एक अंतरराष्ट्रीय विचार गोष्ठी (कहानी) : ना. पार्थसारथी

Ek Antarrashtriya Vichar Gosthi (Tamil Story in Hindi) : Na. Parthasarathy

नगर की अत्यंत लोकप्रिय संस्था 'सामाजिक साहित्यिक सेवा संघ' की प्रबंध समिति की बैठक में अप्रत्याशित रूप से एक बड़ी बहस छिड़ गई। सब लोग चकित रह गए। दलित आंदोलन से जुड़े एक सदस्य ने शिकायती लहजे में कहा, "आपका मंच उच्चवर्गीय एवं उच्चस्तरीय साहित्यकारों की स्मृति–गाता है। निम्नवर्ग एवं दलित जाति के लोगों की आप परवाह ही नहीं करते।" उक्त सदस्य ने साथ ही अपना एक सुझाव पेश करते हुए कहा, “सौ साल पहले अछूतों की जाति में जन्म लेकर महत्त्वपूर्ण कविताओं की रचना कर गुजर गए कुचेलदेव नायनार नामक तमिल कवि की रचनाओं के संबंध में विचार करने हेतु एक विचार -गोष्ठी हो, उनकी जन्मशती मनाई जाए और उक्त समारोह में कवि के वंशज उनके प्रपौत्र को आमंत्रित कर उनका सम्मान भी किया जाए।"

विरोधी स्वर को किसी-न-किसी प्रकार दबाने के विचार से प्रबंध समिति के अन्य सदस्यों ने ऐसा ही करने की अपनी सम्मति व्यक्त कर दी। तुरंत मंत्री महोदय ने प्रस्ताव का प्रारूप तैयार कर सबके सम्मुख पढ़ सुनाया कि "यह सामाजिक-साहित्यिक सेवा संघ एकमत होकर यह विचार प्रकट करता है कि गरीबीरेखा के नीचे शैक्षिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक रीति से पिछड़े हुए समाज में जन्मे सिद्ध पुरुष एवं कवि 'कुचेलदेव नायनार' की जन्मशती समारोह बड़े धूमधाम से मनाया जाए।"

तुरंत कमेटी के एक सदस्य, जो अंग्रेजी भाषा के प्रोफेसर थे, एक संशोधन लाते हुए बोले, "मेक्सिको के 'सावलो काफटा' नामक जीवित कवि नोबल पुरस्कार प्राप्त करने योग्य सम्माननीय कवि हैं। कुचेलदेव नायनार के ही समान अछूतों की जाति में श्रमिक के पुत्र के रूप में जन्म लेकर कवि रूप में ख्याति प्राप्त व्यक्ति हैं। उन्हें भी इस जन्म शताब्दी की संगोष्ठी में निमंत्रित किया जाए।"

"हाँ, वैसा ही किया जा सकता है।" अन्य कई सदस्य भी इसका समर्थन करने लगे।

कमेटी के एक अन्य सदस्य, जो विश्वविद्यालय के कुलपति थे, उन्हें कुछ कहने को सूझा। कुलपति का कहना था, "लैटिन अमेरिका के चिली राष्ट्र में नल की मरम्मत करनेवाला एक प्लंबर सिल्विया प्लंबर उसका नाम है, एक बहुत बड़े प्रगतिशील कवि के रूप में विख्यात है। मेरा मत है कि उन्हें भी इस अंतरराष्ट्रीय विचार गोष्ठी में आमंत्रित किया जाए।"

कमेटी के किसी भी सदस्य ने इस प्रस्ताव के लिए आपत्ति नहीं उठाई। एक विश्वविद्यालय के कुलपति के प्रति आपत्ति प्रकट करने की जुर्रत किस व्यक्ति में थी।

एक अन्य सदस्य जैनुलाब्दीन साहब उठकर बोले, "अल्प मतवालों की सदा से उपेक्षा होती आई है। लंबे अरसे से संघ यह नीति अपनाता आ रहा है। 'मसकट' में मांस-गोश्त की दुकानदारी करनेवाले हलाल बुचर, जिनका नाम 'अल अमीन 'है, अरबी भाषा के मशहूर शायर हुए हैं। इस संगोष्ठी के लिए उन्हें भी जरूर बुलाया जाए।"

"संघ की धर्मनिरपेक्ष नीति को साबित करने की दृष्टि से अवश्य अल अमीन साहब को बुलाया जाएगा, यह आश्वासन मिलने पर जैनुलाब्दीन साहब खुश हुए।

तत्काल संघ के कोषाध्यक्ष ने सूचित किया, "मेक्सिको, चिली, मसकट इन स्थानों से आने-जाने के लिए विमान-यात्रा का खर्च तथा मद्रास में ठहरने आदि का सारा खर्च मिलाकर एक लाख से अधिक ही होगा।" उनके स्वर में चिंता प्रकट होती थी।

"बौद्ध धर्म की हमें उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तायलैंड से गुणशील धर्मतेरो नामक विख्यात बौद्ध कवि को किसी भी हालत में बुलाना भी उचित होगा।" यह आवाज थी एक प्रभावशाली सदस्य की।

"रुपए-पैसे की चिंता आप न करें। हम वसूल कर ही लेंगे। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार से अनुदान लेकर ही रहेंगे। निम्न वर्ग के चमार कवि के संबंध में संगोष्ठी आयोजित करने की वजह से अनुदान देने से इनकार करने की हिम्मत किसी भी सरकार में न होगी।" यह आवाज भी राजनीतिक चालबाजी से परिचित एक सदस्य की थी। इसलिए खर्च के मुद्दे पर उठनेवाली चिंता तत्काल दूर हुई।

यह निर्णय लिया गया कि जितना भी खर्च हो जाए, इस विचार संगोष्ठी को एक अंतरराष्ट्रीय रूप देकर चलाया जाए। संगोष्ठी के अंतरराष्ट्रीय महत्त्व को ध्यान में रखते हुए एक पंचसितारा होटल में, मतलब फाइव स्टार होटल में ही संगोष्ठी चलाई जाए, यह निर्णय भी लिया गया।

फिर चर्चा का विषय यह बना कि कुचेलदेव नायनार के गीत जनसाधारण की सरल तमिल भाषा में होने के कारण अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के सारे कार्यक्रम किस भाषा के माध्यम से चलाए जाएँ।

"उन्होंने तमिल भाषा में गीत गाए हैं। वह भी चमड़ी पकाने, जूता-चप्पल बनाने जैसे कुटीर उद्योग में लगे निम्न जाति के लोगों की जानकारी के लिए सरल तमिल शैली में गीत लिखे हैं। इस कारण से विचार गोष्ठी तमिल भाषा के माध्यम से ही चलाई जाए, विदेशी भाषा में विचार गोष्ठी न चलाई जाए।" यह विचार था दलित आंदोलन के सक्रिय सदस्य का। उनकी आवाज में दृढ़ता थी।

तुरंत एक सदस्य ने आक्षेप उठाया, "मेक्सिको के साब्लो काफ्टा को, चिली देश के सिल्विया–प्लंबर को अथवा मस्कट के अल अमीन को या ताय देश के गुणशील धर्मतेरो को तमिल बिल्कुल अनजान भाषा होने के कारण क्या किया जाए?"

"आनेवाले दो-चार अतिथियों को तमिल न मालूम होने पर भी समारोह में सम्मिलित होनेवाले सात-आठ सौ लोगों की समझ में आनेवाली तमिल भाषा का तिरस्कार क्यों किया जाए? वास्तव में अगर उन दो-चार अतिथियों को समझाना हो तो स्पेनिश, लैटिन, अरबी, पाली जैसी भाषा में ही बोलना उचित होगा, क्योंकि उनके लिए भी अंग्रेजी एक विदेशी भाषा ही है।"

अगर आपका तर्क सही भी हो तो भी हमारे तमिल कवि कुचेलदेव नायनार के बारे में चार लोग अंग्रेजी भाषा में आलेख पढ़ें और चार सौ उनके बारे में चर्चा करें, यह तो बहुत बढ़िया होगा। आप क्यों उसे रोकते हैं? यह प्रश्न था संघ के मंत्री का, जिसे सुनकर दलित आंदोलन के व्यक्ति राह पर आए। अंग्रेजी में ही काररवाई होने की अपनी सम्मति देकर वे चुप हो गए।

"गरीब एवं दलित वर्ग के प्रतिनिधि माने गए हमारे गरीब कवि संसार भर में प्रचलित अंग्रेजी भाषा द्वारा सम्मानित हों तो उसमें मेरे लिए कोई आपत्ति नहीं होगी। उस श्रमिक वर्ग के कवि की परंपरा में बचा प्रपौत्र मल्लय्या आज पेरियपालयम् के निकट एक छोटे से गाँव में चमार बनकर अपनी जीविका चला रहा है। उसे अवश्य इस विचार गोष्ठी में बुलाकर सम्मानित किया जाए।"

"आप इसकी चिंता न करें। ऐसा ही होगा। उस गरीब चमार मल्लय्या का पता हमें दें और उन्हें विशेष रूप से निमंत्रित कर गौरव करना इस संघ का प्रमुख कर्तव्य होगा।"

दलित दल के व्यक्ति ने तुरंत मल्लय्या का पूरा पता मंत्री के हाथ में दे दिया। मंत्री ने उसे इस प्रकार श्रद्धापूर्वक अपने हाथ में ले लिया, मानो वह कोई भगवद् प्रसाद हो। मद्रास शहर के कत्रिमारा पुस्तकालय से कॉफी ढूँढ़ने पर सन् 1886 में छपी 'कुचेलदेव नायनार के दार्शनिक गीत' नामक एक फटी–पुरानी पुस्तक मिली। वह इतनी जीर्ण और खंडित थी कि हाथ से छूने से पन्ने बिखर जाते थे। एक शती पूर्व उस कवि के वंशजों की आर्थिक सहायता से प्रथम संस्करण के रूप में वह छपी थी। 300 पृष्ठों की उस पुस्तक का दाम उन दिनों छह आना रखा गया था। आज उसे फिर से पुनर्मुद्रित किया जाए तो लागत ही 60 रुपए से अधिक होगी। एक हजार प्रतियों के लिए कुल साठ हजार रुपए लगेंगे। इस कारण सेवा संघ उक्त किताब के पुनर्मुद्रण एवं प्रकाशन के पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था। उस फटी–पुरानी पुस्तक से ही काम चलाना चाहा। कुचेलदेव नायनार का एक गीत था, जिसका भाव कुछ इस प्रकार था-"जानवर मरकर भी अपनी चमड़ी से मानव हित की चीजें प्रदान कर उसकी सेवा करता है, जबकि मनुष्य उस काम के लिए उपयोगी नहीं हो सकता।"

दलित दल के सदस्य का अनुरोध था कि कम-से-कम इस गीत को तमिल में छापकर श्रोताओं में बाँट दिया जाए। विचार गोष्ठी के आयोजकों ने यह कहकर कि सारे कार्यक्रम जब अंग्रेजी में चलेंगे, तब बीच में इस गीत को तमिल में छापना ठीक नहीं रहेगा, उस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया। उस गीत के अर्थ को या भाव को अंग्रेजी भाषा में अनुवाद कर प्रकाशित करने का आश्वासन देने पर वह दलित दल का सदस्य शांत हो गया।

विचार-गोष्ठी के सारे इंतजाम बड़े वेग से होने लगे। प्रभावी व्यक्तियों ने काफी प्रयत्न करके केंद्र सरकार से दो लाख रुपए और राज्य सरकार से एक लाख रुपए अनुदान के रूप में प्राप्त कर ही लिये थे। विशेषांक निकालने के लिए विज्ञापनों के माध्यम से उन्हें एक लाख रुपए वसूल हो गए थे। इस प्रकार चार लाख रुपए की नकद राशि हाथ लग गई थी।

पेरियपालयम में रहनेवाले कुचेलदेव नायनार के वंशज उनके प्रपौत्र मल्लय्या को भी साइक्लोस्टाइल की एक प्रति, जो अंग्रेजी में थी, भेजी गई। निरक्षर मल्लय्या ने अपने किसी ग्राहक, जो एक प्रोफेसर थे, के द्वारा समाचार जान लिया। तीन दिन तक काफी दौड़-धूप कर बड़ी मेहनत से कमाई मजदूरी को लेकर बस से मद्रास पहुँचा।

चूँकि यह अंतरराष्ट्रीय विचार–संगोष्ठी थी, अतः सभी राष्ट्र के प्रतिनिधियों के लिए समझ में आनेवाले एक आम विषय 'चेर पोयटिक वाय्स फ्रॉम अप्रजेड क्लास' (दलित वर्ग की ओर से एक अनुपम कविता की वाणी) शीर्षक पर संगोष्ठी चलाने का विचार किया गया। कार्यक्रम में कहीं एक कोने में 'तु मार्क द सेंटिनरी ऑफ दि सेट पोयट कुचेलदेव' (महान् कवि कुचेलदेव की शताब्दी-जयंती के अवसर पर) इतना ही छपा था। उस कवि के संबंध में कोई और जानकारी तक नहीं दी गई थी।

सावलो काफटा, सिल्विया प्लंबर, अल अमीन, गुणशील धर्मतेरो आदि कवियों के आने-जाने के लिए हवाई जहाज का रिटर्न टिकट भी बनवाकर भेज दिया गया। मद्रास में ठहरने की व्यवस्था एक पंच सितारा होटल में की गई। यह तय हुआ कि केंद्रीय शिक्षा मंत्री विचार-गोष्ठी का उद्घाटन करेंगे। राज्य सरकार के शिक्षा मंत्री समापन समारोह में विशेष भाषण देंगे और साक्लो काफटा 'की नोट अकरस, मुख्य अतिथि के रूप में भाषण देंगे आदि सारे ब्योरे तय हो चुके थे।

बड़ी मुश्किल से प्राप्त एक अलभ्य पुस्तक कुचेलदेव नायनार के दार्शनिक गीत को शीशे की पेटी में रखकर मंच पर मालाओं से सज्जित कर प्रदर्शित करने का इंतजाम भी किया गया। यही एक मात्र प्रति इस वक्त कहीं से मिली थी।

विचार-गोष्ठी के अवसर पर सुबह-शाम बिस्कुट के साथ दो कॉफी ब्रेक, दोपहर का भोजन, रात का डिनर, ये सारा इंतजाम उसी पंच सितारे होटल में ही बड़े धूमधाम से हो चुका था।

विचार गोष्ठी के प्रारंभिक उद्घाटन भाषण में केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने कहा कि "प्रधानमंत्री की सत्तर सूत्रीय योजना में सड़सठवीं योजना है-दलित एवं कुचले गए लोगों को उभारकर उनका उद्धार करना। इस विचार -गोष्ठी में इस योजना को स्पष्ट करने से मेरे साथ ही देश के प्रधानमंत्री भी खुश होंगे।" दूसरे दिन सुबह सारे समाचार-पत्रों में इस खबर को प्रमुख स्थान देकर छपवा दिया था। उसमें न कुचेलदेव का नाम था और न सूचना थी कि वे एक तमिल भाषा के कवि थे। केवल इतनी जानकारी थी कि 'इंटरनेशनल सेमिनार आरगनैस्ड बै सोशियो लिटरेरी कल्चरल असोसिएशन'।

तीन दिनों तक संगोष्ठी बड़ी धूमधाम से चली। शुरू से अंत तक सारा कार्यक्रम अंग्रेजी में ही चला। प्रांतीय शिक्षामंत्री ने भी बड़ी कठिनाई के साथ तमिल लहजे में अंग्रेजी भाषा में भाषण दिया। मेक्सिको से आए हुए प्रतिनिधि कवि ने अपने मुख्य भाषण की शुरुआत में कुछ वाक्य अंग्रेजी में बोलकर, ए डोंट वांट टू स्पीक इन ए लांग्वेज विच इज नैयदर युवर्स नॉर मैन" (अर्थात् मैं ऐसी भाषा में बोलना नहीं चाहता, जो न आपकी है और न मेरी) फिर अपनी मातृभाषा स्पेनिश में बोलने लगे। इससे सबको बड़ा आश्चर्य हुआ और धक्का भी लगा। अन्य सब लोगों ने अंग्रेजी में भाषण दिया। इस प्रकार संगोष्ठी सुचारू रूप से चली। स्थानीय पत्रिकाओं के साथ देश भर की पत्रिकाओं ने इस संगोष्ठी की प्रशंसा में काफी कुछ लिखा। अतिथि भी अपने-अपने देश लौट गए।

एक हफ्ते बाद 'डिस्प्यूट' नामक मशहूर अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका में इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी पर एक संपादकीय लेख छपा और साथ ही कुछ उल्लेखनीय साक्षात्कार भी। देश की समस्याओं को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखने एवं सनसनी फैलानेवाली खबर छापने के कारण यह पत्रिका काफी लोकप्रिय भी रही। विपरीत दृष्टिकोण से समस्या को एप्रोच करने से इसका एक विशेष महत्त्व भी था।

पहले साक्षात्कार के रूप में कुचेलदेव नायनार के प्रपौत्र मल्लय्या का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ। उसके पहले संपादक की एक छोटी सी टिप्पणी भी छपी थी। इस टिप्पणी में यह बताया गया कि "पेरियपालयम् से अंतरराष्ट्रीय विचार–संगोष्ठी के लिए सम्माननीय अतिथि के रूप में आमंत्रित आप संगोष्ठी के कक्ष में या 'फाइव स्टार होटल' के अंदर प्रवेश ही न मिलने के कारण निराश होकर अपने गाँव वापस जाना चाहते थे। मगर वापस जाने के लिए पैसे न रहने की वजह से, पैसे के लिए तरसते हुए वे अपने ऊपर भरोसा कर माउंट रोड बुखारी होटल के प्लेटफॉर्म पर चप्पल की मरम्मत करते वक्त यह साक्षात्कार लिया गया।"

मल्लय्या ने अपने साक्षात्कार में यह बताया कि वह किस तरह से पेरियपालयम् में दर-दर भटकते हुए बड़े परिश्रम कर चप्पलों की मरम्मत से मिली मजदूरी के पैसे जमा कर, फिर कुछ नए कपड़े बनवाकर कई प्रकार की मुसीबतें झेलकर मद्रास पहुँचा और काफी अनुनय-विनय करने पर भी संगोष्ठी के हाल में अर्थात् फाइव स्टार होटल के कक्ष में प्रवेश करने से रोक दिया गया। ये सारे विवरण पत्रिका में से छप गए थे। आगे मल्लय्या ने आँखों में आँसू भरते हुए यह दुःख प्रकट किया कि गाँव वापस जाने के लिए बस के किराए तथा दूसरे खर्च के लिए उसे खुद मेहनत करके पैसे जुटाने पड़े थे, आदि।

दूसरा साक्षात्कार दलित आंदोलन से जुड़े हुए एक लेखक का था। उनके विचार में "इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी से कुछ भी प्रयोजन न होनेवाला है। कुचेलदेव ने जिस भाषा में कविता लिखी थी, उस भाषा के लोग ही उसे कम पहचानते हैं, तब अंग्रेजी में सेमिनार चलाने का क्या मतलब हो सकता है?"

विडंबना यह थी कि जिसके बारे में संगोष्ठी हुई, उस कुचेलदेव के संबंध में किसी ने कोई बात नहीं कही। इसका कारण यह है कि उनके गीतों का एकमात्र संग्रह-ग्रंथ भी मंच पर शीशे की पेटी में सुरक्षित रूप से बंद हो चुका था। संगोष्ठी के खत्म होने तक वह वहाँ से बाहर न निकाला गया था।

इस अंतरराष्ट्रीय विचार–संगोष्ठी को चलाने में चार लाख रुपए का अपव्यय किए जाने के बदले कुचेलदेव की कविताओं की पुस्तक का सस्ता संस्करण तमिल में निकाल दिया गया होता तो बेहतर होता। तमिल के अतिरिक्त इन्हें अंग्रेजी, हिंदी आदि भाषाओं में अनूदित किया जा सकता था। मगर सेमिनार संगोष्ठी में केवल लंच (खाना), डिनर, कॉफी ब्रेक, चाय ब्रेक आदि मद में ही पैसा पानी की तरह बहाया गया। इतना होते हुए भी परिणाम कुछ भी नहीं निकला। स्थानीय लोगों को भी इससे कुछ फायदा न हुआ। विदेशियों की समझ में तो नहीं आई कि यह सारा कार्यक्रम किसके लिए हो रहा है? पत्रिका ने इस साक्षात्कार को प्रकाशित करने के साथ-साथ यह लताड़ा था कि शिक्षित उच्च वर्ग कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के 'इंटेलेक्चुअल अरगंस' अर्थात् बौद्धिक अहंकार और आडंबर मात्र को प्रकट करनेवाला साबित हुआ है।

तीसरा साक्षात्कार एक प्रबुद्ध पाठक का रहा। उनके मत में, “आजादी के बाद गत तीस वर्षों से भी अधिक यही होता आया है कि क्रियाशील योजनाओं के लिए खर्च करने से भी अधिक पैसा सेमिनार, संगोष्ठी, सभा–समारोह आदि में अनावश्यक रूप से खर्च किया जाता है। इस प्रकार के अपव्यय के कारण हमारा देश बदनाम हो चुका है। कई सेमिनार इधर-उधर चलाए गए, मगर किसी को कोई विशेष जानकारी न मिली। यह संगोष्ठी भी इसी तरह बेकार साबित हुई है। भविष्य में संगोष्ठियों का रूप भिन्न ढंग का होगा, ऐसी आशा करना भी व्यर्थ दिखता है। भाषण की जगह वास्तविक कार्यों के लिए धन को खर्च करना बेहतर होगा। इससे देश का कल्याण होता। केवल सेमिनार-संगोष्ठियाँ ही चलाते रहे तो वास्तविक कार्यों के लिए कुछ भी न बचेगा।"

चौथा साक्षात्कार मेक्सिकन कवि 'साक्लो काल्डा 'का था। उसमें काष्ठा ने साफ शब्दों में अपना मत प्रकट करते हुए कहा, मुझे इस संगोष्ठी में कवि के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिली और न उनका परिचय ही। इससे मुझे धक्का लगा और मैं इससे अब भी छूट नहीं पाया हूँ।"

संवाददाता का प्रश्न था कि "सेमिनार जिस कवि के सम्मान में हुआ, वह और आप दोनों एक ही जाति के, एक ही वर्ग के कवि माने जाते हैं। इसी कारण से तो आपको भी आमंत्रित किया गया है। क्या आप इससे प्रसन्न नहीं है?"

"ऐसी सोच से मुझे सख्त नफरत है। जातिवाद से भी बदतर बात यह है कि उस मनोवृत्ति का अनुचित लाभ उठाया जाना, उस मनोवृत्ति को कैपिटलैस' करने का प्रयास। जरूर मुझे इस बात का गर्व होता है कि कवि कुचेलदेव और मैं दोनों कवि-वर्ग के होने के कारण एक हैं। अन्य प्रकार के विचार 'इर्रेलवंट' असंबद्ध है, आउट ऑफ कांटस्ट है, विषयांतर है।"

प्रश्न हुआ कि "क्या इस अंतरराष्ट्रीय विचार गोष्ठी के आयोजकों ने कुचेलदेव की जीवनी को संक्षेप में या उनकी कविताओं के मतलब को कम-से-कम आपके भारत पहुँचने पर भी कभी समझाने की कोशिश की?"

उत्तर था-"क्षमा कीजिए! इस बात का मुझे खेद है कि किसी भी हालत में उस कवि के संबंध में मुझसे किसी ने बात तक नहीं की। स्वयं आयोजकों से पूछने पर भी उत्तर मिला कि 'यू नीड नॉट गो इंटु द सब्जेक्ट' (आपको इस विषय के अंदर प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं है।) यह कहकर टाल दिया गया।"

उपर्युक्त चारों भिन्न-भिन्न प्रकार के साक्षात्कारों को प्रकाशित कर 'डिस्प्यूट' के साप्ताहिक विशेषांक "दि डारकर साइड ऑफ दि सेमिनार' नामक संपादकीय लेख अंग्रेजी में प्रकाशित किया। उसमें संगोष्ठी के चलाए जाने के ढंग पर कटु आलोचना की गई। साथ ही कुचेलदेव की एक कविता को समझाने का प्रयास भी किया गया था। संपादकीय लेख के कटु शब्द निम्न प्रकार थे-

"यद्यपि मानव की बुद्धि बड़ी सूक्ष्म है, फिर भी उनमें से कुछ लोगों के तगड़ी चमड़ीवाले होने के कारण शायद मानापमान, लज्जा, संकोच और यहाँ तक रोष कुछ भी भाव, उसे लगते ही नहीं।"

"शायद वे समझते हों कि 'वी आर थिक स्किंड' अर्थात् हमारी चमड़ी बड़ी तगड़ी है। उनके लिए ऐसा सोचना गर्व का विषय होता होगा। एक प्रकार से हम भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश हैं। कवि कुचेलदेव के उपर्युक्त कथन के अनुसार मानवों में इस अंतरराष्ट्रीय विचार गोष्ठी के आयोजक मनुष्यों की तरह न लगनेवाली मोटी चमड़ी होती होगी, ऐसा हमें महसूस होता है।"

  • ना. पार्थसारथी : तमिल कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • तमिल कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां