फैसला (कहानी) : रशीद जहाँ
Faisla (Story in Hindi) : Rashid Jahan
सफिया अभी छोटी थी कि उसके बाप की मृत्यु हो गयी। उसके पिता सबजज थे और जवान ही मर गये थे। इसलिए रुपया थोड़ा ही जमा हो सका था। चार बच्चों को लेकर सफिया की माँ पच्चीस साल की उम्र में ही विधवा हो गयी थी। सफिया की उम्र इस समय छ: साल की थी। बाप की याद तो उसको क्या होती। एक तस्वीर सपने की तरह कभी-कभी आँखों में आ जाती थी। सफिया से छोटी तीन बहनें थी और सबसे छोटा लड़का तो गोद ही में था कि बेचारी पर यह परेशानी टूट पड़ी। मियाँ की मौत के बाद सफिया की माँ चार बच्चों को लेकर मायके चली आयी और वहीं भाई के पास एक छोटा सा मकान लेकर रहने लगीं। अपनी शिक्षा की कमी का एहसास उनको हर मिनट रहने लगा। आज पढ़ी-लिखी होती तो इस मुसीबत में काम आता। उन्होंने निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ हो जाय लड़कियों को जरूर पढ़वायेंगी। सारे कुनबे ने विरोध किया लेकिन उन्होंने एक न माना और पास के मिशन स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। लड़कियाँ सब होशियार थीं, हर साल अच्छी तरह पास होती थीं। सफिया तो बस किताब का कीड़ा बनी रहती। माँ की इच्छा थी कि मेरी सब लड़कियाँ कम से कम बी.ए. करें। शहर में हिन्दू लड़कियों का इन्टरमीडिएट कालेज था। जब सफिया ने मैट्रिक कर लिया तो उसको उन्होंने वहाँ भेजना शुरू कर दिया। अभी सफिया ने एफ.ए. की परीक्षा दी थी कि उसके मामा के एक दोस्त के लड़के का रिश्ता उसके लिए आया। लड़का डिप्टी सुपरिंटेन्डेंट पुलिस था। खानदान भी खाता-पीता था। मामा अपनी लड़की की सगाई कर चुके थे अतः बहन से कहा, लड़का अच्छा है अगर तुम्हारी इच्छा हो तो मैं सफिया के लिए कोशिश करूँ। बहन को बेटी के बी.ए. कराने की धुन लग रही थी, इन्कार करने लगी लेकिन भाई-भाभी और दूसरे रिश्तेदार पीछे पड़ गये कि क्या गजब करती हो ऐसा लड़का कहाँ मिल पाता है तुम्हारे सर पर हाथ रखने वाला हो जायेगा। एक लड़की की अच्छी जगह तो हो जाय तो दूसरों के लिए भी रास्ता खुल जाता है। तुम्हारी तीन-तीन तो बेटियाँ हैं। कुछ तो बुद्धि से काम लो। खुद तो औलाद के साथ दुश्मनी न करो। लड़की अट्ठारह साल की हो गयी। और पढ़ भी गयी है। खुदा न करे अब सब ही पर बुरा समय थोड़ी आता है। जब मियाँ अच्छा नौकर होगा तो फिर इसको क्या नौकरी करनी पड़ेगी। सब लोगों ने समझा बुझा कर सफिया की माँ को राजी कर लिया और मँगनी हो गयी। इधर एफ.ए. की परीक्षा उसने दी। हसन मिर्जा सूरत शक्ल के जरा अच्छे आदमी थे साथ ही खुश-मिजाज व सुशील स्वभाव के थे जो मिलता मुग्ध हो जाता।
सफिया तो अनजान लड़की थी। मिर्जा उसके खाली दिल पर हर तरफ छा गये। मिर्जा भी उसको देखकर खुश हो गये। सफिया जिसने कभी आदमी की झलक भी न देखी थी उसके सामने केवल आदमी की कसौटी किताबी थी। बहुत ही खुश हो गयी। उसने जॉन आस्टिन के नावेल पढ़े थे, वह मिसेज हेनरी वूड के नावेलों की माहिर थी। शारलिट ब्रटनी को भी पढ़ा था। जिस तरह इन सब औरतों के हीरो लम्बे, मजबूत केरेक्टर के भी थे उसी तरह सफिया का काल्पनिक मर्द भी था और उसने शादी के बाद यह सब गुण हसन मिर्जा में पाये और जो गुण मौजूद न थे उसने अपनी ओर से पूरे कर लिये और हसन मिर्जा को अच्छाइयों की जीती जागती तस्वीर समझ लिया।
कुछ दिनों बाद ही एक कमी जो उसने अपने मियाँ में महसूस की जिससे उसको बड़ा दुख हुआ वह यह थी कि हसन मिर्जा उसके खत खोल कर पढ़ लेते थे। उसकी प्रिंस्पल मिस मार्टिन ने उसको बताया था कि यह बहुत ही कमीनी हरकत है और कोई इन्सान यह बात करे तो वह शराफत की कसौटी से गिर जाता है। शुरू-शुरू में तो वह चुप रही फिर जब हर बार ही यह बात देखी तो एक दिन कहने लगी - "हसन, आप मेरे खत खोल लेते हैं अच्छा करते हैं लेकिन अगर मुझसे पूछ कर खोलते तो इजाजत तो मैं भी दे देती। आप खुद ही उस दिन कह रहे थे कि औरत का अपना व्यक्तित्व अलग है। कम से कम मुझको तो यह आदत अजीब सी लगती है। कभी अम्मा ने भी मेरे खत नहीं खोले।" बीवी का संजीदा चेहरा देखकर हसन मिर्जा हैरान रह गये। उन्होंने किसी बुरी नीयत से खत न खोले थे। एक हिन्दुस्तानी आदत उनमें थी कि किसी का खत पढ़ लेने को वह बुरा न समझते थे। उनके खानदान में तो कोई खत प्राइवेट होता न था। उनके चाचा ने एक बार भतीजी का खत जो उसने अपने मियाँ को लिखा था खोलकर पढ़ लिया था और फिर वह आफत उठायी थी कि "और पढ़ाओ लड़कियों को उर्दू। यह देखो क्या आशिकाना खत लिखा है।" सारे घर को वह खत पढ़वाया गया था और लड़की कमबख्त का तो रो-रो कर बुरा हाल था। उस दिन से उसने मियाँ को खत ही न लिखा था।
उसके बाप बहुत आजाद खयाल के थे और विलायत रह कर आये थे और जब हसन ने सफिया का पर्दा तुड़वा दिया तो भी उन्होंने कुछ न कहा और वह भी सब के खत खोल लेते थे। वह झेंप गया माफी चाही और कहा कि "मेरी नीयत सफिया बुरी नहीं थी। आदत बुरी है माफ करो। सच कोई और खयाल न था।"
सफिया खुश हो गयी और कहने लगी, "मैं आप को खुशी से इजाजत देती हूँ कि आप जरूर पढ़ लें। मैंने तो एक बात उसूल वाली कही थी।" लेकिन हसन मिर्जा ने बीवी का खत न खोला। हसन मिर्जा ताश के धनी थे बुर्ज बहुत खेलते थे। सफिया कहती थी कि जुआ है। वह कहते थे कि हाँ है। लेकिन इसमें हम तुम्हारी बात न मानेंगे। सफिया कहती "तो आप शहर में जो जुए के अड्डे हैं उन्हें क्यों पकड़ते हैं इसमें और उसमें क्या फर्क है।" हसन मिर्जा ने बहुत फर्क समझाने की कोशिश की कि वह जुआ तो अड्डों पर होता है और किस तरह यह अड्डे वाले बेईमान होते हैं लोगों को ठगते हैं और उनकी रोजी रोटी सिर्फ इसी अड्डों के पैसों पर है। सफिया का जवाब था कि "वह अड्डों पर जुआ खेलते हैं और आप क्लब में। वह अंग्रेजी शब्द है और यह हिन्दुस्तानी। ठगने के बारे में तो आप स्वयं कहते हैं कि डाक्टर साहब और दो एक वकील है वह बहुत बेईमान है और वकील रामनाथ की रोटी का सहारा यही बुर्ज है? मुझे तो दोनों में कोई अन्तर नजर नहीं आता। कि वही बात आप लोग करें तो कुछ नहीं दूसरे करें तो उन्हें पकड़ें।"
हसन मिर्जा ने हँस कर कहा। "बीवी जान, हम बुर्ज खेलना न छोड़ेंगे।"
"खैर यह आप की हठधर्मिता है। वरन उसूल से तो आप के क्लब के जुए और अड्डे के जुए एक ही चीज है। हाँ दोनों जुए एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। यह तो आप मानते हैं।"
"हाँ मानता हूँ।" हसन मिर्जा ने टालने के लिए कहा। "तो आप जब मानते हैं तो उसी बात को क्यूँ करते हैं।"
हसन मिर्जा ने लाजवाब होकर बीवी को गोद में लेकर भींच लिया। और उसके मुँह को अपने होटों से बन्द कर लिया और सफिया की आवाज कि "जब एक बात समझ में आ जाए तो फिर कोई कैसे खिलाफ चल सकता है।" पूरी तौर से बाहर न निकलने दिया और फिर उठ कर क्लब चले गए।"
शहर में हिन्दू-मुसलमान फसाद का डर था। हर घर में इसी बात का चर्चा था। चप्पे-चप्पे पर पुलिस का पहरा था। हसन मिर्जा भी दिन-रात लगे हुए थे। खाने पर आ गये, फिर चले गये। रात को गश्त लगाते थे। सफिया की समझ में न आता था कि यह हिन्दू मुसलमान लड़ते क्यूँ हैं। वकील बुर्जलाल जो हसन मिर्जा के दोस्त थे और सफिया को भाभी कहते थे उसको समझाने की कोशिश करते थे कि यह सब दोष अंग्रेजों का है। हसन मिर्जा कहते थे। यार जब हम विद्यार्थी थे तो खद्दर पहन कर घूमते थे अब आठ साल नौकरी करके मालूम हुआ कि सब बेकार की बातें हैं हम खुद ही ऐसे हैं मस्जिद और मन्दिर की ईंटों पर एक दूसरे का खून बहाते हैं।
सफिया पूछती कि आखिर कभी तो यह द्वेष शुरू हुआ होगा। और उसके शुरू होने की कोई न कोई वजह होगी। बुर्ज लाल कारण अंग्रेजों का राज बताते। मिसेज बुर्ज लाल दबे शब्दों में मुसलमानों पर सारा दोष थोपने की कोशिश करतीं और सुल्तान हसन एक और वकील जिनका आना जाना भी हसन मिर्जा के यहाँ था तेज होकर मिसेज बुर्ज लाल की बात काट कर हिन्दुओं को मुलाजिम ठहराते। और हसन मिर्जा दोनों को दोषी ठहराते। इस भूल-भुलइया से बाहर निकलने की सफिया कोशिश करती - देखिए, मैं तो हिन्दू-मुसलमान फसाद को एक बीमारी ख्याल करती हूँ। जिस तरह मेरी बच्ची रजिया को अभी दो महीने पहले मलेरिया हो गया था मैं तो समझती हूँ उसी तरह हिन्दुस्तानी समाज में हिन्दू-मुसलमान फसाद भी एक बीमारी है। मैं तो डाक्टर साहब की जान खा गयी थी कि मलेरिया क्या है। क्यूँ होता है। क्या इलाज है।
वह चाहे ऊब गये हों लेकिन मैंने तो उनकी डाक्टरी की किताबें तक लेकर पढ़ डालीं। जब कहीं जाकर मुझको चैन आया और अब इन्शा अल्लाह मैं भी देखूँगी कि मलेरिया रजिया को फिर किस तरह सताएगा। आप लोग बस चैन से बैठे एक दूसरे पर इल्जाम लगाते हैं। इसका कुसूर उसका कुसूर। आखिर जिस तरह मलेरिया का कीड़ा पकड़ा गया उसी तरह उसका कारण भी मालूम हो सकता है। और जिस तरह कि मलेरिया की दवा मालूम हो गयी आखिर उसका भी कोई इलाज होगा।
"अभी-अभी आप के मिर्जा साहब ने देखिए फसाद रोक ही दिया। इनसे पूछिए दवा?भी "
"यह कोई रोकना है। अब रोक दिया। छः महीने बाद फिर सही। मैं तो ऐसा इलाज चाहती हूँ जो इस कमबख्त फसाद की जड़ ही मुल्क से जाए।"
"अरे भाई रोकना वोकना। क्या हम तो सरकारी नौकर हैं हुक्म की पाबन्दी करते हैं?"
सफिया ने बिगड़ कर कहा, "अच्छी नौकरी हुई। कल सरकार हुक्म दे कि निर्दोष को फाँसी लगा दो। क्या कोई फाँसी लगा देगा?"
हसन मिर्जा ने बड़ी गम्भीरता से जवाब दिया। "बेगम हसन को नौकरी करनी होगी तो वह जरूर लगा देगा।"
सफिया रह गयी और उसका मुँह देखने लगी। उसको लगा कि हसन मिर्जा ने उसके मुँह पर तमाचा मार दिया हो। कुछ सेकेन्ड उसकी तरफ देखा और खिसfयानी हो कर बोली।
"नहीं-नहीं हसन तुम तो ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकोगे।" और फिर एक विशेष आशा से मिर्जा की ओर देखने लगी।
"लीजिए भाई आप हर बात को बढ़ा लेती हैं। बेकसूरों को कौन फाँसी लगवाता है...। चलिS जाकर रजिया को ले आइS। आप तो हर बार बाल की खाल निकालने बैठ जाती हैं। बेकार खुद भी परेशान होती हैं और दूसरों को भी करती हैं। सरकारी नौकरी वालों और विशेष रूप से पुलिस वालों की बीवियों को कोई हक इस तरह की बातों का न होना चाहिए। ठीक है ना मिर्जा?" हसन जो सफिया को ढाई साल में अच्छी तरह समझ गये थे चुपके से उठे और सिगरेट जला कर खामोशी से कमरे में टहलने लगे। सफिया की मँझली बहन की शादी भी ठहर गयी थी। सफिया बहन को कीमती जेवर तोहफे में देना चाहती थी उसे घर में कम खर्च करना शुरू कर दिया था। हसन मिर्जा रिश्वत तो कभी न लेते थे अतः वेतन और भत्ते में बस अच्छी तरह गुजर करते थे। बल्कि सफिया अपने पति की इस अच्छाई पर उनकी बहुत इज्जत करती थी। कई बार इस तरह के मौके खुद उसके हाथ आये लेकिन हसन मिर्जा ईमानदारी पर रहे। वैसे भी व्यक्तिगत रूप से वे बहुत नेक और ईमानदार आदमी थे। सरकारी चपरासी जो मिले थे उनमें एक को वह दस रुपये महीना देते थे जब घर का काम करने देते थे दूसरा चपरासी केवल सरकारी काम करता था शादी के बाद पहली सर्दी में तो सफिया गर्भवती थी फिर रजिया पैदा हुई तो वह माँ के यहाँ ही रही। और मिर्जा के साथ दौरे पर न जा सकी उसको गाँव की सीनरी से बहुत दिलचस्पी थी और गाँव सिर्फ उसने रेलों से देखा था। और अब करीब से उनको जानता चाहती थी। दूसरे साल जब हसन दौरे पर जा रहे थे तो अपने बीवी बच्चों के साथ गये। सफिया बहुत खुश थी। एक तो मौसम अच्छा और दूसरे, हसन को बुर्ज न मिलता था तो ज्यादा समय दोनों का साथ ही गुजरता था। हर जगह से दूसरी जगह जाने तक बैलगाड़ियाँ, कुली, लारी जिस चीज की आवश्यकता हो समय से पहले हाजिर हो जाती थी। मुर्गी, अन्डे, घी, दूध किसी चीज की कमी न थी। इस शान व शौकत को देखकर सफिया बहुत परेशान थी कि हसन सारा रुपया बेकार में खर्च कर देंगे। तो वह बहन के लिए फिर कुछ खरीद न सकेगी। उसने हसन से कहा था "इस सब की क्या जरूरत है?"
हसन ने कहा "यह सब तुम्हारे अपने हाथ में है। थानेदार से जो कहोगी वही तो लायेगा?"
सफिया ने थानेदार को बुलाकर हिसाब माँगा तो वह कहने लगा, "बेगम साहब, मेरी तो यह खुशी थी कि आप पहली बार मेरे इलाके में आई हैं। मेरा दिल चाहता था कि आप मेरी ही मेहमान रहतीं।" सफिया के कहने पर वह तैयार हो गया कि वह हिसाब दे देगा। सफिया ने कहा, आप रोज मुझसे पूछ कर चीजें मँगवाया कीजिए। और रोज का हिसाब दे दिया कीजिये। थानेदार ने कहा बेगम साहिबा यह मेरे लिये जरा मुश्किल है मैं अन्त में इकट्ठा ले लूँगा। आप को जिस चीज की जरूरत हो आप अपने चपरासी के हाथ कहला भेजें हाजिर हो जायेगी।"
सफिया को सुकून हो गया लेकिन वह इस खयाल से कि कहीं अन्त में दाम ज्यादा न ले लिये जायें हर चीज को देख कर लिख लेती। यहाँ तक कि उसने कुली और गाड़ियाँ भी लिखनी शुरू कर दीं और अपनी ओर से कम खर्च करने को तैयार हो गयी। जब पन्द्रह दिन खत्म हुए तो कई बार माँगने पर थानेदार साहब ने कहा। "साहब, हिसाब-विसाब मैंने लिखा नहीं खयाल है कि कोई बीस-पच्चीस रुपये खर्च हुए होंगे यही दे दीजिये।"
सफिया बीस-पच्चीस रुपये का नाम सुन कर हैरान रह गयी। वह अगर पचास-साठ भी सुन लेती तो कम समझती। समझ गयी कि थानेदार एक किस्म की रिश्वत दे रहा है। बिगड़ गयी और बोली, "थानेदार साहब आप से कुछ गलती हुई है। मैं और मेरे पति इस तरह की बातें पसन्द नहीं करते। पन्द्रह दिन से नौ-दस आदमी तो हर जगह कैम्प पर लगे रहते हैं, कुली अलग - बैलगाड़ियाँ अलग तीन बार पूरी-पूरी लारी शहर से आईं और खाना-पीना फिर हर समय लकड़ियाँ जलती हैं। आप किस तरह कहते हैं कि बीस-पच्चीस रुपये खर्च हुए?"
थानेदार भला बीस साल की छोकरी को क्या खातिर में लाता। बोला, "बेगम साहिबा, पैसा तो सरकारी नौकर देते हैं। गाँव के चौकीदार हैं। मुखिया हैं। नौकर इसी दिन के लिए तो रखे जाते हैं और देहात में हर चीज सस्ती है आप तो शहर का हिसाब लगा रही हैं।"
सफिया थोड़ी सी चकरायी और फिर सँभलकर बोली, "एक मुर्गी के दाम क्या होते हैं?"
"यही दो तीन आने होंगे।" उसने लापरवाही से कहा...। क्यूँ बे मुर्गी के दाम क्या होते हैं? थानेदार ने एक देहाती को आवाज दी और साथ ही दो उँगलियों का इशारा कर दिया। एक तो देहाती डर गया और फिर समझा कि थानेदार साहब जरा अच्छी कीमत पर मुर्गियाँ बेचना चाहते हैं। घबरा कर बोला, हुजूर दो रुपये।"
"ऐ तूने तो घोड़े के दाम बता दिये। मुर्गी के पूछ रहा हूँ। मुर्गी के।"
उसने थानेदार साहब की फिर दो उगलियाँ देखीं, फिर समझ कर बोला दो आने...। सफिया हँस पड़ी। थानेदार चुप हो गये लेकिन उसको भी बात की तह तक जाने आदत थी बोली। "अच्छा थानेदार, साहब मैं अभी मालूम कर के देहातों की कीमतों का पता बता दूँगी।" यह कहकर गाँव जो पास में ही था उसकी ओर चली। थानेदार साहब बेबस होकर हसन मिर्जा की तलाश में निकले। देर बाद मिर्जा उनको मिले उन्होंने नर्म अन्दाज में सफिया की शिकायत शुरू की, "मिर्जा साहब मुझसे बड़ी गलती हो गयी। मैं बेगम साहब को नहीं समझा। मैंने कहा कि जैसी और मेम साहब आती हैं बिल देखकर खुश हो जाती हैं उसी तरह बेगम साहब को भी खुश कर दूँ।" बात क्या हुई, हसन मिर्जा ने पूछा।
"बेगम साहब ने मुझसे शुरू में कहा था, हिसाब दे दिया करो। आज मैंने हिसाब दिया बहुत नाराज हुईं।"
मिर्जा खुद समझे कि खर्च इस बार बहुत बेढंगा हुआ है और सफिया रुपये जोड़ने पर तुली हुई है। पूछने लगे, "कुल कितना हुआ?"
"साहब, बीस पचीस रुपये माँगे थे।" हसन मिर्जा ने हैरत से थानेदार की ओर देखा और कुछ समझ न सके।
"बेगम साहब, बिगड़ी इस बात पर हैं कि बहुत कम है। अब मिर्जा समझे कि क्या करें साहब हमारी तो हर तरह मुसीबत है। अब कोई अफसर आता है तो वह बिल ही नहीं माँगता। कोई आता है तो थोड़ा देकर समझता है मैंने बहुत दे दिया। साहब यकीन मानिए हर जाड़े में हजार डेढ़ हजार रुपया मेरा अपनी गिरह से उठ जाता है। मिर्जा साहब आप से तो कोई पर्दा नहीं। एक आप ऐसे अफसर हैं कि आदमी खुल कर बात कर सकता है। 95 रुपया मेरी पगार है। अब आप ही बताइए मैं यह हजार डेढ़ हजार रुपया क्या अपने बाप के घर से लाता हूँ। अब बेगम साहब शिकायत कर रही हैं कि तुम ने हिसाब गलत दिया। गलत न दें तो क्या करें। अभी पचीस दिन हुए कलेक्टर साहब रह कर गये हैं। बारह दिन रहे। साथ में कई दोस्त शिकार को लाये थे। बस खर्च का कुछ न पूछिए। मैंने हिसाब सिर्फ पचपन रुपये का दिया। मेम साहब ने काट कूट कर मुश्किल से 30 रुपये पकड़ा दिये। ये देखिए।" जेब टटोल कर एक मुड़ा-मुड़ाया कागज निकाला "लीजिए ये देखिए। अब बेगम साहब से..." इतने में सफिया पीछे से आई। उसका गुस्सा और भी बढ़ा हुआ था। वह भी हसन मिर्जा के पास इन्साफ के लिए आ रही थी। थानेदार उसको देखकर चलने लगा। उसने मुड़ कर कहा, "ठहरिए थानेदार साहब।" थानेदार साहब ने सलाम करके कहा, "मैं मिर्जा साहब से अपनी गलती मान चुका हूँ। बेगम साहब इसमें मेरा क्या कुसूर है यहाँ का तरीका यही है।" सफाई में उसने वह पर्चा पेश किया और सब बातें भी दोहरायीं। सफिया यह सुनकर हैरान रह गयी। लेकिन फिर भी उसने अपना मोर्चा न छोड़ा। और बोली, "खैर आप मिर्जा साहब को तो जानते हैं वह तो कई बार आ चुके हैं?"
उसके इस सवाल से मिर्जा साहब के दिल में एक तीर लगा, थानेदार ने मिर्जा साहब की तरफ देखा और भाँप कर बोला, "बेगम साहब, अगर सच बोलने की इजाजत हो तो मिर्जा साहब का खर्च ही क्या है। एक चिड़िया मारी और भूनकर खा ली और रहा इधर से उधर जाने का खर्च। वह तो एक जगह टिक गये। घोड़ा लिया और घूम आये। यह सब जो इतना हुआ यह तो आप के कारण था और मिर्जा साहब तो दो तीन दिन से ज्यादा कभी रहे भी नहीं।"
बात सही थी। सफिया चुप हो गयी। मिर्जा ने दोनों का समझौता इस बात पर करवा दिया कि जो लोग वहाँ मौजूद थे उन सब को मुआवजा दे दिया जाये और जहाँ से चले आये थे वहाँ फिर जाना मुश्किल था। अतः वहाँ का हिसाब थानेदार साहब ही भेज दें। सफिया ने फिर इसकी बात नहीं की लेकिन उसके लिए वह दौर खाक में मिल गया। इन सब बेगारियों की जिसको वह दाम न दे सकी थी उसको चैन न लेने देती थी - और मुर्गी खानी तो उसने बिल्कुल छोड़ ही दी थी। मिर्जा भी कुछ न कहते थे। लेकिन जब कभी दौरे की बात आ जाती सफिया की सूरत उसको शर्मिंदा कर देती थी। मिर्जा खयाल जरूर रखते थे कि बेगार उनकी वजह से न हो लेकिन फिर भी कहाँ तक बच सकते थे लेकिन मिर्जा की आत्मा पुकार उठती कि तूने सफिया की तरह सावधानी क्यूँ न बरती। अब उनके दिल में सफिया से एक तरह का डर पैदा होने लगा। पुलिस की नौकरी में इतने जबरदस्त उसूल किस तरह निभ सकते थे। अब एक मोटर वाले ने उनसे मोटर ठीक करवाने के दाम नहीं लिये थे। उन्होंने जेल तक की धमकी दी थी। नवाब जफर अली हर डिप्टी को हर साल कम से कम आम और मेवा आदि जरूर भेजा करते थे। मिर्जा के नहीं करने पर वे खुद आ कर बैठ गये कि साहब आप मेरी मुहब्बत को क्यूँ ठुकराते हैं। मिर्जा ने हजार समझाया कि साहब मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा। वह माने ही नहीं, महीने भर बाद कुछ जरूरत से आ खड़े हुए। और मिर्जा को मुरव्वत में काम करना पड़ा। वह जानते थे कि सफिया तो नहीं कर देती लेकिन सफिया खरी थी। यह बेचारे अक्सर मुरौव्वत में मारे जाते। सफिया के दिल में जहाँ और हजार काँटे थे वहीं मिसेज टाम्स के तीस रुपये का बहुत बड़ा काँटा था। उसको पहली दफा एहसास हुआ कि अंग्रेज लिखते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं और न जाने क्यूँ उसको अब मिस्टन मार्टिन पर भी शक होने लगा और मियाँ बीवी के बीच एक हल्का सा पर्दा पड़ गया।
दौरे से आकर कुछ दिन बाद जब क्लब गयी तो सबने पूछा कि कहो क्या वक्त गुजरा और मिस्टर टॉमस तो सफिया पर खास मेहरबान थीं। पूछने लगीं, कहाँ-कहाँ गयी थीं? सफिया ने सब बताया और पूछा कि आप लोगों का खर्च कितना होता है। मिसेज टॉमस जो एक अंग्रेज शरीफ खानदान की बीवी थीं उन्हें इस तरह की बदतमीजी की बातों की आदत न थीं। सफिया को कल्चर्ड हिन्दुस्तानी समझती थीं। यह सवाल सुन कर लाल हो गयीं और ठण्डी साँस भर कर कहने लगी, "यह सवाल तो बिल्कुल प्राइवेट है। आप क्यूँ पूछती हैं?" सफिया ने कहा मेरा कोई इरादा नहीं लेकिन मैंने इस बार अन्दाजा लगाया कि खर्च तो बहुत होता है लेकिन बिल हम लोगों को बहुत कम दिया जाता है।
"कम दिया जाता है।" मिसेज टॉमस हँसी, "इस बार तो थानेदार ने मुझे लूट लिया था, क्यों जैक। वह तो अगर मैं हिसाब न देख लेती तो शायद मुझे ठग कर ही ले जाता।"
"वह तो रोग है। सब थानेदार और तहसीलदार एक से हैं। मैं तो उसूल के तौर पर उनके बिल को आधा कर देता हूँ।" कलेक्टर जैक टॉमस बीवी की गवाही को आगे बढ़े। उसूल का नाम सुन कर सफिया चौंक पड़ी। उसके लिए सारी जिन्दगी ही एक उसूल थी। मिर्जा मजाक में उसे बीवी उसूलन कह कर पुकारते थे। सफिया का चेहरा देखकर डर गये, टाई खेंचने लगे। खाँसे भी कि सफिया की आँख मिल जाये लेकिन सफिया इस नये उसूल को समझने के लिए तैयार हो गयी। और कहने लगी "मिस्टर टॉमस, आपकी बात समझ में नहीं आयी।"
मिसेज टॉमस ने पति के बदले जवाब दिया "सब नैटयू बेईमान होते हैं।" फिर सफिया की तरफ देखकर जल्दी से बोली, "मेरा मतलब सब निचले वर्ग के नौकर पेशा और कुल्ली लोग..."
सफिया जिसका इरादा लड़ाई करने का न था और जिसने यह बात थानेदार को झूठा ठहरा कर अपनी आत्मा को ठण्डा करने की कोशिश की थी जो केवल मिस्टर टॉमस की ही नहीं बल्कि सारे अंग्रेजों की दिल से इज्जत करती थी मिसेज टॉमस के इस जवाब के लिए बिल्कुल तैयार न थी। उसने कटलिंग को भी पढ़ा था और उसने कई जगह यही शब्द लिखे थे लेकिन ना मालूम क्यूँ उसने कभी इसकी तरफ गौर नहीं किया था जबकि आँखें अंग्रेजी साहित्य में ऐसी चीजें ढूँढ़ने की आदी थीं लेकिन कान न थे और मिसेज टॉमस ने अपने इन शब्दों को जिसे केवल वह अंग्रेजी सोसायटी में बोलने की आदी थीं और जो गल्ती से उनके मुँह से निकल गये थे उसे छुपाना चाहा लेकिन वह अपना काम कर चुके थे। सफिया के शरीर में कँपकँपी शुरू हो गयी लेकिन वह बहुत सीधे सादे शब्दों में मिसेज टॉमस के वाक्य को काट कर बोली "आप ठीक कहती हैं मिसेज टॉमस हिन्दुस्तानी तो होते ही बेईमान हैं। लेकिन आप अंग्रेजों की ईमानदारी भी देख लो। 12 दिन आप छः दोस्तों को लेकर दौरे पर रहीं। शिकार खेला, तीन लारियाँ हर वक्त आपके लिए खड़ी रही, खाने-पीने का सामान अलग। जब बेईमान सुन्दर सिंघ ने आपको पचपन रुपये का बिल दिया तो आप ने उसूल से आधा करके तीस रुपये पकड़ा दिया, तो बहुत लाजवाब यह अंग्रेजी उसूल है।"
मिसेज टॉमस अपनी हरकतों से हर हिन्दुस्तानी जिससे वह बात कर लेती उस पर जाहिर कर देतीं कि यह उनका खास करम है। वह कलेक्टर की बीवी होने की हैसियत से अपने को जिले की मलका समझती थीं और पहली बार किसी ने उनके साथ इतनी बदतमीजी की थी, गुस्से में लाल होकर खड़ी हो गयीं और बोली "How dare you?" मिसेज मार्गन जो सुपरिंटन्डेन्ट पुलिस की बीवी थीं गुस्से में बोलीं, "तुम्हें कैसे खबर मिली?" सफिया एक सेकेन्ड तो रुकी फिर बोली "मैंने सुन्दर सिंघ के पास खुद सारा हिसाब देखा है।"
प्रीतम सहाय ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट जो खड़े यह सुन रहे थे आगे बढ़े और कहने लगे, "सुन्दर सिंघ की किस तरह मजाल हुई और मुझे पूरी तरह उम्मीद है कि मिसेज मिर्जा से गल्ती हुई है और वह आप से माफी माँग लेंगी।" मिसेज टॉमस ने फिर एक बार अपनी ऊँची जगह सँभाली। उनको सफिया की बातें ऐसी लगीं जैसे वह किसी फंक्शन पर अध्यक्ष बनने आयी हों और किसी मसखरे ने उनकी कुर्सी पीछे से खिसका दी हो और वह भरी महफिल में टाँगें ऊँची करके गिर पड़ी हों। प्रीतम सहाय ने सफिया को गलत साबित करके उनको फिर से अपनी जगह पर खड़ा कर दिया था।
सफिया ने आँखें फाड़ कर प्रीतम की तरफ देखा, प्रीतम को वह पहली बार समझ रही थी। उसकी सारी पुरानी बातें शेखी ही थीं। प्रीतम की आँखों में आँखें डालकर बोली, "प्रीतम साहब आप क्यों इतने बेचैन हो गये? माफी तो मिसेज टॉमस को माँगनी चाहिए, उन्होंने पहले हम सबको बेईमान कहा था जिसमें आप भी शामिल हैं।"
हसन मिर्जा घबरा कर गर्दन खुजाते हुए कमरे से बाहर चले गये। पहले तो सफिया को उनकी मदद की जरूरत ही न थी। उसूल के सवाल पर वह अकेली मिसेज टॉमस ही क्या पूरी रेजीमेन्ट का मुकाबला कर सकती थी। सफिया के जवाब के बाद कमरे में खामोशी छा गयी एक अंग्रेज मर्द और दो औरतें वहाँ मौजूद थे तीनों सुर्ख चुकन्दर बने खड़े थे। सफिया जाहिर में बिल्कुल खामोश और अन्दर से तन्दूर की तरह भुन रही थी और प्रीतम सहाय बिल्कुल उस कूड़े की तरह कमरे में ढेर थे जो उड़-उड़ कर मेहमानों के सामने मेजबानों (आतिथ्य) को शर्मिन्दा कर रही हो।
सफिया उठी, अपना बटुआ उठाया और क्लब के बाहर जाकर अपनी मोटर में बैठ गयी। उसके जाते ही मिसेज मार्गन ने जोर से साँस लिया और कही, "वेल"।
मिसेज टामस को फिर कुदरत ने जबान दी और बोली, "अपने सब-आर्डिनेट से एक होकर मिलने का यह नतीजा है।"
बीवी को मोटर में बैठा देखकर हसन मिर्जा भी मोटर में जा बैठे और मोटर चलाकर घर चले गये। न रास्ते में दोनों ने बात की और न घर पहुँच कर। मिर्जा टहलने चले गये। सफिया कुर्सी पर बैठी रही उसके जेहन में अब कोई भी खयाल न था। मिर्जा वापस आकर पुलिस की फाइल निकाल कर काम करने लगे। शादी के तीन साल के समय में पहली रात दोनों ने एक दूसरे से न बात की और न खाना खाया। सुबह सबेरे ही मिर्जा घर से निकल गये सफिया अब परेशान थी। वह जान रही थी कि हसन उससे बहुत नाराज हैं लेकिन यह भी जानती थी कि उसका कोई कुसूर न था वह अपने ईमान को हसन पर से कुर्बान न कर सकती थी हसन ने दोपहर को भी खाना न खाया। न मालूम कहाँ रहे।
शाम को ब्रजलाल उनकी बीवी और सुलतान आ गये। बात क्लब से कुछ-कुछ बाहर निकल चुकी थी। वकीलों के बार में भी इस पर गुच चुप बातें हुई थीं। कुछ लोग मिसेज टॉमस से गुस्सा थे, कुछ प्रीतम सहाय से। और सब के सब इस बात को देखना चाहते थे कि इतनी बड़ी बात हो गयी, उसका हसन मिर्जा पर क्या असर पड़ेगा। सुन्दर सिंघ के समाप्त हो जाने में तो कोई शक न था।
सफिया का मुँह देखकर जिस पर 24 घन्टे के फाके का असर था किसी की हिम्मत न हुई कि बात को दोहराता। इधर-उधर की बातें हो रही थीं कि हसन मिर्जा आये और आते ही सफिया पर बरस पड़े। "बस खुश हो गयीं, लड़कर एक किला अपने चारों ओर बना लिया है... ना मालूम किस दुनिया में रहती हैं। अगर आपके इतने कड़े उसूल हैं तो घर पर रहिए। किसने कहा कि दुनिया भर में घूमती फिरिए।" कोट उतार कर कुर्सी पर फेंक दिया और ब्रजलाल से बोले, "यार अजब आफत में जान है। फिजूल मुझमें और मार्गन में झगड़ा हो गया..." किसी ने जवाब न दिया। सफिया तो बिल्कुल बुत थी। मिर्जा एक कुर्सी पर बैठ गये। रूमाल से पसीना पोंछा और कहने लगे, "यह घर में बैठी-बैठी ईमानदारी, सच्चाई आदि के उसूल छाँटा करती हैं। यह क्या जानें कि हम लोग किस मुसीबत में पड़ कर काम करते हैं।" हाँ बहन, हम औरतों को क्या। बाहर मर्द चाहे कुछ भी करें। मिसेज ब्रजलाल जिन्हें ठीक से खबर न थी कि मामला क्या है समझाने लगीं।
सफिया को सबने मिल कर चोर बना दिया। वह अपने को उस खरगोश की तरह महसूस करने लगी जो बेकसूर होता है फिर भी शिकारी उसे चारों ओर से घेर लेते हैं।
"खुद तो लड़ आयीं, मेरा तो खैर जो होगा देखा जाएगा। उस गरीब सुन्दर सिंघ को बिल्कुल बरबाद कर आयीं। आज मोरगन कह भी रहा था कि सुन्दर सिंघ..."
"क्या मोरगन से भी तुमसे बातें हुईं?" ब्रजलाल ने पूछा। "बातें हुईं>" मिर्जा हँसे। "तीन बजे दफ्तर पहुँचा तो मोरगन का एक पर्चा रखा था कि मेहरबानी से मुझसे आकर मिलो। उसके घर गया कि एक घण्टा मुझको बदमाश ने खड़ा रखा और फिर कहने लगा मुझे बहुत अफसोस है कि तुम्हारी बीवी और मिसेज टॉमस में झगड़ा हो गया। मैंने कहा, मुझे भी अफसोस है। फिर कहने लगा, मिसेज टॉमस उम्मीद रखती हैं कि तुम्हारी बीवी उनसे माफी माँगेगी। मैंने कहा यह औरतों की बातें हैं मिसेज टॉमस को जो कहना है मेरी बीवी से कहें। आप को और मुझको इस बीच में बोलने की जरूरत नहीं। झल्ला पड़ा और कहा मैंने ही नहीं बल्कि सब अफसरों ने ही तुमको कभी छोटा न जाना और बराबर का समझ कर मिले। लेकिन तुमको अपनी जगह न भूलनी चाहिए। मिसेज टॉमस ही नहीं बल्कि मैं भी सोचता हूँ कि तुम्हारी बीवी को माफी माँगनी चाहिए। मैंने कहा आप मुझको ये अर्थात् जो आप कह रहे हैं एक हुक्म की सूरत में लिख कर दे दीजिए। अगर मुझको नौकरी करनी होगी तो मैं माफी माँग लूँगा। मेरी बीवी सरकारी नौकर नहीं है और न मिसेज टॉमस सरकारी अफसर। बस भन्ना कर खड़ा हो गया और कहने लगा, "मिर्जा तुम्हारे लिए अच्छा न होगा। मैंने कहा जो होगा देखा जाएगा। अतः बहुत सख्त बातें हुईं।" फिर मिर्जा सर पकड़ कर बैठ गये। नौ साल की नौकरी में ऐसा कभी न हुआ था। फिर खामोशी छा गयी। फिर मिर्जा उठे और आवाज दी कि चाय ले आये, फिर टहलने लगे कभी सिगरेट जलाते, कभी फूँक देते फिर बोले - "इन अंग्रेजों के मुँह तो कभी न लगना चाहिए। अरे भई तुम्हारी बला से कुछ दे या न दे तुम को क्या तुम अपना हिसाब साफ रखो। तुम्हें क्या कोई दस दे या सौ।"
"मिसेज टॉमस ने पहले हिन्दुस्तानियों को बेईमान कहा था।" सफिया ने बड़ी कोशिश करके बड़ी मुश्किल से कहा। मिर्जा ने कोई जवाब न दिया। "तो क्या आप चाहते हैं कि मैं मिसेज टॉमस से माफी माँगूँ?"
"कौन कहता है कि तुम माफी माँगो।" मिर्जा एक बार फिर बरस पड़े। चाय आ गयी। नौकर तो मक्खन ले आया। मिर्जा बना कर पीने लगे। न मेहमानों को पूछा न बीवी को। कुछ अजब मौका था सब चुप थे। सुल्तान हसन ने खामोशी को तोड़ा और कहा। चलो अब। तीनों धीरे से उठ कर चले गये। बाहर बरामदे में आ कर ब्रजलाल ने कहा। "देखो यार सुल्तान ये बातें बाहर न निकलें अपितु बेचारे के लिए और बुरा हो जाएगा।" सुल्तान ने भी सर हिला दिया।
मिर्जा ने चाय पी और तोस खाये। पेट में गर्मी पहुँची तो दिमाग ठंडा हुआ और होश आया। बीवी की सूरत की तरफ देखा तो वो चुप बैठी दरवाजे से बाहर घूर रही थी। चेहरा खाना पीना बन्द करने के कारण पीला हो रहा था। मिर्जा ने अंग्रेजी में कहा, "सफिया यहाँ आओ।"
सफिया उठी और जमीन पर पैर मोड़ कर हसन की गोद में सर रख कर फूट-फूट कर रोने लगी। मिर्जा ने उठा लिया और कहा, "एक तो लड़ आईं अब रोती हो रोने की क्या बात है?"
"हसन मैं अपने घर चली जाऊँगी... आप को मेरी वजह से तकलीफ हुई।..."
सफिया ने सिसकियाँ भरते हुए कहा, "मैं अब चली जाऊँगी।"
"कहाँ?"
"क्या आप सचमुच सोचते हैं कि मैंने गल्ती की?"
"हाँ बात तो तुमने ही छेड़ी थी।"
"लेकिन मेरा इरादा वो पचपन की बात कहने का न था। वह जब उन्होंने सब हिन्दुस्तानियों को बेईमान कहा तो मैं गुस्से में आ गई।" थोड़ी देर ठकर कर "तो क्या आप सचमुच समझते हैं कि मुझे माफी माँगनी चाहिए?"
मिर्जा ने धीरे से सर हिलाया और कहा, "नहीं। यह मैंने कभी नहीं कहा।" सफिया ने हसन के गले में हाथ डाल कर और अपना मुँह उसके सीने में छुपा कर, "अगर आप कहते भी तो मैं ना मानती, क्यूँ कि मैंने सच्ची बात कही थी।" दोनों रोने के बाद जो एक हल्का सा बोझ लिए थे भूल गये। जैसे दोनों ने फिर से एक दूसरे को पा लिया हो।