एक मामूली फाँसी (ओरु साधारण तूक्किक्कोल) (मलयालम कहानी) : तकषी शिवशंकर पिल्लै
Ek Mamooli Phansi (Malayalam Story in Hindi) : Thakazhi Sivasankara Pillai
मेरे दोस्त ने कहा :
समाज की यह खास आदत है कि उसे नियमों (कानून) के प्रति आदर और आस्था हो और नियमों का उल्लंघन करनेवालों से घृणा और नफरत। नियमों के वचन बहमत की राय होते हैं। समाज में रहने वाले मनुष्य की बहुमत की राय से भिन्न राय होना साधारण नहीं। उस समाज के क्रुद्ध और प्रचण्ड अहसास को हलका बनाने की वह भी कोशिश करता। पर नियमोल्लंघक खूनी को, उसके डरावने और असाधारण मुखभाव, रूखे-बिखरे बालों, बढ़ी हुई मूंछ, निराशा भरी अनास्था को सूचित करने वाले मलिन एवं विकृत कृशगात्र से युक्त बन्दी रूप में देखें, तो मनुष्य में अपना व्यक्तित्व सिर उठाता है। एक बार डर और अमर्ष के कारण दाँत पीसकर जिसे देखा हो, उसे ही सामने पाकर आँसू बहाएगा। मनुष्य पर अपने खुद का अन्तःकरण, विवेचन-शक्ति और विकार एकान्त में ही शासन करते हैं। दूसरे अवसरों पर, समाज के बहुमत के सामने उसका आत्मनियन्त्रण नष्ट हो जाता। आत्म-स्नेह की अधिकता से ही खून कर बैठता है। खूनी को देखकर वही रोता है-इसी आत्मस्नेह के कारण। यह विचार कि 'मुझे ऐसा...' हृदय में छोटी तरंगें पैदा करता है। खूनी से उस व्यक्ति को ऐक्य हो जाता है। उसमें वह अपना रूप देखता है। यानी एक ही विकार दोनों में रूढ़बद्ध हो जाता है।
दोस्त! मैंने जो कुछ कहा, वह अपने अनुभवों के आधार पर है। मैंने पिछली ...तारीख को सेण्ट्रल जेल में एक आम घटना देखी। मेरा दोस्त डॉ. ...ने मुझे सुबह चार बजे जगाया। जेल के दो चपरासी बाहर बत्ती लिये खड़े थे। जेल के घण्टे के शोकपूर्ण स्वर ने उस चुप्पी में कुछ लहरें पैदा की। धीरे-धीरे वह बन्द हो गया। फिर शान्ति! उस उत्साहपूर्ण वेला में मुझे लगा कि मेरे हृदय के नीचे कोई चीज कुलबुला रही है। जाड़े की सुबह की ठण्ड से मेरी चिबुक और दाँत आपस में टकराये। मैंने अंगड़ाई लेकर एक अँभाई ली। आधा मन वहाँ जाने से मुझे रोक रहा था। फिर भी डॉक्टर के साथ में बाहर आया-डर और जिज्ञासायुक्त बाल-सहज हृदय के साथ। मेरा हृदय धड़क उठा।
जेल की ऊँची और मजबूत दीवारों से सुरक्षित एक कमरे के बाहर हम जाकर खड़े हो गये। उस कमरे का दरवाजा खुला हुआ था। सफेदी से पुती दुधिया गयी दीवार । एक खिड़की तक नहीं वहाँ। कमरे के बीच बिछी दरी में एक बत्ती के सामने एक नरकंकाल खड़ा था। उसकी रोम-भरी छाती पर सुगन्धित लेप किया हुआ था। उसने जेल की लुंगी पहन रखी थी, जो नीचे घुटनों तक लम्बी थी। मैं ठण्ड से सिहर उठा। उसकी दायीं-बायीं ओर दो सिपाही तैनात थे। विशिष्ट भोज्यों, खीर आदि से युक्त अन्तिम भोजन लेने के बाद उस बेचारे का पेट घनी साँसों के ऊपर-नीचे होने से फूला हुआ था।
वे आँखें! मैंने उनमें आँसू नहीं देखे। वे मामूली ढंग से फड़क रही थीं। समय सवा छह बजे! मुझे लगा कि वह आदमी काँप उठा है। शायद सिर्फ मुझे लगा होगा। एक महीना पहले उसे तारीख बतायी गयी थी। उस दिन से प्रतिपल वह कितनी बार मर रहा है, कितनी बार जनमा होगा वह! झगड़ालू पत्नी से कितनी बार शादी की! 'बायें गाल पर कोई थप्पड़ लगाये तो दायाँ गाल कर दो' वाले तथ्य को आदर्श मानकर जिया। हाय! एक पत्नी को मार डालने के लिए कितनी पत्नियों से प्यार किया! मानव-गुड़िया मात्र बनकर जिया। इतना काफी नहीं क्या? उसने प्यार करना तो सीखा। उसने क्षमा और विनम्रता सीखी। वह तो पवित्र हो गया। उसमें जो मिलावट थी, वह धुआँ बनकर उड़ गयी। खैर...उस अन्तिम रात को पत्नी के धड़ से अलग हुए सिर को फिर से चिपकाकर उसने उसके कानों में मृतसंजीवनी मन्त्र का जाप किया था।
समय सवा छह बजे! किसी के पैर की आहट-उसे लगा होगा कि उसकी पत्नी यह कहकर कि 'मैं मरी नहीं' अन्दर आ गयी और उसे बचा लिया है।
समय साढ़े छह बजे। उस माया-भ्रम से जागकर उसने अपना स्थान और गति जान ली होगी। क्या आप निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि उसने जेल की खपरैल हटाकर बाहर आने के लिए उस चिकनी दीवार पर चढ़ने की कोशिश नहीं की थी? मातृविहीन बच्चा-अपने बच्चे को कब उसने अन्तिम बार प्यार-दुलार दिया था, वह याद करने...समय पौने सात बजे। अब सिर्फ ग्यारह घण्टे बाकी-यानी 660 मिनट। छि:-क्या उसने 60 x 11=660 का गणित सीखा था? अपने छोटे से जीवन के मील-पत्थर...हर पन्द्रह मिनट के बाद का घण्टानाद। हाय! कल की रात उसने कैसे काटी होगी? साँस रोककर...दम घुटकर मरने की कोशिश की होगी-क्या पता? आत्महत्या में उतनी पीड़ा नहीं जितनी दूसरे के द्वारा मारे जाने में होती है। उससे बड़ी सजा ही क्या है?
उसने हमारी तरफ अपना मुख मोड़ा। उसने एक बार मुझे ध्यान से देखा भी। निन्दा से मानो पूछ रहा था, “तू इधर क्यों आया? क्या तू मुझे बचा सकता है? तुच्छ कीट!" उन नेत्रों में एक सवाल प्रतिफलित हुआ, जिनमें अवर्णनीय सीकरधुति मिली थी। मैंने उसे खून करते देखा था। मरघट में खड़ा होकर बैताल-नृत्य कर रहा था वह। मैंने उसके लाल नेत्र और डरावनी दृष्टि की याद की। क्या उस समय वह होश में था, जब उसने अपनी पत्नी का सिर काटा था। काँपते सिर को अपने हाथ में पकड़, चाकू से उसे काटकर टुकड़ा-टुकड़ा कर दिया था, खून की नदी में उसने डुबकियाँ ली थी...उसे इन सबकी याद नहीं होगी। शायद वह गवाही दे कि ऐसा कुछ भी उसने नहीं किया था। उसके जीवन-चरित में हत्या के पहले की घटना के तुरन्त बाद कोई मामूली-सी घटना हुई होगी। दोस्त! उसकी अभय-याचना में अपना निरपराध होने का बोध था। खुद के न्यायवाद या अन्य किसी आधार के अभाव में माफी या मुक्ति की प्रार्थना नहीं होगी। अपने कर्मों का ढाँचा जो नहीं जानता, उसने क्या परिस्थितियों को देखा होगा? पास खड़े मुझे उसने नहीं देखा होगा। हम अपरिचित भी हैं। फिर वह मुझे ही क्यों घूर रहा है?
जेल-अधीक्षक कमरे में आये। उसने उनसे एक कप ब्राण्डी माँगी। अन्तिम इच्छा! उस गरीब आदमी को अब तक महँगी ब्राण्डी चखने का अवसर न मिला होगा। सिर्फ वही एक चाह रह गयी थी-एक गिलास ब्राण्डी। उसका सबसे प्रिय पेय, शराब रहा होगा। 'हुँ, रामन वो दो रुपये दे जो उसे देना है। तभी ब्राण्डी पियूँगा' ऐसी उसने खुद को सान्त्वना दी होगी। थोड़ी देर बाद उसे एक गिलास ब्राण्डी दी गयी। वह उसे पूरी पी गया। आत्मरक्षा की आसक्ति, मनुष्य की सभी प्रवृत्तियों का मौलिक हेतु है, नैसर्गिक वासना है। उसके पेट में तब भी खाना पचता नहीं क्या? क्यों? पौष्टिक तत्त्व शरीर में मिलकर...अब किसलिए? शरीर में खून का प्रवाह...सब है।
अधीक्षक ने जेब से कोई कागज लेकर पढ़ना शुरू किया। वह जज का फैसला है। अन्त में, ‘साइण्ड दिस डे...कुम्भम्...सो ऐण्ड सो...जज' पढ़कर पूरा किया। उसी क्षण, दोनों तरफ खड़े सिपाहियों ने प्रणाम करते उन हाथों को पीछे करके बाँध दिया। सब कुछ बिजली के वेग में। वे हाथ, जो ईश्वर को प्रणाम करते थे...उसने ईश्वर को पास से देखा। उनकी करुणा पर विश्वास रखा। दोस्त! मुझे आश्चर्य हुआ। यह जिन्दगी किसी मनुष्य की दी हुई नहीं...उसका अन्त करने का किसे हक है? खूनी की कितनी अपनी इच्छाएँ होंगी! इतने मूल्यवान और वजनदार जीवन को एक छोटा-सा कागज का सादा टुकड़ा, जो कि मन्द पवन में उड़ जाता है, एक पैसे का मूल्य रखता है, नष्ट कर देता है...उस कागज की शक्ति! 'मैं फैसला देता हूँ।' वह उस चीज को नष्ट कर देता है, जो उसकी नहीं।...वह जज उस बेचारे को न जानता है, न उसने सुना है। 'मैं फैसला देता हूँ।' उस फैसले में मैंने एक ऐसे आदमी को देखा, जो यह जानने पर कि उसकी पत्नी के भी गुप्त प्रेमी हैं, उसका सिर काटने की इच्छा और क्रोध को जीत चुका हो। वैसे छह आने का कर देने वाले उस बेचारे के जीवन को एक पराया और सरकारी अफसर जज...जरा सोचो, दोस्त!
उसने गला फाड़कर दो-तीन बार कफ निगला। 'गर्भस्थ होकर भूमि पर जन्मा और मृत्यु तक अस्थिर रहा' वाली कविता की पंक्ति भराये स्वर में गाने लगा। मैं अपने आँसुओं को रोक नहीं पाया। तभी उस पंक्ति का अर्थ और महत्त्व मेरी समझ में आया था। सन्ध्या को, दीये के सामने बैठे दादा-परदादा इस पंक्ति को गाया करते थे। कवि इसके द्वारा तथ्य को मधुर पदों में व्यक्त करते हैं। जन्मा है तो मरना भी हैं। जन्म के साथ मृत्यु भी है-सिर्फ इतना ही मैंने समझा था। कवि की पंक्तियों को मैं भी, जरूरत पड़ने पर तोते के समान रटा करता। पर अब उस पंक्ति का अर्थ मैं करने लगा। उससे सम्बद्ध प्रश्नों को मैंने स्वयं से पूछा। दार्शनिक, कवि, दादा-किसी ने इस तथ्य का जीवन में स्वयं अनुभव नहीं किया। कोई मरता, तो उन पंक्तियों को गाते, बस। कोई गिर जाता तो हम कहते कि नीचे कीचड़ थी, इसलिए गिर पड़ा। इसी प्रकार आज उसे वह सारा तथ्य महसूस हो गया होगा। तभी तो उसे सुनने से मैं भी उसकी गहराई तक जा सका।
'नारायणाय नमः, नारायणाय नमः...' उसकी थरथराती ऊँची आवाज ने वहाँ की परम निश्चलता को चीर डाला। बीच-बीच में उसे कफ आता रहा। जब उसे कमरे के बाहर लाया गया तब भी उसने मुझे देखा। मुझे लगा कि वह मुझसे कह रहा है 'मैं जाऊँ!' 'नारायणाय नमः, नारायणाय नमः...।' तभी घण्टा बजा। उसने नाम-जपना खतम किया। मैंने लम्बी साँस ली। एक चिड़िया बाहर रो उठी। उसने पीछे मुड़कर देखा। रक्षा-मार्ग! मेरी लम्बी साँस और चिड़िया की रुलाई ने उसे विभवसमृद्ध दुनिया की ओर आकृष्ट किया होगा।
उसका पैर फाँसी के तख्तवाले कमरे की सीढ़ियों से टकराया। उसने झुककर देखा। नदी में डूबने वाला, जैसे वर्षा से बचने के लिए छाता उठाता हो।...उसने पैर क्यों देखा? हाँ, वहाँ भी आत्म-रक्षा की भावना ने काम किया होगा।
वह कमरा सबसे तंग अँधेरी कोठरी थी। बीच में करीब चार फीट लम्बा-चौड़ा और एक फुट ऊँचा चबूतरा। आठ फीट ऊँचे शहतीर से एक रेशमी रस्सी लटकी हुई थी। चबूतरे पर चार काले-कलूटे मोटे आदमी खड़े थे। धुंघराले बाल, आग-सी आँखें और भयानक चेहरा...नारायण! सचमुच ऐसे ही यमदूत होते होंगे।
वह उस तख्त के नीचे खड़ा हो गया। एक बार और उसने गले को ठीक किया। उस कोठरी के धुंधले प्रकाश में मैं उसका चेहरा देख नहीं सका। किसी ने साँस तक नहीं ली। तभी विश्वयन्त्र स्तम्भित हो गया था। एकदम खामोशी! उन चारों में से एक ने आकर उसका हाथ पकड़ा और तख्त पर चढ़ाकर ठीक जगह खड़ा कर दिया। दूसरे ने मुख को ढकने वाला कपड़ा पहनाया। तीसरे ने रस्सी का फन्दा उसके गले पर डाला। क्षण-एक...दो...कहीं से एक छिपकली बोली। चौथे आदमी ने एक कदम आगे रखा। उसके पैरों की उँगली झटकी। सब ओर से निश्चल मौन। क्षण-तीन...मेरा दिल धड़का। ‘मेरा बच्चा...' उसका विलाप। 'टिक्' का शब्द। मेरी आँखें स्वतः बन्द हो गयीं। एक क्षण और! वह दिखाई नहीं पड़ा। यन्त्र काँप रहा था।
आत्मरक्षा की आसक्ति के कारण ही जन्म के समय बच्चा रोता है। उसी प्रवृत्ति से वह यन्त्र भी चालित होता है। 'मेरा बच्चा'...गर्भस्थ होकर 'जन्मने और मरने' वाला तत्त्व उसने भुलाया होगा।