एक ग़रीब की आत्मकथा (कहानी) : सुदर्शन
Ek Ghareeb Ki Aatm-Katha (Hindi Story) : Sudarshan
जमादार गणेशसिंह ने बिशनदास के कमरे के सामने पहुंचकर कहा,‘बिशनदास जागते हो ?’
बिशनदास अपना सिर घुटनों में दबाए कुछ सोच रहा था। जमादार की आवाज़ सुनकर चौंक पड़ा और बोला,‘हां, जागता हूं। कितने बजे होंगे?’
जमादार ने उसकी ओर करुणा-भरी दृष्टि से देखा और ठण्डी सांस भर उत्तर दिया,‘तीन।’
‘तो वह घड़ी निकट आ गई, अब केवल कुछ ही घण्टे बाक़ी हैं।’
‘हूं।’
इस समय जमादार की आंखों में आंसू थे, हृदय में वेदना, रुद्ध कण्ठ से बोला,‘अगर दरखास्त मंजूर हो जाती तो मैं महावीर को लड्डू चढ़ाता।’
बिशनदास को हत्या के अपराध में फांसी का हुक्म हो चुका था। यह रात्रि उसके जीवन की अन्तिम रात्रि थी। जमादार गणेशसिंह को उससे बहुत स्नेह हो गया था। वह चाहता था कि यदि बिशनदास छूट जाए तो इसे अपना बेटा बना लूं। परन्तु यह लालसा मन ही मन में रह गई और वह भयानक समय निकट आ गया। गणेशसिंह का हृदय बैठा जाता था, परन्तु बिशनदास के मुख पर विषाद न था। असीम निराशा ने उसके डांवाडोल हृदय पर सन्तोष और शान्ति का मरहम रख दिया था। वह इतना सुन्दर और भोला-भाला था कि उस पर हत्या का सन्देह तक न होता था।
मृत्यु के निकट पहुंचकर भी मनुष्य ऐसा स्थिर रह सकता है, यह गणेशसिंह के लिए नया अनुभव था। उसका स्वर भारी हो गया और नेत्रों में आंसू छलकने लगे। सहसा उसने आंखें पोंछ दीं और ठण्डी सांस भरकर कहा,‘बिशनदास, क्या ही अच्छा होता यदि तुम यह हत्या न करते।’
बिशनदास बैठा हुआ था, यह सुनकर खड़ा हो गया और जोश से बोला,‘परन्तु मैं निर्दोष हूं।’
‘निर्दोष हो! यह तुम क्या कह रहे हो?’
‘सच कह रहा हूं।’
जमादार ने पैंतरा बदलकर पूछा,‘तो फिर यह फांसी क्यों पा रहे हो?’
‘यदि चाहता तो कम से कम इससे बच सकता था।’
जमादार चकित होकर बोला,‘तुमने यत्न क्यों न किया?’
‘इसमें एक रहस्य है।’
‘क्या मुझे भी नहीं बता सकते?’
बिशनदास थोड़ी देर चुप रहा और कुछ सोचता रहा, जिस प्रकार कोई आत्म हत्या से पहले सोचता है। इसके पश्चात् बोला, ‘मेरी इच्छा न थी कि यह रहस्य मेरे मुख से प्रकट होता और इसीलिए मैं इसे अपने हृदय में दबाए हुए फांसी के तख़्ते की ओर जा रहा हूं। परन्तु तुमने मुझसे जो सहानुभूति की है उसने मुझे विवश कर दिया है कि यह रहस्य तुम्हारे सामने खोल दूं।’ गणेशसिंह दत्तचित्त होकर सुनने लगा। बिशनदास ने अपनी कहानी कहना आरम्भ किया।
जमादार! मैं उन अभागे मनुष्यों में से एक हूं जो संसार में बिना बुलाए आ जाते हैं और जिनके लिए माता-पिता के पास खाने-पीने का कोई प्रबन्ध नहीं होता। मेरे माता-पिता निर्धन थे। दिन-रात मज़दूरी करते थे, परन्तु फिर भी उनकी आवश्यकताएं पूरी न होती थीं। सदा उदास रहा करते थे। हम तीन भाई थे, चार बहनें। हमारे माता-पिता से ख़र्च संभाले न संभलता था। प्रायः हम पर झुंझलाते रहते थे। मुझे अपने बचपन का कोई दिन याद नहीं जब मुझे मारा-पीटा न गया हो। और यह व्यवहार अकेले मेरे ही नहीं, सारे बहन-भाइयों के साथ होता था। हम प्यार और दुलार की आंखों के लिए तरसते रहते थे। परन्तु इस अमोल वस्तु से हमारा प्रारब्ध वंचित था। जब हम दूसरे बच्चों के साथ अपनी अवस्था की तुलना करते तो हमारे छोटे-छोटे हृदय सहम जाते थे, परन्तु सिवा चुप रहने के कोई उपाय न था। इसी प्रकार हम बड़े हुए और माता-पिता के साथ मज़दूरी करने लगे। इस समय तक हम सबका ब्याह हो चुका था। यह अभागा भारत ही ऐसा देश है, जहां रोटी खाने को प्राप्त हो या न हो, परन्तु माता-पिता सन्तान का ब्याह कर देना आवश्यक कर्त्तव्य समझते हैं। जान पड़ता है, इसके बिना उनकी गति न होगी।
मैंने मज़दूरी के साथ-साथ रात को पढ़ना भी आरम्भ कर दिया। इससे मेरे माता-पिता आगभभूका हो गए। उनका ख़याल था, इससे मेरा सिर फिर जाएगा, और मैं उनके काम का न रहूंगा। इसलिए वे मेरी पुस्तकें फाड़ दिया करते थे। परन्तु मैं उनके विरोध में धीरज न छोड़ता था, दूसरे दिन और पुस्तक ले आता था। इस प्रकार मैंने कुछ पुस्तकें पढ़ लीं, और एक भट्ठे पर मुंशी हो गया। मेरे माता-पिता के क्रोध की सीमा न थी। वे मेरी ओर इस क्रोध से देखते थे, मानो मैंने किसी की हत्या कर डाली है। यहां तक कि एक दिन मेरे पिता ने मुझे गन्दी गालियां भी दीं। मेरा रक्त उबलने लगा। यह गालियां बचपन में एक साधारण बात थी। उस समय हृदय में क्रोध और के लिए कोई स्थान न था। परन्तु अब मैं चार अक्षर पढ़ गया था, मैं उसे सहन न कर सका और स्त्री को लेकर किराए के मकान में चला गया। उस समय मेरी आयु उन्नीस वर्ष के लगभग थी।
***
जमादार! तीन वर्ष निकल गए। मैं बढ़ता-बढ़ता एक अच्छे पद पर पहुंच गया। उस समय मैं एक प्रेस में 30 रुपए मासिक पर नौकर था। मैं और मेरी स्त्री आनन्द के मद में मतवाले थे। यद्यपि। यह वेतन अधिक न था, परन्तु मेरे लिए, जिसके भाई पांच-छः आने रोज़ पर धक्के खाते फिरते थे, यह नौकरी एक ऐसे उच्च पद के बराबर थी जिसको ऐश्वर्य भी ईर्ष्या की दृष्टि से देखता हो। परन्तु क्या पता था कि यह आनन्द अस्त होते हुए सूर्य की लाली है, जिसके पीछे अंधेरी रात छिपी है।
प्रेस के मैनेजर को मुझ पर पूर्ण विश्वास था। वह मुझे ऐसा भलामानस समझता था कि मेरे काम की पड़ताल भी नहीं किया करता था। और इतना ही नहीं, मेरी भलमंसी की सारे कर्मचारियों पर धाक थी। वह मुझे देवता समझते थे। उस समय मेरा हृदय सच्चाई का भण्डार था, आंखें सन्तोष का। नमूना। धर्म से पतित होने के कई अवसर हाथ आए और निकल गए, परन्तु मेरा चित्त कभी डांवाडोल नहीं हुआ। उन दिनों को जब याद करता हूं तो कलेजे पर छुरियां चल जाती हैं। अब कोई शक्ति यदि एक ओर संसार भर की सम्पत्ति और ऐश्वर्य उंडेल दे, और दूसरी ओर वे दिन रख दे तो मैं उन दिनों को छोड़ कर दूसरी ओर देखना भी पसन्द न करूंगा। परन्तु काल क्या नहीं करता है?
कहते हैं, भगवान् को जब किसी पर विपत्ति भेजना होती है तब पहले उसकी बुद्धि पर पर्दा डाल देते हैं। मेरी भी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। एक छोटी-सी रकम पर मन फिसल गया। मैनेजर की प्रशंसा और भरोसे ने मेरा साहस बढ़ा रक्खा था। मैंने आगा-पीछा सोचे बिना डुबकी लगा दी। परन्तु बाहर निकला तो किनारे का पता न था। मेरा पाप प्रकट हो गया। उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे किसी ने आकाश से पृथ्वी पर फेंक दिया हो। मैं रोते-रोते मैनेजर के पैरों से लिपट गया। परन्तु उसे मुझ पर दया न आई। झिड़क कर बोला,‘बस, अब तुम्हारा यहां रहना असम्भव है। मुझे यह पता न था कि तुममें यह गुण भी भरे होंगे।’
***
जमादार! जब मैं प्रेस से निकला तो संसार मेरी दृष्टि में शून्य हो रहा था और मेरा अन्तःकरण मुझे बार बार धिक्कार रहा था। उस समय मुझे पता लगा कि कोई शुद्ध हृदय मनुष्य जब पहली बार पाप का शिकार होता है तो उसके हृदय की क्या अवस्था होती है। मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया कि मेरा प्रेस का पाप मेरा पहला और अन्तिम पतन होगा! परन्तु शोक! समाज ने मेरा पवित्र संकल्प इस प्रकार नष्ट कर दिया, जिस प्रकार छोटे बालक फूल की पत्तियों को पांव तले मसल डालते हैं और उनके विषय में कुछ सोचने की परवा नहीं करते।
मैंने तीन मास तक यत्न किया, परन्तु मुझे कोई नौकरी न मिली। घर में जो चार पैसे जमा किए थे, वह भी ख़र्च हो गए। मैं प्रातःकाल निकलता, सारा दिन शहर की मिट्टी छानता और सांझ को घर लौटता। मेरी स्त्री पूछती, काम बना? मेरे कलेजे में बर्छियां चुभ जातीं। लज्जा-भरी आंखों से उत्तर देता, नहीं। यह उन दुर्दिनों का नितनेम था जिनको थोड़े दिनों के सुख की स्मृति ने और भी दुःखमय बना दिया था, जैसे थोड़े समय का प्रकाश अन्धकार को और भी घना बना देता है।
मेरी स्त्री के पास कुछ आभूषण थे, वह बेचने पड़े। उनको बनवाते समय उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न था। निर्धन घराने की लड़की के लिए यह ऐसा सौभाग्य था जिस पर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती हैं। मुझे वह समय कभी नहीं भूल सकता, जब उसने कांपते हुए हाथों से वह आभूषण मुझे बेचने के लिए दिए थे। उस समय उसका मुख कपास के फूलों की नाई पीला था, आंखों में आंसू भरे थे। जमादार! मेरे जीवन में वह क्षण अतीव दुखदायी था। उस दिन के पश्चात् मैंने अपनी स्त्री के मुख पर कभी मुस्कराहट नहीं देखी, मानों आभूषणों के साथ उसके मुख की कांति भी बिक गई। मेरा प्रारब्ध और भी अन्धकारमय हो गया। मैंने बहुत यत्न किया, परन्तु मेरा प्रारब्ध मेरी प्रत्येक चेष्टा को व्यर्थ बनाने पर तुला हुआ था। यहां तक कि तीन दिन भूखे रहते हो गए। मैं अपनी दृष्टि में आप लज्जित होने लगा।
चौथे दिन जब बाहर निकला तो मेरी स्त्री ने कहा,‘मेरी मानो तो जब तक अच्छी नौकरी न मिले तब तक कोई साधारण ही कर लो।’
इन शब्दों में कितनी निराशा थी, कितना दुःख। मेरा मन बेबस हो गया, आंखों में आंसू छलछला आए। एक सौदागर की दुकान पर जाकर बोला,‘आपको किसी आदमी की ज़रूरत है?’
सौदागर ने मुझे सिर से पांव तक देखा, परन्तु इस प्रकार जैसे कसाई बकरे को देखता है, और कहा,‘क्या कर सकोगे?’
डूबते को तिनके का सहारा मिल गया। मैंने समझा, काम बन गया। नम्रता से उत्तर दिया,‘मैं उर्दू-हिन्दी पढ़-लिख सकता हूं।’
‘तो देखो, वह बिलों की नकलें पड़ी हैं। रजिस्टर देख देख कर छांटते जाओ कि कौन-कौन से बिल की रकम वसूल होना बाक़ी है।’
मैंने काम आरम्भ कर दिया, और बिजली की सी तेज़ी से। यदि प्रेस में होता तो उस काम में कम से कम तीन दिन लगते। परन्तु यहां नई नौकरी थी, सन्ध्या तक सारे बिल छांट डाले और दुकानदार से कहा,‘काम पूरा हो गया।’
उसने मेरी ओर सन्तोषपूर्ण दृष्टि से देख कर उत्तर दिया,‘तुम बहुत ही समझदार हो। मेरा नौकर एक मास तक नौकरी छोड़ जानेवाला है। अपना पता छोड़ जाओ, मैं तुम्हें सूचना दे दूंगा।’
मेरी आशाओं पर पानी फिर गया। जब कोई भूला हुआ यात्री टिमटिमाते हुए दीपक को देखकर तेजी से पांव उठा रहा हो और एकाएक वह दीपक, उसकी अन्तिम आशा भी, वायु के झोंकों से बुझ जाए तो जो दशा उसके हृदय की हो सकती है वही दशा मेरे हृदय की हुई। मैं घर जाकर टूटी हुई चारपाई पर गिर पड़ा और बच्चों की नाई सिसकियां भर भरकर रोने लगा।
मेरी स्त्री मेरी दशा को भांप गई थी, चुपचाप मुंह फुलाए बैठी रही। उसकी यह रुखाई मेरे घावों पर नमक का काम कर गई। परन्तु इतना ही नहीं, कुछ देर बाद बोली,‘क्या सो गए हो ?’
आवाज़ में घृणा मिली हुई थी, नमक पर मिर्च छिड़की गई। मैंने अपराधी की नाई उत्तर दिया,‘नहीं।’
‘मालिक-मकान आया था। कह गया है, परसों तक तीन महीनों का किराया पहुंचा दो, नहीं तो नालिश कर दूंगा।’
‘अच्छा।’
‘देवकी अपने रुपए मांगती है, कहती थी, बरतन का मुंह खुला हो पर कुत्ते को तो शर्म चाहिए।’ मैं चुप रहा।
‘कुन्दन आज फिर पड़ोसी के घर से रोटी उठा लाया है। तुमसे क्या कहूं, मारे लज्जा के प्राण निकल गए, परन्तु तुमको इतनी समझ भी नहीं कि कोई हलका ही काम कर लो। अब मुन्शीगिरी न मिले तो क्या भूखों मरेंगे?’
परन्तु मुझे मजदूरी करना पसन्द न था। अपने पिता के शब्दों में मैं पढ़-लिख कर काम का न रहूंगा, मेरा मस्तिष्क बिगड़ गया था। रस्सी जल गई थी, परन्तु ऐंठन बाक़ी थी।
***
जमादार! दूसरे दिन मैं अंधेरे मुंह ही घर से निकल गया। मुझे स्त्री से डर लगने लगा था। मनुष्य बाहर अपमानित होता है तो घर की ओर भागता है। वहां उसे एक प्रकार का सहारा मिल जाता है। परन्तु उस मनुष्य के दुर्भाग्य का क्या ठिकाना है जो अपमान से भाग कर घर की ओर जाए और वहां उससे भी बड़ा अपमान उपस्थित हो। मेरी यही दशा थी। मैं सोच रहा था कि अब मेरे लिए कोई रास्ता है या नहीं। सहसा निराशा में आशा की किरण दिखाई दी। मुझे अपने मित्र ज्ञानचन्द का ध्यान आया। प्रेस की नौकरी के दिनों में मेरा उससे अच्छा मेलमिलाप था। वह मेरी भलमंसी पर मोहित था। प्रायः कहा करता,‘बिशनदास! कुछ दिनों की बात है, फिर मैं यह नौकरी तुम्हें कभी न करने दूंगा।’
यह बातें उसके हृदय से निकलती थीं। वह एक धनी-मानी पुरुष का बेटा था। उसे खाने-पीने की परवा न थी। उसके दरवाज़े पर मोटरें खड़ी रहती थीं। परन्तु किसी छोटी-सी बात पर पिता-पुत्र में अनबन हो गई, इसलिए उसने प्रेस में नौकरी कर ली थी। मगर वह जानता था कि मज़दूरी का दौर थोड़े ही दिन रहेगा। मुझसे प्रायः कहा करता था,‘तुम्हें दुकान खोल दूंगा, यह क्लर्की पत्थर के साथ सिर फोड़ने के समान है।’ मैं उसका धन्यवाद करके चुप रह जाता था। एक दिन पता लगा, उसका पिता मर गया है ज्ञानचन्द लाखों का मालिक बना। उस दिन उसने बिदा होते हुए अपने शब्दों को फिर दोहराया, और उसी प्रेम, उसी जोश से।
मैं उसके घर की ओर चला। परन्तु दरवाज़े पर पहुंच कर अन्दर जाने का साहस न हुआ। मेरे कपड़े तार तार हो रहे थे। मुंह पर दारिद्रय बरस रहा था। विचार आया, इस अवस्था में मित्र के सामने जाना उचित नहीं। परन्तु फिर सोचा, इसके सिवा उपाय ही क्या है। हिचकिचाते हुए पांव आगे बढ़े।
एक नौकर ने देख कर कहा ‘क्यों? किसे देखते हो?’
मैंने उत्तर दिया,‘बाबू ज्ञानचन्द हैं?’
‘उनसे मिलना है?’
‘हां!’
‘तो वह सामने कमरे में हैं, चिक उठाकर चले जाओ।’
मैं अन्दर पहुंचा। ज्ञानचन्द सिगार पी रहा था। उसके ठाट-बाट को देखकर मुझ पर रोब छा गया। उसने थोड़ी देर मेरी ओर देखा, और फिर बड़े सेठों की नाई ऐंठ कर पूछा,‘हैलो! मिस्टर बिशनदास! आज कैसे भूल पड़े? यार अजीब आदमी हो। पास रहते हो, फिर भी कभी नहीं आते। क्या कुछ नाराज़ हो?’
मैंने उसकी आंखों की ओर देखा। वहां कभी प्रेम का वास था, परन्तु आज उसके स्थान में अभिमान बैठा था। मैंने सिर झुका कर उत्तर दिया,‘आपसे नाराज़गी कैसी? वैसे ही नहीं आ सका।’
‘तो अब आया करोगे?’
ज्ञानचन्द ने एक अतिउत्तमम बढ़िया सिगार केस से एक क़ीमती सिगार निकाला और मेरे सामने रख कर बोला,‘पियो। ‘
‘मैंने कभी पिया नहीं।’
ज्ञानचन्द ने हंस कर कहा,‘माफ़ करना, मुझे ख़्याल नहीं रहा कि तुम सिगार नहीं पीते। चाय मंगवाऊं?’
‘नहीं।’
‘तो फिर तुम्हारी क्या ख़ातिर की जाए?’
‘आपकी दया चाहिए।’
‘दया को फेंको चूल्हे में। ज़रा सामने देखो, दो तस्वीरें पेरिस से आई हैं, सच कहना, कैसी हैं?’
‘बहुत ही सुन्दर, ऐसी तसवीरें सारे शहर में न होंगी।’
‘साढ़े तीन सौ में ख़रीदी हैं। ‘
‘परन्तु चीज़ें भी बहुत बढ़िया हैं, (बात का प्रकरण बदल कर) मैं इस समय इसलिए…’
जान पड़ता है, ज्ञानचन्द मेरे हृदयगत विचार को भांप गया था। यह जतला कर कि उसने मेरी बात नहीं सुनी है वह बात काटकर बोला,‘यार तुमसे क्या पर्दा है। इस क़िस्म के ठाट-बाट से भरम बना रक्खा है, वर्ना पैसे पैसे को मोहताज हो रहा हूं। पिताजी ने, मालूम होता है, हवा ही बांध रक्खी थी। मगर मुझसे ऐसा होना मुश्क़िल है। जी चाहता है, मकान बेचकर कहीं निकल जाऊं और दस रुपए की नौकरी कर लूं।’
मैं चुप रह गया। ज्ञानचन्द की बातों ने मुझे निरुत्तर कर दिया। जिस प्रकार प्यासा मृग रेत के थलों को सरोवर समझ कर चौकड़ी भरता हुआ आता है और निकट पहुंच कर निराश हो जाता है, वही दशा मेरी हुई। आशा के पौधे को निराशा की गर्जती लहरों ने निगल लिया। मैं कैसी आशा से इधर आया था, परन्तु उस पर पानी फिर गया। मैं निराश होकर उठ खड़ा हुआ और पृथ्वी की ओर देखते हुए बोला,‘तो आज्ञा है?’
ज्ञानचन्द के मुख पर विजय के चिह्न दिखाई दिए। उसने समझा, यह निपट मूर्ख है। मेरा मन्त्र चल गया। जो गुड़ से मरे उसे विष क्यों दिया जाए। जोश से कहने लगा,‘तो कभी-कभी मिलते रहा करो।’
मैं गंगा के तट से प्यासा वापस हुआ। मेरा सत्यपरायणता का प्रण टूट गया। इस स्वार्थी कृतघ्न कपटी संसार में यह निर्बल दीपक कामना और मनोरथ के झोंकों के प्रबल थपेड़ों से कब तक सुरक्षित रह सकता है? मेरे नेत्रों में नई ज्योति उत्पन्न हुई। संसार नवीन रूप में दिखाई देने लगा, जहां हर एक आदमी रुपए पैसे पर इस प्रकार टूटता है, जैसे चील मांस पर। धर्मं मुझे वायु से हलका और पानी से पतला प्रतीत होने लगा, इस समय मेरी आंखें खुल चुकी थीं। कभी मैं इसे प्राणों से प्यारा समझता था, उस समय मैं नितान्त मूर्ख था।
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जमादार! मैं और मेरी स्त्री चार दिन के भूखे थे। मेरा फूल के समान बच्चा रोटी के टुकड़े के लिए तरसता था। मकान मालिक किराए के लिए तगादे करता था। इस दुःख के तूफ़ान से अशान्त नदी में धर्म की नौका कब तक ठहर सकती थी? मैं रात के समय एक सेठ के मकान में दबे पांव घुस गया, और उसकी बैठक में पहुंचा। दूर आंगन में बच्चे शोर करते थे। नौकर अपने अपने काम में लगे थे। चारों ओर ऐश्वर्य बरस रहा था। मुझे यह दृश्य एक संगीतमय स्वर्गीय स्वप्न सा प्रतीत हुआ, हृदय और मस्तिष्क अपने आपको भूलकर इसमें मग्न हो गए। क्या इस दुःखमय संसार में कोई ऐसा स्थान भी है, जहां ऐश्वर्य नाचता और सुख-सम्पत्ति मुस्कराती है। सहसा मुझे अपने घर की याद आ गई। हृदय में भाला-सा चुभ गया। यहां आनन्द खेलता है, वहां प्रारब्ध रोता है। मैंने चारों ओर व्याकुल आंखें दौड़ाई। वह एक अलमारी पर जाकर ठहर गईं। तीर निशाने पर बैठा। मैंने मन में कहा, इस पर हाथ चलाना व्यर्थ न जाएगा।
मैंने जूता उतार दिया और बड़ी सावधानी से आगे बढ़ा। प्रेस को नौकरी के दिनों ने मशीनों के खोलने-खालने का ढंग सिखा दिया था। वह इस समय काम आ गया। अंधेरे में दिया मिल गया। मैंने जेब से एक हथियार निकाला, और ताला तोड़कर अलमारी खोली। उस समय मेरा कलेजा ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। एकाएक आशा का चमकता हुआ मुख दिखाई दिया। पाप के वृक्ष को सफलता का फल लग गया था। मैंने नोटों का पुलिन्दा उठाया, और कमरे से निकलकर भागा जैसे कोई पिस्तौल लेकर मारने को पीछे दौड़ रहा हो।
परन्तु अभी मकान की चहारदीवारी से बाहर न हुआ था कि दुर्भाग्य ने रास्ता रोक लिया। मालिक-मकान उस समय किसी ब्याह से वापस आ रहा था। उसने मुझे दौड़ते हुए देखा तो कड़ककर कहा,‘कौन है?’
मेरा लहू सूख गया। कुछ उत्तर न सूझा। गिरफ़्तारी के भय ने मुंह बन्द कर दिया। मेरे चुप रहने से मालिक मकान का सन्देह और भी बढ़ गया। ज़रा तेज़ होकर बोला,‘तू कौन है?’
झूठ बोलना भी सहज नहीं। इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है मैं अबके भी उत्तर न दे सका। मालिक-मकान मुझे गर्दन से पकड़ कर उसी कमरे में वापस ले गया, और मेरे हाथ में नोटों का पुलन्दा देखकर आगभभूका हो गया। सहसा उसकी दृष्टि अलमारी की ओर गई, जो किसी के दुर्वासनामय हस्तक्षेपों का साक्ष्य थी। उसने मुझसे नोट ले लिए, और मेरे हाथ-पांव बांध
कर मुझे एक कोने में डाल दिया।
दूसरे दिन मुक़द्दमा पेश हुआ। मैंने प्रारम्भ ही में अपराध स्वीकार कर लिया। दो वर्ष कारावास का दण्ड मिला। परन्तु मेरे लिए वह दण्ड मृत्यु से कम न था। मेरी स्त्री और बच्चे का क्या होगा?
जब यह विचार आता तो जिगर पर आरा चल जाता, कलेजे पर सांप लोट जाता। वहां ऐसे कैदियों की कमी न थी जो दिन-रात आनन्द से तानें लगाते रहते थे। वह हंस-हंस कर कहा करते थे, हम तो ससुराल आए हुए हैं।
अफ़सरों की गालियां उनके लिए मां के दूध के समान थीं। मेरे लिए उनका संगत असह्य था। उनकी बातचीत मुझे विष में बुझे हुए बाणों के समान बुभती थी। मुझे उनकी आंखें देखकर बुखार चढ़ जाता था। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे मुझे खा ही जाएंगे। चिड़िया बाज़ों में फंसी थी।
इन भयंकर मनुष्यरूप बघेलों में रहकर ज्यों-त्यों करके दो वर्ष काट दिए, और घर की ओर चला। उस समय मेरे पांव तेज़ थे, परन्तु हृदय उदास था। पता नहीं, स्त्री और बच्चे की क्या दशा है। मकान पर पहुंचकर मैं सन्नाटे में आ गया। मेरी स्त्री का पता न था। सहसा विचार आया, वह अपने पिता के घर चली गई होगी।
जमादार! मेरे पास कुछ रुपए थे, जो मुझे छूटते समय मिले थे। वही मेरी पूंजी थी। मैंने बच्चे के लिए कुछ खिलौने ख़रीदे। और भागा-भागा अपनी ससुराल पहुंचा। परन्तु निराशा मुझसे पहले पहुंच चुकी थी। मेरी स्त्री यहां भी न थी। मैंने चाव से ख़रीदे हुए खिलौने तोड़ डाले, और सिर में मिट्टी डाल ली।
छः मास का लम्बा समय मैंने उसकी खोज में बिता दिया। परन्तु उसका कोई पता न चला। मैं मांगकर पेट भर लेता, और फिर उसकी खोज में लग जाता। रस्सी जल चुकी थी, अब उसका बल भी जल गया। हार कर मैंने अपना नगर छोड़ दिया, और यहां आकर रहने लगा। मेरी आशाएं मर चुकी थीं; मन टूट गया था। पाप ने सिर उठाया। कुछ लुच्चे-लफंगे साथी मिल गए, मैं बहाव में बहने लगा।
जमादार! मैं अब पहला बिशनदास न था। मेरा हृदय धर्म को छोड़ कर अधर्म का अखाड़ा बन गया, पापों का भारी बोझ उस पर पड़ने लगा। इस पाप-भूमि की ओर देखकर कभी मेरा हृदय कांप जाता था। परन्तु अब ऐसा प्रतीत होता था, मानों इसके चप्पे-चप्पे से मैं परिचित हूं। मैं जुआ खेलता था, शराब पीता था, चोरी करता था, परन्तु लोग मुझे भलमंसी की मूर्ति कहते थे। पीतल पर सोने का मुलम्मा था।
रात का समय था। मैं शराब के मद में चूर सौन्दर्य के बाज़ार की ओर जा रहा था। वहां, जहां कटाक्ष बिकते हैं और कुलीनता के गले पर छुरी चलती है, जहां विनाश नाचता है और पाप जीवित जाग्रत रूप धारण करके तालियां बजाता है। रात अधिक चली गई थी। चारों ओर सन्नाटा था। सहसा एक मकान की बैठक से गाने की सुमधुर तानें सुनाई दीं। मैं तेज़ी से ऊपर चढ़ गया। परन्तु अभी कमरे में न पहुंचा था कि किसी ने कलेजे पर धधकते हुए अंगारे रख दिए। वह गानेवाली मेरी स्त्री थी, जिसने अपने सतीत्व को रुपयों की तोल बेच दिया था और मेरे सम्मान तथा मेरी कुलीनता को निर्दयता से पांव तले कुचल डाला था। दूसरे दिन मैंने उसे क़त्ल कर दिया।
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जमादार! अब कहो, यदि मैं अदालत में कह देता कि वह मेरी विवाहिता स्त्री थी तो क्या जोश और आत्मसम्मान का उज्र इस फांसी की रस्सी को मेरे गले से वापस न खींच सकता था? मुझे आठ-दस वर्ष का कारावास हो जाता, अथवा अधिक से अधिक काले पानी का दण्ड हो जाता। यह सब सम्भव था, परन्तु क़ानून मुझे मृत्युदण्ड कदाचित् नहीं दे सकता था। इसे मैं पूर्णतया समझता हूं। परन्तु मेरे दिल ने इसे पसन्द नहीं किया कि मैं भरी अदालत में अपनी स्त्री के पाप को प्रकट करके उसे कलंकित करूं। और वैसे भी मेरा जी अब इस असार संसार से ऊब गया है। जीवन के थोड़े से वर्षों में बहुत कुछ देख लिया। अब शेष क्या है? हां, तुमसे एक बिनती करता हूं। हो सके तो जो भारतीय लोग भूखे मरते हुए भी अपने बच्चों का ब्याह करना पुण्य समझते हैं, उनको जीते जी नरक में ढकेल देते हैं, उनके विरुद्ध आवाज़ उठाना। मेरा जीवन ऐसा दुःखमय न होता और मुझे इस यौवनकाल में डाकुओं और हत्यारों का-सा दण्ड न दिया जाता, यदि मेरे माता-पिता स्वयं भूखे मरते हुए भी मेरा
ब्याह न कर देते, और फिर मुझे भी उसी गड्ढे में न ढकेल देते। इस अपमृत्यु का कारण उन्हीं की मूर्खता है।
जमादार रोने लगा। यह विनती कैसी शोकमयी थी, मरते हुए युवक की अन्तिम अभिलाषा, टूटे हुए हृदय की करुणामय पुकार, परन्तु सच्चाई से भरपूर।
दिन के आठ बजे अभागे बिशनदास की लाश फांसी पर लटक रही थी, परन्तु उसके टूटे हुए हृदय के शब्द अनन्तकाल तक गूंजते रहेंगे।