एक दिन लेबर-रूम में (कहानी) : जिलानी बानो
Ek Din Labour-Room Mein (Story in Hindi) : Jilani Bano
‘‘नेक्स्ट!’’
‘‘क्या हुआ है तुम्हें?’’
वह मर्द की तरफ़ देखती है।
मैं समझ गई। अपने दिल की बात कहने का अख़्तियार वह हमेशा किसी और को देती है।
औरत का गोश्त काटनेवाला चाकू, रगें चीरनेवाली क़ैंची और बेहोश करनेवाली दवाएँ थामे, मैं दिन-भर लेबर-रूम में खड़ी रहती हूँ।
डॉक्टर रेड्डी का काम है कि वह मरीज़ औरत की इब्तदाई (आरम्भिक) रिपोर्ट तैयार करें।
मगर इन रोती-चिल्लाती हुई औरतों से बोर होकर मुझे घूरते रहते हैं। उनकी मक्खी की तरह भिनभिनाती हुई नज़रों को झटककर मैं फिर औरत की तरफ़ मुड़ जाती हूँ।
‘‘डॉक्टर! इसे बच्चा नहीं चाहिए। चार महीने चढ़ गए हैं’’, उसका साथी मर्द कहता है।
‘‘इसे क्या चाहिए?…’’ वह कुछ नहीं कहती!
‘‘शादी को कितने दिन हुए हैं…?’’ मैं रजिस्टर खोलकर औरत से पूछती हूँ, जो इस सवाल का जवाब मर्द से चाहती है।
उन दोनों की घबराहट देखकर मैं अपना रजिस्टर बन्द कर देती हूँ।
‘‘बहुत देर हो गई है। अब रहने दो।’’
‘‘हाँ, यह ठीक है। अब रहने दो,’’ औरत ख़ुश होकर मर्द की तरफ़ देखती है।
‘‘नहीं-नहीं, डॉक्टर!’’ मर्द घबरा जाता है, ‘‘यह बहुत कमज़ोर है। इसलिए मैं चाहता हूँ…यह चाहती है कि…कि…’’
हाँ, यह बहुत कमज़ोर है। मैं फिर औरत की तरफ़ देखती हूँ, और मुझे निकाहनामा की वह शराइत (शर्तें) याद आ जाती हैं, जिन पर ज़मीन, कार और औरत ख़रीदते वक़्त दस्तख़त किए जाते हैं…इतनी रक़म सिक्का-ए-राइज-उल-वक़्त…इतने गवाहों की मौजूदगी में इक़रार करती हूँ कि बिल जब्र व इक़राह…
और फिर…
ख़ुदा तुम्हें शौहर की इताअत (अधीनता) और ख़िदमत करने की सआदत (सौभाग्य) नसीब करे। तुम्हारी जो औलाद होगी, उसके होने, न होने का अख़्तियार तुम्हारे शौहर को होगा…
‘‘सिस्टर, इसे ऑपरेशन-थिएटर में ले जाओ!’’ डॉक्टर रेड्डी सिस्टर से कहता है।
‘‘आप यहाँ दस्तख़त कर दीजिए!’’ डॉक्टर रेड्डी एक मर्द है, और ऐसे मौक़े पर वह एक मर्द की ज़ेहनी अज़ीयत (मानसिक यातना) को समझता है।
औरत को ज़बर्दस्ती ऑपरेशन-थिएटर ती तरफ़ ढकेल देते हैं।
मैं ऑपरेशन-थिएटर में आई, तो बेहोश पड़ी थी। ख़ुद-सुपुर्दगी (आत्म-समर्पण) के तमाम अन्दाज लिये…
औरत का यह रूप मैं दिन में कई बार देखती हूँ। अपने बदन से दस्त-बरदान (परित्याग) हो जाने की मजबूरी…जैसे चाहो, खेलो…झँझोड़ो…रौंद डालो…चीर के फेंक दो…
अब वह ऑपरेशन के बाद होश में आएगी, तब भी सोई-सोई-सी लगेगी।
दुनिया को एक बार फिर पहचानने की कोशिश करेगी, जो उसकी समझ में कभी नहीं आती।
हर तरफ़ एक फीकापन लगेगा, जैसे सतरंगे ख़्वाबों का कच्चा रंग आँसुओं की धार से बह गया हो। हर चीज़ ख़ाली लगेगी। अपनी कोख से लेकर सारी दुनिया पर छाए हुए आसमान तक…अब वह पल-भर मरती रहेगी…उसी अधूरे बच्चे को ख़्वाबों में बड़ा करने, उसे एक बा-अख़्तियार हुक्म चलानेवाला मर्द बनाने से दुख सहती रहेगी..
‘‘इसके साथ आनेवाला मर्द इसका पति नहीं है!’’
ऑपरेशन करते वक़्त सिस्टर कह रही है। शायद वह सिस्टर को उस मर्द से अपना वह रिश्ता नहीं समझा सकी, जो उन्हें एक ज़माने तक एक दूसरे से लिपटाते, चिमटाते रहा। वह रिश्ता, जिसे औरत अपना प्यार, अपना बदन देकर भी कोई नाम नहीं दे सकती। अब उनके दरम्यान एक शर्मनाक रिश्ता है, जिसे तोड़ने के लिए उस औरत को ऑपरेशन-थिएटर में बेहोश कर दिया गया है।
मैं सिस्टर की बात का जवाब नहीं देती। मैं अपने हाथ में वह नश्तर थामे खड़ी हूँ, जो औरत की रग-रग को काट देता है। मुझे औरत के अन्दर छुपी साइंस की उस लेब को नाकारा कर देना है, जिसमें इंसान को ढालने का अमल मुख़्तलिफ़ डिपार्टमेंट्स से गुज़र के एक इंसान की तकमील (पूर्णता) करता है।
मैंने औरत के सारे परत खोल डाले। जब दिमाग़ तक पहुँची, डिस-एक्शन हाल के डॉक्टर ने हँसकर कहा था, ‘‘औरत का दिमाग़ खोलकर क्या करोगी? वहाँ उसका अपना कुछ नहीं होता!’’
और मेरे साथी स्टूडेंट्स हँसने लगे थे।
‘‘इसे लेबार्टरी भेजो। एबनार्मल केस है!’’ मैं ख़ून में लुथड़ा हुआ अधूरा बच्चा ट्रे में डाल देती हूँ, आगे बढ़कर डॉक्टर रेड्डी उसे अपने क़ब्ज़े में ले लेता है। अब यह बच्चा साइंस के तजुर्बों का शिकार होता रहेगा। साइकाटरिस्ट ज्ञानाकोलोजिस्ट, इस अधूरे बच्चे को घेर लेंगे…यहाँ से काटो, यहाँ से जोड़ो।
मर्द की तख़्लीक़ी (सृजन) कुब्बत (शक्ति) को ख़त्म कर दो। औरत की कोख में पहले झाँक लो। वह कभी अपनी जैसी किसी औरत को तो जन्म नहीं देगी!
अपने ख़ून-आलूदा (ख़ून-भरे) हाथ धोकर मैं सिस्टर से कहती हूँ, ‘‘नेक्स्ट!’’
एक पीले चेहरेवाली निढाल सी औरत बड़ा सा पेट लिये अन्दर आती है।
उसके चेहरे का कर्ब (तकलीफ़) देखकर मैं समझ जाती हूँ कि वह थोड़ी देर में सातवें या आठवें बच्चे को जन्म देनेवाली है।
‘‘यहाँ रजिस्टर में अपना नाम लिखिए,’’ डॉक्टर रेड्डी रजिस्टर उसके शौहर की तरफ़ बढ़ाता है।
वह एक ऊँचा पूरा सेहतमन्द आदमी है। बहुत नफ़ीस सफ़ारी सूट पहने किसी ऊँची कुर्सी पर बैठनेवाला!…
औरत को थामनेवाली यक़ीनन उसकी ननद है। एक अधेड़ उम्र की तेज़-तर्रार औरत। वह मुसलसल (लगातार) बोले जा रही है।
‘‘बिस्मिल्लाह करके अन्दर जाओ, भाभी! अल्लाह ने चाहा, इस बार लड़का ही होगा! तुम्हारे घर में उजाला हो जाएगा,’’ फिर वह मेरी तरफ़ देखकर बड़े अफ़सोस के साथ कहती है, ‘‘बेचारी के पाँच लड़कियाँ हो चुकी हैं। घर में अल्लाह का दिया सब कुछ है, मगर मेरे भाई के नसीब खोटे हैं। हम आपके पास बड़ी आस लेकर आए हैं, डॉक्टर…’’
यह सुनकर औरत चकराके गिरने लगती है।
‘‘जल्दी स्टेचर लाओ…’’ मैं जल्दी से झुककर माँ और बच्चे के दिल की धड़कन सुनती हूँ।
‘‘अरे…इसकी हालत तो ठीक नहीं’’, मैं घबरा जाती हूँ।
‘‘नहीं-नहीं, डॉक्टर…मेरे बच्चे को बचा लीजिए…’’ मर्द भी घबरा जाता है।
लेकिन बच्चे की डूबती नब्ज़ बता रही है कि वह बाप की क़हर-भरी नज़रों का सामना करने से पहले ही अपनी साँस रोक चुका है।
मरने से पहले बेटा पैदा करने को शहीद ख़्वाहिश औरत को बेचैन किए हुए है।
वह जाने क्या कह रही है…बहुत सी औरतों के होंठ हिलते हैं, मगर आवाज़ उनकी अपनी नहीं होती।
‘‘नेक्स्ट!’’
रेड्डी की नज़रोंवाली मक्खियों को मैं दोनों हाथों से दूर भगाती हूँ।
तीन लड़कियाँ एक साथ अन्दर आईं। तेरह-चौदह बरस की। एक ही स्कूल के यूनिफ़ार्म पहने, बाल बिखरे, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ाती। ख़ौफ़ और घबराहट के मारे वे एक दूसरी में छुपी जा रही थीं।
तीन कसमिन लड़कियों को देखकर शहद की मक्खियों ने अपना रुख़ बदल दिया।
‘‘डॉक्टर रेड्डी! प्लीज़ चन्द मिनट के लिए बाहर चले जाइए!’’
इस उम्र की लड़कियों को आम तौर पर कमर में दर्द और नामानूस (अपरिचित) अजनबियों का ख़ौफ़ बीमार कर देता है। वे लड़कियाँ एक दूसरी को ढकेल रही हैं। कोई आगे नहीं बढ़ती। उनमें सबसे छोटी ख़ूबसूरत सी लड़की दीवार की तरफ़ मुँह करके रोने लगी।
‘‘ए छोकरी! जल्दी आओ। टाइम जा रहा है,’’ सिस्टर उन्हें डाँट रही है।
उनकी घबराहट देखकर मैं रोनेवाली लड़की के पास आई।
‘‘कुछ गड़बड़ हो गई है क्या?…कितने दिन हुए हैं?’’
वह घबराकर मुझे देखती है और दोनों हाथों में मुँह छुपाकर रोने लगती है। फिर उसकी सहेली मुझसे कहती है, ‘‘डॉक्टर, हनी ने कुछ नहीं किया। वह जो टीचर शाम को स्कूल में स्पेशल क्लास लेता है न…वह…वह…’’
‘‘फिर तुमने अपनी मम्मी को नहीं बताया, डैडी से शिकायत नहीं की?’’ हनी सिर झुकाए खड़ी है।
‘‘वह टीचर कहता है। किसी से कहा, तो बदनाम हो जाओगी। फिर तुमसे कोई शादी नहीं करेगा। हम तीनों सबसे छुपकर यहाँ आई हैं!’’
दूसरी लड़की ने कहा, ‘‘हमारे पास पैसे भी नहीं है, डॉक्टर!’’
‘‘इधर आओ…’’
मगर वह लड़की आगे नहीं बढ़ती। उसकी सहेली कहती है, ‘‘हनी ऐसा बोलती कि अब मैं मर जाऊँगी।’’
मैं बड़े ग़ौर से हनी को देखती हूँ। बारह बरस की एक बच्ची, जो अभी मर्द की मुहब्बत और ममता की लज़्ज़त नहीं जानती, लेकिन मौत का रास्ता ढूँढ़ चुकी है।
‘‘तुम मरना क्यों चाहती हो?’’ ऑपरेशन-थिएटर में उसे बेहोश करने से पहले मैंने पूछा।
‘‘मैं इस दुनिया में नहीं रहूँगी, जहाँ मर्द हैं,’’ वह ख़ौफ-भरे लहजे में कहती है।
‘‘पगली…’’ मैंने बड़ी मुहब्बत से उसके सिर पर हाथ रखा। ‘‘दुनिया में सब मर्द वहशी नहीं होते! तुम जब बड़ी हो जाओगी, तुम्हें मर्द का प्यार और एतबार भी मिलेगा!’’
‘‘आख थू…’’ उसने टेबल पर क़ै कर दी।
नफ़रत और दहशत से काँपती हुई हनी को चीरके मैंने उस अधूरे बच्चे को ट्रे में डाला, जो एक क्वाँरी के पेट से निकाला गया है। अब ख़ुदा का क़हर, समाज की थू-थू-थू और क़ानून की गिरफ़्त उसे चारों तरफ़ से घेर चुके हैं।
‘‘क्या हनी एक इस्मत-बाख़्ता (वेश्या) लड़की है…’’ यह सवाल मज़हब भी करेगा और दुनिया भी…
अदालत में और अदालत के बाहर तमाम वकील, जज, तमाशबीन, इस लड़की की एक झलक देखने को बेक़रार हो जाएँगे, जिसने सिर्फ़ तेरह बरस की उम्र में…
‘‘क्या नाम है…? कहाँ रहती है?…’’
हनी के ख़ून में डूबे हुए हाथ धोकर मैं चिल्लाती हूँ, ‘‘नेक्स्ट!’’
स्ट्रेचर पर एक ख़ून में डूबी हुई औरत अन्दर लाई जाती है। उसके साथ एक हवास-बाख़्ता (परेशान) मर्द है। एक बूढ़ी सास, एक ख़ौफ़ से काँपता बुड्ढा…
‘‘यह ज़ीने से गिर पड़ी थी, इसके ऊपर पत्थर आन गिरा…नहाते में पाँव फिसल गया…’’
‘‘क्या पेट में बच्चा अभी ज़िन्दा है? लड़का है या लड़की?’’ मर्द बार-बार पूछ रहा है।
‘‘डॉक्टर इसे किसी तरह होश में लाओ! इसका बयान नोट करना है’’, एक ख़ातून इंस्पेक्टर अपनी डायरी थामे अन्दर आती है।
औरत के साथी इंस्पेक्टर को देखकर बाहर जाना चाहते हैं, मगर दरवाज़ा बन्द है।
मैंने औरत की छाती पर स्टेथेस्कोप रखा।
‘‘इसे पोस्टमार्टम के लिए ले जाओ। लेबर-रूम में लाश क्यों लाए हो?’’
‘‘अरे! कौन सी औरत मर रही है? कौन ज़िन्दा है? हमें क्या पहचान जी!’’ स्ट्रेचर ढकेलनेवाला मेल-नर्स गुस्से में कहता है।
‘‘जब ठंडी हो जाती है, तो साले हमारे तरफ़ ढकेल देते हैं!’’
वार्ड के बाहर ज़ख़्मी औरत का तमाशा देखने के लिए हुजूर इकट्ठा हो गया है।
‘‘मर गई…’’ वे सब एक-दूसरे की तरफ़ इत्मीनान-भरी नज़रों से देखते हैं, और उसका मर्द जल्दी से एक चादर लेकर उसकी तरफ़ बढ़ता है। ड्रामे का आख़िरी पर्दा उसी को गिराना है, मगर औरत की घूरती हुई आँखों को देखकर पीछे हट जाता है।
पुलिस-इंस्पेक्टर, डॉक्टर रेड्डी, मर्द के रिश्तेदार, जो भी उसके क़रीब जाते हैं, वह उन्हें घूरने लगती है।
‘‘अब इसका पोस्टमार्टम भी कैसे होगा? बदन का कोई हिस्सा भी टूटने से नहीं बचा है!’’
सिस्टर बेज़ान होकर कहती है, ‘‘सिर बच गया है। शायद डॉक्टर इसी को खोलकर देखें।’’
‘‘नहीं जी…’’ डॉक्टर रेड्डी मुस्कुराके मेरी तरफ़ देखते हैं।
‘‘औरत के दिमाग़ का पोस्टमार्टम नहीं करते हैं।’’
‘‘नेक्स्ट…नेक्स्ट…।’’
मगर अब शहद की मक्खियाँ मेरे पूरे बदन को डस रही हैं।
औरत की रगें काटनेवाली कैंची, मेरे हाथ से छूट गिरी है…बेहोश कर देनेवाला इंजेक्शन मेरी रगों में घुल रहा है और मैं दोनों हाथों से शहद की मक्खियों को ढकेलते हुए चिल्ला रही हूँ :
‘‘नेक्स्ट…नेक्स्ट!!’’