Durmukh (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

दुर्मुख (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

13. दुर्मुख
काल : ६३० ई०

1.

मेरा नाम हर्षवर्धन है। शीलादित्य या सदाचार का सूर्य मेरी उपाधि है। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने लिए विक्रमादित्य (पराक्रम का सूर्य) उपाधि पसन्द की और मैंने यह कोमल उपाधि स्वीकार की। विक्रम में दूसरे को बचाने, दूसरे को सताने की भावना होती है, किन्तु शील (सदाचार) में किसी को दबाने-तपाने की भावना नहीं है। गुप्तों ने अपने लिए परम वैष्णव कहा-मेरे ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन-जिनको गौड़ शशांक ने विश्वासघात से तरुणाई में ही मार डाला और जिसका स्मरण करके आज भी मेरा दिल अधीर हो जाता है-परम सौगत (परम बौद्ध) थे; सुगत (बुद्ध) की भाँति वह क्षमा-मूर्ति थे। सदा उनका चरण-सेवी मानते हुए मैंने अपने लिए परम माहेश्वर (परम शैव) होना पसंद किया; किन्तु शैव होने पर भी मेरे हृदय में बुद्ध की भक्ति कितनी है, इसे भारत ही नहीं भारत के बाहर की दुनिया भी जानती है। मैंने अपने राज्य के सारे धर्मों का सम्मान किया है- प्रजा-रंजन के ही लिए नहीं, बल्कि अपने शील (सदाचार) के संरक्षण के लिए भी। हर पाँचवें साल राजकोष के बचे धन को प्रयाग में त्रिवेणी के तीर ब्राह्मणों और श्रमणों (बौद्ध भिक्षुओं)में बाँटता था। इससे भी सिद्ध होगा, कि मैं सभी धर्मों की समान अभिवृद्धि चाहता रहा। हाँ, मैंने समुद्रगुप्त की भाँति दिग्विजय के लिए यात्रा की थी, लेकिन वह शीलादित्य नाम धारण करने से पहले। यह आप न ख्याल करें कि यदि दक्षिणापथ के राजा पुलकेशी के सम्मुख असफल न हुआ होता, तो विक्रमादित्य की तरह ही कोई पदवी मैं भी धारण करता। मैं सारे भारत का चक्रवर्ती होकर भी चन्द्रगुप्त नहीं, अशोक के कलिंग विजय की भाँति पश्चाताप कर शील द्वारा मनुष्य की विजय करता–मेरा स्वभाव ऐसा ही कोमल है।

राज्य स्वीकार करने से मैं इन्कार करता रहा, क्योंकि स्थाण्वीश्वरपति महाराज प्रभाकरवर्धन का पुत्र, कान्यकुब्जाधिपति परमभट्टारक महाराजाधिराज राज्यवर्धन का अनुज हो, मैंने राज्य-भोगों को देखकर नहीं, भोग कर असार-सा समझ लिया था। भ्राता के मारे जाने के बाद कितने ही समय तक मैं राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार करता रहा। यदि भाई के हत्यारे से प्रतिशोध का क्षत्रियोचित विचार मन में न उठ आया होता, तो शायद मैं कान्यकुब्ज के सिंहासन पर बैठता ही नहीं, और वह मेरी बहन राज्यश्री के पति कुल -मौखरि-कुल- में चला जाता, जो कि वस्तुतः हमारे भाई से पहले वहाँ के गुप्तों के चले जाने पर राज्य का शासन करता था। यह सब मैं इसलिए कहता हूँ कि मेरे बाद आने वाले समझे कि हर्ष ने स्वार्थ की दृष्टि से अपने सिर पर राजमुकुट नहीं रखा। मुझे अफसोस है, मेरे दरबारी चापलूसों ने-राजा चापलूसों से पिंड छुड़ा नहीं सकते, यही बड़ी मुश्किल है-मुझे भी समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के रंग में रँगना चाहा, किन्तु उनकी यह बातें मेरे साथ न्याय नहीं; अन्याय के लिए हैं।

मैंने राज्य स्वीकार किया, सिर्फ शील (सदाचार), धर्म पालने के लिए सारे प्राणियों के हित के लिए। मैंने विद्यादान को भारी दान समझा, इसीलिए गुप्तों के वक्त से बढ़ती चली आती नालन्दा की समृद्धि को और भी बढ़ाया, जिसमें कि वहाँ दस सहस्र देशी-विदेशी विद्वानों और विद्यार्थियों को आराम के साथ विद्याध्ययन करने का सुभीता हो। विद्वानों का सम्मान करना मेरे लिए सबसे खुशी की बात थी, इसीलिए मैंने चीन के विद्वान् भिक्षु-वेन चांग का दिल खोलकर सम्मान किया। वाण की अद्भुत काव्य-प्रतिभा को देखकर मैंने उसे भुजंगता (लम्पटता) से हटाकर अच्छे रास्ते पर लगाना चाहा-यद्यपि वह बहुत ऊपर नहीं उठ सका और कालिदास के कदमों पर चल सिर्फ खुशामदी कवि ही बना रहा। किन्तु मगध के एक छोटे से गाँव से निकालकर उसे विश्व के सामने रखने का प्रयास मेरे विद्या-प्रेम का ही द्योतक था।

मैं चाहता था, सभी अपने-अपने धर्म का पालन करें। अपने धर्म पर चलना ही ठीक है। इसी से संसार में शान्ति और समृद्धि रहती है, और परलोक बनता है। सभी वर्ण वाले अपने वर्ण-धर्म का पालन करें, सभी आश्रम वाले अपने आश्रम का पालन करें, सभी धर्ममत अपने श्रद्धा-विश्वास के अनुसार पूजा-पाठ करें-इसके लिए मैं सदा प्रयत्नशील रहा।

कामरूप (आसाम) से सौराष्ट्र (काठियावाड़) और विन्ध्य से हिमालय तक अपने विस्तृत राज्य में न्याय का राज्य स्थापित किया। मेरे अधिकारी (अफसर) जुल्म न करने पायें, इसके लिए समय-समय पर मैं स्वयं दौरा करता था। मैं इसी तरह के एक दौरे पर था, जबकि ब्राह्मण बाण मेरे बुलाने पर मेरे पास आया था । अपने जाने उसने मेरी कीर्ति बढ़ानी चाही, किन्तु मैं समझता हूँ, यात्रा में भी जिस तरह के मेरे राजसी ठाट-बाट का वर्णन उसने किया है, वह मेरा नहीं, किसी विक्रमादित्य के दरबार का हो सकता है। मेरी जीवनी (हर्ष-चरित) वह चुपके-चुपके लिख रहा था। मुझे एक दिन पता लगा, तो मैंने पूछा। उसने लिखित अंश मुझे दिखाया। मैंने उसे बहुत नापसंद किया और डाँटा भी, जिसका एक परिणाम तो जरूर हुआ कि वह उतने उत्साह से आगे न लिख सका। उसकी 'कादम्बरी' को मैंने अधिक पसंद किया-यद्यपि उसमें राजदरबार, रनिवास, परिचारक-परिचारिकाः प्रासाद, आराम आदि का ऐसा वर्णन किया गया है, जिससे लोगों को खामखाह भ्रम होगा कि यह सारा वर्णन मेरे ही राज-दरबार का है। मुझे अपनी पारसीक रानी से बहुत प्रेम रहा है। वह नौशेरवाँ की पोती ही नहीं है, बल्कि अपने गुणों और रूप से किसी भी पुरुष को मोह सकती है। बाण ने उसी का महाश्वेता के नाम से वर्णन किया। मेरी सौराष्ट्री रानी कुछ उमर ढलने पर आई थी। उसके दिल को सन्तुष्ट करने, उसके निवास को सजाने के लिए मैंने कुछ विशेष आयोजन किया था। बाण ने उसे ही कादम्बरी और उसके निवास के रूप में अंकित कर दिया है। बाण की रचना में इन दो बातों को छोड़ बाकी किसी वर्णन को मेरा नहीं समझना चाहिए, या बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण समझना चाहिए।

मैं अपने अन्तिम दिनों में अनुभव कर रहा हूँ, कि बाण मेरा हितैषी साबित नहीं होगा। बाण के 'हर्षचरित' ही में नहीं, ‘कादम्बरी' में भी जो कुछ राजा और उनके ऐश्वर्य के बारे में वर्णन किया गया है; उसे लोग मेरा ही वर्णन कहेंगे। और फिर 'नागानन्द', 'रत्नावली' और 'प्रियदर्शिका' नाटकों को उसने मेरे नाम से लिखकर तो और भी अनर्थ किया है। लोग कहेंगे, कीर्त्ति का भूखा होकर हर्ष ने पैसे दे दूसरे के ग्रन्थों को अपने नाम पर मोल खरीदा। मैं सच कहता हूँ, मुझे इस बात का पता बहुत पीछे लगा, जबकि हजारों विद्यार्थी मेरे नाम से इन ग्रन्थों को पढ़ चुके थे और कितनी ही बार वे खेले भी जा चुके थे।

मैं अपनी प्रजा को सुखी देखना चाहता था। मैंने उसे देखा। मैं अपने राज्य को शान्त और निरापद देखना चाहता था। अन्त में यह साध भी पूरी होकर रही और लोग उसमें सोना उछालते हुए एक जगह से दूसरी जगह जा सकते थे।

मेरे कुल के बारे में अभी ही पीठ-पीछे लोग कहने लगे हैं कि वह बनियों का कुल है। यह बिल्कुल गलत है। हम वैश्य क्षत्रिय हैं, बनिये नहीं। किसी समय हमारे शातवाहन-कुल में सारे भारत का राज्य था। शातवाहन राज्य के ध्वंस के बाद हमारे पूर्वज गोदावरी-तीर के प्रतिष्ठानपुर (पैठन) को छोड़ स्थाण्वीश्वर (थानेसर) चले आये। शातवाहन (शालिवाहन) वंश कभी बनिया नहीं था, यह सारी दुनिया जानती है; यद्यपि उसका शक क्षत्रियों के साथ शादी-ब्याह होता था; जो राजाओं के लिए उचित ही है। मेरी भी प्रिया महाश्वेता पारसीक राजवंश की है।

2.

बाण मेरा नाम है। मैंने कितने ही काव्य-नाटक लिखे हैं, जिनकी कसौटी पर ही लोग मुझे कसना चाहेंगे, इसीलिए मुझे यह लेख लिखकर छोड़ना पड़ रहा है। मुझे निश्चय है कि वर्तमान राजवंश के समय तक यह लेख नहीं प्रकट होगा। मैंने इसके रखने का इन्तजाम किया है। आने वाले लोग मेरे बारे में गलत धारणा रखने से बच जायेंगे, यदि मेरी प्रसिद्ध पुस्तकें पढ़ने के पहले इस लेख को पढ़ लेंगे।

राजा हर्ष ने भरी सभा में मुझे भुजंग (लम्पट) कहा था, जिससे लोगों को भ्रम हो सकता है। मैं धनी पिता का लाड़ला पुत्र था। भास, कालिदास की कृतियों को पढ़कर मेरी तबियत रंगीन हो गई थी, इसमें सन्देह नहीं। मेरे पास रूप और यौवन था। मुझे देशाटन का शौक था। मैंने यौवन का आनन्द लेना चाहा, और चाहता तो अपने पिता की भाँति घर पर ही वह ले सकता था, किन्तु मुझे वह भारी पाखंड जँचा- भीतर से काम-स्वेच्छाचारी होते हुए भी बाहर से अपने को जितेन्द्रिय, संयमी, पुजारी, महात्मा प्रकट करना मुझे बहुत बुरा लगता । मैंने जीवन-भर इसे पसन्द नहीं किया। जो कुछ किया, प्रत्यक्ष किया। पिता ने अपने असवर्ण पुत्र को स्वीकार कर सिर्फ एक ही बार हिम्मत दिखलाई थी; किन्तु, वह तरुणाई का 'पाप' गिना जा सकता था। मैंने देखा, जवानी के जिस आनन्द को मैं लेना चाहता हूँ, उसे अपनी जन्मभूमि में नहीं ले सकता। वहाँ सारे जाति-कुल वाले बिगड़ जायेंगे, फिर धन-वित्त से भी हाथ धोना पड़ेगा। मुझे एक अच्छा ढंग याद आया। मैंने अपनी एक नाटक-मंडली बनाई—हाँ, मगध से बाहर जाकर । फिर मेरे तरुण मित्र वहीं थे, जो गुणी और कला-कुशल थे। धूर्त, खुशामदी, मूर्ख बनाने वाले मित्रों को मैं कभी पसन्द नहीं करता था। मैंने अपनी मंडली में कितनी ही सुन्दर तरुणियों को भी शामिल किया, जिनमें सभी वार-वनिताएँ (वेश्याएँ) नहीं थीं। इसी यात्रा में मैंने अभिनय करने के लिए 'रत्नावलि', प्रियदर्शिका' आदि नाटक-नाटिकाएँ लिखीं। मैंने तरुणाई के आनन्द के साथ कला को भी मिला दिया, और इसमें कला की जो सेवा हुई उसे देखते हुए सहृदय पुरुष मेरी प्रशंसा ही करेंगे। मैंने जीवन का आनन्द लिया, साथ ही आपको 'रत्नावलि', 'प्रियदर्शिका' आदि प्रदान की। दूसरे भोगी हैं, जो सिर्फ अपने आनन्द-भर को ही सब कुछ समझते हैं।

लोग कहेंगे, मैंने राजा हर्ष को प्रसन्न करने के लिए अपने नाटकों को उसके नाम से प्रकट कर दिया। उन्हें यह मालूम नहीं कि जिस वक्त प्रवास में ये नाटक लिखे गये थे, उस वक्त मैं हर्ष का सिर्फ नाम-भर जानता था। उस वक्त मुझे यह भी पता न था कि कभी हर्ष मुझे बुलाकर अपना दरबारी कवि बनायेंगे। मैंने इन नाटकों का कर्ता हर्ष को सिर्फ अपने को छिपाने के लिए प्रकट किया। इन नाटकों के पढ़ने वाले उनके मूल्यों को जानते हैं। वह बिल्कल नये थे। मेरे दर्शकों में गुणी जनों की संख्या भी होती थी। पंडित, राजा, कलाविद् खास तौर से उन्हें देखने आते थे। यदि उनको पता लग जाता तो मैं नाटक-मंडली का सूत्रधार न रह पाता। लोग महाकवि बाण के पीछे पड़ जाते। मैंने हर्ष को छोड़ कामरूप (आसाम) से सिन्धु और हिमालय से सिंहल के अनुराधपुर तक के राजदरबारों को अपने नाटक दिखलाये थे। ख्याल कीजिये, यदि कामरूपेश्वर, सिंहलेश्वर तथा कुन्तलेश्वर को पता लग जाता कि नाटकों का महाकवि यही बाणभट्ट्ट है, तो फिर मेरे पर्यटन, मेरे आनन्दानुभव को , क्या होता ? मैं दरबारी कवि नहीं बनना चाहता था। यदि हर्ष के राज्य में बसता न होता, तो उसका भी दरबारी कवि न बनता। मेरे पास पिता की काफी सम्पत्ति थी।

आपको ख्याल हो सकता है, हर्ष के कहने के अनुसार मैं निरा भुजंग-वेश्या, लम्पट-था। मेरी मंडली में वार-वनिताएँ बहुत कम आई । जो आई, उन्हें मैंने नृत्य-संगीत-अभिनय-कला के ख्याल से लिया। मेरे नाट्य-गगन की तारिकाएँ दूसरी ही तरह आती थीं। आगे क्या होगा, नहीं जानता; किन्तु इस वक्त देश की सारी तरुणियाँ राजाओं और उनके सामन्तों की सम्पत्ति समझी जाती हैं-चाहे वे ब्राह्मण की कन्याएँ हों या क्षत्रिय की। मेरी बुआ को मगध के एक मौखरि सामन्त ने जबरदस्ती रख लिया था। वह मर गया, और बुआ की आयु भी गिर गई. तो वह हमारे घर रहा करती थीं। मेरे ऊपर उनका परम स्नेह था। मैंने उनके उस सामन्त-सम्बन्ध की ओर कभी ख्याल नहीं किया। आखिर उस अबला का दोष क्या था ? सुन्दर तरुणियाँ कम होती हैं, किन्तु, जब उनके प्रथम अधिकारी कुछ थोड़े-से सामन्त हों, तो एक-एक सामन्त पर उनकी कितनी संख्या पड़ेगी, इसे आप खुद समझ सकते हैं। सामन्तों और राजाओं ने इन तरुणियों के स्वीकार के कई तरीके निकाले थे। कोई-कोई पति के पास जाने से पहली रात को उन्हें अपनी समझते थे। इसे लोग धर्म-मर्यादा समझने लगे थे और अपनी बेटियों, बहओं तथा बहनों को डोलियों पर बैठाकर अन्तःपुर में एक रात के लिए पहुँचाते थे। डोला न भेजने का मतलब था सर्वनाश। पसन्द आने पर वह रनिवास में रख ली जाती थी-रानी के तौर पर नहीं, परिचारिका के तौर पर। रानी बनने का सौभाग्य तो सिर्फ राजकुमारियों और सामन्त-कुमारियों को ही हो सकता था। अंतःपुर (रनिवास) की इन हजारों-हजार तरुणियों में अधिकांश ऐसी थीं, जिन्हें एक दिन से अधिक राजा या सामन्त का समागम नहीं प्राप्त हुआ। बतलाइए, उनकी तरुणाई उनसे क्या माँगती होगी ? मेरी अभिनेत्रियाँ अधिकतर इन्हीं रनिवासों से आती थीं, और चोरी से भागकर नहीं। इसे बुरा समझिये या भला, मैं राजाओं और सामन्तों को बात की बात में अपनी ओर खींचने में सिद्धहस्त था-राजनीति में नहीं, उससे मेरा कोई मतलब न था। इसकी साक्ष्य दे रहे वे सैकड़ों पत्र, जो राजाओं और राज-सामन्तों की ओर से मेरी प्रशंसा में मिले थे। जब वह कला की तारीफ करते, तो मैं कलाविद् का रोना, रोना शुरू करता-क्या करें देव, कलाकार तरुणियाँ होने पर भी मिलती ही नहीं।

"होने पर भी नहीं मिलतीं ?"

"एक दिन के चुम्बन, एक दिन के आलिंगन या एक दिन की सहशरया के बाद जहाँ लाखों तरुणियाँ अंतःपुरों में बन्द करके रख दी जायँ, वहाँ कलाकार स्त्रियाँ कहाँ से मिलें ?"

"ठीक कहते हो, आचार्य ! मैं इसे अनुभव करता हैं, किन्तु एक बार अन्तःपुर में रख लेने पर हम उन्हें निकालें कैसे ?"

"इस पर मैं उन्हें ढंग बतलाता। गाना-नाचना, आज हमारी राज-कन्याओं, सामन्त-कन्याओं और राजान्तः पुरिकाओं के लिए अनिवार्य है। यह मानो उनके लिए जल और आहार के तौर पर है। मैं अपनी चतुर नारियों को भेजता । राजा अपनी उन अन्तःपुरिकाओं को कला सीखने के लिए उनके पास जाने को कहता। जिसे हमें लेना होता, उसे अन्तःपुर के कष्ट और कलाविद् के जीवन का आनन्द बतलाते; साथ ही यह भी कि जैसे यहाँ राजा ने हमारी मंडली की एक निपुण नटी को रनिवास में ऊँचा स्थान दिया है, वैसे ही हो सकता है, तुम्हें भी आगे मौका मिले। इतना कहने पर अनेक तरुणियों का राजी होना स्वाभाविक था-यद्यपि हम उनमें से योग्यतम को ही लेते । राजा लोगों ने जीवन में एक बार के समागम के लिए जहाँ हजारों तरुणियों का अवरोध कर रखा हो, वहाँ अन्तःपुर में पुरुष प्रवेश के कड़े, निषेध से भी कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। बूढ़े कंचुकी, ब्राह्मण उनको तरुणाई के आनन्द से रोक नहीं सकते।

मैंने जब विधवा के सती होने का विरोध किया तो पाखंडियों ने-ब्राह्मणों और राजाओं से बढ़कर दुनिया में कोई पाखंडी नहीं हो सकता-बड़ा ही हल्ला मचाया। कहने लगे, वह गर्भ-हत्या और विधवा-विवाह फैलाना चाहता है। गर्भ-हत्या मैं बिल्कुल नहीं चाहता, किन्तु वहाँ पर यह स्वीकार करने में कोई उज्र नहीं, कि मैं विधवा-विवाह पसन्द करता हूँ। गुप्तों के शासन से हमारा पुराना धर्म कुछ से कुछ हो गया। जहाँ हमारे श्रोत्रिय बिना वत्सतरी माँस के किसी आतिथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, वहाँ अब गोमांस-भक्षण को धर्म-विरुद्ध समझा जाता है। जहाँ हमारे ऋषि विधवाओं के लिए देवर-दूसरा वर-बिल्कुल उचित समझते और कोई तरुण विधवा ब्राह्मणी, क्षत्रियाँ छ: महीने-बरस दिन से ज्यादा पति-विधुरा नहीं रह सकती थीं, वहाँ अब उसे धर्म-विरुद्ध समझा जाने लगा। स्वयं इन सारी खुराफातों-इस नये (हिन्दू) धर्म-की जड़ गुप्त राजवंश में ही रामगुप्त की विधवा नहीं सधवा स्त्री को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी पटरानी बनाया था। तरुण स्त्री को विधवा रखने में बह्मा-विष्णु-महेश्वर भी नहीं रोक सकते, और किस मुँह से रोकेंगे, जबकि अपनी-अपनी पत्नियों के रहते वह खुद पराई स्त्रियों के पीछे दौड़ने से बाज नहीं आये। तरुण-विधवा रखने का आवश्यक परिणाम है गर्भपात, क्योंकि बच्चा उत्पन्न कर पालन करने का मतलब है विधवा-विवाह स्वीकार करना, जिससे कि वह बचना चाहते हैं। इसी डर से अब ब्राह्मणों और सामन्तों ने कुलीनता सिद्ध करने का नया ढंग निकाला है। वह है विधवाओं का जिन्दा जलाना । स्त्री को इस तरह जिन्दा जलाने को वे लोग महापाप नहीं, महापुण्य समझते हैं। हर साल लाखों लाख तरुणियों को बलात् अग्निशात् करते देख जिन देवताओं का हृदय नहीं पसीजता वह या तो वस्तुतः ही पत्थर के हैं अथवा हैं ही नहीं। कहते हैं, स्त्री सती अपने मन से होती है ! धूर्त ! पाखंडी ! नराधम ! इतना झूठ क्यों बोलते हो ? इन राजाओं के अन्तःपुरों की एक बार की स्पर्ष्य सैकड़ों स्त्रियों में-जिन्हें तुम आग में भूनकर सती बना रहे हो-कितनी हैं, जिनका उस नर-पशु के साथ जरा भी प्रेम है, जिसने उन्हें जीवन भर के लिए बन्दिनी बनाया। उसके लिए प्रेम ! और वियोग में पागल हो आग में कूदने को जो एकाध दृष्टांत मिलता है, उसके पागलपन को भी दो-चार दिनों में ठंडा किया जा सकता है। आत्म-हत्या धर्म ! सत्यानाश हो तुम पाखंडी पुरोहितों और राजाओं का प्रयाग के उस बरगद-अक्षयवट-से जमुना में कूदकर मरने को इन्होंने धर्म बतलाया, जिसके कारण हर साल हजारों पागल मरकर ‘स्वर्ग' पहुँच रहे हैं ! केदारखंड के सत्पथ में जा बर्फ में गलने को इन्होंने धर्म कहा, जिसके कारण हर साल सैकड़ों सत्पथ के रास्ते स्वर्ग सिधारते हैं।

मैं सारी आत्म-हत्याओं के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता था, क्योंकि मुझे ब्राह्मणों में राजा के आश्रित रहना था। राजा के आश्रित रह रहा हूँ किन्तु यह आश्रय लेना जान-बूझकर न था। मेरी अपनी सम्पत्ति इतनी थी कि मैं एक संयत भोगपूर्ण जीवन बिता सकता था। अपने समय के धर्मध्वजी राजाओं और ब्राह्मणों से मैं बहुत अधिक संयम रख सकता था। हर्ष और दूसरे राजर्षियों की भाँति मैं लाख-चुम्बी (लाख सुन्दरियों को भोगने वाला) बनने की होड़ रखने वाला था। ज्यादा-से-ज्यादा सौ सुन्दरियाँ होंगी, जिनके साथ मेरा किसी-न-किसी समय प्रेम रहा होगा। किन्तु मेरा घर, संपत्ति, सब कुछ हर्ष के राज्य में था। जब उसका दूत पर दूत आ रहा हो, फिर मैं कैसे राज-दरबार में जाने से इन्कार करता ? हाँ, यदि. मैं भी अश्वघोष होता, घर-द्वार की फिक्र न होती, तो हर्ष की परवाह न करता।

हर्ष के बारे में यदि आप मेरी गुप्त सम्मति पूछेगे, तो मैं कहूँगा कि अपने समय का वह बुरा मनुष्य या बुरा राजा न था। अपने भाई राज्यवर्धन के साथ उसका बहुत प्रेम था, और यदि भाई के लिए सती होने का भी हमारे धर्मनायकों ने विधान किया होता, या संकेत भी कर रखा होता, तो वह उसे कर बैठता। लेकिन साथ ही उसमें दोष भी थे, और सबसे बड़ा दोष था दिखावा-प्रशंसा की इच्छा रखते हुए भी अपने को निस्पृह दिखलाना; सुन्दरियों की कामना रखते हुए अपने को कामना-रहित जतलाना;कीर्ति की वांछा रखते हुए कीर्ति से कोसों दूर बतलाने की चेष्टा दर्शाना। मैंने हर्ष को बिना पूछे अपने नाटकों को'हर्ष निपुण कवि' के नाम से क्यों प्रसिद्ध किया, इसके बारे में कह चुका हूँ। किन्तु परिचय, तथा रात-दिन की संगति होने के बाद उसने कभी नहीं कहा-'बाण, अब इन नाटकों को अपने नाम से प्रसिद्ध होने दो।' यह बिल्कुल आसान था। सिर्फ एक बार उसके अधीन सामन्त-दरबारों में 'श्री हर्षो निपुणःकविः' की जगह 'श्री बाणो निपुणः कविः' के साथ नाटक के अभिनय करा देने भर की जरूरत थी।

मुझे जगत् जैसा है, उसे वैसा ही चित्रित करने की बड़ी लालसा थी। यदि मैंने पर्यटन में अपने बारह वर्ष न बिताये होते, तो शायद यह लालसा न उत्पन्न होती, अथवा उत्पन्न भी होती, तो मैं उसका निर्वाह नहीं कर सकता। मैंने जहाँ आच्छोदसरोवर का वर्णन किया, वह हिमालय की तराई की एक सुन्दर भूमि मेरे सामने थी। कादम्बरी-भवन का वर्णन करने में हिमालय का कोई दृश्य था। विन्ध्याटवी में अपनी एक देखी जगह में जरद् (बूढे) द्रविड़ धार्मिक को मैंने बैठाया। लेकिन इतने ही चित्रण से मैं अपनी तूलिका को विश्राम नहीं देना चाहता था। मैंने हर्ष तथा दूसरे अपने सुपरिचित राजाओं के प्रासादों, अन्तःपुरों और उनकी लक्ष्मी का चित्रण अपने ग्रन्थों में किया; किन्तु, मैं उन कुटियों और उनके वेदनापूर्ण जीवन को नहीं चित्रित कर सका, जिनकी वह अवस्था इन्हीं प्रासादों और रनिवासों के कारण है। यदि चित्रित करता तो इन सारे राज-प्रासादों तथा राज-भोगों पर इतनी जबरदस्त कालिमा पुतती कि हर पाँचवें साल प्रयाग में राजकोष-गलत है, अतिरिक्त कोष-उड़ाने वाला हर्ष फिर मुझे भुजंग की पदवी देकर भी संतुष्ट न होता।

3.

मुझे लोग दुर्मुख कहते हैं, क्योंकि कटु सत्य बोलने की मुझे आदत है। हमारे समय में और भी कटु सत्य बोलने वाले जब-तब मिलते हैं; किन्तु वह पागलों के बहाने वैसा करते हैं, जिसके कारण कितने ही सचमुच पागल समझते हैं और कितने ही श्रीपर्वत से आया कोई अद्भुत सिद्ध। मैं भी इस श्रीपर्वत के युग में एक अच्छा-खासा सिद्ध बन सकता था, किन्तु उस वक्त मेरा नाम दुर्मुख नहीं होता। किन्तु यह लोक-वंचना मुझे पसन्द नहीं। लोक-वंचना के ही ख्याल से मैंने नालन्दा छोड़ा, कोई नहीं तो मैं भी वहाँ के पंडितों, महापंडितों में होता। वहाँ मैंने एक आदमी को अन्धकार-राशि में अंगार फेंकते देखा था; किन्तु यह भी देखा कि किस तरह अपने-पराये उसके पीछे पड़े हैं। आपको जिज्ञासा होगी उस आदमी के बारे में। वह था तार्किकश्रेष्ठ, हजारों पुरुष-भेड़ों में एक ही पुरुष-सिंह धर्मकीर्ति । नालन्दा में बैठे हुए उसने डंके की चोट से कहा-'बुद्धि के भी ऊपर पोथी को रखना, संसार के कर्ता ईश्वर को मानना, स्नान करने के धर्म होने की इच्छा, जन्म-जाति का अभिमान, पाप नाश करने के लिए शरीर को सन्तप्त करना अक्ल मारे हुओं की जड़ता के ये पाँच लक्षण हैं। १

(१: वेदप्रामाण्यं कस्यचित्कर्तृवादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः ।
सन्तपारंभः पापहानाय चेति ध्वस्तप्रज्ञानां पचलिंगानि जाड्ये।।
--प्रमाणवार्तिका)

मैंने धर्मकीर्ति से कहा-"आचार्य, तुम्हारा हथियारे तीक्ष्ण है; किन्तु इतना सूक्ष्म हो गया है कि यह लोगों को नजर ही नहीं पड़ेगा।"

धर्मकीर्ति ने कहा-“मैं भी अपने हथियार की कमजोरी को समझता हूँ। जिसको मैं ध्वंस करना चाहता हूँ, उसके लिए मुझे कवचहीन हो सबको दिखला देने वाले प्रचण्ड हथियारों को हाथ में लेना चाहिये। नालन्दा के स्थविर-महास्थविर (सन्त महन्त) अभी से मुझसे नाराज हैं। क्या तुम समझते हो, मैं एक भी विद्यार्थी पा सकेंगा, यदि मैं कहना शुरू करूं-'नालंदा एक तमाशा है, जिससे ऐसे विद्यार्थी आते हैं, जो कभी विस्तृत लोक को आलोकित नहीं कर सकते, वह अपने ज्ञान-तेज से अज्ञों-अल्पज्ञों की आँखों में चकाचौंध-भर पैदा कर सकते हैं।' जिनको शीलादित्य के दिये गाँव से सुगन्धित चावल, तेमन, घी खजूर आदि मिलते हैं, वह शीलादित्य भोग का शिकार बना प्रजा को कैसे विद्रोही बनने का संदेश दे सकता है?"

"तो आचार्य ! आपको इस अन्धरात्रि से निकलने का कोई रास्ता सूझता है ?"

"रास्ता! हर एक रोग की दवा होती है, हर एक विपत् से निकलने का कोई मार्ग होता है; किन्तु इस अन्धरात्रि से निकलने का रास्ता पा इस वैतरणी का सेतु एक पीढ़ी में नहीं बन सकता, मित्र ! क्योंकि इसके बनाने वाले हाथ इतने कम हैं और उधर अंधकार का बल जबरदस्त है।"

"तो हताश हो बैठ जाना चाहिए ?"

"बैठ जाना लोक-वंचना से कहीं अच्छा है। देखते नहीं; जिन्हें मार्गदर्शक होना चाहिए, वह कितने लोक-वंचक हैं ? और यह अवस्था सिर्फ एक देश की नहीं, सारे विश्व की मालूम हो रही है। सिंहल, सुवर्णद्वीप, यवद्वीप, कम्बोजद्वीप, चम्पाद्वीप, चीन, तुषार, पारस्य-कहाँ के विद्वान् विद्यार्थी हमारे नालन्दा में नहीं हैं। उनसे बात करने से मालूम होता है कि लोक अंधा बना दिया गया है-'धिग् व्यापकं तमः' ।"

धर्मकीर्ति ने सहस्राब्दियों तक जलते रहने वाले शब्दांगारों को फेंक इस निशान्धकार को दूर करने की कोशिश की; किन्तु तत्काल तो उसका मुझे कोई असर होता दिखलाई नहीं देता। मैंने तय किया, जलती हुई दीपयष्टियों (मशालों) को फेंकने का । इसका एक फल तो यह हुआ कि मैं दुर्मुख बन गया। यहाँ यह साफ कर देना चाहता हूँ कि अपनी जीभ को इस्तेमाल करने में मुझे भी राजसत्ता पर सीधे प्रहार न करने का ख्याल रखना पड़ता है, नहीं तो दुर्मुख का मुख दस दिनों में बन्द कर दिया जाय। फिर भी आँख बचाकर कभी-कभी मैं दूर तक चला जाता हूँ।

आखिर इसका क्या अर्थ है, तुम मरने के बाद मुक्ति और निर्वाण दिलाने की बात करते हो, और यह जो लाखों दास पशुओं की भाँति बँधे बिक रहे हैं, उन्हें मुक्त करने की कोशिश क्यों नहीं करते ? मैंने एक बार प्रयाग के मेले पर राजा शीलादित्य से यही सवाल किया था-"महाराज । तुम जो बड़े-बड़े धनी विहारों और ब्राह्मणों में पाँचवें साल इतना धन बाँट रहे हो, इसे दास-दासियों को मुक्त कराने में लगाते, तो क्या वह कम पुण्य का काम होता ?"

शीलादित्य ने दूसरे समय बाते करने की बात कहकर टालना चाहा किन्तु मैंने दूसरा समय भी निकाल लिया, और निकालने का मौका राजा की बहन भिक्षुणी राज्यश्री ने जबरदस्ती दिलाया। मैंने राज्यश्री के सामने दास-दासियों की नरक-यातना का चित्र खींचा। उसका दिल पिघल गया। फिर जब मैंने कहा कि धन देकर इन सनातन-पीढ़ी-दर-पीढ़ी के बन्दी मानवों को मुक्ति प्रदान करना सबसे पुण्य की बात है, तो यह उसके मन में बैठ गया। बेचारी सरल हृदया स्त्री दासता के भीतर छिपे बड़े-बड़े स्वार्थों की बात क्या जाने ? उसे क्या मालूम था कि जिस दिन भूमि को स्वर्ग में परिणत कर दिया जायेगा, उसी दिन आकाश का स्वर्ग ढह पड़ेगा। आकाश-पाताल के स्वर्ग-नरक को कायम रखने के लिए, उसके नाम पर बाजार चलाने के लिए जरूरत है भूमि के स्वर्ग-नरक की, राजा-रंक की, दास-स्वामी की।

राजा ने अकेले में बात की उसने पहले तो कहा-"मैं एक बार बहुत-सा कोष खर्च कर मुक्त तो कर सकता हैं, किन्तु फिर गरीबी के कारण वह बिक जायेंगे।"

"आगे के लिए मनुष्य का क्रय-विक्रय दण्डनीय कर दें।"

फिर वह चुपचाप सोचने लगा। मैंने उसके सामने 'नागानंद' के नाग का दृष्टांत दिया, जिसने दूसरे के प्राण को बचाने के लिए अपना प्राण देना चाहा। 'नागानंद' हर्ष राजा का बनाया नाटक कहा जाता है, क्या जवाब देता ? आखिर में यही पता लगा कि दास-दासियों को मुक्त करने में उसको उतनी कीर्ति मिलने की आशा नहीं, जितनी कि श्रमण-ब्राह्मणों की झोली भरने या बड़े-बड़े मठ-मन्दिरों के बनाने में। मुझे उसी दिन पता लग गया कि वह शीलादित्य नहीं, शीलान्धकार है।

बेचारे शीलादित्य को ही मैं क्यों दोष हूँ ? आजकल कुलीन, नागरिक होने का यह लक्षण है कि सब एक-दूसरे की वंचना करें। पुराने बौद्ध-ग्रंथों में बुद्धकालीन रीति-रिवाजों को पढ़कर मैं जानता हूँ कि पहले मद्य पीना वैसा ही था, जैसा कि पानी पीना। न पीने को उस वक्त उपवास-व्रत मानते थे। आजकल ब्राह्मण मद्यपान को निषिद्ध मानते हैं, और खुलकर पीना आफत मोल लेना है। किन्तु इसका परिणाम क्या है ? देवता के नाम पर सिद्धि-साधना के नाम पर छिपकर भैरवीचक्र चल रहे। हैं। ब्रह्मचर्य का भारी हल्ला मचा हुआ है; किन्तु परिणाम ? भैरवीचक्र में अपनी-पराई सभी स्त्रियाँ जायज हैं। यही नहीं, देवता के वरदान के नाम पर वहाँ माँ, बहन बेटी तक को जायज कर दिया गया है। और परिव्राजकों, भिक्षुओं के अखाड़े तो अप्राकृतिक व्यभिचार के अड्डे बन गये हैं। यदि सचमुच इस दुनिया को देखने-सुनने वाला कोई होता, तो इस वंचना, इस अन्धेर को वह एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त न करता।

एक बार मैं कामरूप गया था। वहाँ के राजा नालंदा के प्रेमी और महायान पर भारी श्रद्धा रखते थे। मैंने कहा-"महायानी बोधिसत्व के व्रत को मानते हैं, जिस व्रत में कहा गया है कि जब तक एक भी प्राणी बन्धन में हैं, तब तक मुझे निर्वाण नहीं चाहिए। आपके राज्य में महाराज ! इतने चण्डाल है जो नगर में आते हैं, तो हाथ से डंडा पटकते आते हैं, जिससे लोग सजग हो जायँ और उनको छूकर अपवित्र न बनें। वह अपने हाथों में बर्तन लेकर चलते हैं, जिसमें उनका अपवित्र थूक नगर की पवित्र धरती में न पड़ जाय। कुत्ते के छूने से आदमी अपवित्र नहीं होता और न उसकी विष्ठा ही नगर को चिर-दूषित करती है, फिर क्या चण्डाल कुत्ते से भी बदतर हैं?"

"कुत्ते से बदतर नहीं हैं। उनमें भी वह अंकुर, जीवन-प्रवाह मौजूद है, जो कभी विकसित हो बुद्ध बन सकता है।"

"फिर क्यों नहीं राज्य में डुग्गी पिटवा देते कि आज से किसी चण्डाल को नगर में डंडा या थूक का बर्तन लाने की जरूरत नहीं ।"

"यह मेरी शक्ति से बाहर की चीज है।"

"शक्ति से बाहर !"

"हाँ, धर्म-व्यवस्था ऐसी ही बँधी हुई है।"

“बोधिसत्वों के धर्म की--महायान की यही व्यवस्था है ?"

"लेकिन यहाँ की सारी प्रजा महायान पर तो नहीं चलती।"

"मैं गाँव, पुर, सर्वत्र त्रिरत्न की जयदुन्दुभी बजते देखता हूँ।"

"हाँ, कहने के लिए। जिस दिन मैं यह घोषित करूँगा, उसी दिन मेरे प्रतिद्वन्दी भड़काकर तूफान खड़ा करेंगे कि यह तो सनातन से चले आये सेतु को तोड़ रहा है।"

"क्या बोधिसत्व जीवन की महिमा के बारे में अहर्निश जो उपदेश हो। रहे हैं, उनका किसी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ रहा है ? मैं समझता हूँ, महाराज ! कुछ पर असर जरूर पड़ा है, और यदि बोधिसत्व की भाँति आप अपना सब कुछ अर्पण करने के लिए तैयार हो जायँ, तो आपके पीछे चलने वाले बहुत से मिल जायेंगे।"

"राज्य के भीतर का सवाल ही नहीं, हमारे परमभट्टारक देव भी नाराज हो जायेंगे।"

"शीलादित्य हर्ष ! जिन्होंने 'नागानंद’ नाटक में बोधिसत्व-जीवन का भव्य चित्र चित्रित किया है।"

"हाँ, चला आया सेतु तोड़ना किसी के बस की बात नहीं है।"

"यही बात यदि तथागत समझते ? यही बात यदि आर्य अश्वघोष समझते ? यही बात यदि आर्य नागार्जुन समझते ?"

"उनको साहस था, तो भी सेतु तोड़ने में वह भी दूर तक नहीं जा सके।"

"दूर तक नहीं, नजदीक तक ही बढ़िए, महाराज ! कुछ आप बढ़ेंगे, कुछ आगे आने वाले बढ़ेंगे।"

"क्या मुझे आप अपने मुँह से कायर कहलाकर ही छोड़ेंगे ?"

"कायर नहीं, किन्तु यह जरूर कि धर्म हमारे लिए ढोंग है।"

"मेरे दिल से पूछिए तो मैं 'हाँ' कहूँगा, किन्तु यदि जीभ से पूछिए, तो वह या तो साफ 'नहीं' कहेगी, अथवा गूँगी बन जायेगी।"

ब्राह्मणों के धर्म से मुझे नफरत है। वस्तुतः कामरूप-नृपति जैसे कितने ही दिल के भले लोगों को कायर बनाने का दोष इसी ब्राह्मण-धर्म को है। जिस दिन यह धर्म इस देश से उठ जायेगा, उस दिन पृथ्वी का एक भारी कलंक उठ जायेगा। नालंदा में आये विदेशी भिक्षुओं से सुना कि उनके देश में ब्राह्मण-जैसी कोई सर्वशक्तिमान् धर्मनायक जाति नहीं है। उनके इस तरह कहने से मुझे यह भी समझ में आ गया कि क्यों उन देशों में डंडे और पुरवे लेकर चलने वाले चण्डालों का पता नहीं । ब्राह्मणों ने हमारे देश के मनुष्यों को छोटी-बड़ी जातियों में इस तरह बाँट दिया है कि कोई अपने से नीचे वाले को अपने से मिलने देने के लिए तैयार नहीं । इनका धर्म और ज्ञान साफ राहु-केतु की छाया है।

नालंदा में देश-देशान्तरों की विचित्र खबरें बहुत मिला करती थीं, इसीलिए मैं एक-दो वर्ष पर्यटन कर फिर छै महीने के लिए नालंदा चला जाता हैं। एक बार एक पारसीक भिक्षु ने बतलाया कि उनके देश में मज्दक नाम का एक विद्वान् कुछ ही समय पहले हुआ था, जिसने एक प्रकार के संघवाद का प्रचार किया था। बुद्ध ने भी भिक्षुणियों के लिए एक तरह के संघवाद का–जहाँ तक सम्पत्ति का सवाल है--उपदेश किया, किन्तु वह संघवाद अब सिर्फ विनयपिटक में पढ़ने के लिए है। आज तो बड़ी-बड़ी वैयक्तिक (पौद्गलिक) सम्पति रखने वाले भिक्षु हैं। आचार्य मज्दक ब्रह्मचर्य और भिक्षुवाद को नहीं मानता था। वह मानव के प्रकृत जीवन-प्रेमी-प्रेमिका, पुत्र-पौत्र के जीवन-को ही मानता था, किन्तु कहता था कि सारी बुराइयों की जड़ 'मैं' और 'मेरापन' है। उसने कहा-'सम्पत्ति अलग नहीं होनी चाहिए; सब मिलकर कमाएँ, सब मिलकर खाएँ। पति-पत्नी अलग नहीं होने चाहिए, प्रेम स्वेच्छा पर रहे और संतान सबकी सम्मिलित मानी जाय, वह प्राणी-दया और संयम की भी शिक्षा देता था। मुझे उसके विचार सुन्दर मालूम हुए। जब मैंने सुना कि मज्दक और उसके लाखों अनुयायियों को मार कर एक पारसीक राजा–नौशेरवाँ—ने न्यायमूर्ति की उपाधि धारण की है, तो मुझे मालूम हो गया कि जब तक राजा रहेंगे, तब तक धर्म और उसके दान-पुण्य से जीने वाले श्रमण-ब्राह्मण रहेंगे, तब तक पृथ्वी स्वर्ग नहीं बन पायेगी।

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