एक है जानकी (कहानी) : उषा किरण खान

Ek Hai Jaanaki (Hindi Story) : Usha Kiran Khan

जानकी ऊँघने लगी थी। लुढ़कने से बाल-बाल बची !

“ऐ जीप वाले, क्यों तूफान की तरह रेड़ते जा रहे हो? अभी दाईजी गिर जातीं,” जानकी के साथ आए सहायक कुंजा ने कहा।

जीप वाले ने कुंजा पर सर्द निगाह फेरी। किसी प्रकार का भाव उसके चेहरे पर नहीं था। जीप रोककर उतरगया। हाथ-पैर झटककर खड़ा हो गया, “बहुत विचित्र देहात है! कहीं चाय-पानी का खोखा भी नहीं है। थक गए भाई।"

“चलो, गाँव पर एक साथ नाश्ता-चाय करवा दूँगा देर न करो,” कुंजा ने आश्वस्त किया।

जानकी दूरस्थ अस्तचलगामी सूर्य की लालिमा गौर से देख रही थी। मन कहीं अन्यत्र भटक रहा था। शहर की ओर जाने से पूर्व भैया नाराज थे -

“नहीं जानकी, तुम गवाही देने नहीं जाओगी। उस बदजात इंजीनियर को जाने दो जेल । घोर दुःख और विपत्ति में तुम्हें छोड़ा गया। हमने उसे कोई सजा नहीं दी। फिर यह चक्र-चाल। जब स्वयं अपने जाल में फँसा गया है तब पता चल रहा है न!"

जानकी ने भैया से तो नहीं, परन्तु भाभी से कहा, “भाभी, इंजीनियर साहब ने मुझे नहीं रखा। पत्नी समझा ही नहीं। नए कानून के तहत वह बिना तलाक दिए विवाह कर नहीं सकते थे। शादी करनी थी, की। शायद भैया के डर से, शायद अन्य कारणों से भाड़े की औरत को खड़ा कर तलाक ले लिया। क्या बुरा किया ?"

“बुरा नहीं किया? क्या कहतीं हैं आप?” भाभी का स्वर तेज था। “ठीक ही तो कहती हूँ, भाभी। मैं सुंदर नहीं थी, देहाती थी। उन्हें नहीं भाई। मैं सुखी हूँ, आपके साथ जो हूँ।”

“वह तो है, परंतु स्वामी के बिना..."

" मान लीजिए, मैं विधवा हूँ।”

“मानने से कुछ नहीं होता।"

“क्या करेंगी?” “उसको जेल भेजने का प्रबंध।” “क्या ज़रूरत है? मेरे जाने से यदि उसका भला हो जाए तो आपको बुरा नहीं लगना चाहिए।"

“मुझको बुरा लग रहा है। आप मेरी बेटी की तरह हैं। मेरा कलेजा आपको देखकर फटता रहता है। ऊपर से यह अनर्थ। बंधन तोड़ते वक्त भी उसे आपकी जरूरत नहीं पड़ी। आज शिकायत हुई, नौकरी छिनने का खतरा हुआ कि आप उसे याद आ गईं। नहीं दाईजी, आप न जाएँ तो ठीक रहेगा।"

जानकी के जेहन में इंजीनियर साहब की चिट्ठी का मजमून घूमने लगा-

आदरणीय जानकी देवी,

सादर प्रणाम,

मैं अत्यंत लज्जित और दुःखी अवस्था में आपको पत्र लिख रहा हूँ। आपके समक्ष मुँह भी नहीं खोल सकता। परंतु कहता नहीं हूँ तो बनता नहीं है। आपको पता होगा कि दस-बारह वर्ष पहले मैंने दूसरा विवाह कर लिया था। तीन संतानें हैं। सरकारी नौकरी में दो विवाह मान्य नहीं है। आपसे मुझे तलाक चाहिए था। मैं आपके परिवार की कृपा के बोझ से दबा हुआ था। संकोच और भय था। अतः आपसे आग्रह न कर सका। एक भाड़े की स्त्री को खड़ा कर, 'जानकी' नाम दे इजलास से तलाक ले लिया। विपत्ति कहाँ पीछा छोड़ती है। दुश्मन पीछे पड़ गए। सरकार के पास शिकायत हुई। अब आप ही मेरी नौकरी, इज्जत और तीनों बच्चों को बचा सकती हैं, वरना आत्महत्या के सिवा कोई उपाय नहीं है। आप स्वीकृति दें तो जीप भेज दूँ। आप आकर कृपया इन्क्वायरी वालों को यह बता दें कि तलाक के वक्त आप ही जानकी देवी इजलास में उपस्थित थीं।

- शुभेच्छु मोहन

जानकी के कलेजे पर हथौड़ी पड़ी। आह, यह तो सुना था कि विवाह कर लिया, बाल-गोपाल हैं, पर यहाँ तक नाता टूट चुका है, नहीं जानती। माथे का सिंदूर, सुहाग की चूड़ी अनचीन्हे-से लगे। आँसू सूख गए। देर तक स्तंभित-सी रही, फिर संदेशवाहक को कहा, “तुम गाड़ी लेकर आओ, मैं चलूँगी।” घर में भूचाल आ गया। भैया-भाभी, भतीजा-बहू सभी नाराज हो गए। जानकी का वचन अटल था। जानकी की सोच, “उन्हें मुझसे कोई मतलब ही नहीं तो मुझे क्यों हो? उन बच्चों का क्या दोष? पिता का पाप उन्हें नाहक भुगतना होगा। बिना किसी प्रतिदान के किया गया उपकार वास्तविक पुण्य-फल देता है।"

अपने देहाती शृंगार में लैस जानकी जीप पर चढ़ गई। विष्णुपुरी सिल्क की साड़ी ब्लाउज, काले-घने केशों की लंबी चोटी, माथे पर बड़ी-सी बिंदी, कानों में सोने का फूल, गले में जई, सोने की चूड़ियाँ, कड़ा और अँगूठियाँ, शहर की ओर कभी-कभी सिनेमा देखने जाती है जानकी, बस। अब जब से गाँव में बिजली आई है, टेलीविजन पर ही देख लिया करती है।

जाँच कमेटी के सामने बिना किसी इतस्ततः कि जानकी ने कह दिया, "मैं ही थी तलाक देने वाली जानकी।"

“सच-सच बताइए, देवीजी ?" जाँच कमेटी थी।

"झूठ क्यों बोलूँगी ?" तेवर में बोली जानकी।

"क्यों दिया तलाक ?" जाँच कमेटी थी।

"मन नही मिला था, पुराना किस्सा मत चींथिए।” श्याम मुखाकृति पर बड़े से बेसर की आभा छिटक रही थी, सफेद भक्क दाँत की हँसी खिलखिलाहट में बदल गई, "मैं अकेली ही प्रसन्न हूँ।"

किसी ने कुछ न पूछा। अभ्यर्थना में इंजीनियर साहब खड़े थे। परंतु जानकी उपेक्षा भाव से प्रकोष्ठ से निकली और जीप में बैठ गई।

“अब मैं जाऊँगी।"

“दाईजी, बाजार नहीं चलना है? कोई सौगात, कोई खरीद-फरोख्त ?” कुंज ने पूछा।

“नहीं, अभी जिस काम से आई थी वह सम्पन्न हुआ; अब सीधे गाँव जाना है।” कुंजा बैठ गया। इंजीनियर साहब सकते में खड़े रहे। ड्राइवर ने इशारा पा जीप स्टार्ट कर दी।

जानकी को अब बोध हुआ कि किसी ने एक शब्द 'धन्यवाद' का नहीं कहा। किसी के चेहरे पर पश्चाताप का भाव नहीं था। एकमात्र आश्वस्ति का भाव था, भय से छुटकारा पाने का भाव।

बड़े जमींदार की दुलारी इकलौती बेटी जानकी ने दस्तखत के अलावा कुछ नहीं पढ़ा-लिखा । गाँव में स्कूल नहीं था, शहर बिटिया को भेजा नहीं । गरीब घर का जहीन दामाद खोजा, पढ़ा-लिखाकर इंजीनियर बनाया पिता ने कि बेटी आगे सुख करेगी। सिलाई-कढ़ाई, अरिपन - पुरहर सीखने के लिए गाँव की लड़कियाँ बैठी रहतीं जानकी के पास। जानकी स्वयंभू शिक्षिका - प्रशिक्षिका बनी बैठी है बेभाव। हृदय का भाव है, और कुछ नहीं। सीखने वाली लड़कियों ने इसका व्यवसाय बना रखा है। जानकी धचके से साकांक्ष हुई ।

भतीजे की बहू कह रही थी, "बुआजी, तलाक के बाद बेटी फिर अपने पिता के घर की हो जाती है। यही पदवी, वही गोत्र यानि कुमारी कन्या - समझी न। आजकल लड़कियाँ विवाह भी करती हैं।” अनायास जानकी को ये शब्द स्मरण हो आए। हँसी आ गई उसे । अर्थात् बाबूजी ने जो कन्यादान किया था, वह लौट गई। दान की हुई वस्तु लौटने लगी। वाह ! लेकिन एक बड़ी अच्छी बात हुई, जब तक जीऊँगी, चूड़ियाँ पहनूँगी, मछली खाऊँगी। ठहाका-सा लगाया जानकी ने। मतलब, मतलब वैधव्य का घोर मर्मांतक दंश नहीं सहूँगी। जीप हरहारती-सी चल रही थी, सो किसी ने ठहाके को सुना नहीं-न कुंजा ने, न ड्राइवर ने।

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