता आदि इंजीनियरों के आगे-पीछे होते रहें। गाँववालों से बोलते रहे, "हम लोग तुम लोगों को समझा देंगे।"

पाँच महीने बाद मुआवजे के लिए लोगों को राँची बुलाया गया था। जो लोग नहीं जा सके थे, उनके पैसे तोबियस मास्टर, नेता बेलस, पंक्रास, निर्दोष और कई अन्य लोगों के वास्ते' करके प्राप्त कर लिया था। केउन्दडीह गाँव में बड़े-बड़े, विभिन्न पार्टियों के नेता लेडी-लेडा सब आए। युवा खुश थे कि बाँध बनेगा तो वे मुंशी, मेठ का काम पाएँगे। सीधे हाथ में पैसा पहुँचेगा। फिर तो पैंट-शर्ट और कई फैशन की चीजें वे खुद खरीद सकेंगे।

आस-पास के आठ गाँव के युवक सपने देखने में लीन हो गए। स्कूलों में पढ़ाई ठीक से नहीं होने लगी; क्योंकि युवक मुंशियों, ठेकेदारों, क्रेशर मालिकों, पत्थर तुड़ाई के ठेकेदारों के पीछे घूमने लगे। पिताजी के पास मनोहर दा की मार्फत सभी खबरें आती रहीं। हर क्रिसमस में हम दोनों भाई परिवार सहित आते रहे, पर पिताजी ने कभी केउन्दडीह और मनोहर दा की चर्चा नहीं की।

क्रिसमस के बाद तीसरा दिन था। दीदी भी आई थीं। हम सब बैठकर गप्प मारते हुए धूप सेंक रहे थे। लगभग दस बज रहे थे, तभी एक युवती आ पहुँची। पिताजी ने हँसकर स्वागत करते हुए कहा, "पहचानो" किटी और मैं बहुत कोशिश करने के बाद भी नहीं पहचान सके। दीदी ने कहा, "कभी देखा ही नहीं तो पहचानोगे कैसे? अरे मनोहर दा की बेटी है मीना।" फिर उसकी ओर मुँह फेरकर बोले, "तुम्हारे चाचा लोग हैं। बड़ा चाचा किटी और छोटा चाचा निर्मल।"

कुशल-क्षेम के बाद किटी ने पूछा, "क्या करती हो बेटी? इतनी बड़ी हो गई हो, हम तो जानते भी नहीं थे।"

"पढ़ती हूँ," उसने कहा।

"किस क्लास में।"

"बी.ए. पार्ट वन में।"

"कहाँ?"

"गोस्सनर कॉलेज।"

"अच्छा! चलो दादा बेटी को पढ़ा रहा है। कितने भाई-बहन हो?"

"एक छोटा भाई है जुनास। वह नहीं पढ़ता है, सातवीं में पढ़ रहा था, फेल हो गया तो छोड़ दिया।"

"अभी क्या करता है?"

"तुम बताओगी, तब न हम जानेंगे। काम में मन लगाता है?"

"हाँ, कभी-कभी हल जोत देता है।"

"यानी काम में मन लगाता है। तो अब भी खीरामजी धान लगाते हो? घर भी सँभालती हो? हाँ, माँ-बाप को आराम दो।"

"हाँ, घर और खेत दोनों सँभालना पड़ता है।"

"तुम कोई ट्रेनिंग ले लेना, टीचर या नर्स की।"

बहुत बातें हो चुकी थीं। मीना बाकी लोगों से बातें करने लगी। दूसरे दिन नाश्ता के समय मीना ने कहा, "आप दोनों काका को बाबा यानी पिता बुलाए हैं।"

"क्यों, क्या बात हो गई?"

"बहुत बीमार हैं," कहते हुए रूआँसी हो गई मीना।

"क्या हुआ उन्हें?"

"पता नहीं। बिस्तर से उठने में भी तकलीफ होती है, लाठी लेकर चलते हैं। आप दोनों को हरदम याद करते हैं। कहते हैं, किटी और निर्मल काका को बुलाओ, उनसे बात करनी है।"

"तुम उनको किसी तरह लेकर क्यों नहीं आई? मुलाकात भी होती और किसी डॉक्टर को भी दिखा देते।"

मीना ने इसका उत्तर नहीं दिया। तीसरे दिन मीना ने फिर नाश्ते के बाद कहा था, "काका, आज मेरे साथ चलिए। दो दिन से मैं बाहर हूँ, मुझे डर लग रहा है।"

"कल ही आई हो। इतने दिनों के बाद तुम्हारे माँ-बाप से मिलेंगे, तो थोड़ा सौदा-पाटी आज कर लेते हैं।"

मीना ने जाने का हठ नहीं किया। किटी के साथ बातें करते हुए शाम को हमने कुछ कपड़े, कुछ खाने का सामान और चाय-चीनी खरीद ली। इस समय मैं और किटी केउन्दडीह की पुरानी बातों में खो गए। मछली चोरी करना, झुंझुर खेलना, सारी बातें याद करते रहे। नदी, जंगल, धान के खेत, पत्थर, पहाड़ सब हमारे थे। हमारी आँखों के सामने पच्चीस साल पुराना केउन्दडीह गाँव था और हम दो-आठ और ग्यारह वर्ष के लड़के। वे ही पेड़, वे ही पक्षी क्या अभी भी हैं? और खीरामजी धान का अरवा चावल, भात पकाते समय उसकी महक पूरे घर में फैल जाती थी।

चौथे दिन मीना, किटी और मैं केउन्दडीह के लिए निकलने की तैयारी करने लगे। नाश्ता कर ही रहे थे कि एकाएक बाहर वहाँ पर बम फूटा। मीना ने कहा, "आप लोगों को पता नहीं है काका, हमारा सब खेत-टांड़ बाँध में डूब गया।"

“अखबारों में पढ़ा था, लेकिन तुम्हारे पिता ने कभी कुछ नहीं बताया। चिट्ठी तो लिख सकता था!"

"हमारा घर भी डूब गया। पूरा गाँव डूब गया।" "अभी कहाँ हो?" "दूसरे डीपा में घर बनाए हैं। इंदिरा आवास मिला था।"

किटी और मैं अपराध-बोध में डूब गए। जब हम लकड़ी लाने गए थे, तब का मनोहर दा...एक गर्वोन्नत किसान था। उसके कहने पर उस रात चौबीस आदमी जुट गए थे। सारी रात उन्होंने पैदल चलकर लकड़ियाँ पहुँचाई थीं। हमने उसे कुछ नहीं दिया। हमारे परिवार को प्रतिवर्ष वह उपहार देता रहा। उसने न कभी किसी तरह की शिकायत आज तक की। इंदिरा आवास में सिमटकर रह रहा है हमारा मनोहर दा। उसके घर में टेबल-कुरसी कहाँ रखे गए होंगे? गाय-बैल, बकरियाँ, बतखें, मुर्गियाँ, उसके दो धांगर सब क्या हुए?

किटी और मैं आपस में भी आँखें मिलाने से कतराते रहे। हमारे मौन से मीना और दुःखी हो गई थी। नाश्ता समाप्त कर हम तीनों ही पैदल चल पड़े थे। थोड़ी दूर पर ट्रेक्टर मिल गया था। उसमें बैठकर बाकी सफर तय हुआ। डीपाटोली के पास एक किलोमीटर की दूरी पर हमें उतर जाना पड़ा।

घर की ओर चलते हुए मीना चिंतित हो उठी थी। हम भी जगह से अपरिचय की स्थिति में थे। वह जंगल, जो हमारा परिचित था, वहाँ नहीं था। बूढ़े महुए और कुसुम के पेड़ मर चुके थे। वन की नीरवता की जगह पोकलेन की आवाज आ रही थी। दूर मजदूरों की भीड़ दिखाई दे रही थी। मिट्टी काटने और फेंकने से धूल उड़ रही थी। हम सब चुपचाप चल रहे थे।

घर पहुँचने पर मनोहर दा आँगन में बिछी चारपाई पर बैठे मिले। उनकी पत्नी, हमारी भौजी चुपचाप दरवाजे पर खड़ी थीं। दोनों बूढ़े और बेहद थके जान पड़ रहे थे। आँगन में बैठे देख मीना खुश हो गई। उसने पिता से कहा, "बाबा, मैं दोनों काका को ले आई।"

पिता के चेहरे पर मुसकान आई। लेकिन वह मुसकान रूदन में बदल गया। आँसू टप-टप गिरने लगे। भौजी भी दरवाजा छोड़कर निकट आई। हाथ मिलाकर तुरंत उन्होंने मुँह फेर लिया और आँसू पोंछने लगीं। हम दोनों अपराधी की तरह दादा को पकड़कर खड़े रहे।

कुछ पल बीता, तब सब शांत हुए थे। दादा ने हमें अपनी बगल में बैठाया। कुशल-क्षेम पूछने के बाद वे चुप हो गए। तब किटी ने बात शुरू की थी। कहा था, "हम लोग भी दादा नौकरी-चाकरी में फँस गए। इधर माँ-पिताजी को भी सिर्फ परब में देखने आते हैं। कभी बच्चों की छुट्टी रहती तो हमारी नहीं। पिताजी से भी आपने कभी समाचार नहीं भिजवाया। आप तो पढ़े-लिखे हैं?"

मनोहर दा मेरी ओर टुकुर-टुकुर ताक रहे थे। शायद मेरी बातों को सुन भी नहीं रहे थे। तब किटी ने मुझे रोकते हुए कहा था, "आने के साथ शिकायत शुरू कर दी?'' फिर दादा की ओर मुड़कर बोले, "अरवा चावल तो बेटी पहुँचा दी, लेकिन उतने से हमारा मन नहीं भरा, इसलिए हम आ गए।"

मनोहर दा ने आँखें किटी की ओर फेरीं। उन पनीली आँखों में क्या था, किटी समझ गया, उसने उठकर तुरंत दादा को छाती से लगा लिया। वर्षों का दर्द दादा के चेहरे पर उभर आया। अंदर-ही-अंदर सिसकने लगे और आँसू की धारा रुक नहीं रही थी।

भौजी तुरंत आ गई। उन्होंने किटी का हाथ पकड़कर चारपाई पर बैठाया। बोली, "यह सब तो होता रहेगा, पहले पानी पी लो, इतने वर्षों बाद आए हैं। मैं ब्याहकर आई थी, अब मेरी बेटी ब्याहने लायक हो गई।"

उन्होंने बड़ी कठोरता से अपनी भावनाओं को काबू किया था। कठोरता से आवेग को रोकने के कारण चेहरा विकृत हो गया था। कठोर आवाज में कहा, "लोटे में पानी दो मीना।" मीना ने लोटे में पानी दिया तो हमें थोड़ी सी राहत मिली। हाथ-मुँह धोकर आराम से बैठे। भौजी ने तब कहा, "तुम्हारे दादा ने रिवाज बना दिया है, साल में एक बार अपने गुरु को और दो छोटे भाइयों को अपने खेत का दो मुट्ठी अन्न भेजें, तो उसका पालन कर रहे हैं। रास्ते में तो देख लिया न कि अब दीपाटोली छूट गया है पीछे।"

"हाँ, देख लिया।" मनोहर दा इस बार बोले, "थके-माँदे हैं, तो तुम्हें नहीं दिखाई दे रहा है? पहले खाना दो।"

शाम हो चुकी थी। मैं बाहर आँगन में निकला। मेरे साथ मनोहर दा भी निकले, हमारे कदम बाँध की ओर बढ़े। मजदूर काम समेटकर जाने की तैयारी कर रहे थे। निकट पहुँचने पर दादा ने उनसे बातें कीं। फिर वे दीपाटोली की ओर चले। मैं उनके पीछे चलने लगा। उन्होंने कहा, "देख रहे हो न, सब डूब रहा है। मैं तुम्हें दिखाने ले जा रहा हूँ कि हमारा पुराना घर भी डूब रहा है।"

जब हम पहुँचे तो देखा, पूरा बारी डूब गया है। घर की छत खुली है। बरसात में दीवारें गल रही हैं। जीवाधन लोहरा, गोबरधन लोहरा दोनों भाई गाँव में बचे हैं। अमुस के घर में माँबाप हैं, बाकी लोग बनई चले गए। कुल मिलाकर 53 घरवाले टोले में से सात घरों में ही लोग बचे रह गए हैं। मैंने पूछा, "मुआवजा मिला?" बहुत देर के बाद लंबी साँस छोड़ते हुए कहा,

"हाँ, मिला।"

"कितना?" "एक लाख।"

"कितनी जमीन थी?"

"तीस एकड़ दोन और टांड़ पच्चीस एकड़।"

"किस रेट से मिला...?"

"एक नंबर, दो नंबर, तीन नंबर करके?"

दादा चुप रहे। मैं थोड़ा नाराज हुआ, बोला, "इतना पढ़-लिखकर भी पता नहीं कि मुआवजा रेट से मिलता है?"

दादा इस बार भी चुप रहे।

किटी बोला, "पैसे खत्म हुए, कि कुछ बचा है?"

"बैंक में रखा था, पर निकाल लिया।"

"सब पैसा निकाल लिया? बाल-बच्चों के लिए कुछ भी नहीं रखा? अच्छा बाप है।" झुंझलाकर किटी बोला। दादा चुप ही रहे पर उनका चेहरा बोलने लगा। असीम पीड़ा से जर्द हुआ चेहरा, रह-रहकर कपाल और भौहैं काँप रही थीं। पीड़ा और व्याकुलता से मनोहर दा का शरीर संतुलित नहीं रह सका।

मैंने किटी के कंधे को दबाकर तुरंत छोड़ दिया और दोनों हाथों से मनोहर दा को थामकर बैठा दिया। दादा बहुत देर तक नि:शब्द बैठे रहे। उनकी आँखें दूर शून्य में खो गई थीं। खुली स्थिर आँखों को देखकर हम दोनों के चेहरे पर भी हवाइयाँ उड़ने लगीं।

लगभग आधे घंटे के बाद उन्होंने दीर्घ निश्वास छोड़ी। तब मैंने उन्हें झकझोरकर कहा, "दादा, पानी पीना है?" उन्होंने 'न' में सिर हिला दिया और नजरें नीची कर ली।

बहुत देर के बाद उन्होंने आह भरकर कहा, "देख रहे हो न मेरे भाइयों, हमारा सबकुछ डूब चुका है। पीछे से दो गाँव भी खाली करा लिये गए। मैं कहाँ जाऊँ, सोच ही नहीं पा रहा हूँ।"

निराशा में डूबे मनोहर दा को हम कोई सलाह देने की स्थिति में नहीं थे। मैंने पूछा, "जमीन के बदले जमीन नहीं माँगी?"

"सब तो डर गए। अचानक चार गाड़ी पलटन आई। बहुत से गाड़ी में साहेब और अमला-ढेकी लोग थे। पंद्रह-बीस अमीन और चेनमैन थे। साहबों के साथ पुलिस अलग से बीच में घुसी हुई थी। बच्चे और बूढ़ा-बूढ़ी तो जंगल की ओर भागने लगे। तंबू गाड़ के तीन दिन में सब नाप-जोख खत्म। जोरेया गाँव के जगन, मंगल, तोबियस, मास्टर, जुनास मेठ लोग ही आगे-पीछे होते रहे। साहेब लोग बोले, "करो, नहीं तो सब को जेल ले जाएँगे।"

मठू, तोबियस और मेठ लोग हमें ही डाँटने लगे थे—"चुप रह बूढ़ा। किसके सामने बात कर रहा है? नहीं चीन्हता है, हाकिम हैं हाकिम!"

मैंने पूछा, "ऐसा बोला?"

"हाँ, ऐसा बोला। लाठी पटक रहा था। बहुत राड़ आदमी है, बड़ा-छोटा, बुजुर्ग किसी को नहीं चीन्हता है।"

"रेट मालूम किया था?"

"नहीं, जितना में सही कराया, कर दिए।"

"बैंक से पैसा क्यों निकाल लिया?"

"मैं भूल पर भूल करते चला गया। बबड़ बेटा जुनास के नाम से पैसा रख दिया।"

"पढ़ा-लिखा भी नहीं, आप उसे बबड़ कह रहे हैं! बेटी के नाम से क्यों नहीं रखा?"

"बेटा ही वारिस होगा, सोचकर। लेकिन वह तो जब मन, तब निकालकर उड़ाने लगा। किसमें खर्च करता, पता नहीं। एक नंबर मतवार हो गया है। पचपन हजार बाकी था, तो मैंने निकालकर छिपा दिया है। बैंक में नहीं रखा, पता नहीं उसको कब निकाल लेगा। अब तो हम तीनों से मारपीट भी करने लगा है।"

सुनकर मन अवसाद में डूब गया। किटी ने पूछा, "तभी दो दिन से हैं, लेकिन जुनास कहीं दिखाई नहीं दिया।"

"परब बासी को ही निकला है। चार दिन से घर ही नहीं लौटा है।"

“पैसा तो नहीं चुराकर भागा है?"

दादा चुप रहे। शाम गहरा रही थी। हम चुपचाप घर लौट आए। घर में जीवाधन, सुकरू और जातो हमारी राह देख रहे थे। ये सारे लोग खाते-पीते किसान और शिल्पकार थे। उनमें कोई पक्षी तक नहीं बैठ रहा था। सबकी निराशापूर्ण बातें, कि कैसे जीएँगे, कहाँ...जमीन भी नहीं मिलती है। थोड़ी देर बैठकर वे चले गए।

हम उनके कष्टों के निवारण में बिल्कुल अनफिट थे।

खाने के बाद मैंने कहा, “पैसा देखिए तो है कि नहीं?"

दादा ने जाकर बड़े जतन से पोटली को निकाला। जब गिना गया तो पाँच हजार कम निकला। क्रोध में दादा कुछ बोलते, लेकिन एकाएक चेहरा उतर गया। बेटे को उत्तराधिकारी बनाने की परंपरा का पालन पिता ने किया था। योग्य बेटी के हाथ में अपना भविष्य न सौंपने की भूल वे कर चुके थे, लेकिन वक्त निकल चुका था। तूफान चल रहा था, घर उजड़ना बाकी था। मीना सबकुछ समझकर भी मौन थी। बूढ़े माँ-बाप को ऐसे वातावरण में छोड़ना उसके लिए मुमकिन नहीं था।

मैंने तुरंत निर्णय लिया। बोला, "हम दोनों कल सबेरे लौटेंगे। पैसा लेकर मीना भी आएगी। इस बार बैंक में नहीं, पोस्ट ऑफिस में फिक्सड डिपोजिट कर देंगे। 'किसान विकास-पत्र' खरीदेंगे मीना के नाम से। सात साल में दूना हो जाएगा। फिक्र मत करना मीना, जैसे-तैसे खर्च चलाते रहना।"

मीना ने सुना, लेकिन उसके चेहरे पर किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं दिखी।

दूसरे दिन नाश्ते के बाद हम चलने को तैयार हुए। मनोहर दा थोड़ा आश्वस्त दिखे। उन्होंने रुपए दिए। मीना बैग में कुछ ज्यादा सामान ले रही थी। किटी ने कहा, "इतना सामान क्यों ले रही हो? एक जोड़ा पहनने भर को लेती।" उसने कहा, "मैं दो दिन सहेली के यहाँ रह लूँगी।" उसके मुसकुराने से हम आश्वस्त हो गए।

जब हम पोस्ट-ऑफिस पहुँचे, दिन के एक बज रहे थे। यह काम पहले निपटाने के विचार से हम घर भी नहीं गए। पोस्टमास्टर मुरली प्रधान हमारा परिचित निकला। उसने हमें अंदर बुलाया। बैठाया और चाय पिलाई। कहने लगा, "छोटे-छोटे गाँव में लोग एक-दूसरे को पहचानते हैं। मुरली ने भी उनसे कहा था कि पैसा रख लें। लेकिन उसने उत्तर दिया था, भइया मुरली, तुम से तो जुना नहीं शरमाएगा। सो बैंक में रख देता हूँ। बैंक में सब अपरिचित लोग हैं, थोड़ा लाज शरम रखेगा।"

"इतना भरोसा बदमाश बेटे पर!" मैंने कहा। "पोस्टमास्टर मुरली प्रधान गँवई आदमी हैं।" उन्होंने बताया, "जुना के दोस्त पियक्कड़ तो हैं ही, जुवाड़ी भी हैं।"

“पिता भी ऐसा, न बेटी के लिए कुछ रखा, न बेटा पर लगाम कसा।" बातचीत करते हुए मीना के नाम पचास हजार का 'किसान विकास-पत्र' बनकर तैयार हो गया। इसके बाद हम तीनों घर चले गए। घर पर मीना ने कहा था, "विकास-पत्र अपने पास ही रखें काका। मेरे पास से तो जुना छीन ही लेगा।" मैंने किटी को 'किसान विकास-पत्र' देकर जिम्मेदारी थमा दी थी। तीसरे दिन मीना ने कहा था, "काका, मैं सहेली से मिलकर आती हूँ।" वह गई और लौट भी आई थी। चौथे दिन छह बजे सुबह जाने के लिए सामान निकालने लगी थी। मैंने पूछा था, "इतनी सुबह क्यों जा रही हो?" उत्तर मिला था, "बस पकड़ने, सहेली के साथ दिल्ली जा रही हूँ कमाने।"

उसके उत्तर से धक्का पहुँचा था। मैंने उसे पकड़कर प्यार से कहा था, "मत जाओ बेटी, हमें माफ कर दो। अब हम तुम्हारे घर आना-जाना करेंगे, तुम पढ़ाई पूरी करो।"

"नहीं काका, मुझसे सहा नहीं जाता। भाई पीकर पिता को मारता है, माँ को मारता है। उन्हें बचाने जाती हूँ, तब मुझे भी मारता है। मैं पढ़ रही हूँ इसलिए भी मारता है।"

"गाँव के लोग कुछ नहीं करते हैं?"

"गाँव में कौन रह गया है? और अब तो खेती-बारी है नहीं, सब कुली-कबाड़ी हैं। सबके जवान बेटे मतवार हैं। कौन किसको बोलेगा?"

"बेटी मत जाओ," सबने कहा, दीदी, माँ, पिताजी ने। उसका उत्तर सुनने के लिए हम तैयार नहीं थे। मीना बोली थी, "मेरे भाग्य में यही लिखा है काका, घर में भी मारपीट, दिल्ली में तो दूसरे लोग मारेंगे।"

यह वाक्य सदियों से हर जाति, हर भाषा, हर धर्म में बार-बार दुहराया जाता रहा है। पीड़िता को भोगना है। स्त्री के मुँह पर हाथ रखकर बंद कर दिया है। स्त्री चुनौती दे नहीं सकती है। मीना भी चुनौती देने को तैयार नहीं हुई थी। अंतिम बार मैंने कहा, "बेटी लौट जाओ, घर, माँ-बाप के लिए इतना कष्ट सहो।"

"नहीं काका," कहते हुए उसने हाथ बढ़ा दिया और बोली, "देर हो रही है।" वह फफक-फफककर रोते हुए तेजी से आगे बढ़ गई। हम रोते हुए उसे जाते देखते रह गए थे। फिर हम अपनी-अपनी नौकरी में लौट गए।

एक सप्ताह बाद अचानक दीदी का फोन आया। उसने क्रोध से कहा, "तुमने केउन्दडीह जाकर क्या किया? बेवकूफ कहीं के, जब तुमको कुछ नहीं आता है तो बीच में क्यों पड़ते हो?"

दीदी बहुत जरूरत होने पर ही कुछ बोलती हैं। उनकी बातें सुनकर मैं डर गया। धड़कते दिल से मैंने पूछा, "क्या हुआ दीदी, क्या बात है, साफ-साफ बोलो?"

"फोन पर बात करने का समय नहीं है। किटी को भी लेते आओ। साथ में दो-तीन हजार रुपए लेते आओ।" उसने फोन काट दिया।

दूसरे दिन हम दोनों दीदी के यहाँ पहुँचे। उसने बैठने के बाद बिना भूमिका बाँधे सीधे कहा,

"अकल से काम लो। तुम्हें मालूम है मीना घर से क्यों गई? बाप ने बेटे के नाम पैसा रख दिए, इसी से उसे मारपीट करने, लात मारने, घर से खींचकर बाहर निकालने का हक मिल गया?"

वह शैतान कुकुर उसी जगह आस-पास छिपा था। जैसे ही तुम लोग इधर आए, उसी शाम को एक लड़की को लेकर पहुँच गया। घर में पैसा ढूँढ़ा। नहीं मिला तो अपने माँ-बाप को मारने लगा। तब मनोहर दा ने उसे बता दिया कि पोस्ट-ऑफिस में रखा गया है।

वह निर्लज्ज कुकुर पोस्ट-ऑफिस आया था। पोस्टमास्टर ने बता दिया कि फिक्सड डिपॉजिट में रख दिया है। निकाल नहीं सकते हो अभी। असल में पोस्ट मास्टर ने भी वह इतनी दूर तक जाएगा, यह नहीं सोचा होगा?

"क्या?"

"क्या? पोस्ट-ऑफिस से तो चुपचाप वापस हो गया। लेकिन घर जाकर माँ-बाप को इतना मारा, इतना मारा कि..." वह चुप हो गई और रोने लगी।

"बोली, बोलो दीदी क्या हुआ?" हम खुद भी रूआँसे हो गए रोते-रोते दीदी जोर से बोली, "माँ को, अपनी माँ को आँगन में घसीट-घसीटकर मारा, क्योंकि उसकी बेटी रुपया ले गई थी। यही दोष लगा रहा था।"

थोड़ी देर बाद मैंने पूछा, "गाँव के लोग नहीं गए, क्यों?''

किटी—“गाँव में कोई बचा है क्या?"

दीदी—"जीवाधन और साधु ही तो हमें खबर करने आए थे।"

किटी ने पूछा, "वह बदमाश?"

दीदी-"मारपीट करने के बाद सब तावा-चारू, बासन-बरतन को पटककर फोड़ा। काँसे के बरतनों को समेटा और दूसरे दिन लड़की के साथ कहीं चला गया।"

"थाना कोई नहीं गया?"

"कौन जाएगा थाना? भौजी 'कब आएगी मीना, कब आएगी मीना' रटते-रटते मर गई। उसको परसों मिट्टी देने के बाद मैंने तुम दोनों को बुलाया है।"

दूसरे दिन नाश्ते के बाद हम दोनों किटी के साथ केउन्दडीह के लिए निकले। दस बजतेबजते पहुँच गए। पहुँचकर देखा, मनोहर दा दरवाजे पर चुकुमुकु बैठे हैं। हम दोनों पहुंच गए। दादा के निर्जीव हाथ उठे और फिर गिर गए। किटी ने पूछा, "दादा पहचान रहे हो?" गले से आवाज नहीं निकली, सिर्फ सिर हिला दिया। मैंने उनके हाथ में बिस्कुट और ब्रेड धर दिया। उन्होंने धीरे से उसे जमीन पर गिरा दिया। हमने उनकी प्रतिक्रिया देखी, ताकत होती तो शायद हमारे मुँह पर दे मारते। कितनी बेजरूरत की चीज हम उन्हें दे रहे थे!

वे वैसे ही बैठे रहे, न हिले, न डुले। सिर भी नहीं उठाया। टुकुर-टुकुर धरती को ताकते रहे। हमारे आने की खबर जीवाधन को मिली तो वह भागा-भागा आया। बैठकर उसने मिट्टी देने तक की बातें कहीं। अंतिम वाक्य उसने कहे, "भौजी को ले गए, तब से यहीं पर इसी तरह दादा बैठे हैं। न कुछ खाया, न पिया।"

"मीना कब आएगी?" मनोहर दा यह सवाल हमसे कर रहे थे या स्वयं से, यह कहना हमारे लिए मुश्किल है। वापसी के लिए जैसे ही हम दरवाजे से निकलने को हुए, उन्होंने कहा, "मत आना।" उनकी आँखें दरवाजे पर स्थिर रहीं पथराई-सी और चेहरा भावहीन।

शाम को वापस आने की तैयारी में किटी बोला, "जो हो गया, उसको पा नहीं सकते। हम कल आएँगे, आपको ले जाएँगे।"

दूसरे दिन किटी के साथ जरूरी सामान लेकर हम चलने ही वाले थे कि जीवाधन आ पहुँचा। दीदी उसे देखते ही बोली, "उन्हें छोड़कर तुम आ गए?"

जीवाधन बोला, "नहीं, मनोहर दा ही छोड़कर चले गए।"

सुनकर सब मौन हो गए।

थोड़ी देर के बाद जीवाधन ने ही चुप्पी तोड़ी, "चला गया, अच्छा ही हुआ। आप लोगों से उसकी अंतिम भेंट हो गई। शायद इसीलिए दरवाजे पर ही बैठा रहा था। वहीं पर बैठे-बैठे रात को लुढ़क गया।"

एक कफन का टुकड़ा लिया और गाड़ी से तीनों चल पड़े केउन्दडीह।

जब हम पहुँचे, लोगों ने कब्र खोद लिया था। अंतिम-यात्रा के लिए लाश को चटाई पर लिटा दिया गया था। पहुँचकर हम दोनों ने चुपचाप मनोहर दा के शरीर पर कफन ढक दिया। यह सब आज कितनी 'बजरूरत की चीज' उनके लिए हो गई थी।

यही उनकी लाश भी बोल रही थी—'बेजरूरत की चीज।'

साभार : वंदना टेटे