एक अदना जिन्दगी और बड़ी मृत्यु (मलयालम कहानी) : टी. पद्मनाभन

Ek Adna Jindagi Aur Badi Mrityu (Malayalam Story in Hindi) : T. Padmanabhan

होटल के सब लोग गहरी नींद सो रहे थे। किसी भी कमरे में रोशनी नहीं थी। मैंने किताब बंद की। दरवाजे के नजदीक जाकर बाहर की ओर निगाहें डाली। मुझे प्यास लगी थी।

रात की सुनसान गलियों में मैं अकेले घूमता-फिरता सिनेमा-घर के सामने की दुकान से एक प्याला चाय खरीदकर चुस्की लेता। यों बड़ी देर के बाद वापस लौट आता। उस दिन भी सोचा कि मैं ऐसा ही क्यों न करूँ ?

बाहर किसी की आहट सुनकर मैंने मुड़कर देखा कुंजिमोयतीन। वह बाहर खड़ा था, न जाने वह इस वक्त इधर क्यों आया ? सुना था कि उसकी सेहत बहुत खराब हो गयी है। मगर अपनी दौड़-धूप में मैं यह बात एकदम भूल बैठा था। अपने ही गाँव से मैं उसको यहाँ लाया था। लिहाजा हमेशा उसकी खैरियत पूछने का फर्ज तो मेरा था ही। उसके लिए एक मात्र छाया इधर मैं ही था।

मुझे कुंजिमोयतीन को नहीं देखे तीन दिन हो गये थे। कूजा के जल को बदले भी तीन रोज गुजर गये, यह काम वही करता। मगर उसके आने पर भी मैंने उसकी खोज-खबर नहीं ली। लिहाजा मुझे शरम और अफसोस महसूस होने लगा।

मेरे पूछने के पूर्व ही वह भीतर घुस आया। खाट को थामते हुए बोला, "अम्मी को एक बार और लिखिए, मैं लौट जाऊँगा। किसी-न-किसी तरह !"

उस लड़के ने विषाद-भरे स्वर में यों कहा जैसे कि उसकी आवाज गहरे कुएँ के भीतर से आ रही हो। उसकी गीली लाल आँखें और पागल कुत्ते की तरह उसका हाँफना देखकर कोई भी बदहवास हो जाता। वह वहाँ यों खड़ा था मानो न उठा सकने लायक एक असहनीय बोझ सिर पर रख दिया गया हो।

कुंजिमोयतीन ने झटपट आँखें मूंद लीं। जड़ से उखड़ी एक लता की तरह वह फर्श पर गिए पड़ा और खाट के पाये के निकट सिमट कर लेट गया।

अभी तक मैं बगैर हिले-डुले वहीं खड़ा था। कुंजिमोयतीन को अचानक क्या हुआ, सोचते ही मैं घबरा उठा। उसकी बातें मेरे कानों में गूंजने लगीं। वे बातें महज एक लड़के की नहीं थीं; वे थीं, जिन्दगी भर आँसू पीने वाले एक इंसान की बातें। घृणा, निराशा, लाचारी और गम के ऊपर मैं उसे कुछ समझा-बुझा नहीं सका।

मैं भी वहीं पर बैठ गया। उसकी पीठ को थपथपाते हुए बोला, "अरे कुंजिमोयतीन !" उसने न तो चेहरा ऊपर उठाया और न ही कुछ कहा।

फिर मैंने उसको हिलाते-डुलाते हुए पुकारा।

मैंने कई बार उसे देखा था, जैसे बेहोश मेंढक के शरीर में बिजली के झटके लगते हों। उसकी छटपटाहट देखकर मेरा कलेजा भी तड़प उठता था। मगर एक दिन अचानक कुंजिमोयतीन चौंक पड़ा तो मैं बिल्कुल निर्विकार होकर खड़ा ही रह गया था।

अपनी शर्ट एक ओर हटाते हुए, छाती छूकर, उसने कहा, "मेरी छाती जलती है ! न छू सकूँगा !" तब उसकी आँखें भर आयी थीं। उसने न रोने की भरसक कोशिश की लेकिन उससे रहा नहीं गया और वह रो पड़ा।

मैं उठकर कमरे में इधर-उधर अनायास ही घूमने लगा। उससे कहूँ तो क्या कहूँ ? कौन-सी बातें कहकर मैं उसे तसल्ली दूँ ? मेरा कलेजा मुँह को आने लगा। मुझे ताज्जुब हुआ कि कुंजिमोयतीन की छाती को क्या हुआ है ?

समय बीत रहा है। वह कितनी देर तक इस प्रकार लेटा रहेगा ? सुबह होती तो कुछ न कुछ करता अवश्य, मगर तब तक वह मेरी मन की बात समझ गया। उसने धीमी जुबान से कहा, "मैं इधर ही लेटूँगा।"

बावर्चीखाने से गुसलखाने में जाने की राह में ही कुंजिमोयतीन लेटता था। सिर्फ वही नहीं होटल के सभी नौकर वहीं लेटते। कुछ लोग सीमेंट के फर्श पर, कुछ काठ के तख्ते पर। हल्की-सी बारिश होते ही वहाँ पानी भर जाता। बरसात अब कम है। हालाँकि बगैर बारिश के एक भी रात नहीं गुजरती।

शायद गत तीन रातें कुंजिमोयतीन ने वहीं काटी होगी। पुनः वहीं उसे भेजने की मैं सोच रहा हूँ।

कुंजिमोयतीन पायताने के पास ही सिकुड़कर लेट रहा। सुबह धोबी के आने से पहले मैले कपड़ों को मैंने वहीं गिनकर डाल दिया था। हाँ, वहाँ उस लड़के के लेटने पर मुझे लगा कि वह भी एक ऐसा मैला कपड़ा है, जिसकी जरूरत और किसी को नहीं है।

मैंने सोचा, अगर मेरा छोटा भाई होता और वह कुंजिमोयतीन की तरह बीमारी का शिकार हो जाता तब क्या मैं उसे बर्दाश्त कर सकता ? नहीं ! क्या मेरी अम्मी उसे बर्दाश्त कर पाती ? नहीं, बिलकुल नहीं।

इतनी दूर आकर खून-पसीना एक करना, वह भी इतनी छोटी उम्र में !

मैंने कुंजिमोयतीन को अपने पलंग पर लिटा दिया। वह कराहता और झिनझिनाता। आग की तरह जलता उसका जिस्म छूते ही मेरे मन में खौफ की बिजली कौंध गई। ओ, यह कौन-सी बीमारी की शुरुआत है ? छाती में दर्द और बुखार भी ! बड़ी दिक्कत के साथ उसने पूछा, "अगर मैं लौट जाता तो क्या मम्मी नाराज होकर कुछ कहती ?"

उस सवाल ने मुझे बिल्कुल स्तब्ध कर दिया। मैं कुछ भी कह न सका। लगा कि एक बर्फ का टुकड़ा गले से नीचे उतर रहा है। कितने और सवाल थे लेकिन कुंजिमोय्तीन ने क्यों वही सवाल पूछ लिया ?

उसकी ओर बगैर देखे ही मैंने कहा, "चुपचाप बैठो वहाँ, सुबह होने दो।"

मगर रोशनी की हल्की-सी रेखा भी नसीब न होने वाली दुनिया में जो लड़का जीवित रहा है, उसे लड़का होने का अहसास भी कैसे होता ? लिहाजा उसने पुनः कहा, "मुझे देखना है अम्मी को।"

"मैंने अम्मी को लिखा है। जवाब मिलने तक तुम चुपचाप रहो।"

क्या उसने मेरी बात सुनी है ? नहीं मालूम, क्योंकि फिर उसने कुछ नहीं पूछा।

मेरी बहुत जोर से रोने की इच्छा हुई ! मैं उस नन्हे लड़के को धोखा दे रहा था। अनजाने ही मेरा हाथ मेज की दराज की ओर गया। वहाँ एक पुराना पोस्टकार्ड था। थोड़ी देर ठिठकने के बाद मैंने उसे निकाल दिया। कुंजिमोयतीन को देने के वास्ते उसकी अम्मी ने एक महीने पूर्व मेरे नाम यह कार्ड लिख भेजा था। मैंने उसे पुन: एक दफा पढ़ा, "खुदा की मेहरबानी से मेरे बेटे कुंजिमोयतीन, तू सही-सलामत होगा। ऐसी आशा करती हूँ। बेटे, हमारा नसीब ही खराब है। तेरे अब्बा इधर मुड़कर भी नहीं देखते। दाल-पानी पाकर ही सही, तू कहीं भी चैन से रहे, यही बहुत है। फिर...।"

मैंने उस पत्र को कुंजिमोयतीन को दिखाया नहीं था। उसका विश्वास था कि अम्मी की हालत जानने पर तुरंत घर वापस लौटने के लिए लिख देंगी। ऐसी हालत में यह पत्र उसे कैसे दिखाऊँ ! उसकी अम्मी की हालत भी मुझसे छिपी नहीं।

मेरी ख्वाहिश, उसको जितना जल्दी हो सके, इस होटल से छुड़ाकर और कहीं नियुक्त कराने की थी। एक छोटे बच्चे को नौकर के तौर पर रख लेने वाले कितने ही परिवार होंगे। मैं ऐसे अवसर की ताक में बैठा था। लेकिन कौन जानता था कि उसकी तबीयत इतनी खराब हो जायेगी।

रात की खामोशी में सभी जीव-जंतु विश्राम कर रहे थे। सिर्फ मैं ही जाग रहा था। कितनी देर इस तरह बैठ कर बिताऊँगा। डॉक्टर ले आता तो कुंजिमोयतीन को आराम मिल जाता। उसकी साँस थस जाती ! उसका मुँह जिन्दा मछली के गलफड़े की तरह खुल कर चौड़ा होता जा रहा था। मैंने हाथ लगा कर देखा तो अफसोस हुआ, उसने ठीक ही कहा था कि छाती फट रही है। कुंजिमोयतीन को वहाँ अकेले छोड़ कर डॉक्टर को बुलाने के लिए जाना उचित नहीं है। मैंने अपने को यकीन दिलाया। उसके अलावा ऐसे बेवक्त क्या कोई डॉक्टर इधर आयेगा भी या नहीं। लिहाजा मैंने ठाना कि सुबह को जाना ही अच्छा है।

कुंजिमोयतीन ने कफ थूक दिया। पलंग की सफेद चादर में खून से लिपटा कफ मैंने देखा।

थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद वह पुनः खाँसने लगा।

मेरी आँखों में आँसू भर आये। फिर सोच-विचार किये बगैर मैं बाहर निकल आया। स्वयं निश्चय नहीं कर पाया कि मैं क्या करने जा रहा हूं? सीढ़ियाँ उतरते वक्त की आवाज मुझे खौफनाक लगी।

मैनेजर के कमरे के दरवाजे पर मैंने दस्तक दी और पुकारा, "मिस्टर कोया !"

दरवाजा मिस्टर कोया ने ही खोला। मैंने कहा, "कुंजिमोयतीन सख्त बीमार है।"

"ओ, ऐसा है ?"

उसने इस तरह पूछा जैसे कि वहाँ कुछ भी घटित न हुआ हो।

"डॉक्टर को अभी नहीं बुलाया तो उस लड़के की हालत और भी बिगड़ सकती है।"

"ओह !"

"कुछ-न-कुछ तुरंत करना पड़ेगा।"

"हाँ, सुबह होने दो...।" कहकर वह हँस दिया। मेरे देखते-देखते उसने दरवाजा बंद कर दिया।

थोड़ी देर तक मैं वहीं खड़ा रहा। मिस्टर कोया के रूखे व्यवहार से नफरत भी नहीं हुई। बोझिल मन से मैं अपने कमरे में लौट आया। आसमान के तारे टकटकी बाँधे मुझे घूर रहे थे। लगा कि वे मेरी हँसी उड़ा रहे हैं। मिस्टर कोया के सोने के दाँत की तरह वे भी निष्प्रभ थे। दुस्सह वेदना में छटपटाते इस लड़के को देख कर यह लगता ही नहीं था कि यही वह कुंजिमोयतीन होगा, जो पाँच महीने पहले मेरे साथ आया था। उसकी शक्ल-सूरत ही बिलकुल बदल गयी थी। जब उसकी माँ ने उसे मुझे सौंपा था तब वह झोंपड़ी के नजदीक बाढ़ में फफक-फफक कर रो पड़ी थी।

"तुम इसे किसी रास्ते से लगा दो बेटे, भगवान तुम्हारा भला करेगा।"

वह नटखट बालक तब हँसने लगा था। यह देखकर मेरी भौंहें चढ़ गईं मगर मैं शांत ही रहा। और, उस लड़के ने शायद कुछ नहीं समझा होगा !

यों कभी-कभार उसने बेमुरव्वती के साथ मुझसे बर्ताव किया। तब मैं खरी-खोटी सुनाता। पहले एक-दो दफा उसको मैंने झापड़ भी रसीद किये थे।

वह हमेशा मद्रास की ही रट लगाने लगा। न मालूम क्यों, उसका इतना लगाव हो गया था, यह मैं अभी तक नहीं समझ सका हूँ। पहले-पहले उसने जानना चाहा कि क्या वहाँ समुद्र और समुद्र तट भी है ? सप्ताह में बाजार कितनी बार लगता होगा ? इसके बीच एक-एक सवाल वह बार-बार दोहराता, "क्या वह प्रांत हमारी बस्ती की तरह है ?"

वह रेलगाड़ी के दोनों ओर के दृश्यों को देखता और सवाल पूछता। वहाँ रखे हुए सिगरेट के पैकेट उठा कर खेलता। तभी मैंने उसको ऊपर से नीचे तक निहारा था। उसने एक छोटी धोती पहनी हुई थी, उसकी शर्ट फटी और पुरानी थी। इतना ही नहीं, बल्कि वह शर्ट उसके अब्बा जान की उम्र वाला कोई शख्स पहन सकता था। बड़ी-बड़ी नीली आँखें, तीखा नाक-नक्श। उम्र अभी बारह साल, उसमें उत्साह और जोश की कमी न थी।

मुझे बड़ा मजा आया। मैंने पूछा, "अरे तू मदरसा जाता था कभी ? तेरे अब्बा आया करते हैं क्या ?"

उसने सिगरेट का पैकेट नीचे रखकर मेरी ओर टकटकी लगाये घूर कर देखा। चेहरे में विषाद की झलक। बच्चा होने पर भी वह सवाल नापसंद करता। वह बोला, "अब्बा ने फिर से निकाह किया है न ?"

मुझे लगा कि उससे ऐसा सवाल न पूछता तो बेहतर होता। मैं भूल ही गया था कि दर्द की कसक महसूस करने वाला एक कोमल दिल उसके पास भी है।

लेकिन तभी कुंजिमोयतीन की गीली निगाहों में खुशी की झलक तैर आयी। एक अव्यक्त भविष्य के बारे में वह ख्वाब देख रहा था।

"मैं बड़ा होते ही सिंगापुर जाऊँगा।"

"क्या उसके लिए पैसे-वैसे नहीं चाहिए ?"

"मैं राशि पहुँचने पर...क्या तनख्वाह नहीं मिलेगी ?"

इस बात में कुंजिमोयतीन को कोई शक नहीं था।

हमारे घर से तीन मील दूर समुद्र तट की बस्ती में ही कुंजिमोयतीन और उसकी अम्मी पहले रहते थे। बाद में वह कहीं नई जगह में रहने लगी थी। मेरा ठिकाना भी बदल गया था इसीलिए कुंजिप्यातु के बारे में मेरी अधिक जानकारी नहीं थी। पिछली बार घर जाते वक्त ही पहले-पहल मैंने उनको देखा था। उनके चले जाने पर मेरी बड़ी दीदी ने बताया था, "पहले अच्छी हालत में थीं, ऐसी गुजर-बसर करने वाली हालत नहीं थी।"

कुंजिमोयतीन के दो छोटे भाई और थे। तीन बच्चों का अब्बा होते ही कुंजिप्यातु के मियाँ को लगा कि और एक निकाह करना भला है।

कुंजिप्यातु का कोई भाई नहीं था, लिहाजा उसने ऐसी बीवी से दूसरा निकाह किया, जिसके भाई थे। सिंगापुर से जब उसके साले आते तो वे उसके लिए सिल्क-शर्ट का कपड़ा, लुंगी, टार्च आदि लाया करते थे। उसे ओढ़े-पहने 'नये मियाँ' शान से घूमते-फिरते और अपने बच्चों की ओर मुड़कर भी नहीं देखते थे !

मुर्गी-पालन और मुस्कु (एक पकवान) बना कर उसे बेचकर गुजर-बसर करने वाली उस स्त्री की कथा सुनने पर मुझे हमदर्दी हुई। कुंजिमोयतीन की उम्र अभी खेलने-कूदने की है। यों एक बेटे को इतनी दूर मद्रास में कोई माँ नौकरी करने भेजना चाहेगी ?

मगर अम्मी कर क्या सकती है ? मछली बेचने के वास्ते बेटे को भेजने को भी वह तैयार है। लेकिन सब कुछ करने की क्या इतनी ताकत है उस छोटे से बच्चे में ? एक हथकरघे की कंपनी में भी वह उसे भेजना चाहती थी तो वह कंपनी भी हड़तालियों ने ठप कर रखी है। फिर चाहती थी, बीड़ी बनाने के काम में ही लग जाये लेकिन हर पेशे में अड़चनें होतीं।

कुंजिप्यातु दो-तीन बार मुझसे मिलने आयी। कुछ-न-कुछ मदद करने की मेरी भी मंशा हुई। मगर, मद्रास में इस लड़के को कौन-सी नौकरी मिलेगी ?

"बेटे, एक 'ओटटल' में क्या इसे कोई ठहरावेगा नहीं ? क्या हमारे लोग वहाँ नहीं होंगे?"

बात तो ठीक ही है। हर होटल में लड़कों की जरूरत है। मुझे दो बातें याद आयीं कि मिस्टर कोया ने कहा था, इस जमाने में एक ईमानदार लड़का मिलना तो कठिन है। अगर मैं उससे इसके संबंध में बात करूँ तो शायद कोया इसे रख लेगा। मैं उसी होटल में दो साल से ठहरा हुआ हूँ।

मैंने कुंजिप्यातु को उसकी नौकरी का कोई भी आश्वासन नहीं दिया। जब उसने बेटे को मेरे साथ भेजने की बात कही थी तो मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि अगर उसको कोई नौकरी नहीं मिलेगी तो लौटने वाले के साथ लड़के को वापस भेज दूंगा। मगर कुंजिप्यातु को लड़के के कोई काम न मिलने में कोई शक नहीं था।

'ऐसा नहीं होगा बेटे, हमारा नसीब इतना फूटा है क्या ?'

कोया से मैंने कहा था कि वह उसे कोई नौकरी देगा तो बड़े पुण्य का काम होगा। एक परिवार की स्थिति सुधर जायेगी। तनख्वाह के बारे में कोई बात नहीं कही। क्योंकि होटल में काम करने वाले और भी तो थे ही, जितनी उन्हें तनख्वाह देता है, उतनी ही उसे भी दे देगा। और उसे कुंजिमोय्तीन की ईमानदारी के संबंध में भी दो-एक शब्द कह दिये कि वह एक शरीफ लड़का है।

मेरे इतना ही कहने पर मिस्टर कोया ने कुंजिमोयतीन को बुलाकर कहा, "अरे लड़के, कोई बदमाशी तो नहीं करेगा।"

कुंजिमोयतीन तब से कोया के होटल में काम करने लगा था। मुझे मालूम नहीं था कि वह क्या-क्या काम करता है। मिस्टर कोया के साथ बाजार जाना, मेजें धोना, जूठे बर्तन धोना और कूजा में पानी भरना उसके नित्य कार्य हैं। इसका पता मुझे बाद में चला।

मैंने उसके कार्य में कोई दखल नहीं दिया। फिर भी मुझे लगा कि एक लड़का जितना बोझ ढो सकता है उससे अधिक ढोने को वह मजबूर कर रहा है। पेट भरकर खाना तो मिल रहा था, मगर दिन-दिन उसका स्वास्थ्य गिरने लगा था।

मेरे पास वाले कमरे में ठहरे एक यात्री ने मुझसे पूछा, "क्या इस लड़के को तुम लाये थे ? तुम क्यों कुछ नहीं कहते ? देखो, मारपीट सहते-सहते वह कैसा हो गया है।"

वह मैं भी देख रहा था। मगर कहूँ तो क्या कहूँ। कुछ मैं कहूँ भी तो आखिर सजा किसको भुगतनी पड़ेगी ?

मगर सिर्फ उसका जिस्म ही अस्वस्थ था। काम करने के लिए उसमें उत्साह की कोई कमी नहीं थी। मैंने भरोसा किया कि जोश और कर्मठता उसके खून में समाये हैं।

मुझसे गलती हो गयी। उस उम्र के सभी बच्चे ऐसे ही होते हैं। उनका मन थकावट जानता ही नहीं।

कमरे में जाने पर वह कभी भी चुपचाप नहीं बैठता। खड़े होने के बजाय वह कुशन वाली कुर्सी पर बैठना पसंद करता। फिर वह मेज पर किताबें उलट-पलट कर देखता।

मैं उसे देख कर मन-ही-मन दुःखी हो उठता। उसे कुछ खरी-खोटी सुना भी देता, तो वह अपनी बड़ी-बड़ी नीली आँखें घुमाता और गर्दन एक ओर मोड़ कर मुस्कराते हुए पूछता, "हम तो एक ही इलाके वाले हैं न ?

मुझसे ही नहीं, सब लोगों से कुंजिमोयतीन ने यही सवाल पूछा था। फिर भी उनमें से किसी ने उसको गाली नहीं दी और झापड़ भी नहीं मारा था।

एक बार मुस्तफा ने मुझसे कहा, "वह एक नटखट, आवारा लड़का है। मैं कुछ भी नहीं कह पाता, यही आश्चर्य है।"

पहली तनख्वाह मिलते ही कुंजिमोयतीन ने मेरे हाथों में थमा दी थी। बीस रुपये थे। मैंने पूछा, "अरे, इतने ही मिले हैं क्या ?"

उसने सिर झुकाते हुए कहा, "गिलास तोड़ने के पैसे भी तो चुकाने पड़ते हैं।"

उस दिन न तो वह कुर्सी पर बैठा और न उसने कलम ही उठायी। यों चुपचाप बगैर कुछ किये, इससे पूर्व भी कुंजिमोयतीन मेरे सामने खड़ा नहीं हुआ था। शायद वह दालान में सबसे छुप कर रोया भी होगा।

अगले दिन और एक घटना हुई।

सुबह मैं गुसलखाने में वापस आ रहा था। दालान में सिकुड़ कर लेटे कुंजिमोयतीन को मैंने ध्यान से देखा। ओढ़ी हुई धोती और शरीर का नाता बिल्कुल अलग हो गया था। उसके पैरों के घुटनों तले मार-पीट के निशान दिखाई दे रहे थे।

मैं वह दृश्य देखकर ठिठक गया मानो काठ मार गया हो। तभी मिस्टर कोया का साला एक बर्तन में पानी ले आया। उसने सोने वाले सभी नौकरों के ऊपर पानी छिड़क दिया। अधिकांश को वह खींच-खींच कर जगाता रहा। कुंजिमोयतीन भी उस दंड से नहीं छूटा।

मेरे सामने ही उस पतित शख्स ने ऐसा किया था। सीढ़ी के नीचे मैं कान लगाकर सुनने के लिए खड़ा रहा। कोया का साला अपनी गंदी गालियों से प्रात:काल की पवित्रता एवं खामोशी को भंग कर रहा था। मैंने सोचा, क्यों न मैं उसकी कनपटी पर एक झापड़ रसीद कर दूँ। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।

उस दिन शाम को मैं कोया से मिला। मैं कुंजिमोयतीन की बात उससे कहना चाहता था। सुबह की वह घटना मेरे दिल में सुलग रही थी। पर कोया के हाव-भाव देखकर मैं झिझक गया। मैंने हौले से कहा, "कुंजिप्यातु ने लिखा है कि उसके बेटे को सिर्फ बीस रुपये ही मिले हैं।"

"बीस क्या कम हैं ?" कोया ने बात काट कर पूछा।

"मगर...।"

"आप टाँग मत अड़ाइए। आप भी जानते हैं कि इधर उसे अधिक जरूरत तो है नहीं। खाना तो फ्री मिलता है।"

बस, इतने से ही मैं हताश होकर अपने कमरे में वापस लौट आया। वहाँ कुंजिमोयतीन खड़ा था। उसके हाथ में एक कार्ड था।

"मैं वापस जाऊँगा जरूर, आप अम्मी को लिखिएगा!" कार्ड मेरे सामने करते हुए उसने कहा, लगा कि उसकी घिग्घी बँध गयी है और अब हौले-हौले लफ्ज बाहर आ रहे हैं।

मैंने उसको ध्यान से देखा, होठों को दाँतों से दबाये हुए वह यों ही खड़ा है। मैंने कुंजिमोयतीन से पूछा, "क्या तुझे इधर तकलीफ है ?"

कुंजिमोयतीन ने जवाब नहीं दिया। मुझे लगा कि वह अभी-अभी रो देगा।

"ठीक है। तू अब जा। मैं लिख दूँगा।"

वह चला गया। दुविधा हुई कि क्या मैं कुंजिप्यातु को लिखू या नहीं ? तब की बातों को मुझे स्मरण हो आया जो उस गरीब औरत ने उसे मेरे साथ भेजते वक्त कही थी।

वहाँ एक घास-फूस की झोंपड़ी है। उसमें परिवार के लोग भूखे और नंगे रहते हैं। उस परिवार का मुखिया है, कुंजिमोय्तीन का अब्बा बिल्कुल नालायक और लफंगा है। लिहाजा देखभाल करना तो दूर अपने परिवार की तरफ मुड़कर देखता भी नहीं और इधर कोया और कोया का साला। रात को दालान में लेटना और उस पर भी सुबह होते ही जगाने के लिए पानी छिड़कना !

मैं इन दोनों बातों को जानता हूँ। दोनों के प्रति मुझे नफरत होने लगी। "चाहे जो भी हो, मैं इन झंझटों में क्यों पइँ ? वह जाना चाहता है तो जाये।" मैंने अपने आप से कहा।

मैंने कुंजिप्यातु को पत्र लिखा कि कुंजिमोयतीन को यह जगह बिलकुल पसंद नहीं है। और वह वापस लौट जाना चाहता है।

कुंजिप्यातु ने तुरंत जवाब लिख भेजा था, "वहाँ रहने में कुछ भलाई नहीं है तो न सही फिर भी वहाँ उसे भूखा तो नहीं रहना पड़ेगा।"

मैं तमाम पुरानी बातों पर विचार करता रहा तब, जब जिन्दगी और मृत्यु के बीच कुंजिमोय्तीन मेरे सामने निश्चेष्ट पड़ा हुआ है। हवा और रोशनी के लिए इस विशाल दुनिया में जन्म लेने वाला भोला-भाला लड़का ! स्नेह और प्यार की इस उम्र में उसे सख्त जरूरत थी। वह सबको प्यार करता, सबों से वह बार-बार यही कहता "हम हैं एक ही इलाके वाले।"

मगर अब वह कली मुरझाने लगी। टेबल लैंप का 'शेड' मैंने कुंजिमोयतीन के चेहरे की ओर मोड़ दिया। रोशनी में उसके चेहरे को देखने का मेरा मन नहीं हुआ। अपराध-बोध ने हृदय में जो घाव बना दिया था, उस चोट से खून बहने लगा।

सुबह होने को आ गयी। रात की खमारी से शरीर भारी-भारी लग रहा था।

कुंजिमोयतीन अभी भी वैसा ही लेटा था। उसकी साँस की गति और तेज हो गयी थी। उसकी पलकें मुँदी नहीं थीं पर कबूतर की तरह उस कंठ से 'कुरु कुरु' की आवाज जरा ज्यादा आ रही थी !

कुंजिमोयतीन को अकेला छोड़कर बाहर जाने को मेरा दिल गवाही नहीं दे रहा था। लेकिन विवशता का यूंट पीने के सिवाय और चारा भी तो नहीं था। मैंने मिस्टर कोया से मिलना चाहा। मगर वह कमरे में नहीं था, मैंने उसका इंतजार नहीं किया। बूंदा-बाँदी पर ध्यान दिये बगैर मैं डॉक्टर के घर चला गया। तब मेरे मन में महज कुंजिमोयतीन का ही खयाल था। उस वक्त न तो मैंने उसके वेतन पर विचार किया, न कुंजिमोयतीन की कष्टपूर्ण जिन्दगी पर, मैंने प्रार्थना की कि ईश्वर उसकी बीमारी दूर करे।

डॉक्टर घर में ही था। डॉक्टर को साथ लेकर मैं होटल में पहुंचा। कुंजिमोयतीन वैसा ही लेटा हुआ था। डॉक्टर ने जाँच की, पर वह कराहा तक नहीं, भुनभुनाया भी नहीं। छाती पर हाथ रखते ही वह ज़रा हिला-डुला ! और उसका चेहरा बिलकुल विकृत हो गया !

खून सने कफ की जाँच करने के बाद डॉक्टर की बात की प्रतीक्षा करने लगा कि वे क्या कहने जा रहे हैं ?

डॉक्टर ने पूछा, "सर्दी लग गयी थी ?"

मैं टकटकी बाँधे उन्हें घूरता रहा।

"जल्दी दिखाना था।"

डॉक्टर का प्रत्येक शब्द नपा-तुला-सा लगा।

"दर्द शुरू हुए कितने दिन हुए ?"

"लड़के ने कल ही बताया था !" कोया ही पीछे से यों बोला था। तभी मुझे मालूम हुआ कि मिस्टर कोया और अगल-बगल के कुछ लोग वहाँ पीछे खड़े हैं।

"किसी को भेज दीजिए, मैं दवा दे दूँगा, घबराइए मत।" कहकर वे जाने लगे, मैंने पूछा, "सर, कौन-सी बीमारी है ?"

"निमोनिया है।"

पलंग के पायताने ही मैं बैठ गया। मुझे खौफ महसूस हुआ। लेटे हुए उस लड़के को देखने पर मुझे लगा कि कुंजिमोयतीन कब्र में पाँव लटकाये ही लेटा है।

खौफनाक विचार मन में उठने लगे। मैं ठीक तरह से सोच-विचार भी नहीं कर पा रहा था। मैंने प्रण किया कि चाहे जो भी हो, मैं इस लड़के को छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाऊँगा।

तभी कोया लंबा लेक्चर झाड़ने लगा। उसने उस लड़के के वास्ते क्या-क्या एहसान किये हैं ! वह लड़का मारा-मारा फिर रहा था। तब उसने बुला कर नौकरी दी। फिर भी उसने क्या बदला दिया, सिवा एहसान फरामोशी के ? बीमार होने के बाद वह यहीं लेट गया। क्यों वह अस्पताल नहीं गया ? होटल में ही मर जाता तो ?

मैं अधिक देर तक उसका भाषण नहीं सुन सका। उसके नजदीक जाकर मैं दाँत पीसते हुए बोला, "सभी लोग यहाँ से बाहर चले जायें अस्पताल में ?"

तब मेरी गीली आँखों में उसने पिशाच की मुस्कान देखी होगी।

कमरे में हम दोनों ही बाकी रह गये, मैं और कुंजिमोयतीन।

कुंजिमोयतीन कितना दुलारा लड़का था। जब वह पहले-पहल मेरे साथ आया था तब किसी ने ऐसी अपेक्षा नहीं की थी। मगर अब वह अस्त होनेवाले सूरज की महज एक किरण मात्र है!

बारिश अभी रुकी नहीं थी। आँखें मूंद कर डूबते स्वर में कंजिमोयतीन ने पुकारा, "अम्मी !"

मैं घुटने टेककर पलंग पर बैठ गया। मगर कुछ भी कह न सका। उसके कमजोर हाथ शून्य में किसी को ढूँढ रहे थे।

उन हाथों से बलपूर्वक मुझे थामते हुए उसने पुनः हौले से पुकारा, "अम्मी !"

वह ऐसा मुहूर्त था कि अपनी स्वार्थ चिन्ता की मलिनता को मैंने अपने जिगर से झट से धो लिया था।

"अम्मी, मैं कहीं नहीं जाऊँगा अम्मी ! मैं तुम्हारे पास रहूँगा मैं कहीं बाहर नहीं जाऊँगा अम्मी ।"

फिर उसने अपनी पकड़ ढीली कर दी। उसके चेहरे पर एक सपाट-नीली मुस्कान थिरक रही थी।

मैंने दरवाजे से बाहर देखा। भीगे नीम के वृक्षों के पत्ते झड़ रहे थे। सड़क पर इंसान, बस और ट्रामों का शोर था !

आखिर उसका हाथ ठंडा पड़ गया, मैंने अच्छी तरह छूकर देखा। हाथ ही नहीं, सारा शरीर ही ठंडा हो गया था।

कमरे में सिर्फ मैं ही था। नहीं, मैं और कुंजिमोयतीन दोनों थे।

उम्मर एक कार्ड मेज पर रखकर बाहर चला गया था।

कार्ड में कुंजिमोयतीन को उसकी अम्मी ने लिखा था, "तेरा पत्र मिला नहीं। इससे बड़ी चिन्ता है। तू सकुशल है, ऐसी आशा करती हूँ। फिर तू इधर वापस आ, यही अच्छा है। भूख सहकर ही सही, हम किसी-न-किसी तरह गुजर-बसर कर लेंगे !"

बक्से से नयी धोती लेकर मैंने कुंजिमोयतीन को ढंक दिया।

मेज की दराज से पहले वाला और अभी आया दोनों कार्ड लेकर मैं बड़ी देर तक सोचता रहा। दोनों पत्र उसकी माँ के लिखे हुए थे।

जब वह जीवित था तब उसे पढ़ कर सुनाने की हमदर्दी मुझमें नहीं जागी थी ! उसे मैंने खत के बारे में बताया भी नहीं था। समझाया-बुझाया भी नहीं।

दोनों कार्ड मैंने उसके सिरहाने तब रखे जब वह चल बसा था।

काँपते हाथों से मैंने उन दोनों खतों को बाहर फेंक दिया। तब वह कमरा और बस्ती ही नहीं सारा शहर खामोशी में डूबा हुआ था।

(अनुवाद : प्रो० पी० कृष्णन्)

  • मुख्य पृष्ठ : टी. पद्मनाभन् की कहानियाँ हिन्दी में
  • केरल/मलयालम : कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां