एक जिंदगी खूबसूरत (तुर्की कहानी) : मेमदुह सेवकेत इसेंदल

Ek Zindagi Khoobsurat (Turkish Story in Hindi) : Memduh Sevket Esendal

जुलाई की दोपहर। पड़ोस से औरत की आवाज। यह बताना असंभव है कि वह किस बात पर चिल्ला रही है। शायद वह अपने बच्चे को पुकार रही थी। एक बिल्ली मुअजिन की दीवार फांदकर लकड़ी की छत पर कूदी। कुछ मकान दूर एक मुर्गी कुड़कुड़ा रही थी और मुर्गा जैसे कुड़कुड़ाने में उसका साथ दे रहा था।

नीचे, उसकी मां दो पड़ोसी औरतों के साथ किसी बात पर बहस करते-करते उत्तेजित हो गयी थी और जल्दी-जल्दी बोलने लगी थी। जाहिर है उनमें गप-शप चल रही थी। धारियोंवाली भूरी बिल्ली सोफे पर चारों टाँगें पसार कर सो गयी थी। पुरानी टूटी मेज पर टूटी हुई लालटेनें और ड्रेसडन लैम्प पड़े हुए थे जो मां को विवाह के समय में उपहार में मिले थे और पास ही मनकों वाले ढक्कन के भीतर सोने की कलई वाला पेंचदार चश्मे का जोड़ा था। कोने में उसके काले कपड़े के नीचे पैग़म्बर की हदीस थी। सब कुछ जैसा होना चाहिए वैसा था और जिन्दगी हमेशा की तरह शांत थी।

हाफ़िज नूरी इफेंदी ने दरवाजे के पीछे से अपना छाता उठाया और धीरे-धीरे चलता हुआ गली में निकल गया। क्यों? क्या उसे कुछ काम है? वह किसी से मिलने जा रहा है? नहीं, उसे कोई काम नहीं है। अगर वह घर से बाहर नहीं भी जाता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। बस, वह बाहर निकल आया था। उसकी टाँगें उसे चौराहे तक ले आई थीं। एक तरफ पंसारी की दुकान थी, दूसरी तरफ दरवेश की कब्र की दीवार। सामने जमीन के एक खाली प्लॉट और दो मकानों के बीच रेलवे लाइन दिखायी देती थी। इस खाली प्लॉट में छुट्टियों के दिनों में लगनेवाले झूलों में से एक किनारे पर पड़ा हुआ था। एक मकान बीच से बैठ गया था और उसे तीन बल्लियों पर टिका कर रखा गया था। पीली टीन की एक ट्राम कार थरथराती, कांपती हुई येदीकुले की दिशा में चली गयी। सड़कें खाली थीं। भिखारी की तरह कपड़े पहने एक आदमी जिसके कुछ हिस्सों को लकवा मार गया था, एक बाँह को सामने हिलाता और एक पाँव को खींचता हुआ, वहां से गुजरा। गली फिर खाली हो गयी। अचानक शोर सुनाई दिया। रेलगाड़ी आ रही थी। एडिरने से आनेवाली मालगाड़ी धरती और मकानों को कंपाती हुई निकल गयी। उसके गुजरने पर किसी का भी सिर चकरा सकता था। दो मकानों के बीच संकरी-सी जगह से माल के डिब्बों को निकलते हुए देखा जा सकता था। एक के बाद एक डिब्बे गुजरते गए और फिर अचानक यह सिलसिला रुक गया। ओह! नूरी इफेंदी परेशान हो उठा। यह गाड़ी एडिरने से आई, इस्तांबुल जितनी दूर से और सरकेसी चंद कदमों के फासले पर ही तो है। अगर यह धीरे-धीरे और बड़े सुकून से गुजरे तो क्या वह वहां नहीं पहुंचेगी, बजाए ख़्वामख्वाह की जल्दबाजी और हड़बड़ के, पागलों की तरह भागने के?

हाफिज नूरी कोने में दुबका खड़ा रहा। अचानक उसे पास ही कोई दिखाई दिया। यह मोची शुकरू था। क्या वह पिछली गली से निकल आया है?

‘किसी का इन्तजार कर रहे हो?’ उसने भूरी इफेंदी से पूछा।
‘नहीं नहीं।।’
‘क्या तुम यहीं रुकोगे?’ उसने फिर पूछा।
‘पता नहीं। मैं यहां खड़ा हूं, बस इतना जानता हूं।’
‘कोई तमाशा करने का इरादा तो नहीं?’
‘नहीं, मैं क्या तमाशा करूंगा।’
‘कर सकते हो। लोग करते हैं।’
नूरी ने जवाब नहीं दिया। कुछ देर इन्तज़ार करने के बाद शुकरू ने फिर पूछा-
‘तुम यहीं खड़े रहोगे?’
‘मैं खड़ा हूं, इससे ज्यादा कुछ नहीं जानता। उसने उत्तर दिया।
‘तुम मेरे साथ चलना चाहो तो चलो। मैं तुम्हें कुमकापी तक ले चलता हूं।’ नूरी ने सिर हिलाया।
‘तुम कहते हो तो चलो’, उसने कहा।
‘आओ, तुम्हारे चलते थोड़ा टहलना हो जाएगा।’
वे चलने लगे। सड़क पार करके वे दूसरी तरफ फुटपाथ पर आए, एक गली में मुड़कर दाहिनी तरफ गए और फिर रेलवे लाइन पर आ गए।
‘तुम आगे चलो’, शुकरू ने कहा, ‘मैं अभी आता हूं।’ और वह पास के लकड़ी के टाल में घुस गया।

हाफिज नूरी चलता गया। छाते के सहारे वह चलता गया, दोनों तरफ सब्जी की क्यारियां, काँस और गोभी के पत्तों को निहारते हुए। गाड़ी की आवाज सुनकर वह मुड़ा और रुक गया। अपने छाते को घुमाते हुए फिर वह चल पड़ा। मौसम गरम था। उसके कंधों से झूलती हुई लम्बी जैकेट और टोपी पसीने से भीग कर जिस्म से चिपक रही थी। लेकिन उसने परवाह नहीं की और वह चलता गया। हालांकि समय अभी नहीं हुआ था, लेकिन कुमकापी में समुद्र में नहाने के कटघरों में भीड़ हो गयी थी। तट पर हाथ से चित्रित रूमाल बेचनेवाले दो व्यक्तियों ने अपने माल को चट्टानों पर सूखने के लिए फैला दिया था। नूरी इफेंदी चलता गया। चौराहे को पार करके वह शहर से बाहर निकलकर स्टेशन के पीछे आ गया। जिस जगह से निकल कर वह रेलवे लाइन पर आने वाला था, वहां उसकी भेंट स्थानीय कोयलेवाले हलील से हो गयी।

‘अरे भई, नूरी, कहां जा रहे हो?’
‘पता नहीं, बस जा रहा हूं।’ उसने मुड़कर पीछे देखा।
‘शुकरू मेरे साथ आ रहा था लेकिन वह आया नहीं।’
‘कौन शुकरू?’ हलील ने पूछा।
‘अरे, वह मोची शुकरू।’
‘तुम कहीं जा रहे हो?’
‘नहीं…। उसने कहा चलो और मैं चल पड़ा। लेकिन वह आया ही नहीं।’
हलील बोला- ‘उसे छोड़ो। शुकरू भरोसे के लायक नहीं। कौन जानता है वह कहां चला गया। मैं शहर में जा रहा हूं आओ, हम दोनों चलते हैं।’

नूरी इफेदी सिर हिलाकर तैयार हो गया।
‘अच्छा, चलो, वापस चलते हैं।’ उसने कहा।
‘चलो, जल्दी करो।’
दोनों वापस चले।

हलील यह बताने लगा कि वह कोयला खरीदने आया था लेकिन सौदा नहीं पटा। ये पन्द्रह कदम ही गए होंगे कि किसी ने हलील को आवाज दी। हलील यह जानते हुए कि टूटा सौदा बन गया है, नूरी से बोला-‘तुम चलो, मैं आता हूं।’

नूरी आगे बढ़ता गया। जिस सड़क से वह आया था उसी पर चलता हुआ वह फिर स्थानीय कॉफी हाऊस के दरवाजे पर पहुंच गया।

बीच में दो आदमी एक दूसरे के सामने बैठे पासे फेंकनेवाला एक खेल खेल रहे थे। वह भी तीसरी खाली कुर्सी पर जाकर बैठ गया। अपनी कोहनियों को उसने घुटनों पर टिका दिया और छाते की डंडी को मुंह में डालकर यह खेल देखने लगा।

एक खिलाड़ी एक बाजी हार चुका था। जब वह दूसरी बाजी हार गया और इस तरह पूरी एक पारी वह हार चुका तो उसे गुस्सा आ गया। उसने सोचा कि हार हाफिज नूरी के आने से हुई। हालांकि उसने मन में सोचा कि उसने मेरा खेल बिगाड़ दिया लेकिन उसने खुलकर यह बात नहीं कहीं। वह बोला, ‘हाफिज, यह बाजी खत्म होने के बाद मैं तुमसे एक पारी खेलूंगा।’

‘लेकिन, मैं तो यह खेल जानता ही नहीं।’
‘नहीं जानते?’
‘नहीं।’
‘नहीं जानते तो पिछले पांच मिनट से तुम यहां क्या देख रहे थे?’
हाफिज ने अपने कंधे उचका दिए, ‘कुछ नहीं, बस देख रहा था।’
जीतनेवाले आदमी ने अपनी तरफ की चौपड़ को ठीक ठाक किया और पासा हाथ में लेकर बोला- ‘अजीब बात है। तुम पन्द्रह साल की उम्र से कॉफी हाउस आ रहे हो और तुमने अभी तक यह खेल नहीं सीखा?’
दोनों खिलाड़ी फिर खेलने लगे। जब हारनेवाला खिलाड़ी एक और बाज़ी हार गया तो उसका धैर्य चुक गया। वह बोला- ‘हाफिज, तुमने मेरा सारा खेल बिगाड़ दिया। जरा दूर हटकर बैठो।’

हाफिज नूरी को भी इस पर गुस्सा आया। वह कहना चाहता था, ‘मैं तुम्हारा क्या बिगाड़ रहा हूं।’ लेकिन वह उठा, काफी हाउस के दरवाजे तक गया और वहां रुककर सोचने लगा, ‘क्या मुझे घर जाना चाहिए?’ दोपहर की नमाज का समय निकल चुका था और शाम घिरती आ रही थी। कोने से गुजरते हुए उसने पंसारी की दुकान से डबलरोटी ली और घर पहुंचा। उसकी मां ने रस्सी खींच कर दरवाजा खोला। कोयले की अंगीठी पर पकनेवाले पकवान की खुशबू से सारा घर भर गया था। वह अपने कमरे में गया। उसने रात के कपड़े और ऊपर से चोगा पहना और फिर खिड़की के पास बैठ गया। गली में माल बेचनेवाले इधर-उधर जा रहे थे। शाम के रंग आस-पास बिखरने लगे थे। गली के नुक्कड़ से एक बच्चा अपने भाई को आवाज दे रहा था- ‘हेरी, आओ तुम्हें मां बुला रही है।’

अजमोद का गुच्छा लिए एक बच्ची लकड़ी के जूते खटखटाती हुई निकल गयी। पड़ोसी गफ्फार का लड़का दो खाली टोकरियों को सब्जी की क्यारी वाले दरवाजे से बाहर धकेलने की कोशिश कर रहा था। दो औरतें, जो लगता है कहीं दूर गई हुई थीं, देर से लौटी थीं और घर की तरफ जल्दी-जल्दी चली आ रही थीं। रसोईघर में मां के लकड़ी की चप्पलों से चलने की आवाज आ रही थी। ‘जिन्दगी कितनी खूबसूरत है’ उसने सोचा। आदमी की उम्र लम्बी होनी चाहिए ताकि वह इस जिन्दगी का सुख ले सके।

(साभार : ग्यारह तुर्की कहानियाँ - मस्तराम कपूर)

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