एक था चित्रकार, एक था राजा (डोगरी कहानी) : वेद राही
Ek Tha Chitrakar, Ek Tha Raja (Dogri Story) : Ved Rahi
तवी नदी में बाढ़ आई हुई थी। नैनसुख एक ऊँचे पत्थर पर खड़ा होकर बिफरती हुई लहरों की
तरफ एकटक देख रहा था। आपस में भिड़तीं, टकरातीं, फिर एक-दूसरे में डूबतीं, तैरतीं लहरों
में उसे अपने मन की तसवीर नजर आ रही थी। उसके मन में भी ऐसा ही उफान था। वह सोच
रहा था, जब बारिश पहाड़ों पर बरसती है तो बाढ़ शहरों-नगरों में आती है। इसी तरह जिस गूजर
लड़की ने उसके मन में तृफान मचा रखा है, वह तवी के पार कहीं आराम से बैठी है और इस
पार नैनसुख बाढ़ को चीरकर पार जाने की ठान रहा है।
जिस पत्थर पर वह खड़ा था, उसके नीचे नजर गई तो देखा, थोड़ी देर पहले जो जगह सूखी
थीं, अब वहाँ पानी उफन रहा था। वह समझ गया, सोचने-सोचने में जितनी देर होगी, पानी और
भी बढ़ता जाएगा। वह उछलकर अगले पत्थर पर चला गया। अब आगे कोई और पत्थर नहीं
था। पीछे से आवाज आई, “ओ....नैनूss”
उसने पीछे मुड़कर देखा। उसका छोटा भाई मानक उसे पुकार रहा था, “पानी बढ़ रहा है,
आगे कहाँ जा रहे हो?”
“मैं पार जा रहा हूँ।”
“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हुआ?” कहते हुए मानक उसकी तरफ बढ़ा, “इस बाढ़ में
कोई पार जा सकता है?”
“मुझे जाना है।”
अब मानक उसके पीछे वाले पत्थर पर आ खड़ा हुआ था; बोला, “मैं जानता हूँ, तुम्हें पार
जाने की बेसब्री क्यों है, पहले बाढ़ उतरने दो। शाम तक पानी कम हो जाएगा।” नैनसुख वैसे ही
खड़ा रहा। मानक ने फिर कहा, “राजा साहब जसरोटे से यहाँ पहुँचने वाले हैं।”
नैनसुख ने जवाब दिया, “उनके आने तक मैं वापस आ जाऊँगा।” और यह कहकर उसने
पानी में छलाँग लगा दी। मानक का दिल धक् से रह गया। उसके देखते-देखते नैनसुख लहरों में
यूँ गुम हो गया, जैसे कोई तिनका बाढ़ में समा जाता है।
नैनसुख लहरों से लड़ते-लड़ते निढाल हो गया। उसे लगा कि अब वह बच नहीं पाएगा। उसने
अपने आपको ढीला छोड़ दिया। पानी उसके अंदर जा रहा था। उसे इस बात का होश भी नहीं
रहा था कि उसको पार जहाँ पहुँचना है, वह जगह बहुत पीछे छूट गई है। मुरदे की तरह बहते-
बहते अचानक उसे एक झटका-सा लगा। ऐसे महसूस हुआ कि वह कहीं आ गया है। आँखें
खोलकर देखने की शक्ति भी नहीं थी। काफी देर बाद चेतना लौटी। उसने जाना कि वह पानी में
ही है, मगर बह नहीं रहा। उसने सिर उठाने का यत्न किया, पर उठाया नहीं गया। थोड़ी देर बाद
फिर उठने की कोशिश की; देखा तो पाँव पर कुछ साँप जैसा चल रहा था। टाँग झटककर उसे
दूर फँका और तुरंत उठकर बैठ गया। खड़ा होना चाहा तो चक्कर-सा आ गया। अंदर से मुँह के
रास्ते कुछ पानी भी निकल गया। उसने देखा, वह पार आ लगा है। इतना शिथिल होते हुए भी
वह मुसकराया। खड़े होकर उसने चारों तरफ नजर दौड़ाई। उसने अंदाजा लगा लिया कि वह
शहर से कोस भर दूर आ पहुँचा है। धीरे-धीरे वह ऊपर की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचना जरूरी
था, जहाँ पहुँचने के लिए उसने इन भयानक लहरों को ललकारा था। उसके पाँव यूँ उठ रहे थे,
जैसे मनों भारी हो गए हों!
मानक डर से मरा जा रहा था। मन-ही-मन वह काँप रहा था। राजा बलवंत देव जसरोटे से
आ पहुँचा था और अपने बड़े भाई जम्मू के महाराजा रणजीत देव के पास हाजिरी देने चला गया
था। वह लौटने ही वाला था और आते ही उसको अपने खास-उल-खास चित्रकार नैनसुख की
हाजिरी तलब करनी है। वह उससे क्या कहेगा? कैसे बताएगा कि नैनसुख ने बाढ़ के पानी में
छलाँग लगा दी और पानी उसे बहाकर ले गया। उसने छलाँग क्यों लगाई? इसका जवाब कौन
देगा? इन सोचों में डूबा हुआ मानक घबरा रहा था। वह छुपने की नामुमकिन कोशिश कर रहा
था। चित्रशाला के पीछे तवी के किनारे खड़ा वह बाढ़ को उतरते देख रहा था।
राजा बलवंत देव महल की बारादरी में महाराज रणजीतदेव की प्रतीक्षा में बैठा हुआ था और
अंदर महाराजा साहब अपने मंत्रियों के साथ एक गंभीर समस्या पर सोच-विचार कर रहे थे।
बैठक लंबी होती जा रही थी। किश्तवाड़ के राजा मेहरसिंह उर्फ सआहतमंद खाँ का छोटा भाई
सोजानसिंह आया हुआ था और जम्मू-दरबार से अपने भाई के विरुद्ध सहायता प्राप्त करना
चाहता था। महाराजा रणजीत देव को यह महत्त्वपूर्ण फैसला करना था कि वे किश्तवाड़ के
अंदरूनी मामलों में हाथ डालें या नहीं! साथ जुड़ी हुई बहुत सी बातों के बारे में मंत्रणा चल रही
थी। बाहर बैठे हुए बलवंत देव को गुस्सा आ रहा था। पर क्या कर सकता था? उसके बस में
होता तो हाजिरी लगवाने भी न आता। उसे मालूम है, उसके बड़े भाई साहब उसे किसी योग्य
नहीं समझते और वह भी उनकी परवाह नहीं करता। उसका अधिक समय अपनी जागीर जसरोटा
में बीतता है। गरमी के दिनों में वह 'सुरुईसर' चला जाता है, जहाँ उसने झील के किनारे एक
हवेली बनवाई है। आज भी वह 'सुरईसर' ही जा रहा था। जम्मू रास्ते में पड़ता है, महाराज
साहब के सामने हाजिरी नहीं की तो उसे धृष्ट समझा जाएगा। आखिर जब उसने देखा कि बैठक
समाप्त ही नहीं हो रही तो उसका धैर्य चुक गया। वह वापस चित्रशाला की तरफ चल पड़ा। वह
महल से निकला तो उसके आगे-पीछे दो अंगरक्षक भी थे। बलवंत देव का घोड़ा सफेद था और
अंगरक्षकों के सफेद और काले। नगर के बीच में से निकलने के बजाय वे तवी के किनारे-
किनारे घोड़े दौड़ाने लगे। चित्रशाला पहुँचकर जब बलवबंत देव को पता लगा कि नैनसुख वहाँ
नहीं है तो उसका गुस्सा और भी बढ़ गया।
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चलते-चलते नैनसुख ने देखा कि साँझ होने लगी है। बाढ़ का पानी घट गया था, पर उसके
मन में वापस पार जाने का विचार नहीं था। वह तो उस तरफ बढ़ रहा था, जहाँ पहुँचने के लिए
उसने मौत से भी मोहलत ले ली थी। चलते-चलते उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा जाता था।
दूर डूँगर पर उसे गूजरों के डेरे दिखाई देने लगे थे। उसे अपने अंदर जिंदगी का एहसास-सा
जागता महसूस होने लगा। उसके होंठों पर मुसकराहट फैल गई। वह जल्दी-जल्दी उन डेरों की
तरफ चलने लगा।
अचानक कुत्तों के भौंकने की आबाज सुनाई दी। वह डरकर खड़ा हो गया। उसे खयाल आया
कि वह गूजरों के डेरों के पास नहीं जा सकता। उनके भयानक कुत्ते उसे चबा डालेंगे। एक
पत्थर का सहारा लेकर वह खड़ा हो गया। फिर जब कुत्तों का भौंकना और भी बढ़ गया तो वह
वहीं पत्थर से टेक लगाकर बैठ गया।
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उधर मानक ने डरते-डरते राजा बलवंत देव को सच्ची बात सुना दी। उसने यह भी बता दिया
कि तवी के पार गूजरों के कुछ डेरे इस बार गरमियों में ऊपर पहाड़ों पर वापस नहीं गए। उनकी
एक लड़की नैनसुख के मन में बस गई है; इसीलिए उसने बाढ़ की परवाह नहीं की और भयंकर
लहरों में छलाँग लगा दी। पता नहीं वह जीवित भी हैं या नहीं। यह कहते-कहते मानक रो पड़ा।
बलवंत देव ने हैरान होकर पूछा, “गूजरों की लड़की केवल उसके मन में बसी है, या उससे
मिलती भी है?” मानक ने जवाब दिया, “वह कहता है, वह उसे सिर्फ दूर से ही देखता है।”
“यह नहीं हो सकता। दूर से देखने के लिए कोई बाढ़ में नहीं कूद जाता!” बलबंत देव बोला,
“जाओ, कुछ घुड़सवारों को उसकी खोज करने भेज दो; वह आएगा तो हम उससे खुद ही पूछ
लेंगे ये सबकुछ।”
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झटके से नैनसुख की आँख खुल गई। उसने देखा, एक गूजर उसे झिंझोड़ रहा था, “आप
कौन हो जी?” वह पूछ रहा था। नैनसुख ने यहाँ-वहाँ देखा। पौ फट रही थी। तवी के पानी की
आवाज आ रही थी, पर बाढ़ वाली आवाज नहीं थी। उसे बीती हुई बातें याद आ गई। उसने
गूजर से कहा, “मैं बाढ़ में बह गया था, पता नहीं यहाँ कैसे पहुँच गया?”
“अगर पार जाना है तो, मैं पहुँचा देता हूँ।”
“नहीं, मुझे पार नहीं जाना, तुम जाओ।”
गूजर अपने दूध से भरे कलसे उठाकर चल दिया। वह पार जा रहा था। नैनसुख उसे दूर तक
पानी में जाते हुए देखता रहा। फिर उसने गूजरों के डेरों की तरफ देखा। उसे खयाल आया, डेरों
के भीतर जाकर उसे कुछ मिलनेवाला नहीं, उसे वहीं जाना चाहिए, जहाँ इतनी बार उसने उसे
चोरी-चोरी देखा है। यह सोचकर वह उस तरफ चल पड़ा, जहाँ एक छोटी सी डबरी के किनारे
बेरियों के घने झाड़ हैं।
डबरी देखकर उसे महसूस हुआ, जैसे वह भी चुपचाप उसी गूजरी की प्रतीक्षा में बैठी हुई है।
मानो उसका पानी भी हिलने-डुलने से डर रहा है। नैनसुख एक घने पेड़ के पीछे बैठ गया।
उसका मन उतावला होने लगा। अब किसी समय भी वह घड़ी आ सकती थी, जिसके लिए वह
चलकर नहीं, डूबकर यहाँ तक पहुँचा था, केवल उसे देखने के लिए।
अचानक झाड़ियों के बीच में से वह उसे आती दिखाई दी। उसकी धड़कन तेज हो गई। डबरी
के निकट पहुँचकर गूजरी पानी में अपनी परछाई देखने लगी। उसने काला कुरता पहना हुआ
था। नैनसुख को लगा, जैसे काले धुएँ में से एक लपट उठ रही है और उसमें से किरणें फूट रही
हैं। उसके चेहरे पर लटें बिखरी हुई थीं। बार-बार सुर्ख गाल ढक जाते तो सिर्फ लंबा नाक ही
दिखाई देता। उस समय नैनसुख का दिल डूबने लगता। फिर जब वह हाथ से बाल पीछे करती
तो उसे चैन आता। गूजरी की आँखें बड़ी-बड़ी थीं। नैनसुख ने इनसे भी बड़ी आँखोंवाली
नायिकाओं के चित्र बनाए हैं, पर ऐसी आँखें उसने कभी नहीं देखीं। माथा, कान, गाल, ठोड़ी,
नाक और आँखों का कैसा तालमेल होना चाहिए, यह इस चेहरे को देखकर ही पता लग सकता
है। काश! वह वहीं बैठा-बैठा, इसी तरह उसे देखते-देखते उसका चित्र बना सकता! केवल
कल्पना के सहारे ऐसी तसवीर नहीं बन सकती।
गूजरी बैठ गई। पानी में हाथ डालकर वह उसे धीरे-धीरे हिलाने लगी। पानी काँपने लगा था।
फिर उसने अँगड़ाई लेने के लिए बाँहें ऊपर उठाई। उसका वक्ष आगे और गरदन पीछे हो गई।
नैनसुख को महसूस हुआ कि उसकी अपनी देह कमान बन गई है। उसकी रगें यूँ खिंचीं, जैसे
अभी टूट जाएँगी! उसकी साँसें लंबी होने लगी, लेकिन उसने तुरंत अपने आपको रोका। फिर भी
पता नहीं गूजरी ने क्या देखने के लिए इधर-उधर देखा। उसे सपने में भी सूझ नहीं सकता था कि
बीस हाथ की दूरी पर कोई बैठा उसे घूर रहा है। धीरे-धीरे उसने अपने कुरते के बटन खोले और
कुरता ऊपर खींचा; गरदन और बाँहें उसमें से निकालीं। कुरते को एक तरफ रख दिया। नैनसुख
को महसूस हुआ, जैसे कोई काली नागिन अपनी केंचुली से बाहर आ गई है, जिसका रंग अब
गुलाबी संगमरमर की तरह हो गया है। गूजरी के वक्ष पर उसका चेहरा त्रिकुटा पर्वत के तीसरे
कंगूरे के समान नजर आ रहा था। नैनसुख को अपना वजूद अपने हाथ से छूटता महसूस हुआ।
बस यही एक पल था--बस यही एक पल, जिसके लिए उसने भयंकर लहरों में छलाँग लगा दी
थी और मौत के मुँह में चला गया था। बस, यही एक पल उसकी जिंदगी और उसकी चित्रकला
और उसके सर्वस्व की उपलब्धि बन चुका था। बार-बार इसी पल को पकड़ने के लिए वह यहाँ
आता था। काश! वह इस पल को अपनी चित्रकला में कैद कर सकता! पर यह कैसे हो सकता
था?
अचानक उसे दूर से कोई आवाज आती सुनाई दी। गूजरी पर से नजरें हटाकर वह खड़ा हो
गया। ध्यान से सुनने लगा। कुछ घोड़े सरपट दौड़ते हुए उसी तरफ आ रहे थे। उसने देखा गूजरी
चौंककर घोड़ों की टापें सुन रही थी। जल्दी-जल्दी डबरी में से निकलकर वह किनारे पर आ गई
और कुरता पहनने लगी। घोड़े की टाप पास-पास आती जा रही थी। नैनसुख और भी पीछे हो
गया था। घनी झाड़ियों के बीच में से उसने देखा गूजरी कुरता पहनते-पहनते उसी की तरफ
दौड़ती आ रही है। वह और भी झाड़ियों में घुस गया। गूजरी उसके आगे उसी पेड़ की ओट में
आकर बैठ गई, जहाँ थोड़ी देर पहले बह बैठा हुआ था। कुरते के बटन बंद करते-करते पेड़ के
पीछे से देखने का यत्न कर रही थी कि कौन लोग इधर आ रहे हैं। उसकी साँस चढ़ी हुई थी
और उसके साँस लेने की आवाज नैनसुख को सुनाई दे रही थी। उसके अंदर एक तूफान उठ
रहा था, मगर वह हिल भी नहीं सकता था। उसे पता था, हल्का सा खटका भी गूजरी को डरा
सकता है। अगर उसने पीछे मुड़कर देख लिया तो”
उसी वक्त दो घुड़सवार डबरी के दूसरी तरफ आकर रुक गए। वे चारों तरफ यूँ देख रहे थे,
जैसे किसी को ढूँढ़ रहे हों! नैनसुख ने उन्हें पहचान लिया। वह समझ गया, राजा बलवंत देव ने
उसे खोजने के लिए उन्हें भेजा है। वह और भी सिमट गया। घुड़सवार डबरी के किनारे-किनारे
उसी तरफ आने लगे, जहाँ नैनसुख और गूजरी दोनों छिपे हुए थे। उन्हें अपनी ओर आते देखकर
गूजरी वैसे ही बैठे-बैठे पीछे होने लगी, जहाँ नैनसुख दुबका हुआ था। उसे उस तरह अपने निकट
आते देख नैनसुख का दम रुकने लगा। घुड़सवार थोड़ी दूरी पर आकर खड़े हो गए थे और
गूजरी काँपते-काँपते धीरे-धीरे पीछे होती जा रही थी। वह अब नैनसुख के इतनी निकट आ चुकी
थी कि नैनसुख उसे हाथ भी लगा सकता था। नैनसुख ने अपनी साँसें रोक ली थीं। गूजरी और
भी पीछे आती जा रही थी और फिर एकाएक वह नैनसुख के साथ जा लगी। वह भय से
अचकचाई और नैनसुख को देखकर जोर से चीख पड़ी और चीखते-चीखते झाड़ियों से बाहर
निकलकर घर की तरफ भागी। घुड़सवार हैरान होकर उसे देखने लगे। उन्होंने उसका पीछा
करने की सोची और घोड़ों को एड़ियाँ मारकर लगाम को ढीला छोड़ा। पर उसी समय झाड़ियों
से बाहर आकर नैनसुख ने 'ठहर जाओ! कहा और उन्हें रोक लिया।
घुड़सवार नैनसुख को देखकर दंग रह गए। वे घोड़ों से नीचे उतर आए। वे हल्के-हल्के
मुसकरा भी रहे थे। नैनसुख समझ गया कि वे क्या अनुमान लगा रहे हैं। वह उनकी तरफ बढ़
गया। एक घुड़सवार ने बड़े अदब से थोड़ा झुककर कहा, “भाईजी, राजा साहब ने जल्दी
आपको हाजिरी देने की ताकीद की है।"
“चलो।” नैनसुख उनके साथ चल पड़ा। गूजरी के बारे में उनके बीच कोई बात नहीं हुई।
रात को झरोखे में बैठकर राजा बलवंत देव और नैनसुख शराब पी रहे थे। नैनसुख मन-ही-
मन घबरा रहा था। उसे किसी अनहोनी का पूर्वाभास हो रहा था, क्योंकि बलवंत देव उसे
जबरदस्ती ज्यादा पीने पर मजबूर कर रहा था और वह जानता था, बलवंत देव जब किसी पर
जरूरत से ज्यादा मेहरबान होता है तो उसके दिल में अवश्य कोई गाँठ बनी होती है। बाहर से
वह बड़े सहज भाव से कह रहा था, “नैनू तुमने सुना, हमारे बड़े भाई साहब महाराजा रणजीत
देव हवेलीवाली बेगम मुगलानी के चक्कर में फँसे हुए हैं?” पर नैनसुख जानता था, बलवंत देव
बेपर के कबूतर उड़ा रहा है और उसे लगातार पिलाए चला जा रहा है और प्रतीक्षा कर रहा है
कि वह कब उसे गूजरी से संबंधित लच्छेदार बातें बताता है! वह ऐसी बातों का शौकीन है।
नैनसुख को पता है, घुड़सवारों ने जो बताया होगा, उसे झूठा प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
बलवंत देव कभी नहीं मानेगा कि वह गूजरी को लेकर झाड़ियों में नहीं छुपा था। ऐसा मानना उसे
रुचेगा भी नहीं। वह तो चाहता है, नैनसुख गूजरी के बारे में कुछ ऐसा बताए कि जो रस से भरा
हो, चाहे झूठ ही हो। वह तो तरंग में आना चाहता है। मगर नैनसुख गूजरी के बारे में कोई ऐसी-
वैसी बात नहीं करना चाहता था। गूजरी की हर बात उसकी निजी संपत्ति थी, उसके भीतर का
गहरा रहस्य था, जिसके बारे में कुछ बोला ही नहीं जा सकता। पर वह जानता था, ऐसा होना
संभव नहीं; बलवंत देव उसे छोड़ेगा नहीं। वह उसे और पीने पर विवश कर रहा था और वह
नशे में धुत्त होता जा रहा था।
बलवंत देव ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “यार, तुमने हमें उस गूजरी के बारे में कुछ
बताया ही नहीं।"
नैनसुख नशे में होते हुए भी चौकन्ना हो गया, “महाराज, कोई बात हो तो बताऊँ न!”
“भई, हमने तो तुमसे कभी कुछ नहीं छुपाया और तुम..”
“महाराज, मैं सच कह रहा हूँ।"
“और जिन्होंने अपनी आँखों से देखा?”
“उन्होंने देखा मैं मानता हूँ, मगर सच नहीं देखा।"
“आँखों देखा भी कभी झूठ होता है?”
“होता है महाराज,” यह कहकर उसने सारी सच्ची बात सुना डाली, मगर बलवंत देव की
तसल्ली नहीं हुई, उसे मजा ही नहीं आया। बोला, “नैनू, हमें बुत्ता देकर तुम पछताओगे। तुम्हें
शक है, हम उसे तुमसे छीन लेंगे?”
“यह क्या कह रहे हैं महाराज? "
“हम तो यह जानना चाहते हैं कि तुमने उसे फँसाया कैसे? लोग तो कहते थे, गूजर लड़कियाँ
आसानी से हाथ नहीं आर्ती।”
बलवंत देव की बात सुनकर नैनसुख को वितृष्णा-सी हुई। उसका दम घुटने लगा। उसे
महसूस हुआ कि उसका निज का भेद बदनाम होने लगा है। बलवंत देव ने फिर पूछा, “उसका
नाम क्या है?”
“मुझे नहीं पता, महाराज!”
बलवंत देव को क्रोध आने लगा, “हमसे नाम भी छुपाने लगे तुम?”
“आपके चरणों की सौगंध हैं, मुझे नहीं पता।” नैनसुख रुआँसा हो गया, “महाराज, मुझे
उसकी शक्ल इतनी पसंद आई कि मेरा जी चाहा, मैं उसका चित्र बनाऊँ, मगर उसके साथ बात
करने का अवसर ही नहीं आया। मैं उसे देखता तो बस देखता ही रहता।"
“इतनी सुंदर है वह?" बलवंत देव ने क्रोध में भी यह बात इतने प्यार से कही कि नैनसुख
एकदम काँप उठा। उससे भूल हो गई थी। उसे गूजरी की सुंदरता के बारे में कुछ कहना नहीं
चाहिए था। बलवंत देव की आँखों में लालसा के डोरे देखकर उसके मन में हलचल मच गई।
बलवंत देव और भी उसके निकट सरक आया, “मैंने पूछा, वह इतनी सुंदर है?”
नैनसुख फिर भी कोई उत्तर नहीं दे पाया।
"तुम्हें बहुत ज्यादा चढ़ गई है, जा, दफा हो जा यहाँ सें।” कहकर बलवंत देव हुक्का पीने
लगा और जल्दी-जल्दी कश लगाने लगा। नैनसुख बड़ी मुश्किल से उठा और अपने आपको
सँभालते हुए बाहर की तरफ चल दिया। उसका रोने को जी कर रहा था। अपने मन का भेद, जो
उसे इतना प्रिय था, बलवंत देव ने उसकी मिट्टी पलीद कर दी थी। अपना आप इतना तुच्छ उसे
कभी नहीं लगा था।
दूसरे रोज राजा बलवंत देव का पूरा अमला-फैला 'सुरुईसर' की तरफ चल पड़ा। बलवंत
देव ने तुर्की साफा सिर पर रखा हुआ था और मुगलोंवाला पाजामा पहना हुआ था। वह अपने
सफेद घोड़े पर बैठा हुआ था। आसपास सात-आठ अहलकार घोड़ों पर बैठे हुए साथ-साथ चल
रहे थे, जिनमें नैनसुख भी था। पीछे दो रानियाँ पालकियों में बैठी हुई थीं। कुछ दासियाँ भी साथ
थीं। उनके पीछे दस-बारह सिपाही हथियारों से लैस घोड़ों पर बैठे थे। उनके पीछे दूसरे
सामानबरदार।
सवेरे बलवंत देव महाराजा रणजीतदेव के दरबार में हाजिरी लगवा आया था और उस तरफ
से निश्चित था। जब यह काफिला 'तूतियों वाली खुई' की तरफ जाने लगा तो नैनसुख ने दूर
गूजरों के डेरों की ओर देखा। उसे पता नहीं चला कि उस समय बलवंत देव और कुछ दूसरे
अहलकार उसकी तरफ देखकर धीरे-धीरे मुसकरा रहे थे।
काफिला 'सुरुईसर ' पहुँचा तो हवेलियों में गहमागहमी हो गई। नैनसुख ने अपना सामान अपने
कमरे में रखवाया, जहाँ वह हर साल ठहरता था। पर उसका मन कहीं और था--दूर तवी के
किनारे डबरी के पास। वह निराशा में डूबा हुआ था। अभी तक उसे शर्मिंदगी महसूस हो रही
थी। इसका उपचार गूजरी के पास जाना ही था। वह उससे बात भी करना चाहता था। पर अब
यह संभव नहीं था। गरमियों के दिन जब यहीं काटने हैं। वह बलवंत देव को कैसे समझाए कि
गूजरी उसके लिए क्या है! प्रेमवश होकर आदमी कितना विवश हो जाता है! उसका मन कहीं
बाहर निकलने को नहीं कर रहा था। वह अंदर ही बैठा रहा। दूसरे दिन बलबंत देव का संदेश
मिला कि शाम को वह उसके पिछले दीवानखाने में आ जाए। एक विशेष चित्र बनाना है।
नैनसुख को पता है विशेष चित्र का क्या अर्थ है। नग्न लड़कियों के साथ खुद भी बेलिबास
होकर कई तरह की मुद्राओं और आसनों में चित्र बनवाने का उसे खास शौक है। हर समय इसी
तरंग में रहता है कि कब कोई नई सुंदर लड़की हाथ लगे और नैनसुख से विशेष चित्र बनवाए।
'सुरुईसर' की इस हवेली में रहकर उसे और कोई काम भी नहीं। नैनसुख को अच्छा नहीं
लगता, पर क्या करे! इस तरह के चित्र बनाने के बाद जब राधा-कृष्ण का कोई चित्र बनाना
पड़ता है तो उसे बड़ा कष्ट होता है। दोनों भावनाओं के बीच की दूरी को पाटने के लिए अपने
अंतर के टुकड़े करने पड़ते हैं! अब तो टुकड़े करने का भी वह अभ्यस्त हो चुका है।
शाम को वह कागज, कलम, कुँचियाँ और रंग लेकर पिछले दीवानखाने पहुँच गया। राजा
बलवंत देव पहले से ही वहाँ बैठा हुक्का पी रहा था। नैनसुख ने 'जैदेआ' कहा और एक तरफ
बैठ गया। वह अपना सामान ठीक-ठाक करने लगा। इसी बीच कमरे में कौन आया, कौन गया,
उसने उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। पर जब उसने सामने देखा तो देखता रह गया। उसका रंग
उड़ गया। राजा बलवंत देव की बगल में वही गूजरी बैठी हुई थी।
उस वक्त बलवंत देव खास नजरों से उसे ही देख रहा था। इसी घड़ी की प्रतीक्षा थी उसे।
इसी घड़ी के लिए तो इतना कष्टदायक श्रम किया गया था। वह देखना चाहता था कि नैनसुख
का रंग कैसे उड़ता है, उसे इस बात का गुस्सा था कि नैनसुख ने उससे झूठ बोला था; अगर वह
बता देता कि गूजरी के साथ उसके क्या संबंध हैं तो संभव था वह गूजरी को जबरदस्ती
उठवाकर न लाता।
“नैनू, तुझसे कहा था न कि हम कभी ऐसी गूजरी को ले आएँगे, जिसका कोई सानी नहीं
होगा। बताओ, है कोई इसका जवाब? तू भी आज कोई ऐसी तसवीर बना कि मुगलों की नानी
मर जाए, ले शुरू हो जा!” यह कहकर बलवंत देव ने गूजरी के कंधे पर से शॉल खींचा और
वह नंगी हो गई।
नैनसुख की नाड़ियों में लहू जम गया। आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। दम घुट रहा था।
बलवंत देव की अनदेखी तलवार ने भीतर-ही-भीतर उसे चौर दिया था। अगर वह अकेला होता
तो हलाल होते हुए बकरे की तरह चीखता। पता नहीं वह कैसे बैठा हुआ था। गूजरी उसके
सामने ग्लानि में डूबी हुई थी। इस समय नैनसुख को कोई नागिन केंचुली उतारकर बाहर आती
नहीं दिख रही थी और न त्रिकुटा पर्वत के तीन कंगूरों का एहसास हो रहा था और न ही गूजरी
की देह से किरणें फूटती नजर आ रही थीं।
उस चुप्पी को बलबंत देव ने तोड़ा; मुसकराते हुए उसने अपना कुरता उतार दिया और बोला,
“शुरू कर भई, ऐसी खूबसूरती तुम्हें दोबारा नहीं मिलेगी तसवीर बनाने के लिए।” यह कहकर
वह हुक्के के कश लगाने लगा। नैनसुख से हिला भी नहीं जा रहा था। उसके हाथ निष्प्राण हो
चुके थे। उसने कनखियों से देखा, बलबंत देव के हुक्के की नाड़ी गूजरी के नग्न वक्ष पर फिसल
रही थी। फिर बलवंत देव ने गूजरी की ठोड़ी ऊपर उठाई और बोला, “तुम्हारी तसवीर अच्छी
कैसी बनेगी; गरदन उठाकर रख; उधर देख। क्यों भई नैनू! कुछ बन रहा है या नहीं? इसकी ऐसी
तसवीर बना कि जिसने इसे बनाया है, वह भी मात खा जाए।”
आखिर नैनसुख काँपते हाथों से कागज पर रेखाएँ खींचने लगा। टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ, जिनका न
कोई सिर न पैर। वह तो भूल ही चुका था कि वह एक चित्रकार है और उसने असंख्य सुंदर तथा
कलात्मक चित्र बनाए हैं! बलवंत देव उसके कँपकँपाते हाथों को देखकर मन-ही-मन खुश हो
रहा था और गूजरी के साथ उसकी हाथाछाटी बढ़ रही थी। कुछ देर बाद अचानक उसने नैनसुख
की तरफ देखा और बोला, “बे नैनू, यहाँ तो आ। बता तो क्या बना रहे हो!"
नैनसुख त्रस्त हो गया। कुछ बनाया होता तो दिखाता। गरदन नीची किए, वह रेखाएँ खींचने
का उपक्रम किए जा रहा था। बलवंत देव ने फिर मुसकराते हुए कहा, “दिखा तो--यूँ बैठे-बैठे
हम दोनों भी तसवीर ही न बन जाएँ।” नैनसुख ने फिर भी कागज आगे नहीं बढ़ाया तो बलवंत
देव अपना कुरता पहनने लगा; बोला, “लगता है, आज तुमसे कुछ बनाया नहीं जाएगा, कभी-
कभी ऐसा होता है, नहीं बना तो न सही, भई, हम तुम्हारे साथ जबरदस्ती थोड़े कर सकते हैं।
अब तो यहाँ रोज ही मौज-मेले होते रहेंगे।” कुरता पहनकर बलवंत देव खड़ा हो गया, “इधर
आ।” नैनसुख आगे बढ़कर उसके निकट जा खड़ा हुआ। बलवंत देव उसके कंधे पर हाथ
रखकर दरवाजे की तरफ चल दिया और कहने लगा, “नैनू, तुम हमसे अपने याराने नहीं छुपा
सकते। यही हुस्न परी है न तेरी? ले जा इसे अपने साथ भी, क्या याद करोगे किस राजा से
वास्ता पड़ा था! जा मौज ले, मजे कर।” यह कहकर बलवंत देव दरवाजे से बाहर निकल गया।
नैनसुख वहीं खड़ा रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसने पीछे
मुड़कर गूजरी की तरफ देखा। उसने शॉल ओढ़ लिया था। नैनसुख धीरे-धीरे उसके निकट
जाकर खड़ा हो गया और बोला, “चल बाहर आ जा।" गूजरी उठी और उसके पीछे-पीछे चल
पड़ी। हवेली के पिछले दरवाजे में से गुजरकर दोनों झील के किनारे आ गए।
बाहर अँधेरा-ही-अँधेरा था।
नैनसुख ने धीमे से गूजरी से पूछा, “तुम अकेली अपने डेरे तक चली जाओगी?”
“नहीं।" गूजरी ने जवाब दिया।
“चल, फिर मैं तुम्हें छोड़कर आता हूँ।” कहकर नैनसुख तवी नदी की तरफ चल पड़ा।
पीछे-पीछे गूजरी भी।
'ऐथम' की ढलान के निकट पहुँचते-पहुँचते आधा-अधूरा चाँद बादलों के बीच में से झाँकने
लगा था। नैनसुख ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह चाहता था, जल्दी-जल्दी उसे
उसके डेरे तक पहुँचा दे। झीनी चाँदनी में दोनों ढलान पर से यूँ उतर रहे थे, जैसे दो अपरिचित
राहगीर साथ-साथ चल रहे हों। 'तूतियों वाली खूही' को पार करके एक जगह पहुँचकर गूजरी
खड़ी हो गई। नैनसुख खड़ा रहा, कुछ बोला नहीं। गूजरी उसके आगे से गुजर गई। थोड़ी दूर
जाकर वह अचानक रुक गई। वह वापस उसके पास आई और बोली, “तुम्हीं कल झाड़ियों के
पीछे छुपकर मुझे देख रहे थे?”
“हाँ।" नैनसुख ने जवाब दिया।
गूजरी पल भर उसकी तरफ देखती रही। फिर मुड़ी और अपने घर की तरफ चल पड़ी।
नैनसुख अपलक उसकी तरफ देख रहा था। वह आँधेरे में यूँ गायब हो गई, जैसे आकाश से
कोई तारा टूटा और अँधेरे में गुम हो गया! फिर धीरे-धीरे चलता वह तवी के निकट पहुँच गया।
कल बाढ़ का पानी किनारे तोड़ रहा था। मगर इस समय वह यूँ वह रहा था, जैसे किसी ने उसे
चुप रहने का शाप दे दिया हो! नैनसुख काफी देर तक वहाँ खड़ा रहा।
थोड़े दिनों के बाद राजा बलवंत देव को पता लगा कि नैनसुख बसोहली चला गया है और
वहाँ वह राजा अमृतलाल के दरबार में बतौर चित्रकार नौकर हो गया है।