एक लावारिस लाश (गुजराती कहानी) : दिनकर जोशी
Ek Lawarish Laash (Gujarati Story) : Dinkar Joshi
बाहर की दीवार पर लगी हुई घड़ी ने घंटे बजाए । अंदर मोर्गरूम में बर्फ की बाहर शिला पर सोई सात नंबर की लाश की निश्चेत आँखों की डरावनी व्याकुलता यकायक बढ़ गई । मोर्गरूम में उसके रहने का वक्त अब तेजी से कम होता जा रहा था । यहाँ के कानून की उसे जानकारी थी । लावारिस लाशों को कुछ निश्चित घंटों के लिए ही मोर्ग में रहने को मिलता है । बाद में दूसरे शवों के लिए जगह बना देनी पड़ती है । पहले शव को इलेक्ट्रिक क्रिमेटोरियम में । ”
लाश को इस कानून पर भयंकर क्रोध आया । तिरस्कार हुआ । शायद भस्म बनने के पहले का अंतिम गुस्सा | अंतिम तिरस्कार " यहाँ मोर्गरूम में भी कानून उसका पीछा कर रहा था । लाश जब लाश न थी , तब भी इन कानूनों ने उसे परेशान करने में कोई कमी रखी न थी । अब लाश बन जाने के बाद भी... ।
कुछ घंटे , शायद कल ही था , पहले कोरोनर में से पोस्टमार्टम की हुई यह लाश गले में सात नंबर का बिल्ला लगाकर यहाँ लाई गई थी । लाश बनने के पूर्व एक युवा पुरुष तेजी से भागती रेल के पहियों के नीचे , पटरी के ऊपर कुचला गया था , ऐसा नोट उसके केस पेपर्स में कोरोनर ने किया था । लाश ने यह नोट पढ़ा भी था । यह नोट लिखा जा रहा था तब लाश को हँसी आई थी । लाश बनने के पहले वह पटरी पर चल रहा था । उसने सामने से तेज रफ्तार से आती हुई ट्रेन को देखा था । उसने जल्दी से पटरी पार करने की सोची , बाद में विचार बदला , फिर बदला " आगे बढ़ा , थोड़ा खिसका " बस ! बाद में वह शव में परिवर्तित हो गया था ।
मोर्गरूम के खुलने की आवाज आई। सात नंबर के शव ने अट्ठाईसवीं बार उस दिशा में नजर फैलाई । इस वक्त उसकी आँख में डरावनी सफेदी के बीच आशा की लाल किरणें दिखाई दी थीं ।
" तुम यहीं बाहर ही खड़ी रहो । मैं अंदर जाकर पूछताछ करके आता हूँ । ' एक भारी आवाज सुनी । उसे थोड़ी खुशी हुई । यह आवाज उसके पिताजी की थी । आखिर में उसकी मृत देह को ढूँढ़ते हुए वे यहाँ आ पहुँचे थे । अब वह लावारिस लाश नहीं मानी जाएगी । अब अस्पताल में नौकरी करनेवाले मजदूर उसकी देह को इलेक्ट्रिक करंट से... ।
" मुझे भी अंदर आने दीजिए , शायद आपको दिखाई न दे तो " मुझे कुछ नहीं होगा । उसका चेहरा मुझे देख लेने दीजिए । " स्त्री की सिसकी खाती आवाज सुनाई दी ।
" तुम क्यों समझती नहीं हो ! तुम अंदर नहीं आ सकती । बाहर ही रहो । " पुरुष ने स्त्री को रोका ।
लाश की आँख में चमक आई । अंदर आकर लाश को पहचानने की माँ की गिड़गिड़ाहट को पिताजी अनसुनी कर रहे थे । माँ की बात सही थी । पिताजी की आँखों पर मोटे - मोटे शीशों वाला चश्मा था । अंधकार में उन्हें बहुत कम दिखाई देता था । इसके बावजूद भी...।
अस्पताल के आदमी के साथ पिताजी अंदर आए । एक कतार में सोए शवों के चेहरे पर से कपड़ा खिसकता गया । शव नंबर एक - दो - तीन - चार - पाँच - छह- सात नंबर की लाश के पास दोनों रुके । प्रसाद की थाली पर से रेशमी वस्त्र हटानेवाले पुजारी की शांति की तरह मोर्गरूम के आदमी ने उसका चेहरा खोला । कुचली हुई गरदन , छिन्न - भिन्न हुई खोपड़ी , पोस्टमार्टम के टेढ़े - मेढ़े टाँके , चेहरे की एक भी रेखा पहचानी न जाती थी ! पिता के चेहरे पर अपरिचितता फैल गई ।
' पिताजी ... पिताजी यह तो मैं हूँ । मुझे नहीं पहचानते ? " लाश चिल्ला उठी — उसकी सिली हुई चमड़ी के टाँके टूट जाएँ इतना जोरों से ।
सिर हिलाकर पिता आगे बढ़े । ऐनक के शीशे साफ करके दूसरे चेहरे की ओर देखा । सात नंबर की लाश की चीख की गूँज उसके टूटे हुए दो कान के सिवा किसी को सुनाई न दी । लड़खड़ाते पैरों से आगे चले जानेवाले पिताजी पर उसे गुस्सा आया । क्यों उन्होंने माँ को अंदर नहीं आने दिया ? माँ उसे जरूर पहचान लेती । माँ की आँखें उसकी टाँके लगी हुई छिन्न - भिन्न देह के आर - पार उसे अवश्य पहचानतीं , लेकिन पिताजी ने उसे हमेशा टाला था , अवहेलना की थी , इसी तरह... अभी रोक दिया था, वैसे ही ।
मोर्गरूम के अंतिम छोर तक घूमकर वापस आते वक्त पिता सात नंबर के पास थोड़ा आहिस्ता हो गए । उनकी बौखलाई आँखों में जागरण था । सात नंबर के विकृत , कुचले हुए चेहरे पर नजर थोड़े समय के लिए स्थिर की । लाश में आशा पैदा हुई । मौका छूट जाए उसके पूर्व ही उसने चीत्कार की ।
लाश की चीत्कार तीव्र हो उठी । उसकी भाषा हवा में घूमती हुई पिघल गई । पिता दरवाजे से बाहर निकल गए थे । दरवाजा बाहर से बंद कर दिया गया था । बाहर की घड़ी में दूसरा एक डंका बजा । लाश के रक्तरंजित सिर के बाल कुछ खड़े हो गए । गरम निःश्वास छोड़ने की उसकी पुरानी आदत के कारण उसने ऐसा ही एक असफल प्रयास किया । उसके दिमाग से समय पिघलने लगा – खामोश और सुनसान — उसके देह के नीचे से पिघलती हुई बर्फ की शिला की तरह ।
बंद दरवाजा फिर से खुला । रोशनी अंदर आई । लाश ने उस तरफ देखा । उसकी नजर में चमक आई । उसके दोस्त , दो दिलोजान दोस्त , आँखें इधर - उधर करते हुए हुए अंदर आ रहे थे । मोर्गरूम का आदमी उनका दोस्त था । वे दोनों एक के बाद एक लाशों के पास रुकते थे । साथ में लाए किसी कागज पर नजर डालते थे । आपस में कुछ बोलकर और सिर हिलाकर आगे बढ़ते थे । शव नंबर एक ... दो ... तीन ... ।
सात नंबर के शव ने जोर करके मित्रों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न किया । मित्र तो उसे अवश्य पहचान लेंगे , ऐसा उसे पक्का विश्वास हुआ । वह जब जिंदा था तब उसने इन मित्रों के साथ ही कितनी बातें की थीं । घंटों तक , घंटे नहीं , दिनों तक । पिताजी उसे न पहचान पाए , शायद चश्मे के कारण ही । परंतु ये मित्र... ।
वे तीनों सात नंबर के पास रुके । मोर्ग के आदमी ने लाश की आधी देह को खुला किया । शव ने पलकें हिलाई - वह जिंदा था तब जिस तरह हिलाता था उसी तरह ही । पलकें हिलाने का उसका एक विशिष्ट ढंग था । इस ढंग से आश्चर्यचकित होकर ये मित्र कहते थे , " तेरी इन आँखों से उस समय जैसे कोई बोझ गिरा रहा हो " इस तरह ।
दोनों मित्रों ने आमने - सामने देखा । कुछ गुप्त मंत्रणा की - " लगता है ? "
"कुछ मिलता - जुलता है , उससे ज्यादा कुछ नहीं । "
"यह तो घंटों से लाश बन जाने के कारण । "
" हँ ... "
लाश को झटका लगा । मित्र भी उसे क्यों पहचानते नहीं ? उसने जोरों से आँखें हिलाईं—दोनों पलकें झड़कर नीचे गिर जाएँ इतने जोर से । “चलो साब, जरा जल्दी कीजिए । " मोर्गरूम का आदमी जल्दबाजी करने लगा ।
तीनों आगे चले गए । लाश की पट - पट करती पलकें स्तब्ध होकर निश्चेत हो गईं । बर्फ की शिला अब काफी पिघल चुकी थी । लाश के अंग एकदम सिकुड़कर जड़ बन गए थे । उसे लगा कि लावारिस बनकर इलेक्ट्रिक क्रिमेटोरियम में जल जाने के सिवा अब कोई मार्ग ही न था ।
शायद...शायद वह खुद भी अपने अंगों को पहचान सकने की स्थिति में रहा न था । बाहर की घड़ी ने फिर कुछ घंटे बजाए । कुछ देर के बाद बंद दरवाजा फिर धकेला गया । इस बार उस दिशा में नजर ही नहीं डालनी है । ऐसा कुछ पल पहले किया हुआ निर्णय पिघल गया । उसने उस दिशा में देखा । देखते ही उसकी सफेद भयावह आँखें ज्यादा स्थिर हो गईं । उसकी पत्नी दरवाजे में खड़ी थी ।
" मैं कहता हूँ बहिनजी , आप अंदर मत जाओ । आप अंदर नहीं देख सकोगी । " मोर्गरूम का चौकीदार उसे रोक रहा था । “
' नहीं , मुझे कुछ नहीं होगा । मुझे एक बार अपनी आँखों से देख लेने दो । कहीं वो ... । ” पत्नी के शब्द सिसकियों में डूब गए ।
पत्नी अंदर आई । वह आगे बढ़ी , दूसरी लाशों के डरावने हृदय उसे दिखाए , उससे शायद डर जाए और वापस चली जाए ऐसा मन में संदेह पैदा होने के कारण सात नंबर की लाश ने अपना दाहिना हाथ पत्नी की ओर बढ़ाया , ऐसे विश्वास के साथ कि पत्नी इस हाथ को अवश्य पहचान जाएगी । यह हाथ सप्तपदी के समय ग्रहण किया था । वही यह हाथ ... शादी के मंडप में जिसको स्वीकार किया था , पत्नी इस हाथ को पहचान न सके यह बात असंभव है ।
यकायक स्त्री के तीक्ष्ण चीत्कार से कमरा काँप उठा । दोनों हाथों से आँखें दबाकर पत्नी काँप रही थी- पहले शव के बिछोने के पास ही ।
“ मैंने तो आपको पहले ही कहा था न , बहिनजी ! चलिए , यह आपका काम नहीं है ! " चौकीदार पत्नी को सहारा देते हुए दरवाजे की ओर ले गया ।
दरवाजा फिर से बंद कर दिया गया । कमरे में अँधेरा फैल गया ।
इस वक्त लाश ने शून्यवत् पड़े रहने के सिवा कोई हलचल नहीं की । अब उसे कोई उम्मीद न थी । अब बहुत कम समय बाकी था । कुछ ही देर में एक स्ट्रेचर में उसे उठाकर ले जाया जाएगा । बाद में एक लावारिस लाश के तौर पर कुछ किराए के लोग उसे इलेक्ट्रिक करंट देंगे । वह भस्म हो जाएगा । खत्म ! उसने ओठों पर जमा हुआ लहू चूसकर गले को गीला करने का प्रयत्न किया । उसे एक एक विचित्र विचार सूझा। शव बनने के पहले भी उसे असंख्य विचार सूझते थे। तब ऐसा ही विचार -
यदि मुरदा हँस सकता होता तो कितना अच्छा होता ! वह हँसता , कहकहे लगाकर हँसता । आसपास के सभी शव चौकन्ने होकर जाग जाएँ , उतना जोरों से हँसता ।
यकायक कमरे में रोशनी हुई । स्ट्रेचर उठाकर दो आदमी अंदर आए । लाश को समझने में देर न लगी । उसका वक्त पूरा हो गया था । स्ट्रेचर उसके पास आकर रुका । उसी देह के ऊपर का कपड़ा ठीक तरह लपेटा गया । कपड़ा कुछ- कुछ फट गया था । उसके चेहरे पर कपड़े का टुकड़ा फटा हुआ था । उसकी दरार में से उसने बाहर देखा । उसकी देह स्ट्रेचर पर धकेल दी गई । उसकी गरदन में से सात नंबर का बिल्ला निकाल दिया गया । स्ट्रेचर उठाकर दोनों आदमी मोर्गरूम के पिछले दरवाजे की ओर आगे बढ़े । अगले दरवाजे की ओर शव ने अंतिम दृष्टि डाली । नजर स्तब्ध होकर वहीं रुक गई |
" बहनजी , आप अंदर नहीं जा सकोगी । थोड़ी देर पहले ही एक औरत आई थी । वो अंदर नहीं ठहर सकी । आप भी ... । " चौकीदार एक स्त्री को रोकने का प्रयत्न कर रहा था ।
वह स्त्री थी
पूरी ताकत इकट्ठा करके शव ने स्ट्रेचर में से नीचे कूद पड़ने का प्रयास किया । इस प्रयास में वह निष्फल रहा । हाँ , पोस्टमार्टम के समय लिये गए कुछ- कुछ टाँके टूट जरूर गए , लेकिन अब उसमें से लहू थोड़ा बहने वाला था ।
उस स्त्री को वह पहचानता था , अच्छी तरह पहचानता था । हलके नीले रंग की साड़ी , वैसा ही ब्लाउज , एक चोटी में डाला हुआ मोगरे का गजरा ( अभी भी इस गजरे को वह भूली न थी । शव को इसका आश्चर्य हुआ । ) , चश्मा से आर- पार निकलनेवाली वह दृष्टि... ।
वह दृष्टि उसे न पहचाने , ऐसा हो ही नहीं सकता । यह असंभव था ।
लेकिन...लेकिन...
स्ट्रेचर अब दूसरे दरवाजे के एकदम पास पहुँच गया था । हृदय की नसें टूट जाएँ , इतने जोरों से शव ने चीखने का प्रयत्न किया । वह लावारिस न था । अब वह अवश्य पहचाना जाएगा , एक पल " केवल एक ही ज्यादा पल , अगले दरवाजे से दाखिल हुई वह स्त्री शांति से लाशों के चेहरों पर नजर डालती कुछ ढूँढ़ रही थी । एक ... दो ... तीन ..., उसकी आँखों में व्याकुलता , व्यथा , निराशा सात नंबर के शव ने स्ट्रेचर पर लेटे रहकर अंतिम दृष्टि डाली, दूसरे ही क्षण उसे पिछले दरवाजे के बाहर धकेलकर उस दरवाजे को जोरों से बंद कर दिया गया । बाद में... बाद में ... बाद में ... ।
(अनुवाद : ललित कुमार शाह)