एक बेवकूफ चिड़िया (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
Ek Bewakoof Chidiya (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena
“मैं नहीं चाहता कि एक बेवकूफ चिड़िया मेरे कमरे में आए और अपना घर बसाए।"
“घर बसाने से तुम्हें चिढ़ क्यों है ?” मेरी पत्नी की आवाज तन गई थी। मैं देख रहा था, कैसे बिना पूरी तरह समझे हुए उसने मेरे वाक्य में से अपने मतलब का अर्थ निकाल लिया था । औरतें जो चाहती हैं, उसे समझने में और जो नहीं चाहतीं, उसे न समझने में कितनी चतुर होती हैं।
“बेवकूफ चिड़िया !” वाक्य का पूरा अर्थ वह अपने आप समझ ले इसलिए यह टुकड़ा मैंने फिर धीरे से दोहराया। लेकिन वह बिना उस पर ध्यान दिए कहती रही - "सभी अपना एक घर चाहते हैं-सबको अपना घर प्यारा होता है !" अभी भी उसकी आवाज में तीखापन था ।
"लेकिन अपना घर बसाने के लिए दूसरे का घर कोई क्यों गन्दा करे ?” मेरे वाक्य को उसने जहाँ से पकड़ लिया था, शायद वह सूत्र छीनने के लिए मैंने धीरे से कहा था।
वह निरुत्तर थी । चुपचाप कार्निस की ओर देख रही थी। उसकी शान्त बड़ी आँखें जो कुछ वहाँ नहीं था, वह भी पकड़े हुए थीं ।
"कितनी कम जगह है !” उसके स्वरों में करुणा का भाव था ।
“उसी ने तो चुनी है। जगहें और भी हो सकती हैं, बेवकूफ चिड़िया !” मैंने कहा था।
वह उसकी रचना की तन्मयता से विभोर थी। मेरा कथन उसे भाया नहीं । मुझे लगा जैसे कोई बहुत बड़ी चुनौती उसके सामने है, वह जवाब खोज रही है, जवाब न सूझने की बेचैनी उसके मुख पर साफ दिखाई दे रही थी । मुझे लगा वह कहना चाहती है- 'बहुत कम में भी कुछ रच ले जाने का अपना एक अलग सन्तोष होता है जिसे स्त्री समझती है, पुरुष नहीं।' पर वह शब्द नहीं पा रही थी । आखिर लाचार होकर बोली, “उसे बेवकूफ क्यों कहते हो ? कितने कम में गुजारा कर रही है।"
'गुजारा !' - ठीक यही वह शब्द है जिससे मैं नफरत करता हूँ ।
"किसने कहा कि वह इतने से ही गुजारा करे ?” मेरी आवाज कठोर हो गई थी। क्योंकि यही वह शब्द था जिस पर मेरी पत्नी घूम-फिरकर टिक जाती थी । और जब भी वह शब्द का सहारा लेती थी, मैं अपने को पराजित अनुभव करता था। यह शब्द जीवन के वेग से हमें अलग करता था ।
"कहेगा कौन ? करना पड़ता है।" उसने हार नहीं मानी थी।
“बेवकूफ चिड़िया !” मैंने फिर दोहराया था। आवेश में उठ खड़ा हुआ था। मैंने कोने में रखी छड़ी उठा ली थी।
"फिर वही । उसका घोंसला तुम नहीं हटा सकते !" वह तमककर खड़ी हो गई थी। अपनी सारी शक्ति से मेरा मुकाबला करने को तैयार थी ।
"मैं हटाऊँगा। मैं नहीं चाहता इस घर में कोई और प्राणी इस तरह गुजारा करके मुझे छोटा बनाए।"
"तुम वह घोंसला नहीं हटाओगे !” उसकी आवाज तनाव से काँपने लगी थी। एक बेवकूफ चिड़िया के घोंसले के लिए वह मुझसे लड़ने को तैयार थी। मैं उसका वह रूप देख रहा था।
"मैं यदि इसे हटा दूँगा तो वह कोई अच्छी जगह चुन लेगी !” मैंने नरम पड़कर कहा था ।
"तुम कितनी बार हटा चुके हो, पर उसे यही जगह पसन्द है । तुम नहीं समझ सकते। यह बेवकूफी नहीं है, नियति है । कहीं-न-कहीं बँधना होता ही है। उसे जाने कैसे यह जगह पसन्द आ गई है, अब उसे इसे निभाना है। यहाँ से हटना हार मानना है। तुम देखना यह जीतकर रहेगी । यहीं इतनी ही जगह में मर-खपकर घोंसला बना ले जाएगी। यह उसका स्वाभिमान है, चाहे संकल्प कह लो इस पर नाराज मत हुआ करो। वह बेवकूफ ही सही, पर घर बसाने का धर्म जानती है। मैं समझा नहीं सकूँगी। उसके घर को तुम अपनी सामर्थ्य से नहीं, उसकी निष्ठा से परखो।”
मैं चुप हो गया था। वह निष्ठा मुझे उसकी आँखों में भी दिखाई दे रही थी । कितनी दीप्ति थी उन आँखों में चिड़िया तेजी में थी । अदम्य उत्साह से भरी हुई । उसे इतना भी होश नहीं था कि कितने तिनके टिक रहे हैं, कितने गिर रहे हैं। वह फुर्र से आती थी और चली जाती थी, फिर आती थी। मेरी पत्नी की आँखें चमक उठती थीं। तिनके बार-बार बिस्तर पर गिरते थे, जिस पर उसके साथ गुमसुम लेटा हुआ था, मैं उस सफेद धुली चादर पर बार-बार तिनकों का गिरना देखता था, लेकिन कुछ कह नहीं पाता था। मेरी उलझन वह समझ रही थी। काफी देर बाद धीरे से बोली, “उस सुख की कल्पना करो जो घोंसला बन जाने पर उसे मिलेगा। तुम्हें यह बुरा लगता है, मैं जानती हूँ, पर सह लो ।”
"एक गुजारा करे, एक सहे !" मेरी आवाज में जो दर्द था, उसने उसे चुप कर दिया था।
वह काफी देर तक कुछ सोचती रही, फिर बोली, “आखिर तुम चाहते क्या हो ?"
"मैं चाहता हूँ, तुम निष्ठा ही नहीं, सामर्थ्य को भी मानो । इसकी खोज खत्म हो गई है - निष्ठा सामर्थ्य का विराम बन गई है। एक फैली जगह पा लेने की सामर्थ्य उसमें है, पर निष्ठा के नाम पर वह अपने सामर्थ्य को पहचानने की शक्ति खो चुकी है। यह मैं सह नहीं पाता।"
"लेकिन कहीं तो खोज खत्म होगी ही ?"
"खोज वहीं खत्म हो, जहाँ सामर्थ्य खत्म होती है। "
इस बार चिड़िया के घोंसले का काफी भाग बिस्तरे पर गिर पड़ा था । वह तिनके जमाने के लिए लड़ रही थी। मेरी पत्नी चुपचाप उठी और तिनकों को समेटकर इस तरह फेंक आई, जैसे कोई पूजा के फूल फेंकता हो ।
उन्नीस वर्ष तक एक मौन समझौता हमारे बीच रहा। मैंने बेवकूफी स्वीकार कर ली थी । घोंसला नहीं हटाता था, यद्यपि गर्मियाँ शुरू होते ही उनसे तंग आ जाता था। बीच में एक दुर्घटना हुई। मुझमें आशा जगी कि इसके कारण जा सदमा उसे पहुँचा है, उससे शायद मेरी बात उसकी समझ में आ जाए।
बात यह हुई कि एक चिड़िया बड़ी विचित्र परिस्थिति में मरी हुई पाई गई। उसी कमरे में एक सुबह हम बैठे चाय पी रहे थे कि मेरी पत्नी की नजर खिड़की पर टिक गई। एक हल्की-सी चीख उसके मुख से निकल पड़ी और चेहरा जर्द पड़ गया। आँखों में अजीब-सा भय था ।
"क्या बात है ?" मैंने पूछा ।
“चिड़िया !”
जिधर वह देख रही थी, उधर मैंने देखा, पर कुछ दिखाई नहीं दिया । उसकी आँखों में इतना भय था कि मैं यह भी पूछने का साहस नहीं कर पा रहा था - 'कहाँ ?' मैं उसके और पास खिसक गया और उसकी दृष्टि जहाँ गड़ी थी, उधर फिर टटोलने लगा, पर कुछ दिखाई नहीं दिया। अपनी असमर्थता पर मुझे लज्जा आई ।
"वह देखो, उधर, परदे की सिलवटों में !" एक चिड़िया की लाश एक फन्दे में झूल रही थी। हमने खिड़की पर गर्दखोर भूरे रंग की पुरानी धोती के परदे डाल रखे थे। कोई व्यवस्था न होने से खिड़की की चौखट में वो कीलें गाड़कर सूत की एक पतली डोरी के सहारे परदे लटका दिए गए थे। धुलने के लिए निकालने में दिक्कत न हो, इसलिए डोरी में गाँठ की जगह सरकफन्दा ही लगा रखा था। चिड़िया की गर्दन उस सरकफन्दे में लिपटी कसी हुई थी। लगता है, ऐसा हुआ होगा कि घोंसला बनाने के लिए उसकी नजर सूत की डोरी पर गई होगी। उसे ले जाने की कोशिश में डोरी को चोंच में पकड़कर वह लटकी होगी, फड़फड़ाई होगी और किसी तरह फन्दा कस गया होगा। गर्दन के ऊपर डोरी जिस तरह ऐंठी हुई थी, उससे लगता था कि वह आखिरी साँस तक फड़फड़ाई है।
"यह आत्महत्या है...यह फन्दा उसकी निष्ठा ने लगाया है।” शायद यह कहकर मैं उसे चोट पहुँचाना चाहता था, पर उसने जैसे सुना नहीं। या हो सकता है, वह यह सुनना न चाहती हो। क्योंकि वह कह रही थी, "कितने दिनों से वह यहाँ मरी लटकी है, हमने देखा तक नहीं।"
"वह मरी ही इस तरह ।"
“अब क्या करें ?” एक निरुपाय कराह उसके मुख से निकली ।
"अभी हटवा देता हूँ। अब से कमरे में इनका आना-जाना बन्द । अपने ही कारण तुम्हें यह देखना पड़ा है । "
वह चुप थी। हथेलियों से आँखें बन्द किए बैठी थी बहुत देर तक उसी तरह बैठी रही।
इस बीच मैंने उसे हटवा दिया। वह सूखकर हल्की हो गई थी जैसे कागज की हो।
"तुम रो रही हो ?"
वह कुछ बोली नहीं, उसी तरह बैठी रही।
"क्या सोच रही हो ?"
"इतने दिनों वह यहाँ टँगी रही और हम सारे काम करते रहे।”
"नहीं, तुम कुछ और सोच रही हो ?” मैंने कहा ।
“नहीं !” उसकी आवाज काँपती हुई ढीली थी ।
"तुम पछता रही हो। तुम्हारी समझ में अब आ रहा है कि वह बेवकूफ थी।"
"नहीं, वह अपने घोंसले के लिए मरी है, वह बेवकूफ नहीं थी।" उसने नम आँखों पर से हथेली हटाकर तीखी और तिलमिलाई हुई आवाज में कहा था। उसकी आस्था से मैं सहम गया था।
फिर यह प्रसंग कभी दुबारा नहीं उठा।
मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई। इस बार जब चिड़िया घोंसला रखने लगी, मैं जान-बूझकर अनदेखा करता रहा। यद्यपि अब बेवकूफी स्वीकार करने की कोई विवशता मेरे सामने नहीं थी। मैं मुक्त था - कोई दलील मेरा रास्ता रोकने के लिए अब नहीं खड़ी थी। जो मैं ठीक समझता था, कर सकता था। जिस निष्ठा का उन्नीस वर्ष उसने समर्थन किया था, उसे एक क्षण में समूल उखाड़कर सामर्थ्य का झण्डा गाड़ सकता था। मुझे कोई रोकने वाला नहीं था, पर मैं सब-कुछ अनदेखा कर रहा था ।
उस दिन चुपचाप अकेला बिस्तरे पर पड़ा था और वह घोंसला रच रही थी । तिनके बिस्तरे पर गिर रहे थे, पर मुझे गन्दगी का ध्यान नहीं था । अब चादर उतनी सफेद भी नहीं थी। मैं न जाने कैसी प्रतिहिंसा की भावना से भरता जा रहा था। घोंसला रचने का उसका सुख मुझसे देखा नहीं जा रहा था। मुझे लगा, उसकी खोज जारी है, मेरी खोज खत्म हो गई है। निष्ठा का सहारा न होने से सामर्थ्य चुक गया है।
बेवकूफ आदमी! किसी ने मेरे भीतर मुझसे कहा और वह पंख फड़फड़ाती मेरे ऊपर तिनके गिराती चली गई। अपमान से भरा मैं उठा और मैंने घोंसला गिराकर बाहर फेंक दिया। खिड़की, रोशनदान, दरवाजे बन्द कर दिए जिससे कि वह अब फिर न आ सके। उन्नीस वर्ष बाद एक बेवकूफी से छुटकारा पाने का सुख या सन्तोष मुझमें नहीं था। मैं बिस्तर पर औंधे मुँह पड़ा रो रहा था।