एक दिन... कभी तो (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Ek Din...Kabhi To (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
उनके बीच का प्यार ऐसा
कोई खास प्यार न था कि...
दोनों
ही परिवार के बीच दोस्ती के ताने-बाने पारिवारिक रिश्तों की तरह ही थे। दो
घरों के बच्चों के बीच बचपन से ही आपसी प्यार का जो सहज सम्बन्ध बन जाता
है...उतना ही।
इससे न ज्यादा...न कम।
इस
घर के बच्चे उस घर में पतंग उड़ाते या फिर उस घर के बच्चे इन लोगों के घर
आकर सहन में कंचे खेलते...इसमें किसी को न तो कोई हैरानी ही होती और न ही
कोई शिकायत। और इसी तरह कोई इस बात को अन्यथा न लेता था कि इस घर की अलका
ने उस घर के अशोक को एक जोड़ा रूमाल सिलकर दे दिया या कि उस घर के अशोक ने
इस घर की अलका को उपहार में कोई चीज दे दी।
बस इतना ही। जैसा सुयोग
और अवसर मिला वैसा और उतना ही सम्पर्क और निबाह।
उपहार में मिली पुस्तकों
से कहीं भूख मिट सकती है भला!
यह
अशोक का ही दायित्व था कि जैसे भी हो....अलका के लिए किताबें जुटा देना।
लेकिन उस किताब की कीड़ी के लिए येन-केन-प्रकारेण...चाहे जितनी किताबें
लायी जाएँ...कम पड़ती थी।
''तेरी
खातिर तो मुझे दो-चार पुस्तकालयों का सदस्य बनना पड़ेगा,'' अशोक ने चुटकी
लेते हुए कहा, ''सिर्फ दो पुस्तकालयों की किताबों से इस कुम्भकरणा की भूख
मिटाना मुश्किल है।''
अलका तन गयी,
"कुम्भकरणा...टरणा...जो मन में आए, मत कहना अशोक दा....वरना इस जनम में
कभी तुम्हारे घर कदम नहीं रखूँगी।''
''आये बिना रह पाएगी?''
अशोक छेड़ता।
''क्यों नहीं रह
पाऊँगी....। घर में काली सिंह वाली महाभारत पड़ा है, बैठी-बैठी पढ़ती
रहूँगी।''
''ठीक है....ठीक
है''....अशोक उसकी खिल्ली उड़ाता हुआ कहता, ''ईश्वर ने
तुझे
इतनी सुबुद्धि भी दी है...यह जानकर बड़ी खुशी हुई। और सच भी है...खामखाह
ढेर सारे उपन्यास और नाटक पढ़ने की क्या जरूरत है...पागल होना है।
'परिणीता'...'परिणीता' रटती हुई कैसी जान देने को आमादा थी...वही जानलेवा
उपन्यास ले आया था...मारो गॉली...वापस लौटा दूँगा।''
बस...इसके
बाद कुछ रुक नहीं सकता। और अलका हाय...हाय कर उठती, ''ओ माँ...तुम भी बड़े
शरारती लड़के हो, अशोक दा...। तुमने उसे छिपा रखा है,'' और यह कहती हुई उस
पर झपट पड़ती और उसे नोचना-खसोटना शुरू कर देती। ऐसी कोई भी जगह नहीं छोड़ती
थी...जहाँ उसके मिलने की गुंजाइश हो सकती थी। इस छानबीन के दौरान तमाम
बिखरी चीजों को सहेजने में उसे ही घण्टा भर परेशान होना पड़ता था।
ये
सारी घटनाएँ घर के अभिभावकों की अनुपस्थिति में ही घटती हों...ऐसा भी नहीं
था। घर के लोग इन चुहलों को हल्के-फुल्के ढंग से ही लेते थे।
हालाँकि ऐसा भी नहीं था
कि उन लोगों के सामने न रहने पर कुछ घटित होता ही न था।
उदाहरण के लिए...उस दिन
की बात ही ली जा सकती है।
यह
पहले बैसाख की बड़ी अनमनी-सी शाम थी। अशोक तभी हड़बडाता-सा आया और उसने अलका
की माँ से पूछा, ''अलका कहीं गयी है, मौसी? कल ही बेचारी ने मर-खपकर
किताबों की एक लिस्ट मुझे दी थी और मैंने...क्या बताऊँ मौसी...धोबी के
यहाँ कमीज डलवा दी और उसके साथ ही...। बेचारी इस बात को सुनेगी तो खूब
हाथ-पाँव पटकेगी।...वह गयी कहां?''
''अरे
जाएगी कहां?'' अलका की माँ ने कुढ़ते हुए कहा, ''शाम हुई नहीं कि मजाल है
बेटी की चोटी कहीं दीख जाए। वहीं छत पर जाकर बैठी हुई है।''
''सारा
गुड़गोबर कर दिया...'' अशोक ने कहा, ''अब छत पर कौन जाएगा बाबा...। बैठी
रहे...उसकी किताब नहीं आनेवाली। मारे गुस्से के जान दे देगी...और क्या?
अलका...अरी ओ अलका!''
यह बताने की जरूरत नहीं
कि उसकी पुकार अलका के कानों तक नहीं पहुँची।
अशोक
ने अपना रुख फिर सहन की तरफ किया और कहा, "उसे इस घड़ी छत पर बैठने की क्या
जरूरत है? खाना-वाना पकाना, सब्जी काटना...यह सारा काम आपको ही करना पड़ता
है? आप बेटी को घर का कोई काम नहीं सिखातीं?''
''अलका
और घर का कोई काम? फिर तो उद्धार ही हो जाए।'' और इस बात की किसी भी
सम्भावना को छिन्न-भिन्न करते हुए अलका की माँ अपनी बिटिया रानी को बुलाने
लगी, ''अरी ओ कलमुँही...उतर भी आ छत से। अशोक आकर कब से खड़ा है। एक
लिस्ट-विस्ट क्या कुछ देना है तुझे...आकर दे जा। अलका...! अरी.. तू अब भी
बहरी बनी बैठी है, कुछ सुन नहीं पा रही?''
अशोक
ने कहा, ''इसमें उसकी कोई गलती नहीं है, मौसी! खींच-तानकर तीस-चालीस
किताबों की लम्बी-सी लिस्ट बनाकर वह एकदम निश्चिन्त होकर बैठी है। उसे पता
है कि मेरे आने भर की देर है। पता नहीं, एक ही दिन में दो-दो किताबें कैसे
चाट जाती है?''
''जुगाड़
हो जाए तो चाटेगी कैसे नहीं।'' अलका की माँ कहती है, ''तेरे जैसा भूतिया
बेताल जो मिला है।...मैं कह रही थी...अरी ओ अलका...ठहर, ये रोज-रोज छत की
मुँडेर पर इतमीनान से बैठे रहनेवाली आदत निकालती हूँ मैं।''
अशोक
ने कहा, ''आपकी यह कमजोर-सी आवाज तिनतल्ले तक नहीं पहुँचेगी, मौसी! आप
खामखाह परेशान हो रही हैं। जब तक उसकी चुटिया पकड़कर घसीटते हुए नीचे नहीं
लाया जाएगा...वह उतरेगी नहीं।''
उसकी चुटिया खींचने के
लिए ही अशोक छत पर जा पहुँचा था।
''अरे...तुम।'' अलका की
खुशी का ठिकाना न था, ''तुम अचानक छत पर!"
अशोक ने गम्भीर स्वर में
कहा, ''क्या करूँ? भूतिया बेताल जो बना दिया गया हूँ।''
''यह सब क्या अनाप-शनाप
बक रहे हो'' अलका ने झिड़क दिया, ''जो जी में आता है...।''
''मौसीजी
तो यही कहती हैं...और ठीक ही कहती हैं। मति है...गति है...आँखें हैं।
लेकिन उनके हिसाब में थोड़ी-सी कसर रह गयी है। भूत-बूत नहीं...बल्कि
चुड़ैल।''
''ओह...''
अलका परेशान-सी दीखी और उठ खडी हुई। इस छोटी-सी और बहुत ही सामान्य
हँसी-मजाक से भी वह भयभीत हो गयी थी।? दरअसल अशोक अपने होठों से ही नहीं,
अपनी आंखों से भी वही बातें कह रहा था।
आँखों
की भाषा बहुत बड़ी होती है...वह पल-भर में सामान्य को 'असामान्य' बना देती
है। है कि नहीं! और आँखों की अनदेखी करने की वजह से ही होठों पर इतनी-इतनी
बातें रखी गयी हैं। फिर बातों का बतंगड़ होता है और उसकी ओट ली जाती है।
ऐसा नहीं था कि डर अशोक
को नहीं था। और ऐसा न होता तो ऐसी बोलती-बोलती आँखें बिना कुछ कहे ऐसे ही
चुप न हो जातीं।
अलका
छत पर चटाई बिछाकर और कुछ नहीं...किताब ही पढ़ रही थी। अचानक उठते हुए उसकी
गोद में रखी किताब नीचे गिर गयी...। रवीन्द्रनाथ की चयनिका।
''क्या
पढ़ रही थी? अच्छा...काव्य।'' अशोक ने किताब को जल्दी से उठाया और फिर बीच
से खोलते हुए उसने बड़े ही सेब से पूछा, ''इन कविताओं के माने भी समझती
हो?''
''कैसे नहीं समझती? खूब
समझती हूँ...भगवान ने सारी-की-सारी बुद्धि तुम्हें ही नहीं सौंप दी है?''
''खैर, मेरी तो यही राय
है...वैसे अगर बता सकती हो तो...अच्छा यह पढ़कर बताओ...जरा मैं भी तो देखूँ
तुम्हारी सूझ और समझ।''
खुले हुए पन्ने की तरफ
देखते ही अलका का चेहरा दिख गया। उसकी जुबान पर जैसे ताला लग गया।
''क्यों...क्या
हुआ...? तू पढ़ नहीं पा रही? तू तो ठहरी भारी विदुषी। जो पढ़ना तक न जाने वह
माने क्या जाने...खाक। अब मैं समझ गया दिन में दो-दो किताब निचोड़ फेंकने
का सारा करिश्मा। आँखें दौड़ा लीं.. बस...यही न। अच्छा तो ले...मुझसे
सुन...मैं तुझे इसका मतलब समझा देता हूँ। कवि कहता है-
बस तुमको ही चाहा मैंने
शत रूपों में शत-शत बार
पिछले कई-कई जनमों में
युगों-युगों से कितनी
बार...1
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1 तोमारेई जेन भालोवासिया
छि....शत रूपे शत बार
के जुगे अनिवार। चिरकाल
धेर....(-रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
...अलका
में इतना साहस नहीं रह गया था कि वह सारी-की-सारी पंक्तियों को सुने और
इनके माने गुने।...बेचारी अलका...चौदह-पन्द्रह साल की। दौड़कर नीचे भागी।
चौदह-पन्द्रह
साल की नायिका की बात सुनकर हँसनेवाली कोई बात नहीं है। हालाँकि यह घटना
इस जमाने की नहीं, उस दौर की है। तब सिर्फ तेरह साल की ललिता2 अपनी कमर
में चावी का गुच्छा खोंसकर पाठकों का हृदय जीत लिया करती थी।
2. ललिता : रवीन्द्रनाथ
की प्रसिद्ध नायिका।
हालाँकि ऐसी सुविधा और
सुयोग सबको नहीं मिल पाते।
''इसी
जनम में युगल मिलन बिन मिथ्या होगा जीवन''-जैसी अजीबो-गरीब बात के बारे
में दोनों में से किसी ने कभी नहीं सोचा था।...दोनों ही एक-दूसरे के विरह
में सारा जीवन खामखाह गहरी साँसें और लम्बी आहें भरते रहे...ऐसी झूठी
बातें ।
इन पंक्तियों की लेखिका
भी नहीं लिख सकती।
दरअसल
बात यह है कि इसके बाद उन दोनों मैं फिर कभी मुलाकात ही नहीं हुई। दुनिया
और दुनियादारी के जटिल जीवन-चक्र मैं एक चौदह-पन्द्रह साल की लड़की और एक
अठारह साल का लड़का अपनी कोशिशों के बावजूद कभी आमने-सामने नहीं हो सके।
दोनों
के ही मकान-मालिक ने इन दोनों मकानों को, मोटी रकम पाकर, किसी
इम्प्रूवमेण्ट ट्रस्ट के हवाले कर दिया। दोनों ही किरायेदार एक-दूसरे से
छिटककर शहर के दो विपरीत छोरों पर जा बसे।
अशोक के बारे में तो कुछ
पता नहीं चला।
हां,
अलका के बारे में मालूम है। उसके पिता खिदिरपुर डेक के आस-पास एक छोटे-से
घर में आ गये थे। और यहाँ आते ही उस आदमी के तो जैसे नसीब ही खुल गये।
पानी में डूबे एक जहाज को पानी के दाम खरीद लिया। और उसी पानी ने उसकी
सारी रामकहानी ही बदल दी। बड़ा-सा मकान खरीटा गया। नयी चमचमाती गाड़ी आयी और
बेटी का बड़े ही धूमधाम से विवाह किया गया।
विवाह
की रात उस छोरवाले भी दावत खाने आये। सिर्फ अशोक ही नहीं आया। उसकी बी. ए.
की परीक्षा चल रही थी। उसे दावत खाने जैसे वाहियात काम पर जाने की फुरसत
कहीं? चौबीसों घण्टे पढ़ता रहता है-कमरे की सिटकनी चढ़ाकर।
'विवाह
के दिन अशोक से मुलाकात होगी,' ऐसी एक आशा अलका अपने मन में सँजोये हुई
थी। उसके हृदय के आकाश में यह उजला-सा तारा टिमटिमाता रहा था...शादी की
रात तक।
अशोक दा के साथ भेंट नहीं
हो पायी...। निराशा के घने बादलों के साथ उसके दाम्पत्य जीवन की शुरुआत
हुई।
पति सुन्दर था और स्वभाव
का उदार।
प्रेम,
उदारता और क्षमा में उसकी कोई सानी नहीं। प्रसन्न मुख और सुदर्शन और
हँसने-हँसाने में बेजोड़। नयी-नवेली युवती पत्नी का हृदय किसी भी तरह के
संशय से मुक्त था और सुख-भरे सोहाग से उसका जीवन आलोकित हो उठा था।
बस...नीले आकाश के एक कोने में हल्के उदे बालकों की तरह ही उसके मन में भी
निराशा के बादल छाये रहे।
साल-पर-साल बीतते चले गये।
यौवन
के नये-नये उत्साह से तारुण्य छलकता रहता है और यौवन की परिणति अनिवार्य
तौर से गम्भीरता में हो जाती है।...और अब आज की...चालीस साल वाली अलका में
उस चौदह साल वाली बेवकूफ-सी अलका की तलाश करना उससे भी बड़ी बेवकूफी
होगी। उसका नाम 'अलका' था...यह बात भी अब किसी के मन में सहज ढंग से नहीं
आती होगी। खुद उसके मन में भी नहीं। और नाम लेने-देने की जरूरत भी किसे
पड़ी है।
लेकिन तो भी एक छोटा-मोटा
पालगपन तो रह ही गया है।
आखिर
इतने दिनों का...एक बेमतलब-सा ही सही...अभ्यास जो ठहरा। गाहे-ब-गाहे और
नामालूम ढंग से इस बात की एक अछूती-सी याद...''उससे कभी मुलाकात नहीं हो
पायी।''
है न...सचमुच एक अजीब-सी
बात।
सोचते
हुए भी अलका को बड़ी हैरानी होती है। समय के इस लम्बे अन्तराल में
कभी...किसी दिन क्या कभी भेंट नहीं हो पाएगी? भाषा की दुनिया में
अप्रत्याशित...आकस्मिक.. सहसा...हठात्...अचानक जैसे शब्द आखिर हैं किसलिए?
क्या किसी के साथ अकस्मात् भेंट नहीं हो जाती?
बहुत-से
ऐसे लोगों के साथ जो थोड़े-बहुत परिचित हैं, चाहे-अनचाहे भेंट हो जाया
करती है, जो वर्षों से नहीं दीखे या मिले...अचानक...बसों में, ट्राम में,
सिनेमा हॉल में, सार्वजनिक पूजा-स्थलों में, दूकानों-पार्कों में, स्टेशन
में, शहर के बाहर...। लेकिन वही एक चेहरा...दुर्लभ हो गया? पिछले छब्बीस
वर्षों के दौरान उस आदमी की छाया तक आँखों में नहीं पड़ी। और सबसे हैरानी
की बात यह है कि दोनों एक ही शहर में रहते हैं। अगर कोशिश की जाए तो
पता-ठिकाना भी प्राप्त किया जा सकता है। उसका पता जुगाड़कर अचानक उसके घर
हमला बोल दिया जाए और पूछा जाए...क्या बात है अशोक दा...एकदम बिसरा ही
दिया...अपने मन से!
इसमें बुराई क्या है?
''सचमुच...आखिर इसमें
क्या बुराई है? चले चलते हैं। इतना तो तय है कि अशोक की बीवी क्या तुम्हें
पीट नहीं देगी!''
यह
राय अलका के पति देवेश की है। अलका के हृदय में अशोक के लिए जो कमजोरी रही
है...देवेश को इस बारे में पता है। अपनी कच्ची उम्र में ही पति के प्रति
पूरा विश्वास रखते हुए उससे एक बचपना हो गया था और अलका ने अपने प्रथम
प्रेम की रंगीन कथा के बारे में देवेश को बता दिया था। और साथ ही यह
आक्षेप भी करती रही थी, ''हैरानी की बात नहीं...उस आदमी के साथ फिर कभी
भेंट तक नहीं हुई?''
अभी भी जब कभी उसकी बात
चलती है तो वह कहती है ''जो भी कहो...अब भी उसके साथ एक बार मिलने की
इच्छा मेरे मन में जरूर है।''
और यह बात कभी-कभार उठ ही
जाती है।
देवेश
भी इस मामले में अलका को छेड़ता रहता है। अशोक दा नाम देवेश के लिए एक
चलता-फिरता मुहावरा बन गया है। अगर वह कभी खिड़की या बरामदे पर देर-अबेर
खड़ा दीख जाती तो वह उसे कुरेद देता, ''बात क्या है...रास्ते पर अशोक दा तो
नहीं खड़े? दो नयन गड़े वातायन पर....कव सै अपने साजन पर...''
अलका
गुस्से में भरकर वोलती, ''हां, बात वही तो है। वह रोज इसी घड़ी चिलचिलाती
धूप में फुटपाथ पर आकर खड़ा हो जाता है।....और मैं दया और करुणा की मूर्त
बनी उसे दर्शन देती हूँ।"
रास्ते
में...ट्राम या वस पर आते-जाते गाहे-व-गाहे अलका को चिढ़ाना देवेश के लिए
एक दिलचस्प-सी चीज हो गयी है। हालाँकि देवेश...अलका पर हावी नहीं हो पाता
लेकिन उसे छेड़ना नहीं छोड़ता। उन दोनों के इस स्वच्छन्द दाम्पत्य जीवन में
अशोक को भी एक भूमिका मिली हुई थी। हालाँकि तह ऐसी कोई विशिष्ट नहीं थी
लेकिन अपरिहार्य भी नहीं थी।...ठीक वैसी ही और उतनी ही जितनी कि भोजन में
थोड़े-से नमक की और पान में चूने की होती है। कभी किसी वातचीत, छेडु-छाडु
को थोड़ी-सी दिलचस्पी बढाने या बनाये रखने के लिए। और जितनी की जरूरत है,
उससे थोड़ा-सा भी ज्यादा व्यवहार करने की कोई इच्छा भी नहीं है।
हो
सकता है....ट्राम पर बैठी अलका अपनी ननद के यहाँ अलीपुर जा रही हो...सम्भव
है एक तरफ की भीड़ छँट गयी हो और देवेश अचानक ही एकदम हौले से बोल उठे,
''देखो....वह....उस आदमी के पास खड़ा आदमी तुम्हारे अशोक दा तो नहीं? कब से
देख रहा हूँ...तुम्हारी तरफ मुँह बाये खड़ा है।"
अलका
चौंककर उधर देखने लगती है। उसके सीने में आशा का तूफानी ज्वार-सा उठता
है।...लेकिन दूसरे ही क्षण वह अपनी त्योरी चढ़ाकर कहती है, ''किसी भले आदमी
की तरह अपनी बातों में थोड़ी-सी सचाई और सादगी लाना तो सीख लो।''
''ठीक
है...वैसे यह मजाक बुरा नहीं है। मैं ठहरा असभ्य और जंगली...है न! और वह
आदमी जो लगातार तुम्हारी तरफ घूरे चला जा रहा है...वह बड़ा भला है। मैंने
सोचा, हो सकता है वही तुम्हारा 'वो' हो। अगर वह 'वों' न होता तो इस तरह
ताक नहीं रहा होता।"
अलका
अपनी हँसी को रोकती हुई गम्भीर स्वर में कहती है, ''दरअसल मेरे घर से बाहर
निकलने पर लोगों को बड़ी हैरानी होती है और वे मेरी तरफ मुँह फाड़ देखे बिना
रह नहीं सकते। आखिर वही तो हैं जो अपना बड़प्पन बनाये हुए हैं जबकि मेरा
'वो' ऐसा नहीं है।''
''इस दौरान तुम्हें पता
भी है...तुम्हारा 'वो' क्या से क्या हो गया हो।''
''रुको भी...ज्यादा बकबक
मत करो। वह आदमी देख रहा है।''
इसी तरह किसी पूजा-मण्डप
या ऐसे ही किसी समारोह-स्थल में या भीड़-भाड़
में
अगर अलका आँखों सें ओझल हो गयी हो...या कि देवेश थोड़ा आगे बढ गया या सम्भव
है दोनों ही एक-otसरे को ढूँढ़ रहे हैं....आगे-पीछे। और जब मुलाकात हो गयी
तो देवेश मस्ती में यह बोल बैठा, ''ओह....जान बची। मैं तो यही सोच रहा था
कि मेल की भीड़ में अचानक तुम्हें अपना 'पहला-पहला खोया प्यार' मिल गया है
और तुम मुझसे किनारा कर उसके साथ 'सटक सीता राम' हो गयी हो।''
''वाह...वाह...''
अलका ने छूटते ही कहा, ''तुम्हारी कल्पना-शक्ति बड़ी प्रखर है! मैं अपने
पहले प्यार को भले ही भूलकर निश्चिन्त हो जाऊँ लेकिन तुम उसै भूल नहीं
सकते। है न!''
''भला कैसे भूल सकता
हूँ"...देवेश बहाने बनाता और गहरी साँस लेकर कहता, ''क्या करने...कलेजे
में नटसाल जो किरकती रहती है।''
देवेश
ऐसा सरफिरा नहीं है कि अपने से आठ साल छोटे और हमेशा से ही अनुपस्थित एक
बालक को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझ लेने की गलती कर बैठे। और अलका भी पागल
नहीं है। लेकिन क्या इस बात में कोई सच्चाई नहीं है कि मेले की भीड़ में
और हजार-हजार की भीड़ में वह वहीं खो गया चेहरा नहीं ढूँढ़ा करती? राह
चलते....अचानक उसके पाँव नहीं रुक जाते। सिनेमा या नाटक से लौटते समय क्या
वह नहीं कहा करती है..."थोडी देर को रुको....जरा भीड़ छँट जाए'' और सीढ़ी
के एक ओर चुपचाप खड़ी-खड़ी एक-एक आदमी को बड़े ध्यान से निहारा नहीं करती है।
देवेश
अगर देर होने की शिकायत करता तो वह जवाब देती, ''दो-चार मिनट में ऐसा
कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा। मैं इस धक्कमपेल को नहीं झेल सकती।''
एक नशा ही है....और क्या?
यह
तो मुमकिन था ही कि घर-गृहस्थी के हजारों बन्धन में पड़कर यह नशा कब का
हिरन हो चुका होता, लेकिन ऐसा मौका मिला कहीं? बच्चे-कच्चे हुए नहीं। जीवन
का चेहरा और ढर्रा बहुत बदला नहीं...वह एक-जैसा ही रह गया।
निःसन्तान
पति-पत्नी। हर जगह...साथ-साथ जाना-आना लगा रहता है। देवेश की ममेरी बहन की
शादी के मौके पर सबेरे वाली गाड़ी से दोनों चन्दन नगर जा रहे थे। दूसरे
दर्जे के एक डब्बे में सामान वगैरह सहेजने के बाद देवेश ने अलका से पूछा,
''हां जी....उनकी शादी में दी जानेवाली साड़ी तुम कहीं घर पर ही तो नहीं
छोड़ आयी?''
''हां...यह तो वहीं रह
गयी।''
''हो गया न कबाड़ा....। अब
क्या होगा....तुम्हीं बताओ?''
''ढेरों उपाय हैं। चन्दन
नगर तो वैसे भी ताँत की साड़ी के लिए मशहूर है।''
''इसका क्या मतलब
हुआ...वहाँ जाकर फिर एक साड़ी खरीदनी पड़ेगी?''
''अब
जब गलती से रह गयी तो खरीदनी ही पड़ेगी।...लेकिन तुम उस बात को छोड़ो। मैंने
तुमसे अखबार साथ लाने को कहा था....तुमने लिया था? वह लिया नहीं। मुझे पता
था। सारी गलतियाँ तो मैं ही करती हूँ।''
ये
दोनों कोई नये शादी-शुदा तो हैं नहीं कि लोग इनकी बातों को ध्यान से सुनें
या इन्हें कौतूहल भरी नजर सें देखें। किसी ने देखा तक नहीं। लेकिन चूँकि
बात अखबार की की गयी थी इसलिए उन दोनों के सामने जो सज्जन अखबार में अपना
सिर दिये बैठे थे, उन्होंने अपने अखबार को एक बार तह किया....फिर लम्बा
किया और फिर हिल-डुलकर उसी में डूब गये।
लगता
है, वह यह सोच रहे थे कि वात अखबार की चली है, कहीं माँग न बैठें। उनका
चेहरा साफ दीख नहीं रहा....इसलिए तेवर का पता नहीं चल रहा। अखबार के ऊपर
से दीख रहा है, भौंहों के ऊपर तेल से चिकनाया गया एक चाँद।
पति और पत्नी के बीच अब
भी रुक-रुककर दबी जुबान में बातें हो रही हैं।
''लगता है इस आदमी को
कहीं देखा है...कहां?''
''यह दीख भी कहीं रहा
है...चाँद-सा चेहरा तो अखबार में बन्द है।''
''तो
भी...हाथ-पाँव-माथा-भौंह...ये सब जैसे पहचाने-पहचाने जान पड़ते हैं।''
''ध्यान सै देखो...क्या
पता....तुम्हारे 'वही' अशोक दा ही न हों''-देवेश ने वही अपनी पुरानी मीठी
चुटकी भरी मुस्कान भरी।
अलका
ने आहिस्ते से कहा, ''लगता है....ठीक ही कह रहे हो। वह गंजा-सा बूढ़ा भला
अशोक दा होगा। उसे फिर कभी देख ही नहीं पायी। मेरा नसीब ही ऐसा है। कैसे
खूबसूरत बाल थे उसके? रेशम जैसे। मैं क्या उसके प्रेम में ऐसे ही पड़ी थी?''
''तुम क्या समझती हो उसके
काले घुँघराले रेशमी बाल अब भी सही-सलामत है।''
''और नहीं तो क्या....सर
एकदम चटियल मैदान हो जाएगा। मारे जलन के तुम ऐसा ही सोचोगे....और क्या?''
थोड़ी देर तक चुप्पी बनी
रही।
देवेश तो जैसै छटपटा रहा
था। वह बोल उठा, ''अच्छा....एक बार उससे अखबार तो माँगकर देखो।"
थोड़ी देर तक फिर खामोशी
छायी रही। अलका रह-रहकर अचानक ही कुछ कह बैठती थी। पता नहीं क्यों....वह
इतना ऐंठा क्यों है?
समय बीता तो फिर उसने
उखड़ी हुई टिप्पणी की...'' आखिर ऐसी कौन-सी आफत आ पड़ी है अखबार में?''
''अरे तुम समझ नहीं रहीं?
अखबार हटाने पर उसका चेहरा तो पूरी तरह से दीख पड़ता।''
बात
यह है कि देवश घड़ी भर को चुप नहीं रह सकता। अलका गुमसुम बैठी रहे, यह उसे
पसन्द नहीं। बात को आग बढ़ाने लायक कोई नया मुद्दा है नहीं इसीलिए पुरनिा
बातों पर हँसी-मजाक को खींचा जा रहा है।
अलका उसे झिड़क देती है,
''इससे उसका क्या? उसका चेहरा देखकर तुम्हें कौन-सा पुरुषार्थ प्राप्त हो
जाएगा?''
''मुझे
भला क्या लेना-देना!'' देवेश की मुख-मुद्रा करुण हो आयी, ''सम्भव है इससे
तुम्हारा ही कोई फायदा हो जाए। कहा गया है न...'कब से परिचित चेहरा तेरा
लगता फिर भी अनजाना।'...मैं यही सोच रहा था''...
''मैं
कह रही हूँ चुप भी रहो। ऐसी उल्टी-सीधी बात मत करो। तुम्हैं कुछ होश नहीं
रहता कि कब और कहाँ कैसी बातें करनी चाहिए।...मेरे तो तन-मन में आग-सी लग
जाती है।''
हालाँकि ये सारी बातें
दवी जुबान हो रही थीं।
अखबार
के पाठक ने इस बीच अखबार को उल्टा और तहाकर छोटा कर लिया था। लेकिन परे
नहीं रखा...आगे पढ़ना शुरू कर दिया। अब उसमें झुके हुए चेहरे का अधिकांश
दीख पड़ रहा था।
अलका
ने उसकी तरफ एक बार देखा और फिर अपनी आँखें फेर लीं। अगले ही क्षण देवेश
चुटकी लेना शुरू करेगा। सचमुच...एक बार अच्छी तरह से देखकर भी यह सोचने का
अवकाश कहाँ मिला कि इस आदमी को कहीं देखा है...देवेश को इस बात से परेशान
होने की नौबत नहीं आयी। हालाँकि उसे अव ऐसा लगने लगा है कि उसने कहीं उसे
देखा तो नहीं है।
कब...?
कहाँ?
इस बात में सन्देह नहीं
रहा कि कहीं देखा है जरूर। वैसा ही गोल-गोल चेहरा...सलोना-सा...लेकिन उस
पर यह गंज?
काफी याद करने पर भी वह
कुछ याद नहीं कर पा रही थी।
लेकिन
तो भी जी में कुछ खटका-सा लगा रहा। बायीं भौंह के ऊपर उजले से कपाल पर
वैसा ही काला-सा तिल? कुछ परिचित-सा नहीं जान पड़ता? ऐसा ही चेहरा और
कहीं...किसी के यहाँ देखा भी है?
देवेश की चुलबुलाहट शुरू
हो गयी, ''पान वाली डिबिया तो साथ लायी ह न...?"
''अपनी जेब में हाथ देकर
देखा।"
''और जर्दा?''
''पता नहीं....। अपनी
चीजें तुम ठीक से सहज नहीं सकते?''
''अरे
वाप रें....एकदम फौजी मिजाज है। आखिर गयी कहाँ? देखा न....तुमने मेरी बात
नहीं सुनी? एक बात कहूँ....उस भले आदमी के सूटकेस पर लिखा है....ए...
मुखर्जी।''
मुखर्जी!
अलका
जैसे? मन-ही-मन चिहुँक उठी। और इसके बाद पूरी गम्भीरता से दोहराती रही....
अजित... अमल.... अवनी.... असित.... अपूर्व.... अनिमेष.... और.... भी....
अगड़म....अटकल....न जाने क्या-क्या....।
अ
से शुरू होने वाले इन ढेर सारे नामों में से किसी एक नाम का अधिकारी तो
किसी मुखर्जी परिवार में ही जन्म ले सकता है और अपनी सूटकेस पर 'ए...
मुखर्जी' नाम लिखवाकर घूम सकता है।
गाड़ी
जब श्रीरामपुर पहुँच रही थी तो वह भला आदमी भी, जिस पर काफी चर्चा होती
रही थी, अखबार मोड़कर उठ खड़ा हुआ। उसने सूटकेस को बायें हाथ से उठाया और
दाहिने हाथ मैं तह किया अखबार देवेश की तरफ वढ़ाकर मुस्कराया। आँखें मिलीं
तो उसने तपाक से पूछा, ''पढ़ेंगे?''
उस
आदमी की भद्रता के उत्तर में देवेश ने भी बड़े सौजन्य से मुस्कराया और
बोला, ''नहीं....इसकी अब जरूरत नहीं पड़ेगी। वस हम भी थोड़ी देर में उतर
जाएँगे।''
चौड़े
काले फ्रेम वाले चश्मे में खड़े इस लम्बे-चौड़े आदमी की मुस्कान उसके चेहरे
पर बड़ी जँच रही है। इस मुस्कान को बार-बार देखने की इच्छा होती है। उसकी
वही खूबसूरत-सी हँसी फिर एक सवाल करती है....''आप जा कहीं रहे हैं?''
''चन्दन नगर....मामा के
यहाँ।''
''मामा के घर....फिर तो
बडी प्यारी जगह जा रहे हैं?''
ऐसा
जान पड़ा कि अचानक अन्धकार का पर्दा नीचे...सरक गया है....ठीक वैसे ही
जैसे खिड़की के खुल जाने पर कमरे में प्रकाश फैल जाता है। अतीत की
स्मृतियों को झकझोर देने वाली बिजली कौंध-सी....!
नहीं....अब शक की कोई
गुंजाइश नहीं।
यह अशोक ही है।
दाहिनी भौंह के ऊपर काला
और चमकीला तिल एकदम साफ नजर आ रहा है।
एटल
तिल भी....क्या कोई छोटी-सी चीज है? एक भूले-विसरे चेहरे की पहचान करा
देने के लिए वह काफी नहीं? हालाँकि, अलका उस तिल को बरावर देखती रही थी
लेकिन उस तिनके का सहारा पाकर भी वह यह नहीं समझ पायी थी कि वह कोई और नहीं...अशोक ही है।
इतनी देर तक...सामने बैठकर भी समझ नहीं पायी...उसके चेहरे की तरफ ताकती
रही फिर भी ताड़ न पायी।
क्या अशोक उसे समझ पाया?
फिर
इस संसार में किसी का क्या बिगड़ जाता अगर अशोक अलका को नहीं पहचान पाता।
अलका के साथ कोई मोटा या महान मजाक नहीं भी करता तो इससे उसके
भाग्य-विधाता का क्या आता-जाता? अशोक अगर ऐसा कुछ न कहता तो इससे उसका
क्या बिगड़ जाता?
''अरे...अलका...तुम?''
''अशोक दा...। तम?'' मीठी
मुस्कान के साथ उत्तर।
रेलगाड़ी की भीड़ और
हिचकोले के बावजूद अलका ने नीचे झुककर अशोक को नमस्कार किया।
''अशोक दा!''
देवेश की आँखें-फटी की
फटी रह गयीं, ''अरे...सच...आप ही वह सुविख्यात अशोक दा हैं?''
''सुविख्यात...या
कुख्यात...? बात क्या है?''
''लीजिए...गजब
हो गया महाशय। आपको लेकर तो हम लोग...छी...छी...अलका...आखिरकार तुम ही हार
गयी। आप समझे जनाब! आपकी बचपन की सखी अभी मेरे साथ-नहस कर रही थी कि अशोक
दा भला इतने गंजे हो सकते हैं...कभी नहीं। लेकिन मुझे तो पहले से ही यह शक
था...कि...''
आदत से मजबूर देवेश
मजाकिया स्वर में यह कहने ही जा रहा था, 'देखा तो नहीं लेकिन वैसी की टेर
तो सुनी है।'...लेकिन कुछ कह न पाया।
इस बीच गाड़ी की सीटी बज
उठी।
रेलगाड़ी श्रीरामपुर
स्टेशन पर लग रही थी।
सिर्फ
एक मिनट का ठहराव। गाड़ी के प्लेटफार्म पर लगते ही अशोक उठ खड़ा हुआ और उसने
जल्दी से हाथ जोडकर कहा, ''अच्छा...नमस्कार। आपके साथ मुलाकात हुई...बड़ी
खुशी हुई...अच्छा तो अलका...मैं चलूँ। काफी दिनों बाद भेंट हुई...है न?''
और भला आदमी तेजी से नीचे उतर गया।
इसके
साथ ही गाड़ी चलने लगी थी।...और इसकी चाल के साथ ही पल भर मैं ही कलेजे में
टीस पैदा करते रहने वाले संगीत की एक सुमधुर गूँज खामोश हो गयी। एक वाली
थम गया वह स्वर।
रंगमंच
पर अभिनय के साथ पार्श्व में बजते रहने वाले संगीत की तरह। अलका के जीवन
के नेपथ्य में बजने वाला वह अनाहत सुमधुर संगीत, जिसने उसके जीवन को बड़ी
खूबसूरती से एक छन्द में पिरो रखा था, हमेशा-हमेशा के लिए थम गया।...बल्कि
वह छन्द ही बीच से टूटकर बिखर गया।
नहीं...अब
वह स्वर कभी नहीं बजेगा। वह छन्द फिर लौटकर नहीं आएगा। 'एक बार भेंट तक
नहीं हो पायी...'क्षण भर एक गहरी आह भरने की जो खुशी थी...वह भी छिन गयी।
'शायद...कभी...किसी
दिन...कहीं भेंट हो जाएगी, 'ऐसी उत्तेजना भरी आशा भी खत्म हो गयी।
हाय...यह जरूरी नहीं था
कि इस एक बार और भेंट हो ही जाती। अगर यह मुलाकात नहीं होती तो क्या कुछ
बिगड़ जाता।
यह
तो गनीमत है कि एक आदमी एक दूसरे आदमी के अन्दर झाँककर नहीं देख पाता।
अपने बनाने वाले विधाता की सारी निष्ठुरता और सारी गलतियों की अनदेखी कर
मनुष्य उसकी इस असीम दया के लिए माफ कर देगा शायद। अपने मन के अन्दर मचलने
वाले तूफानों को आदमी अपनी मुट्ठी मैं जकड़ लेता है।
तभी...अलका
ने हाथ बढ़ाकर देवेश की बगल से पान की डिबिया को उठा लिया और उससे पान का
एक बीड़ा वाहर निकालते हुई वोली, ''उसकी वह तोंद और गंज...। छी छी...में
पहचान तक नहीं पायी। सचमुच यह बड़ी शर्म की बात है। क्या करती? उसे पहचान
पाने का कोई उपाय ही नहीं था।''
''और
मुझे भला क्या पता था?'' देवेश हँसता हुआ बोला, ''मैंने तो उसे कभी देखा
तक न था। यह क्या...तुम पान को इस तरह मसलती क्यों जा रही हो? खाओगी
नहीं?''
''नहीं, सुख गया है यह।''
सचमुच...बुरी
तरह और पूरी तरह सूख गया है। वर्ना क्या यह सम्भव नहीं था कि काम का
नुकसान कर थोड़ी देर के लिए किसी का सहयात्री या हमसफर बन जाता? अलका जहाँ
जा रही थी...कम-से-कम वहाँ तक?
एक जरूरी काम था। क्या
कोई भी काम इतना भी जरूरी हो सकता है?
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)